होंठों पर मुस्कुराहट
सूरज सी खिली,
माथे के चिंता-बादल,
हो गये तिरोहित सब।

आस खिली कमल बन,
मानस के नील जल।

आत्मा का पँछी फड़फड़ाता पर,
अनहद का किल्लोल भर, अपने स्वर...
तुम..

कहाँ हो दूर???
मेरे ही भीतर
भरपूर!!!

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