इसी बहाने से - 12 मेपल तले, कविता पले-2 (कनाडा में हिन्दी-4)
डॉ. शैलजा सक्सेनाइसी बहाने से -
(कनाडा के मुख्य कवि और कवितायें)
पिछले लेख में मैंने कनाडा में हिन्दी साहित्य के प्रारंभ और विकास के विषय में कुछ तथ्य प्रस्तुत किये थे और अनेक रचनाकारों के नाम और उनकी प्रकाशित पुस्तकों के नाम संक्षेप में लिखॆ थे। प्रस्तुत लेख में और इस के बाद के कुछ लेखों में मैं इन रचनाकारों की रचनाओं पर विस्तार से प्रकाश डालने की चेष्टा करूँगी ताकि विदेशों में बसे हिन्दी साहित्यकारों को जानने की इच्छा रखने वाले जिज्ञासुओं को इन रचनाकारों के रचनाकर्म और रचनात्मक प्रतिभा का पता चल सके।
सर्वप्रथम मैं कनाडा, ट्रिनिडाड और अमरीका में रहने वाले और हर जगह हिन्दी साहित्य लेखन को प्रोत्साहन देने वाले, मुक्त रचनाओं से लेकर महाकाव्यों की रचना करने वाले प्रो. हरिशंकर "आदेश" जी के साहित्य पर चर्चा करना चाहूँगी।
प्रो. हरिशंकर "आदेश" की रचनाओं पर कुछ विचार:
गतांक से आगे -
प्रो. हरिशंकर आदेश जी की रचनात्मक ऊर्जा स्पृहणीय है। अनेकों पुस्तकों की रचना कर चुकने के बाद और बेहद खराब स्वास्थ्य होने के बाद भी आज तक वे निरंतर साहित्य रचना में संलग्न हैं। रचनात्मकता के प्रति ऐसा समर्पण आज के समय में दुर्लभ है। उनकी सारी रचनायें मुझॆ नहीं मिल सकीं अत: मैंने उनसे ही बात करके बहुत सी जानकारी ली। इस लेख में उनके कहे वाक्यों को मैं बीच-बीच में उद्धृत करूँगी।
आदेश जी ने अब तक पाँच महाकाव्यों की रचना की है और वे इस समय छठे महाकाव्य की रचना में संलग्न हैं। ये महाकाव्य हैं: “अनुराग”, “शंकुतला”, “निर्वाण”, “महारानी दमयन्ती”, “ललित गीत रामायण”, “देवी सावित्री” और “रघुवंश शिरोमणि राम” पर उनका काम इस समय चल रहा है। महाकाव्यों की रचना करना आसान नहीं होता। कविता में कहानी को कह भर देना ही महाकाव्य नहीं होता बल्कि रचना के भीतर का प्राण तत्त्व यदि कहानी और पात्रों की महत्ता को दिखाये तब महाकाव्य की रचना होती है। महाकाव्य के लेखक के पास न केवल पूरी कथा को देख सकने की क्षमता चाहिये होती है अपितु उसमें एक शोधकर्ता की सी निष्पक्षता, ऐतिहासिक तत्त्वों को खँगालने की मेहनत और पूरी कथा को सार्थक बनाने की अंतर्दृष्टि भी चाहिये होती है। आदेश जी की कथाओं की गहनता को महाकाव्यों को साकार कर सकने की प्रतिभा और क्षमता का पता इस बात से चलता है कि उन्होंने एक नहीं अपितु छह महाकाव्यों की रचना की है। हर कथा के इतिहास को पढ़ा, जाना, समझा और विश्लेषित किया है। उसके बाद उनके सार को अपनी भावनाओं, चिंतन, विचार गंभीरता और कल्पना से परिष्कृत भाषा में साकार किया है।
महाकाव्यों की रचना जिस समय में प्रचलित थी तब शास्त्रीय परंपरा का अनुसरण करना आवश्यक था। हमारे साहित्यशास्त्रियों ने बहुत विस्तार से महाकाव्य के एक-एक अंग की विवेचना की थी। कथा कैसी होनी चाहिये, कथा का प्रारंभ कैसा होना चाहिये, नायक धीरोदात्त हो या धीर प्रशांत हो, नायिका कैसी हो, कथा की लंबाई, उनका सर्गों में विभाजन, अलंकार और छंदों के प्रयोग, रस-निष्पत्ति- हर एक आयाम के लिये निश्चित नियम बनाये गये थे और उन के अनुसार रची हुई रचना को जाँचने के बाद ही उन्हें “महाकाव्य” की संज्ञा मिलती थी। आधुनिक साहित्य ने शास्त्रीय नियमावली के बंधन को मानना अस्वीकार किया। छंद बदले और कविता की संरचना भी बदल गई। कविता लेखन में नियमों की अवहेलना हुई तो महाकाव्यों के नियमों को भी कुछ सीमा तक अनदेखा किया गया पर आधुनिक साहित्य में महाकाव्यकार कम हुए हैं। साहित्य में आदर्शों की प्रस्तुति का काम प्रबंध काव्य (महाकाव्य और खंड काव्य) अपने विस्तृत कलेवर के कारण अधिक आसानी से कर लेते हैं परन्तु आधिनिक साहित्य में महाकाव्य परंपरा की क्षीणता के कारण, प्राचीन साहित्य जैसे आदर्श प्रस्थापन जैसे कार्य भी कम हो गये।
प्रो. हरिशंकर आदेश ने इस परंपरा को आगे बढ़ाने का महती काम किया है। उनके महाकाव्य शास्त्रीय सम्मत निर्देशों के अनुसार हैं पर उनमें आधुनिक जीवन की समस्याओं, मन:स्थितियों औरव चारों को स्पष्ट देखा जा सकता है। आदेश जी आधुनिक हैं परन्तु परंपराओं को मान कर, उसमें आधुनिक तत्त्वों को प्रस्तुत करने की मान्यता को लेकर चलते हैं यानि प्राण आधुनिक, कलेवर पारंपरिक। वे मानते हैं कि महाकाव्यों के शास्त्रीय नियम जिस प्रकार बताये गये हैं, उनका पालन उस तरह से ही करना चाहिये। यह पूछने पर कि आज के आधुनिक साहित्यकार तो शास्त्रीय नियमावली को मानते नहीं हैं, पर आप महाकाव्य में शास्त्रीयता का पालन कर रहे हैं, इसका क्या कारण है? उन्होंने कहा, “मंदिर और भवन में अंतर होता है। मंदिर में निश्चित विधि का पालन करते हुये पूजा-अर्चना होती है। महाकाव्य भी साहित्य का वो मंदिर है जहाँ शास्त्रीय निर्देशों का पालन करते हुये रचना करना आवश्यक है। वैसे आधुनिक मत-विचार बताने के लिये भवन जैसे काव्य संग्रह मैंने भी लिखॆ हैं जैसे “देवालय” पर वह मेरी मुख्य धारा नहीं है।“
आदेश जी का पहला महाकाव्य "अनुराग" प्रेम, विरह, श्रृंगार की महागाथा है तो “निर्वाण” महात्मा बद्ध के जीवन पर आधारित होने के कारण शान्त रस और महाकरुणा पूर्ण आनंद का संदेश देता है। आदेश जी ने यह ध्यान रखा है कि हर महाकाव्य में कोई विशद संदेश हो। कमल किशोर गोयनका जी “निर्वाण” के विषय में लिखते हैं; “आज इक्कीसवीं शताब्दी में महात्मा बुद्ध की महाकरुणा,वासनाओं से मुक्ति तथा मानवता की हित कामना वाला जीवन-दर्शन और भी उपयोगी हो गया है और विश्व में छाये महानाश से मानवता की रक्षा कर सकता है। अत: “निर्वाण” का प्रकाशन इस नयी शताब्दी की महान घटना है और मुझॆ विश्वास है कि महाकाव्य का यह संदेश हमें विश्व-मानव के कल्याणकारी मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता रहेगा।
इस महाकाव्य को पढ़ते समय मुझॆ “कामायनी” एवं “उर्वशी” का स्मरण हो आया, परन्तु इसका विषय भिन्न होने पर भी “निर्वाण” की काव्य-सम्पदा, गीत-सौन्दर्य, भाषा का अद्भुत प्रवाह, कथा-संयोजन, पात्रों का अंतर्द्वंद्व तथा इतिहास को जीवन्त बनाने की कवि की अद्भुत क्षमता इस महाकाव्यों की परंपरा में गौरवपूण स्थान पर स्थापित करेगी।“ आदेश जी ने “निर्वाण” की भूमिका में स्पष्ट लिखा है; “इस कृति में मैने इतिहास नहीं लिखा है। मैंने दर्शन नहीं लिखा है। मैंने लिखा है इतिहास एवं दर्शन द्वारा समर्थित संपोषित कल्पना-रंजित काव्य, केवल काव्य।“
यह बात उनके अन्य महाकाव्यों के लिए भी बात सही है। इन काव्यों में उद्दात मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है और ये काव्य सौन्दर्य, शिव और मंगल के भंडार बन गये हैं। यही आदेश जी चाहते हैं कि उनकी हर रचना मनुष्य-मन को आनंद और उदात्तता का संदेश दे और पुरातन सुंदर मूल्यों की प्रतिष्ठा करे। वे “महारानी दमयन्ती” की भूमिका में स्पष्ट और विस्तार से लिखते हैं; “मैं एक भारत एवं भारतीय संस्कृति-निष्ठ प्रवासी कवि हूँ। भारतीय पत्र-पत्रिकाओं, दूर-दर्शन के धारावाहिकों तथा चलचित्रों से प्रतीत होता है कि विगत कुछ वर्षों से संस्कृति, साहित्य तथा दर्शन के अक्षय केन्द्र भारत में भी पारिवारिक अथवा दाम्पत्य-जीवन में अप्रत्याशित, अनापेक्षित एवं अशोभनीय परिवर्तन हुए हैं। वहाँ भी प्रेम एक मनोविनोद एवं क्रीड़ा का साधन बनता जा रहा है। पति-पत्नी के मध्य परित्यजन की प्रवृत्ति बलवती होती जा रही है। इसी कारण पशिचम का कुंठावादी दृष्टिकोण जीवन को भार एवं समस्या का रूप देता जा रहा है। ऐसी विषम स्थिति में नल-दमयंती के विशुद्ध प्रेम का आख्यान समाज के अहत प्राणों में नव आशा का संचार करने में सक्षम सिद्ध होगा। ऐसा मेरा विश्वास है।“
“निर्वाण” में यशोधरा तो "शकुन्तला" और "महारानी दमयन्ती" महाकाव्यों में भी नारी चरित्रों को केन्द्र में रख कर आदेश जी ने नारी सम्मान, नारी जीवन के विविध प्रश्नों और आयामों पर बहुत खुल कर लिखा है। महाराजा नल जब दमयन्ती पर शंका करते हुए प्रश्न उठाते हैं तब दमयन्ती भी स्पष्ट रूप से पुरुष की विश्वसनीयता पर प्रतिप्रश्न खड़े करने में संकोच नहीं करती हैं। “निर्वाण” की भूमिका में वे लिखते हैं; “ …कालान्तर में मुझॆ नर द्वारा नारी के नैतिक शोषण का आभास हुआ। मातृशक्ति नारी के प्रति श्रृद्धा जागरूक हुई। इतिहास- प्रसिद्ध पति-परित्यकता निर्दोष नारी के प्रति सहानुभूति एवं सद्भावना का तीव्र अनुभव हुआ एतदर्थ आत्म-प्रेरणा से प्रेरित होकर मैंने राजा दुष्यंत द्वारा परित्यक्त महर्षि कण्व की धर्मपुत्री शकुन्तला को “शकुन्तला” में और राजा नल द्वारा परित्यक्त दमयंती को “महारानी दमयंती” महाकाव्य की नायिका बनाकर उनकी व्यथा-कथा को अपनी लेखनी द्वारा प्रस्तुत किया।“
उनके अगले महाकाव्य “देवी सावित्री” में भी उनकी नारी श्रृद्धा देखाई देती है। इस समय “रघुवंश शिरोमणि श्री राम” की रचना करते हुये माता सीता के प्रति उनकी अपार श्रृद्धा दिखाई देती है। उन्होंने बताया; “ ’देवी सावित्री’ की भूमिका में मैंने स्पष्ट लिख दिया था कि भौतिक श्रृंगार से मैं अब संन्यास ले रहा हूँ और आध्यात्मिक सौंदर्य की ओर जा रहा हूँ”। उन्होंने बताया कि रोग शैय्या से भी इस महाकाव्य की रचना करने का कारण यह है कि श्री राम के विषय में अनेक भ्रांतियाँ फैलाई गई हैं और कहा गया है कि उन्होंने सीता को गर्भवती होने पर भी एक धोबी के कहने पर निकाल दिया था। उनका मानना है को जातकों में इन कथाओं का वर्णन कर के सनातन धर्म और उसके मुख्य स्वरूप राम के चरित्र को कम करके दिखाने की यह चेष्टा है। उन्होने थाई, मलेशियन, चीनी आदि अनेक रामायणों का अध्ययन करके देखा है और पाया कि सीता जी स्वयं बाल्मीकि आश्रम में गईं थीं। भूमि पुत्री होने के कारण वे सदैव प्रकृति के सानिन्ध्य में ही रहना चाहती थीं, इसीलिये लंका से लौटते हुये भी बाल्मीकि आश्रम में रुकने की अपनी इच्छा वे श्री राम के समक्ष रखती हैं!
“ललित गीत रामायण” में उन्होंने राम कथा को गीतों में लिखा है और हर गीत राग-ताल में निबद्ध है ताकि इस राम कथा को पूरा गाया जा सके। यह नया प्रयोग है जहाँ महाकाव्य गीतों में है।
कथ्य की तरह ही आदेश जी की भाषा और शिल्प भी अनूठा है। छंदों और अलंकारों का उन्हें विशद ज्ञान है और भाषा के अनेक प्रकारों का प्रयोग करते हुये भी उन्होंने महाकाव्यों की भाषा को तत्सम और संस्कृतनिष्ठ रखा है। भाषा के संबंध में उनका विचार है कि हिन्दी के शब्दकोष को बचाने का दायित्व हमारा ही है और पुराने छंदों और अलंकारों से नई पीढ़ी को परिचित कराना भी हमारा ही काम है।
उनकी भाषा-प्रयोग के विषय में जानना हो तो “महारानी दमयंती” की भूमिका में पढें, वे लिखते हैं; “मैंने अपने समस्त वांड्मय में सात प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है। प्रथम प्रकार की भाषा सामान्य बोल-चाल की भाषा है, जिसे मैंने अपने भक्ति-साहित्य, जन गीता और सप्तशतियों में प्रयोग किया है। द्वितीय प्रकार की भाषा वह है जिसे मैंने हास्य-व्यंग्य काव्य में प्रयोग किया है…..तृतीय प्रकार की भाषा में सामान्य हिन्दी भाषा का प्रयोग किया है, जिसमें उर्दू या हिन्दुस्तानी भाषा के प्रचलित शब्द स्वाभवतया स्वयं प्रयुक्त होते चले गये हैं। चतुर्थ प्रकार की भाषा को हिन्ग्लिश कहा जा सकता है….किन्तु यह प्रयोग केवल ऑल इंडिया पशु सम्मेलन (मौलिक खंडकाव्य) नामक पुस्तक तक ही सीमित रहा है अन्यत्र मैंने अपनी भाषा को यथासंभव आंग्ल भाषीय शब्दों से दूर ही रखा है। पंचम प्रकार की भाषा ब्रज भाषा है…जिसे मैंने…..विभिन्न रागों की संगीतात्मक “बंदिशों” में प्रयोग किया है…षष्ठ प्रकार की भाषा कबीराना, सधुक्कड़ी या खिचड़ी भाषा है जिसका प्रयोग मैंने अपने काव्य संकलन “निर्वेद, “जाने की बेला में”…तथा अन्य वैराग्य भावयुत कृतियों में किया है। अंतिम अथवा सप्तम प्रकार की भाषा शुद्ध तत्सम एवंतद्भव शब्दों से पूण्रूपेण परिप्लावित है। मैंने अपने महाकाव्यों में यथासंभव इसी भाषा का प्रयोग किया है..”
उदाहरण देखें:
“निशा का साम्राज्य कर क्षीण।
रजत आलोक हुआ अवतीर्ण।
मन्द गति से प्राची के द्वार,
लगा करने तम-वक्ष विदीर्ण” (महारानी दमयंती, प्रथम सर्ग, प्रथम छंद)
“राग-रंग, रस, रोष, रागिनी
रंजकता, रमणी, रनिवास।
जगती की जड़ता, जगमगता,
भौतिक वैभव और विलास।
जीवन के सारे आकर्षण,
सदा दृष्टि में उसकी हेय।
प्रेम-प्राप्ति के पुण्य पंथ में,
रोक न सकते जग के श्रेय।“(निर्वाण, सप्तम सर्ग: निमित्त चतुष्टयी)
इन उदाहरणों में अलंकार सौन्दर्य का सरस प्रवाह भी दर्शनीय है।
यह मेरा दुर्भाग्य है कि मेरे पास अब तक उनके केवल तीन ही महाकाव्य हैं। अत: अन्य महाकाव्यों के विषय में उनसे ही जानकारी लेनी पड़ी। शिल्प की दृष्टि से “देवी सावित्री” के संबंध में उन्होंने बताया कि उसमें ८५ छंदों का प्रयोग किया गया है और हर कविता के नीचे छंद का नाम दिया गया है। पुस्तक में छंद के तत्त्वों को भी बताया गया है। हँसते हुये उन्होंने कहा कि इस तरह यह तो एक तरह से पाठ्यक्रम की पुस्तक ही बन गई है। उनका मानना है कि इस तरह उन्होंने छंदों के मूल रूप को बचाने की चेष्टा की है।
अपनी भूमिकाओं में उन्होंने ग्रंथ में प्रयुक्त छंद, अलंकार और भाषा के विषय में विस्तार से लिख कर पाठक की मदद की है। वे कहते हैं; “जहाँ तक मैं समझता हूँ मेरी भाषा स्वभावतया ही सरल, सहज आनुप्रासिक एवं गतिमयी है परन्तु क्लिष्ट नहीं है। महाकाव्य की भाषा इस से भी अधिक सरल क्या हो सकती है?”
उनके इस मत से वे कुछ लोग जिस साहित्यप्रेमी तो हैं किन्तु जिनका भाषाकोश सीमित है वे असहमत हो सकते हैं और प्राय: यह होता है कि जब हम कुछ नहीं जानते तो जानने की चेष्टा करने के स्थान पर उसे क्लिष्ट या पुरातन और अप्रासंगिक कह कर छोड़ देते हैं। इसी तरह से भाषा सिमटती जाती है और बहुत से सुन्दर शब्द खोते चले जाते हैं।दूसरी भाषाओं के आसान शब्दों पर मुग्ध होने में कोई बुराई नहीं है पर अपनी भाषा के मूल्यवान संग्रह को ”असानी/ सुविधा” के नाम पर फेंकते चले जाने में कोई समझदारी नहीं है।
पद्य के अतिरिक्त उन्होंने ६ कहानी संग्रह (रजत जयन्ती, मर्यादा के बंधन आदि), २ उपन्यास और ३० नाटक भी लिखे हैं जिनमें से केवल दो नाटक ही प्रकाशित और प्रसिद्ध हुए हैं- “ “सूरदास की आँखॆं” और “देशभक्ति”!
यह पूछने पर कि आपने इतना अधिक लिखा है पर आपका बहुत सा साहित्य तो हम लोग देख/ पढ़ भी नहीं पाये हैं, ऐसे में क्या आप के मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि इतना सब लिख तो रहा हूँ पर इसे पढ़ेगा कौन?, उन्होंने हँस कर कहा कि “बिल्कुल नहीं। मेरे मन में ऐसा कुछ नहीं उठता क्यों कि मैं रचना स्वान्त: सुखाय के लिये करता हूँ और मैं जानता हूँ कि हर पुस्तक का एक पाठक होता है, मेरी पुस्तकों का भी होगा। हर व्यक्ति का काम उसके जाने के बाद पहचाना जाता है। मैं भी अपना कर्म कर रहा हूँ, पौधे लगाता जाता हूँ, इसके फल तो कोई और ही खायेंगे। मैं अपने लोगों के लिये संस्कृति और धर्म की बातें लिख रहा हूँ”।
अपने पाठकों और नये रचनाकारों को संदेश देते हुये उन्होंने कहा; ”मैं भी हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की बात कहूँगा कि पहले पढ़ना सीखो फिर लिखो। अतीत में जो बड़े-बड़े साहित्यकार लिख गये हैं, उनको पढो। शीघ्रता नहीं करनी चाहिये। एक दिन में बच्चन और प्रेमचंद नहीं बन जाते हैं। प्रेमचंद भी छह महीने में एक कहानी प्रकाशित करते थे। लिख कर रख देते थे, फिर हफ्ते-दो हफ्ते में निकाल कर पढ़ते थे, सुधारते थे, फिर रख देते थी अत: धैर्य रख कर लिखना चाहिये, अपने को समर्पित करके लिखना चाहिये। अनुसरण करना अच्छा है, अनुकरण नहीं करना चाहिये और अगर कोई गुरू मिल जाये तो यह सोने पर सुहागे की सी बात होगी”।
प्रो. हरिशंकर आदेश का व्यक्तित्त्व और उनका कृत्तिव ज्ञान और मानवीय प्राण का वह समुद्र है जहाँ रचनात्मकता की लहरें निरंतर उठती रहती हैं और तट पर माणिक-मुक्ता बिखराती रहती हैं। इन मुक्ता-माणिक की पहचान साहित्य हृदय व्यक्ति को तुरंत हो जाती है। उनकी रचनायें काव्य सौंदर्य के साथ-साथ बहुत कुछ सिखाने वाली पुस्तकें भी बन जाती हैं, इसी से अब तक उन की रचनाओं पर ३० से अधिक शोध ग्रंथ लिखे जा चुके हैं।
कमल किशोर गोयनका जी “निर्वाण” की भूमिका में लिखते हैं; “महाकवि आदेश का साहित्यिक व्यक्तित्त्व इतना व्यापक और गहन है कि वे अतुलनीय लगते हैं। साहित्य की कोई ऐसी विधा नहीं, जिसपर उन्होंने अपनी लेखनी न चलाई हो तथा उसमें अपना योगदान न किया हो।“
वे हिन्दु धर्म के प्रसार के लिये जहाँ “अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ हिन्दु कॉलेज” में कुलपति के रूप में ऑन लाइन कोर्स के लिये वीडियो रिकॉर्ड करते हैं वहीं शिवाजी राव यूनिवर्सिटी, कोल्हापुर के एक्टिंग प्रोफेसर भी हैं। संगीत, धर्म, दर्शन, ज्योतिष और साहित्य के अपार ज्ञान से पूर्ण आदेश जी कनाडा, ट्रिनिडाड और अमरीका के साहित्यकारों में अपना मूर्धन्य स्थान रखते हैं।
आदेश जी महारानी दमयन्ती की भूमिका में लिखते हैं : - मेरा काव्य सदा जीवन के समानान्तर ही चलता रहा है। इस काव्य में भी भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों एवं नियमों की परिधि में रहकर ही कथानक का ताना-बाना बुना गया है।"
"आदेश" जी ने "महारानी दमयन्ती" की रचना प्रेम की एकनिष्ठता दिखाने के लिए तथा भारतीय दाम्पत्य जीवन की नींव की दृढ़ता दिखाने के लिए की है - ऐसा उन्होंने अपनी भूमिका में लिखा है। महाकाव्य में एक महाउद्देश्य की प्रतिष्ठा करते हुए भी उन्होंने पुस्तक की सरसता का पूरा ध्यान रखा है। नख-शिख वर्णन में उनकी भाषा का आलंकारिक सौंदर्य निरंतर दिखाई देता है। छंदों में परिवर्तन कर उन्होंने रचना को एक रस होने से बचाया है। पारम्परिक छंदों के साथ ही साथ उन्होंने अतुकान्त छंद का प्रयोग भी किया है -
क्रमश:
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