जब-तब
हिमानी शर्मा
मैं सोचती हूँ जब जब,
क्यूँ वो इतना ठहरा है,
और जब जब वो ठहरा है,
क्यूँ दिल पे उसका पहरा है।
वो सोचता है जब जब,
क्यूँ वो इतना बहती है,
और जब वो इतना बहती है,
फिर क्यूँ इतना डरती है।
वो सोचती है जब जब,
क्यूँ इतना चुप रहता है,
और जब जब चुप रहता है,
क्यूँ मुझमें इतना बसता है।
वो सोचता है जब जब,
क्यूँ ये इतना सब कहती है,
और जब इतना कुछ कहती है,
फिर क्यूँ अपने में सँवरती है।
लेकिन
मिलते हैं दोनों जब तब
हवाओं में महक बिखरती है,
न सावलों की गुंजाइश रहती है,
ना जवाबों की ज़रूरत होती है।
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