बंद दरवाज़े

01-04-2020

बंद दरवाज़े

डॉ. शैलजा सक्सेना (अंक: 153, अप्रैल प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

हवाएँ ले के आईं हैं,
हर- सू मौत की ही बू,
बहारों को मैं क्या देखूँ,
कि कुछ अच्छा नहीं लगता।

 

सारे प्लान ठिठके हैं,
समय भी थम गया सा है,
कराह सीने से उठती है,
कि कुछ अच्छा नहीं लगता।

 

कहीं एक, दो भी जाते तो,
धीरज धार लेते हम,
यहाँ तो गाँव खाली हैं,
कि कुछ अच्छा नहीं लगता।

 

पाँवों को समेटा है,
नज़र सब से चुराए हैं,
हमारे बीच है ख़तरा,
कि कुछ अच्छा नहीं लगता।

 

बहुत मन को धकेला है,
बहुत से पाठ पढ़ डाले,
मगर मन बैठता जाता,
 कि कुछ अच्छा नहीं लगता।

 

हवाएँ आँधियाँ बन कर,
चलेंगी देर तक कितनी?
मगर ये रात बाक़ी है,
कि कुछ अच्छा नहीं लगता॥
 

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