ओल्ड इज़ गोल्ड

15-08-2022

ओल्ड इज़ गोल्ड

भगवती सक्सेना गौड़ (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

सुबह के व़क़्त रोज़ की तरह रवीना ब्रेकफ़ास्ट बनाने में व्यस्त थी, राजन तैयार हो गए थे और ड्रॉइंगरूम में किसी से मोबाइल पर बात कर रहे थे। हर काम का उनका निश्चित समय होता था, पल भर की भी देरी उन्हें बर्दाश्त नहींं है। पेपर पढ़ते-पढ़ते वे नाश्ता करते हैं और बिना कुछ कहे कार की चाबी उठा ऑफ़िस के लिए निकल जाते हैं। आज उसी वक़्त बोले, “सुनो, रवीना, मेरे ऑफ़िस के कुछ कलीग और बॉस घर आने वाले हैं, कुछ बढ़िया मॉडर्न डिशेस बना लेना। अक्षय बेटे से मैंने घर भी ठीक करने कहा है।”

ज़्यादा कुछ मॉडर्न डिशेस रवीना को बनाने की प्रैक्टिस नहीं थी, जानती सब थी। जिसमें वो पारंगत थी, वो सब बना लिया, जैसे दही-बड़े, उरद डाल की कचौरी, सांभर बड़े, बस अटक गई पिज़्ज़ा बनाने में, फिर ध्यान आया, चलो अक्षय से कहती हूँ, जोमाटो से ऑर्डर कर दे।

बोलने गयी तो नज़र पड़ी, वो अलमारी से उसकी पसंदीदा किताबें, जो उसने बरसों से जमा कर रखीं थीं, उसमें कई नेताओं की जीवनी, महान उपन्यासकारों की किताबें सब कबाड़ को देने के लिए निकालीं थीं। 

वो ज़ोर से बोल पड़ी, “ये क्या कर रहे हो?” 

अक्षय बोला, “क्या मम्मी, ये हिंदी में लिखी पुरानी किताबें आजकल कौन पढ़ता है, आपके पास भी कहाँ समय है, बेकार में अलमारी भरी है, ये सब आउटडेटेड हो चुके हैं, इसकी जगह लेटेस्ट अँग्रेज़ी के नोवेल्स सजाने हैं, उससे पापा की इज़्ज़त बढ़ेगी।” 

“रखो इन्हें अंदर, ये सब क्लासिक्स हैं। इतने बरसों में तो ये उपन्यास और कहानी संग्रह इकट्ठे किए हैं मैंने। नेहरू, गाँधी, विवेकानंद की ऑटोबायोग्राफ़ी या गीता, उपनिषद् जैसे ग्रंथ कभी आउटडेटेड नहींं होंगे।” उसे लग रहा था कि जैसे चुनौतियों के पहाड़ उसे घेरे खड़े हैं। सामने एक प्रतिद्वंद्वी की तरह उसका बीस वर्षीय बेटा खड़ा है, जो नई पीढ़ी के होने का दंभ लिए उसके मूल्यों व सरोकारों को परास्त करने पर आमादा है। 

“ओह! कम ऑन ममा, ग्रो अप। बेशक आप अपने टाइम के हिसाब से बहुत एजुकेटेड और स्मार्ट हैं, पर फिर भी आज के समय के अनुसार तो आउटडेटेड हो ही गई हैं। पापा को देखो, वे जानते हैं समय के साथ चलना।” 

बोलकर वो वह धम्म् से पलंग पर आकर बैठ गई। पुराने हो गए पलंग से किर्र की आवाज़ आई। यह भी उसकी तरह आउटडेटेड हो गया है। उसकी शादी का पलंग है। पापा ने बहुत चाव से शीशम की लकड़ी का बनवाया। 

अचानक ज़ोर से अक्षय को बोल पड़ी, “जो किताब जहाँ रखी थी, वहीं रख दो, बाद में बात करती हूँ।” 

उसके शब्दों की रिक्तता और आँखों में आई नमी ही थी, जो अक्षय को चुप करा गयी। 

शाम को मेहमानों की ख़ातिर ऊपरी तौर से तो मुखड़ा सजा लिया, पर मन उद्विग्न था। बनावटी मुस्कान लिए पूरा नाश्ते के टेबल खचाखच विभिन्न व्यंजनों से भरा था। 

तभी बॉस मिस्टर जोन्स बोले, “वाओ, राजन, योर वाइफ़ इज़ वेरी टैलेंटेड वुमन, इतने तरह के डिशेस, जल्दी लाओ यार, भूख लग गयी।” 

सब लोग एक के बाद एक व्यंजनों का स्वाद ले रहे थे, और बाहर से मँगाया पिज़्ज़ा मुँह ताक रहा था, दही बड़े, फरे और कचौड़ी मुस्कुरा रहे थे, क्योंकि आज उनकी वैल्यू बढ़ गयी थी। 

“राजन, बाहर पिज़्ज़ा खाकर मन भर गया था, आज भाभीजी ने कई दिनों बाद भारतीय डिशेस के दर्शन कराए, धन्यवाद, भाभीजी।” 

खाने के बाद सबकी नज़र किताबों पर पड़ी, और एक साहब बोल पड़े, “वाह क्या कलेक्शन है, मैं यही बहुत दिन से ढूँढ़ रहा था।” और वो डॉ. धर्मदेव भारती की किताब खोलकर बैठ गये। 

“सुनो, राजन, प्लीज़ ये किताब मैं दो दिन के लिए ले जाऊँ क्या? कई दिन बाद दिखी, मुझे पढ़नी है।” 

“भाभीजी का खाने का और पढ़ने का दोनों शौक़ ‘यूनिक’ है।” 

अँग्रेज़ी के उपन्यास छुप कर देख रहे थे, कोई हमारी भी तारीफ़ करे। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
कविता
लघुकथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में