संवेदनशील बेटी
भगवती सक्सेना गौड़वीणा ने अमन से कहा, “मम्मी का कल फोन आया था, एक बार आ जाओ, तबियत ठीक नहीं रहती, पता नहीं कब बुलावा आ जाए।”
“अचानक कैसे जाओगी, बुज़ुर्ग हैं, बीमारी तो चलती ही रहती है। यहाँ रहते तीस वर्ष हो गए, अभी भी याद वहीं की करती हो। कुछ दिन बाद जाना, फ़्लाइट का टिकट भी महँगा है।”
रवीना बेटी और दामाद घर में थे, और रवीना ने माँ के दिल की संवेदना को महसूस किया। सोच में पड़ गयी, उसकी मम्मी ने अपना पूरा जीवन मकान को घर बनाने में स्वाहा कर दिया। सारी डिग्रियाँ अलमारी से उसे मुँह चिढ़ाती रहीं, कई स्पोर्ट्स के पदक भी घर गृहस्थी में खेल खिलाते रहे, पर आज भी उनको आज़ादी नहीं मिली; घर में हुकूमत उसके पापा की ही चलती रही। क्यों, क्या आज़ादी का अमृत महोत्सव भी उसकी मम्मी को आज़ाद रूप से फ़ैसला नहीं लेने देगा?
पापा से बोली, “एक बेटी से आप सदा उम्मीद करते हैं कि वो अपने पापा का हर क़दम पर, बीमारी में, हर कष्ट में साथ दे। और दूसरी बेटी की भावनाएँ नहीं समझने की कोशिश करते; माँ भी तो नानी, नाना की बेटी है। वो अलग बात है कि आपने मुझ पर अपना समय और ख़र्च करके मुझे मज़बूत और अपने पैरों पर खड़े होने लायक़ बनाया। माँ ने भी तो पूरे जीवन की आहुति इस घर को दी है, व्यवस्था करती रही, अभी तक परिवार के लिए एक लाख से अधिक रोटियाँ बनाई होंगी। आप स्वतंत्र और निश्चिन्त होकर बाहर का मोर्चा सँभालें, इस कारण घर की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ली। आपकी जो भी पेंशन या एफ़डी है, सबकी वो हिस्सेदार हैं। माफ़ करना, पापा मैंने कुछ ग़लत कहा क्या?”
“बस, बस बेटा, इतनी गहराई से तो कभी सोचा ही नहीं, अभी फ़्लाइट टिकट बुक कराता हूँ, दो दिन में हम दोनों जाएँगे।”
“ये हुई न बात, अभी आपके लिए चाय बनाती हूँ।”