गौरैया
अंजना वर्मादिखती नहीं है घर-आंँगन में
छज्जे पर गौरैया
बाग़-बग़ीचे हुए हैं सूने
सूनी लगे मड़ैया
उसके साथ बहुत अपनापन
भरा हुआ रिश्ता था
धूप में पसरे चावल का बस
दो दाना उसका था
बच्चों की टोकरियों में वह
अक़्सर फँस जाती थी
घर-घर में वह नीड़ बनाने
को तिनके लाती थी
वे बातें इतिहास बनी हैं
क्यों? बोलो अब भैया?
सुबह गुलाबी होते झाँझर
जैसा बजता आँगन
होने लगती नींबू-अमरुदों
पर चुनमुन-चुनमुन
अँधेरी कोठरियाँ बोली
से रोशन रहती थीं
गौरैया जब रोशनदानों
में कलरव करती थी
जीवन का संगीत सुनाया
करती थी गौरैया
काट-काटकर हरियाली जो
हमने नगर बनाए
ईंट-पत्थरों के जंगल में
पंछी ना रह पाए
घास-फूस तिनकों की कोई
जगह नहीं है घर में
नहीं साथ चल पाए पाखी
इस बेसुरे सफ़र में
भीड़-शोर की माया नगरी
में ना शीतल छैंया
दिखती नहीं है घर-आँगन में
छज्जे पर गौरैया
घटती ही जाती है इनकी
दिन-पर-दिन आबादी
क्यों हम छीना करते खग की
जीने की आज़ादी?
चला जा रहा जग से मिटता
इनका ठौर-ठिकाना
मानव ने साधा निसर्ग पर
कैसा कड़ा निशाना
बस मानव ही बचेगा जबकि
ऐसा रहा रवैया
दिखती नहीं है घर-आंगन में
छज्जे पर गौरैया