इसी बहाने से - 02 साहित्य का उद्देश्य - 1
डॉ. शैलजा सक्सेनासाहित्य का उद्देश्य विवेचित करना आसान कार्य नहीं है पर यह प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक है। रचनाकार किस लिए रचना कर रहा है? वह रचना कर, उसको सबके साथ बाँटना क्यों चाहता है? आखिर ऐसा करने में उसका उद्देश्य क्या है यानि अन्तत: साहित्य का उद्देश्य क्या है?
यह विषय कुछ लम्बा है, जीवन की तरह लम्बा कहें या साहित्य के इतिहास की तरह कहें, पर इसे दो-चार सूक्तियों, उद्धरणों में बाँधा नहीं जा सकता - यह तय है। समय के साथ-साथ साहित्य ने रूप बदले, कभी हमें वीरों की गाथाएँ सुनाईं तो कभी भगवान की महिमा गाई। कभी कामिनियों की देह-यष्टि में यह उलझा है, फिर कभी दुखी जन की पीड़ा गाई तो कभी प्रकृति का राग छेड़ा। कहने का मतलब कि साहित्य-यात्र में कवियों ने काल और स्थितियों के अनुसार साहित्य का उद्देश्य बार-बार बदला। साहित्य के उद्देश्य से इसमें विस्तार आया जिसने साहित्य को हर युग में नवीन बनाए रखा पर जैसे अनेक सम्बन्धों में बँट कर भी मुनष्य वही एक मनुष्य रहता है जिसके साँस लेने में, जीवित रहने का कोई एक अर्थ रहता है और उसी अर्थ की खोज में वह जीवन भर लगा रहता है! ठीक उसी तरह से साहित्य के उद्देश्य की चर्चा मुझे दुस्तरीय लगती है और कुछ दुस्तर भी लगती है।
संस्कृत साहित्य के समय में साहित्य के भीतर, पहले स्तर को पकड़ने की चेष्टा, साहित्य-शास्त्रियों ने की थी। कहीं साहित्य के उद्देश्य का उन्होंने कभी "भावों" की प्रस्तुति बताया तो कभी "कला" की। बाद में कभी साहित्य का उद्देश्य "आदर्शों" की स्थापना रहा तो कभी "यथार्थ" की। चिंतन-संघर्ष के उत्तर प्रतिउत्तरों के बीच मुझे आचार्य मम्मट की यह उक्ति, साहित्य उद्देश्य के भीतरी क्षेत्र के अधिकांश भाग को समेटती हुई लगती है -
"काव्यं यशसे, अर्थकृते, व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये
सद्य: परवितृतय: कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे"
(काव्य-प्रकाश)
आचार्य मम्मट कहते हैं कि काव्य का उद्देश्य यश की प्राप्ति, अर्थ की प्राप्ति और शिव यानि मंगल की स्थापना है। वह सकल प्रयोजनों को पत्नी की भांत मधुर शब्दों के उपदेश से कहता है। आचार्य मम्मट वेद्यन्तर को विगलित कर परमानंद की अनुभूति देना भी साहित्य का उद्देश्य मानते हैं।
इस परिभाषा की प्रथम पंक्ति कालातीत है। सबका मंगल चाहना, दुख पाकर दुख की आँच को समझना और उस आँच में तपते हृदयों के साथ ’सम-वेदना’, समत्व स्थापित कर, उनका कंधा थपथपा, सहयात्री, सहभोगी, सहयोगी के रूप में आना - साहित्य का सदा से उद्देश्य रहा है चाहे वह ’मेघदूत’ के यक्ष के विरह का दुख हो या मुक्तिबोध के "ब्रह्मराक्षस" या "अंधेरे में" के पात्रों की पीड़ा - सब युगों में साहित्य ने दुख में, जीवन में संघर्षों में साँझा करने की चेष्टा की है। "अज्ञेय" की कविता की यह पंक्तियाँ यहाँ मुझे याद आ रही हैं --
"दुख सबको माँजता है
स्वयं चाहें
मुक्ति देना वह न जाने
पर जिन्हें वह माँजता है
उन्हें यह सीख देता है...
कि सबको मुक्त रखें।.."
दु:ख झेलकर, संघर्ष से निकल कर "मुक्त" हो जाना और अपनी मुक्ति में सबको सहभागी बनाने की चेष्टा ही संभवत: साहित्य की शाश्वता का रहस्य है - हरेक से जुड़ने और हर जीवन के भीतर से "तिर" आने की अदम्य इच्छा ही साहित्य का उद्देश्य है।
साथ ही यश और अर्थ की इच्छा भी साहित्य के लौकिक उद्देश्य हैं जिनसे इन्कार नहीं किया जा सकता।
इक्कीसवीं सदी के चौथे वर्ष में संसार को यह तो विश्वास हो चला है कि अब कोई सभ्यता जब अपने मूल्यों को परिभाषित करने बैठेगी तो उसे आयातित या विदेश प्रभावों से आए परिवर्तनों के कारण, इस परिभाषा को लिखने में अनेक प्रश्नों से उलझना पड़ेगा। यही उलझन इस लेख में मुझे आ रही है। समय के साथ साहित्य के रूप में इतने परिवर्तन आए हैं कि हर युग में अपना उद्देश्य-रूप बदलते साहित्य को सारांश में विवेचित-विश्लेषित कर पाना कठिन है। "ग्लोबलाइजेशन’ से जहाँ मुनष्य-मनुष्य के निकट आया है, वहीं अपने क्षेत्रें से निकल कर दूर-दराज़ के देशों में भी पहुँच गया है। उसके पहुँचने के साथ-साथ पहुँची है उसकी भाषा और उसका साहित्य और उसकी रचना शक्ति। आज ’वेबपत्रिकाओं’ से हम इस रचनाशक्ति को विश्व के किसी भी कोने से बैठ कर पढ़ सकते हैं। पिछले दशक से बाहर पहुँचे लोगों की रचनाओं के प्रकाशित रूप भी बहुत अधिक दिखाई देने लगे हैं। अब साहित्य के उद्देश्य या स्वरूप या इतिहास की चर्चा केवल भारत के रचनाकारों की रचनाओं के आधार पर नहीं की जा सकती अपितु ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, नार्वे, ट्रिनिडाड और उत्तरी अमरीका आदि में रहने वाले लेखकों की रचनाओं को भी हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में सम्मिलित करना होगा, उन्हें ’प्रवासी लेखक’ कह कर हाशिये पर बहुत देर तक नहीं रखा जा सकता।
इससे साहित्य के आलोचकों और साहित्यशास्त्रियों की समस्याएँ बढ़ेंगी, क्योंकि युग और काल के साथ-साथ स्थान के प्रभाव को समेटे वर्तमान रचनाएँ किसी एक साहित्य सिद्धान्त से बँधी नहीं रह पायेंगी। किसी एक विचार और सूत्र से इन रचनाओं को आंकने की चेष्टा करने की हठधर्मिता में रचनाकार के हृदय का मर्म, कर्मस्थली का प्रभाव और बदलती सामाजिक संरचना की उपेक्षा हो जाने का भय है। बात केवल परिवेश की होती तो उस परिवेश का विवेचन विलश्षण करके आगे बढ़ा जा सकता था पर देश से बाहर बैठे रचनाकारों के हृदय-मस्तिष्क में स्मृतियों और संस्कारों का जो एक बड़ा संसार है, उसका अन्वेषण करना सरल नहीं है। यह स्मृतियों और संस्कारों का संसार केवल ’देश की याद’ दिलाने वाली ’नास्टेलिजिक’ रचनाओं में ही नहीं उभरता है अपितु वर्तमान भारत की संक्षिप्त यात्राओं में यथार्थ से साक्षात्कार कराता, घर के भीतर चलते पूर्व-पश्चिम मूल्यों में भी उभरता है। इसके साथ ही समस्या है अभिव्यंजना-शैली की। कोई लेखक चालीस वर्ष पूर्व आया पर उसकी स्मृति में सन् साठ का मोहभंग नहीं, सन् तीस पैंतीस का छायावाद स्मृति में बसा है, कोई ’नवगीत’ का प्रभाव लिए है तो कोई ’हालावाद’ की छाया में लिख रहा है। ऐसा नहीं कि भाषा-अभिव्यंजना में नवीन रूप देखने को नहीं मिलता हो, प ऐसा कम है। ऐसा लग सता है कि दो विरोधी बातें हैं - एक ओर प्रवासी हिन्दी लेखकों को मूलधारा से जोड़ने की बात कहना और दूसरी ओर उनके साहित्य पर पुराने हो चुके "वादों" का प्रभाव बताना। वस्तुत: ये विरोधी बातें नहीं अपितु ऐसा संश्लिष्ट सत्य है जिसके कारण एक नए प्रकार की चिंता, बहस साहित्यशास्त्रियों में प्रारंभ हो चुकी है और निकट भविष्य में भी इस एकीकरण की प्रक्रिया का सटीक समाधान निकलता नहीं दिखाई देता।
देवेन्द्र इस्सर अपने लेख "नई शती में विचारों का भविष्य और भविष्य" में इस समस्या के संबंध में लिखते हैं-- "वास्तव में समस्या यह है कि उत्तर उपनिवेशवादी विमर्श प्रवासी व्यक्तियों की विभाजित संस्कृति से उत्पन्न हुआ है। एडवर्ड सईद (फिलीस्तीन) हो या सारा सुलेरी (पाकिस्तान) या गायत्री स्पिवाकु और होमी भाभा (भारत), ये सब सांस्कृतिक "स्कीजोफ्रीनिया और भ्रम की परवरिश कर रहे हैं। अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटकर स्वदेश को त्यागकर दूसरी संस्कृतियों में प्रवेश करने के कारण उनके संवाद के पात्र और उस संवाद के स्रोत उसी संस्कृति को लोग हैं।"
देवेंद्र इस्सर की बात में मुझे आंशिक सच्चाई ही दिखाई देती है। प्रवासी भारतीय लेखकों पर "स्कीजोफ्रीनिया और भ्रम की परवरिश करने" का आरोप से मैं सहमत नहीं हूँ। जिसे इस्सर जी "भ्रम" कहकर किनारे पर धकेल रहे हैं, वह साहित्य प्रवासी जीवन के संघर्ष का साहित्य है। यह संघर्ष भारत में रहनेवाले मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन से भिघ् प्रतीत हो सकता है पर अन्तत: बuनियादी चिन्ताओं में, प्रवासी मध्यवर्गीय भारतीय और भारत के मध्यवर्गीथ व्यक्ति की चिन्ताओं में कोई अधिक अन्तर नहीं है। बल्कि जो सामाजिक-सांस्कृतिक सहयोग वहाँ के मध्यवर्गीय व्यक्ति को परिवार और परिवेश से प्राप्त है, उसका विदेश में अभाव होने से प्रवासी भारतीय का संघर्ष - भौतिक और मानसिक स्तर पर दोहरा हो जाता है।
देवेंद्र इस्सर जी का दूसरा आरोप प्रवासी लेखकों पर अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटने का है, वह भी कम से कम हिन्दी लेखकों पर लागू नहीं होता, जिनकी रचनाओं में घर-आंगन की याद, घर और देश के स्वर, भारत में रहने वाले लेखकों की रचनाओं से कुछ अधिक ही गूँजते हैं। प्रवासी लेखकों में अत्याधिक प्रसद्धि महाकाव्यों की (शकुन्तला, अनुराग) रचना करने वाले प्रो. हरिशंकर आदेश की कविता इस्सर जी के इस आरोप का उत्तर देते हुए कहती है-
"समय परिस्थितियाँ या भाग्य मुझे बाहर ले आया।
सच कहता हूँ माँ! पर तुमको पल भी भुला न पाया।
रोटी-रोज़ी -सुख-समृद्धि-वैभव से प्रेरित होकार
जितना आया दूर, निकट उतना ही तुझको पाया।।
(कविता: "प्रवासी की पाती - भारत माता के नाम" संग्रह -प्रवासी की पाती)
अमरीका के प्रसिद्ध कवि श्री सुरेंद्रनाथ तिवारी अपनी कविता -"आओ, लौट चलें अब घर को" में लिखते हैं -
"उस आँगन की तुलसी ने ही हमको संस्कार सिखाए,
अर्घ्य सिखाया, मंत्र सिखाए, और सिखाई वेद ऋचाएँ
जहाँ कुटुम थी सारी वसुधा, सब चाचा, मामा, मौसी थे
एक प्यार की भाषा जिसने, हृस्र्व, दीर्घ, अनुस्वार सिखाए
फिर से एक बार सीखें हम
जीवन के ढाई आखर को
आओ, लौट चलें अब घर को"
(संग्रह- उठो पार्थ गाँडीव संभालो)
तो प्रवासी हिन्दी कवि की कविता "संस्कृति का त्याग" नहीं करती है बल्कि उसे सहस्र बाहुओं से अपने से लिपटाए है। जिसकी गंध उसके साहित्य में अनेक रूपों में दिखाई देती है।
बात दरअसल उस समझ को पैदा करने की है जिसकी दृष्टि से भारत और भारत के बाहर लिखे जाने वाले साहित्य के स्वरूप को देखा जा सके और उसका निष्पक्ष विवेचन किया जा सके। भारत में लिखा जाने वाला आज का साहित्य और आज से चालीस वर्ष पहले से लिखा जाने वाला उपलब्ध साहित्य भी अक्सर विदेशी विचारकों ( मार्क्स, फ़्रॉयड, मिशल फूको, वर्जीनिया वुल्फ़, एज़रा पाउण्ड और अन्य) से प्रभावित रहा है। ये प्रभावों के आदान-प्रदान, जनसंचार की सुविधाओं से युक्त नए समाज में अवश्यंभावी है। बल्कि मैं समझती हूँ कि यह आदान-प्रदान, हमारी मानसिकता, तार्किक विश्लेषण शक्ति और सत्य को पहचानने की शक्ति को खरा ही करते हैं, कम नहीं, पर जहाँ ये विचार साधन न बन कर लेखक के साध्य हो गए हैं, वहीं प्रतिबद्धता बन कर पाठकोंको भ्रमित करने लगते हैं।
पाठकों को भ्रमित करना साहित्य का उद्देश्य नहीं है, किसी भी युग में नहीं रहा और जो लेखन पाठकों की चिन्तन शक्ति को विस्तार और गहनता देने के स्थान पर केवल एक सोच का ही रंगीन चश्मा देने का कार्य करता है - वह किसी वाद, विचार, पार्टी या मत का घोषणापत्र तो हो सकता है - साहित्य नहीं!
-- क्रमश:
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