कभी कुछ माँगा नहीं
अंजना वर्मापृथ्वी को नाचने दो
अपनी पूरी गति से
रोको नहीं
टोको नहीं
बादलों को बजाने दो ढोल
गाने दो हवाओं को
नदियों को
पंछियों, झींगुरों और
इनके जैसे असंख्य प्राणियों को
अलापने दो सृजन का राग
इस शाश्वत नृत्य-संगीत में
कोई व्यवधान उपस्थित न करो
वसुंधरा अथक नर्तकी है
जो अपने जन्म से ही नाच रही है
उसके घुँघरुओं की लय में बँधी
यह सारी सृष्टि थिरक रही है
तुम उसके नृत्य की
एक भंगिमा-भर हो
या एक तत्कार-भर
यह क्यों भूल गए तुम?
कि तुम उसीके साथ
कर रहे हो षड्यंत्र?
जो एक पैर की ठोकर से
तुम्हे प्रकट करती है
और दूसरी ठोकर से
तुम्हे विलीन कर देती है
तुम रोज़ तोड़ रहे हो पहाड़ों को
अस्तित्व ख़त्म कर रहे हो उनका
निंदाये जंगलों को
कर रहे हो बेचैन
उनकी दुनिया में भर रहे हो कोलाहल
मासूम प्राणियों की बस्तियाँ
उजाड़ रहे हो
पेड़ों को काटकर
लाखों-करोड़ों पंछियों, गिलहरियों
और बंदरों को
कर रहे हो बेघर
तुम जिसे जंगल कहते हो
वह जंगल नहीं
प्यारा घर है कितनों का
पूछो वनचरों से
जो निवास करते हैं उनमें
वे आज मारे-मारे फिर रहे हैं
उजड़ गयी हैं उनकी बस्तियाँ
कहाँ जायें वे
तुम नहीं हो विधाता
तुम्हारी बनायी नहीं है यह दुनिया
जो साँसें देती है तुम्हें
तुम निर्भर हो जिस पर
उस प्रकृति को
कभी समझने की कोशिश करना
कि उसकी गोद सबके लिए है
तुम एक कोरस गा रहे हो
यही गाना है तुम्हें
तुम एक समूह नृत्य कर रहे हो
इसीको झूमकर करो
तुम कर्ज़दार हो
अनगिनतों के
किसी दिन इत्मीनान से बैठकर
हिसाब करना
कि किसने तुम्हें
क्या-क्या दिया ?
तुम उऋण नहीं हो पाओगे
क़र्ज़ इतना निकलेगा
और सबका निकलेगा
एक मधुमक्खी
और एक दूब तक का
पर इन सबने तुमसे
कभी कुछ माँगा नहीं
कम-से-कम
एहसास तो हो तुम्हें
कि ये सब तुम्हारे अपने हैं
अब से
इनके ख़िलाफ़ क़दम उठाने से पहले
सोचना ज़रूर