क़ीमत
डॉ. शैलजा सक्सेना
भीड़, ट्रक और ट्रक के नीचे कुचली दीनू की लाश को घेर कर खड़ी थी। दीनू की पत्नी, माँ-बाप, उसके तीन बच्चे, दोनों भाई-बहन सब चिल्ला-चिल्ला कर रो रहे थे। बस्ती के लोगों की आँखें नम थीं। आलुओं की बोरी से भरे ये ट्रक रोज़ यहाँ से जाते, पास की मंडी में फुटकर ख़रीददारों की लारियों में अपने बोरे लादते और फिर ख़ाली होकर इसी सड़क से गुज़रते। दीनू इसी मंडी में सुबह पाँच से शाम देर तक बोरे लादता, उतारता . . . पर आज जाने कैसे अचानक अपनी ज़िन्दगी का बोरा उसने काल के काँधों से उतार दिया।
सुबह का समय, लोग अपने-अपने कामों पर जाने को निकल रहे थे। सड़क पर भीड़ बढ़ती देख, ट्रक ड्राइवर ने पैंट की पिछली जेब से बटुआ निकालने को हाथ लगाया कि दीनू का एक साथी रोते हुए बोल उठा, ”रोज़ कहता था कि हम से अच्छे तो ये आलू के बोरे हैं, एक बार घर आ जाएँ तो कई दिनों तक घर वालों का पेट भरें, हम तो रोज़ इन्हें सिर-माथे उठा कर भी, दो समय का खाना ठीक तरह जुटा नहीं पाते! देखो अब उन्हीं बोरों के ट्रक ने इसे कुचल दिया।”
ट्रक ड्राइवर के तेज़ दिमाग़ ने पल्टा खा, कुछ हिसाब-किताब लगाया। हाथ पर्स पर से हटा, ट्रक खोल, भीतर जा कर दो बोरे आलू उतरवाए और दीनू के परिवार के पास जा कर बोला, ”ये दो बोरे आलू रख लो। यूँ तो जाने वाले की ही पूरी ग़लती थी, जाने कहाँ से मेरे ही ट्रक के सामने आकर मरना था इसे।” फिर और झुँझलाई पर अहसान करने वाली आवाज़ में बोला, ”देखो, पुलिस आई तो मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा। ट्रक का मालिक आएगा और ये भी नहीं देगा, पुलिस-कचहरी के चक्करों में तुमको कमाने तक की फ़ुर्सत नहीं मिलेगी, भूखे मरोगे सब।”
नम आँखॆं अचानक इस कठोर सच के भविष्य में स्थिर हो गईं। दीनू की बीबी और बच्चों के गले में आवाज़ें फँस कर रह गईं। दीनू का बाप कुछ पल को दीनू की कुचली लाश को साँस थामें ताकता रहा . . .!
बच्चे आँखें पोंछ कर चोर निगाहों से बोरों की तरफ़ देखने लगे, उनकी निगाहों में ही जैसे सबकी आँखें आ समाईं। कुछ देर बाद दीनू के पिता की रुँधी आवाज़ गूँजी, ”आओ रे, उठाओ इसे . . .!!”
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