अदर मदर
डॉ. शैलजा सक्सेना
इस कहानी को कहाँ से और कैसे शुरू किया जाए, कैसे आगे बढ़ा कर, कहाँ ख़त्म किया जाए, शैली को नहीं पता! पता है तो बस यह कि इसे लिखे बिना वह शांत नहीं हो पाएगी। लेकिन समस्या यह थी कि जिनकी कहानी लिखने के लिए अंदर से मजबूर महसूस कर रही थी, उनको वह बिल्कुल न के बराबर जानती थी! उनकी मृत्यु पर चर्च की एक बड़ी भीड़ के बीच बताया गया था कि वे धर्म पथ पर चलने वाली, प्रसन्न मन, बेहद आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करने वाली, एक शांत महिला थीं। अपनी इकलौती मुलाक़ात में शैली को भी तो यही लगा था, फिर यह . . .??? एक अजीब सी पहेली थी जैसे वह उसके भाव संसार को मथ रहीं थीं।
वह बेहद बेचैन हो रही थी जैसे उनकी बेचैनी ही कहीं उसमें करवटें लेकर उसे हैरान कर रही थी। इस बेचैनी को कहने से शायद शान्ति मिले! लेकिन बेचैनी को कहना भी एक बेचैन करने वाली प्रक्रिया है। शायद उनके जीवन के बारे में कुछ लिखने से वह वापस अपनी रुटीनी जीवन में लौट सके . . .! उसका दिमाग़ इस बेचैनी से मुक्ति पाने के रास्ते खोजने में लगा था।
बहुत सी बातें सिलसिलेवार बिठाने के लिए उनके जीवन को समझ कर, काग़ज़ पर उतारना ही होगा. . . कहाँ से शुरू करे वह? बहुत मग़्ज़मारी के बाद लगा कि क्यों न उसी दिन से शुरू करे, जहाँ से यह दोबारा शुरू हुई थी। कोशिश करे एक औरत के जीवन का उलझा, बिखरा . . . सच लिखने की! पर जीवन की ही तरह कहानी बिना संदर्भों के नहीं लिखी जाती। ऐना ने भी तो उसके बेचैन होने की बात सुनने पर इसे लिख लेने का आग्रह किया था . . . शैली का पैन काग़ज़ पर ठिठक कर चलने लगा . . .! ऐना और अपनी बात कहे बिना, उनकी बात भी पूरी नहीं हो सकती तो उसने अपने परिचय से ही इस कहानी को आगे बढ़ाया।
वो दोनों टोरोंटो शहर के एगलिंटन सब-वे स्टेशन पर मिलीं थी। लगभग एक-सी लम्बाई और एक सी क़द-काठी। दोनों का रंग भी गेहुएँ रंग के आस-पास। शैली का 20 और ऐना का उन्नीस। वो बहनें नहीं पर अक्सर लोग उन्हें साथ-साथ देख कर बहनें समझ लेते। कोई खुल कर पूछ लेता तो वो दोनों हँस पड़तीं, “यस शी इज़ माइ सिस्टर फ़्रॉम द अदर मदर (हाँ यह मेरी बहन है . . . दूसरी माँ से)!”
ऐना ट्रिनिडाड से है और शैली भारत से। ऐना जब केवल 11 साल की थी तब से कैनेडा के टोरोंटो शहर में रह रही है। शैली को टोरोंटो आये केवल 8 साल ही हुए हैं। वो लगभग पाँच वर्ष एक ही ऑफ़िस में, एक ही विभाग में काम कर चुकी थीं। शैली ने वह दफ़्तर पिछले साल छोड़ दिया था, तब से उनका मिलना कभी-कभार ही होता, अन्यथा पहले तो हर रोज़ आठ घंटे लगभग साथ-साथ ही बीतते। चाय-कॉफ़ी और खाना तो हमेशा साथ ही होता। कभी अगर वे आगे-पीछे खाना खातीं भी तो भी एक-दूसरे से पूछना न भूलतीं कि खाना खा लिया न? ऑफ़िस के पहले दिन से ही दोनों के बीच आपसी समझ भरी, गहरी दोस्ती हो गयी थी।
आज कई महीनों के बाद उनका मिलना हुआ था। कल रात शैली ने फोन किया था ऐना को, “मिल सकती हो?”
“हाँ, पर कब?” ऐना ने पूछा।
“कल ही मिलो, मेरे मन पर दो-तीन दिनों से बोझ जैसा है, तुमसे बात करना चाहती हूँ।”
ऐना, शैली की आवाज़ सुनकर चिंतित हो गई। तय रहा कि दोनों आधे दिन की छुट्टी करेंगी और यंग और एगलिंटन रोड के सब-वे स्टेशन पर मिलने के बाद, वहीं कोने पर बने ‘मैंडरिन’, चीनी रेस्तराँ में बैठ कर ‘बफ़े’ खायेंगी। इस रेस्तराँ में देर तक बैठे रहने की सहूलियत थी।
शैली स्टेशन पर बताये समय पर मिल गई। ऐना ने उससे कुछ जानने के लिये कई बार उसकी ओर देखा पर उसका चेहरा स्थिर और खिंचा सा था, जिस पर लिखी इबारतों को पढ़ना बहुत मुश्किल था। ऐना ने हल्के से पूछा भी, “सब ठीक है न?”
“हाँ, सब ठीक है!”
ऐना के लिये अपनी उत्सुकता दबा पाना बहुत मुश्किल हो रहा था पर उसे समझ में आ गया कि ऐना बिना ठीक से बैठे उस से बात नहीं करेगी तब वह ऑफ़िस में घटी नई घटनायें शैली को बताने लगी। एस्केलेटर से ऊपर आते हुए भी शैली केवल हाँ-ना में ही जवाब देती रही। रेस्टोरेंट में पहुँच कर वे ‘एपेटाइज़र्स’ (खाने से पहले का हल्का नाश्ता) लेकर कोने की मेज़ पर जा बैठीं। यह मेज़ शीशे के पास थी जहाँ से सड़क का कुछ हिस्सा और सामने बनी दुकानें दिखाई दे रही थीं। प्लेट मेज़ पर रखी थी पर खाने पर ध्यान देने की बजाए शैली बाहर देखने लगी। सुबह जो हल्की धूप निकली थी, अब सरक कर बादलों के पीछे चली गई थी, बेवक़्त का हल्का अँधेरा सा छा रहा था। शायद ऐसा ही अँधेरा शैली के चेहरे पर भी था! ऐना ने 5-7 सैकेंड इंतज़ार किया फिर अधीर हो कर बोली, “बताओगी नहीं? दिल तब से परेशान है जब से तुम्हारा फोन आया है।”
शैली ने अजीब निगाहों से ऐना को देखा, फिर जैसे दिल-दिमाग़ में घूमते अँधड़ को निकलने का रास्ता देती हुई बिना भूमिका के जैसे शब्द होंठों से फ़िसल गए, “मु्झे वो सपने में दिखाई दे रही हैं?”
ऐना क्षणभर को हतप्रभ रह गई। वो शैली की निगाहों को पढ़ सकती थी। वो समझ रही थी कि शैली किसके बारे में बात कर रही है पर फिर भी निश्चित करने के लिए उसने बेहद हल्की आवाज़ में पूछा।
“कौन?”
शैली की निगाहों में उलझन उभरी, “माँ।”
ऐना जानती है कि शैली अपनी नहीं, ऐना की माँ की बात कर रही है। सिर्फ़ इतना पूछ पाई—“कब?”
शैली ने एक गहरी साँस छोड़ी, “पहली बार पिछले हफ़्ते बुधवार को दिखीं थीं, फिर इस इतवार को और फिर कल सुबह सो कर उठने के ठीक पहले।”
ऐना ठिठक गई, “बुधवार को . . . यानी मई 8 को?”
“हाँ।”
“शैली, तुम्हें यह तारीख़ याद है न? पिछले साल इसी दिन तो . . .” ऐना ने वाक्य पूरा नहीं किया।
शैली को जैसे कुछ भूला हुआ याद आ गया, “ओह माई गॉड! हाओ कैन आई फॉरगेट? आइ एम सो सॉरी। (हे भगवान, मैं कैसे भूल सकी? मुझे माफ़ करो) मुझे तारीख़ें अक्सर भूल जाती हैं,” शैली सफ़ाई सी देती हुई बोली।
यह अजीब-सा वाक़या दोनों को ठिठका गया। मई आठ को ही क्यों आया वो सपना? अचानक पिछले साल, आठ मई की शाम दोनों की आँखों के आगे लौट आई। ऐना जिस शाम को बहुत मुश्किल से भुलाने की कोशिश कर रही है, शैली को वह शाम अक्सर याद आ जाती। जीवन के सबसे कठिन पल वो होते हैं जब इंसान नियति के आगे हार जाता है! जब मन अपने प्रिय जन की तकलीफ़ न देख पाने के कारण सोचता है कि भगवान उनके कष्ट समाप्त कर उन्हें उठा ले . . . लेकिन साथ ही उनके बिना जीने की बात सोच कर कराह भी उठता है . . . वही पल भोगे थे ऐना ने आठ मई से पहले, जब उसकी माँ बहुत बीमार होकर मृत्यु के द्वार पर खड़ी थीं।
आठ मई!! जीवन का सबसे विचित्र अनुभव!! ऐसा अनुभव जिसे शैली सिवाए ऐना के, किसी से कह भी नहीं पाई थी। उस दिन सुबह से उसे ऐसा लग रहा था जैसे कोई बुरी ख़बर मिलने वाली है। ऐना की माँ के बारे में वह लगातार सोच रही थी। उसे लगा था कि शायद आज उनका अंतिम दिन . . . !! पर कैसे कहे वह ऐना से . . . ग्यारह बजे जब उस से रहा नहीं गया तो उसने ऐना को फोन किया। ऐना ने बताया कि आज वह बेहतर महसूस कर रही हैं।
शैली ने बहुत संकोच से कहा, ”दान के लिए कुछ डॉलर निकलवा दो उनके हाथ से।” ऐना और उसके बीच एक बेहद समझदार चुप्पी फैल गई थी। तीन बजे से शैली फिर बेहद बेचैन होने लगी, शरीर में अचानक भयंकर दर्द होने लगा . . . पोर-पोर से ऊर्जा जैसे बाहर निकल रही थी! . . . नसें धीरे-धीरे शिथिल और ठंडी होने लगीं! . . . वह तिल-तिल बेजान हो रही थी! . . . साँसें तक शिथिल होने लगीं! . . . जैसे मृत्यु उसके भीतर से होकर ऐना की माँ तक पहुँच रही हो . . . क्या हो रहा है उसे? वह अचानक इतनी बीमार क्यों हो रही है? जब कुर्सी पर बैठे रहना असंभव हो गया तो वह अपनी सहकर्मी से तबियत ख़राब की बात कह कर हाँफ़ती हुई-सी, ऑफ़िस के किचन में पड़े सोफ़े पर जाकर निढाल पड़ गई थी। लगभग घंटा भर तो वह इस स्थिति में रही होगी। आज तक अपने परिवार के किसी सदस्य की बीमारी पर भी उसने ऐसा अनुभव नहीं किया था। घंटे भर बाद जब वह खड़ी होने लायक़ हुई तो अपना सामान समेट कर घर के लिए चल पड़ी। दो ट्रेन और एक बस बदल कर लगभग डेढ़ घंटे बाद वह घर पहुँचती थी रोज़। रास्ते में ऐना का टैक्स्ट आया था कि वे बेहतर हैं। घर के भीतर वह डगमगाते पाँवों से आई थी और दरवाज़े के पास रखी कुर्सी पर लंबी साँसें खींचती हुई-सी बैठ गई थी। क्या हो रहा है उसे? किसी और के बारे में वह ऐसा सोच कैसे सकती है? महसूस कैसे कर सकती है? मन भर के पाँवों को घसीटती रसोई की तरफ़ पानी लेने को बढ़ी ही थी कि उसके मोबाइल की घंटी बजी। उसके दफ़्तर की लीडिया का फोन था, फिर से मन काँपा . . . फोन पर फटे चिथड़े जैसा स्वर, बिजली की तारों के बीच फड़फड़ाया, ”ऐना की माँ . . .!”
कैसी दहलाने वाले अनुभव सी शाम थी वह . . . ऐना की माँ कैथरीन को जानती भी कितना-सा थी वह। हाँ, एक बार उन्होंने शैली की पसंद का कच्चा कटहल भिजवाया था जब उन्हें पता चला था कि शैली के घर के पास की दुकानों में कटहल नहीं मिलता। ऐसे ही शैली ने अपनी एक भारत यात्रा के बाद उनके लिए एक छोटा सा नक़्क़ाशीदार डिब्बा धन्यवाद के तौर पर भिजवाया था। मिलना भी सिर्फ़ एक बार हुआ था . . . वो भी मृत्युशैय्या पर। बस!. . . लेकिन . . . क्या बस यही हुआ था? एक बार का मिलना . . . वह कितनी देर तक मन में रह गया था उसके। उसे वह मिलना भी आज तक स्पष्ट याद है।
तीन सप्ताह से वे बिल्कुल बिस्तर पर थीं, ऐना ऑफ़िस से छुट्टी लेकर घर पर ही उनकी देख भाल कर रही थी। सुबह-दोपहर-शाम नर्स आकर उन्हें मॉर्फीन का इंजेक्शन लगा देती। उन्हें लिवर की कोई ऐसी बीमारी हुई थी जो उनकी उम्र और स्वास्थ्य देखते हुए ठीक नहीं हो सकती थी। अब दवाओं में मुख्य यही थी, ‘मार्फीन’! दर्द से राहत के लिए! शैली रोज़ फोन पर ऐना से बात करती। विभाग के अन्य लोगों के साथ मिल कर वह उस शाम उनके घर गई थी। ऐना अपना घर छोड़ कर माँ के साथ उनके स्कारबोरो वाले घर में ही रह रही थी। जब शैली और उसकी दो अन्य सहयोगी उनके घर पहुँचे तब ऐना के कज़िन भाई-बहन भी आये हुए थे। सब अन्दर के कमरे में लेटी उसकी माँ को देखने गये। वो दवाई की गफ़लत में थीं पर उन्हें लोगों के आने का पता चल रहा था। उन्होंने ऐना के कज़िन भाई-बहन से हँस कर उनके खाने के बारे में पूछा। फिर ऐना ने शैली और अन्य सहयोगियों का परिचय कराया। उन्हें शैली की याद थी। ”हलो शैली” कहते उनकी आवाज़ लटपटा गई थी। दवाई की गफ़लत से वो थक रही थीं। इस हालत में भी वो उठ कर उनका स्वागत न कर पाने के कारण क्षमा माँगने लगीं। सब की आँखें नम हो गईं थीं। ऐना जानती थी कि सब के मन भीग रहे हैं सो वह सब को बाहर के कमरे में ले आई। माँ अकेली नहीं छोड़ी जा सकती थीं अतः ऐना वापस उनके पास जाने लगी तो शैली ने उसको रोका और ख़ुद उनके कमरे में जा कर बिस्तर के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। जाने क्यों उसके मन में कैथरीन के साथ कुछ पल अकेले बिताने की इच्छा हुई।
ऐना और उसकी माँ कैथोलिक क्रिश्चियन थीं और शैली हिन्दू . . . पर मौत के सरकते क़दम न हिन्दु को पास बैठा देखते हैं और न क्रिश्चियन को बिस्तर पर लेटे! दुनिया भले लड़ती रहे अपने-अपने धर्मों के लिये पर मौत से कोई नहीं लड़ पाता। वो हरेक के साथ एक-सा व्यवहार करती है, उन्हें एक ही तरीक़े से अपने साथ ले जाती है, बच जाता है निष्प्राण शरीर . . . फिर दुनिया उसे अपने-अपने धर्म की टिकटी पर टाँग कर चल पड़ती है, कभी दफ़नाने . . . तो कभी जलाने . . .!
शैली उस कुर्सी पर बैठी, अपने हिन्दू भगवान से एक बूढ़ी क्रिश्चियन औरत के लिए प्रार्थना कर रही थी। उस कमरे में सब स्थिर था, सामने का क्रॉस, अलमारी में टिकी तस्वीरें, बिस्तर के पास रखी चिलमची! सामने लगी फोटो में वे जवान थीं, ऊँचे बँधे बाल और आँखों में काजल . . . फोटो में वे फ़्रॉक में थीं, पर शैली को लग रहा था जैसे वे उसके घर की साड़ी वाली महिलाओं के ग्रुप फोटो से उठकर, यहाँ इस फोटो में आ कर बैठ गईं हों! एकदम भारतीय चेहरा . . .!
तभी कराह कर उन्होंने सहारे के लिये हाथ बढ़ाया। उनकी आँखें बंद थीं, शायद सोचती हों कि पास ऐना बैठी है। एक सैकंड को हिचकिचा गई शैली, पहली बार मिली थी उनसे . . . वह भी इस हाल में, पर हवा में आधारहीन से लटके उनके हाथ को वो दो-तीन सैकंड से अधिक नहीं देख पाई, जल्दी से उनका हाथ अपने हाथ में थाम लिया . . . एकदम ठंडा . . . झुर्रियों से सिकुड़ा। उनका हाथ! . . . दूसरा हाथ मिल जाने से वे आश्वस्त हो गईं। कुछ मिनट ऐसे ही वह उनका हाथ थामे रही . . . फिर वे अपना हाथ उसके हाथ से वापस ले, दूसरी ओर मुँह मोड़ कर लेट गईं। पर शैली के हाथ की लकीरों तक में जैसे उनके हाथ की ठंडक उतर गई . . .! देर बाद घर लौटते हुए भी, उनके हाथों की ठंडक अपने हाथों में लेकर लौटी थी शैली।
उस दिन शायद कैथरीन का कोई अनदेखा भाग वह अपने में लेकर लौटी थी तभी तो आठ मई को!! क्या था वह सब? दान करवाने के लिए ऐना को फोन करना . . . वह भयंकर अनुभव!! शायद पूर्वाभास!
इंट्यूशन! . . . मन में महसूस करना!!
. . . यह सब बातें कौन मानता है? ऐना और शैली एक-दूसरे की ओर ख़ामोश हो देखतीं और सोच में डूब जातीं। दोनों धार्मिक प्रवृति की हैं पर विज्ञान भावनाओं के भी प्रमाण माँगता है। वे परिमाण और प्रमाण के जिस युग में रहती हैं उसमें केवल अनुभव और भाव में बहने वाले इंसान को ’इमोशनल फ़ूल’ यानी भावनात्मक बेवुक़ूफ़ ही कहा जाता है। क्या शैली भी वही है . . . इमोशनल फूल? पर ऐसा हुआ कैसे? कितनी भी अच्छी मित्र हो ऐना पर है तो एक मित्र ही . . . काम पर बनी मित्र! अलग देश, अलग परिवेश और अलग खान-पान और अलग त्योहार . . .! सिवाय इसके कि कभी ऐना ने बताया था कि कैथरीन की नानी यानी ऐना की परनानी भारत से थीं और कैथरीन अभी भी बैंगन, चौका, छौंक, तवा जैसे गिनती के सात-आठ हिन्दी शब्द जानती थीं। कैथरीन की परनानी ने किसी फ़्रैंच आदमी से शादी की थी और इस तरह उस भारतीय औरत की कहानी कुछ और ही हो गई। ट्रिनिडाड, सूरीनाम गयाना आदि के कितने ही लोग, जो ब्रिटिश राज में इन द्वीपों पर लाए गए थे, उनके परिवारों के बच्चों के नाम अब 100-150 साल बाद चाहें अंग्रेज़ी वाले हों पर वे भारतीय से ही दिखते हैं।
. . . कैसा है प्रकृति का खेल . . . जगह बदल गयी, समय बदल गया . . . पर ख़ून में बहता डी.ऐन.ए. न जाने कितनी पीढ़ियों की कहानी माँस-पेशियों में दौड़ा रहा है। कौन-किस से कितना बँधा है? क्यों बँधा है? कहाँ-कहाँ का ख़ून उनकी नसों में बह रहा है? किस-किस देश की मिट्टी मिली है उनके शरीरों के बनने में? इसके पूरे उत्तर किसके पास हैं? हम कितना कम जानते हैं अपने को पर उसी कम की हवा में भी जाने कहाँ-कहाँ उड़ते फिरते हैं!
वो दोनों एक अजीब निगाह से बँधीं, एक-दूसरे को देख रहीं हैं। जहाँ उस तारीख़ का सिरा उनके मन को जोड़ रहा है, वहीं दोनों एक ही प्रश्न से जूझ रहीं हैं, क्यों? क्यों दिख रही हैं माँ अब एक साल बाद भी? शैली उनके इतिहास को नहीं जानती सो वो ऐना और उसके परिवार के बीच उसकी माँ के सम्बन्ध में क्या कह सकती है और ऐना . . .? वह स्तब्ध सी मौन बैठी थी। शैली ने ऐना से हिचकते हुए पूछा, “क्या कुछ छूट गया है करने से?”
उसके हिंदू धर्म में यही मान्यता है कि अतृप्त आत्माएँ अपने प्रियजनों के सपनों में तब तक आती हैं, जब तक वे संकेत से कुछ छूटे काम करा कर, तृप्ति नहीं पा जाती। ऐना के क्रिश्चियन धर्म में क्या मान्यता है, शैली नहीं जानती। सामने रखी चाय ठंडी हो गयी। ऐना जैसे नज़र बचा कर उठते हुए बोली, ” कुछ ले कर आती हूँ।”
शैली के मन में यह भाव भी है कि वो उसे ही क्यों दिख रही हैं? उसका सम्बन्ध उन से कहाँ है? . . . आत्मा, सपने आना या आत्मा का संदेश . . . ये सब फ़िल्मों में या कुछ इसी तरह की लिखी किताबों में होता है, सच में कहाँ होता है? वो यह सब कहाँ मानती है . . .! वाक़ई, जब तक इंसान स्वयं किसी बात को अनुभव नहीं करता तब तक उसे मानता भी नहीं! अपने अनुभव से परे के सभी के अनुभव, उसके लिए मात्र कहानियाँ होती हैं। उन कहानियों को पढ़ने में आनंद या दुख होता है पर वह अनुभव एक विरक्त . . . एक दूरी से . . . किसी और के अनुभव को देखने से पैदा हुआ आनंद या दुख होता है . . . ऐसी कहानियों को पढ़ कर ’होता होगा’ जैसा लापरवाह वाक्यांश ही प्रायः मन में उमड़ता है पर जब वह अनुभव अपना होता है तो जैसे साँसों को मथ कर, ऐसे विचारों की हवा निकाल देता है, स्तब्ध और मौन कर देता है। शैली के इस अनुभव को उसके पति ने भी उसका भ्रम माना था, कहा था, “तुम इसे ज़्यादा तूल क्यों दे रहीं हो? अगर वो सपने में आ भी गईं तो क्या? शायद तुम उनके बारे में सोच रही हो और सपना आ गया!”
वो उन्हें क्या समझाती कि वो कुछ नहीं सोच रही थी। केवल ऐना ऐसी है जो इस अनुभव के दूसरे सिरे पर है और इसे सच मानती है। ऐना प्लेट में अपने और उसके लिए कुछ सामान लिए सामने आ कर बैठ गई।
“तुम यही सोच रही हो न, कि तुम क्यों? मैं भी यही सोच रही थी . . . शायद वो तुमसे अपनी कहानी लिखवाना चाहती हों . . .” कहते-कहते ऐना मुस्कुरा दी।
“मुझ से? कहानी? मुझे कहाँ आती है?” शैली ने कहते-कहते ऐना को मुस्कुराता देखा तो वह भी मुस्कुरा दी।
“तुम लिखती हो न कभी-कभी . . . मैंने तुम्हारी लिखी एक कहानी सुनाई थी उन्हें, बोली थीं कि अच्छा लिखती है।”
“ले-देकर दो-चार कहानियाँ नहीं लिखीं अब तक . . . और वो भी कहानियाँ हैं कि मात्र क़िस्से . . . क्या पता?”
“कहानी हो या क़िस्से . . . जो भी थे, अच्छे थे सो मैंने उनको भी सुनाई।”
“अच्छा . . . वो सब अभी जाने दो . . . पहले यह बताओ कि तुम्हें दिखती हैं?” शैली ने अधीरता से पूछा।
“हाँ, कभी-कभी! पर अभी कुछ समय से नहीं दिखीं। पिछले साल, जब मेरी तबियत ठीक नहीं थी, तब एक बार लगा था, जैसे वे बिस्तर पर मेरे पास आ कर बैठी हों।”
शैली ने बहुत हैरानी से उसे देखा तो ऐना हँस कर बोली, “मैंने उनसे कहा, ‘माँ ऐसे डराओ मत प्लीज़’!”
वो दोनों ही अधखुली सी हँसी, हँस दीं। दुनिया के परे के रहस्यों को वो जानती नहीं, जानना भी नहीं चाहतीं पर माँ का दिखना एक पहेली की तरह दोनों की ठीक सी चलती दुनिया के बीच अटक गया। यह सोचना भी ग़लत लग रहा है कि इस विषय को हवा में उड़ा दिया जाए। क्या पता शायद माँ कुछ कहना चाहती हों, ऐसे में उसके कहे को जानने की कोशिश न करना लगभग एक अपराध सा लग रहा था! आख़िर क्या कहना चाह रही हैं माँ? दोनों के दिमाग़ जाने कहाँ-कहाँ दौड़ रहे हैं। ऐना उनकी इकलौती लड़की . . . और शैली . . . उनकी मृत्यु को अनुभव करने वाली इकलौती लड़की!
सामने रखी खाने की प्लेट से स्प्रिंगरोल उठा कर कुतरते वे कुछ ख़ामोश, कुछ सोच में डूबी थीं। शैली ने कहा,
“सोचो ऐना, क्या वो कुछ तुम को कह कर गईं हैं जिसे तुम अपने दुख में करना भूल गई हो।”
उसे चुप देख कर वह फिर बोली, “अगर तुम्हारी कोई बहन-भाई होता तो कम से कम इस बारे में उससे भी बात कर के कुछ पता किया जा सकता था।”
ऐना ने कहा, “हैं मेरे भाई-बहन भी।”
“क्या?” शैली को हैरान होते देख, ऐना बोली, “हाँ, एक हाफ़ ब्रदर (सौतेला भाई) और दो हाफ़ सिस्टर्स (सौतेली बहनें)।”
शैली ने हैरान होते हुए कहा, “यह तुम्हें कब पता चला? मुझे तो तुमने यही बताया था कि तुम अकेली संतान हो।”
“माँ के बीमार होने के बाद से मैं उन लोगों के संपर्क में ज़्यादा हूँ। कुछ पता तो था कि पिता की एक दूसरी पत्नी भी थीं। माँ से पहले, डैडी ने उन से शादी की थी। बच्चे भी हैं पर माँ ने कभी इन बातों पर बात नहीं की और मेरे या मासी के कभी कुछ पूछ्ने पर भी हमेशा चुप रहीं। पिता की मृत्यु पर वे लोग आए थे, माँ से भी गले लग कर रोए थे, बस फिर जैसे आए थे, वैसे ही वे चले भी गए हमारी ज़िन्दगी से . . . पर अभी माँ की बीमारी में उनके फोन आए और फिर वे मिलने भी आए। माँ के जाने पर भी तीनों आए और अब मुझे फोन भी कर लेते हैं।”
शैली को अपनी और प्रश्नवाचक निगाहों से देखते हुए देख कर ऐना ने धीरे से कहा, “पहले अजीब-सा लगा था, ग़ुस्सा भी था मन में, पर तीनों ही बहुत अपनेपन से बात करते हैं, माँ . . . को भी बहुत मिस करते हैं। अब कभी-कभी तसल्ली-सी लगती है कि कम से कम मेरे अपने कुछ रक्त-सम्बन्धी हैं वरना माँ के जाने के बाद तो . . .।”
उसका गला रुँधने लगा। कुछ देर को वह एकदम ख़ामोश हो गई। इस दुनिया में अकेले रह जाने से अच्छा, ऐसे सौतेले भाई-बहन का मिल जाना! ऐना ने न जानते हुए भी उन्हें स्वीकार कर लिया। शैली बहुत हैरान थी और ऐना एकदम अनमनी! फिर जैसे उसे कुछ याद आ गया हो।
“क्या हुआ?” शैली उसके मनोभाव पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
“माँ ने एक बार क्रिमेट (दाह-संस्कार) होने की बात कही थी, बरिअल (दफ़नाना) नहीं चाहिए था उन्हें। आख़िरी दिनों में मुझ से यह बात कही थी उन्होंने, पर पापा के जाने से पहले ही उन दोनों ने अपने लिए ’स्कारबोरो’ के क़ब्रिस्तान में जगह ख़रीद ली थी और जाने कब से यह बात वे लोग करते आए थे कि वे दोनों एक साथ उस जगह दफ़न होंगे। मेरे तो ख़्याल में भी बाद वाली बात नहीं रही। माँ तो आख़िर तक पक्की क्रिश्चियन थीं सो सोचा भी नहीं मैंने . . . उस एक बार की बात को सीरियसली ले भी कैसे सकती थी मैं?”
ऐना ने उलझे हुए स्वर में कहा। शैली को एक के बाद एक जैसे नई जानकारी मिल रही थी। एक तो ऐना की संस्कृति अलग, फिर उनके परिवार की बात, फिर उसकी माँ की यह अलग सी इच्छा . . . इस सब को समझ पाने में उसे समय लगने वाला था। अपने जीवन में ही क़ब्रिस्तान में अपने लिए जगह ख़रीद कर सब तय कर लेने वाले इस तरीक़े ने भी उसे पहले-पहल बहुत चौंकाया था पर टीवी पर उसने ऐसे विज्ञापन देखे थे, जहाँ लोग अपने जाने के बाद के सब प्रबंध पहले ही करते दिखाए जाते थे, कुछ कम्पनियाँ उनमें सहायक होती थीं, ताबूत चुनने, क़ब्रिस्तान में जगह चुनने, क़ब्र पर लगाने वाला पत्थर चुनने आदि सभी में, इसलिए ऐना की क़ब्रिस्तान में जगह चुनने की बात सुन कर वह चौंकी नहीं थी, लेकिन हाँ, दाह संस्कार वाली बात सुन कर वह सोच में पड़ गई, बोली, “क्या वो तुम्हारे पापा से नाराज़ थीं? क्या पता, नाराज़गी के कारण ऐसा कह दिया हो! तुम्हारे पापा के साथ लिए निर्णय को बदलना चाह रही हों शायद। उन्होंने कभी उन बच्चों के बारे में तुमसे कुछ कहा था? क्या तुम्हारे माता-पिता में पिता की पूर्व पत्नी को ले कर झगड़ा होता था?”
ऐना ने शैली की ओर नहीं देखा पर वह उन प्रश्नों के सिरे पकड़ कर पुराने समय के कुँए में उतरने लगी थी, बोली, “झगड़ा तो नहीं होता था, पर दो-चार बार लंबी बातें ज़रूर हुई थीं, कमरा बंद करके . . . मैं तो ग्यारह साल की ही थी जब मैं अपनी मौसी के साथ यहाँ आई थी। किसी ने मेरा अपहरण करने की कोशिश की थी।”
“ओह, माई गॉड ऐना,” शैली घबरा कर बोल उठी। ऐना के जीवन का यह हिस्सा भी वह पहली बार सुन रही थी।
“हाँ तब हम कैसकेड में रहते थे जो ट्रिनिडाड की राजधानी, पोर्ट ऑफ़ स्पेन के पास है। उस ज़माने में अपराध बहुत बढ़ गए थे। शायद देश के बहुत ग़रीब होने के कारण या क्या जाने प्रशासन की कमज़ोरी के कारण . . .। हम नाना के घर के पास ही रहते थे। मेरे पिता कभी बाहर रहते तो कभी हमारे साथ। मुझे बताया गया था कि वे मार्केटिंग में हैं इसलिए उन्हें दौरों पर जाना होता है। माँ पास ही एक फ़ैक्ट्री में सुपरवाइज़र थीं। घर ठीक-ठाक सा चलता था। नाना-नानी का घर बहुत बड़ा था और स्कूल के बाद मैं कुछ देर वहीं रहती थी, उन्हीं दिनों स्कूल से आते हुए एक वैन में मुझे कुछ लोगों ने ज़बरदस्ती घसीटने की कोशिश की। पता नहीं कैसे मुझे मौक़े पर सूझ गया और मैं शरीर को अकड़ा कर ज़मीन पर लेट गई। उन लोगों ने फिर भी घसीटने की कोशिश की पर चलती वैन, चिल्लाती, अकड़ी पड़ी मैं . . . मुझे घसीट कर भी वे उठा नहीं पाए थे। इतने में किसी को आता देख मुझे छोड़ कर भाग लिए। शरीर पर अनेक खरोंचों और भय से अकड़ी मेरी देह को कैसे नाना-नानी घर लाए थे, अब मुझे ध्यान नहीं। पर इस घटना के बाद ख़ूब बुख़ार चढ़ा था और कुछ दिनों के लिए मेरा निकलना भी बंद रहा था। मेरी तो यह हालत हो गई थी कि घर के आँगन तक जाने में भी डर लगने लगा था। मन में दहशत बैठ गई थी। क्या होता अगर वे मुझे उठाने में सफल हो जाते तो . . .?” ऐना एक झुरझुरी सी लेकर क्षण भर को चुप हो गई, फिर बोली, “उन दिनों ऐसे बहुत से अपराध आए दिन सुनने को मिलते थे, मौसी ने इन्हीं सब स्थितियों के चलते अपनी दो बेटियों को लेकर, यहाँ कैनेडा आने का निर्णय किया था। सो माँ ने मुझे भी उनके साथ भेज दिया। चलते समय पिता से भी मिलना नहीं हुआ क्योंकि वो टूर से नहीं आए थे। मैं उनका इंतज़ार करना चाह रही थी पर नाना-नानी चाहते थे कि हम जल्दी से जल्दी कैनेडा चले जाएँ . . .। उसी समय नाना के ग़ुस्से से यह जाना था कि नाना को पिता अच्छे नहीं लगते। माँ ने अपनी मर्ज़ी से प्रेम विवाह किया था। माँ को स्कॉटिश वंश के ऊँचे, लंबे, गोरे पिता बहुत भाए थे। कहते हैं कि उनका ’टैल्फ़र’ वंश राजकुल का था, अब यह तो पता नहीं कि यह सच था कि नहीं पर जब पिता मुझे स्कूल छोड़ने जाते तो उनकी अंगुली पकड़ कर चलते हुए मैं गर्व से भर जाती थी। मुझे वो वाक़ई एक राजा की तरह दिखते। माँ साधारण रूप-रंग की थीं पर उनके चेहरे पर एक लुनाई थी। बड़ी-बड़ी आँखों में मेहनत करने का भरोसा था। शायद पिता ने वही पसंद किया हो पर नाना को स्कॉटिश आदमी से नहीं, किसी शुद्ध फ़्रैंच आदमी से माँ की शादी कराने का मन था जो उनकी तरह कई ज़मीनों का मालिक हो। लेकिन जो होना था, वही हुआ। माँ बताती थीं कि नाना ने माँ से मेरे पैदा होने तक बात भी नहीं की थी। वो तो जब मैं पैदा हो गई और पिता टूर पर रहने लगे तो माँ ने नाना-नानी के घर के पास घर ले लिया ताकि वे लोग मुझे पालने में उनकी मदद कर सकें। नाना-नानी मुझे देख कर ही पिघले थे।”
शैली ने आश्चर्य से कहना चाहा था, ‘अच्छा, तुम्हारे यहाँ भी माता-पिता का ऐसा नियंत्रण रहता है बच्चों पर? हमारे यहाँ तो . . . ’ लेकिन ऐना को स्मृतियों के बीच गुम होते देख चुप रह गई। हर व्यक्ति की कहानी में जाने कितनी परतें होती हैं, चाहें वह किसी भी ज़मीन का हो।
ऐना कहानी कहती, ठिठक गई . . .। अपने घर-परिवार, अपने माता-पिता के संबंधों और उनके चरित्रों पर बात करना कहाँ आसान होता है, वो भी तब, जब वे चले गए हों! शैली उसकी दुविधा समझ रही थी पर एक तो ऐना की माँ के जीवन से उनकी किसी उपेक्षित इच्छा को निकाल कर, उसे तृप्त करने का पागलपन और फिर इतनी सच्ची-सी कहानी के माध्यम से कैथरीन को कुछ जानने का लोभ! शैली ने धीरे से कहा, “ऐना, हम औरतों की ज़िन्दगी माँ, बेटी, पत्नी, बहन . . . इन सब ख़ानों में बँटते-बँटते इतनी ज़्यादा बँट जाती है कि हमें अपने मन और अपने जीवन को समझने के लिए बहुत कम समय मिल पाता है। आज तुम माँ को केवल उसके माँ होने से मत पहचानना बल्कि एक ही जाति की होने से जैसे एक स्त्री, दूसरी स्त्री को पहचानने की कोशिश करती है, वैसे पहचानना! शायद वो यही तुम से चाहती हों!”
ऐना के भीतर बहुत सी यादें घुमड़ रहीं थीं। यादों के इस भँवर के बीच से वह अपनी माँ में एक औरत की तस्वीर ढूँढ़ रही थी। माँ के जीवन को एक औरत के जीवन की तरह निष्पक्ष होकर देखना आसान कहाँ है! संबंधों और अपेक्षाओं के जमघट तले अगर ’माँ’ दबी होती है तो उसके भीतर की ’औरत’ तो अपने सपनों के जाने कितने सलीब चुपचाप खींच रही होती है।
ऐना ने कहानी के वाक्यों के बीच फिर अपने को और कैथरीन को ढूँढ़ना शुरू किया। ऐना के कैनेडा आने के लगभग डेढ़ साल बाद माँ यहाँ आई थीं। शुरू में वे मौसी के परिवार के साथ ही रहते रहे फिर कैथरीन ने ’फ़ूड टेक्नीशियन’ का कोर्स किया और स्कारबोरो अस्पताल के भोजन विभाग में काम करने लगीं। वह जब भी माँ से पिता के बारे में पूछती, माँ कुछ अनमना-सा जवाब देकर चुप हो जातीं या कहतीं कि पिता का कैनेडा आना लगभग नामुमकिन ही है। ऐना उदास हो जाती! धीरे-धीरे नए जीवन की नई व्यवस्थाओं और कामों के बीच उनका जीवन एक समताल में चलने लगा। पिता को कैनेडा बुलाने की ऐना की ज़िद कम होती गई। ख़ुद वहाँ जाने के बारे में तो वह सोच भी नहीं पाती थी, इस तरह पिता का अस्तित्व उनके जीवन से लगभग मिटने लगा था। तभी लगभग 6 बरस बाद पिता अचानक उनके जीवन में दोबारा लौट आए। उसे अच्छी तरह याद है, वह रविवार का दिन था। वह अपार्टमेंट की बालकनी में खड़ी हुई गीले बाल झटकार रही थी, बिल्डिंग के सामने एक टैक्सी आकर रुकी और उसमें से उसके पिता अपने अटैची लिए हुए निकले थे। चौथी मंज़िल से उसे पहले तो एक क्षण को भ्रम हुआ पर फिर जब उन्होंने गर्दन उठाकर बिल्डिंग की तरफ़ देखा तो उनकी चेहरे और आँखों को इतनी दूर से भी वह साफ़ पहचान गई। उसकी साँसें जैसे कानों में बजने लगी थीं और वह दौड़ती हुई माँ से आकर लिपट गई थी, “माँ . . .माँ . . .। डैडी . . .। डैडी . . .!!”
शब्द उसकी ज़ुबान का साथ नहीं दे पा रहे थे। माँ के चेहरे पर उसे अपनी जैसी आश्चर्यचकित होने वाली प्रतिक्रिया नहीं मिली थी . . . वहाँ एक ठंडा ठहराव था। उसे आज भी उनकी गहरी भूरी आँखों में तैरता असमंजस दिखाई दे रहा था। कुछ सैकेंड के बाद उन्होंने उसे अपने से अलग करते हुए कहा था, “जाओ, सामान लाने में उनकी मदद करो।”
पिता को देख कर ऐना ख़ुशी के मारे पागल हुई जा रही थी। उसने उन्हें आख़िरी बार लगभग 11 की उम्र में देखा था और अब वह सत्रह पूरे कर चुकी थी। पिता . . . उसके हीरो . . . उसके आदर्श . . .! उसकी ख़ुशियाँ आसमान छू रहीं थीं। पिता ने उसे ’मेरी प्यारी बच्ची’ कह कर बाँहों में भर लिया था और रो पड़े थे। नीली आँखों से बहते आँसू . . . उसे लगा था जैसे समंदर उनकी आँखों से टपक रहा हो जिसमें उसके आँखों की दो नदिया भी जाकर मिल रही हों। माँ ने कुछ ख़ुशी दिखाई, कुछ तटस्थता . . . कुछ असमंजस!
लेकिन उसके बाद ऐना के दिन तो एक नई ख़ुशी से चल पड़े। पिता उनके साथ रहने के लिए ही आए थे, अपनी पुरानी नौकरी छोड़ कर! माँ ने कुछ दिनों की छुट्टी ली ताकि पिता कैनेडा आने के बाद की सरकारी कार्यवाही आराम से पूरी कर लें। शुरू के कुछ दिनों के खिंचे हुए व्यवहार के बाद लगा था कि माँ, पिता के साथ पुराने दिनों जैसी हो गई हैं। उसने माँ से, डैडी से उनके न आने और फिर अचानक आने . . . या माँ के ठंडे व्यवहार . . . इन सब के बारे में बात करनी चाही थी पर दोनों के पास ही बात टालने के कुछ न कुछ बहाने थे और ऐना में उन बहानों को खुरच कर, सच्चाई देखने की कोई इच्छा नहीं थी। जीवन बहुत सालों बाद फुलवारी सा महक रहा था, तो वो फुलवारी की खाद क्यों देखती? घर पर माँ की स्पेशल ’डिशेज़’ की महक जब-तब आने लगी थी और शाम के समय पिता की किसी धुन पर सीटी बजाने की मीठी आवाज़ गूँजती। लगभग 10 साल ऐसे ही चला। इस बीच ऐना ने प्रेम किया और फिर प्रेम विवाह! माता-पिता की ख़ुशियों के बीच ही उसकी पहली संतान भी हुई। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था पर इसी बीच एक दिन पिता अचानक बिना बीमारी के, केवल एक हार्ट अटैक में चले गए। उनकी मृत्यु जितना बड़ा घाव देकर गई, उतना ही बड़ा आश्चर्य लेकर आई थी उसके लिए। तीन लोग आए और उन्होंने अपने को उसका भाई-बहन बताया। उसने देखा, माँ हैरान नहीं थीं और उन्होंने सहजता से उन तीनों को गले लगा लिया। दो दिन रुक कर वे लोग अपने-अपने देश लौट गए। एक बहन न्यू जर्सी, एक जमेइका और भाई वापस ट्रिनिडाड! वह माँ से नाराज़ हुई थी कि उसे यह सब पहले क्यों नहीं बताया गया? माँ ने उन लोगों को गले क्यों लगाया? तो क्या इन्हीं लोगों के कारण पिता इतने वर्षों तक उस के पास नहीं आए थे? माँ उसकी भावना समझती थीं सो उसके ग़ुस्से को चुप होकर सह गईं। वैसे भी वे कम ही बोलती थीं . . . और फिर धीरे-धीरे उनकी व्यक्तिगत चुप्पी, ऐना के दोनों बच्चों की किलकारियों और नन्ही बातों में डूब गई। ज़िन्दगी छोटी-मोटी बीमारियों और ढेर सी व्यस्तताओं के बीच चलती रही। माँ रिटायरमेंट के बाद पूजा-पाठ या बच्चों के साथ समय बिताती। ऐना का घर पास ही था लेकिन वह अपनी समस्त व्यस्तताओं के बीच माँ का ख़ूब ध्यान रखती और ऐसे ही चलते-चलते माँ की लिवर की बीमारी का पता लगा और फिर जल्दी ही हुई माँ की अनन्त यात्रा . . .!
ऐना सब बताते हुए सोचती रही, इस कहानी में क्या छूटा और शैली सोचती रही, इन घटनाओं से कैथरीन का क्या रूप बन रहा है? वह ’औरत’ अपने कामों और चुप्पी के इस जीवन में क्या एक बार भी उमड़ कर बोली नहीं?
हम सम्बन्धों की विराटता में, व्यक्ति की अस्मिता और उसके निजत्व को भूल ही जाते हैं। चाहे यह अस्मिता सम्बन्धों के बीच छोटी ही दिखती हो पर इसे भूला तो नहीं जा सकता! पुरुष की अस्मिता उसके काम, व्यवसाय, सम्बन्ध और निजी रुचियों के खाने में शायद सारी की सारी समा जाती है पर औरत सब कुछ होकर भी कहीं न कहीं कुछ छूटा हुआ-सा महसूस करती है। क्यों? वह ऐसा क्यों महसूस करती है? इस ’क्यों’ के उत्तर के बहुत सारे आयाम हैं, स्तर हैं। यह उत्तर समाजशास्त्र के नियमों में, स्त्री के अवचेतन में, दुनिया के इतिहास में और स्त्री की शारीरिक रचना, सभी में छिपा है। इस उत्तर को पुरुष तो क्या, स्त्री स्वयं भी अक्सर नहीं ढूँढ़ पाती पर प्रायः जीवन के अंत में एक अतृप्ति उसमें सिर उठाने लगती है। वह शान्ति चाहने की इच्छा में जितना मुस्कुराती है, अकेलेपन में उतनी ही एक अनकही व्यथा से थकने लगती है। उम्र की ढलान पर हाथ की सुमिरिनी माला के मोतियों पर चलती उसकी अंगुलियाँ ऐसी लगती हैं मानो अपने को ही टटोल रही हों, ढूँढ़ रही हों! ऐना माँ की इस अतृप्ति को समझ सकी क्या?
शैली जान रही थी कि ऐना स्मृतियों में ज़िन्दगी टटोलती कितनी थक गई थी। पिछले दो घंटे में उसने अपनी माँ की ही नहीं, अपने पिता की मृत्यु को भी जिया था। वह उठी और ऐना की पसंद का ‘कैरेट केक’ और कॉफ़ी ले आई और अपने लिए भी वही सब . . . इस मामले में दोनों की पसंद एक सी है। बोली, “ओ माई डियर सिस्टर फ़्रॉम अनदर मदर . . . (ओ . . . दूसरी माँ से हुई मेरी प्यारी बहन।) अपने पसंद का केक खाओ . . . और शब्द नहीं, दिमाग़ नहीं, अब केवल अपने दिल को चलाओ।”
ऐना ने उसकी तरफ़ थकी हुई मुस्कान से देखा और बोली, “वही सब तो इतनी देर से चला रही हूँ, इतना चलाया कि थक ही गई। अपनी कहानी इस तरह पूरी की पूरी तो मैंने कभी किसी को नहीं सुनाई।”
शैली अपनी कॉफ़ी पीते हुए सहमत होते हुए बोली, “ज़रूरत पड़ने पर ही तो हम उन गलियों में जाते हैं जहाँ से हमारा अतीत गुज़र चुका होता है। ऐसे ही करके स्मृतियों की धूल से हम ज्ञान के मोती चुन कर लाते हैं। आज तुम जो कुछ मुझे बता रही हो, वह तुम्हारी अपनी आंतरिक यात्रा के पड़ाव भी हैं जो तुमको अपनी माँ को समझने में बहुत मदद करने वाले हैं।”
ऐना ने प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखा तो शैली आगे बोली, “मैं क्योंकि उनकी बेटी नहीं, इसलिए कुछ दूरी से देख पा रही हूँ, वे दूसरी औरत थीं न तुम्हारे पिता के जीवन में। शायद पहली पत्नी की मृत्यु के बाद ही वे तुम लोगों के पास लौट सके थे। शायद वो चाहती हों कि तुम्हारे पिता तुम्हारे और उनके पास आ कर रहते। बच्चों को उन्होंने अपनी उदारता में अपना तो लिया होगा लेकिन! पहले की औरतों के पास स्थिति के स्वीकार और उसी में ख़ुश रहने के अलावा क्या उपाय बचता था?”
ऐना भी अपनी सोच को कुरेद रही थी, बोली, “हाँ, बुरा तो लगा ही होगा, तभी तो उनके आने की ख़बर पहले से जानने पर भी मुझे नहीं बताया था और भाई-बहनों के बारे में तो बिल्कुल भी नहीं बताया . . .”
उसने माँ से सहानुभूति जताते हुए कहा। शैली स्त्री-दुख से भर कर बोली, “मुझे तो बहुत ग़ुस्सा भी आए . . . वे दूसरी पत्नी हुईं तो क्या, कुछ अधिकार तो उनके भी थे। उन्होंने बात तो की ही होगी न तुम्हारे पिता से इस बारे में कैनेडा आने से पहले, क्या पता तुम्हारे पिता यहाँ आने के लिए माने न हों . . .। इस नए देश में अकेले ही तुम्हें बड़ा करने का मुश्किल काम किया उन्होंने। इन बातों पर तो अब तलाक़ हो जाते हैं . . . अब ऐसे अकेले रहना कोई नहीं सहता। सच, पहले के समय में औरतों को ही सब सहना पड़ता था, फिर चाहें वे भारत की हों या ट्रिनिडाड की . . . हमारे देश में भी यही हाल है, आदमियों की मनमानी चलती है सब जगह! जब मन आया दूर रहो, जब मन आया पास आ जाओ!”
वे दोनों कैथरीन के दुख को जैसे महसूस करने लगीं और एक नई पीड़ा और सहानुभूति से भर गईं। माँ की विवशता पूरी स्त्री जाति की विवशता में ढल कर विराट हो गई थी जिसके भार से उनके मन भारी होते चले गए।
एक लंबी चुप्पी समुद्र की तरह उनके सामने पसरी थी जिसका कोई किनारा नहीं दिख था, लेकिन एक कहानी ने आकार ले लिया था और कुछ विश्वसनीय अटकलें चप्पू सी दिमाग़ को मथ रहीं थीं। बैठे-बैठे बहुत देर हो चुकी थी, घर जाने का समय हो रहा था। दोनों ने तय किया कि बातचीत अब यहीं रोकी जाए और घर को निकला जाए। आगे फिर कोई ख़ास बात होने पर एक दूसरे से तुरंत संपर्क किया जाए, यह तय करते हुए वे गले मिलीं। चलते हुए ऐना ने शैली को इसे कहानी की तरह लिख लेने की सलाह दी, क्या पता बाद में कितना याद रहे और कितना भूल जाएँ? शैली ऐना की कोई संबंधी न होते हुए भी इस समय उसकी सबसे क़रीबी बन गई थी। कैथरीन और ऐना के जीवन को देखने वाली बाहरी आँख!
जीवन के रहस्य कितने भी गहरे हों, प्रकृति का नियमित जीवन अपने हिसाब से फिर भी चलता ही रहता है। खाना-पीना, सोना-जागना, सूर्य और चाँद से बँधे यथावत होते रहे। घड़ी की सूइयाँ घूमती रहीं और इस बात को लगभग तीन महीने हो गए। शैली को वे फिर नहीं दिखाई दीं और वह भी उनके जीवन को अपनी समझ से काग़ज़ पर उतार, मानों तर्पण कर के मुक्ति पा गई थी।
फिर एक दिन ऐना का फोन आया और उसने शैली को ई-मेल चैक करने के बाद फोन करने को कहा। ई-मेल में लगभग डेढ़ पन्ने का एक हाथ की साफ़ लिखाई वाला एक पत्र संलग्न था। यह पत्र ऐना के नाम था।
अंग्रेज़ी में लिखे उस पत्र में ऐना को अपने जीवन के अनखुली बातों के बारे में संक्षेप में बताते हुए कैथरीन ने लिखा था;
“मेरी बच्ची, जीवन एक रहस्य नहीं, बल्कि कर्म की ऐसी भूमि है जहाँ हम अपने मनोभावों के अनुरूप काम करते हुए अपनी दुनिया ख़ुद बनाते हैं। मैंने जब तुम्हारे पिता से विवाह किया, तब जानती थी कि उनकी एक पत्नी और तीन बच्चे हैं। वे मुझ से क़रीब पंद्रह साल बड़े थे पर दिखने में बहुत आकर्षक और मन से बेहद उदार। हम दोनों ही प्रेम के गहरे रंग में बहुत जल्दी डूब गए। उस समय बहुत से लोग दो शादियाँ कर लेते थे। हमारा समाज उन्हें बुरी निगाह से नहीं देखता था पर क्योंकि तुम्हारे नाना को यह बात पसंद नहीं थी इसीलिए मैंने तुम्हें ट्रिनिडाड रहते कभी बताया नहीं। फिर कैनेडा आने के बाद इस बात को कहना उचित नहीं लगा क्योंकि इस समाज में एक ही शादी क़ानूनी मानी जाती है।
तुम्हारे पिता मुझ से बहुत अधिक प्रेम करते थे पर मैं नहीं चाहती थी कि तुम्हारे पिता अपनी ज़िम्मेदारियों से भागें। उनकी पहली पत्नी नौकरी नहीं करती थीं पर मैं स्वाबलंबी थी इसीलिए मैंने उन्हें कैनेडा आने से रोका और अपने जवान होते बच्चों के साथ रह कर, उन की शादी, नौकरी लगवाने आदि की ज़िम्मेदारियों को ख़त्म करने को कहा। उस परिवार का हक़ तुम्हारे पिता पर मुझ से और तुम से पहले था। उन्होंने वे सब कुछ मेरे ही कहने पर किया वरना वे कब के हमारे साथ आकर रहने लग गए होते। बच्चों की शादियाँ करवाने के कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का भी एक बीमारी में देहांत हो गया, जिसके कारण मैं संदेह से भर गई। मोह आदमी का विवेक खो देता है, और मुझे डर लगा कि कहीं . . . लेकिन उनके अनेक प्रमाण देने पर कि वे अपनी ज़िम्मेदारी निभाकर आए हैं, मैंने उन्हें पति रूप में अपने साथ रहने की स्वीकृति दे दी। वे तुम्हें बहुत प्यार करते थे ऐना! उन्होंने तुम्हारे लिए ट्रिनिडाड में एक घर भी बनवाना चाहा था पर मैंने मना कर दिया। धन और घर की आवश्यकता उनके पुत्र को हमसे अधिक है, हमारे पास तो यह अपार्टमेंट है ही, इसका बैंक लोन भी एक न एक दिन समाप्त हो जाएगा। फिर तुम भी ट्रिनिडाड जाकर तो रहने वाली नहीं हो। तुम्हारे पिता के जाने से बहुत पहले से मैं फोन पर उनके बच्चों से बात करती थी। वे तीनों बच्चे कभी-कभी बहुत अकेला महसूस करते थे। उनकी माँ थीं नहीं और पिता भी दूर हो गए थे, ऐसे में उनके मन की हालत के बारे में तुम सोच ही सकती हो। तुम्हारे पिता की मृत्यु पर मैंने ही उन्हें बुलाया था। वे बिल्कुल अनाथ महसूस कर रहे थे, मैंने कहा कि ’जब तक मैं हूँ तब तक तुम अनाथ कैसे हो सकते हो, मैं तुम्हारी छोटी माँ हूँ और तुम्हारी एक बहन भी है ऐना . . . जब मैं चली जाऊँगी, तब तुम सब अनाथ हो जाओगे, इसलिये सब आपस में संपर्क रखना। इस तरह हम तीनों माँ-बाप तुम्हारे बीच ज़िंदा रहेंगे।’ और देखो, वे तीनों मुझे बराबर फोन करते रहे, मुझे प्यार और सम्मान देते रहे। तुम्हें इसके बारे में नहीं बताया क्योंकि तुम में वह ’मैच्योरिटी’ नहीं देखी कि तुम्हारे पिता की पहली स्त्री की बात तुमसे कर सकती। स्त्री भावुक होकर अपनी कर्म और विचार शक्ति खो देती है, ख़ुद को कमज़ोर समझती है और पुरुष को ग़लत। विचार शक्ति को दृढ़ करने पर सब कुछ विवेक से चलता है, न व्यर्थ का अहंकार आता है और न कमज़ोर कर देने वाला ग़ुस्सा। न अधिकार की चिंता होती है और न कर्त्तव्य करने की थकान। मेरे किए को न मेरी महानता समझना और न कमज़ोरी। बदलते समय और बदले हुए समाज के बीच अपने कर्त्तव्य और अपनी ही ख़ुशी पर विचार करके जीने की चेष्टा करने वाली एक साधारण स्त्री हूँ मैं जिसे बस एक ही बात समझ आई कि प्रेम स्वार्थी नहीं होता। अपनी ख़ुशी अपने ही हाथ में होती है ऐना, हम चाहें तो उदार होकर जीवन को सुखी बना लें और चाहें तो दुखी। मैं चाहती हूँ कि तुम भी मेरे जाने के बाद दुख और भावनाओं में ही मत बहती रहना। दुख मन की कमज़ोरी से पैदा होता है, मन को दृढ़ कर के, विवेक से विचार करके जीवन जीना।”
फिर ऐना को घर और सम्पत्ति के बारे में संक्षिप्त निर्देश देने के बाद उन्होंने अंत में लिखा था;
“हमारे चर्च के नए पादरी एक भारतीय हैं। उनके आने से अपने पूर्वजों का इतिहास दिमाग़ में ताज़ा हो गया। इसी समय भारत से आई वो लड़की, शैली तुम्हारी अच्छी दोस्त बन गई है। प्रकृति कोई काम बिना सोचे नहीं करती, न मिलाना और न अलग करना। हम क्रिश्चियन भी हिंदुओं की तरह मानते हैं कि हमारे जीवन में जो कुछ घटनाएँ होना निश्चित किया गया होता है, वही होता है, यह नियम है लेकिन इन घटनाओं से उत्पन्न भावों के प्रति व्यक्ति स्वतंत्र होता है, अपने स्वभाव के हिसाब से प्रतिक्रिया दे सकता है, वह प्रतिक्रिया ही नियति गढ़ती है, तो यह घटना भी महज़ संयोग नहीं कि शैली का तुम्हारे जीवन में आना और फ़ादर एंटोनी का चर्च में आना लगभग एक ही समय में हुए। उन्होंने बहुत कुछ बताया इंडिया के बारे में। पता नहीं कहाँ से अब जीवन के अंतिम समय में यह इच्छा जाग रही है, ठीक होती और यह इच्छा पहले जागती तो शायद मैं तुम्हें लेकर ख़ुद इंडिया जाती पर अब मैं चाहती हूँ कि मेरे जाने के बाद तुम शैली से कहना कि जब कभी वह इंडिया जाए और अगर उसे परेशानी न हो तो वो मेरे और हमारे पुरखों के लिए कुछ फूल और दीपक गंगा नदी में बहाए और हमारे लिए प्रार्थना करे। मैंने पढ़ा है कि इस तरीक़े से भारतीय अपने पुरखों के प्रति आदर प्रकट करते हैं . . . कभी तो कोई पुरखा हमारा भी आया ही था न उस देश से! उस ज़मीन को धन्यवाद कहना भी ज़रूरी है। शैली को मेरा अग्रिम धन्यवाद और प्यार देना! उम्मीद है जीसस मुझे तुम्हारा गार्जियन एंजिल बन कर रहने देंगे . . . मैं हमेशा तुम सब के साथ हूँ मेरी प्यारी बच्ची (मुस्कुराते चेहरे का चित्र:)! तुम्हें और तुम्हारे पूरे परिवार को मेरा ढेरों प्यार और दुआएँ!
चिट्ठी पढ़ कर वह कुछ चौंकी . . .! कुछ क्षण शैली उस चिट्ठी में बहती रही फिर सोचने लगी कि जीवन भर उसे लगता रहा था कि हर औरत की नाल कहीं न कहीं किसी एक जैसे दुख से जुड़ी रहती है पर इस चिट्ठी ने उस मान्यता को एक पल में ही छन्न कर के तोड़ दिया। कितने आयाम होते हैं एक व्यक्ति में . . . कौन कब किसे पूरी तरह जान पाया। ऐना और शैली क्या समझ पाएँगे कैथरीन के मन को?
कैथरीन हर मान्यता से कहीं ऊँची और मज़बूत दिखाई दे रही थी।
फोन बजने लगा . . . ’ऐना ही होगी’ शैली ने सोचा और धीमे क़दमों से फोन की ओर बढ़ गई।
2 टिप्पणियाँ
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शैलजा जी, आपकी कहानी तो रोचक है ही, और ऊपर से आपकी शैली सोने पर सुहागा। प्रत्येक वाक्य इस मन-मोहक माला रूपी कहानी में मोती समान पिरोया प्रतीत हो रहा है। बचपन ही से मुझे कहानियों में रुचि होने के कारण पहले चन्दामामा, फिर धर्मयुग, सरिता इत्यादि और फिर कोई भी उपन्यास एक ही दिन में पूरा पढ़ लेने का चस्का तो था ही। लेकिन उन्हें पढ़ते हुए एक नासमझी वाली बात अन्जाने में करती चली गई कि जहाँ कहीं लेखक की भावनाओं या किसी दृश्य का वर्णन हुआ होता तो वे सारे पन्ने पलट कर कहानी पर ही ध्यान देती। अब साहित्य-कुन्ज के माध्यम से आप जैसे उच्च कोटि के लेखकों की रुचिकर रचनाएँ पढ़ते-पढ़ते उस बुरी आदत से पीछा छुड़ाने में सफल हो गई हूँ। साधुवाद सहित धन्यवाद।
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वह शान्ति चाहने की इच्छा में जितना मुस्कुराती है, अकेलेपन में उतनी ही एक अनकही व्यथा से थकने लगती है -- दुनिया के किसी भी हिस्से की नारी का सच जिसे शैलजा जी ने अपनी कहानी "अदर मदर " के चरित्र मां के ज़रिए दिखा दिया जो समय आने पर बेटी को हिम्मत न हारने की सीख भी देता है । शैली का संवेदनशील मन सखी ऐना की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता है जो उसकी मां के लिए उससे भी ज्यादा द्रवित होता है। कहानी की लम्बाई को थोड़ा कम किया जा सकता था ????
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- जैनेन्द्र कुमार और हिन्दी साहित्य
- महादेवी की सूक्तियाँ
- साहित्य के अमर दीपस्तम्भ: श्री जयशंकर प्रसाद
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