खिलखिलाती ज़िन्दगी

01-07-2022

खिलखिलाती ज़िन्दगी

भगवती सक्सेना गौड़ (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

आज पार्क में शाम को अपनी सखी मालिनी को देखकर मन प्रसन्न हुआ। सोसाइटी में वो है पाँच वर्षों से, पर छह महीने यहाँ पर और आधे वर्ष छोटे बेटे के घर में रहती है। 

मुझे अंदाज़ था आज तो सब सखियों की मस्त महफ़िल जमेगी, कोई कोई शख़्स अपने साथ अपने चारों ओर पॉज़िटिव औरा लेकर आते हैं, उसमेंं से एक मालिनी थी। 

एक अनजान सी बच्ची वहाँ थोड़ी दूर पर अकेली बैठी थी, मालिनी पहुँच गयी और बोली, “हाई, बेबी, तुम कितनी क्यूट हो, नाम क्या है तुम्हारा?” 

वो खिलखिला पड़ी, “आंटी, मैं रानू, आप भी बहुत अच्छे हो,” और उसकी आँखों में इंद्रधनुषी रंग बिखर गए।

फिर हमारी महफ़िल जमी, राउंड टेबल कॉन्फ़्रेंस में सीनियर सिटीज़न महिलाओं की गपशप शुरू हुई। कभी गाने, कभी कवितायें, कभी लोकगीत जिसको जो भाया, वो भी शुरू हो गया। 

बातों-बातों में मालिनी सब का हाल लेने लगी। 

रीना से पूछा, “और सिलाई कैसी चल रही है, इलेक्ट्रॉनिक मशीन से काम बढ़िया चल रहा होगा।”

और सच में रीना की आँखों में एक सुखद अहसास जगा, “हाँ, सही में दीदी, आपका आइडिया बहुत काम आया, कोरोना के समय मैं घबरा ही गयी थी। धन्यवाद बोलूँ क्या?” 

“नहीं रे, तुम सबकी हँसी देखकर ही, मेरा मन खिल जाता है।”

फिर मोबाइल में फ़ेसबुक खोलकर बैठ गयी, सबसे बात करते हुए, फ़ेसबुक में भी अपनी सब सखियों की पोस्ट पर लाइक्स और कमैंट्स की बरसात करने लगी। 

दूर से आती एक आंटी को देख कूद कर भागी, “नमस्ते, आंटी, अरे वाह, आपने तो बहुत वेट लॉस किया है, बिल्कुल स्लिम हो गए, बताओ न मुझे भी।”

और वो आंटी ज़ोर से खिलखिलाई, “सुनोगी तुम्हारे कारण कई दिनों बाद मैं हँसी हूँ, सारे लोग मुझे पुरानी फ़िल्मों की कुमकुम से तुलना करने लगे थे, तुम कितनी अच्छी हो, कहीं मत जाया करो।” 

अँधेरा होने पर मालिनी और मैं चल दिये अपने फ़्लैट की ओर, तभी देखा एक डॉग एक बुर्जुग को काटने को दौड़ रहा, और वो घबरा रहे थे। उन्हें पीछे करके मालिनी ने एक प्यारे से ढंग से कैसी आवाज़ निकाली कि वो बला आसानी से टल गयी। 

अब ये बुज़ुर्ग भी उससे बोले, “धन्यवाद बेटा, आप नहीं आती, तो पता नहीं क्या होता।”

“कुछ नहीं होता, अंकल, ज़ोर से हँसते हुए मुझे आशीर्वाद दीजिए।”

हम दोनों लिफ़्ट में दो फ़्लोर आगे ही पहुँचे, तो धम्म से लिफ़्ट रुक गयी, पता चला, लाइट ऑफ़ हुई, पाँच मिनट लिफ़्ट रुकी रही, मुझे तो पसीने आने लगे। 

तभी मालिनी ने एक गाना शुरू किया, ‘जो डर गया वो मर गया’। 

तभी लिफ़्ट चल पड़ी, हम ज़ोर से खिलखिला पड़े। 

जैसे ही लिफ़्ट से बाहर निकले, उसका बेटा खड़ा था, “अरे मम्मी जल्दी आओ, डॉक्टर का अपॉइंटमेंट है, कीमोथेरेपी का।”

मैंने आश्चर्य से पूछा, “किसका?”

“अरे मत घबड़ाओ, मेरा ही है।”

और मैं उस मालिनी का चेहरा देखती ही रह गयी। 

घर पहुँची तो श्रीमान जी बोल पड़े, “कहाँ रहती हो, इतनी देर लगा दी, चाय भी नहीं मिली।

“बहू आकर सात वर्षीय मानू को पकड़ा गयी, मेरी मीटिंग है, सम्हालिये।” 

जल्दी से किचन में जाकर चाय चढ़ाई। मन की दुनिया मालिनी के अहसासों में खोई थी, कितना सुकून मिलता होगा, सबको हँसाती रहती है, अपनी पीड़ा, कष्ट, बीमारी, कलह सब भूलकर हम सब उसमें खो जाते हैं। 

तभी लगा चाय बहुत उबल चुकी है, ध्यान आया, जितना पकेगी उतनी ही स्वादिष्ट बनेगी, वैसे ही ज़िन्दगी में खिलखिलाना भी बहुत ज़रूरी है। 
 

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