गुरु, गुरुडम और गुरु घंटाल
डॉ. शैलजा सक्सेना
हिंदी में कई शब्द हैं जो अपनी चमक के साथ ही अपने अर्थ भी खो चुके हैं, इनमें से एक शब्द जो सर्वाधिक घिसा गया और अर्थ से अनर्थ के पायदान पर चढ़ा, वह शब्द है, ‘गुरु’।
हमारी संस्कृति का यह आदरणीय शब्द समय के बदलते दौर में, फ़ास्ट फ़ूड वाली संस्कृति की भेंट चढ़ गया। जो किसी क्षेत्र में थोड़ी भी निपुणता प्राप्त है, उसे ही हम गुरु कहने लगे। आजकल तो गूगल बाबा और कार चलाते समय जी पी एस तक को भी लोग गुरु कहने लगे हैं। यह गुरु शब्द की घिसावट का चरम है। हर जगह गुरु, हर बात में गुरु शब्द का प्रयोग! इसके चलते बेचारे अन्य शब्द जैसे, शिक्षक, अध्यापक, आचार्य, विशेषज्ञ, उपाध्याय, पंडित, द्रष्टा प्रयोग में पर भी सही संदर्भों में प्रयोग न किये जाने पर पिछड़ गये हैं। गुरु शब्द की महत्ता और विरलता भी इस बहुव्यापी प्रयोग से खंडित और बाधित हुई है और बड़ा प्रश्न यह है कि अगर हम से थोड़ा भी अधिक समझदार और पढ़ा-लिखा व्यक्ति, गुरु है तो इन हज़ारों की भीड़ में असली गुरु कौन है? हमारे ग्रंथों में गुरु किसे कहा गया है?
असली गुरु की पहचान के लिए तुलसी बाबा लिखते हैं:
“बंदऊँ गुरुपद पदुम परागा, सुरुचि, सुबास, सरस अनुरागा।
अमिय मूरिमय चूरन चारू, समन सकल भव रुज परिवारू॥”
आगे कहते हैं:
“श्रीगुर पद नख मनिगन ज्योति, सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती।
दलन मोह तम सो सप्रकासू, बड़े भाग उर आवई जासू॥” (रामचरितमानस, बालकांड, गीताप्रेस, गोरखपुर)
यानी “मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की पराग जैसी रज की वंदना करता हूँ जो सुरुचि, सुगंध और अनुराग के रस से परिपूर्ण हैं। यह रज संजीवनी, अमर मूल का सुंदर चूर्ण है और समस्त भव रोगों के परिवार को नष्ट करने वाली है . . . श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है जिसके स्मरण से हृदय में दिव्य दृष्टि पैदा होती है। यह प्रकाश अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।”
तो यह तो है हमारे वेदों, उपनिषदों के अनुसार गुरु का स्वरूप जिसे बाबा तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा। ये सब गुरु होने के लिए प्रीकंडिशन्स हैं, अगर गुरु अपने शिष्य के भव (नित बनने और मिटने वाले संसार के) दुखों के परिवार को नष्ट करने में असमर्थ हैं तो वह गुरु नहीं, जिसके स्वयं के स्वभाव में ईश्वर प्रेम का सरस अनुराग नहीं है तो वह गुरु नहीं, जिसके चरण कमलों के स्मरण मात्र से मोह के अंधकार नाश होने के उपरान्त दिव्य प्रेम का प्रकाश उदय नहीं होता तो वह गुरु नहीं। तो पुनः उस प्रश्न पर आते हैं कि हम जिन्हें गुरु कहकर बुला रहे है क्या उन में इन सारी कंडिशन्स या लक्षणों को हम देख पाते हैं? 100 में 98 बार, नहीं!
कहा गया है कि गुरु बहुत कठिनाई से ही मिलता है और स्वयं गुरु ही शिष्य को पहचान कर उसके पास पहुँचता है और उसे आगे का मार्ग दिखा कर ईश्वर से मिलाता है। गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए भी उसे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला व्यक्ति बताया गया था। अंधकार से प्रकाश की ओर वही व्यक्ति ले जा सकता है जो स्वयं प्रकाश में हो और इस यात्रा को कर चुका हो। माया महा ठगनी की चपेट में जब सारी दुनिया ही हो तब ऐसा व्यक्ति जो इस से निकलकर प्रकाश की यात्रा कर चुका हो, कठिनाई से ही मिलेगा। उस पर भी हमारे ग्रंथों में कहा गया है कि गुरु की परीक्षा लेने के उपरांत ही उसे गुरु की पदवी देनी चाहिए। केवल गुरु ही शिष्य की परीक्षा नहीं लेता अपितु शिष्य को भी गुरु की परीक्षा ठोक-बजा कर लेनी आवश्यक है ताकि कालनेमी जैसे लोगों को गुरु मानने से बचा जा सके। रामचरितमानस के प्रारंभ में प्रतापभानु की कहानी इसी बात का द्योतक है कि केवल किसी के ज्ञान से प्रभावित होकर उसे गुरु बनाने से बचना चाहिए, माने गुरु में केवल कुछ चमत्कार या कुछ अतिरिक्त ज्ञान होना भर ही काफ़ी नहीं है, उसमें और गुण और सामर्थ्य भी अनिवार्य हैं। इस तरह गुरु शब्द सचमुच में वह गुरुत्व रखता था जिसकी खोज में जिज्ञासु वर्षों ही नहीं अपितु जीवन-भर प्रतीक्षा में रहता था। ऐसे गुरुओं के समक्ष शिष्य पूरी तरह से समर्पण कर दिया करते थे और ये गुरु का ही काम होता था कि वह ऐसे शिष्य को सही रास्ते से आगे बढ़ाता हुआ, भव बंधन से छुड़ाए। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध इसी कारण सबसे ऊपर रखा गया था। गुरु होना एक कमिटमेंट है, शिष्य की आत्मिक उन्नति का दायित्व है गुरु पर। गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ होता है, गुरु जीवन का मैल निकालने वाला धोबी भी होता है और अगर गुरु यह काम नहीं कर पाता तो गुरु की पेशी होती है सबसे बड़ी अदालत में! कि भई अगर तुम किसी मिट्टी को घड़ा नहीं बना सकते थे तो उस मिट्टी को हाथ लगाया ही क्यों? बच्चा अगर सँभाल नहीं सकते थे तो पैदा ही क्यों किया? इसीलिए पहले के लोग शिष्यों पर निजी तौर से ध्यान देते हुए साधना आदि करवाते थे। परमहंस और विवेकानंद जी इस संदर्भ में याद आते हैं!
क्या आजकल के गुरु हज़ारों की संख्या में अपने शिष्य बना कर प्रत्येक व्यक्ति पर पूरा ध्यान देते हुए, उनकी साधना मार्ग पर निगाह रख सकते हैं? नहीं! इसीलिए पहले के गुरु बहुत ही कम शिष्य बनाते थे और शिष्य की योग्यता देखते हुए ही उन्हें स्वीकार करते थे।
गुरु के जिन लक्षणों और दायित्व की बात हमने की, क्या ऐसे गुरु सैंकड़ों और हज़ारों में हो सकती है? अगर नहीं, तो ये सब क्या है जहाँ बड़े-बड़े पंडालों में हज़ारों, लाखों की संख्या में लोग पहुँचते हैं और एक भाषण देने वाले, उपदेशक को अपना गुरु मान लेते हैं! क्या उस व्यक्ति ने उन्हें अपना शिष्य मान लिया होता है? मुझे नहीं लगता तब यह क्या है? मेरे हिसाब से यह है गुरुडम!
एक व्यक्ति जिसने साधना से कुछ क़दम आगे बढ़ा लिए हैं, वह व्यक्ति अपने अनुभवों को और अपनी यात्रा के पड़ावों को शेष लोगों से बाँट रहा है और साथ ही उस मार्ग के कुछ चिह्न बता रहा है, वह व्यक्ति उपदेशक, कथा वाचक या प्रवचनकर्ता तो हो सकता है किन्तु क्या वह आपका गुरु बन सकता है? शायद नहीं या शायद अगर वह स्वीकार कर ले तो हाँ! किन्तु लाखों की जो भीड़ पंडाल में इकट्ठी होती है उनका गुरु तो वह निस्संदेह नहीं है। वे लोग उसकी विद्वता और ईश्वर के प्रति प्रेम से प्रभावित होकर अवश्य उसे सुनने के लिए आते हैं कुछ ना कुछ सीख भी ग्रहण करते हैं, कुछ सूत्रों को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा भी करते हैं और इस तरह से अपने जीवन को पहले से कुछ अधिक बेहतर बना भी पाते हैं पर यह तो आचार्य का भी काम होता है। यह काम शिक्षक का भी है, यह काम उपाध्याय का भी है . . . पर गुरु इससे अधिक होता है! अगर उन्होंने एकलव्य की तरह से पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ काम किया तो शायद वो उसके गुरु भी बन सकते, यह एक तरफ़ा प्रेम जैसी बात होती और प्रेम ही गुरु बन कर उनका मार्ग सरल कर देता किन्तु एकलव्य जैसा समर्पण प्रायः नहीं होता है, शिष्य बनने की योग्यता जगाए बिना वे एकलव्य कैसे हो सकते हैं? तो गुरु की तरह ही शिष्य के भी कुछ प्री-रेक्यूज़िट होते हैं, साधना के कुछ नियम होते हैं जिनका पालन करना न कल के समय में सरल था और न आज! अनेक लोग सोचते हैं कि उसकी आवश्यकता भी क्या? स ही है, जब आवश्यकता नहीं तो उस रास्ते जाना क्यों? लेकिन ’सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान’ नहीं, एक ख़ालीपन लिए लाखों लोग घूम रहे हैं कि कुछ ग़ायब है जीवन से, वह कैसे मिले . . . कहाँ मिले . . .। किससे मिले . . . अतः प्रवचनों में जाओ, बाबाओं के पास जाओ, भागवत-रामायण पाठों में जाओ . . .। जाओ और ज़रूर जाओ॥कुछ सूत्रों से अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए जो कुछ लेकर उन पंडालों से लेकर आओ उसका अनादर ना करते हुए भी यह समझने की आवश्यकता है कि वह व्यक्ति एक अच्छा भक्त या साधु या प्रवचन कर्ता है। उसे गुरु बनाने से पहले, ख़ूब जाँच लो, सोच लो, समझ लो . . . उनके गुरुडम से चमत्कृत मत हो जाओ। घर में एक सोफ़ा भी ख़रीद कर जब हम लाते हैं तो दस दुकानें देखते हैं तब गुरु बनाने में यह हड़बड़ी क्यों? यह कोई अरेंज्ड मैरिज तो है नहीं कि पिता ने किसी के भी हाथ में हाथ पकड़ा दिया और आप उसके पीछे आँख बंद कर चल दिये, यह तो मन मिले और मन भरे की बात और जन्मभर का कमिटमेंट है, यह तो स्वयं-वर है, जान कर, पहचान कर चलो।
आज साधुओं और प्रवचनकर्ताओं को अपना गुरु कह कर हमारा समाज गुरु शब्द की सच्चाई से ही दूर हो रहा है। हज़ारों की संख्या में ऐसे गुरु हो गये हैं जो सुने-सुनाए उपदेशों को ही दोहरा कर धन, यश, सम्मान या शिष्य प्राप्ति के लिए लगभग होड़ सी मचाए हैं। अनेक लोग आज सोशल मीडिया, बढ़ते टीवी चैनलों ओर यूट्यूब के माध्यम से गीता, रामचरित मानस या भागवत की कुछ चर्चाओं के माध्यम से स्वयं चर्चा में बने रहना चाहते हैं ताकि गुरुडम की आय बनी रही। इस गुरुडम को गुरु से भिन्न समझने की आवश्यकता है और यह ज़िम्मेदारी गुरु कहलाने वालों से अधिक गुरु बनाने वालों पर है।
इस गुरुडम में एक श्रेणी है, शिक्षकों की। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में हम को पढ़ाकर हमारे ज्ञान चक्षु खोलने वाले अच्छे प्राध्यापक भी, हमारे मार्गदर्शकों की। वे शिक्षक हैं, प्राध्यापक हैं किन्तु गुरु नहीं। उनका नियंत्रण और विशेषज्ञता एक ही विषय पर होती है, उसके साथ वो जीवन के कुछ अपने अनुभवों से भी हमें कुछ सीख देते हैं, जिनसे हमारा जीवन कुछ बेहतर बनता है। ऐसे ही शिक्षकों को प्रणाम करने के लिए सितंबर 5 का दिन शिक्षक दिवस के रूप में घोषित है किन्तु हम गुरु पूर्णिमा पर भी उन शिक्षकों को अपना गुरु मानकर प्रणाम कर रहे होते हैं और सितंबर 5 को भी हम उन्हें प्रणाम करते हैं। ऐसे उच्च कोटि के शिक्षकों को अगर हज़ारों बार भी प्रणाम किया जाए तो उसमें कोई परेशानी नहीं किन्तु हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम जिसे प्रणाम कर रहे हैं वह कौन है? मेरे अपने जीवन में अनेक शिक्षकों ने अमूल्य योगदान दिया है, उनके पढ़ाए पाठों से मेरे भीतर, जीवन ओर विषय विशेष को समझने की नई दृष्टि पैदा हुई है। वे मेरे बहुत अच्छे अध्यापक, आचार्य और शिक्षक रहे किन्तु क्या वे मेरे जीवन को ईश्वर से मिलाने के लिए और अंधकार से प्रकाश में ले जाने के लिए उसी प्रकार से कार्य करते रहे हैं जैसा एक गुरु को करना चाहिए तो मैं कहूँगी नहीं।
इन दो के अंतर समझने से किसी का सम्मान घट नहीं जाता अपितु हम उसे भी सही सम्मान दे पाते हैं और स्वयं अपनी समझ को भी सही शब्दों से सम्मानित करते हैं। जब हमारे देश में गुरुकुल की व्यवस्था थी तब उस गुरुकुल में जाने वाला बच्चा, बहुआयामी जीवन के सभी भागों की पढ़ाई करता था। वह शस्त्र और शास्त्र के साथ साथ जीवन के उद्देश्य को समझने की चेष्टा करता था इसीलिए उस समय हम गुरुकुलों के आचार्यों को गुरु कहते थे। वहाँ भी गुरु वही कहलाता था जो विद्यार्थी को ब्रह्म ज्ञान देता था, जो उसे जीवन, जगत माया ओर उस अनंत पथ की दिशा में बढ़ाने में समर्थ होता था, जो अन्य शिक्षक होते थे, वे आचार्य कहलाते थे पर जैसा कि हम जानते हैं सदियों से शब्दों की घिसाई ने अर्थ बदल दिये हैं। अपने किसी शिक्षक को अगर आप शिक्षक के रूप में प्रणाम करते हैं तो उससे उनका असम्मान नहीं होता अपितु यह आवश्यक है कि हम सही शब्दों को जानें और उनका सही प्रयोग करें।
जब हम शब्दों को उनके सही रूप में जानेंगे तभी हम गुरु से गुरुघंटाल बन जाने वाले लोगों से भी बच सकेंगे अन्यथा थोड़ी, सीधी विशेषज्ञता प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपने ज्ञान का घंटा बजाकर, स्वयं को गुरु कहलवाकर आपको ठग भी सकता है। बात एक शब्द से शुरू होती है किन्तु शब्द के पीछे के विचार अगर स्पष्ट न हो तो वह शब्द आपका सब कुछ हरण करके, आपको निशब्द भी कर सकता है। ऐसे गुरुघंटालों की कहानियाँ आपने बचपन से ही सुनी होगी किन्तु क्या हमें उन गुरुघंटालों को पहचान कर, उनसे दूर रहने की शिक्षा प्राप्त कर सके? नहीं! उस समय में तो हवा से राख निकालने वाला आदमी, या दीवार से सेब पैदा करने वाला, या आपके जीवन की किसी मुसीबत का हल बता देने वाला, कृपा कहाँ अटकी है, कह देने वाला व्यक्ति भी बड़ा बाबा या हज़ारों का गुरु बन जाता है। स्कूल के गुरुजी के घर बिन पैसे की चाकरी करने वाले बच्चों की बातें भी हमने सुनीं हैं, नंबर प्राप्ति के लिए गुरुघंटालों के घर मिठाई, कपड़ा और पैसे की दक्षिणा पहुँचाने की बात तो बहुतों के साथ हुई है, ऐसे शिक्षक हमें गुरु शब्द का सही अर्थ समझाते तो उन्हीं का नुक़्सान होता और अगर हमें यह शब्द ज्ञान मिला होता तो आज समाज में अंधविश्वास की जगह, सही विश्वास ने ली होती और हम गुरु, गुरुडम और गुरुघंटालों की पहचान सही तरीक़े से कर सकते।
भारतीय ज्ञानपरंपरा के अनेक ग्रंथ सामने होते हुए भी हम अज्ञान के ऐसे चक्रव्यूह में फँसे हुए हैं जिनसे निकलना तभी सम्भव है जब हम स्वयं समय निकालेंगे, इसका कुछ तो अध्ययन करेंगे और सही शब्दों का प्रयोग करना सीखेंगे। उन शब्दों के गहरे अर्थों को पुनः सम्मान देकर, अपनी सोच का विश्लेषण करते हुए, उचित विचार को जब हम सम्मान देना प्रारंभ करेंगे, तभी हम स्वयं को भी सम्मान देना सीखॆंगे। अपने समय, अपनी आस्था और समर्पण को जब हम सम्मान देंगे तब यह भेड़ चाल नहीं होगी, बुद्धि और विवेक के प्रयोग पर बल देने वाली संस्कृति की उपज हैं हम, इस बात को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए।
किसी भी संस्कृति का पतन तभी होता है जब उसके शब्दों का पतन होने लगता है। गुरु-शिष्य परंपरा वाले इस सुंदर देश में अपनी संस्कृति को पतन से बचाने के लिए हमें पुनः ’गुरु’ शब्द के प्रकाश की ओर लौटना होगा।
1 टिप्पणियाँ
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कोई व्यक्ति केवल वेदों, उपनिषदों, कुरानों, बाइबिल , गीता पढ़कर सत्य तक नहीं पहुंच सकतें और ना ही इन सब की व्याख्या बताने करने हमें सत्य तक नहीं पहुंच सकता सत्य तक पहुंचने के लिए हमें अपनी इस साढ़े तीन हाथ की काया में जैसा वैसा सत्य अनुभव करायें और उसके मूल स्वभाव का दर्शन करने की शिक्षा दे वास्तव में उन्हीं के लिए गुरु शब्द उचित होगा क्योंकि उसी से हमारा कल्याण होगा
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