नायाब तोहफ़ा
भगवती सक्सेना गौड़
यशवंत बाबू अपने बेटे से मिलने अमेरिका जा रहे थे। बहू का फोन आया, “पापा आप कोई ऐसा तोहफ़ा लाना जिससे आपके बेटे को सबसे ज़्यादा लगाव हो।” उन्हें कभी लकड़ी की तीन पट्टी की साइकिल कभी लट्टू और कभी पुरानी किताबें नज़र आतीं। पत्नी हर चीज़ को देखकर कहती, “नहीं ये सही तोहफ़ा नहीं है।”
वो घबराकर बोले, “मुझे कुछ याद नहीं आ रहा, तुम ही सोच-समझकर जो ठीक लगे, ले लेना। मैं तो दिन भर खेतों में काम करता था, मुझे उसकी पसंद कहाँ याद है।”
अगले दिन विदेश जाने की सारी तैयारी हो गई, नहीं चाहते हुए भी वो पत्नी से पूछ बैठे, “नंदू का सबसे प्रिय सामान रख लिया?” उनकी पत्नी ने हाँ में सिर हिलाया।
एयरपोर्ट से घर पँहुच कर बहू को ख़ूबसूरत अपने हाथों से कढ़ाई की हुई कमीज़ सलवार दी। पोते को रंगीन और सुंदर मनी बैंक दिया। अब अक्षय की बारी थी।
“बाबूजी मेरा तोहफ़ा कहाँ है?”
वे बोले, “तेरे खिलौने और तेरी यादों से तो पूरा घर भरा है। समझ में नहीं आ रहा था कि तुम्हें सबसे ज़्यादा क्या पसंद था?”
तभी उस की माँ पूछ बैठी, “बताओ . . . तुम्हारी यादों में सबसे प्यारा और अनोखा क्या था?”
अक्षय बोला, “माँ शायद तुम्हें याद नहीं पर जब मुझे कंधे पर बाबूजी स्कूल ले जाते थे और लेकर आते थे तो आते-आते रात हो जाया करती थी। और मुझे टास्क मिलता था तो मैं बनाकर नहीं ले जाता था। क्योंकि उस समय घर में एक ही लालटेन थी, जो बाबूजी खलिहान में रखते थे, और घर आते समय घर लेकर आते, और उसकी रोशनी में हम लोग बैठकर खाना खाते थे।
“एक दिन मैंने तुम्हारे दवा की शीशी से दीया बनाया . . . और फिर उस दिन से मेरी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आई। मुझे, वह दीया सिर्फ़ दीया नहीं, हमारे हौसले और सफलता का चिराग़ लगता था। और सच में आज मैं जो कुछ भी हूँ, उस दीये के कारण . . .”
तभी माँ ने वह दीया अपने बैग से निकाल कर टेबल पर रख दिया। अक्षय ने दौड़कर उसे जलाया, और घर की सारी लाइट बुझा दी। ये था नायाब तोहफ़ा . . .