कुछ वक़्त बदल जाता
हिमानी शर्मा
काश ये वक़्त थोड़ा और ठहर जाता,
मैं थोड़ा बदलती ख़ुद को,
और कुछ वक़्त बदल जाता।
काश ये डर कुछ यूँ बिखर जाता,
मैं थोड़ा सँभालती ख़ुद को,
और कुछ अक्स निखर आता।
ना होती अगर मजबूर जज़्बातों के आगे यूँ,
मैं थोड़ा ठहर जाती
और कुछ रास्ता बदल जाता।
मैं हारी हूँ अक़्सर कइयों की जीत की चाह में,
कभी मैं चुप रह जाती,
और कुछ वक़्त सहम जाता।
नायाब एक शख़्सियत अब बेजान सी लगती है,
काश ये समझने की कोशिश
कोई और समझ पाता।
काश ये वक़्त थोड़ा और ठहर जाता,
मैं मुड़कर देखती और मुझे वही हूर नज़र आता।
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