निर्धन
आलोक कौशिकपसंद नहीं वर्षा के दिन
नहीं भाती पूस की रात
मिट्टी का घर है उसका
निर्धनता है उसकी ज़ात
श्रम की अग्नि में जब वह
पिघलाता है कृशकाय तन
तब उपार्जन कर पाता है
अपने बच्चों के लिए भोजन
उसकी छोटी-सी भूल पर भी
उठ जाता सबका उस पर हाथ
दर्शक सब उसकी व्यथा के
नहीं देता कोई उसका साथ
मुख से नहीं बताता है कभी
हरेक बात अपने अंतर्मन की
व्यथा समझना हो तो पढ़ लो
भाषा उसके सजल नयन की
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