जेहादन

01-07-2023

जेहादन

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

वह चार साल बाद अपने घर पहुँची लेकिन गेट पर लगी कॉल-बेल का स्विच दबाने का साहस नहीं कर पाई। क़रीब दस मिनट तक खड़ी रही। उसके हाथ कई बार स्विच तक जा-जा कर ठहर गए। जून की तपा देने वाली गर्मी उसे पसीने से बराबर नहलाए हुए थी। माथे से बहता पसीना बरौनियों पर बूँद बन-बन कर उसके गालों पर गिरता, भिगोता और फिर उसके स्तनों पर टपक जाता। 

चढ़ती दुपहरी, चढ़ता सूरज आसमान से मानो अग्नि-वर्षा कर रहे थे। उसका गला बुरी तरह सूख रहा था। पपड़ाए होंठों पर जब वह ज़ुबान फेरती तो उसे ऐसा लगता मानो उन पर नमक की पर्त चढ़ी हुई है। सड़क पर इक्का-दुक्का लोगों के अलावा कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था। उसने गेट के बग़ल में दीवार पर लगी उस नाम शिला-पट्टिका को ध्यान से देखा, जिस पर सबसे ऊपर उसके माता-पिता चंद्र-भूषण त्रिवेदी, निरुपमा त्रिवेदी और उसके ठीक नीचे चारों भाई-बहनों का नाम ख़ुदा हुआ था। 

उसकी आँखें एकदम से छल-छला आईं, जब क्रम से लिखे नामों में तीसरे नंबर पर अपने नाम को किसी नुकीली चीज़ से, उसी तरह चोट दे-दे कर मिटाया हुआ पाया, जिस तरह चिकने हो चुके सिल-बट्टे की छेनी-हथौड़ी से छिनाई की जाती है। उसके कानों में माँ-बाप की आख़िरी बार कही गई बातें, ‘तू हमारे कुल-ख़ानदान के लिए एक शर्मनाक अभिशाप है। हमारे लिए ख़त्म हो गई है। अब हम कभी तुम्हारी मनहूस छाया भी नहीं देखना चाहते।’ गूँजने लगीं। वह सिसक पड़ी। एक बार फिर उसका हाथ कॉल-बेल स्विच तक जाकर लौट आया। 

उसे जब लगा कि वह अपनी रुलाई पर कंट्रोल नहीं कर पा रही है, कुछ देर और रुकी रही तो फूट-फूट कर रो पड़ेगी, तो एक भरपूर दृष्टि नाम शिला-पट्टिका और ऊपर तीसरी मंज़िल तक डालकर वापस रेलवे स्टेशन की तरफ़ चल दी। क़दम स्टेशन की तरफ़ मुड़ते ही उसकी रुलाई एकदम से फूट पड़ी। उसने जल्दी से अपना चेहरा दुपट्टे को लपेट कर ढक लिया, और तेज़-तेज़ क़दमों से चलती रही। 

कुछ ही देर में उसे लगा कि चक्कर आ रहा है, यदि वह बैठ न गई तो धूप से जलती सुलगती सड़क पर गिर पड़ेगी। मगर कहाँ बैठे, कोई भी जगह उसे सुझाई नहीं दे रही थी। न ही कोई रिक्शा, ऑटो दिखाई दे रहा था। आख़िर वह सड़क किनारे फुट-पाथ पर लोहे के बने एक ट्री-गार्ड से सट कर बैठ गई। 

पीठ पर से अपने ‘बैक बैग’ को उतारा, पानी की बोतल निकाली, मगर वह पहले से ही ख़ाली थी। उसे लगा कि जैसे शरीर का सारा पानी निचुड़ गया है। दूर-दूर तक उसे कई ट्री-गार्ड तो दिखाई दे रहे थे, मगर कोई पेड़ दिखाई नहीं दे रहा था। किसी-किसी में सूखे पौधे के अवशेष ज़रूर दिख रहे थे। 

चिलचिलाती धूप में सड़क पर उसे इस तरह बैठा देखकर, इक्का-दुक्का निकल रहे लोगों में से एक महिला उसके पास रुकी। उसने एक छाता धूप से बचने के लिए सिर के ऊपर लगाया हुआ था। उसने थोड़ा झुक कर उससे पूछा, “आप इतनी तेज़ धूप में इस तरह सड़क पर क्यों बैठी हुई हैं, आपकी तबीयत तो ठीक है न, मैं आपकी कोई हेल्प कर सकती हूँ?” 

उसने सिर ऊपर उठाकर उसे देखा, उसका छाता उन दोनों के सिर पर छाया किए हुए था। वह अचानक हेल्प की बात सुनकर समझ नहीं पाई क्या बताए। सबसे पहले तो उसने उसे पहचानने की कोशिश की, कि यह इसी कॉलोनी की, उसके परिवार की परिचित तो नहीं है, और उसे पहचान कर यह पूछने लगे कि, अरे इतने वर्षों बाद दिखाई दी और यहाँ सड़क पर क्यों बैठी हो? 

जब उसे विश्वास हो गया कि बड़ी सी बिंदी लगाए यह भद्र महिला इस कॉलोनी की नहीं है, और न ही उसके परिवार की परिचित तो उसने कहा, “मैं स्टेशन जा रही हूँ, कोई रिक्शा मिला नहीं, धूप बहुत ज़्यादा है, मेरा पानी भी ख़त्म हो गया है, गला सूख रहा है, चक्कर सा आने लगा तो मैं यहाँ बैठ गई।”

यह सुनते ही उस महिला ने अपने बैग से पानी की बोतल निकाल कर उसे देते हुए कहा, “लीजिए, पहले आप पानी पीजिए, इस समय तो यहाँ पर रिक्शा वग़ैरह मिलना मुश्किल है। मैं भी परेशान हो गई तो पैदल ही चल दी। अभी तो कैब ही बुलायी जा सकती है। स्टेशन तो यहाँ से काफ़ी दूर है। धूप में वहाँ तक पैदल जाना ठीक नहीं है। आप कैब यहीं बुला लीजिए।”

भद्र महिला की बात सुनकर उसके दिमाग़ में तुरंत ही आया कि, इतनी मामूली-सी बात उसके दिमाग़ में क्यों नहीं आई। वह ऐसा क्यों नहीं सोच पाई। उसे चुप देख कर महिला ने पूछा, “क्या बात है, आप क्या सोच रही हैं?” 

महिला के प्रश्न से वह थोड़ा चौंक सी गई, लेकिन फिर तुरंत ही अपने को सँभालती हुई बोली, “जी आप ठीक कह रही हैं, कैब ही बुलानी पड़ेगी। आपको किधर जाना है?” 

महिला ने जो स्थान बताया उसे सुनकर उसने कहा, “आपको तो अपोज़िट साइड में जाना है।”

“हाँ, बस दस मिनट की दूरी है।”

महिला बड़ी अनुभवी दिख रही थी, बात करती हुई वह लगातार उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयास कर रही थी। उसने आख़िर पूछ लिया, “आप बहुत परेशान सी दिख रही हैं, आँखों में आँसू भी हैं, क्या कोई बड़ी समस्या है।”

यह सुनते ही उसने ज़बरदस्ती चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा, “नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। बस तेज़ धूप से परेशान हो गई हूँ। पसीना आँखों में चला गया, इसीलिए आँसू आ गए।” 

इसी बीच उसने कैब बुक किया। जब-तक कैब आई नहीं, वह महिला उससे बातें करती रही, उसे छाते की छाया में लिए रही, कैब के आते ही पानी की बोतल फिर से उसे पकड़ाती हुई बोली, “आप पानी और पी लीजिए।”

 उसने कहा, “आपको भी ज़रूरत पड़ेगी।”

“नहीं, मैं तो दस मिनट में पहुँच जाऊँगी।”

उसने एक बार फिर से पानी पीकर उसे धन्यवाद दिया और स्टेशन की तरफ़ चल दी। स्टेशन पहुँच कर वह बड़े असमंजस में इधर से उधर कुछ देर टहलती रही। वापसी की ट्रेन क़रीब चार घंटे बाद थी। उसने प्लैटफ़ॉर्म टिकट लिया और एक सीट पर बैठ गई। कोई ट्रेन आने वाली थी। पैसेंजर अपने-अपने सामान के साथ ट्रैक से थोड़ा पहले खड़े थे। सभी बार-बार जिस तरफ़ से ट्रेन आने वाली थी, उसी ओर देख रहे थे। 

मिनट भर भी न बीता होगा कि, भारतीय रेलवे के आमूल-चूल परिवर्तन, आधुनिक टेक्नॉलोजी की प्रतीक ‘वंदे-भारत’ ट्रेन आ गई। जिसे वह देखती रही। जल्दी-जल्दी सभी यात्री बैठे और वह दो मिनट में फर्राटा भरती हुई चली गई। यात्रियों से भरे प्लैटफ़ॉर्म पर जो एक हलचल सी थी, वह क़रीब-क़रीब सन्नाटे में परिवर्तित हो गई। 

लेकिन उसके दिमाग़ में हलचल बहुत बढ़ गई। वह अपनी हालत उसी ख़ाली हो चुके सन्नाटे से भरे प्लैटफ़ॉर्म की तरह पा रही थी, जहाँ कुछ समय पहले तक लोग ही लोग थे, हर तरफ़ हलचल थी, लेकिन ट्रेन आई, सबको लेकर चल दी, पीछे सन्नाटा छोड़ गई। उसे अब आँखों के सामने बार-बार घर के गेट पर लगी नाम वाली शिला-पट्टिका दिख रही थी। जिसमें से उसका नाम घृणा-पूर्वक हटाया गया था। 

उसकी आँखें फिर भर आईं। बीती बातें याद आने लगीं। सब-कुछ बड़े सिलसिलेवार ढंग से। उसे बड़ा पछतावा होने लगा, अपने उस निर्णय और काम पर जिसके कारण आज दुनिया में वह हर तरफ़ से अकेली है। शिला-पट्टिका से उसके नाम को उसके माँ-बाप ने ही मिटा दिया। बरसों पहले का वह दृश्य भी उसकी आँखों के सामने चल पड़ा, जब घर के गेट तक उसके माँ-बाप, छोटा भाई और बहनें छोड़ने आए थे। सभी की आँखें नम थीं। 

वह जब माँ से गले मिली थी तो माँ बहुत भावुक हो गई थी, और उसके चेहरे को दोनों हाथों से पकड़ते हुए कहा था, “बेटा अपना ख़ूब ध्यान रखना। किसी अपरिचित से कोई बातचीत नहीं करना। ऑफ़िस के बाद ज़्यादा देर तक इधर-उधर नहीं जाना।” पापा ने भी ऐसा ही समझाया था। नोएडा पहुँच कर उसने बहुत ख़ुशी-ख़ुशी अपनी नौकरी ज्वाइन की थी। उसे वहाँ पूरा ऑफ़िस वर्क-लोड के बोझ से झुका हुआ दिखा। 

पहले ही दिन वह भी वर्क-लोड के बोझ तले दबा दी गई। जब क़रीब नौ बजे वह थोड़ी ही दूर पर अपनी मौसी के यहाँ पहुँची तो थक कर बिल्कुल चूर हो चुकी थी। खाना वग़ैरह खाकर उसने घर पर सभी से बात की और बेड पर लेटते ही बेसुध होकर सो गई। उसकी यही दिनचर्या हो गई। सुबह उठते ही ऑफ़िस की तैयारी करना, फिर आठ-दस घंटे काम करके घर पहुँचना और सो जाना। 

वैसे तो उसके रिश्तेदार बहुत अच्छे थे, उसके खाने-पीने, चाय-नाश्ता का पूरा ध्यान रखते थे। लेकिन उसने महसूस किया कि, वह घर में अपनी ही तरह से रहने की जो आज़ादी चाहती है, वह अपने ही घर में मिल पाएगी। तो वह आठ-दस दिन के अंदर ही एक दूसरी जगह पर पेइंग-गेस्ट बनकर रहने लगी। 

ऑफ़िस से पहले दिन पेइंग-गेस्ट हॉउस पहुँच कर उसे लगा कि जैसे वह बरसों बाद किसी क़ैद से बाहर आई है। संयोग से अगले दिन रविवार की छुट्टी थी। वह देर से सोकर नौ बजे उठी। रिश्तेदार के यहाँ संकोच में जल्दी ही उठना पड़ता था। 

एक महीने बाद पहली सैलरी मिलने पर उसने अपने लिए कुछ ज़रूरी चीज़ें ली थीं। उसके बाद माँ-बाप, भाई-बहनों के लिए ऑन-लाइन गिफ़्ट बुक किए थे। फोन पर सभी से बहुत देर तक बातें की थीं। माँ-बाप ने ख़ूब आशीर्वाद देते हुए कहा था, “बेटा बहुत ध्यान रखना, अकेली रह रही हो।” माँ बहुत भावुक हो रही थी। कहा, “बेटा आस-पास कोई मंदिर हो तो भगवान के दर्शन करके प्रसाद चढ़ा देना। कमरे में भी भगवान की फोटो रख लो, घर से निकलते समय उन्हें प्रणाम करके ही निकला करो और आने पर भी प्रणाम किया करो। ईश्वर को सदैव मन में बसा के रखो, इससे तुम्हें बहुत एनर्जी मिलेगी, हमेशा तुम सही रास्ते पर आगे बढ़ती रहोगी।”

उसने माँ की शिक्षा का पूरा ध्यान रखा, बोली, “अम्मा आप सही कह रही हैं। मैंने भगवान की एक छोटी-सी फोटो रखी हुई है, कितनी भी देर हो रही हो, ईश्वर को प्रणाम करके ही निकलती हूँ और आकर भी करती हूँ, आप घर पर यह सब करवाती थीं, यह तो आदत में है, कैसे भूल सकती हूँ।”

माँ ने पूछा, “तुम्हारे ऑफ़िस में सब लोग कैसे हैं?” 

उसने कहा, “अम्मा वहाँ किसी को सिर उठाकर बात करने की भी फ़ुर्सत नहीं रहती और छुट्टी होते ही सभी घर की तरफ़ भागते हैं। मिलने पर बस हाय हैलो हो जाती है। अभी कोई फ़्रेंड नहीं बनी है। यहाँ पर कोई किसी से ज़्यादा मिक्सअप नहीं होता।”

तो माँ ने कहा, “ठीक है बेटा, किसी की ज़्यादा ज़रूरत भी नहीं है। पास में मौसी रहती ही हैं, कोई ज़रूरत पड़ने पर उनके पास चली जाना। छुट्टियों में उनके पास थोड़ी देर को चली जाया करो।”

“ठीक है माँँ, ऐसा ही करूँगी।”

बात ख़त्म होने के बाद उसने सोचा आने के बाद से कहीं घूमने-फिरने भी नहीं जा पायी। आज छुट्टी है, थोड़ा घूम लेती हूँ। उसने पहले मोबाइल पर आसपास ऐसी कौन सी जगह है, जहाँ पर घूमने जाना अच्छा रहेगा, उसे सर्च किया। जब गई तो घूमते हुए महसूस किया कि, घूमने-फिरने का मज़ा अकेले में नहीं है। उसे बार-बार भाई-बहनों, माँ-बाप की याद आती रही। 

दोपहर में उसने खाना भी एक रेस्टोरेंट में खाया। पेइंग-गेस्ट का एक-सा खाना खाते-खाते ऊब चुकी थी। खाना खाते समय ही उसके पास ऑफ़िस में साथ काम करने वाली निखत खान का फोन आ गया, हाय हैलो के बाद उसने पूछा, “आज छुट्टी में तुम क्या कर रही हो? क्या मेरे साथ कहीं घूमने चल सकती हो, वर्किंग-डे में तो कहीं निकलने का समय ही नहीं रहता।”

उसे तुरंत ही याद आया कि यह वही लड़की है, जिससे ऑफ़िस के तक़रीबन सभी लोग दूर ही रहना पसंद करते हैं। क्योंकि वो जब भी बातचीत करती है तो बस अल्लाह ऐसा है, अल्लाह वैसा है, एक वही है जो सब-कुछ करता है, जानता है। जो उसके सामने सज्दा करता है, वह उसे दुनिया की दौलत, सारी ख़ुशियाँ देता है। 

हमेशा बुर्क़े में रहती है, आँखों के सिवा और कुछ भी दिखता नहीं। सभी कहते हैं कि, उसकी आँखों से ही कनिंगनेस टपकती है। एक नेता की सिफ़ारिश पर उसे नौकरी मिली है। वह नेता देश में एक कट्टर जिहादी नेता के रूप में जाना जाता है, उसे सोशल मीडिया पर लोग मीडिया चाइल्ड कहते हैं। कहते हैं इस हैदराबादी गली के लफ़ंगे को मीडिया ने राष्ट्रीय नेता बना रखा है। यह देश में आज के समय का देश विभाजक जिन्ना है। 

उसने क्षण-भर सोच कर कहा, “मैं काम में बिज़ी हूँ। सॉरी मैं नहीं चल सकती।”

उसने सोचा मैंने तो यहाँ किसी को अपना नंबर दिया नहीं, इसे मेरा नंबर कैसे मिला। तुरंत ही उसने पूछा, “आपको मेरा नंबर कहाँ से मिला?” 

निखत बोली, “अरे यह कोई बड़ी बात नहीं है।”

“फिर भी बताइए न, मैंने तो आपको या किसी को भी नंबर नहीं दिया, फिर आपने कैसे जान लिया?” 

यह सुनकर निखत ने बड़े प्यार से हँसते हुए कहा, “मुझे तुम बहुत प्यारी लगती हो, मैं तुमसे दोस्ती करना चाहती हूँ, मगर ऑफ़िस में एक बार भी ऐसा मौक़ा नहीं मिला कि मैं तुमसे बात करती, तुम्हारा नंबर माँगती। तुम्हारी ही तरह एच.आर. डिपार्टमेंट में मेरी प्यारी सी एक फ़्रेंड है, उससे मैंने रिक्वेस्ट की, पहले तो उसने मना कर दिया, लेकिन जब कई बार कहा तो उसने नंबर दे दिया।”

उसे लगा कि एच.आर. डिपार्टमेंट के लोगों को किसी की पर्सनल जानकारी इस तरह किसी और को देने का अधिकार नहीं है, यह बिल्कुल ग़लत है। उसने उस कर्मचारी का नाम पूछा, तो निखत ने कहा, “प्लीज़ नाराज़ नहीं हो, मैं उसका नाम नहीं बता सकती, क्योंकि उसने इसी शर्त पर नंबर दिया कि, मैं उसका नाम डिस्क्लोज़ नहीं करूँगी।”

उसने फिर कहा, “लेकिन मैं कुछ कहने नहीं जा रही हूँ, मैं तो सिर्फ़ उसका नाम जानना चाहती हूँ।”

उसने कई बार कहा लेकिन निखत ने हर बार बड़ी ख़ूबसूरती से मना कर दिया, तो उसने बातचीत भी उतनी ही ख़ूबसूरती से बंद कर दी। अगले दिन निखत ने ऑफ़िस में लंच टाइम में उससे बातचीत करने की कोशिश की। लेकिन उसने मना कर दिया। उसने साफ़ कहा, “जब-तक आप मेरा नंबर देने वाली का नाम और उसका नंबर भी नहीं बताएँगी, तब-तक मुझे आपसे बात नहीं करनी। यह तो सीधे से चीटिंग है। और दोस्ती करने का यह कोई रीज़न भी नहीं है कि, बहुत प्यारी लगती हूँ तो आप दोस्ती करेंगी। मुझे भी दुनिया में बहुत से लोग प्यारे लगते हैं, तो क्या सभी से फ़्रेंडशिप कर लूँ।”

उसने उसके बुर्क़े की ओर संकेत करते हुए आगे कहा, “सबसे बड़ी बात तो यह कि जिसे मैं पहचानती ही नहीं, उससे फ़्रेंडशिप कैसे कर लूँ।”

यह सुनकर निखत हँसती हुई बोली, “कैसी बात कर रही हो, हम लोग इतने दिनों से साथ काम कर रहे हैं।”

तो उसने कहा, “काम ज़रूर कर रहे हैं, लेकिन मैंने आपको कभी देखा ही नहीं, आप हमेशा बुर्क़े में छुपी रहती हैं। मैं आपसे फ़्रेंडशिप कर लूँ और कोई मुझसे पूछे कि, आपकी फ़्रेंड कैसी है, तो क्या मैं उससे यह कहूँगी कि हाँ, मेरी फ़्रेंड तो है, लेकिन मैं उसे पहचानती नहीं, वह हमेशा बुर्क़े में छुपी रहती है। और मैं क्या, कोई ज़रा भी समझदार आदमी होगा तो वह किसी छुपे हुए व्यक्ति से फ़्रेंडशिप नहीं करेगा। सॉरी।” 

उसकी बात पूरी होते ही निखत ने पहले दाएँ-बाएँ देखा और फिर अपना हिजाब हटा दिया और बोली, “ध्यान से देख लो, अब तो मैं छिपी हुई नहीं हूँ। क्या अब भी मुझसे फ़्रेंडशिप नहीं करोगी।” 

वह एकटक उसकी आँखों में देखती रही। उसने देखा व्हीटिश कलर का एक औसत-सा चेहरा, जिसकी आँखों में ही नहीं, मुस्कुराहट में भी वाक़ई कनिंगनेस भरी हुई है। और साथ ही आँसू भी दिख रहे हैं। उसके लाख प्रयासों के बावजूद यह बात छिप नहीं पा रही थी कि, बड़ी कोशिश करके आँखें भरी गई हैं। जल्दी ही उसने चेहरे को हिजाब से ढँकते हुए कहा कि “अब मैं ख़ुश होऊँ कि आप मेरी फ़्रेंड बन गई हैं।”

उसने कहा, “नंबर किसने दिया, उसका नंबर क्या है? आपने यह अभी तक नहीं बताया, इसलिए फ़्रेंडशिप के बारे में मैं अब भी नहीं सोच सकती।”

यह सुनते ही निखत ने एक गहरी साँस लेकर कहा, “ठीक है, मैं बताती हूँ, लेकिन आपको भी एक प्रॉमिस करना पड़ेगा कि, उससे कोई झगड़ा नहीं करेंगी। वह मेरी ही नहीं आपकी भी फ़्रेंड हो जाएगी।”

उसने कहा, “मैं कोई प्रॉमिस नहीं करूँगी। आप बताएँ या न बताएँ।” उसकी आवाज़ में नाराज़गी का पुट आ गया था। उसने मन ही मन सोचा, समझ में नहीं आ रहा है यह फ़्रेंडशिप के पीछे इतना क्यों पड़ी हुई है। साथ काम करने का मतलब फ़्रेंडशिप भी हो यह ज़रूरी तो नहीं। उसने आवाज़ में थोड़ी नम्रता लाते हुए आगे कहा, “न ही मैं आपको जानती हूँ, न ही आपकी फ़्रेंड को, आख़िर क्या मतलब है ऐसी फ़्रेंडशिप पर इतना ज़ोर देने का।”

यह सुनकर निखत हँसती हुई बोली, “प्यारी फ़्रेंड, यही तो मैं कह रही हूँ कि, मैं अपने बारे में बताती हूँ, आप अपने बारे में बताइए और इस तरह हम परिचित हो जाएँगे, हमारी फ़्रेंडशिप हो जाएगी और फिर हम बहुत अच्छे फ़्रेंड बन जाएँगे। सारे फ़्रेंड, फ़्रेंड बनने से पहले अपरिचित ही होते हैं।”

यह सुनते ही उसने सोचा, ओह यह तो बिल्कुल गले ही पड़ गई है। इतना ज़्यादा पीछे पड़ने का मतलब क्या है? यह सब जाने बिना इससे फ़्रेंडशिप वग़ैरह बेकार की बातें हैं। जब मेरा मन ही नहीं है तो फ़्रेंडशिप हो ही कैसे सकती है। 

इसी बीच लंच टाइम ख़त्म हो गया, वह सॉरी बोल कर अपनी सीट पर चली गई। शाम को छुट्टी में भी वह उसके पीछे पड़ गई। जिसने उसे नंबर दिया था, उसने उसका नाम और नंबर भी उसे बता दिया। बोली, “खुदेजा खान तुम्हारी ही तरह बहुत-बहुत प्यारी है। तुम उससे बात करोगी तो तुम्हें बहुत ख़ुशी होगी।”

नंबर लेकर उसने किसी तरह उससे पीछा छुड़ाया और घर आ गई। नौ बजने वाले थे। उसने कपड़े वग़ैरह चेंज करके घर फोन किया। पेरेंट्स, भाई-बहनों से बात की। पेरेंट्स को सारी बात बताई तो फ़ादर ने कहा, “जब सभी लोग उससे दूर रहना पसंद करते हैं तो ज़रूर कोई बात होगी। तुम्हें नया समझ कर एकदम पीछे पड़ी हुई है, इसके पीछे कोई कारण ज़रूर होगा। एच.आर. से नंबर लेना, बिल्कुल पीछे पड़ना बहुत संदेह पैदा कर रहा है। उसकी हरकतें ठीक नहीं लग रही हैं, तुम उससे दूर ही रहो और एलर्ट भी।”

पेरेंट्स ने कई और सावधानियाँ बरतने को कहीं। वह बातचीत के बाद खाना खाकर मोबाइल देखने लगी। एक बार उसका मन हुआ कि खुदेजा को फोन करे, उससे कहे कि तुमने मेरी पर्सनल चीज़ें किसी और से क्यों शेयर की। मैं तुम्हारी शिकायत एच.आर. मैनेजर से करूँगी। लेकिन फिर पता नहीं क्या सोच कर रुक गई। 

फ़्रेंडशिप के लिए उसकी बार-बार की न, निखत के प्रयासों से आख़िर हाँ में बदल गई। देखते ही देखते उसकी और खुदेजा की बेस्ट फ़्रेंड बन गई। इतनी क़रीब हो गई कि मौक़ा मिलते ही बात होने लगती। मगर उन दोनों से फ़्रेंडशिप का एक और असर भी हुआ, ऑफ़िस के जो लोग पहले उससे बात करते थे, उन्होंने उससे किनारा कर लिया, बिल्कुल वैसा ही जैसा निखत से किया हुआ था। 

लेकिन वह निखत और खुदेजा की फ़्रेंडशिप में इतने गहरे उतर गई कि उसका ध्यान भी इस तरफ़ नहीं गया। वह अपने पेरेंट्स भाई-बहनों से भी अपनी इन दोनों फ़्रेंड की प्रशंसा करते नहीं थकती। घरवालों को समझाया कि पहले इन्हें ठीक से समझ नहीं पाई थी। उन दोनों के घर जाने लगी। वह दोनों उसके यहाँ आने लगीं। 

एक दिन वह उनके साथ किसी पार्क में बैठी आइसक्रीम खा रही थी कि तभी निखत ने कहा, “कितना सुंदर पार्क है और मौसम भी। जानती हो यह सब अल्लाह का बनाया हुआ है, वह ग्रेट है। यह आसमान, मैं, तुम, सब उसी की देन हैं। हमें हमेशा उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हमेशा उनके सामने सज्दा करना चाहिए, उनसे ख़ौफ़ खाना चाहिए। 

“अपना सब-कुछ उन पर क़ुर्बान कर देना चाहिए। जो लोग ऐसा नहीं करते, अल्लाह का क़हर उन पर टूट पड़ता है। उन्हें दोज़ख में डाल दिया जाता है। और जो अल्लाह की बात मानता है, वह उस पर मेहरबान हो जाते हैं, दुनिया की सारी ख़ुशियाँ उसके दामन में भर देते हैं। बहुत जल्दी ही यह पूरी दुनिया अल्लाह को मानने वालों की होगी।” 

वह ऐसी ही तमाम बातें कहती चली जा रही थी। उसने जब देखा कि वह ध्यान से नहीं सुन रही है तो भीतर ही भीतर कुछ नाराज़ भी हुई, लेकिन भाव चेहरे पर नहीं आने दिया, और बहुत ही पोलाइटली कहा, “अरे तुम तो आइसक्रीम ही खाने में लगी हो। मैं इतनी इंपॉर्टेंट, इतनी मुक़द्दस बातें तुम्हें बता रही हूँ। हमें इस आइसक्रीम के लिए भी अल्लाहता'ला को तहेदिल से शुक्रिया कहना चाहिए।”

निखत की बातें उसे कुछ अखर गईं। उसने कहा, “निखत मैं ईश्वर को सदैव याद रखती हूँ। हमेशा उनकी पूजा करती हूँ। खाना अपने ईश्वर को स्मरण करने के बाद ही खाती हूँ, खाने के बाद उन्हें धन्यवाद कहती हूँ। मेरे परिवार में भी सभी लोग ऐसा ही करते हैं।”

निखत बोली, “लेकिन मैं अल्लाहता'ला की बात कर रही हूँ। देखो तुम इंटेलिजेंट हो, समझने की कोशिश करो, अल्लाह के सिवा कोई और ऐसा नहीं है जिसकी इबादत की जाए। एक वही इबादत के क़ाबिल है, एक वही सच्चा है। तुम लोग जो करोड़ों देवी-देवताओं, पत्थरों, पेड़ों, नदियों, आकाश, पाताल, सितारों की पूजा करती हो, यह सब गुनाह है। अल्लाहता'ला इससे सख़्त ख़फ़ा होते हैं। मैं तुम्हारी बेस्ट फ़्रेंड हूँ, तुम्हें अल्लाह के क़हर से बचाना चाहती हूँ। 

“इसलिए तुम्हें ऐसी सारी चीज़ों से तौबा कर लेनी चाहिए, जिससे अल्लाह खफ़ा होते हैं। तुम्हें मूर्तियों की पूजा बंद कर देनी चाहिए, बुर्क़े में रहना चाहिए। कभी भी हिजाब के बिना बाहर नहीं आना चाहिए। बुर्क़ा हम इस्लाम मानने वाली महिलाओं का सबसे बड़ा, सबसे सुंदर गहना है। करोड़ों देवी-देवताओं की पूजा करके तुमने अब-तक जो ढेर सारे गुनाह किए हैं, उसे तुम जैसे ही इस्लाम क़ुबूल करोगी, अँधेरे से रोशनी में आओगी, अल्लाहता'ला तुम्हारे सारे गुनाहों को पलक झपकते ही माफ़ कर देगा, वह बहुत ही रहम-दिल हैं।”

निखत की यह बातें सुनते-सुनते उसके चेहरे के भाव कुछ ज़्यादा ही बदल गए। उसकी आइसक्रीम भी ख़त्म हो गई थी। उसने कहा, “क्या यार तुम तो जिहादी मुल्ला मौलवियों की तरह बात करने लगती हो। रहते-रहते तुम्हें हो क्या जाता है कि जब देखो तब मुझे अपने मज़हब के बारे में बताने लगती हो। आइसक्रीम कितनी अच्छी थी, मौसम कितना बढ़िया है, देखो पार्क में लोग किस तरह एंजॉय कर रहे हैं, और तुम हो कि मज़हब मज़हब कर रही हो। तुम फ़्रेंड हो या अपने मज़हब की प्रचारक हो, ब्रेन-वॉश टूल हो।”

निखत को लगा कि वह नाराज़ हो गई है तो तुरंत ही अपनी भाव-भंगिमा, आवाज़ में और मिश्री घोलती हुई बोली, “अरे मेरी प्यारी फ़्रेंड तुम तो नाराज़ हो गई। ये जितने लोग तुम्हें अल्लाह को भूलकर एन्जॉय करते हुए दिख रहे हैं, ये यह नहीं समझ रहे हैं कि, यह लोग कितना बड़ा गुनाह कर रहे हैं, इन्हें निश्चित ही दोज़ख मिलेगी। तुम क्योंकि मेरी सबसे प्यारी फ़्रेंड हो, इसलिए मैं तुम्हें अल्लाह के क़हर से बचाना चाहती हूँ।”

यह बातें उसे चुभ गईं। उसने कहा, “ओफ़्फ़ो, देखो निखत मेरा सनातन धर्म, मेरा भगवान ही मेरा सब-कुछ है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड उसी का बनाया है। एक समय इस पृथ्वी पर सभी सनातनी ही थे, क्योंकि दुनिया का पहला धर्म सनातन है। और पृथ्वी के सभी लोग इसे ही मानते थे। इसलिए आज जो सनातनी नहीं हैं, वह भी एक्स सनातनी ही हैं। आज भी पृथ्वी पर एकमात्र धर्म सनातन ही है, बाक़ी सभी तो मज़हब हैं। इसलिए इसकी किसी से तुलना ही नहीं हो सकती। जब दुनिया का प्राचीनतम, श्रेष्ठतम, एकमात्र धर्म, सनातन धर्म मेरा है तो मुझे कुछ और सुनने, जानने, समझने की आवश्यकता ही क्या है?” 

उसने इतनी दृढ़ता, आत्म-विश्वास के साथ यह बात कही कि, निखत कुछ क्षण उसे अवाक् देखती रही, फिर बोली, “अरे यह क्या बात हुई। धर्म और मज़हब एक ही बात है। तुम कंफ्यूज़्ड हो। अल्लाह के बताए रास्ते पर आकर सही बातों को जान जाओगी।” 

“छोड़ो भी निखत, मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ। पूरी दुनिया सनातन को आदि और एकमात्र धर्म मानती है। तुम्हें धर्म मज़हब का अंतर नहीं पता इसी लिए तुम कन्फ्यूज़ हो, मैं जानती हूँ, इसलिए बिल्कुल भी कन्फ्यूज़ नहीं हूँ। मेरे पेरेंट्स, मेरे घर में आने वाले, हमारे घर के गुरुजी ने हमें बचपन से ही ऐसी सारी बातें बताई हैं। 

“धर्म मज़हब का अंतर भी, कि धर्म और मज़हब विपरीत बातें हैं। धर्म क्रियात्मक बात, सिद्धांत या वस्तु है और मज़हब पूरी तरह से विश्वास की बात है। सनातन धर्म पूरी तरह से वैज्ञानिक है, शोध पर केंद्रित है। वहाँ अंधविश्वास को कोई स्थान नहीं है। एकमात्र यही धर्म है, जिसमें वैदिक गणित भी है, वैदिक साइंस भी है। इसने जो जो बातें कहीं आज विज्ञान भी उसे सही मान रहा है

“शून्य से लेकर विस्तृत चिकित्सा शास्त्र सनातन धर्म का हिस्सा हैं। अब तो पश्चिमी विद्वानों ने भी यह मान लिया है कि शल्य चिकित्सा हो या चिकित्सा की अन्य विधाएँ, चरक और सुश्रुत संहिता में सभी का विस्तृत वर्णन है। प्लास्टिक सर्जरी जैसी जटिल बातें, विधियाँ इन ग्रंथों ने क़रीब तीन हज़ार साल पहले ही तब बता दी थीं, जब दुनियाँ में इस्लाम छोड़ो, ईसाई धर्म भी अस्तित्व में नहीं आया था। 

“वैदिक ग्रंथों में ही बताया गया है कि सारे ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं। मंगल ग्रह भी कभी पृथ्वी का हिस्सा था। ज्योतिष शास्त्र के ज़रिये ज्योतिषी भविष्य में सैकड़ों हज़ारों वर्ष बाद सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण कब-कब पड़ेगा या बीते सैकड़ों हज़ारों वर्ष पूर्व कब-कब पड़ा था, गणना कर के या पंचांग देख के मिनटों में बता देते हैं, जब कि चौंसठ-पैंसठ साल पहले बनी अमेरिका की नासा को भी यह बताने में समय लगता है। 

“ईसाई अपना कैलेण्डर मात्र दो हज़ार तेईस साल पहले बना पाए, तुम्हारा इस्लामी कैलेण्डर चौदह सौ चौवालीस साल पहले बन पाया जब कि हम सनातनियों का कैलेण्डर ब्रह्मसंवत आज एक अरब सत्तानवे करोड़ चालीस लाख उन्तीस हज़ार एक सौ चौबीस वर्ष की गणना बता रहा है। 

“परमाणु बम, रॉकेट साइंस का जिन्हें जनक माना जाता है, वह वैज्ञानिक भी अपनी किताबों में लिख गए हैं कि ज्ञान के लिए वो वेदों, उपनिषदों को पढ़ते थे, ये विज्ञान का भंडार हैं। 

“ऐसे सनातन धर्म, संस्कृति, विज्ञान वाले सनातन देश को रेगिस्तान के क़बीलों से आने वाले अपनी अधूरी अधकचरी भाषा, ज्ञान के कारण सिंधु को हिंदू-हिंदू कहने लगे और यह प्रचलन में आ गया। पूरी पृथ्वी पर सनातन ही था इसका बड़ा प्रमाण तो यह है कि आज भी दुनिया में जहाँ भी खुदाई होती है तो सनातन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ निकलती हैं। सऊदी अरब, मिस्र, ईराक़, ईरान, तुर्की, चीन, रूस आदि तमाम देशों में यह सब निकल चुका है। 

“दुनिया में यही एकमात्र धर्म है जिसमें स्त्री-पुरुष तो क्या प्राणी मात्र से कोई भेद-भाव नहीं किया गया है। आदि काल में ही ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया, उसी पर चला। तुम्हारे इस्लाम को अरब से बाहर मस्जिद के लिए कहीं किसी ने जगह नहीं दी तो इस सनातन देश ने ही पहली मस्जिद बनाने की जगह दी, बनवाई भी, जो आज भी केरल के कोडंगलूर में चेरामन जुमा मस्जिद के नाम से है। 

“इस्लाम को तो इसके लिए इस सनातन देश, सनातनियों का सदैव ऋणी होना चाहिए, धन्यवाद करना चाहिए। लेकिन दुःखद यह है कि इस्लाम के माननेवालों ने खड़े होने, बैठने की जगह मिलने, व्यवस्थित होने के बाद सनातनियों, सनातन देश पर ही हमले शुरू कर दिए, देश के टुकड़े कर दिए, हमले आज भी जारी हैं। मुझे तुम जो समझाने का प्रयास कर रही हो, यह राष्ट्रांतरण की रणनीति का ही एक हिस्सा है। 

“तुम स्त्रियों की बात कर रही हो तो यह भी बता दूँ कि हमारे यहाँ स्त्री को देवी माना गया है। उनकी पूजा तक होती है, जबकि तुम्हारे यहाँ तो स्त्रियों को दोयम दर्जे का और मर्दों की खेती कहा गया है। मर्दों को सारी आज़ादी है और स्त्रियों को बुर्क़े और पर्दे के पीछे अँधेरे में रखते हैं। पृथ्वी को चपटी बताते हैं। 

“सारे मज़हब एक यही बात कहते हैं कि, जो उनकी बातों को मानता है वही सही है, बाक़ी सब ग़लत लेकिन सनातन धर्म कहता है सभी को अपने हिसाब से विचार रखने मानने का अधिकार है . . .”

वह ऐसे बोलती चली जा रही थी, जैसे बहुत दिन से भरी बैठी थी और उसे छेड़ दिया गया। निखत और खुदेजा ने कल्पना भी नहीं की थी कि वह इतना कुछ जानती ही नहीं बल्कि बोलेगी भी। दोनों अंदर ही अंदर खौलने लगी थीं। लेकिन ऊपर से बिल्कुल नॉर्मल दिखने का प्रयास करती हुई उसकी बातों को ऐसे समझती सुनती रहीं, जैसे उन्हें बहुत अच्छी लग रही हैं। लेकिन अंततः माहौल कुछ तनावपूर्ण सा होने लगा। डोर कहीं हाथ से छूट न जाए इसलिए निखत ने बड़ी चालाकी से कहा, “सुनो बड़ी भारी-भारी बातें हो गई हैं, चलो एक-एक आइसक्रीम और खाते हैं।”

लेकिन उसका मन उखड़ चुका था, बार-बार कहने पर भी, कुछ भी खाने को तैयार नहीं हुई। जब तीनों अपने घरों को चलीं तो फिर से आपस में ऐसे बातें करने लगीं जैसे कि कुछ देर पहले तक तनाव जैसी कोई बात थी ही नहीं, जबकि भीतर ही भीतर तनाव में तीनों थीं। 

उस दिन अपने घर फोन पर बातें करते समय उसने पेरंट्स से सारी बातें बताईं, पिता ने कहा, “तुम केवल अपने काम से मतलब रखो, ऑफ़िस के बाक़ी लोग जैसे उनसे दूर रहते हैं तुम भी अलग रहो। ऐसे धर्मान्धियों से बहस करने की ज़रूरत नहीं है।”

उसे भी लगा कि निखत, खुदेजा से फ़्रेंडशिप करके ग़लती की। दोनों की हरकतें बहुत डाउटफ़ुल हैं। ऑफ़िस में सभी लोगों के बीच ग़लत मैसेज अलग कन्वे हुआ। सभी ने मुझसे भी उतना ही बड़ा गैप बना लिया है, जितना उन दोनों से बनाया हुआ है। मुझे अब इन सारी चीज़ों को बदलना पड़ेगा। भले ही समय लगे, लेकिन यह ज़रूरी है। नहीं तो इस तरह की बहस किसी दिन बड़ी प्रॉब्लम खड़ी कर देगी। 

उसकी बार-बार की कोशिश को निखत, खुदेजा की रहस्यमयी मुस्कानें, बटर कोटेड बातें बार-बार कमज़ोर करती रहीं। ऐसे ही एक दिन निखत ने अपने एक और बेस्ट फ़्रेंड जयंत अवस्थी से उसे परिचित कराया। निखत की तरह ही जयंत भी बहुत जल्दी ही उसके बहुत क़रीब आ गया। उसकी सनातनी धर्म से प्रभावित लाइफ-स्टाइल उसके ऊपर बड़ी तेज़ी से हावी होती चली गई। 

उसे बार-बार महसूस होता कि यह तो उन्हीं बातों विचारों को मानता, आचरण में लाता है जिसे वह मानती है। उसकी इस सोच के चलते नज़दीकियाँ इतनी तेज़ी से बढ़ीं कि वह जयंत के साथ लिव इन में रहने लगी। जैसे-जैसे जयंत क़रीब आया निखत खुदेजा से गैप बढ़ता गया। ऑफ़िस में भी लोगों ने उसके इस गैप को देखा, महसूस किया। 

लिव-इन में रहते हुए कुछ दिन ही बीते थे कि एक दिन उसकी माँ ने फोन पर एक-दो दिन की छुट्टी लेकर घर आने के लिए कहा, तो वह बोली, “अम्मा वर्क-लोड बहुत है, छुट्टी मिल पाना मुश्किल है, क्या काम है बताओ न?” उसके बार-बार कहने पर माँ ने बताया कि, एक जगह उसकी शादी की बात चल रही है। लड़के की फोटो भेज रही हूँ, देख कर बताओ तुम्हें पसंद है या नहीं, लड़के को तुम्हारी फोटो पसंद है। तुम्हें देखने आना चाहते हैं।”

यह सुनते ही उसने कहा, “अम्मा इतनी जल्दी मैं शादी नहीं करूँगी। अभी नौकरी करते हुए एक साल भी नहीं हुआ है। मुझे ठीक से अपना कैरियर बना लेने दीजिए।”

माँ ने समझाने की बड़ी कोशिश की, कि बेटा लड़का और परिवार अच्छा मिल गया है, इस तरह मना करना अच्छा नहीं है। अच्छा संयोग बार-बार नहीं आता। लेकिन वह जयंत से अलग होने की सोच कर ही विचलित हो उठती इसलिए अपनी ज़िद पर अड़ी रही। पिता जी ने भी समझाने की कोशिश की लेकिन वह भी असफल रहे। यह सब कई दिन चला। 

फिर एक दिन माँ ने कहा, “देखो बेटा, तुम्हारे भले के लिए ही कह रही हूँ। तुम्हारी दोनों बहनों की समय से शादी हो गई, दोनों अपने नन्हे-मुन्ने बच्चों के साथ कितना ख़ुश हैं यह तुम भी जानती हो। समय से शादी, बच्चे हो जाना अच्छे ख़ुशहाल जीवन के लिए ज़रूरी है। शादी कर लेने से कैरियर थोड़ी न बर्बाद हो जाता है।”

लेकिन वह फिर भी नहीं मानी क्योंकि वह जयंत को जीवनसाथी मान चुकी थी, उसे छोड़ना उसके लिए असंभव था। बातों के बीच ही उसने सोचा कि जयंत के बारे में बता देना ही ठीक रहेगा। उनसे कहती हूँ कि जयंत भी बहुत अच्छा है। बीस बिसवा का सरयूपारी ब्राह्मण है, बस उसका रंग मुझसे थोड़ा दबा हुआ है। उसका साँवला रंग मुझे बहुत ख़ूबसूरत लगता है। बाक़ी सब ठीक है। यह सोचते ही उसने उसी दिन जयंत से सारी बातें बता कर कहा, “अब हमें शादी कर लेनी चाहिए। मैं पेरेंट्स को ज़्यादा दिन तक वेट नहीं करा सकती।”

लेकिन वह बड़े आश्चर्य में पड़ गई कि शादी का नाम सुनते ही जयंत के चेहरे की रंगत ही बदल गई। बातों को दोहराने पर उसने कहा, “रुको, शादी की इतनी भी क्या जल्दी है। आजकल कहीं कोई इतनी जल्दी शादी करता है। अपने पेरेंट्स को समझाओ। फिर मुझे भी तो अपने पेरेंट्स से बात करनी पड़ेगी। वो लोग भी परम्परावादी हैं।” 

जल्दी ही शादी की बात दोनों के बीच तनाव का कारण बनने लगी। शादी के लिए वह जितना दबाव डालती जयंत उतना ही ज़्यादा टालमटोल करता। बात ज़्यादा आगे बढ़ी तो जयंत ने कहा, “ठीक है, मैं अपने पेरेंट्स से बात कर लेता हूँ। तुम अपने पेरेंट्स से बात करके बताओ।”

उसने अगले दिन जैसे ही पेरेंट्स से बात की वैसे ही मानों घर में भूचाल आ गया, वो किसी भी सूरत में इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए, वह भी जयंत के लिए अडिग रही। बात इतनी बढ़ी कि पेरेंट्स ने उसे कुल-ख़ानदान का कलंक बताते हुए रिश्ता ही ख़त्म कर दिया। इससे वह बहुत आहत हुई। जयंत के घर से भी निराशा ही मिलेगी वह यही सोचती रही, लेकिन दो दिन बाद ही जब जयंत ने उससे कहा, “मेरे पेरेंट्स हमारी शादी के लिए तैयार हैं। तुम से मिलना चाहते हैं। इसलिए तुम्हें संडे को मेरे साथ घर चलना है।” तो यह सुनकर वह बहुत ख़ुश हो गई। 

लेकिन जब संडे को उसके घर गौतम बुद्ध नगर पहुँची, और वहाँ जो देखा, उससे उसके होश उड़ गए। घर के अंदर पहुँचते ही उसे बंद कर लिया गया। वहाँ जयंत के माँ-बाप, पारिवारिक सदस्यों के नाम पर एक मौलवी, उसके कुछ दोस्त थे। जिसे वह जयंत समझ कर अपना सर्वस्य सौंंप चुकी थी, वह वास्तव में जुबेर अंसारी था। कुछ मिनट ही हुआ कि अंदर से निखत, खुदेज़ा भी आ गईं। निखत बड़े ही अंदाज़ के साथ बोली, “वाक़ई हम बहुत ख़ुशनसीब हैं, हमारी प्यारी फ़्रेंड हमारे घर आई है।”

वह उन सबको हक्का-बक्का देखती रह गई। उसे कुछ कहने सुनने-समझने का अवसर दिए बिना ही, तमंचे के बल पर उसका आनन-फानन में जबरन धर्माँतरण किया गया। इस्लाम क़ुबूल करवा कर जुबेर से निकाह करवा दिया गया। उसके विरोध करने पर सबसे पहले निखत और खुदेजा ने उसकी लात-घूँसों से जमकर पिटाई की। खाँटी आवारा-बदमाश लड़ाकी औरतों की तरह उसे, उसके धर्म-संस्कृति को गन्दी-गन्दी गालियाँ दीं यह कहते हुए कि, “इस्लाम के बारे में बहुत बोल रही थी न, बुला लो अपने करोड़ों देवी-देवताओं को, बचा लो अपने को।” उसका मोबाइल छीन कर तोड़ दिया। 

जबरन निकाह के बाद उस घर में उसे बंद रखा गया और जुबेर रोज़ उसके साथ हैवानियत करता रहा। उसे हमेशा बाँधकर रखा जाता। उसी घर में उसने जुबेर उसके दो साथियों, मौलवी को भी निखत और खुदेजा के साथ मांस-मदिरा खाते-पीते, अय्याशी करते भी देखा। बाहर हमेशा सिर से लेकर पैर तक बुर्क़े में ढंकी रहने वाली दोनों कामुकता अय्याशी की विकृत खोल में पूरी की पूरी ढंकी-मुंदी मिलीं। वह पूरा घर उसे बेहद शातिर जेहादी षड्यंत्रकारियों का अड्डा मिला। 

एक से बढ़कर एक संदेहास्पद लोग आते। तरह-तरह की योजनाओं पर चर्चा होती। किसको कौन सा काम सौंपा गया था, वह कितना कर पाया, किसे कितना पैसा दिया गया था, वह काम को ठीक से कर रहा है या नहीं, विभिन्न तरह की बातें होतीं। यह जानकर उसके होश उड़ गए कि उनके तमाम संगठन मिलकर देश-दुनिया में अपने समुदाय के आख़िरी व्यक्ति तक यह संदेश पहुँचाने में लगे हुए हैं कि जो जहाँ भी है, वह चाहे किसी भी उम्र का है, वह हिंदू, सिक्ख, ईसाई आदि धर्मों की किसी भी उम्र की महिला को अपने जाल में फँसाए, इसके लिए वह उसी महिला के धर्म का होकर उससे मिले। जल्दी से जल्दी निकाह कर बच्चे पैदा करे। इस दौरान भी दूसरी लड़कियों महिलाओं पर निगाह रखे। 

अपने समाज की लड़कियाँ, महिलाएँ भी इसी तरह से उन समुदाय की महिलाओं को चंगुल में फँसाएँ, उनका परिचय अपने समुदाय के पुरुषों से करवाएँ, उनके बीच दोस्ती क़ायम करवाने में मदद करें। यह सुनकर भी वह हैरान परेशान रह गई कि, पहले समाचारों आदि में जो सुना करती थी वह सही है कि, विदेशों से आने वाली अकूत धन-राशि जो ज़्यादातर गल्फ कंट्रीज़ से आती है, उसका पूरा प्रयोग यहाँ पर लोगों का येन-केन प्रकारेण धर्माँतरण, मस्ज़िद, मदरसा, मज़ार, क़ब्रिस्तान बनाने के लिए हो रहा है। 

इस काम में लगे लोगों को ख़ूब पैसा दिया जा रहा है। अगर वह क़ानून के शिकंजे में फँसते हैं तो उसे पूरी क़ानूनी मदद देने की चाक-चौबंद व्यवस्था है। उसे भगाने-छुपाने में पूरा समुदाय एकजुट होकर खड़ा रहता है। इन सब के पीछे इनका एकमात्र उद्देश्य भारत राष्ट्र को समाप्त कर इसे इस्लामी राष्ट्र में परिवर्तित करना है। 

इस उद्देश्य के लिए धर्मान्तरण के साथ-साथ लैंड-जिहाद को भी चलाने में जी-जान से जुटे हुए हैं। इसके लिए देश को मज़ारों, मस्ज़िदों, मदरसों, क़ब्रिस्तानों से पाट देने का अभियान प्रचंड गति से चला रखा है। काफ़ी हद तक सफल भी हो चुके हैं, क्योंकि जिधर भी निकलो लगता है मस्ज़िदों, मज़ारों के क़बीले में आ गए हैं। 

सोने पे सुहागा यह कि उनके इस अभियान को गति, ऊर्जा देने के लिए कांग्रेस ने उनको उन्नीस सौ पचानवे में वक़्फ़ बोर्ड क़ानून बना कर एक ऐसा अमोघ हथियार दे दिया है, जिसके ज़रिए मात्र दस-बारह साल में ही उनके क़ब्ज़े की ज़मीन, सम्पत्ति ढाई गुने से ज़्यादा हो गई। आज देश में सेना, रेलवे के बाद सबसे ज़्यादा ज़मीन वक़्फ़ के पास है। 

इस क़ानून के सहारे वो देश में कहीं भी, किसी भी ज़मीन सम्पति को अपनी कह दें तो वह उनकी हो जाएगी, उसके दावे को सुप्रीम कोर्ट भी नहीं सुन सकता। वक़्फ़ क़ानून देश के सारे क़ानूनों से ऊपर है। इनकी अंधेरगर्दी तो इतनी बढ़ गई है कि तमिलनाडु राज्य के हिंदू बाहुल्य एक पूरे गाँव को ही वक़्फ़ सम्पत्ति कह दिया, जिसमें इस्लाम से भी पहले का पंद्रह सौ साल पुराना मंदिर भी सम्मिलित है। 

उसने सोचा कि वह कितना ग़लत कर रही थी इन सारी बातों पर अविश्वास करके। पापा सही ही कहते थे कि कांग्रेस ने सत्ता की लालच में देश के टुकड़े ही नहीं किये, बल्कि नेहरू ख़ानदान का शासन पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहे इसके लिए षड्यंत्रपूर्वक इसे हिन्दू राष्ट्र घोषित न करके एक धर्मशाला बना कर रख दिया। देश की जड़ ही खोद डाली है, उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। इतने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ तो एक के बाद एक देश की जड़ में मट्ठा डालने वाले क़ानून बना-बना कर सनातनियों, सनातन संस्कृति, सनातन देश को नष्ट करने पर तुली हुई है। 

आज मैं इस हाल में हूँ तो सिर्फ़ इसी कांग्रेस के कारण, न इसने देश को धर्मशाला बनाया होता, न विधर्मियों को रहने, पलने, बढ़ने का अवसर मिलता, न आज देश की यह हालत होती। दोषी हम सनातनी भी कम नहीं हैं। ऐसी कुकर्मीं पार्टी को वोट दे-दे कर आज भी ढो रहे हैं। मैंने भी अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारी थी पार्षदी के चुनाव में इसे अपना पहला वोट देकर। वो कांग्रेसी पार्षद भी एक वोट से ही जीता था। 

उसे यातना देने का दौर चलता रहा। जल्दी बच्चे पैदा करने का प्रयास होता रहा, लेकिन संयोग से जिहादियों का यह सपना पूरा नहीं हो पा रहा था। कई महीने बीत गए तो खीझकर कई जिहादी उसके साथ हैवानियत करने लगे। एक दिन वह नशे में धुत्त एक जिहादी का शोषण झेल रही थी, तभी उसे अवसर मिला और वह भाग निकली। सीधे पुलिस थाने पहुँची, रिपोर्ट लिखवाई और पुलिस को लेकर सीधे जिहादियों के अड्डे पर पहुँच गई। 

वह जिहादी निकल भागने के लिए गेट के बाहर आ चुका था, लेकिन समय रहते पुलिस ने उसे धर दबोचा। क़ानूनी कार्रवाई के बाद अगले दिन जब वह अपनी मौसी के घर पहुँची तो उन लोगों ने उससे बात भी करने से मना कर दिया। घर में घुसने तक नहीं दिया। यह देख कर उसने मन ही मन सोचा, मुझसे इतनी घृणा करने से पहले इन्हें मेरी बातें सुननी चाहिए थीं। 

एक वह सब हैं जो अपने समुदाय के लोगों का आँख मूँद कर समर्थन करते हैं, मदद करते हैं, सही ग़लत की बात पूछते ही नहीं। उसे समझ में नहीं आ रहा था, वह क्या करे, कहाँ जाए? उसके पास न पैसे थे, न ही मोबाइल था, कि वह घर बात कर पाती। वह फिर से थाने पहुँच गई। पुलिस वालों ने उसकी मदद की। उसके घर फोन किया। पेरेंट्स से बात कराई, लेकिन वह लोग भी सख़्त नाराज़ मिले, बात ही नहीं करना चाहते थे। 

उनकी नाराज़गी यह थी कि नौकरी करने के लिए भेजा था, आवारागर्दी करने के लिए नहीं। इसने कुल ख़ानदान की नाक डुबो दी है। हमारे लिए यह मर गई है। उसे हर तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा दिख रहा था। जिहादियों की क़ैद में रहने के चलते ऑफ़िस में कोई सूचना नहीं दे पाई थी, इससे उसकी नौकरी भी जा चुकी थी। बड़ी मुश्किल से ऑफ़िस के दो-तीन लोगों से संपर्क किया, उन्हें सारी बातें बताईं कि कैसे उसे फँसाया गया तो कुछ लोग उसकी मदद के लिए आगे आ गए। उन्हीं लोगों ने हिन्दू संगठनों से भी संपर्क कराया, वह भी भरपूर मदद करने लगे। 

पुलिस केस होते ही निखत और खुदेजा की भी नौकरी जा चुकी थी। जुबेर के साथ उन दोनों को जबरन धर्मांतरण, अपहरण, रेप, जानलेवा हमला करने, देश-विरोधी षड्यंत्र रचने आदि के आरोप में जेल भेज दिया गया। जब क़ैदी वाहन में उन्हें बैठाया जाने लगा तो वह भी अवसर मिलते ही उनकी आँखों में आग्नेय दृष्टि से देखती हुई बोली, “मुझे तो मेरे देवताओं ने बचा लिया, तुम भी बुला लो अपने अल्लाह को . . .” 

पुराने सहयोगियों, हिन्दू संगठनों के प्रयासों से उसकी नौकरी भी बहाल हो गई। स्थितियाँ कुछ बदलीं तो उसने कई बार घर फोन किया, माँ-बाप, भाई-बहनों से बात करने का प्रयास किया, लेकिन किसी की भी नाराज़गी कम नहीं हुई। जब उसने कहा, “आप लोग मेरी बात तो सुन लीजिए, मैं घर आकर आपको सब बताती हूँ तो उसे साफ़ मना किया गया कि तुम्हें यहाँ आने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा अब इस घर से कोई लेना-देना नहीं है।” 

आख़िर उसने परिस्थितियों से समझौता कर लिया। समय बीतता गया वह गुमसुम सी अपने में सिमटी आगे बढ़ती रही। जब-जब उसे घर की याद आती, तब-तब उसका ख़ून उबल पड़ता। उसका मन अपना जीवन, परिवार को छल-कपट धोखे से बर्बाद करने वाली जिहादिनियों, जिहादियों के झुंड से प्रतिशोध लेने के लिए तड़प उठता। उसने कुछ हिंदूवादी संगठनों की मदद से कोर्ट में अपना केस लड़ने के लिए एक ऐसे वकील को केस सौंपा जिसे जिहादी गल्फ के पेट्रो डॉलर से भी ख़रीद न सकें। 

वकील ने भी अपनी पूरी योग्यता, ताक़त लगाकर चार साल में कोर्ट में केस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया कि जिहादियों के झुंड को उनके कुकर्म की सज़ा मिलना क़रीब-क़रीब तय हो गया। इस चार साल के समय में वह जिस मानसिक स्थिति से गुज़र रही थी, वह उसे रह-रह कर पूरी तरह तोड़ देने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रख रहे थे, लेकिन अपने साथ हुए अन्याय का कठोर प्रतिकार करने की उसकी ज़िद, उसे हर स्थिति से मज़बूती से लड़ने के लिए हमेशा तैयार करती रही। 

इस बीच वह मौसी को अपनी बात समझाने में सफल होती चली गई। मौसी ने यह ज़िम्मेदारी भी ली कि उसके पेरेंट्स को वह समझाएँगी-बुझाएँगी कि उसकी ग़लती नहीं है। उसे धोखे से फँसाया गया। मौसी की कोशिशें धीरे-धीरे सफल होने लगीं। मौसी के बच्चे भी उसके साथ शुरूआती दिनों की तरह मिक्सप होने लगे। इसी बीच एक सप्ताहांत वह उनके यहाँ पहुँची तो पूरा परिवार वैश्विक स्तर पर बहुचर्चित लव-जिहाद पर केंद्रित पिक्चर ‘केरला स्टोरी’ देखने जा रहा था। 

उसकी मौसेरी बहन बोली, “दीदी आप भी हमारे साथ चलिए, मेरी फ़्रेंड कह रही थी इस पिक्चर को हर किसी को देखना चाहिए।” मौसी-मौसा ने भी कहा तो वह चली गई। इस पिक्चर के बारे में वह भी रोज़ सुनती थी। जब-जब सुनती तब-तब उसे अपने साथ हुई हैवानियत याद आती, प्रतिशोध के लिए मन धधक उठता। उसका मन करता उन सबका शिरोच्छेद कर अपनी प्रतिशोधाग्नि शांत करे। 

घर लौटकर सभी पिक्चर में दिखाए गए लव-जिहाद, धर्मान्तरण, राष्ट्रांतरण के भयावह प्रयासों, स्थितियों की चर्चा कर रहे थे कि, अगर अब भी इस भयावह घिनौनी साज़िश के ख़िलाफ़ सभी उठ नहीं खड़े हुए तो निकट भविष्य में सनातन देश, संस्कृति के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है। इस प्रश्न-चिन्ह को तथा-कथित सेकुलर राजनीतिक पार्टियों का गैंग तुष्टीकरण की राजनीति के चलते और बड़ा कर रहा है। 

इसी बातचीत के दौरान मौसा-मौसी, उनके बच्चों ने उससे कहा कि तुम एक बार फोन पर बात किए बिना पेरेंट्स के पास सीधे घर जाओ। तुम्हारे साथ हुए छल-कपट के बारे में उन्हें बार-बार बताया गया है। इतने वर्षों बाद अचानक तुम्हें सामने देखकर उनका मन बदल जाएगा, ग़ुस्सा भी ठंडा हो जाएगा, तुम्हें अपना लेंगे। इन्हीं बातों के बाद उसका मन पेरेंट्स के पास जाने का बना। 

लेकिन घर पहुँच कर नाम शिला-पट्टिका पर अपना नाम मिटाया हुआ पाकर उसकी आशा टूट गई और वापसी के लिए स्टेशन पहुँच गई। संयोग से तत्काल की टिकट भी मिल गई। ट्रेन आने का समय हो गया। वह सोचती रही क्या अब इस जीवन में माँ-बाप, भाई-बहन उसे कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। यह लोग कम से कम एक बार तो यह सोचें कि मैं धोखे का शिकार हुई हूँ। 

स्टेशन पर हलचल बढ़ गई थी, ट्रेन के प्लैटफ़ॉर्म पर पहुँचने की अनाउंसमेंट होने लगी। आते ही सभी उसमें बैठे और उन्हें लेकर ट्रेन चली गई, प्लैटफ़ॉर्म पर एक बार फिर से सन्नाटा छोड़ गई। लेकिन उसके दिमाग़ में भयंकर कोलाहल मचा हुआ था, उसकी आँखें अभी भी आँसुओं से भरी हुई थीं। वह एकदम से उठी और स्टेशन से बाहर आ गई। 

फिर से कैब बुक किया अपने माँ-बाप के आँचल की छाँव में शरण पाने के लिए। उसे पूरा विश्वास था कि मौसी की कही बात सही निकलेगी, माँ-बाप उसे देखकर ज़रूर अपना लेंगे। दिन ढलने को था लेकिन आसमान से अंगारे अभी भी बरस रहे थे। उसका गला गाड़ी में एसी चलने के बावजूद बार-बार सूख रहा था। इस बार उसके पास स्टेशन पर लिया गया पानी था। उसे वह पी रही थी, मगर गला था कि वह सूखता ही रहा। जैसे-जैसे गाड़ी घर के क़रीब पहुँच रही थी, उसकी धड़कनें बढ़ती चली जा रही थीं। 
 

2 टिप्पणियाँ

  • 7 Jul, 2023 08:50 PM

    वाकई भारत में ही नहीं पूरे विश्व में इस तरह का जिहाद हो रहा है। आँखें खोलने वाली रोचक कहनी लिखने के लिए धन्यवाद

  • आपकी कहानियाँ पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं । भारत में ये क्या हो रहा है? संवेदनशील अभिव्यक्ति!

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