दाल और पास्टा

15-07-2025

दाल और पास्टा

डॉ. शैलजा सक्सेना (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

पत्ते रंग बदलने लगे थे। चीड़ के हरे पेड़ों के बीच से मेपल और कुछ अन्य झाड़ियों के पीले और सुर्ख़ लाल पत्ते झाँक रहे थे। कुछ ने मौसम को अपना लिया था और अपने सब पत्ते झाड़ वैरागी हो गये थे। पैरों के नीचे चरमराते पत्तों और रंग बदलते पेड़ों ने सूचना दे दी थी कि पतझड़ आ गया है। गर्मी की मस्तियाँ ख़त्म, धूप की ऊष्मा का अपनी त्वचा में उतार लेना ख़त्म, झील के पानी में तैरना, बैठना ख़त्म! प्रकृति कितनी आसानी से बदल जाती है जब कि हम इंसानों को बदलने में कितना कष्ट होता है, भारती ने सोचा। अभी पत्ते लाल हैं, दो हफ़्ते भी नहीं बीतेंगे कि ये सब भी पीले होकर ज़मीन पर दिखाई देंगे, बचेंगे ख़ाली बाँहों वाले भूरे पेड़ जो दिसम्बर अंत से लेकर मार्च-अप्रैल तक बर्फ़ की शाल ओढ़े बुज़ुर्ग बन जायेंगे। अभी लगता है कि ये जवानी के आख़िरी सोपान पर, जीवन की ललाई से भरपूर चमकते हँस रहे हैं . . . ‘बरस अठ्ठारह छत्री जीवे, आगे जीवन को धिक्कार’!! छह महीने में जीवन की पूरी परिक्रमा कर ये वापस उसी धरती में समा जाते हैं जहाँ से उगे थे। अगली बार, मिट्टी की कोख से झाँकने तक . . .! 

भारती ओंटारियो झील के पास बने बाग़ की बेंच पर बैठी पेड़ों और पानी को एकसाथ देख रही थी। कहने को यह झील है पर देखने में समुद्र ही लगती है, होने और लगने का फ़र्क़!॥आँख तो सबको एक सी ही मिलती है पर दृष्टि होती है हरेक की अलग-अलग! आँखॆं झील के विस्तार में समुद्र देखने लगती हैं॥छोटी भूरी बत्तखों सी पानी पर तैरती हैं॥पानी से न आँख हटना चाहती हैं और न ये बत्तखॆं। अभी भी पानी पर थीं। यह पानी भी तो जीवन की ही तरह है, गया तो उसी रूप में लौटेगा नहीं। 

भारती शेष बची साँझ में अक्सर दार्शनिक-सी होने लगती है। कहाँ से चले और कहाँ आ गए कि तर्ज़ पर वह अक्सर सोचती और याद करती कि कैसे वह अपने मायके वाल घर के बारे, जब वह सोचती कि जीवन की भागादौड़ी में पचपन वर्ष निकल गये, अब भी नहीं सोचूँगी तो कब सोचूँगी? अब तो कहीं जाकर कुछ ख़ाली हुई है, नहीं तो तीन बच्चों को बड़ा करने की दौड़-धूप में बाल कब सफ़ेद हो गये पता ही कहाँ चला! अब तीनों अपने-अपने पैरों पर खड़े हैं बस छोटे बेटे और बेटी की शादी बाक़ी है, पर बच्चे इतने भी बड़े नहीं कि उनकी चिन्ता मन को लगाई जाई। बड़े ने तो अपनी पसंद से कैथरीन से शादी कर ली पर इन दोनों ने अभी तक किसी को पसन्द नहीं किया है। वो पूछती है कि वो उनके लिये बहू या वर ढूँढ़े तो दोनों हँस कर कह देते हैं, ‘शादी आप करोगी या हम? हम, तो भूल से भी यह काम अपने सिर मत लेना, वरना ख़ुद ही करनी पड़ेगी शादी!’ 

हाँ भई! नये ज़माने के बच्चे, कैनेडा में पले-बढ़े, वो माँ-बाप की पसन्द से क्यों करने लगे शादी! अब तो भारत में भी बच्चे अपनी मर्ज़ी से करते हैं तो ठीक है जब कहेंगे कि यहाँ आ जाओ आशीर्वाद देने, तब पहुँच जायेंगे! वो जब यह बात बच्चों से कहती है कि चलो ख़र्चा भी बचा और चिन्ता भी, कोर्ट में ही कर लेना तो दोनों फिर हँसते हैं, “क्या सोचते हो इतनी आसानी से छूट जाओगे आप लोग, हमें तो पूरे इंडियन तरीक़े से करनी है सो तैयार हो जाना भाग दौड़ करने को।” 

फिर सब की एक मीठी हँसी! सच, न इधर के न उधर के . . . ऐसे हो गये हैं हम लोग! 

वो लंबी साँस भर मेपल के पेड़ को देखने लगी, ख़ूब सुर्ख़़ लाल और डूबते सूरज की पीली आभा में और भी खिल उठा था उसका रंग! कैथरीन की याद आ गयी भारती को, वो भी इतनी ही सुर्ख़ हो रही थी शादी के लाल जोड़े में! कितनी उत्साहित थी भारतीय तरीक़े से शादी करने को, समर का सिल्क का पीला कुर्ता, महीन कढ़ाई का लाल दुपट्टा और रॉ सिल्क की धोती! दोनों बच्चों को देख कर आँखें भर आईं थीं भारती और रजत की! जाने कब बचपन की किसी राजा की शादी की कहानी समर के मन में अटकी कर रह गई कि उसने तय करा कि वह धोती पहनेगा। भारत से ख़ास बनी-बनाई धोती मँगवाई थी भारती ने! पीले और लाल रंग के जोड़ों में जैसे समर और कैथरीन दिख रहे थे, वैसे ही आज ये पेड़ दिख रहे हैं उसे . . . सुन्दर, बहुत सुन्दर! 

कैथरीन के परिवार के लोगों ने भी कोशिश कर के भारतीय परिधान जुटाये थे और कई गोरे चेहरे कुर्ते-पजामे और सलवार क़मीज़ में सजे गए थे। आज तीन साल हो गये उस बात को, न जाने कितनी नयी बातें उसने इन तीन सालों में कैथरीन के परिवार के माध्यम से इस समाज के बारे में जानी है। 27 साल रहने के बाद भी इतनी बारीक़ी से वह इस समाज को नहीं जान पाई थी। दफ़्तर में काम करने वाली सहकर्मियाँ का व्यवहार और बातचीत कुछ बता देती तो ठीक वरना क्रिसमस की चॉकलेट आदान-प्रदान और ऑफ़िस की क्रिसमस पार्टी से आगे दोस्तियाँ बढ़ नहीं पाईं थीं। ऑफ़िस की सालाना क्रिसमस पार्टी में सब ख़ूब मस्त हो जाते, वो और रजत भी सज-धज कर जाते और विदेशी धुनों पर नाचने की कोशिश करते। सब पीते और वह भी गिलास पकड़े रहती, भले ही उसे पीना पसंद नहीं था। अब वह किस-किस को समझाने बैठती कि उसे पीना पसंद नहीं, कि वो तो शादी भी उस लड़के से करना चाहती थी जो पीता न हो, और किस-किस के इस तर्क का जवाब देती कि क्रिसमस है, चलती है, सो बस इन सब से बचने के लिये एकाध सिप सबके चीयर्स करने पर ले लेती और साथ बैठी रहती। औरतें एक दूसरे के कपड़ों पर टिप्पणियाँ करतीं, एक दूसरे के बालों को देख हँसती या जलती और वह भी मुस्कुराती रहती। क्या कहे वो, साल में दो-तीन बार बाल बनवाती थी, एक तो इसी पार्टी के लिए और दो-एक और महत्त्वपूर्ण अवसर निकल आते, अब इन औरतों की तरह तो हर महीने जाकर बड़ी रक़म अपने बालों पर ख़र्च करना उसे अच्छा लगता नहीं था। इन लोगों का क्या है, न बचत की फ़िक्र और न बच्चों के भविष्य के लिये कुछ बचाने की चिन्ता! बच्चे क़र्ज़ लेकर यूनिवर्सिटी में पढ़ें और ये अपने क्रूज़ और पार्टियों में बड़ी रक़म फूँक देंगे। 

हम भारतीय लोग कभी ऐसा नहीं कर सकते कि पास में पैसा हो और बच्चों को क़र्ज़ा लेने के लिये कह दें, पर ये लोग करते हैं और ऊपर से कहते हैं कि इससे बच्चे ‘इंडिपेंडेंट’ बनते हैं। ठीक है बनाओ ‘इंडिपेंडेंट’, फिर रोते क्यों हो जब 16 साल में लड़की ‘प्रेगनेंट’ हो जाती है या लड़का ‘ड्रग्स’ लेने लगता है? उसने क़िस्से सुने हैं अपने साथ काम करने वाले लोगों से, कोई डिवोर्स के चक्कर में बर्बाद हो रहा है, किसी का भाई ड्रग्स अधिक लेने के कारण ‘रीहैब’ में है और कोई अपने क़र्ज़ों से परेशान होने के बाद भी बढ़िया चीज़ों और खाने के लिए क्रेडिट कार्ड ऐसे इस्तेमाल कर रहा है जैसे जाने कहाँ का राजा हो! बस, इन्हीं सब को देख कर उसका मन खट्टा हो जाता है। इनका हमारा कोई तालमेल नहीं है! वो कई बार अपने मन में कहती। 

वो सुबह उठ बच्चों के टिफ़िन बनाती, पति और अपने लिए खाना पैक करती। सब के लिये ताज़ा खाना, सुबह और रात—दोनों समय! कभी दिमाग़ में आया भी कि चलो छोड़ो आज माइक्रोवेव डिश सबको खिला दे तो ख़ुद से ही शर्मिंदा हो गई कि सेहत ख़राब करने वाला खाना वो कैसे परोसेगी सबको? यह नहीं कि बच्चे बाहर खाना नहीं खाते, या वो और रजत नहीं खाते पर फिर भी कभी-कभार की बात और है, उस सैली के जैसे नहीं कि दोपहर बाहर से खाया और रात सब के लिये कैन खोल कर सूप बना दिया और सलाद काट ली और हो गया, या कभी केवल पॉपकार्न ही हो गये! यही अंतर है भारतीयों और गोरों में! अक्सर वो बच्चों के रोटी न खा कर पिज़्ज़ा और पास्टा की माँग करने पर यही समझाती! 

’हम सेहत के लिए अच्छा खाना खाते हैं, सफ़ेद आटे वाला खाना खा कर बीमार क्यों पड़ना चाहते हो?’ बच्चे अपने साथियों जैसा खाना चाहते, उनके जैसे देर शाम तक बाहर रहना चाहते, स्कूल के बाद इकट्ठे होकर ‘प्ले स्टेशन’ खेलना चाहते! ऐसा भी नहीं कि हर बार उसने मना ही किया हो पर आख़िर हर बार ‘एलाउ’ भी तो नहीं किया जा सकता! इन बच्चों का क्या है, ‘टिम हॉर्टन’ में खड़े हो जायेंगे नौकरी करने पर वे लोग तो भारतीय हैं, आये ही वो यहाँ तरक़्क़ी के लिये हैं, अब साल-दो साल तो ‘समर जॉब’ के तौर पर यह सब ठीक लगता है पर हमेशा यही नौकरी तो करनी नहीं है! ज़िन्दगी में कुछ बन कर दिखाना है! वो बार-बार समझाती, ”बच्चों को तुम्हें अपनी जगह बनानी है, तुम्हें अपने को साबित करना पड़ेगा तभी तुम कहीं पहुँच पाओगे, तभी इस दूसरे देश में इज़्ज़त मिलेगी!” 

बच्चे जब बड़े होने लगे तो कभी-कभी झुँझला भी जाते, “तो क्यों आये दूसरे के देश में?” 

“तुम्हारी भलाई के लिये।” 

“हमारी भलाई क्या इसी में है माँ कि हम अपने को पराया समझते रहें? अपनी तुलना उनसे करते रहें।” 

वो जब निरुत्तर हो जाती तो खीज के कहती, “मुझे तुमसे बहस नहीं करनी है, आज तुम मेरी बात न समझो चाहे पर एक दिन समझोगे जब तुम कहीं ऊँचे पद पर पहुँच जाओगे।”

समर तो फिर चुप हो जाता, छोटा नील बहसता रहता! लड़की के साथ तो वह और सावधान रहती कि किसके साथ मिल रही है, किसके घर जा रही है। कोशिश करती कि हर इतवार को सब को मंदिर ले जाये। हिन्दी, भारतीय संगीत और नृत्य की कक्षाओं में भी उन्हें डाला। उन सालों में तो वह चकरघिन्नी-सी हो गई थी, जब बच्चे स्कूल में थे। सप्ताह के तीन दिन मार्शल आर्ट्स, शनिवार स्विंमिंग की क्लास और इतवार हिन्दी और संगीत की कक्षाएँ। इस बीच होली-दीवाली, तीज त्योहार, दोस्तों की पार्टियाँ, पिकनिक सब चलता। 

उनके सारे दोस्त भी भारतीय ही थे, एकाध बार उसने अपनी सहकर्मी सोफी और किम को बुला भी लिया दीवाली पार्टी में पर अंग्रेज़ी में बात करने की ज़बरदस्ती ने सबके मज़े को हल्का कर दिया। भारती ख़ुद अपराधी सी महसूस करने लग गई थी, उसके बाद से बस वो दीवाली के अगले दिन मिठाई ले जाने लगी अपने ऑफ़िस के दोस्तों के लिये। वही हाल रजत का था। शायद ही कभी कोई उनके घर आया हो। जब किसी को बुलाने को होते तो लगता कि हम तो शराब रखते नहीं हैं घर में और इन लोगों का डिनर इसके बिना नहीं होता तो क्या बुलायें और कुछ संकोच भी हो जाता कि न जाने उन्हें कैसा लगे! 

बस इसी सब में दिन निकलते गये! जब नौकरियाँ मिलने की, तरक़्क़ी की बात चलती तो हमेशा ‘रेसिज़्म’ की बात पर ही बात ख़त्म होती। मन में डर-सा लगा रहता कि नाम तो बोलने में आसान रखे हैं पर कहीं विदेशी समझ कर बच्चों को नौकरी मिलने में मुश्किल न हो जाये। वो और रजत कितनी मुश्किलों से गुज़रे थे अपनी नौकरियाँ पाने के समय! रजत ‘राज’ हो गया था और भारती ‘बैटी’! यहाँ के लोग उनका नाम ही नहीं पुकार पाते थे ठीक से। बहुत बुरा लगा था भारती को जब उसके बॉस ने कहा था, “व्हाई डोन्ट वी कॉल यू बैटी!” 

भारती बोलने में उनकी जीभ थकती थी और नौकरी ढूँढ़ने में वो बहुत थक गई थी सो समझौता हो गया! वैसे भी उच्चारण बिगाड़ कर ’बार-टी’ सुनने से तो ’बैटी’ ही भला! उन्होंने बच्चों के नाम भी सोच समझ कर रखे थे, बड़े का तो ख़ैर भारत से ही सास-ससुर ने नाम समर रख दिया था, छोटे का नील और बेटी का रीमा उन लोगों ने, यहाँ के हिसाब से रखा था। समर पाँच साल का था जब वो यहाँ आये, आते ही नील हुआ फिर दो साल बाद रीमा। 

अचानक हवा में ठंडक की खुनकी बढ़ गयी थी। भारती अभी और बैठे रहना चाहती थी यहाँ। आज समर, नील और रजत तीनों फॉदर-संस नाइट मनाने और रीमा और कैथरीन ’गर्ल्स नाइट’ मनाने गये हुए हैं। रीमा और कैथरीन ने उस से बहुत कहा था आने के लिए पर आज उसका मन अकेले रहने को था। महीने में एक दिन वो ऐसे ही मनाते थे, सब दोपहर के खाने पर इकट्ठे होते, मिलकर पकाते, खाते और फिर रात 12 बजे तक मस्ती करने को तीन-तीन में बँट जाते या कभी-कभी पूरे वीकएंड के लिये कहीं चले जाते। समर और रीमा उनसे लगभग डेढ़ घंटे की दूरी पर रहते थे, नील का किराये का मकान आधा घंटे पर, उसके ऑफ़िस के पास था, रीमा ने अभी नौकरी शुरू कर के टोरोंटो में ही किराये का मकान लिया था। दो सप्ताह सब के अपने होते, महीने के पहले हफ़्ते में ही एक दूसरे की सहूलियत देख कर कैथरीन पूरा प्रोग्राम तय कर लेती। यह उसी का विचार था कि हमें ऐसे मिलते रहना चाहिये और जब मिलेंगे तो केवल घर पर नहीं बैठेंगे, जैसे कि वे लोग करते आये थे। 

कैथरीन पिछले पाँच साल से समर के जीवन में थी, तो उनके जीवन में भी थी। पहले-पहल तो उसे धक्का लगा था कि समर गोरी लड़की के चक्कर में आ गया पर पहली बार मिलने के समय से ही वह कैथरीन के सरल स्वभाव से प्रभावित हो गयी थी। रजत से भी वह ‘पापा जी’ कह कर लिपट गई थी। भारती समझ गई थी कि समर ही सिखा-पढ़ा के लाया है। पर कैथरीन का स्वभाव मिलनसार था, जितनी देर घर में रही, भारती के आगे-पीछे घूमती रही। हर चीज़ में दिलचस्पी लेती रही। उसके बाद बराबर हर ख़ास मौक़े पर फोन करती, घर आती, उसके लिये उपहार भेजती। शुरू में भारती का मन शंकित था पर बेटे से भी क्या कहे? रजत और भारती ही तो बच्चों को इस सभ्यता में लाए थे तब वे उन्हें इस सभ्यता से मिलने में कैसे रोकें? यह कहना भी कितना ओछा लगता है कि ’बेटा, चमड़ी का रंग देख कर प्यार करना!’ भारती और रजत, दोनों ये भी मानते हैं कि व्यक्ति का अच्छा होना ज़्यादा ज़रूरी है। वे लोग अनेक भारतीय लड़कियों के बारे में भी ऐसे क़िस्से सुन चुके थे कि समझ ही नहीं आता था कि अपना भारतीय समाज किस दिशा में जा रहा है। ऐसे में वे भी इस बात को ज़िद बनाने में डरते थे कि वे लोग अपनी मर्ज़ी से समर के लिए भारतीय लड़की ले आएँगे। इस से पहले कि वे लोग कोई लड़की देखते, कैथरीन समर के जीवन में आ चुकी थी। वे लोग किसी ज़िद की ख़ातिर समर का जीवन बाँध तो नहीं सकते थे न! बस, कैथरीन धीरे-धीरे अपने अच्छे व्यवहार से उन सब के जीवन में घुलने-मिलने लगी। रीमा और वो बहुत निकट आ गये थे और नील भी उस से खुल गया था। कैथरीन ने उस से ज़िद कर के साड़ी पहननी सीखी, भारतीय खाना बनाने में रुचि दिखाई और दो चार शब्द भी हिन्दी के सीखे। 

भारतीय बहू न आने का सारा मलाल इस लड़की के मीठे स्वभाव ने दूर कर दिया। वो हैरान भी होती कि ऐसी सरल लड़कियाँ भी होती हैं इस समाज में? अक्सर तो उसे यही सुनने में आता था कि गोरी लड़कियाँ भारतीय लड़कों को फँसा कर उन्हें माँ-बाप से अलग करवा देती हैं . . . पर यह सब तो भारत में भी हो रहा है, वहाँ भी लड़कियाँ नहीं चाहतीं कि सास-ससुर के साथ रहें या उनके साथ घूमे-फिरें पर यहाँ यह कैथरीन का बनाया नियम था कि हम सब को बराबर मिलते रहना चाहिये और हर बार कुछ अलग और नया भी करना चाहिये। पिछले सप्ताह ‘लेज़र टैगिंग और ग्लो इन नाइट गोल्फ’ में कितना मज़ा आया था सब को! वो मना भी कर रही थी कैथरीन से कि कहाँ बच्चों के खेल में जायेंगे हम, पर वो कहाँ मानी, सब को साथ ले कर ही गई। 

कैथरीन की माँ, मैगी का स्वभाव भी वैसा ही था और उसका पिता रिचर्ड तो बेहद हँसोड़ थे। वे लोग फोन पर बेहिचक आने का कार्यक्रम बना लेते। भारती ने पहली बार उनके ऐसे आने पर बहुत नर्वस होकर कहा था, “हम लोग शराब ‘सर्व’ नहीं करते हैं, आप लोगों को असुविधा होगी।” रिचर्ड हो-हो कर के हँस दिया था, “क्या हम को आपने ‘ड्रंकर्ड’ समझा है? चाय पिलाओ आप! इंडियन चाय! वो तो सर्व करते हैं न आप?” 

भारती के मन पर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया था। अब जब वो आते तो कभी चाय, समोसे होते तो कभी चाय, फ्रिटर्स! वे लोग दाल खाना बहुत पसंद करते थे, बघारी हुई दाल के इतने दीवाने थे कि जब वो जाते तो ‘डाल’ बँधवा कर ले जाना न भूलते और आते समय उन सब के लिये ’पास्टा’ लाना न भूलते क्योंकि नील, मैगी के हाथ के पास्टा का दीवाना था। 

समर की शादी के बाद से हर दीवाली-होली पर रिचर्ड और उसके दोनों भाई और मैगी की बहन, बच्चे सब, उनके घर आने लगे। यह भी कैथरीन और समर की योजना थी कि सबको एक-दूसरे के विशेष त्योहारों पर मिलना चाहिए। रिश्तेदारियों का यह हाल देख कर पहले तो भारती परेशान हुई कि सब बैठेंगे कहाँ? पर सबने मुस्कुराते हुए स्वयं को नम्रता पूर्वक व्यवस्थित कर लिया। पहले एक-दो बार मिलने पर कुछ संकोच रहा था। कुछ औपचारिकता भी बरती गई पर यह सब एक-दो बार ही रहा। उसके बाद तो यह होता कि कहीं दो लोग एक कुर्सी पर बैठे हैं तो कोई खड़ा हुआ दही-बड़े खा रहा है, कोई गुझिया के आनंद में आँखें बंद किये है तो कोई अपनी प्लेट लिये सीढ़ियों पर ही बैठ गया। कहने को तो उसे बहुत से दोस्त मिले थे यहाँ पर, लेकिन बड़े परिवार का हिस्सा होने की अनुभूति भारती को पहली बार हुई थी। लगा था जैसे अपने गाँव वाले घर में त्योहार मनाया जा रहा हो, जहाँ बुआ, चाची, ताई सब मिलकर हँसती-बोलती और त्योहार को त्योहार बना देतीं। 

ये लोग भी मिठाइयाँ, दीये और न जाने क्या-क्या लेकर आते और आते ही सब काम में हाथ भी बँटाने लग जाते। खाना-पीना होने के बाद होली पर रंग और दीवाली पर पटाखे, फिर बोर्ड गेम्स और ढेर सी गप्पें! घर क़हक़हों और क़िस्सों से भर जाता। कभी भी किसी ने उनके घर छोटे होने या किसी भी अन्य चीज़ पर कोई टिप्पणी नहीं की थी बल्कि वे लोग उसे धन्यवादों की बौछार से ढक देते। अगले साल आने के वायदे के साथ रात देर में ही ये त्योहार ख़त्म होते। 

रजत और भारती अक्सर यह सोच कर आश्वस्त होते कि अब उनके बच्चों को एक और बड़ा परिवार मिला है और बच्चों का आपसी प्रेम बना रहेगा। माँ-बाप यही तो चाहते हैं कि उनके बच्चे आपस में मिल-जुल कर रहें। अभी तक तो ये बच्चे आपस में बँधे हैं, “हे ईश्वर! ऐसे ही प्यार बनाए रखना सबका!” उसने एक अदृश्य शक्ति से प्रार्थना की। 

भारती पैर पे पैर रखे बैठी थी, लगा एक मुद्रा में बैठे बैठे पैर सो गया है, बड़ी मुश्किल से पैर को अपने हाथ से उठा कर अलग किया और हाथ से घुटना सहलाने लगी। एक मुद्रा जड़ता ही तो पैदा करता है। ऐसे ही तो एक मुद्रा में वह पिछले 22 साल इस देश में रहती आयी थी। 

भारत से चलने से पहले से विदेशों की छवि सभी की तरह उनके मन में भी यही था कि उनकी भोग-विलासिता वाले माहौल से बच्चों को बचाना है। यानी यहाँ के संसाधन तो इस्तेमाल करने हैं, यहाँ नौकरी करके यहाँ की अर्थव्यवस्था में मदद भी करनी है पर अपने को, बच्चों को भारतीय बनाए रखना है। यह बात आँचल में बाँध कर ही हम अपने देश से निकलते हैं और एक मुद्रा में जड़ होकर रह जाते हैं। 

पिछले पाँच साल में उसने सिक्के का दूसरा पहलू पास से देखा, कि मैगी अपनी बीमार माँ को अस्पताल देखने अक्सर जाती, माँ के लिये कुछ फल और उसकी पसन्द की चीज़ें ले जाना न भूलती। उसने देखा कि कैसे इन परिवारों को भी अपने बच्चों की चिन्ता है और बच्चों की छोटी और मामूली सी उपलब्धि को कितना ख़ुश हो कर ये लोग सुनाते हैं, बच्चे का साहस बढ़ाते हैं। जब कि हम बच्चों को और अच्छा करते रहने की सलाह देकर संकोच में चुप रहते हैं, उसने देखा कि ये लोग हमारे दोस्त बनने के इच्छुक रहते हैं पर हम ही इन्हें कभी अपने घरों में नहीं बुलाते और ये लोग भी किसी संकोच में हमें अपने घर नहीं बुलाते। 

उसने यह भी समझा कि कैसे ये लोग भी इस ‘रेसिज़्म’ से परेशान हैं कि ‘इमिग्रेंट्स’ (प्रवासियों) की दुकानों पर गोरे बच्चों को काम नहीं मिलता, गोरे बच्चे कुछ स्कूलों में अल्पसंख्यक हो गये हैं और कैसे दूसरे बच्चे अपनी भाषाओं में बात करते हुए जब इन बच्चों के सामने हँसते हैं तो बच्चा दुविधा में पड़ जाता है कि क्या उस पर हँसा जा रहा है, और यही बात दफ़्तरों में बाक़ी के कनेडियन भी महसूस करते हैं। 

भारती ने जाना कि अपने ही देश में अपने लिये संस्थायें बनाने में इन गोरों को कितनी अड़चनें आती हैं जब कि प्रवासी लोगों के लिये कई तरह के सरकारी फ़ंड है, जाना कि ये लोग कितने परेशान हैं, और इनकी नई पीढ़ी ग़ुस्से में है कि सरकार अल्पसंख्यकों को प्रसन्न करके वोट लेना चाहती है। यही सब तो भारत में था, या यहाँ आए तीसरी दुनिया के देशों में था, वहाँ से भाग कर इतने लोग यहाँ आते हैं और यहाँ उसी भारत को या अपने देश को तलाशते उम्र बिता देते हैं! तो आख़िर हम किस देश को चाहते हैं? 

हाथ से घुटनों को मल कर खड़े होने की चेष्टा की भारती ने तो पैरों के नीचे पत्ते चरमराने लगे। जाने कितने भाव और विचार पैरों के नीचे चरमरा रहे थे। ये पत्ते अपना जीवन जी चुके हैं। भारती भी अपनी आधी से ज़्यादा उम्र जी चुकी है। ये पत्ते टूट कर बिखरने से पहले एकदम खिले हुए रंग से मन मुग्ध कर लेते हैं, जैसे एक इंसान अपनी वृद्धावस्था में, वानप्रस्थी ज्ञान की दिव्य आभा से घिरा, शान्ति के सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति हो जाता है! यह आभा अगर जीवन के अंत में भी न आई, अगर मन समता में नहीं आया और ऐसे ही जीवन अंत हो गया तो . . .? 

इस विचार ने भारती को अस्थिर कर दिया। किस ख़्याली घर की तलाश में हम प्रवासी अपना जीवन निकाल रहे हैं? जिस घर को छोड़ कर आए, वह घर भी तो वैसा का वैसा नहीं रह गया? समय बदल गया, घर के लोग बदल गए और घर भी बदल गया। भारती कितनी हूक से घर को याद करती थी! . . . वह घर एक नाम, एक बीता हुआ सपना, एक ख़्याल भर ही तो रह गया है! 

भारती झील के पास धीरे-धीरे टहलने लगी! वह एक स्थान पर बैठी, अतीत की कितनी सारी गलियों में चक्कर लगा आई। इतना सोच और विश्लेषण शायद ही उसके मन और दिमाग़ में कभी हुआ हो। पर अब एक स्थान पर बैठे-बैठे बहुत देर हो चुकी थी, अब इस जगह से आगे बढ़ना ही होगा, मन में बेचैनी थी कि इतने साल कैसे घोड़े की आँखों पर पड़े पर्दे के साथ निकाल दिये! अगर यह कैथरीन जीवन में न आती तो क्या सच्चाई पता चलती? 

झील पर रात का कालापन उतरने लगा था। घर जाते पंछियों का शोर बढ़ गया था। रात का तारा उस स्लेटी अँधेरे में चमकने लगा। हमेशा की तरह आज फिर भारती को याद आया। माँ-पापा हमेशा कहते थे, ‘दिन भर जहाँ कहीं भी रहो पर अँधेरे से पहले घर लौट आना चाहिये’। वह भी पार्किंग लॉट की ओर बढ़ गयी, अपने घर जाने के लिये! अपने देश कैनेडा में, अपनी मेहनत से बनाये, अपने घर जाने के लिये! 

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