तुम मानव नहीं हो!
आलोक कौशिक
देख कर दूजे का हर्ष
गर तुम्हें होता है कर्ष
लगाए रहते मुखौटे
सह ना सकते उत्कर्ष
तो मान लो
तुम मानव नहीं हो!
देकर ग़ैरों को दुःख
यदि तुम पाते हो सुख
शकुनी तेरे हृदय में
कृष्ण जपता हो मुख
तो मान लो
तुम मानव नहीं हो!
कर ना सको अभिनंदन
कर्म तुम्हारा निंदन
मन मलिन तुम्हारा
माथे पे लगाते चंदन
तो मान लो
तुम मानव नहीं हो!
करते वाणी से विदीर्ण
सोच तुम्हारी संकीर्ण
साथी का सहारा ना बनते
पथ बनाते कंटकाकीर्ण
तो मान लो
तुम मानव नहीं हो!
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अच्छा इंसान
- आलिंगन (आलोक कौशिक)
- उन्हें भी दिखाओ
- एक दिन मंज़िल मिल जाएगी
- कवि हो तुम
- कारगिल विजय
- किसान की व्यथा
- कुछ ऐसा करो इस नूतन वर्ष
- क्योंकि मैं सत्य हूँ
- गणतंत्र
- चल! इम्तिहान देते हैं
- जय श्री राम
- जीवन (आलोक कौशिक)
- तीन लोग
- तुम मानव नहीं हो!
- देखो! ऐसा है हमारा बिहार
- नन्हे राजकुमार
- निर्धन
- पलायन का जन्म
- पिता के अश्रु
- प्रकृति
- प्रेम
- प्रेम दिवस
- प्रेम परिधि
- बहन
- बारिश (आलोक कौशिक)
- भारत में
- मेरे जाने के बाद
- युवा
- श्री कृष्ण
- सरस्वती वंदना
- सावन (आलोक कौशिक)
- साहित्य के संकट
- हनुमान स्तुति
- हे हंसवाहिनी माँ
- होली
- हास्य-व्यंग्य कविता
- बाल साहित्य कविता
- लघुकथा
- कहानी
- गीत-नवगीत
- विडियो
-
- ऑडियो
-