परख

भगवती सक्सेना गौड़ (अंक: 215, अक्टूबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

हरीतिमा से अचानक मेट्रो में उसकी पुरानी सखी मिल गयी। पहले तो दोनों ध्यान से देखकर पहचानने की कोशिश करती रही फिर, रवीना ने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “हरीतिमा हो ना, मेरी आँखें धोखा नहीं खा सकती।”

“सही पहचाना, कैसी हो।”

“बढ़िया।”

रवीना ने कहा, “मैं तो कॉलेज जा रही हूँ, प्रोफ़ेसर हूँ तुम कहाँ जा रही हो?”

हरीतिमा ने इशारे से एक युवक की ओर इशारा किया, “मेरे हस्बैंड हैं, बाज़ार जाना है।” 

दोनों सखियों ने मोबाइल नंबर का आदान-प्रदान किया। 

दूसरे दिन से फोन में घंटों नई पुरानी बातों का सिलसिला चलने लगा। 

एक दिन दोनों ने रेस्टॉरेंट में लंच का प्रोग्राम बनाया और पहुँच गयीं। 

हरीतिमा ने पूछा, “घर में कौन-कौन है?” 

रवीना बोली, “कोई नहीं, पिछले साल ही मम्मी नहीं रही, पापा पाँच वर्ष पहले हमें अकेला छोड़ गए थे।”

“शादी नहीं की क्या? 

“नहीं यार, उम्मीदवार तो बहुत आये, कभी मैंने मना कर दिया, कभी उधर से संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। मुझमें क्या कमी थी जो मैं समझौता करती। पूरे अर्धशतक की उम्र हो गयी, अभी तक दिल की बातें खुलकर किसी से नहीं कीं। आज कोशिश करती हूँ। अब सुनो—

“चाय नाश्ता ट्रे में सजाकर, कई बार मुझे भेजा गया। खाना बनाना आता है, सिलाई आती है, घर-गृहस्थी की कई बातें पूछी गयीं, बस यही नहीं पूछा गया, स्नातक में कौन सा डिवीज़न आया, नौकरी करना चाहती हो या नहीं? 

“मैंने जाना कि स्भी लोगों को अपने मन लायक़ दुलहन चाहिए, किसी ने नहीं सोचा, लड़की को कैसा दूल्हा चाहिए। 

“सारा शौक़, सारी प्रतिभा रसोई के चूल्हे में जला दो, आपके क्या शौक़ हैं उससे लोगों को कोई मतलब नहीं, मैंने हमेशा मम्मी को भी यही सब झेलते देखा। वहाँ किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। मुझे हमेशा लगा जैसे मम्मी उम्र क़ैद झेल रही हैं, बहुत कम खिलखिलाती थीं, कोई जोक सुनकर भी हल्का सा मुस्कुरा देतीं। 

“कुछ वर्षों के बाद जानती हो हरीतिमा, मैंने डॉक्टरेट की उपाधि पायी, कॉलेज में प्रोफ़ेसर बन गयी। उसके बाद मैंने ही हर लड़के में नुक़्स निकालना शुरू कर दिया। मेरा मन शादी से उचट गया, मैंने विद्याथियों में अपना सर्वस्व डुबो दिया, अपने आप को इतना थका डाला, कि बिस्तर पर गिरते ही नींद घेर लेती है। तुम बताओ कैसा चल रहा है, घर परिवार?” 

हरीतिमा ने कहा, “ज्यादा नहीं कहूँगी, परिवार के मन से चलो तो रानी, अपने मन को टटोलती हूँ तो उम्र क़ैद। हाँ, तीस वर्ष बाद अब बदलाव ज़रूर आ रहा है, मेरी बेटी ने पहले ही बोल दिया, मैं कोई वस्तु नहीं हूँ, जिसे सामने बैठा कर परखा जाए। कहीं आते-जाते जिसको देखना है, देख ले, और जिसके साथ ज़िन्दगी बिताना है, उससे पहले मैं भी दो-चार बार मिलना चाहूँगी।” 

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