भारतीय ज्ञानपरंपरा की सार्वकालिकता

15-08-2025

भारतीय ज्ञानपरंपरा की सार्वकालिकता

डॉ. शैलजा सक्सेना (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


(विशेष सूत्र संदर्भ: असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय) 
 

ज्ञान का अर्थ क्या है? भारतीय ज्ञान परंपरा का अर्थ क्या है? और यह कैसे अन्य ज्ञान प्रणालियों से भिन्न है? विषय सुनते ही ये प्रश्न सहज ही मन में उठते हैं। 

ज्ञान अर्थात्‌ जानना। किसी विषय को भीतर-बाहर से खंगाल कर पूरा जान लेना, उसका राई-रेशा पहचान लेना ही ज्ञान है। भारतीय ज्ञान परंपरा के बारे में लिखा गया है: “भारतीय ज्ञान प्रणालियों में ज्ञान, विज्ञान और जीवन दर्शन शामिल हैं जो अनुभव, अवलोकन, प्रयोग और कठोर विश्लेषण से विकसित हुए हैं। मान्य करने और व्यवहार में लाने की इस परंपरा ने हमारी शिक्षा, कला, प्रशासन, क़ानून, न्याय, स्वास्थ्य, विनिर्माण और वाणिज्य को प्रभावित किया है” (भारतीय शिक्षा मंत्रालय वेबसाइट: https://www.education.gov.in/national-education-policy) 

भारत विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से न केवल एक है अपितु इसके अकूत ज्ञानभंडार का लाभ अन्य संस्कृतियों ने भी लिया है। इस ज्ञान को नष्ट करने के लिए आक्रमणकारियों और विदेशी शासकों ने हमारी पांडुलिपियों, अध्ययन केंद्रों को ध्वस्त कर दिया, इसके गौरव को सदियों तक हमसे दूर रखा गया ताकि भारतीय मानस इसे भूल ही जाए। ज्ञान प्राप्त व्यक्ति के आत्मविश्वास और मेधा को गिराना कठिन होता है अतः हमें अपने ही सनातन ज्ञान से दूर करके हमारे सामने अन्य संस्कृतियों की महानता के ब्यौरे परोसे गये। यही पाठ अनेक पीढ़ियाँ पढ़ती आई हैं। पर ज्ञान श्रुति, स्मृति की परंपरा से भारतीय जन-मानस में जीवित रह ही गया। 

वेद, योग, उपनिषद, पुराण, वनस्पति विज्ञान, शरीर विज्ञान, स्थापत्य शास्त्र, खगोल, भूगोल, आयुर्वेद, अर्थ शास्त्र, समाजशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, काव्य शास्त्र, भागवत, रामायण आदि अनेक ग्रंथ इस विशाल ज्ञान के प्रवक्ता हैं जिनसे हम जीवन और समाज की संरचना और मूल्यों को समझते हैं। ज्ञान के हर आयाम में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग करते हुए प्राचीन भारत ने जितना ज्ञान प्राप्त किया, जितने सूत्र और चिंतन बिंदु हमें सौंपे, वे सार्वकालिक है। 

२००१ से भारतीय ज्ञान परंपरा शब्द का प्रचलन बढ़ा और इस दिशा में जन साधारण में और सरकारी स्तर पर अधिक जागरूकता भी दिखाई देने लगी। २०१० तक आते-आते भारतीय सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने १४८ पुस्तकों के माध्यम से ३४ लाख पृष्ठों को डिजिटल लायब्रेरी में सँजोया। इस ज्ञान परंपरा को अनेक वैश्विक नियमावलियों के माध्यम से सुरक्षित भी करवाया गया क्योंकि हमारे आयुर्वेदिक और रसायन शास्त्र के अनेक सूत्रों का प्रयोग, स्वास्थ्य संबंधी उत्पाद बनाने वाली विदेशी कंपनियाँ कर रहीं थीं और उन्हें ’पेटेंट’ करवा कर मुनाफ़ा कमा रही थीं। हल्दी, लौंग, या अन्य मसालों, यहाँ तक कि गौ मूत्र और गोबर आदि तक का प्रयोग अपने नाम पर पेटेंट करा चुकी इन कंपनियों की मुनाफ़ाख़ोरी ने भारतीय प्रशासन को इस ओर सक्रिय किया और वैश्विक नियमों के अनुसार ही भारत, हल्दी के कुछ प्रयोगों और अन्य उत्पादों के कुछ पेटेंट वापस भी ले सका। इस प्राचीन ज्ञान को जन-सुलभ बनाने के लिए डिजिटल लायब्रेरी (https://www.tkdl.res.in/tkdl/langdefault/common/Home.asp) सहायक सिद्ध हो रही है। नई शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परंपरा, भारत के गौरवशाली इतिहास और संस्कृति को महत्त्व दिया गया है। अधुनिक पाश्चात्य प्रणाली की शिक्षा के चलते भारतीय ज्ञान परंपरा का जो गौरवशाली इतिहास कहीं खो रहा था, उसी को पुनः स्थापित करने की चेष्टा नई शिक्षा प्रणाली में की गई। 

भारतीय ज्ञानपरंपरा का जन्म वेदों से माना जाता है पर मुझे लगता है जिज्ञासा, चिंतन, मनन और अध्ययन की परंपरा का प्रारंभ बहुत पहले हुआ होगा। हमारी ज्ञानपरंपरा जिस तर्कशीलता पर बल देती है, उसी के आधार पर, सामान्य तर्क से विचार करें तो कोई भी विचार परिपक्व होने से पहले एक लंबे समय तक चिंतन की मथानी से मथे जाता है तब मक्खन रूपी तत्त्व ऊपर आता है। जब बात जीव, जगत, माया, आत्मा-परमात्मा, समाज, व्यक्ति, धर्म, अधर्म, नीति, अनीति, ज्ञान, अज्ञान और कर्म आदि विषयों के विशद विवेचन की हो तब इस चिंतन की प्रक्रिया की गहराई और विस्तार की कल्पना हम कर सकते हैं। वेद इस चिंतन प्रक्रिया की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए लोगों की अभिव्यक्ति का संग्रह हैं। वेद से ज्ञान परंपरा लिखित रूप में, एक जगह संगृहीत दिखाई देती है जिसमें ज्ञान के उतने ही आयाम हैं जितने किसी हीरे से गुज़रती हुई सूर्य रश्मियों के रंग। इन आयामों और रंगों तक पहुँचने के लिए विचारकों, मनीषियों और साधकों ने एक लंबी तपस्या की होगी। यह किसी एक पीढ़ी की तपस्या का फल नहीं हो सकते। लिखित रूप में आने के पूर्व भी मौखिक रूप में इन विचारों को आगे बढ़ाने वाली अनेक पीढ़ियाँ रही होंगी, इसके बाद ही वेदों को अंतिम प्रति के रूप में अभिव्यक्त कर यह ज्ञान समाज के सामने आया होगा। हाल ही के शोध में कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि संभवतः वेद 30,000 साल पुराने हैं तो हम सोच सकते हैं कि इस ज्ञान परंपरा की प्रक्रिया कब प्रारंभ हुई होगी। वेदों में लिखित जीवन-विज्ञान के गहन सूत्रों को समझाने के लिए बाद में पुराणों और उपनिषदों में इनकी विशद व्याख्याएँ की गई हैं। इसके बाद रामायण, महाभारत, भगवतगीता, भागवत आदि ने अपनी कथाओं में इन्हीं सूत्रों को अपने नीति और दर्शन सार का आधार बना कर मनुष्य जीवन की सार्थकता का मार्ग दिखाया है। इसके साथ ही ज्योतिष ज्ञान, भूगोल विज्ञान, आयुर्वेद, वैदिक गणित, ज्यामितीय ज्ञान आदि ये सभी मिलकर भारतीय ज्ञान परंपरा कहलाते हैं। 

इस ज्ञान परंपरा के भंडार में दिए गए अनेक विचार जन्म, मृत्यु, कर्म, विभिन्न स्थितियों और संबंधों के धर्म,  और आत्मा के उन समस्त संदर्भों को संबोधित करते हैं जो सभ्यता के लिए अनादि काल तक उपयोगी रहेगा। भारतीय ज्ञान परंपरा की यह सार्वकालिकता और सार्वभौमिकता उसे अन्य संस्कृतियों और ज्ञान परंपराओं से भिन्न करती है। यहाँ ईश्वर की सत्ता का कोई एक रूप नहीं और अनुगत होने के लिए कोई एक किताब नहीं है जिसे उस धर्म में रहने के लिए मानना ही अनिवार्य होगा। इसलिए इसमें किसी एक विचार को थोपने का कोई भाव नहीं है। भारतीय ज्ञान परंपरा में “ज्ञान” स्वयं खोज कर पाने की सिद्धि है। इस ज्ञान या जानने तक पहुँचने के लिए अनेक मार्ग हैं, व्यक्ति इन मार्गों की जाँच-परख करके, अपनी रुचि के अनुसार एक मार्ग या एकाधिक मार्गों का चयन भी कर सकता है। इस परंपरा का मूल आधार खोज है, मनुष्य की अपने को जानने की खोज! इसमें मनुष्य अपनी कर्म की संभावनाओं की खोज भी करता है, अपनी भावनाओं का विश्लेषण करता हुआ अपने पूर्वाग्रहों, संस्कारों को देखने का प्रयत्न करता हुआ, उन्हें परिष्कृत करने की राह पर बढ़ता है, इसी राह पर आगे चल कर अपने स्व-रूप को समझते हुए ब्रह्म के स्वरूप की खोज करता हुआ इस परम सत्य तक पहुँचता है: “सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत” (छान्दोग्य उपनिषद-१) यानी “यह सब ब्रह्म है, इससे अलग कुछ नहीं है, इस सत्य का शांत होकर चिंतन करना चाहिए।”

इस सूत्र में ध्यान देने वाली बात यह है कि भारतीय परंपरा ब्रह्म के स्वरूप को नेति-नेति कहते हुए, इस बात पर ही बल देती है कि ब्रह्म का वही स्वरूप है जिसे खोजी अपने भीतर देख पाता है, उस आत्मस्वरूप को देख कर फिर उसे विश्व में देखता है। इस ज्ञान में ब्रह्म के किसी विशेष रूप का पूर्वाग्रह नहीं है अतः उस स्वरूप को दूसरे से बलपूर्वक मनवाने या इसी ब्रह्म रूप को येन-केन प्रकारेण फैलाने का जुनून भी नहीं है। भारतीय ज्ञान परंपरा हर मनुष्य को इस खोज के लिए स्वतंत्र मानती है। उसका बल, इस खोज की प्रेरणा देने पर है, सहायता के लिए वह कुछ मार्ग-दिशा निर्देशन करती है, सत्य और ज्योति के सौन्दर्य को बताते हुए वह आत्मस्वरूप की खोज पर निकलने वाले लंबे मार्ग के पथिक का उत्साहवर्धन करती है, माया के आकर्षण में आकर पथ से भटक जाने के प्रति सतर्क करती है, इस खोज को आसान बनाने वाले योग-अभ्यासों को बताती है, और इस तरह वह परम स्वरूप के सौन्दर्य, शील और आनंद की चर्चा करते हुए, व्यक्ति को निरंतर उस ’सच्चिदानंद’ का स्मरण करने को कहती है जिससे वह अपने लक्ष्य तक पहुँचे।

भारतीय ज्ञान परंपरा वह मार्ग है जिसमें गुरु, अपने गुरुओं से प्राप्त ज्ञान की ज्योति-मशाल लिए, अपने शिष्य को अंधकार से प्रकाश में ले जाने की, उसके आत्म स्वरूप से मिलवाने और लक्ष्यरूप ब्रह्म या ईश्वर से मिलवाने की कड़ी मेहनत करता है। इस परंपरा में लक्ष्य और राह की कठिनाइयों के लक्षण निश्चित हैं पर लक्ष्य प्राप्ति के लिए साधन और कठिनाइयों को पार करने के उपायों के लिए, खोजियों की सुविधा के लिए अनेकानेक मार्ग बताये गये हैं। इन मार्गों को समझने और उन पर चलने के लिए हर कोई स्वतंत्र है। इन्हीं अलग-अलग मार्गों पर चलने वाले सिद्धों, साधुओं और गुरुओं ने बाद में अपने अनुभवों के आधार पर अपने ज्ञानपीठ बनाये। कहीं शक्तिपीठ हैं, कही शिवपीठ, कहीं शंकराचार्य जी के मठ हैं तो कहीं गोरखपंथी, कहीं कृष्ण भक्त हैं तो कहीं राम तक पहुँचने की साधना। कहीं निर्गुण के अखाड़े हैं तो कहीं भागवत कथा का मार्ग पकड़े सनातनी। लक्ष्य सभी का वही-ब्रह्म है जिसे अपने भीतर और पूरे विश्व में देखना है, “सियाराममय सब जग जानी, जोरि प्रनाम करहुँ दुहुँ पानि” (तुलसीदास-रामचरितमानस)। जिसे अपने में देख लिया, विश्व में देख लिया तब अलग क्या रह जाता है, “फूटा कुम्भ जल, जलहिं समाना, एक तत्त्व कह ज्ञानी” (कबीर)। जब कुछ अलग नहीं तो घृणा किससे की जाये, हिंसा किसके प्रति हो, जब सब अपने हैं, जब सब “मैं” ही हैं, एक तत्त्व ही हैं, तब “वसुधैव कुटुंबकम” का सद्भाव ही उत्पन्न होगा। 

विश्व को भारत में साधना के जो अनेक पंथ और सम्प्रदाय दिखाई देते हैं, उसका कारण भारतीय ज्ञान परंपरा की यह स्वतंत्रता ही है और यह स्वतंत्रता ही इसे सार्वकालिकता और सार्वभौमिकता का रहस्य है। जीवन उन्नति के लिए जो आधारभूत सूत्र चाहिए होता है, वह प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में जीवित रहता है। घटनाएँ, स्थितियाँ और परिवेश बदलते हैं, विचार और चिंतन पर भी उसका प्रभाव पड़ता है और चिंतन भी बदलता है पर मनुष्य की मूलभूत संवेदना, उसका ख़ालीपन, एक बृहत्तर की कल्पना, उस कल्पना का विश्लेषण करते हुए उस ख़ालीपन को भरने की चेष्टाएँ, किसी विराट की खोज निरंतर चलती है। वह अपने जीवन के उद्देश्य को ढूँढ़ता है और उस उद्देश्य को प्राप्त कर वह निरंतर आनंदित रहना चहता है। 

इतिहास बताता है कि सर्वाधिक धनी और सर्वाधिक शक्तिशाली होने के बाद भी मनुष्य प्रसन्न नहीं रह पाया, उसकी कुछ और की खोज चलती ही रही है। आधुनिक काल में भी सुविधाओं, धन-वैभव आदि से लेकर ड्रग्स तक की यात्रा, मनुष्य की असंतुष्टि के कारण कुछ और, कुछ और की खोज चलती रही है पर उसे यह नहीं पता कि यह और क्या है, वह खोज किसकी कर रहा है, किसको प्राप्त कर वह पूर्ण या संतुष्ट अनुभव करेगा, हमारे ग्रंथ बताते हैं कि हम उसी परमात्मा के अंश हैं जो आनंद स्वरूप है और उसी आनंद की प्राप्ति के लिए मनुष्य भटक रहा है। यह आनंद उसे धन में, संबंधों में, अनेक प्रकार के थ्रिल में मिलता है पर वह आनंद क्षणिक है। इसके बाद वह पुनः उसी भटकन और मानसिक ह्रास का शिकार होता है क्योंकि वह नहीं जानता कि उसे निरंतर पूर्णता प्राप्त कैसे होगी। भारतीय ज्ञान परंपरा मनुष्य की इसी सनातन भटकन और अंतिम उद्देश्य की बात करती है। इस भटकन और आनंद की भूख को वह समझती है और स्पष्ट कहती है कि बिना अपने स्वरूप के ज्ञान के, बिना उस विराट शक्ति को जाने, बिना उससे जुड़े यह भटकन चलती रहेगी। यह भटकन न केवल इस जन्म में अपितु अनेक जन्मों का कारण बनेगी क्योंकि अतृप्ति और आसक्ति ही पुनर्जन्म का कारण है। अतः अपने स्वरूप को समझो, ईश्वर का स्वरूप तुम्हें स्वयं समझ में आने लगेगा। ईश्वर से जुड़ो और उससे जुड़ कर तुम्हें सारा विश्व ही ईश्वरमय दिखाई देने लगेगा।

बाबा तुलसीदास जी इसी सत्य को ’रामचरितमानस’ में “सिया राममय सब जग जानी, जोरि प्रनाम करहुँ दुहुँ पानी” कहते हैं। ईश्वर को सर्वत्र देखने वाले का जीवन उद्देश्य हर प्रकार से ईश्वर सेवा या कहें कि मनुष्य मात्र की सेवा हो जाता है। यह मनुष्य मात्र की सेवा उसे बृहत्तर समाज से ही नहीं बल्कि बिना फल की आशा किए कर्म के आनंद से भी जोड़ती है। यह आनंद और सेवा कर्म उसके जीवन को सद्‌गति और सही दिशा देते हैं। इस आनंद और सेवा कर्म का न कोई एक निश्चित स्थान है, न निश्चित काल और न ही कोई निश्चित मार्ग।  

आनंद और सेवा कर्म लक्ष्य हैं पर इन लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए मार्ग चयन के लिए हर व्यक्ति स्वतंत्र है। यह स्वतंत्रता भी मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इसी प्रकार के अनेक सूत्र भारतीय ज्ञान परंपरा में हैं जो हमारे जीवन के अनेक उद्देश्यों को दिशा देते हैं और सार्थक बनाते हैं। 

इस आलेख में मैंने भारतीय ज्ञानपरंपरा के एक सार्वकालिक और सार्वभौमिक सूत्र को ही आधार बनाया है, जिसमें मुझे मनुष्य मात्र की सर्वंगीण उन्नति और मुक्ति का मार्ग दिखाई देता है। यह ज्ञान सूत्र है:

असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय

बृहदकारण्य उपनिषद से लिया गया यह सूत्र हमारी मंगल आरतियों, पूजा, हवन, यज्ञ, योग कक्षाओं में बार-बार दोहराया जाता है। इस सूत्र की लोकप्रियता जहाँ इसे भारतीय मानस का अभिन्न अंग बनाती है, वहीं अति परिचय, इसकी गहराई को न जानने का कारण भी बनता है। 

इस सूत्र का सरल अर्थ हम इस प्रकार करते हैं; असत या असत्य से सत या सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, एवं मृत्यु से अमृत या अमरत्व की ओर जाना ही मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है। इस शाब्दिक अर्थ को खोल कर जानने से इस सूत्र की गहनता और प्रासंगिकता हमें समझ में आयेगी। आधुनिक समय में तकनीकी ज्ञान और सुविधाओं के बीच जब मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को जानने के लिए भटक रहा है तब इस पंक्ति को गहराई से समझना और भी आवश्यक होगा। 

असत क्या है? सत क्या है? असत से सत की ओर जाना क्या है? हमें इन प्रश्नों में जाना होगा तभी हम इस सूत्र को समझ सकेंगे और इसका सही उपयोग जीवन में कर सकेंगे। असत का अर्थ प्रायः असत यानी झूठा आचरण, झूठा व्यवहार या झूठा चिंतन लिया जाता है। सत का अर्थ, प्रायः सच्चे धर्म, सच्चे व्यवहार, ज्ञान और ईश्वर रूप से लिया जाता है। ज्ञानमार्गी कहेगा, दुनिया माया है, इसलिए दुनिया असत है, ईश्वर सत है अतः इस दुनिया की माया को छोड़ कर सत यानी ईश्वर की ओर जाना ही असत से सत की ओर जाना है। भक्तिमार्गी भी यही कहेगा कि असत यानी मायारूपी दुनिया के पीछे भागना छोड़, सत यानी ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ ही असत से सत की ओर जाना है। ‘माया महाठगिनी हम जानी’ कह कर कबीर दुनिया के राग पाश को असत कहते हैं और इससे निकल कर सत-चित-आनंद प्रभु की शरण में जाने को कहते हैं जो निराकार है। 

भक्तिकाल का यह भक्ति भाव, आधुनिक काल में प्रश्नों और तर्कों के बीच घिरने लगा। दुनिया जो दिखाई देती है, वह ‘सच’ या सत न मानी जाये और जो ईश्वर दिखाई नहीं देता उसे ‘सत’ माना जाये, ऐसा विश्वास प्रामाणिक नहीं माना गया। पाश्चात्य दार्शनिकों नीत्शे, सार्त्र आदि ने धर्म और ईश्वर को जीवन को अपनी रूढ़ियों और बेड़ियों में जकड़ने वाला बता कर उसे नकारा, उसका उपहास उड़ाया और ईश्वर की मृत्यु की घोषणा की, भारतीय लेखकों और चिंतकों पर भी उसका प्रभाव पड़ा। जीवन को सत्य और ईश्वर की अनाम, अदेखी सत्ता को सत या सत्य मान लेना आधुनिक तार्किक मनुष्य के लिए कठिन रहा। एक बात यह भी हुई कि सदियों तक इन सूत्रों की अपूर्ण और मनमानी व्याख्याओं ने हमें इनके गहरे ज्ञान और अर्थ से दूर रखा। ज्ञान अगर तार्किक न हो तो उसका मिट जाना निश्चित समझना चाहिए। इन स्थितियों के चलते आधुनिक पश्चिमी चिंतकों की तर्क की कलाबाज़ी हमें सही लगने लगी और हमारे ज्ञान सूत्रों की आभा अपनी ही नासमझी से हमने धुँधली कर दी। ये सूत्र हमारे लिए तोता रटन्त की तरह हो गये जिन्हें आरती में हमने गाया पर समझा नहीं, भारतीयता की बात करते हुए हमने उसका नारे की तरह उपयोग किया पर इनकी गहराई को समझने की चेष्टा तब भी नहीं की। 

अगर सत और असत की अवधारणा ही स्पष्ट नहीं तब ‘असतो मा सदगमय’ कहने का अर्थ ही क्या? इस सूत्र के अर्थ को समझने के लिए मैंने श्रीमदभगवत गीता को आधार बनाया है।

श्रीमद्भगवतगीता में पहली बार असत शब्द अध्याय २ के १६वें श्लोक में आता है:

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः/ उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः”

अर्थात्‌ असत वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है, (इस प्रकार) इन दोनों का ही तत्त्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है। इसके बाद १७वें अध्याय के २२वें श्लोक में असत्कृतमवज्ञातं असत्कर्म की व्याख्या में आचरण का संदर्भ लिया है कि दान भी अगर कुपात्र को दे दिया और उसने आपके दान से अपने या अन्य के पतन का कोई कर्म किया तो आप भी असत्कर्म करने वाले माने जायेंगे। यानी असत शब्द को कर्म से जोड़ा गया है। 

११वें अध्याय के ३७वें श्लोक त्वमक्षरं सदसतत्परं यत् अध्याय में श्रीकृष्ण को को सद या सत कहा गया है जो ब्रह्म से भी ऊपर हैं अतः सभी को उन्हें नमस्कार कहना चाहिए। यानी ’सत’ ईश्वर को कहा गया है। 

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्। 
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य ना इह॥
(अध्याय १२वें, २८वें श्लोक) 

अश्रद्धा से दिये गए दान, तप, होम, कर्म को असत यानी अलाभकारी या व्यर्थ कहा गया है। यहाँ श्रद्धा सत है और अश्रद्धा असत यानी असत और सत को भाव के संदर्भ में लिया गया है। 

यानी असत का अर्थ केवल माया नहीं है अपितु कोई भी अश्रद्धा से किया गया कर्म या आचरण असत कहलाता है। असत की सत्ता को हमारे यहाँ नकारा नहीं गया। असत है तो सत भी है। तमस है तो ज्योति भी है और मृत्यु है तो अमरता भी है। 

असत से सत की ओर जाने में, सत और असत की दोनों की सत्ता को मानना होगा। मुंडकोपनिषद में ‘विद्या के दो रूप-परा और अपरा विद्या में, परा अगर ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान है तो अपरा धर्म, अधर्म के साधन और उनके फल से सम्बन्ध रखने वाली विद्या’ (मुंडकोपनिषद, शंकरभाष्य सहित, पृष्ठ २०) कही गई है। 

इससे स्पष्ट होता है कि असत को नकारने की बात भारतीय ज्ञान-दर्शन नहीं करता, भक्त उसे क्षणभंगुर माया के रूप में अवश्य देखते हैं और उपदेश देते हैं कि जो शाश्वत नहीं, उसमें लिप्त मत हो। वे नश्वर की जगह अनश्वर ईश्वर की आराधना की प्रेरणा देते हैं। भौतिकता में लिपटा मनुष्य माया के पीछे कितना भी भाग ले, तृप्ति नहीं, अतः सुमिरन कर रे मेरे मना . . . कह कर वे शाश्वत, अनादि, अनंत और सनातन पर ध्यान केंद्रित करने को कहते हैं। भारतीय ज्ञानप्रणाली हमें यही सिखाती है कि दुनिया के व्यवहार में सत कार्य का अर्थ है, धर्मानुसार कार्य करना और सत भाव से किये गए कर्म और उनके परिणाम ईश्वर को समर्पित करते हुए अपने लिए कुछ भी आशा न करना ही आध्यात्मिक स्तर पर मुक्ति का मूल मंत्र है। 

जीवन को महत्त्व देने वाला, कर्म और कर्मानुसार पुनर्जन्म को मानने वाले भारतीय ज्ञान ने व्यक्ति के धर्म, समाज और सामाजिक कर्त्तव्यों को कभी कम नहीं समझा। इन धर्मानुसार किए गए कर्मों से ही आध्यात्मिक साधना रत ऋषि-साधु, गुरुकुल, मठ,  शेष समाज और राज्य का काम चलता है। भोजन के लिए खेती करने वाला किसान, धर्मानुसार गृहस्थी चलाने वाला व्यक्ति या देश की सेवा करने वाला जवान भी उतना ही साधु माना गया है जितना गुफा में बैठ कर साधना करने वाला साधक! इन गृहस्थों के बिना समाज नहीं चल सकता, अतः सामाजिक कार्य करना भी धर्म निर्वाह करना है। इसी धर्म को आधार बना कर हमारे यहाँ सामाजिक नियम और व्यवस्थायें बनी थीं, जिन्हें बाद में हमने ही ग़लत व्याख्याओं में रूढ़ करके, समाज को श्रेणियों में बाँट दिया। भारतीय ऋषियों ने धर्मानुसार कार्यों के त्याग की बात नहीं की है, वे कर्म करते हुए भी इस संसार के मोहपाश से बच कर इसको बनाने वाले से जुड़ने के लिए कह रहे थे ताकि माया की दुनिया के पीछे भागता अतृप्त मन, असफलता की ठोकरों से चोट खाकर दुखी न हो। असत का आकर्षण ठोस है, वह भी उतना ही सत्य है जितना सत। उसकी प्राप्ति से तृप्ति असंभव है क्योंकि वह नित नये रूप बदल कर आकर्षित करता है, ललचाता है। इसके नए-नए रूपों को प्राप्त करने के लिए मनुष्य इसके पीछे भागता है। इस भागने में अतृप्ति और असफलता मिलना भी अवश्यंभावी है क्योंकि यह नित्य नहीं, स्थिर नहीं, सनातन नहीं, स्थायी नहीं पर फिर भी है, इसलिए इसके प्रति सावधान रहने को कहा गया क्योंकि इसका होना असत नहीं पर इसमें बँधना असत है। 

ईश्वर की मृत्यु की घोषणा भी हमारी ज्ञानप्रणाली में कहीं फ़िट नहीं बैठती। हमारे यहाँ ईश्वर अजन्मा है, उसका आकार-प्रकार ही नहीं तो मरेगा कौन? ईश्वर हमारे यहाँ उतना ही सत्य है जितना यह संसार और क्योंकि इस संसार के प्रत्येक कण में उसका वास है तो यह संसार झूठा कैसे हो सकता है? झूठा और असत हमारा स्वार्थ भाव है जिसे हम अपना लक्ष्य बनाए बैठे हैं और इसी अज्ञानता का पर्दा हटा कर हमें स्पष्ट और सहज शब्द में बताया गया- ’असतो मा सदगमय’ इस तरह ’असत’ का अर्थ दृश्य जगत और इसके कार्य कलाप हैं और ’सत’ का अर्थ इस जगत के पीछे के नियंत्रक यानी ईश्वर की विराटता हैं। असत से सत की ओर जाना, अर्थात्‌ दृश्य से अदृश्य, स्थूल से सूक्ष्म, शरीर से आत्मा की यात्रा है। इस यात्रा की ओर मनुष्य को प्रेरित करता है भारतीय ज्ञानमार्ग। यह यात्रा हर काल, हर स्थान और हर जन्म में मनुष्य को करनी ही पड़ती है, इसके बिना न तो खोज से मुक्ति है और न ही दृश्य जगत के प्रलोभनों से तृप्ति। 

तमस का अर्थ है अंधकार और ज्योति अर्थात्‌ प्रकाश। अंधकार माया निर्मित अज्ञान है और ज्योति ईश्वर स्वरूप का सत्य, यह माना गया है। मुझे लगता है कि अंधकार का अर्थ, मनुष्य का स्थूल पर रह जाना ही है। दृश्य जगत और उसके कार्यकलाप को ही अंतिम सत्य मान कर उसको ही परम उपलब्धि, उसे ही सफलता मानना अंधकार है और इसके पीछे जाना ही ज्योति। अंधकार का अस्तित्व है, उसको नकारा नहीं जा सकता पर वह सत नहीं। असत जिन रूपों में भासता है, वह ही अंधकार है। सत जिन रूपों में खींचता है, वह प्रकाश है। प्रकाश मार्ग है आनंद का, प्रकाश आनंद प्रदाता है। विज्ञान की दृष्टि से भी देखें तो सूर्य का प्रकाश जीवन दाता होता है, उसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे हृष्ट-पुष्ट रहने का रहस्य यह सूर्य प्रकाश ही है और हमारे मन के हृष्ट-पुष्ट रहने का रहस्य ज्ञान का प्रकाश है। इस प्रकाश में खोज के अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने का रास्ता मिलता है। 

श्रीमदभगवतगीता के अध्याय १३ के १८ वें श्लोक में ज्योति का अर्थ बताया गया है:

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते। 
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्व विष्ठितम्॥

इस श्लोक की व्याख्या आदि शंकराचार्य जी, अभिनवगुप्त और अनेक दार्शनिकों ने की है। इसमें ज्योतियों से भी परे की ज्योति अर्थात्‌ ईश्वर के ज्ञानगम्य होने की बात को स्वामी रामसुख दास जी ने बहुत सरल बना कर बताया है:

“ज्योति नाम प्रकाश (ज्ञान) का है अर्थात्‌ जिनसे प्रकाश मिलता है, ज्ञान होता है, वे सभी ज्योति हैं। भौतिक पदार्थ सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारा, अग्नि, विद्युत् आदि के प्रकाश में दीखते हैं अतः भौतिक पदार्थों की ज्योति (प्रकाशक) सूर्य, चन्द्र आदि हैं। वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक शब्दों का ज्ञान कान से होता है अतः शब्द की ज्योति (प्रकाशक) कान है। शीत, उष्ण, कोमल कठोर आदि के स्पर्श का ज्ञान त्वचा से होता है अतः स्पर्श की ज्योति (प्रकाशक) त्वचा है। श्वेत, नील, पीत आदि रूपों का ज्ञान नेत्र से होता है अतः रूप की ज्योति (प्रकाशक) नेत्र है। खट्टा, मीठा, नमकीन आदि रसों का ज्ञान जिह्वा से होता है अतः रस की ज्योति (प्रकाशक) जिह्वा है। सुगन्ध, दुर्गन्ध का ज्ञान नाक से होता है अतः गन्ध की ज्योति (प्रकाशक) नाक है। इन पाँचों इन्द्रियों से शब्दादि पाँचों विषयों का ज्ञान तभी होता है, जब उन इन्द्रियोंके साथ मन रहता है। अगर उनके साथ मन न रहे तो किसी भी विषय का ज्ञान नहीं होता। अतः इन्द्रियों की ज्योति (प्रकाशक) मन है। मन से विषयों का ज्ञान होने पर भी जब तक बुद्धि उसमें नहीं लगती, बुद्धि मन के साथ नहीं रहती, तब तक उस विषय का स्पष्ट और स्थायी ज्ञान नहीं होता। बुद्धि के साथ रहने से ही उस विषय का स्पष्ट और स्थायी ज्ञान होता है। अतः मन की ज्योति (प्रकाशक) बुद्धि है। . . . परमात्माका प्रकाश (ज्ञान) स्वयं में आता है। स्वयं का प्रकाश बुद्धि में, बुद्धि का प्रकाश मन में, मन का प्रकाश इन्द्रियों में और इन्द्रियों का प्रकाश विषयों में आता है। मूल में इन सबमें प्रकाश परमात्मा से ही आता है। अतः इन सब ज्योतियों का ज्योति, प्रकाशकों का प्रकाशक परमात्मा ही है।” 

इस ज्योति का अभाव ही तमस है। अंधकार और ज्योति का यह खेल मन के स्तर पर है। इसीलिए मन के अंधकार से, ज्योति प्रकाशक ईश्वर की ओर जाना ही जीव और जीवन की यात्रा का दूसरा चरण है। यही वांछनीय, करणीय और वंदनीय है। इसीलिए प्रार्थना की गई है: तमसो मा ज्योतिर्गमय

आत्मा के स्तर पर मृत्योर्मा अमृतं गमय कहा गया है। ‘मत्यु देह की होती है, आत्मा की नहीं’, भारतीय ज्ञान ग्रंथ यही बताते हैं। मृत्यु यात्रा की समाप्ति नहीं है, भौतिक जगत में मरने वाला जब तक अमृत, यानी जो कभी मरता नहीं, उस तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसकी यात्रा चलती रहती है। यही ’पुनरपि मरणं, पुनरपि जन्मं॥’ है।  इसलिए मरण और जन्म के चक्र से मुक्ति ही अंतिम पड़ाव यानी अमृत पर ही मिलती है। 
पर यह अमृत क्या है और मृत कौन है? अमृत है ’आत्मा’ और ’मृत’ है शरीर। जब सिद्ध पुरुष ’अहं ब्रह्मास्मि’ कह रहे थे, उनका अर्थ था, मैं, आत्मा हूँ यानी परमात्मा ही हूँ। यहाँ आत्मा परमात्मा का अंश होने के कारण परमात्म रूप ही है। उसमें प्रकृति के तीनों गुण, (सत, रज, तम) नहीं हैं या वह उनमें बँधता नहीं, वह उनसे ऊपर है। वासनाओं, इच्छाओं और अहम से ग्रस्त होकर काम करने वाला, असत यानी दृश्य जगत में ही तमस में सुख ढूँढ़ने वाला मृत, जीवात्मा है। जीव ही इस जगत को सुख मान कर इसमें लिप्त है अतः उसकी यह भावना ही चेतना की प्रगति को मृत कर देती है पर इनसे निकल कर स्वयं को परमात्मा का अंश अनुभव करने वाला आत्मा ही ’अमृत’ है। श्रीमद भगवतगीता में श्री कृष्ण कहते हैं:

“अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। 
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।”
(अध्याय २, श्लोक १७)

अर्थात्‌, जो पूरे शरीर में व्याप्त है, उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अनश्वर आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है। वह अनश्वर ही अमृत है। 

और यह अमृत कैसा है, 

“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:। 
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:
॥२, २३॥”

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता। 

यानी जिसे एंद्रिक या दृश्य जगत की कोई वस्तु नष्ट नहीं कर सकती, वही आत्मा है, यही आत्मा अमृत है, अमरणीय है पर इसे अमर होने की योग्यता तब मिलती है जब मृत से अमृत की यात्रा की जाती है। जीवात्मा से आत्मा बना जाता है। इस यात्रा में संस्कारों, स्थितियों, संबंधों और समस्त इंद्रियजन्य सुखों को त्याग कर आत्मस्वरूप के पड़ाव पर पहुँचा जाता है। इस आत्मस्वरूप के पड़ाव पर बाह्यजगत के असत और तमस मृत हो जाते हैं और आतंरिक सत के प्रकाश में आत्मा जगमगा जाती है, मनुष्य की खोज पूरी हो जाती है। कह सकते हैं कि इच्छाओं और अहम की मृत होने के बाद ही विश्वात्मा के साथ एक होकर अमर या ‘अमृत’ हुआ जा सकता है। 

इस ज्ञान सूत्र में मनुष्य की अनंत यात्रा के समापन और जीवात्मा के आत्मा बन कर विश्राम पाने का रहस्य छिपा हुआ है। यह सूत्र सर्वकालीन और सार्वभौमिक होने के कारण सनातन सत्य है। इसमें न सत के किसी स्वरूप को व्याख्यायित किया है और न ही ज्योति के किसी स्वरूप को बताने की चेष्टा की गई है, अमृत हो जाने की कोई क्रियाजन्य प्रक्रिया भी नहीं बताई गई है। यह क्रिया, प्रक्रिया और प्रतिक्रिया से ऊपर का, अनुभूति की यात्रा का सूक्त है इसलिए यह हर काल के, हर स्थान के मनुष्य मात्र के लिए है। यह उसकी चिरंतन बेचैनी को, उसकी चिरंतन खोज को एक स्वरूप देता है, दिशा देता है, लक्ष्य बताता है। 

यह सूत्र आज के समय और आने वाले समय में अतृप्तिजन्य मानसिक रोगों के निदान का रास्ता है। हमारे युग की बहुत बड़ी समस्या का यह समाधान है। यह सूत्र दृश्य और अदृश्य जगत दोनों को आमने-सामने लाकर खड़ा कर देता है, उनके गुण-दोष के आईने में झाँकता है, मन के तामसिक कोनों में झाँकता हुआ ज्योति को पुकारता है और मृत्यु से डरने वाले मनुष्य को अमृत होने की गहराई तक ले जाता है। यह जीव और जीवन की यात्रा के तीन स्तर बताता है और इन तीनों स्तरों पर मनुष्य की सफलता की कामना करता है।

जो इस सूत्र को समझ कर इस यात्रा पर निकल सकेगा, वह भारतीय ज्ञान परंपरा की सूक्ष्मदर्शिता, सटीकता और उसकी संपूर्णता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस परंपरा की सर्वकालीनता और सार्वभौमिकता, हर युग और स्थान के मनुष्य मात्र की बेचैनी को संबोधित करती है। हमारे आज के युग में, जब जीवन के केंद्र में धन अपना वर्चस्व बना कर बैठ गया है और मनुष्य अधिक और अधिक प्राप्त करके भी शांत नहीं है तब भारतीय ज्ञान परंपरा के इस सूत्र को समझने की आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है। 
 

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