अस्पताल का धंधा

01-09-2025

अस्पताल का धंधा

आलोक कौशिक (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

वह चमचमाता हुआ अस्पताल दूर से किसी मंदिर जैसा दिखाई देता था। ऊँची दीवारें, रंग-बिरंगी लाइटें, और गेट पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा—

“वीरेंद्र सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल–जनसेवा ही हमारा धर्म है।” 

लोग दूर-दूर से आते थे, यह मानकर कि यहाँ उनकी जान बच जाएगी। लेकिन भीतर की सच्चाई इतनी कड़वी थी कि अगर कोई जान जाता तो शायद वह अस्पताल में क़दम रखने से पहले ही मौत को गले लगाना पसंद करता। 

अस्पताल का मालिक वीरेंद्र ख़ुद को “डॉक्टर” कहलाता था, जबकि असलियत यह थी कि उसके पास कोई वैध मेडिकल डिग्री ही नहीं थी। नक़ली काग़ज़ों के सहारे उसने यह साम्राज्य खड़ा कर लिया था। उसका असली धंधा इलाज नहीं, बल्कि बीमारी के नाम पर लूट था। 

उसने अपने कर्मचारियों को साफ़ आदेश दे रखा था—“मरीज़ चाहे सिरदर्द लेकर आए या खाँसी-जुकाम, उसके नाम पर जितने टेस्ट और स्कैन चढ़ा सकते हो, चढ़ा दो। दवाई वही लिखो, जो मेडिकल स्टोर से हमें कमीशन देती है। बिल जितना लंबा होगा, उतना अच्छा।” 

कर्मचारी भी जानते थे कि नौकरी केवल वही रख पाएगा जो उसके काले कारनामों में साथ दे। इसलिए अस्पताल के भीतर हर शख़्स एक मशीन बन चुका था; मशीन जो इंसानों की मजबूरी को निचोड़कर रुपये उगलवाती थी। 

जब किसी ग़रीब का बिल लाखों में पहुँच जाता और वह रोते-बिलखते कहता, “डॉक्टर साहब, हमसे इतना नहीं होगा . . . हम बर्बाद हो जाएँगे . . .” 

तो वीरेंद्र अपने आलीशान ऑफ़िस में बड़े नाटकीय अंदाज़ में कहता, “देखिए, मैं पैसों का भूखा नहीं हूँ। आपकी तकलीफ़ समझता हूँ। ठीक है, मैं पचास हज़ार माफ़ करता हूँ।” 

वह पल मरीज़ का परिजन उसे भगवान समझकर धन्यवाद करता और उसकी “महानता” की चर्चा गाँव-गाँव में फैल जाती। लेकिन कोई यह नहीं समझता कि जिस दया का वह नाटक कर रहा है, उसी के बनाए जाल में लोग पहले फँसते हैं। 

वीरेंद्र की पत्नी वंदना, बिहार पुलिस में डीएसपी थी। भ्रष्टाचार उसके लिए साँस लेने जितना आसान था। तेज़-तर्रार ज़ुबान, गाली-गलौज में डूबी हुई बोली और पद का दुरुपयोग-ये उसकी पहचान थी। 

अगर कोई वीरेंद्र की सच्चाई उजागर करने की कोशिश करता, तो वंदना आगे आकर उस पर मुक़दमे ठोक देती, धमकियाँ देती और अपने वर्दी के रोब में उसे चुप करा देती। 

लोग कहते, “वीरेंद्र को भगवान ने एक ऐसा वरदान दिया है, जिसमें इलाज़ की दुकान और पुलिस की ढाल दोनों साथ-साथ हैं।” 

अस्पताल के बाहर का चेहरा कुछ और ही था। हर साल बड़े-बड़े धार्मिक अनुष्ठान होते। कभी हवन, कभी भंडारा, कभी रुद्राभिषेक का आयोजन। 

सोशल मीडिया पर उनके वीडियो घूमते रहते। अख़बारों में फोटो छपते—वीरेंद्र ग़रीबों में कंबल बाँट रहे हैं, वीरेंद्र धार्मिक यज्ञ करा रहे हैं, वीरेंद्र समाजसेवा कर रहे हैं। 

और लोग कहते, “क्या नेक इंसान है! इतना बड़ा अस्पताल चला रहा है, ऊपर से भगवान की भक्ति भी करता है।” 

किसी को पता ही नहीं चलता कि यह वही आदमी है, जिसकी वज़ह से कितने परिवार कर्ज़ के बोझ तले दब गए, कितनी औरतें अपने गहने बेच चुकीं और कितने बूढ़े माँ-बाप अपनी ज़मीन गिरवी रखकर बिल चुका चुके। 

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