इसी बहाने से - 01 साहित्य की परिभाषा
डॉ. शैलजा सक्सेनाभाव की लहरी हृदय में उठ रही, उठती रही है
स्वभाव वश मैं लिख रही हूँ
क्योंकि लिखने को विवश हूँ,
बात अपनी औ तुम्हारी
साँझी पीड़ा जो हमारी।
वो स्वरों को खोलकर, जाँचना सब चाहते हैं,
भाव उठ, बह चले जो, बाँचना सब चाहते हैं,
कर्म है उनका यही तो इस कर्म का अधिकार दे दो
संग ही मेरे हृदय के मर्म का आधार दे दो।।
आलोचकों से कवियों की फरियाद और प्रतिवाद का आधार यही रहा है। सदियों से चली आई है कविता और साहित्य की धारा और धारा में फेन सरीखी आलोचना भी। आलोचना यह कि साहित्य क्या? साहित्य के माने क्या? और इसको जाने कौन यानि साहित्य किसके लिए हो और साहित्य कैसा हो?
कोई कहता है कि ’साहित्य समाज का दर्पण होना चाहिए’ तो किसी ने इस दर्पण में अपनी ही तस्वीर देखनी चाही। तर्क था कि समाज में व्यक्ति है और व्यक्ति की है अपनी व्यथा और अपनी व्यथा- कथा सुनाने के लिए कविता, कहानी सुनाने में क्या बुराई है? बल्कि ’अनुभूति की प्रामाणिकता’ और "भोगा हुआ यथार्थ" को साहित्य का आधार माना गया तो समाज के साथ साथ ’साहित्य व्यक्ति की अभिव्यक्ति भी बना’। शास्त्रकारों ने साहित्य में ’सरेहित’ की संधि करके, उस अभिव्यक्ति को साहित्य कहा जो ’सबका हित करे’। सबका हित यानि समाज के प्रत्येक प्राणी का हित करने वाला साहित्य ही वास्तविक साहित्य है, (ऐसा असंभव कार्य तो ब्रह्म तक नहीं कर पाए) आलोचकों ने इस परिभाषा की असाहित्यकता को पकड़ा और ’सब’ की परिभाषा को ज़रा दुरुस्त किया क्योंकि चोर और सिपाही, भ्रष्टाचारी और आदर्शवादी, नौकर और स्वामी, पूँजीवादी और मज़दूर, सबका हित एक ही प्रकार के साहित्य से तो किया नहीं जा सकता अत: ’सब’ की परिभाषा से कुछ लोगों को निकाला जाना आवश्यक और उचित माना गया। लेकिन बचे हुए लोगों को लेकर साहित्य रचने वालों में ठीक उसी प्रकार मतभेद हो गया जैसे नरमदल और गरमदल का सैद्धान्तिक मतभेद था। किसी ने दलित वर्ग को थाम ’दलित साहित्य’ लिखने को ही साहित्य का प्रथम कर्त्तव्य बताया तो किसीने त्रस्त मज़दूर-किसानों का लाल परचम थाम, क्रांतिकारी साहित्य रचने को ही प्रमुख माना, किसी ने पूँजीवाद को गरियाया तो किसी ने व्यक्ति के सुख-दुख को गले लगा अकेले आदमी की पीड़ा सुनाने में सार्थकता समझी। कहने का तात्पर्य यह कि साहित्य में कई खेमे बने, कई युगों में कविता, साहित्य बँटा और हर युग के नायक ने साहित्य के नए उद्देश्य का नारा लगाया। उसकी नयी परिभाषा गढ़ी।
इन समस्त उद्देश्यों से लदा-फदा साहित्य, चाहें समयानुसार युगों और कालों में बाँटा जाता रहा हो किन्तु उसका आधार वस्तुत: वही रहा, "जीवन की संवेदनात्मक अनुभूतियों की सजृनात्मक अभिव्यक्ति।"
यहाँ ’सम्वेदना’, ’अनुभूति’, ’सजृनात्मकता’ और ’अभिव्यक्ति’ चारों की स्वतंत्र सत्ता और महत्ता है तो इन चारों की हाथ से हाथ बांधे, एक साथ उपस्थिति, साहित्य की ऐतिहासिक विशिष्टता भी है। ये चार शब्द मुझे साहित्य को समझने के वे चार खूँटे लगते हैं जिनसे एक विशाल फ्रेम बनता है जिसके बीच रचनाकार की भावनाओं, विचारों, विभिन्न चिंतन-दृष्टियों की अनेक तस्वीरें उभरती हैं। ये चार शब्द एक "फ़ेंस" का काम देते हैं। मैं जानती हूँ कि रचनाकार की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले इस "फ़ेंस" शब्द पर भड़केंगे पर मेंड़ लगाया जाना जैसे अच्छी फसल के लिए आवश्यक है, ठीक वैसे ही साहित्य की लहलहाती फसल को व्यक्ति और समाज के अहित की कामना करने वाले तत्त्वों से बचाना ज़रूरी है। आज के समय इस ’फ़ेंस’ की आवश्यकता और अधिक हो जाती है जब विज्ञापन में छपी तुकबन्दी को ’कविता’ और अखबार में छपी रिपोर्ट को ’निबंध’ और स्टेशन के छाबों में बिकने वाली घटिया रोमाँचकारी किताबों को ’उपन्यास’ कहने का लोभ बढ़ रहा है। आज मीडिया लेखन (दूरदर्शन के धारावाहिक नाटक) भी कहीं-कहीं अपना स्तर बढ़ा या अच्छे स्तर के रचनाकारों की रचना को पकड़ कर, ऊपर उठ साहित्य में सम्मिलित होने की प्रतीक्षा में हैं साथ ही प्रतीक्षा में हैं बहुत सा निम्नस्तरीय मीडिया लेखन, इस स्थिति में साहित्य की परिभाषा में इस ’फ़ेंस’ को लगाया जाना अतिआवश्यक हो जाता है ताकि जो कुछ ओछा है, भोंडा है, छिछला है, उससे साहित्य की रक्षा की जा सके। मेरी इस बात से रचनाकार सहमत होंगे, मैं जानती हूँ। महाकवि हरिशंकर आदेश ने श्रीमती सरोज भटनागर की रचना "अभ्युदय" के आमुख में लिखा है- "जनहित की भावना से रची गईं भावोक्तियाँ ही साहित्य के अन्तर्गत आती हैं। अमंगलकारी एवं अशिष्ट उक्तियाँ साहित्य का अंग नहीं बन सकतीं।"
कमलेश्वर अपने प्रसिद्ध उपन्यास "कितने पाकिस्तान" के तीसरे संस्करण की भूमिका के अंत में फ़िराक गोरखपुरी की इन पक्तियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं-
"इन कफ़स की तीलियों से
छन रहा है कुछ नूर - सा
कुछ फज़ा कुछ हसरते परवाज़ की बातें करो..."
साहित्य इसी ’हसरते परवाज़’ का पर्याय है।
इस हसरते परवाज़ वाले साहित्य में उमंग और उल्लास है, नूर भरे आसमान में उड़ने की इच्छा है। मज़े की बात यह है कि इसी उपन्यास के पहले संस्करण में कमलेश्वर लिखते हैं-
"इन बंद कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है
खिड़िकियाँ खोलता हूँ तो ज़हरीली हवा आती है"
यानि साहित्य भीतर और बाहर की घुटन को भी व्यक्त करता है और लेखक के मूड बदलने पर ’हसरते परवाज़’ को भी, पर होता यह सब ’सम्वेदनात्मक अनुभूतियों की सजृनात्मक अभिव्यक्ति’ के चलते ही।
ये विचार, परिभाषाएँ और साहित्य के स्वरूप को लेकर चलने वाली बहस कोई नयी चीज़ नहीं है। किसी पुराने ज़माने की कालातीत कहानी जैसे ही पुरातन साहित्य शास्त्रियों की पुस्तकों के सिद्धान्त, हमारी आधुनिक साहित्यिक चिंतन में प्रतिष्ठित हैं। साहित्य शास्त्र के प्रथम ग्रंथ "नाट्यशास्त्र" के रचयिता भरतमुनि और उनके उपरांत आने वाले अनेक साहित्य शास्त्रियों, भामह, दण्डी, वामन आदि ने "रस" को साहित्य का प्राण माना था और इस रस को "ब्रह्मानंद सहोदर:" कहा था। बाद में रस के स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी भावों की सांगोपांग व्याख्या करते हुए इन विद्वानों ने इस रस अर्थात् भावानंद को ही साहित्य की मुख्य कसौटी माना था। यह कसौटी कुछ सैद्धांतिक जोड़ घटाव े सथ बाद क बनी रही।
रीतिकाल के आचार्यों में साहित्य के स्वरूप को लेकर पुन: विस्तार से विचार-चिंतन, वाद-प्रतिवाद चला। किन्तु इन सब चर्चाओं के आधार-मूल में सांस्कृत आचार्यों के ही विचार थे जैसे काव्य की यह परिभाषा :
"रसयुत व्यंग-प्रधान जहं, शब्द अर्थ शुचि होइ
उक्त युक्ति भूषण सहित, काव्य कहावै सोई"
कुछ प्रतिबद्धतावादी साहित्यकारों ने शिल्प के प्रतिमानों से साहित्य को नापने की असफल चेष्टाएँ भी कीं पर कथ्य की विशिष्टता और महत्ता, काल और युग की देहरियाँ लाँघ कर आज भी विद्यमान है और यही नहीं आधुनिक काल में वह, इस-उस रूप से अनेक बार सिंहासनारूढ़ हुई हैं।
वस्तुत: कथ्य की गहराई और मन से जन को जोड़ने की उसकी शक्ति ही साहित्य का प्राण होती है। यूँ साहित्य के स्वरूप पर हमारे विद्वान साहित्यकार आज भी पुस्तकें लिख रहे हैं, पुराने ढरों से दूर, उदित होती नई विधाओं, नए लेखन को साहित्य में समाने या साहित्य से हटाने के लिए नए प्रतिमान गढ़ रहे हैं और गढ़े हुई इन प्रतिमानों की प्रामाणिकता पर बहस कर रहे हैं - यह सब एक बात तो स्पष्ट करता ही है कि साहित्य जीवन सा गहरा, जीवन से जुड़ा, जीवन की ही तरह हर समय नया रंग, रूप दिखाने वाला होता है। कितने ही रूप पकड़े, कितने ही समझे पर फिर भी कुछ कहना-सुनना-समझना शेष रह गया।
ऐसे में बरबस ही घनानंद के पद की एक पंक्ति याद आती है-
"रावरे रूप की रीति अनूप नयौ नयौ लागत ज्यौं-ज्यौं निहारियै"
तो न निहारना रुकता है, न इस रूप पर रीझना और न ही साहित्य के नये आयाम मिलना ही थमता है। पर मुझे अब थमना होगा। चलिए इस बहाने से साहित्य की परिभाषा की कुछ चर्चा हो गयी, शेष चर्चाओं के लिए फिर मिलेंगे।
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