कर्मठता
भगवती सक्सेना गौड़
अक्षरा के घर में एक माह पूर्व ही नयी मेड ने काम शुरू किया था, रुक्मिणी नाम था। बहुत साधारण सी, सीधे साधे साफ़ कपड़ो में बहुत मेहनत से काम करती थी। उसकी उदासी देखकर अक्षरा अक़्सर बचा-खुचा खाना भी दे देती, कभी वहीं खा लेती या ले जाती। पर हाँ नष्ट नहीं करती।
आज अचानक अक्षरा पूछ बैठी, “कितने बच्चे हैं, पति क्या करते हैं।”
“अम्मा, एक बेटी है हमको, पति भी कई फ्लैट में कुकिंग करता।”
“तब तो बढ़िया है, तो इतना दुखी क्यों रहती हो, लगता रोज़ ही आँसू बहाती हो।”
“अम्मा, बेटी बहुत याद आती है, कोयम्बटूर में पढ़ने गयी है। मेडिकल का दूसरा वर्ष है, एक ही बेटी है, बहुत लाड़ प्यार से रखे हम।”
अक्षरा आश्चर्य चकित हो, उसका चेहरा देखती रह गयी। सोच में पड़ गयी, इतनी साधारण तरह से उसने अपनी असाधारण बेटी के बारे में बताया।
फिर वह बोली, “अम्मा, हम नहीं सोचे थे कि दूर भेजेंगे। एक बार कोई सहेली के कहने पर एंट्रेंस परीक्षा दी और पास करी, रैंक अच्छा आया, सरकारी मेडिकल कॉलेज में पहुँच गयी, पैसा बहुत ज्यादा नहीं लगता, फिर भी खर्चा आता है। हम दोनों जी तोड़ मेहनत करके सत्तर अस्सी हजार कमा लेते। पाँच, सात साल बीत जाए तो हमारी बेटी भी डॉक्टर बन जाएगी।”
वह बग़लें झाँक रही थी, और इज़्ज़तदार कई बड़े परिचितों को याद कर रही थी, जो बच्चोम को मेडिकल में भेजना चाहते थे, पर असमर्थ रहे।
एक मेड जो घर के काम और कुकिंग करके, सबुह से शाम तक सात घरों में छह हज़ार हरेक से लेकर, (और इतनी ही उसके पति की भी कमाई थी) 80 हज़ार तक कमा लेती थी, कर्मठ ही कहलाएगी। काम कोई भी छोटा, बड़ा नहीं होता, कुछ लोग नौकरी नहीं मिलने का रोना रोते हैं, और पूरा जीवन बेरोज़गारी में बीता देते हैं।
अक्षरा की नज़रों में आज से रुक्मिणी का स्तर बहुत ऊँचा हो गया था।
1 टिप्पणियाँ
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श्रम आज भी इज्जत का पारितोषिक नहीं ही पा सका.