साहित्य के अमर दीपस्तम्भ: श्री जयशंकर प्रसाद
डॉ. शैलजा सक्सेना
साहित्यमार्ग के प्रेमी पथिको,
यह मेरा अहोभाग्य है कि मुझे आपको दुनिया की सबसे प्राचीन जीवित नगरी पुण्य-भूमि काशी में रहने वाली एक महान विभूति के बारे में कुछ बताने का अवसर मिला है। माँ गंगा के पावन तट पर बसी इस नगरी ने न जाने कितने साहित्य रत्न, महान भक्त, वाद्य और सुरों पर अपनी मधुर स्वरी लहरी छेड़ने वाले संगीतज्ञ दिए हैं, उन असंख्य लोगों की गिनती बहुत कठिन है। उनमें से जिस एक महान विभूति के बारे में आज हम बात करने जा रहे हैं, वे हैं—छायावाद के स्थापक माने जाने वाले और उसके चार स्तंभों में से एक सुदृढ स्तम्भ—श्री जयशंकर प्रसाद जी! आज उनका जन्मदिन है। आज से १३३ वर्ष पूर्व १८८९ की ३० जनवरी को सुबह चार बजे उनका जन्म काशी की इसी धरती पर हुआ था और केवल अड़तालीस वर्ष की अल्पायु में, नवम्बर १५, १९३७ सुबह चार बजे ही वे काशी की इसी धरती से परलोक को प्रयाण कर गए। इस कम आयु में परिवार के दायित्व निबाहते हुए भी उन्होंने बहुत कुछ इतना गहरा, सुन्दर, विविध और उदात्त लिखा कि साहित्य के इतिहास में एक नये युग का प्रारंभ किया।
प्रसाद जी के व्यक्तित्व और उनके विशाल लेखन संसार को समझना आसान काम नहीं। उनके लेखन का विशाल भवन या प्रासाद ऐसा है जहाँ लेखक के भाव किसी एक धारा या विधा पर आधारित नहीं और न ही एक-सा संदेश या भावभूमि है, बहुत विविधता है यहाँ! इस विशालकाय भवन में ८ कविता संग्रह और एक महाकाव्यात्मक निधि: कामायनी, ५ कहानी संग्रह, १३ पूर्ण और एक अपूर्ण नाटक, तीन उपन्यास और अनेक लेख हैं जो अपनी विभिन्न भावनिधियों, ऐतिहासिक दृश्यों, प्रेम के सुन्दर चित्रों से पाठकों के मन के पैर थाम लेते हैं, इस प्रासाद में ‘प्रसाद’ जी के जीवन दर्शन की उदात्त सांस्कृतिक धारा का बहता शांत जल है तो देश-प्रेम के उत्तुंग शिखर हैं, इसकी दीवारों पर स्त्री-मनोभावों की सूक्ष्म नक़्क़ाशी है तो पुरुष हृदय के आलोड़न और परिवर्तन की विशाल मूर्तियाँ भी हैं, अब ऐसे प्रासाद में भला कौन सहृदय सब कुछ भूल कर कुछ देर बैठना न चाहेगा? वे तो कहते भी हैं:
तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन।
विकल होकर नित्य चंचल, खोजती जब नींद के पल
चेतना थक सी रही तब, मैं मलय की बात रे मन!
तो चलिए, आज साहित्य के इस महर्षि के लेखन प्रासाद में कुछ समय बिताते हैं और अपनी चेतना को उनके भाव-रत्नों से समृद्ध बनाते हैं लेकिन इस भवन तक पहुँचने के लिए आपको उनके जीवन की उस गली तक पहले चलना होगा जहाँ से प्रसाद जी का जीवन शुरू हुआ था।
यह गली जो आप देख रहे हैं न जिसके बाहर एक छोटे से पट्ट पर जयशंकर प्रसाद, सुँघनी साहू लिखा है वह गली सरायगोवर्धन मोहल्ले को जाती है जहाँ प्रसाद जी का जन्म हुआ था। विशाल कोठी हुआ करती थी, आज भी लगभग दो एकड़ के क्षेत्र में ‘प्रसाद भवन’ न्यास है। यहाँ रहते थे, शहर के सबसे धनी, काशी नरेश के बाद काशी की जनता से प्रेम और सम्मान पाने वाले—उनके बाबा बाबू शिवरतन साहू और पिता बाबू देवीप्रसाद जी! दोनों ही बहुत दानी थे। सुँघनी का विशाल व्यापार था। इन्हीं बाबू देवीप्रसाद जी और मुन्नी देवी के पुत्र थे जयशंकर प्रसाद जी, पर भाग्य का खेल देखिए, मात्र ११ वर्ष के थे कि पिता का देहान्त हो गया, १५ वर्ष के हुए तो माता का देहान्त हो गया। बड़े भाई-भाभी ने व्यापार और घर सँभाला पर इन्हें भी अपनी स्कूली शिक्षा सातवीं के बाद रोक कर व्यापार में हाथ बँटाने के लिए भाई के साथ काम करना पड़ा। लेकिन दुर्भाग्य अभी समाप्त न हुआ था। मात्र १७ वर्ष के थे तो पिता समान भाई की मृत्यु हो गई। बड़ा व्यापार हो और सँभालने वाला कच्ची उमर का हो तो क्या होता है? हम सभी जानते हैं। विधवा भाभी और छोटी उम्र के प्रसाद जी के आसपास रिश्तेदारों, कर्ज़दारों और धन हड़पने वालों की भीड़ जुट गई। आप उनकी आर्थिक स्थिति को इस प्रकार समझ सकते हैं कि बताया जाता है कि जब बाबू देवी प्रसाद जी का देहांत हुआ था तब उन पर एक लाख रुपया कर्ज़ा था। कहा जाता है कि ‘कहाँ तो दरवाज़े हाथी बँधते थे और कहाँ . . . ’ पर प्रसाद जी ने हार नहीं मानी। अपने दायित्व को समझा और कमर कस के जुट गए व्यापार सँभालने में। सामान बिके पर सम्मान नहीं जाने दिया, आर्थिक संकट झेला पर धर्म के मार्ग से न डोले और धीरे-धीरे करके इस डोलती नाव को वे भँवर से निकाल पाए।
घर पर ही इनकी पढ़ाई भी चलती रही। संस्कृत सीखने के लिए तीन उद्भट विद्वान इनके गुरु बने- मोहिनीलाल गुप्त ‘रसमय सिद्ध’ जी, गोपाल बाबा और श्री दीनबंधु बह्मचारी! इनके माध्यम से वैदिक संस्कृत, पुराणों आदि का पूरा ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया। उनके इतिहास, पुराण और प्रांजल भाषा के पीछे इन प्राध्यापकों के अतिरिक्त उनके काव्य गुरु कहे जाने वाले महामहोपाध्याय पं. देवीप्रसाद शुक्ल कवि-चक्रवर्ती की प्रेरणा भी कही जा सकती है। नौ वर्ष के थे तो कवित्त लिखने का शौक प्रारंभ हो गया था। बही के काग़ज़ों के पीछे कवित्तों की बढ़ती संख्या पर भाई से डाँट पड़ी तो ‘कलाधर’ नाम से लिखने लगे। पहली कविता ‘सावक पंचक’ १९०६ में ‘भारतेंदु’ पत्रिका में छपी। और इस तरह उनकी लेखन यात्रा चल पड़ी और फिर अनेक विधाओं में वे लिखते चले गए और प्रकाशित होते गए।
आइये अब चलें और देखे इस विशाल साहित्य प्रासाद के भीतर, जिसमें अनेक भव्य कक्ष हैं! इसका पहला कक्ष है काव्य का। उनके काव्य में प्रकृति है—‘बीती विभावरी जाग री’ जैसा भोर का सुन्दर राग है तो जगह-जगह यह सदिच्छा दिखाई देती है:
“सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में।
बरसो प्रभात हिमकन-सा
आँसू इस विश्व सदन में॥” (आँसू)
कहीं दर्शन है:
“माना जीवन वेदी परपरिणय हो विरह मिलन का।
दुख-सुख दोनों नाचेंगे
है खेल आँख का मन का॥”
और कहीं कोलाहल से भरी अवनी को छोड़ कर कुछ देर शांति की जगह जाने की चाह भी है:
“ले चल मुझे भुलावा देकर
मेरे नाविक! धीरे-धीरे”
उनकी इस कविता को पलायनवादी मान कर उन पर आरोप लगाने वालों ने बहुत शोर मचाया। वे भूल गए कि प्रसाद जी ने ही यह गीत भी लिखा है:
“हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती
अमृत्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ हो, बढ़े चलो,बढ़े चलो”
प्रसाद जी की अनेक कविताएँ वेदना से भीगी हैं। प्रेम की चाह है पर प्राप्ति नहीं। उनके निजी जीवन में प्रेम का स्थायित्व नहीं हो पाया। पहली पत्नी विंध्यवासिनी देवी आठ वर्ष बाद क्षय रोग से ग्रस्त होकर गईं, साल भर बाद २७ वर्ष की आयु में पुनः विवाह किया तो सरस्वती देवी दो वर्ष बाद प्रसूति के समय क्षय रोग से ईहलीला समाप्त कर गईं। भाभी के आग्रह से तीसरी बार विवाह किया। कमलादेवी और जयशंकर प्रसाद जी का यह साथ प्रसाद जी के अंत तक, क्षय रोग से जाने तक चला। इन्हीं के साथ उन्हें इकलौती संतान रत्नशंकर की प्राप्ति हुई। भाग्य के मिलन-विरह के इस खेल पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है, एक बानगी देखिए:
“अरे कहीं देखा है तुमने
मुझे प्यार करने वालों को?
मेरी आँखों में आकर आँसू बन ढरने वालों को?”
मुक्तिबोध लिखते हैं: “प्रसाद जी वस्तुत: अन्तर्मुख कवि हैं। वे भावों को इस प्रकार अनुभूत करते हैं, इस तरह पहचानते हैं, जैसे हम अपने घर की भीत, टेबिल, दवात, छड़ी आदि वस्तुएँ अच्छी तरह जानते हैं। भाव मानव-प्रसंगों के बीच पैदा होते हैं। जिस प्रकार मानव-प्रसंग उलझे हुए होते हैं, उस तरह भाव भी। भाव चाहें जितने ग्रंथिल क्यों न हों, प्रसाद में ऐसी विश्लेषणप्रधान मर्म-दृष्टि थी कि जो उन भावों को, सारी जटिलता और समग्रता के साथ, किंतु फिर भी जहाँ तक बने वहाँ तक सरलीकृत रूप में, विश्लेषित और संश्लेषित रूप में चित्रित करती थी” (मुक्तिबोध ग्रंथावली- भाग ५, पृष्ठ-४४८)
अब इसी कक्ष के भीतर बने इस विशाल प्रसाद को देखिए। इसका नाम है,“कामायनी”—हिंदी साहित्य का एक अमर ग्रंथ। जानते हैं तुलसी बाबा की रामचरित मानस के बाद अगर हिंदी साहित्य में किसी और ग्रंथ की मीमांसा हुई है तो वह है यही “कामायनी” जिसपर केवल दिल्ली विश्वविद्यालय से ही लगभग डेढ़ सौ से ऊपर शोध कार्य हो चुके हैं और अब भी शोध की जाने कितनी संभावनाएँ इसमें हैं। मनु, श्रद्धा और इड़ा की यह कहानी उसी तरह अनेक पर्तों को अपने में समेटे है जिसकी ओर मुक्तिबोध ने संकेत किया था। हिंदी के लगभग सभी कवियों और आलोचकों ने कामायनी पर लिखा है और लगभग सब की राय अलग-अलग है जैसे—डॉ. नगेन्द्र इसमें ‘महाकाव्यात्मकता’ देखते हैं तो दिनकर जी ने लेख लिखा—‘कामायनी- दोषरहित-दूषण सहित’, आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी इसमें ‘काव्य और मनोविज्ञान का संगम’ देखते हैं और मुक्तिबोध इसे ‘आधुनिक युग की वृत्तियों को प्रस्तुत करने वाली फ़ैंटेसी’ के रूप में देखते हैं। पंत जी इसके कथ्य को ‘दर्शन प्रस्तुति के लिए रंगमंच’ मानते हैं और यह दर्शन था—शैव दर्शन का महत्वपूर्ण भाग—प्रत्यभिज्ञा दर्शन!
“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष, भीगे नयनों से,
देख रहा था प्रलय प्रवाह”
आप भी इस विशद काव्य की छाया में बैठ कर सोचिएगा कि आप इसे क्या मानते हैं? क्योंकि जब तक साहित्य प्रेमी रहेंगे, ‘कामायनी’ पर चर्चाएँ चलती रहेंगी। पर काव्य के इस कक्ष से पूरी तरह बाहर निकलने से पहले इस दीवार पर देखिए—प्रसाद जी काव्य के संबंध में क्या लिख गए हैं:
“काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है।“ कह सकते हैं कि प्रसाद जी काव्य को शिव, सुन्दर, सत्य और चारु बना कर ही ग्राह्य मानते थे।
अगला कक्ष है नाटकों का। इस कक्ष के भीतर आपको ऐतिहासिक कहानियों की आधारभूमि मिलेगी, इस कक्ष का चंदोबा राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के सुनहरे तारों से बना है। हमारे देशप्रेम और मानवीय चेतना को जगाने वाले पात्र मिलेंगे, ध्रुवस्वामिनी जैसी स्वाभिमानी, साहसी स्त्री पात्र स्वाभिमान का शंखनाद करते दिखेंगे। कविता में जो दार्शनिक मन है, वह यहाँ पौरुष से तने, साहसी, कर्मठ तन का रूप ले लेता है। प्रसाद पर आरोप लगाया गया कि उनके नाटक रंगमंच के अनुकूल नहीं है, उन्हें पारसी नाटकों की तरह आसानी से खेला नहीं जा सकता। प्रसाद जी ने यह सुना तो हँस कर कहा, ‘रंगमंच को नाटकों के समान होना चाहिए, नाटक को रंगमंच के अनुरूप नहीं’। उन्होंने १३ पूर्ण नाटक लिखे थे। चौदहवाँ नाटक पूरा नहीं हुआ था कि वे नहीं रहे। लगभग सभी नाटकों की पृष्ठभूमि इतिहास है। हर नाटक के प्रारंभ में वे उस काल के मिले हुए ऐतिहासिक तथ्य और उन तथ्यों के आधार भी बताते हैं जिससे उनके शोध की गहराई का पता लगता है। कुछ आलोचकों और साथी लेखकों को यह आपत्ति थी कि वे ऐतिहासिक नाटक ही क्यों लिखते हैं? इसका उत्तर वे अजातशत्रु की भूमिका में देते हुए कहते हैं:
“विश्व में कल्पना जब तक इयत्ता को प्राप्त नहीं होती तब तक वह रूप परिवर्तन करके पुनरावृत्ति करती ही जाती है . . . इसलिए हम कहेंगे कि भारत के ऐतिहासिक काल का प्रारंभ धन्य है, जिसने संसार में पशु-कीट-पतंग से लेकर इंद्र तक के साम्यवाद की शंखध्वनि की थी। केवल इसी कारण हमें, अपना अतीव प्राचीन इतिहास रखने पर भी, यहाँ से इतिहास-काल का प्रारंभ मानने से गर्व होना चाहिए” भारतीयता के इस गर्व को वे हर गुलाम भारतीय हृदय में भर देना चाहते थे।
प्रसाद जी के हर नाटक में तत्कालीन स्थितियों के लिए कोई गहरा संदेश रहता था। पात्रों के नाम भी उनके चरित्र को बताते थे जैसे ‘अजातशत्रु’ नाटक की छलना जो अहंकार के कारण गृह कलह का कारण बन रही है वहीं भगवान बुद्ध करुणा का संदेश दे रहे हैं:
“निष्ठुर आदि-सृष्टि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से
मानव का महत्व जगती पर फैला अरुणा-करुणा से।”
वे वाक-संयम को विश्व मैत्री की पहली सीढ़ी बताते हैं। इसी तरह ध्रुवस्वामिनी के प्रारंभ से ही साम्राज्य को गूँगे, बहरे, कुबड़ों का राज्य कहा गया या ‘प्राणों की क्षमता बढ़ा लेने पर वही काई जो बिछलन बन कर गिरा सकती थी अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलंबन बन गयी है’ कह कर संदेश दिया गया। इन नाटकों के गीत उस समय के गीतमय नाटकों के चलन की ओर तो इशारा करते ही हैं पर इन ओज पूर्ण-भावपूर्ण कवित्तों और गीतों ने नाटकों को गति देने के साथ अपनी स्वतंत्र लोकप्रियता भी हासिल की है जैसे ध्रुवस्वामिनी की ये पंक्तियाँ चंद्र शेखर आज़ाद जैसे स्वतंत्रता के मतवाले सिपाहियों को संबोधित करती लगतीं हैं:
“अपनी ज्वाला को आप पिये
नव नील कंठ की छाप लिए
विश्राम शांति को शाप दिए
ऊपर ऊँचे सब झेल चले।”
मुझे इस समय ‘आज़ाद’ क्यों याद आये? क्योंकि कहा जाता है कि वे कुछ दिनों प्रसाद जी के संरक्षण में ही अंग्रेज़ी सरकार से छिप कर रहे थे और प्रसाद जी ने ठीक से सुन न पाने का बहाना बना कर अंग्रेज़ी सरकार के ज्यूरी समूह में जाने से मना कर दिया था। घर-परिवार की अकेले ज़िम्मेदारी सँभालने वाले प्रसाद सशरीर स्वतंत्रता संग्राम में नहीं उतर पाए तो क्या, क़लम से सोये भारतीय गौरव को जगा कर ‘बढ़े चलो’ का संदेश तो दे ही रहे थे। डॉ. रामविलास शर्मा ने भी इतिहास के माध्यम से तत्कालीन राजनैतिक स्थितियों को चुनौती देने वाले प्रसाद जी को पहचाना। छायावादी-रहस्यवादी कवि कह कर जो लोग उन पर तत्कालीन स्थितियों से कटे होने का आरोप लगाते हैं, उन्हें प्रसाद के नाटकों के गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
अगला कक्ष है—उपन्यासों का। कुल जमा तीन उपन्यास उन्होंने लिखे। तीसरा उपन्यास पूरा नहीं माना जाता; कहा गया कि मृत्यु ने उसे पूरा नहीं करने दिया। उनके पहले ही उपन्यास ‘कंकाल’ पर उनके नाटकों की ऐतिहासिकता से नाराज़, काशी की ही लमही में रहने वाले उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने लिखा था, “यह ‘प्रसाद’ जी का पहला ही उपन्यास है पर आज हिंदी में बहुत कम ऐसे उपन्यास हैं जो इसके सामने रक्खे जा सकें”। ‘तितली’ में ग्राम-सुधार को देख कर प्रेमचंद जी ने फिर प्रशंसा की।
अब चलते हैं उस कक्ष में जिसमें कहानियाँ ही कहानियाँ हैं। लगभग ७०-७२ कहानियाँ हैं यहाँ। उनकी पहली कहानी ‘ग्राम’ को बहुत से विद्वानों ने पहली आधुनिक कहानी माना है जिसमें सामंती स्थितियाँ हैं तो मनोवैज्ञानिक आयाम भी है। कुछ कहानियों पर प्रेम का रंग है, जैसे ‘रसिया बालम’, ‘चूड़ीवाली’, ‘दासी’, ‘नूरी’ आदि, स्त्री हृदय के मनोभावों का सूक्ष्म अंकन कई कहानियों में मिलता है जैसे ‘सालवती’, तत्कालीन स्थितियों का सुन्दर चित्रण करती हैं ‘विराम चिह्न’ जैसी कहानियाँ जिसमें वृद्धा भिखारिन का बेटा राधे पैसे छीन कर ताड़ी पीता है और मंदिर में घुसकर भोग पाना चाहता है। शूद्र जातियों का ब्राह्मणों के प्रति बढ़ते क्रोध का एक उदाहरण इस कहानी से देखिए—“अकेले-अकेले बैठकर भोग-प्रसाद खाते-खाते बच्चू लोगों की चरबी बढ़ गई है।” कुछ कहानियों की भूमि पौराणिक-ऐतिहासिक भी है पर प्राय: ये तत्कालीन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भों में मनुष्य के उदात्त जीवन-मूल्यों की स्थापना करती हैं। इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता भावों का सूक्ष्म चित्रांकन है। इनके बिंब और ध्वनि, स्त्री-मन के उतार-चढ़ाव दिखाने की सधी भाषा ने इनके कहानीकार रूप को भी बहुत ख्याति दिलवाई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पौत्री व साहित्यकार डॉ. मुक्ता के अनुसार अपनी कहानियों में प्रसाद जी काफ़ी मुखर रहे। ममता और घींसू में महिलाओं की स्थिति से लोगों को दिलों को झकझोरा और ये कहानियाँ आज भी तर्कसंगत हैं।
इस प्रासाद का अंतिम कक्ष निबंध है। छायावाद, रस, काव्यकला और रहस्यवाद, आर्याव्रत और उसका प्रथम सम्राट आदि पर गंभीर चिंतन वाले ये लेख महत्वपूर्ण हैं। किताब रूप में ये प्रसाद जी के जाने के बाद प्रकाशित हुए। इसी कक्ष में आप उनके संपादक रूप के दर्शन भी कर लीजिए। ‘जागरण’ पत्र का नाम उन्हीं का दिया हुआ है और उन्होंने कुछ समय इसका संपादन किया भी, बाद में प्रेमचंद जी ने इसे सँभाला।
अब प्रासाद का यह खुला दालान देखिए जो उनके खुले सात्विक जीवन का सा है। श्री रामनाथ सुमन जी ने लिखा है—“इनके यहाँ बेनी, शिवदा तथा अन्य कितने ही कवि आया करते थे और अक़्सर समस्यापूर्ति एवं कविता पाठ का अखाड़ा आधी-आधी रात तक चलता रहता था। ठंडाई बन रही है, रसगुल्ले और मलाई की हँडिया भरी है, कहीं डंड बैठक और कुश्ती का बाज़ार गर्म है तो कहीं सभा चातुरी खिल-खिल हँस रही है, कहीं कवित्त पर कवित्त चल रहे हैं तो कहीं पंडितों से ज्ञान चर्चा हो रही है”। किसी कविता-साहित्य समारोह में न जाने वाले प्रसाद जी के घर ही मानों साहित्य की गंगा आ निकलती थी।
अनेक जगह प्रकाशित होने वाले प्रसाद जी ने कभी प्रकाशन या पुरस्कार की कोई धनराशि स्वीकार नहीं की। अपनी मेहनत से, अपने दुर्दिन और अभावों को समृद्धि में बदलने वाले और अल्पायु में भी हिन्दी साहित्य को अमर कृतियाँ देने वाले यशस्वी प्रसाद जी हम सब के बीच सदैव एक ’दीपस्तंभ’ से खड़े हमें भाषा और राष्ट्र के गौरव- पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहेंगे।
सहृदयो, यह थी जयशंकर प्रसाद जी के विशाल साहित्यिक प्रासाद का एक छोटी सी झाँकी! आशा है आप इनको अब और गहराई से जानने की इच्छा लेकर यहाँ से जायेंगे।
पिता का नाम |
बाबू देवी प्रसाद |
माँ का नाम |
मुन्नी देवी |
जन्म |
३० जनवरी, १८८९ |
मृत्यु |
१५ नवम्बर, १९३७ |
काव्य |
प्रथम संस्करण वर्ष |
1. प्रेमपथिक |
1909 |
2. झरना |
1918 |
3. करुणालय |
1913 |
4. महाराणा का महत्त्व |
1914 |
5. चित्राधार |
1918 |
6. कानन कुसुम |
1913 पुनः 1918 |
7. आँसू |
1925 |
8. लहर |
1935 |
9. कामायनी |
1936 |
कहानी-संग्रह |
|
1. छाया |
1912 |
2. प्रतिध्वनि |
1926 |
3. आकाशदीप |
1929 |
4. आँधी |
1931 |
5. इंद्रजाल |
1936 |
उपन्यास |
|
1. कंकाल |
1929 |
2. तितली |
1934 |
3. इरावती |
1938 |
नाटक |
|
1. उर्वशी (चम्पू) |
1909 |
2. सज्जन |
1910 |
3. कल्याणी परिणय |
1912 नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित; 1931 ई. में कुछ संशोधनों के साथ 'चन्द्रगुप्त' नाटक में समायोजित। |
4. प्रायश्चित |
1914 |
5. राज्यश्री |
1915 |
6. विशाख |
1921 |
7. अजातशत्रु |
1922 |
8. जनमेजय का नागयज्ञ |
1926 |
9. कामना |
1927 |
10. स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य |
1928 |
11. एक घूँट |
1930 |
12. चंद्रगुप्त |
1931 |
13. ध्रुवस्वामिनी |
1933 |
14. अग्निमित्र |
अपूर्ण |
निबंध |
|
काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध (छायावाद, रहस्यवाद, रस आदि) |
1939 (भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित) |
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