प्रवासी साहित्य का मूल कथ्य परदेश में स्वदेश के मूल्य, संस्कृति, अनुभूतियों को अक्षुण्ण रखने वाले भारतीयों की मानसिक छटपटाहट है। प्रवासी साहित्य प्रवासी भारतीयों के द्वन्द्व को हिंदी पाठकों के सामने पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत कर रहा है। भूमंडलीकृत समाज में प्रवासी साहित्य भारतेतर हिंदी साहित्य की एक नयी पहचान तथा एक नया साहित्यिक विमर्श बन कर उभर रहा है। हिंदी पाठकों के मन में भी प्रवासी सहित्य अनेक प्रश्न उत्पन्न कर रहा है कि प्रवासी देशों में भारतीयों का जीवन कैसा होगा, परदेश में स्वदेश की कोई सत्ता या अनुभूति नहीं तथा उस देश का परिवेश, जीवन प्रणाली, संघर्ष सभी उसके जीवन को किस हद तक प्रभावित करते हैं?
साहित्य बुनियादी तौर पर देश और काल से जुड़े मनुष्य को पहचानने और परिभाषित करने की रचनात्मक प्रक्रिया है। मनुष्य को किसी भी तरह निरपेक्ष सन्दर्भ में नहीं पहचाना जा सकता। मनुष्य की पहचान का अर्थ उसके व्यक्तिगत और सामाजिक संदर्भों की पहचान है। व्यक्ति की व्यक्तिगत सत्ता पर ही नहीं बल्कि उसकी सामाजिक व्याप्ति पर भी स्त्री के प्रति उसके आपसी संबंधों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। स्त्री और पुरुष व्यक्तित्व के दो पूरक घटक हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का आस्वादन इन दोनों के आपसी संबंधों पर आधारित है।
सामाजिक जीवन चूँकि निरंतर विकासशील है इसलिए मानवीय संबंधों और उसकी अभिव्यक्ति प्रणाली में भी अंतर आना सहज है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से जब हम आधुनिक युग की शुरुआत मानते हैं, तो उसका एक निश्चित अर्थ है- अंग्रेज़ एक नई और लगभग अजनबी सभ्यता और संस्कार के साथ हिंदुस्तान आये थे, यह स्वाभाविक है कि उनके द्वारा हिंदुस्तान को जो नई आकृति देने की कोशिश की गई उससे एक तरह का तनाव ही उत्पन्न हुआ।
इसी तरह जब भारतीयों ने प्रवास शुरू किया तो उन्हें बिलकुल भिन्न सभ्यता और संस्कृति का सामना करना पड़ा। पुराने डायस्पोरा में जहाँ वे बहुसंख्या में थे, वे अपने मूल्यों व संस्कृति को बचा पाए। उन्होंने अगली पीढ़ी को भी अपने संस्कार प्रदान किए। वहीं नए डायस्पोरा में ये मुश्किल रहा। वहाँ भारतीयों की संख्या नगण्य थी। उन्हें विदेश में बसने के लिए स्वयं दूसरे देश के संस्कारों में ढलना पड़ा। किन्तु अपने पुराने मूल्यों व रुढ़ियों को वे एकदम त्याग नहीं पाए। ये दो संस्कृतियों व मूल्यों के बीच संक्रमण काल रहा है। इसका असर भारतीयों के रिश्तों पर भी पड़ा। स्त्री पुरुष जो एक परिवार की नींव होते हैं उनके जुड़ने की परिस्थितियों, तरीक़ों, कारणों सब में परिवर्तन आ गया। प्रेम संबंध, वैवाहिक रिश्ते और इन रिश्तों को निभाने की कोशिशों और वज़हों में बदलाव हुए। सामंती संस्कार वाले भारतीय परिवार न तो पूरी तरह परम्परावादी रह पाए न ही पूरी तरह आधुनिक।
प्रवासी साहित्य के हिंदी कहानीकारों में तेजेंद्र शर्मा एक सुपरिचित नाम है। उनकी कहानियाँ विदेशों में बसे भारतीयों के उस परिवेश में ढलने के संघर्ष और देश तथा परिवार की यादों के साथ जीने की कशमकश से जुड़ी हैं। अर्थ आधारित जीवन में रिश्तों का खोखलापन, इंसानी सोच पर हावी बाज़ारवाद सब को वे बेहतरीन रचनात्मक ढंग से कहानियों में उकेरते हैं। उनके कहानी संग्रह- काला सागर(1990), ढिबरी टाइट(1994), देह की कीमत(1999), ये क्या हो गया!(2003), बेघर आँखें(2007) हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने कविताओं की भी रचना की है। साहित्य क्षेत्र में उन्हें अनेक पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हैं। विदेशी परिवेश में भारतीय जीवन मूल्यों के साथ जीवन जीना चुनौतीपूर्ण कार्य है। उनकी कहानियों में बयाँ दर्द पाठक में पात्र के प्रति सहानुभूति पैदा कर देता है। समस्याओं से जूझते पात्रों की मानसिक स्थिति को वे बेहद सटीक ढंग से अपनी कहानियों में व्यक्त करते हैं।
विदेश में रहने और हवाई जहाज़ की नौकरी करने से उन्हें नित नए हालातों और चरित्रों को देखने समझने का मौक़ा मिला। अपने संवेदनशील व्यक्तित्व से उन्होंने सामान्य से अलग घटनाओं को रेखांकित किया और अपनी प्रिय विधा कहानी में बयाँ किया। उनकी कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों को बेहद बारीक़ी से प्रस्तुत किया गया है। इन संबंधों पर आर्थिक और सामाजिक हालात किस तरह हावी हो जाते हैं। कभी स्त्री पुरुष संबंधों पर कोई कुंठा हावी हो जाती है और साथ होते हुए भी रिश्ता ख़त्म हो जाता है, कभी सिर्फ़ यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए संबंध बनते हैं। इसका चित्रण उन्होंने काफ़ी कलात्मक ढंग से अपनी कहानियों में किया है।
कहानीकार तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में भारतीय और पाश्चात्य दोनों प्रकार की संस्कृति का परिचय मिलता है। इनकी कहानियाँ किसी सीमित दायरे में क़ैद नहीं करतीं बल्कि एक नयेपन के साथ जीवन के सौंदर्य को दर्शाती हैं। इनकी कहानियों का शिल्प अनूठा व बेजोड़ है जो एक विशिष्ट कलात्मकता लिए हुए होती है। उनकी कहानियों के कथानक व पात्र हमें आस-पास दिख जाते हैं पर जिस संवेदनात्मक तरीके से वे उसे गढ़ते हैं, वह अद्भुत है। उनका स्वयं कहानियों के विषय में कहना है कि “कहानी के लिए विचार ज़रूरी हैं, विचारधारा नहीं। यदि विचार हैं तो उसमें कल्पनाशक्ति और अपनी योग्यता के बल पर उसे कहानी में ढाला जा सकता है”।1
तेजेंद्र शर्मा की ‘हाथ से फिसलती ज़मीन’ कहानी एक निम्न जाति के भारतीय लड़के नरेन के विदेश में बसने, यूरोपियन लड़की से शादी करने और फिर उसके साथ घर बसने की तथा उसके बाद वर्णभेद के कारण उसके जीवन में आये बदलावों, मोड़ों को बताती कहानी है। वह कैसे विदेश में सब कुछ से भरपूर हो कर पैसा, घर, पत्नी, बच्चे, नाती, पोते के बीच रह कर भी अकेला है। नरेन का भारत में जीवन प्रतिभा के बावजूद जाति दंश के कारण प्रभावित रहा। उसके प्रेम प्रसंग में भी उसकी जाति आड़े आती है। वह भारत छोड़ लंदन जा बसता है। रेलवे में नौकरी करते हुए उसकी जैकी से उसकी मुलाक़ात होती है और पहली मुलाक़ात में प्यार हो जाता है। बच्चे होने के बाद जैकी बच्चों में मसरूफ़ हो जाती है और नरेन से उसकी दूरियाँ बढ़ जाती हैं। जैकी बच्चों में भारतीयता नहीं आने देती। नरेन घर में एक ‘साइड पर्सन’ बन कर रह जाता है। एक यांत्रिकता से घर चलता है, नरेन कमाता है, जैकी घर परिवार सँभालती है। दोनों एक दूसरे की भूमिकाओं में कोई हस्तक्षेप नहीं करते। नरेन को उसके भारत के घर-परिवार की याद सताती है किन्तु वह वापस जा नहीं पाता। विदेश में परिवार में भारतीय और विदेशी संस्कृति के बीच वर्चस्व का द्वन्द्व यहाँ केंद्रीय समस्या है।
स्त्री पुरुष संबंधों के परिप्रेक्ष्य में बात की जाये तो जैकी अच्छी क्वीन अंग्रेज़ी बोलने वाले भारतीय लड़के नरेन, जो रेलवे में नौकरी करता है पर साहित्य की अच्छी समझ रखता है, से प्रभावित होती है। उसे नरेन की चमड़ी का रंग तब बहुत भाता है। वह उसी से शादी भी करती है। पर बच्चे होने के बाद बच्चों के लालन पालन की और घर चलाने की बाग़डोर अपने पास रखती है। नरेन को अपनी पत्नी से कोई तकलीफ़ नहीं होती पर जब उसे लगता है कि जैकी अपने देश, परिवेश और सम्बन्धियों से बच्चों को जोड़ रही है तो स्वाभाविक रूप से एक पिता होने के नाते उसका भी मन करता है कि वह अपने बच्चों को भारतीय भाषा सिखाये, वहाँ की संस्कृति, सभ्यता से परिचित करवाए परन्तु जैकी ऐसा नहीं होने देती। वह एक बार ज़िद करके परिवार सहित भारत जाने का इरादा करता है पर क़िस्मत साथ नहीं देती। बच्चों के बड़े होते-होते पति-पत्नी के बीच आत्मीयता का रिश्ता समाप्त होने लगता है। जैकी नरेन के पैसों से घर तो चलाती है पर उसे परिवार का मुखिया नहीं मानती। वह ख़ुद अपने बच्चों की शादी करती है और नरेन को मेहमान की तरह बुलाया जाता है। नरेन के आत्मसम्मान को चोट तो लगती है पर उसकी हीन भावना उसे कुछ करने नहीं देती बल्कि उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। नरेन ने धीरे-धीरे परिवार से अलग दुनिया बसा ली। उसने हिंदी उपन्यास पढ़ने शुरू कर दिए, पुराने गाने सुनने लगा है और फ़ेसबुक पर ढेरों मित्र बना लिये हैं। जैकी अपने बचों के साथ घुल मिल कर रहती है। उसे नरेन के अलग हो जाने से फ़र्क नहीं पड़ा। यहाँ पति पत्नी का ऐसा रिश्ता हो गया है जो सम्बन्धों के नाम पर केवल औपचारिकता है। फिर भी उनमें आपस में वैमनस्य नहीं है। बस नरेन के दिमाग़ में एक सोच है कि नाती-पोतों से भरे घर में उसका परिवार कहाँ है? वह अकेलेपन का शिकार क्यों है? कहानी सम्वेदनात्मक स्तर पर प्रेम और अवसाद दोनों से भरी है। स्त्री पुरुष सम्बन्धों की विदेशी धरातल पर पड़ताल तेजेंद्र शर्मा ने इस कहानी में की है। प्रसिद्ध आलोचक शम्भू गुप्त के अनुसार “तेजेन्द्र अपनी कहानियों में प्रवासी-जीवन के अजनबीपन, असुरक्षा एवं असहायता-बोध इत्यादि की शिद्दत से व्याख्या करते हैं। अकेलापन प्रवासी-जीवन का वह दंश है, जिसे उसे राज़ी न राज़ी झेलना ही है अकेलेपन और अजनबीपन से असुरक्षा एवं असहायता का बोध पैदा होता है कि विदेश में कोई अपना नहीं! कहीं-कहीं तो नागरिकता ग्रहण कर लेने के बाद भी प्रवासियों का दोयम दर्ज़ा बरक़रार रहता है”2
‘कोख का किराया’ तेजेंद्र शर्मा की एक अन्य संवेदनात्मक कहानी है जिसमें इंग्लैंड में पैदा हुई दो भारतीय लड़कियाँ जो दो अंग्रेज़ों से शादी करती हैं-संगीतकार जया मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी बीफी डेविड से तो मनप्रीत उर्फ़ मैनी रेलवे ड्राईवर गैरी से। दोनों अंग्रेज़ लड़के प्रचलित व्यभिचार से दूर रहने वाले अपनी पत्नियों को समर्पित हैं। सभी अच्छे मित्र हैं। गैरी की दो संतानें हैं जबकि डेविड की शादी के छःवर्ष बाद भी एक भी संतान नहीं है। जया माँ नहीं बन सकती। डेविड को बच्चा गोद लेना स्वीकार्य नहीं, उसे एंग्लो इन्डियन बेबी चाहिए। जया मैनी को सेरोगेसी के लिए राज़ी कर लेती है। गैरी मैनी को कई बार समझाता है कि इस निर्णय का उसके आने वाले जीवन पर, संबंधों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा पर वह नहीं मानती। और फिर वही होता है जिसकी दस्तक तो मैनी ने सुनी थी, पर तब उसे अनसुना कर दिया। बच्चा होने के बाद जया और डेविड उससे दूर हो जाते हैं। उसे बच्चे की शक्ल तक नहीं दिखाई जाती। गैरी मैनी की हरकतों और लापरवाही की वज़ह से बच्चों समेत घर छोड़ कर अन्य भारतीय लड़की नीना के पास चला जाता है। मैनी अकेली रह जाती है घर की चार दीवारी के साथ। जिस फंतासी की दुनिया में मैनी ने उड़ान भरी थी, वह उड़ान यथार्थ की भूमि पर आ कर ध्वस्त हो जाती है।
इस कहानी में स्त्री पुरुष संबंधों की पेचीदगी को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है। पहली चीज़ इग्लैंडवासी हो कर भी अपने परम्पराओं और सीमाओं के साथ दोनों पुरुष बँधे रहते हैं। जया भारतीय और अंग्रेज़ी सभ्यता के सामंजस्य के साथ जीती है। वहीं मनप्रीत भारतीय होकर बन्धनों, सामाजिक नियमों को मानती ही नहीं, ज़िम्मेदारियों से उसका कम वास्ता है पर उसने शादी के बाद कभी गैरी को धोखा नहीं दिया। दोनों में बेहद प्रेम है। मैनी डेविड के प्रति आकर्षित है। जया के सेरोगेसी के प्रस्ताव को वो बिना आगे –पीछे सोचे स्वीकार लेती है। कारण है- डेविड के साथ यौन सम्भोग करने की पुरानी इच्छा का पूरा होना। मैनी ख़ुशी में पागल है कि वह डेविड के बच्चे की माँ बनेगी जो महान फुटबॉल खिलाड़ी है। जिसकी मैनी सबसे बड़ी प्रशंसक है। उसका पैदा किया हुआ बच्चा जया-डेविड का वारिस बनेगा पर गैरी को मैनी का डेविड के बच्चे की माँ बनना नहीं भाता। उसे लगता है कि उसकी पत्नी अपने साथ ग़लत कर रही है। वह उस प्यार से समझाता है। मैनी नहीं समझती। पर मैनी भी गैरी से प्यार करती है। सामान्य पत्नियों की तरह वह भी शेरिल और नीना के फ़ोन आने पर अपने पति पर शक करती है, उससे झगड़ती है। पर मैनी की उच्छृंखलता से नाराज़ गैरी उसे जवाब देता है- ‘क्या नहीं दिया तुम्हें? मेरे प्यार में मेरे समर्पण में क्या कमी रह गई थी मैनी? तुम्हारे और मेरे बीच कभी कोई दूसरी औरत आई थी मैनी? फिर यह बच्चा कैसे आ गया मैनी, क्यों आ गया? तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया मैनी? आग लगा दी है तुमने इस घर की खुशियों में!’3 मैनी के ग़लत फ़ैसले की वज़ह से गैरी और उसके बच्चों की दूरियाँ उससे बढ़ जाती हैं। वह सच्चाई से बाद में रूबरू होती है कि इस सरोगेसी का असली मतलब क्या है पर तब तक सब उसे दूर जा चुके होते हैं। तेजेंद्र शर्मा अपने नारी पात्रों की पूरी मानसिक स्थिति को बारीक़ी से कहानी में उकेरते हैं। धीरेन्द्र अस्थाना भी कहते हैं कि “पर काया प्रवेश में तेजेन्द्र को दक्षता हासिल है यानि स्त्रियों की यातना, दु:ख और हर्ष को तेजेन्द्र ने ठीक उसी तरह जिया है जैसे कोई स्त्री ही जी सकती है”।4
वहीं दूसरी ओर जया और डेविड पति पत्नी हैं। डेविड पुराने संस्कारों से बँधा है, जय के माँ बनने के सपने में वह पूरी तरह रुढ़िवादी है। वह बच्चा गोद नहीं लेना चाहता। सरोगेसी के लिए भी वह इंडियन कोख चाहता है। जया मैनी को सरोगेसी के लिए दोस्ती का वास्ता देकर राज़ी कर लेती है। झूठे वादे करती है पर बच्चा होने के बाद मुँह मोड़ लेती है। वह उसे यह बताती है कि उसका बच्चे या उन दोनों से कोई लेना देना नहीं है। उसे कोख का किराया दिया जा चुका है। कुछ क्षणों के यौन सुख की लालसा मैनी के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी बन जाती है। वह अकेली रह जाती है। यह रिश्तों में आई संवेदनहीनता चरम रूप में दिखाई देती है। सेक्स तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों का प्रस्थान-बिन्दु और गन्तव्य दोनों ही है। इस क्रम में सबसे उल्लेखनीय तथ्य यही है कि तेजेन्द्र स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के इस आधारभूत फलक को जीवन्तता और नवनवोन्मेष का केन्द्रीय कारक मानते हैं।5
‘ढिबरी टाइट’ संग्रह की कहानी ‘भँवर’ तेजेंद्र शर्मा की एक ज़बरदस्त कहानी है। बम्बई में स्मिता और भरत अपने दो बच्चों के साथ ख़ुशहाल ज़िंदगी जी रहे हैं। दोनों बचपन से एक दूसरे को जानते हैं और अब पति पत्नी हैं। बैंक अफ़सर की नौकरी छोड़ भरत एयरलाइन में परसर की नौकरी करने लगता है क्योंकि उसका सपना लन्दन-अमेरिका घूमना है। भरत की महिलाओं को प्रभावित करने की आदत को रमा जानती थी साथ में उसे ये भी पता था कि डरपोक क़िस्म का उसका पति घर तोड़ने की हिम्मत नहीं करेगा। दोनों को एक दूसरे से प्रगाढ़ प्रेम है और भरोसा है। भरत की मुलाक़ात रमा से होती है। रमा अपने पति इन्दर के साथ छह साल से लन्दन में रह रही है पर दोनों की कोई औलाद नहीं है। रमा और भरत एक दूसरे के प्रति आकर्षित हैं। रमा भरत के बच्चों और पत्नी को महँगे तोहफ़े देती है। स्मिता झिझकती है और भरत से कहती है कि ‘अगली बार जाओगे तो उनके लिए भी कुछ ले जाना ऐसे दूसरों का एहसान चढ़ता है’।6 रमा भरत से एक बच्चा चाहती है। भरत के दिमाग़ में उसकी पत्नी स्मिता ओर बच्चों की छवि घूमने लगती है, वह अपनी पत्नी से विश्वासघात कैसे करे।
कहानी स्त्री पुरुष संबंधों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखने को मजबूर करती है। लन्दन में लम्बे समय से रह रही रमा अपने पुराने भारतीय संस्कारों को नहीं त्याग पाती। उसे बच्चे के लिए पति की जगह परपुरुष से संबंध अपराधबोध से भर रहा है पर अपनी माँ बनने की इच्छा को पूरा करने का उसे ये ही एकमात्र रास्ता नज़र आता है। माँ बनने की लालसा यहाँ सब नैतिक मूल्यों से परे हट कर उससे ये करवाती है। साथ ही रमा का संवाद- ‘एक बात याद रखना भरत इसके बाद मुझे अपनी रखैल मत समझने लगना ना ही मुझे दोबारा होटल के कमरे में अकेले आने के लिए कहना। तुम चाहो तो भी इसे नहीं पाओगे। हमारे शरीर मिलेंगे तो केवल इसलिए कि मुझे तुम्हारा बच्चा चाहिए ...इसके बाद अपने संबंधों की प्रतिष्ठा बनाये रखना ...’।7 उसके चरित्र को और उभारता है। वह भरत को वासना से दूर रहने की चेतावनी भी दे देती है। भरत के लिए यहाँ एहसान का बदला एहसान से उतारने का प्रक्रम नज़र आता है। जब वह रमा के गर्भवती होने की सूचना पाता है तो उसे अपनी पत्नी से ये बात छिपाने में ग्लानि महसूस होती है। उसे आशंका होती है कि अगर रमा के बच्चे की आँखें भी उसके अपने बच्चों जैसी नीली हुई तो? उस दिन से ही वह सही-ग़लत के भँवर में फँसा हुआ है। यहाँ यांत्रिक रूप से एक-दूसरे के काम आने की स्थिति दिखाई गई है। प्रेम जैसी उद्दात्त भावना यहाँ नहीं है। किंतु इसे केवल यौनानंद का संबंध भी नहीं जा सकता। यह किस प्रकार का स्त्री पुरुष संबंध है? कहानी इस प्रश्न को पाठकों पर छोड़ देती है।
तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘अभिशप्त’ में रजनीकांत विदेश जाकर बसता तो है पर वहाँ की संस्कृति और सभ्यता में ढल नहीं पाता। वह अपने से तीन साल बड़ी उम्र की स्वछंद सोच वाली लड़की निशा से शादी करता है। पर निशा की सारी बातें मानने को विवश है। निशा के पास उसकी बातों को न मानने के अकाट्य तर्क हैं। बेटा होने के बाद वह उसे भी अपनी तरह अंग्रेज़ी क़ायदे सिखाती है। रजनीकांत अपने बेटे से आत्मीय संबंध नहीं बना पाता। पति के रूप में भी निशा के सामने उसकी कोई एहमियत नहीं है। दोनों एक घर में रहकर भी एक दूसरे के लिए संवेदनहीन होते जाते हैं। उसे अपना गाँव, संस्कृति हमेशा याद आते हैं। अजनबीपन, अकेलापन, संत्रास, कुंठा आदि भाव रजनीकांत को महानगरीय जीवन बोध से जोड़ते हैं। स्त्री पुरुष संबंधों के सन्दर्भ में यहाँ संबंध केवल नाम का होता है वह सिर्फ़ इस रिश्ते को ढोता है। तेजेंद्र शर्मा का यह मानना है कि ‘विदेशी परिवेश में वैवाहिक बंधन व्यक्ति की अभिरुचि इच्छा व दृष्टिकोण के अलग-अलग होने के कारण अप्रासंगिक हो जाते है। अपनों से विलग होकर असहनीय पीड़ा को व्यक्ति अन्दर ही अन्दर महसूस करता है और प्रत्येक स्थिति को नियति मानकर भोगने के लिए अभिशप्त हो जाता है’।8
तेजेंद्र शर्मा की कहानियों के कथानक सिर्फ़ विदेशों में ही नहीं है। उनकी कहानियों का विस्तार प्रमुख रूप से दिल्ली, मुंबई, और लन्दन शहरों से जुड़ा है।
‘ग्रीन कार्ड’ कहानी में स्त्री पुरुष संबंधों की कथा शारदा-अभय-सुगंधा के प्रेम त्रिकोण में चलती है। यहाँ दम्भी पुरुष अभय अपने अमेरीका जाने के सपने को पूरा करने के लिए शारदा से प्यार का नाटक करता है क्योंकि वह उसे अमेरीका का ग्रीन कार्ड दिलवा सकती है, उसका सपना पूरा कर सकती है। उसे फँसा कर उससे विवाह करता है सिर्फ़ अपने अमेरिका जाने के टिकट के लिए। शारदा से उसे कोई भावनात्मक लगाव नहीं। उसके अमरीका जाने पर वह उसकी चिट्ठियों के भी औपचारिक जवाब देता। दूसरी तरफ शारदा अभय से बेहद प्यार करती है। वह उससे बिना घर वालों को बताये शादी के लिए भी तैयार जाती है। अमेरिका पहुँचने के अगले दिन से ही वह अभय को वहाँ बुलाने के लिए भाग-दौड़ करने लगती है। भारत में अभय के सुगंधा से मिलने के बाद अमेरीका में भी उसकी रुचि कम हो जाती है। वह अब सुगंधा से शादी करना चाहता है पर अचानक शारदा के भारत आने से सब भेद खुल जाते हैं। शारदा के प्रति उसका विश्वासघात, उसे विदेश जाने की सीढ़ी समझना, उसके पत्रों के प्रति उपेक्षा भरा रवैया अभय के चरित्र की दुर्बलताओं, बुराइयों को परिलक्षित करते हैं। सुगंधा का अभय के लिए प्रेम सच्चा था पर उसकी ग़लती सामने आने पर वह उसे छोड़ कर चली जाती है। कैरियर और प्रेम के बीच फँसे अभय ने अपने जीवन में आने वाले तूफ़ानों को जान कर भी अनदेखा कर दिया जो उसके लिए अंत में दुखदाई बने।
‘क्रमशः’ कहानी में रेखा और प्रमोद की कहानी है। नए पति-पत्नी एक दूसरे से तो संतुष्ट हैं पर बुआ जी के आने पर घर के वातावरण में परिवर्तन आ जाता है। बहु के दहेज़ का सामान कम लाने, घर के कामकाज में कमी निकलने का दौर शुरू हो जाता है। गर्भवती बहु को नौकरी के लिए मजबूर किया जाता है। पति का दहेज़ के लिए ताने मारना, प्रेम से न बोलना, उसके माता पिता को बुरा कहना उसकी सहनशक्ति समाप्त कर देता है और एक दिन वह अपने ससुराल को छोड़ कर भरी कोख के साथ चली जाती है। प्रमोद जो रेखा को छिप-छिप कर देखता था, उसकी एक झलक पाने को आतुर रहता था आज उसे वो प्यार के क़ाबिल नहीं लगती। कथा के अंत में बेटा होने पर रेखा को कभी न लाने का रुआब दिखाने वाला पति अस्पताल के बाहर चक्कर लगाता है। कहानी का अंतिम वाक्य है ‘क्या प्रमोद सचमुच बदल गया है या लड़का होने पर उसे ससुराल से तगड़ा माल मिलने की आशा है’?9 ये अंतिम वाक्य ही पति पत्नी के बीच के संबंध की व्याख्या कर देता है।
वैवाहिक रिश्ते की नींव जहाँ प्यार होनी चाहिए वहाँ उसके स्थान पर अर्थ की प्रधानता है। पति का पौरुष जाग उठता है जब उसे कोई जोरू का गुलाम कहता है। वह अपनी पत्नी को अपना गुलाम जताने बनाने का प्रयास करता है। किन्तु रेखा कोई उन्नीसवीं सदी की लड़की नहीं है वह अति होने पर स्वयं घर छोड़ने का निर्णय प्रमोद को सुनाती है। यहाँ स्त्री पुरुष संबंधों में एक-दूसरे के प्रति विश्वास की कमी उनके संबंधों को हिला देती है। पत्नी से अधिक पैसे से प्यार उनके बीच दूरियाँ ले आता है। प्रमोद का अहंकार उसे सामान्य नहीं रहने देता। रेखा पति की उपेक्षा से तंग आकर अपने आप पर उसके अधिकार को ख़त्म कर देती है। हम अपने आस पास के परिवेश में ऐसी स्थितियाँ देखते है। हरि मृदुल ने ठीक ही कहा है कि तेजेन्द्र की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हमारे रोज़मर्रा के जनजीवन से जुड़ी अपनी सी लगने वाली कहानियाँ हैं। उन कहानियों की कथात्मकता और भाषा का स्वाभाविक प्रभाव भी एक प्लस प्वाइंट है। कथा तत्व, संवेदना, शिल्प और भाषा के स्तर पर आए परिवर्तनों की कसौटी पर, तेजेन्द्र न केवल प्रभावित करते हैं, बल्कि एक निश्चित छाप भी छोड़ते दिखाई देते हैं।10
‘श्वेत श्याम’ कहानी में एक अलग तरह का स्त्री पुरुष संबंध नज़र आता है। फ़ौजी हेमंत की पत्नी संगीता पति की पोस्टिंग के बाद अकेलेपन को भरने के लिये पार्टियों का सहारा लेती है। रंगीन पार्टियों का हिस्सा बनते हुए वो ख़ुद रंगीन मिज़ाज बन जाती है और अपनी देह का सौदा भी होने देती है। उसकी अपने पति की आमदनी से अपने बड़े शौक़ों को पूरा न हो पाने की कुंठा इस देह व्यापार से मिटने लगती है। पति की वर्दी में लगे छह सितारे उसे पाँच सितारा होटल के आगे फीका लगता है। उसकी मध्यवर्गीय मानसिकता उसे धिक्कारती है, अपराधबोध करवाती है वो पीछे हटाना चाहती है पर मिसेज कोहली के अकाट्य तर्कों के आगे निढाल हो जाती है। वह अपने पति से प्रेम करती है पर ‘एक घंटे की बात है’ के आगे झुक जाती है। प्रेम कमज़ोर पड़ जाता है, रिश्ता छोटा पड़ जाता है और पैसों की चमक बड़ी हो जाती है। कहानी में दिलचस्प मोड़ तब आता है जब मिसेज कोहली उसे कुमार के पास जाने के लिए आग्रह करती है। श्वेत कपड़े पहने वो काला काम करने पहुँचती है पर दरवाज़ा खुलते ही वो चक्कर खा कर गिर पड़ती है। कुमार अंत में उसी का देवर निकलता है। यथार्थ का सामना उसे भारतीय संस्कारों के तहत अपने प्रति ग्लानि और घृणा से भर देता है। वह अस्पताल में भी यही सोचती रहती है कि वह अपने पति हेमंत का सामना कैसे करेगी? सच जानने पर हेमंत की क्या प्रतिक्रिया होगी? घरेलू पत्नियों का सारे सुख होते हुए भी कार्ल गर्ल जैसा काम करके पैसे कमाना भारतीय शहरों में विकसित नए यथार्थ की और इंगित करता है। यहाँ स्त्री-पुरुष संबंधों में स्त्री की और से पति के प्रति वफ़ादारी नहीं की जाती। महानगरों में ख़ालीपन को भरने के लिए ऐसी स्त्रियों और पैसे वाले पुरुषों की एक दबी छुपी संस्कृति पनप रही है। स्त्री पुरुष दोनों ही अपनी यौन लिप्सा शांत करने के लिए अपने नैतिक मूल्यों और रिश्तों को ताक़ पर रख देते हैं।
‘ढिबरी टाईट’ कहानी संग्रह की कहानी ‘धुंधली सुबह’ स्त्री और लेखक पुरुष के सामान्य से वैवाहिक जीवन में प्रेम और प्रेरणा को लेकर पैदा हुए द्वन्द्व पर केन्द्रित है। माता-पिता का घर छोड़ एक काल्पनिक दुनिया में जीने वाले लेखक से शादी करके दिव्या को मिलता क्या है? जिस आदमी की कविताओं में वह अपने को उसकी प्रेरणा मानती थी, उसकी कहानियों की नायिका मानती थी, शादी के बाद वह पाती है कि उसकी हर शहर में एक प्रेरणा है। जिसके लेखन पर वह मुग्ध हो कर मुस्कुराती थी, स्वप्न बुनती थी आज उसी लेखक की सपाट बयानी पर उसे आश्चर्य है। “मैंने तुममें अपना प्यार देखा था –तुम मेरी प्रेयसी थी मेरी प्रेरणा। ....जरा अपना चेहरा देखो! तुम्हे देख कर क्या कोई कविता या कहानी लिखने की प्रेरणा पा सकता है क्या?.... यू बोर मी दिव्या”।11 पति के लिए पत्नी एक बच्चे की माँ बनने के बाद नीरस हो गई है। उसे अपनी पत्नी से कई तरह की अपेक्षाएँ हैं। दिव्या उन अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश भी करती है। कम बजट में घर को अच्छे से चलाती है किसी चीज़ की माँग नहीं करती, बच्चे को भी अच्छे से पाल रही है। देर रात शराब पीकर आये पति से झगड़ती भी नहीं। सभी स्तरों पर वह अपने को एडजस्ट करती है। लेकिन पुरुष की आकांक्षाएँ बढ़ती जाती हैं। वह उसे कोई भौतिक सुख नहीं दे सकता, उसके गिरते स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रख सकता पर अपनी इच्छाएँ भी नहीं मारता बल्कि पत्नी को दिए अभावों के जीवन में भी अपने लिए एक अतिरिक्त सुविधा की माँग करता है। यहाँ संबंध में निभाने की चाह दिखती तो है पर स्त्री की ओर से ज़्यादा, पुरुष की ओर से कम। वह नई प्रेरणाएँ तलाश कर लेता है। दिव्या का मन विद्रोह करता है। वह सब छोड़ने की सोचती है पर माँ-बाप को वह पहले ही छोड़ आई थी। उसे राह नहीं दिखती। वह सब कुछ को नियति मान कर स्वीकारने को बाध्य है। सामान्य से दैनिक जीवन में घटने वाली घटनाओं को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से तेजेंद्र शर्मा जी देखते हैं और सम्वेदनात्मक ढंग से अपनी कहानियों में व्यक्त करते हैं।
‘एक मुट्ठी धूप’ कहानी बड़ी पेचीदा और अलग क़िस्म की कहानी है। अनचाही बेटी, परिवार में भाई के साथ भेद-भाव में पली बढ़ी। अपने को सदा अकेला पाया सीमा ने। परिवार का हिस्सा तो कभी बन ही न पाई। उसके जीवन में मनीष के आगमन ने अकेलेपन को भर दिया। अवसाद से घिरी सीमा को मनीष ने बड़ी बहन का प्यार और सम्मान दिया। सीमा के भाई विकास को अपने दोस्त मनीष का अपनी बहन सीमा से ये मेल जोल अच्छा नहीं लगा। माता पिता ने भी सीमा की शादी का फ़ैसला ले लिया। सीमा अपने मंगेतर से गर्भवती थी तभी उसकी दुर्घटना में मौत की ख़बर आती है। मनीष पर दबाव बना कर उसे सीमा से शादी के लिए उकसाया जाता है। ‘जिसको सदा अपनी बहन, माँ समान माना हो, उससे! दीदी की इज़्ज़त! लोग क्या कहेंगे? वह स्वयं क्या सोचेगा? दीदी पर क्या गुज़रेगी? अभी तो उसे मालूम ही नहीं कि उसकी माँ ने क्या कहा है। पथराई-सी दीदी। क्या वह उसे ऐसे ही मर जाने देगा? क्या उसे अपनी पत्नी बना पायेगा? उर्वशी का क्या होगा? उससे जो वादे किए हैं। उसका क्या दोष है? ’रात भर दावानल में जलता रहा। यह हलाहल उसे ही पीना होगा।’12 दुनिया के तानों से दुखी हो मनीष शादी के पाँचवे दिन आत्महत्या कर लेता है। सीमा का गर्भ गिर जाता है। वो फिर से अपनी अवसाद की दुनिया में गिरफ़्त हो जाती है। ‘रसहीन ! लक्ष्यहीन! वह जी रही है पर वह स्वयं नहीं जानती किसके लिए। एक थके हुए मुसाफ़िर की तरह बस चलती जा रही है। संभवतः इसलिए कि उसके लिए ज़िंदगी जीने का नाम नहीं समय काटने का पर्याय बन गई है। क्यों जी रही है वह? शायद इसलिए कि वह मर नहीं सकती।’13 अरविन्द उसके जीवन में ख़ुशियाँ भरना चाहता है।
तेजेंद्र शर्मा दोनों के जीवन को अँधेरे और उजाले के प्रतीकों के माध्यम से सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करते हैं। सीमा के जीवन के अँधेरे को अरविन्द रोशनी से भर देना चाहता है। उसके अतीत के बारे में जान कर भी वह सीमा को अपनाने के लिए तैयार है। यहाँ स्त्री पुरुष संबंधों की कथा दो स्तरों पर प्रकट होती है। एक सामाजिक स्तर जहाँ सीमा और मनीष के रिश्तों को समाज ग़लत दृष्टि से देखता है, मजबूरी में की गई शादी के बाद लाँछनों का दौर शुरू हो जाता है जिसे मनीष सह नहीं पाता और मृत्यु का वरण करता है। जो संबंध वात्सल्य का था, स्नेह का था, दुनिया की नज़रों में वो अपवित्र था। वहीं दूसरे स्तर पर अरविन्द और सीमा का संबंध कशमकश भरा रहा। अरविन्द उसे अवसाद से बाहर निकलना चाहता है। वह उसका मित्र, हितैषी, प्रेमी, रक्षक, पति बन कर उसके अंधकार भरे जीवन में प्रकाश लाना चाहता है। ये संबंध भावनाओं व प्रेम की उमड़-घुमड़ में घूमता दिखाई देता है। ’ढिबरी टाईट’ संग्रह की ही एक अन्य कहानी है, ‘सिलवटें’! भावनाओं के दर्द की इस कहानी में जीवन में पड़ी सिलवटों की दास्ताँ है। इस कहानी में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की कई परतें दृष्टिगत होती हैं। पहले एक तरफ़ा प्रेम, लड़की को हासिल करने की लालसा, फिर विश्वासघात, फिर सांत्वना और प्रेम दर्शाते हुए जीवन उद्धार करने का एहसान जताना और अंत में ग्लानि महसूस करना। सुलोचना का सादा जीवन सुखद चल रहा था, बलात्कार की घटना उसके जीवन में सिलवटों की तरह पड़ी रह जाती है। गर्भवती सुलू विजय से वह शादी इस शर्त पर करती है कि वह उसके अपराधी को ढूँढ़ कर लाये ताकि वह उसका न्याय कर सके। किंतु शादी के दस साल तक वो इस बात को पूरा नहीं कर पाता। अपने पुत्र के दसवें जन्मदिन पर उस हादसे की याद में घुलती पत्नी को विजय सच बताता है कि वो उसका अपराधी है। किन्तु कभी सत्य कहने की हिम्मत न कर पाया पर अब वह अपने पुत्र की माँ, अपनी सच्चे प्रेम को ख़त्म होते नहीं देखना चाहता इसलिए सज़ा और क्षमा याचना करता है। सुलू अब भी नहीं समझ पाती कि वह अपने पति को क्षमा करे या नहीं। वही अपराधी जिसका वह न्याय करना चाहती थी, उसका अपना पति है? वह क्या निर्णय ले, समझ नहीं पाती। वह द्वन्द्व में फँसी है। जावेद इकबाल तेजेंद्र शर्मा की कहानियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि “ढिबरी टाइट की कहानियों में ऐसे पात्रों का दर्द ढला है जिनकी ज़िन्दगी एक शोकगीत बन कर रह गई है। तेजेन्द्र की कहानियों की एक ख़ासियत है उनका सहज प्रवाह। वह नाटकीय स्थितियों को ग़ैर ज़रूरी तौर पर जगह नहीं देते और कहानी को सहज गति से स्वाभाविक अंजाम तक पहुँचाते हैं। भाषा कहानियों के अनुरूप है और कहीं भी बोझिल नहीं लगती। कई कहानियों में भाषा ने शृंगार भी किया है और इसकी ख़ूबसूरती कहानी के पैरों में पायल की तरह हल्के से बज उठी है तो कई स्थलों पर भाषा से चाबुक का काम भी लिया गया है।”14
स्त्री पुरुष का संबंध जुड़ता ही तभी है जब वह एक दूसरे में सहारा तलाशते हैं, एक दूसरे में अपनी परिपूर्णता खोजते हैं। पर रिश्ता बनने के बाद उसमे उतार-चढ़ाव भी आने ही है। पर जब कोई असामान्य घटना जीवन में घटित होती है तो जीवन में उलझाव आ जाते हैं। हर पुरुष या स्त्री अपने लिए कोई ऐसा इंसान चाहते हैं जो उसकी परवाह करे, उसे चाहे, उसका होकर रहे, सुख-दुःख में साथ दे। स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे के नजदीक आना नैसर्गिक भी है और ज़रुरत भी। यह प्राकृतिक नियम है। सामाजिक रूप में इसे विवाह संस्था के अंतर्गत मान्यता मिली हुई है। समाज में यह प्रेम के रूप में भी प्रचलित है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में प्यार, शादी, कभी बेवफ़ाई, कभी एक तरफ़ा प्यार, कभी अनचाहा रिश्ता, कभी पैसों से बँधा संबंध, कभी प्यार पाने के लिए किया गया विश्वासघात, कभी अवैध संबंध, कभी शरीर की भूख, कभी वही पुरातन प्रश्न क्या एक लड़का और लड़की सिर्फ़ दोस्त नहीं हो सकते? आदि कई रूप देखने को मिलते हैं।
उनकी कहानियों के पात्र टूटे हुए, उलझे हुए, अपने लिए संवेदना ढूँढते पात्र हैं। सामान्य जीवन जीते हुए भी वे कहीं न कहीं अपने जीवन में दुखी हैं, उदास हैं, अतृप्त हैं। उनके पात्र अपने जीवन में ऊब लिए हुए हैं। तेजेंद्र शर्मा की कहानियों के पात्रों के बारे में सूरज प्रकाश ने बिलकुल सटीक बात कही है कि “तेजेन्द्र की कहानियों के पात्र अपनी कमज़ोरियों, अच्छाइयों, बुराइयों और यहाँ तक कि अपनी बेशर्मियों और बदत्तमीज़ियों के साथ ज्यों के त्यों हमारे सामने आते हैं लेकिन इन्हीं साधारण पात्रों के असाधरण कहानियों के साथ तेजेन्द्र जब हमारे सामने आते हैं तो चमत्कृत करने के बजाए हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि कहाँ क्या ग़लत हो रहा है”।15
अकेलापन, अजनबीपन, संवेदनहीनता, मानवीयता का ह्रास, सभी शहरी जीवन की चुनौतियों, समस्याओं की ओर उनकी कहानियाँ इंगित करती हैं। उनकी कहानियों के विषय में भावसिंह हिरवानी ने लिखा है “तेजेन्द्र शर्मा की कहानियाँ शहरी जीवन की उस बदसूरत तस्वीर की बड़ी सफ़ाई के साथ हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं, जहाँ हर पहलू को आर्थिक दृष्टि से देखना लोगों की आदत बन गई है। रिश्ते-नाते सब कुछ दायरे में सिमट कर अर्थहीन हो गये हैं। इन कहानियों को पढ़ते वक़्त हमारे अंतस में जमी काई उसी तरह साफ़-साफ़ दिखाई देने लगती है, जैसे किसी नदी या तालाब के स्थिर जल में उस के तल में फैली गंदगी दिखाई देती है”।16 तेजेंद्र शर्मा देश-विदेश और समाज में होने वाले परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हैं। उनका रचनाकार इस बदलते यथार्थ को वाणी देता है। तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ संत्रस्त स्त्री-पुरुष के प्रति एक सहज सहानुभूति है।
सन्दर्भ ग्रन्थ:
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13. शर्मा, तेजेंद्र, (मार्च2012), एक मुट्ठी धूप. gadyakosh.org से पुनर्प्राप्त
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15. प्रकाश सूरज. (अक्टूबर2012), साहित्यकुञ्ज, वही
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शोधार्थी
हिंदी विभाग
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
मो. 9582867494
ई-मेल- rita.3g@gmail.com