रुटीनाय नम:
डॉ. शैलजा सक्सेनासुबह होते ही दिन भर का रुटीन शुरू। इसमें चाय बनाने और पीने से लेकर अख़बार पढ़ने और पढ़ी हुई ख़बरों पर प्रतिक्रिया देने का काम रोज़ का है। पुलिस के कामों पर टीका-टिप्पणी से लेकर सरकार के हज़ारों कामों पर उपदेश देकर उन्हें सुधारने की सलाह देने वाले शायद करोड़ों लोग होंगे पर सरकार है कि सुनती ही नहीं। लोगों को लगता है कि सरकार भी पत्नी या पति जैसे ’एक कान से सुना, दूसरे से निकाला’ करती है। श्रीमान ’क’ ने भी सरकार, पुलिस, सड़कों, यातायात, नियम-कानून सब पर रुटीनी तौर से एक नकारात्मक लेक्चर पेलते हुए अपनी चाय समाप्त की और अपनी ज्ञान-गंगा “मैं बता रहा हूँ कि जब तक ये ऐसा……नहीं करेंगे……” बहाते हुए सरकार के अज्ञान को अपने ज्ञान का आधार दिया और अपने गंगा-स्नान यानी स्नानघर को जाते हुए, अधीनस्थ पत्नी से रुटीनी तौर पर गीज़र खोलने की सूचना प्राप्त की। “क्या पता कब कौन क्या भूल जाए, पूछना ज़रूरी है” का भाव उनके मुखमंडल पर खॆल रहा था। यह भी अच्छी बात है कि मालिक लोग ’करना’ शायद ही कभी याद रखें पर ’पूछना’ कभी भूलते नहीं। दुनिया इन्हीं नियमों के तहत अब तक इतने सही प्रकार से चल रही है, कम से कम श्रीमान ’क’ जैसे हज़ारों लोगों को उनकी पत्नी जैसे लाखों लोगों पर शासन करते हुए यह भान रहता है।
कुछ न कुछ पूछते रहना भी एक रुटीन है– जैसे पिता का जवान बेटे से पूछना, “कहाँ जा रहे हो?” और बेटे का सच को छुपाते और झूठ से बचने की कोशिश करते हुए, सरकारी क्लर्क की या युधिष्ठिर की तरह अर्ध सत्य बोलना, “दोस्त से मिलने, किताब लेनी है”। ऐसे अर्ध सत्य एक रुटीन की तरह अनजाने ही दिन भर हमारे होंठों से फिसलते रहते हैं और पूछने वाला इस तथ्य को जानते हुए भी पूरा सत्य जानना नहीं चाहता क्योंकि पूछना मात्र एक रुटीन है। श्रीमान ’क’ को स्वयं प्रश्न पूछना अच्छा लगता है पर पत्नी के रुटीनी प्रश्नों पर रुटीनी तौर से उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं। शाम को घर घुसते ही एक रुटीन प्रश्न कानों के स्प्रिंग दरवाज़ों से टकराता है, स्प्रिंग इसलिए कि वे दरवाज़े न बंद रहते हैं और न खुले, बल्कि श्रीमान ’क’ की इच्छा के रिमोट से खुलते और बंद होते हैं। जिन बातों को श्रीमान ’क’ सुनना चाहते हैं वे ’खट’ से दरवाज़ा खोल कर अंदर आ जाती हैं और शेष कई बार गुहार लगाने पर भी बाहर ही रह जाती हैं। पत्नी का यह प्रश्न, “आ गए?” ऐसा व्यर्थ प्रश्न है कि श्रीमान ’क’ के इच्छा रिमोट की अनसुनी कर के भी हर दिन भीतर चला आता है और प्रत्युत्तर में उनके होंठों से एक रुटीनी फूत्कार सी निकलती है, “नहीं, मेरा भूत आया है..मैं कहाँ आया अभी!” और फिर पत्नी की कुछ खिसियाई और कुछ कुढ़ी सी हँसी भी रुटीन का हिस्सा है। कई बार तो यह लगता है कि अगर यह सब नहीं होगा तो शाम अधूरी और उनका प्रेम अनकहा रह जाएगा। फिर वही चाय, फिर वही सोफ़े पर टीवी के आगे पसर कर रिमोट ढूँढ़ते हुए बच्चों को चार बातें सुनाना, पत्नी का बच्चों की पढ़ाई पर श्रीमान ’क का ध्यान न होने से ताने देना…खाना खाते हुए श्रीमती ’क’ की मोहल्ले की ख़बरों का रेडियो चालू होना, ताने, कुढ़ना, कोसना, सब रुटीन है।
देखा जाए तो सूरज, चाँद भी इसी रुटीन के हिसाब से निकलते और ढलते हैं तो आदमी की क्या बिसात! मनुष्य की आत्मा भी तो एक रुटीन के अंतर्गत एक शरीर धारण कर के पैदा होती है और रुटीन निबाहती हुई ज़िंदगी जी कर या काट कर रुटीन के तहत ही परलोक सिधारती है। हम भी हर दिन वही सब कहते, करते, सुनते, खीजते, चिढ़ते, लड़ते, पूछते, बहसते, अलसाते, सरसाते, शर्माते, खिसियाते और गरियाते चले जा रहे हैं, बीच-बीच में रुटीनी तौर पर ही नएपन की तलाश में कुछ देर भटक कर वापस गुरुत्वाकर्षण के रुटीन से खींच लिए जाते हैं। अब ऐसे में प्रश्न यही उठता है कि जब पता है कि सब कुछ उसी तरह चलना है तब नयापन तलाशने निकलते ही क्यों हैं तो वह भी एक रुटीन की तरह ’मिड लाइफ़ क्राइसिस’ के जैसे होता है। कुछ देर को चित्त इलहाम की अवस्था में आकर अनुभव करता है कि वह रुटीन के कोल्हू में बैल सा जुता है तो जोश में आकर, सुनी-सुनाई स्वतंत्रता के स्वप्न को आँखों पर पट्टी की तरह बाँध कर वह इस रुटीन से बाहर निकलने की कोशिश करता है। यह कोशिश दार्शनिक धक्कों से ज़ोर पकड़ती है और मनुष्य कुछ समय हाथ-पाँव मारता है, इस धकापेल में एक अच्छी बात यह होती है कि आँख से स्वप्न की पट्टी उतर जाती है और मनुष्य तीव्र गति से यह आत्म-साक्षात्कार करता है कि ’दुनिया एक रुटीन-जाल है जिस से छूट पाना बड़े-बड़ों के बस की बात नहीं। नारद जैसे महाज्ञानी भी शादी करने जैसी रुटीन इच्छाओं के आधीन आ गए थे तो श्रीमान ’क’ जैसे बाक़ी सब की क्या बिसात!’ यह आत्म-साक्षात्कार होते ही मनुष्य “रूटीनाय: नम:” कहता हुआ यथावत पंचविकारों का आनंद लेता हुआ ’सुबह होती है, शाम होती है। उम्र यूँ ही तमाम होती है’ करने लगता है।
सरकारी बाबू ऐसे परम ज्ञान को जल्दी ही प्राप्त कर लेते हैं। श्रीमान ’क’ ने भी यह बात अपनी सरकारी मेज़ पर पसरी, बिन बुलाए मेहमान सी फ़ाइलों को देख कर बहुत बार कही है पर सब उनकी तरह समझदार तो हैं नहीं कि यह समझॆं कि हर काम की एक प्रक्रिया है। उस प्रक्रिया में आलस आने से लेकर आलस झाड़ने तक के पड़ाव हैं और इन पड़ावों पर नए बने हाई-वे की तरह “टोल” दे कर गाड़ी आगे बढ़ानी होती है। श्रीमान ’क’ सारी प्रक्रियाओं को घर और बाहर पूरी तरह निबाहते हैं। वे उच्च अवस्था प्राप्त मनुष्य हैं, रुटीन के सत्य, सौन्दर्य और अमरत्व को मान कर भरपूर जीवन जीते हैं। सुबह उठने से लेकर रात तक प्रेम, घृणा, जलन, ईर्ष्या, आदि के रुटीनी चक्रों से आनंद पूर्वक गुज़रते हैं। वे कबीर जैसे ‘दुखिया दास’ नहीं, इसी से उनके परम ज्ञान ने उन्हें और उनके जैसे परम रुटीन प्राप्त लोगों को हमेशा सुख से रखा है।
1 टिप्पणियाँ
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आपने रूटीन को लेकर अच्छा व्यंग्य लिखा है। जीवन के साथ मरण भी रूटीन बन गया है।करोना की महामारी में अब सोशल मीडिया पर श्रद्धान्जलि के रेडिमेड इमेज बनाएं गए है।आपकी व्यंग्य रचना ने चेहरे पर मुस्कान आयी। लिखते रहिए।
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