प्रकृति
आलोक कौशिकविध्वंसक धुँध से आच्छादित
दिख रही सृष्टि सर्वत्र
किंतु होता नहीं मानव सचेत
कभी प्रहार से पूर्वत्र
सदियों तक रहकर मौन
प्रकृति सहती अत्याचार
करके क्षमा अपकर्मों को
मानुष से करती प्यार
आता जब भी पराकाष्ठा पर
मनुज का अभिमान
दंडित करती प्रकृति तब
अपराध होता दंडमान
पशु व पादप को धरा पर
देना ही होगा उनका स्थान
करके भक्षण जीवों का
नहीं होता मनुष्य महान
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