उम्र बनाती रही ज्यामितीय रेखाएँ
मेरी देह पर,
जीवन के सुख-दुख, गुणा-भाग, लाभ-हानि
झुर्रियों में मेरे चेहरे की।
भौंहों पर सवालों का
अधूरा हल टँगा रहा
लटकता रहा आँखों में शून्य।
अपने से
अपने बच्चों से
अपने पूर्वजों से
पूछा मैंने
कोई हल है क्या?
जीवन के दाँव-पेंच का
हर दिल के चक्रव्यूह का
अनगिनत सवालों का
कहीं तो कोई हल मिले,
देह की टूटन को, माटी होने से पहले
कुछ तो बल मिले
निजी और सामाजिक चिन्ताओं से
एक क्षण को तो हमें ’कल’ मिले?
सन्नाटा.....
ढूँढा भीतर और बाहर
सवालों का जवाब
पर वक़्त के पानी पर
उम्र की नाव बहती रही
हज़ारों प्रश्न लिए
जीवन की धारा यूँ ही बहती रही।