इसी बहाने से - 04 साहित्य का उद्देश्य - 3
डॉ. शैलजा सक्सेनासाहित्य के उद्देश्य की हमारी चर्चा ’लम्बी कविता’ की भांति कुछ लम्बी ही हो गई! साहित्य का उद्देश्य एक निश्चित परिधि में बंधा नहीं है अत: उस पर अंगुली रख कर, रेखांकित करना बहुत कठिन काम है। जीवन के उद्देश्य की तरह विविध और विचारपूर्ण, मुख पर खिली मुस्कान की तरह उजागर और मन में छिपे विषाद की तरह ही गहन है साहित्य का उद्देश्य।
हर युग की बदलती परिस्थितियों ने साहित्य की नवीन प्रवृत्तियों को जन्म दिया और इन प्रवृत्तियों ने साहित्य के रंग, रूप, उद्देश्य और गति को बदला है। हिन्दी साहित्य के भारतेन्दु युग से लेकर आज के नवीन युग तक, साहित्य ने कभी राजभक्ति तो कभी देशभक्ति, कभी श्रृंगार तो कभी प्रभु-भक्ति, कभी व्यक्तिवाद तो कभी समाजवाद को अपनी प्ररेणा बना भावाभिव्यक्ति की है। साहित्य के इतिहास को इन्हीं विभिन्न प्रवृत्तियों, उद्देश्य के आधार पर विभिन्न युगों में बाँटा गया है ।
पिछले लेखों में मैंने आज के समय की स्थितियों में साहित्य के उद्देश्य की कुछ चर्चा की थी। समय, समाज, विचारधारा, इतिहास, सरकार और उनसे जुड़े प्रश्न अनायास ही एक अच्छे लेखक के लेखन का अंग बन जाते हैं और वही उसकी रचनाओं का उद्देश्य बन जाते हैं। जो रचनाकार अपने साहित्य में इस उद्देश्य की पूर्ति करता है, वही अच्छा साहित्यकार माना जाता है।
जब परिवेश और आस पास फैले चरित्र लेखक की सृजनात्मक संवेदना का अंग बन जाते हैं, सहज ही उसके भीतर साँस लेने लगते हैं तब अच्छे साहित्य का जन्म होता है। लेखक कोई एक सामान्य उद्देश्य रख कर (जैसे समाज के किसी वर्ग विशेष की स्थितियों का चित्रण, एवं सौंदर्य-श्रृंगार की प्रस्तुति) तो प्राय: रचना करता है परन्तु रचना का प्रारंभ चाहे किसी मन्तव्य से हो, उसकी सृजन प्रक्रिया में लेखक का ’स्व’, लेखक की अनुभूति, विस्तृत और गहन होकर ’सर्व’ से जुड़ जाती है। साहित्य-शास्त्रियों ने ऐसे साहित्य को ही "श्रेष्ठ साहित्य" माना है, जो खरा सच बोले और सबको छू ले। आज के समय में पहले "सच" को पहचानना और फिर उसे कहना, बहुत कठिन पर महत्वपूर्ण काम है और जो कर रहे हैं उन्हें मेरा प्रणाम है।
साहित्य के उद्देश्य को लेकर मैं पिछले युगों में ताका-झाँकी कर सकती थी और हर युग के दरवाजों-खिड़िकियों के पीछे बैठे साधनारत कवियों के समूहों का दर्शन कर, उन के साहित्य के उद्देश्य का दर्शन आपको करा सकती थी, पर यह कार्य यहाँ मैंने नहीं किया है, अगले विषयों पर टाल कर, स्वयं को दोहराने से बचा लिया है।
अब इस विषय को समाप्त करते-करते एक शुभाशंसा अपने वर्तमान लेखकों के लिए--
"रचनाओं की फुलवारी में,
जीवन पुष्प खिलाएँ आप।
देखे, सुने,सहे अनुभव सब,
रच-रच, हमें सुनाएँ आप।।
कवियों को जीते-जी जग में,
आदर पूरा न मिल पाए।
इतिहासों के पन्नों पर
छवि अनुपम दिखलाएँ आप।।
एक लेखनी का नाता है,
एक लेखनी का खाता है।
सुने - सहे का ताप संजोकर
रचना - दीप जलाएँ आप।।
सज्जनता का मान रहे,
पर सबको यह भान रहे।
लेखक के हाथों ताकत है,
बिना डरे लिख पाएँ आप।।
भाषा मधुर हो, सीधी - सादी,
कल्पना की किंचित क्यारी।
तत्त्व ठोस, सत् जीवन का ले,
रचना पथ, बढ़ जाएँ आप।।
उद्देश्यों से जीवन निखरे,
सार्थकता मग रहे संभाले।
वादों के नादों से बचकर,
रचनाधर्म निबाहें आप।।
देरी के लिए क्षमा--- शेष फिर--
क्रमश:---
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