मायाजाल

आलोक कौशिक (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

एक नगर में देवदत्त नाम का युवक था। वह सुंदर एवं सम्मोहक छवि वाली युवती मालिनी से गहराई से प्रेम करता था। परन्तु मालिनी का मन किसी और पर था। 

देवदत्त ने हर सम्भव प्रयास किया—उपहार दिए, सेवा की, विनती की—परन्तु मालिनी ने विनम्रता से कहा, “तुम अच्छे हो, पर मेरा हृदय तुम्हारा नहीं है।” 

अस्वीकार देवदत्त को असहनीय था। उसने तांत्रिक क्रियाओं का सहारा लिया। कुछ समय पश्चात् एक तांत्रिक के द्वारा उसे एक अद्भुत मणि प्राप्त हुई। कहा गया था, “जिस पर यह मणि रख दी जाएगी, वह व्यक्ति तुम्हारे वश में हो जाएगा।” 

देवदत्त ने मणि का प्रयोग किया। मालिनी अचानक उसकी ओर आकर्षित हो गई। उसकी आँखों में देवदत्त के लिए प्रेम उमड़ पड़ा। वह हर क्षण उसके साथ रहने लगी। 

देवदत्त ने सोचा-अब उसकी इच्छा पूरी हो गई। 

लेकिन समय बीतने पर उसने पाया कि मालिनी का प्रेम मौन और खोखला है। उसकी मुस्कान में चमक नहीं थी, उसकी बातें जड़ थीं। वह प्रेम दिखाती थी, पर भीतर से शून्य थी। 

देवदत्त को एहसास हुआ—यह मणि से उत्पन्न प्रेम है, हृदय का नहीं। 

धीरे-धीरे वह स्वयं ही ऊब गया। वह जिस प्रेम की प्यास में तड़प रहा था, वह प्रेम तो उसे मिला ही नहीं—केवल एक नाटक मिला। 

और एक दिन वह मणि टूट गई। 

मालिनी जैसे गहरी नींद से जाग उठी और बोली, “तुमने मेरे हृदय को बाँधा, पर मेरी आत्मा को कभी नहीं छू सके। अब मैं जा रही हूँ, और तुम्हें सिर्फ़ इस ख़ालीपन के साथ छोड़कर।” 

देवदत्त का हृदय चूर-चूर हो गया। 

उसे समझ आया—धोखे से पाया प्रेम, प्रेम नहीं, बस मायाजाल है। 

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