बनारस की गली में
आलोक कौशिकबनारस की गली में
दिखी एक लड़की
देखते ही सीने में
आग एक भड़की
कमर की लचक से
मुड़ती थी गंगा
दिखती थी भोली सी
पहन के लहँगा
मिलेगी वो फिर से
दायीं आँख फड़की
बनारस की गली में...
पुजारी मैं मंदिर का
कन्या वो कुँआरी
निंदिया भी आए ना
कैसी ये बीमारी
कहूँ क्या जब से
दिल बनके धड़की
बनारस की गली में...
मालूम ना शहर है
घर ना ठिकाना
लगाके ये दिल मैं
बना हूँ दीवाना
दीदार को अब से
खुली रहती खिड़की
बनारस की गली में...
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