सदफ़िया मंज़िल

15-01-2022

सदफ़िया मंज़िल

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

सदफ़िया मंज़िल का दरवाज़ा खुला हुआ है। वह भी सदफ़िया की तरह बहुत बूढ़ा हो चुका है। जगह-जगह से चिटक गया है। यह चिटकन और बढ़ कर दरवाज़े को ज़मीन न सुँघा दे, इस लिए जगह-जगह टीन की पट्टियों को कीलों से जड़ा गया है। ये टीन की पट्टियाँ भी जंग (मुर्चा) खा-खा कर कमज़ोर पड़ती जा रही हैं। सदफ़िया दरवाज़े की चिटकन को टीन, कीलों के ज़रिए जितना रोकने की कोशिश कर रही है, वह उसके शरीर की झुर्रियों की तरह उतनी ही बढ़ती जा रही है। 

सदफ़िया जब-जब उसे ग़ौर से देखती है तो ऐसा लगता है, जैसे अपनी जवानी की तरह उसकी भी जवानी याद कर रही है। जब अपनी मज़बूती से वह इस्पाती होने का एहसास देता था। उस वक़्त वह बड़ी अकड़ से कहती थी कि, “पक्की साखू का बना है। सौ साल तक हिलने वाला नहीं।”

लेकिन सदफ़िया को अपनी तब की ग़लतफ़हमी अब समझ में आ रही है। हर झुर्री, चिटकन उसे मुँह चिढ़ाती, सवाल करती नज़र आती है। 

मानो पूछ रही हो, क्यों सदफ़िया, कहाँ गई तुम्हारी वो जवानी, हुस्न, ताक़त, पैसे के दम पर पाले आदमी, जिनके सामने तब तुम्हें यह समझ में नहीं आता था कि समय की हवाओं का झोंका समय आने पर सब-कुछ हिला देता है। क्या लकड़ी, क्या इस्पात, क्या हुस्न, क्या इंसान, क्या राजे-महाराजे, साम्राज्य, सबका एक दिन उसके क़दमों में लोटना तय है। 

कहाँ है अब तुम्हारा वह हुस्न जिसके लिए तब रामपूरी छुरियाँ चल जाया करती थीं। उस हुस्न का रसपान करने वालों से मुँह माँगी क़ीमत वसूलती थी। गोरे जब बुलाते थे तो एक रात में ही हफ़्ते भर की कमाई कर लेती थी। हालाँकि पैसा उनकी जेब से निकलता था जो उनसे अपना हित साधने के लिए तुमको साधन की तरह साधते हुए उनके पास भेजते थे। तब तुम्हारी तरह, तुम्हारी यह सदफ़िया मंज़िल भी गुलज़ार रहती थी। लेकिन आज . . . 

आज कोरोना काल में तो हालत एकदम से ज़्यादा बदतर हो गई है। हाल यह है कि तुम्हारी इस मंज़िल का मुख्य दरवाज़ा ही इस्पाती पत्तियों के सहारे खड़ा अपनी टूटती साँसों की कहानी बयाँ कर रहा है। 

मंज़िल में अंदर क़दम रखते ही पड़ने वाले पहले बड़े कमरे, उसके बीच से अंदर जाते रास्ते, वहाँ दोनों तरफ़ बने छोटे-छोटे छहों कमरे, फिर ऊपर पहली मंज़िल तक जाता जीना, वहाँ बने पाँचों कमरे। वहाँ से दूसरी मंज़िल को गया जीना, और उस दूसरी मंज़िल पर बने तीनों कमरे, यह सबके सब तुम्हारी झुर्रियों से होड़ लेते ही दिख रहे हैं। 
 एक समय वह भी था जब यह कमरे कभी ख़ाली नहीं रहते थे। इनकी रौनक़ देखते ही बनती थी। लेकिन आज . . . आज न रौनक़ है, न कमरों में कोई हलचल। हर तरफ़ कुछ दिखता है तो सिर्फ़ झुर्रियों में डूबा, नीम उदासियों को ढोता तुम्हारा चेहरा . . . 

कभी अपने हुस्न से गोरों की भी धड़कन रोक देने वाली यही सदफ़िया अब दीवार आदि का सहारा लेकर ही मुश्किल से चल-फिर पाती है। हमेशा नीचे ही रहती है। आठ-दस बरस से ज़्यादा हो गए उसे ऊपर की किसी मंज़िल पर गए। 

नीचे ही बड़े कमरे में बिस्तर पर पड़ी रहती है। उसके साथ अब भी बनी रहती हैं उसकी सबसे पुरानी बेटियाँ। इन बेटियों को उसने कब और कैसे अपने धंधे में शामिल कर लिया था, अब यह भी उसे याद नहीं है। इन बेटियों की भी अब कई बेटियाँ हैं। लेकिन किसी को अपने पिता की कोई जानकारी नहीं है। कुल आठ नौ लोगों के बावजूद मंज़िल में गहन सन्नाटा पसरा है। 

इस सन्नाटे में कुछ हलचल पैदा करती सदफ़िया अंदर आँगन से दीवार टेकते-टेकते आकर अपने बिस्तर पर बैठ गयी। फिर दरवाज़े पर पड़े ज़र्जर से पर्दे को हटाने का इशारा किया तो पड़नातिन रज़िया ने पर्दा हटा दिया। वह आकर बैठी ही थी कि तभी दरवाज़े पर लम्बी-तगड़ी हँसली ने ताली बजाते हुए कहा, “अरे सब कहाँ गई रे।”

यह पूछती हुई वह कमरे में दाख़िल हो गई। वहाँ सदफ़िया को बैठी देख कर उसने दो-तीन बार ताली ठोंकने के बाद कहा, “अरे बुढ़िया तू कब मरेगी? तेरे से कोरोना मिलने को नहीं आया क्या? इस धरती का अभी और कित्ता राशन खाएगी आंय।”

यह कहती हुई वह सामने पड़े तख़्त पर बैठ गई। सदफ़िया ने उसे जो जवाब दिया उसे वह ठीक से सुन नहीं पाई। दरअसल सदफ़िया भी उसकी बात को कम सुनाई देने के कारण ठीक से समझ ही नहीं पाई थी। जो थोड़ा-बहुत समझी उसी के हिसाब से दन्त-रहित अपने पोपले मुँह से जवाब दे दिया था। जिसे हँसली नहीं समझ पाई तो बग़ल में बैठी रफ़िया से पूछा, “यह बुढ़िया क्या बोली रे?” 

रफ़िया ने हँसते हुए कहा, “वह कह रहीं हैं कि, अभी इक्कीस साल और जिएँगे।”

यह सुनते ही हँसली ने आश्चर्य से मुँह बड़ा सा खोलते हुए कहा, “क्या? अरे बुढ़िया को सौ साल से ज़्यादा हो गए कमाठीपुरा का, इस धरती का राशन खाते-खाते। गोरे चले गए। देश के टुकड़े देशियों से ही मिल कर, कर गए। टुटही-फुटही आज़ादी भी आ गई। बम्बई से मुंबई हो गया। कोरोना आ के ता-ता थैया कर रहा है, ये अभी और क्या-क्या होने तक इस मंज़िल में रहेगी। सदफ़िया से कभी इसे रफ़िया मंज़िल होने देगी या मंज़िल भी साथ ही लेकर जाएगी आंय।”

अपनी बात पूरी करते ही हँसली फिर ताली ठोंक कर हँस पड़ी। उसकी ज़ोरदार ताली से कमरा गूँज गया। सदफ़िया ने उसकी बात का फिर कोई जवाब दिया। लेकिन इस बार भी हँसली समझ नहीं पाई। वह कुछ बोलती कि उसके पहले ही रफ़िया ने उससे कहा, “ए हँसली अब बस कर, फूफी को बुरा लग रहा है। अपनी बता इस लॉक-डाउन में कहाँ से चली आ रही है। तुझे पुलिस नहीं मिली क्या?” 

“मिली क्यों नहीं, इतनी ज़िन्दगी में पहला ऐसा टाइम देख रही हूँ कि क़दम क़दम पर पुलिस लगी हुई है। घर के बाहर क़दम निकालो नहीं कि मुए यमदूत से हाज़िर हो जाते हैं। नहीं तो चाहे जिसको मारो, काटो, लूटो, आराम से सबको आँखें तरेरते हुए निकल जाओ। उसके बाद लकीर पीटती, पों-पों करती पुलिस आती थी निर्दोषों को लाठियाने। लेकिन अब तो पूछो मत, जहाँ मिली, तो ऐसे प्यार से बोली घर जाइए जैसे उनकी ख़सम हूँ। दसियों जगह पूछा कहाँ जा रहे हो। हर बार मैं उनके मुँह पर ताली ठोंक कर कहती, ’तेरे लॉक-डाउन में सदफ़िया आपा निकल गई तो, उसी को बचाने जा रही हूँ, चल आ, तू भी चल’।”

हँसली ने जिस तरह एक भद्दे इशारे के साथ अपनी बात कही, उससे वहाँ बैठी रफ़िया सहित सभी हँस पड़ीं। सदफ़िया सवालों भरी निगाहों से सभी को देखती रही। सबसे छोटी ज़किया मुँह पर हाथ रख कर बोली, “तुझे उनसे डर नहीं लगता कि उन्होंने कहीं पकड़ कर जेल में डाल दिया तो।” 

हँसली ने हँसते हुए कहा, “अरे डाल दे तो बहुत ही अच्छा है। सौ तालियाँ ठोकूँगी उनके मुँह पर हाँ . . . कम से कम दोनों टाइम खाना तो मिलेगा। कुछ काम-धाम तो करने को मिलेगा। डेढ़ महीने से काम-धंधा सब बंद है। सारे पैसे, राशन, दारू सब ख़त्म हो गया है। दस दिन से दारू की महक तक नहीं मिली है। हफ़्ते भर से हम पाँचों को दोनों टाइम खाना तो वो मुआ सदा वत्सले मातृ-भूमि वाला शाखा बाबू खिला रहा है। नहीं तो हम-सब भूखों मर जाते, हाँ।” 

 उसकी यह बात सुनकर ज़किया ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, “ये सदा वत्सले वाला शाखा बाबू कौन है।”

“अरे वही शाखा वाले बाबू, आर.एस.एस. वाले। परसों मैंने ताली ठोंक कर कहा, 'अरे क्यों हम-सब की इतनी फ़िक्र करते हो, कब तक खिलाओगे। तुम्हारा राशन ख़त्म हो गया तो।’ इस पर वह ऐसे अपनापन के साथ बोला, जैसे मैं उसके ही घर-परिवार की हूँ। कहा, 'हँसली जब-तक मेरे घर में चूल्हा जलेगा तब-तक खिलाता रहूँगा।'  तो मैंने कहा, 'जब चूल्हा बंद हो जाने पर खाना बंद ही हो जाना है, तो काहे को हमारी आदत ख़राब कर रहे हो। अपने परिवार का राशन हम पर ख़र्च कर रहे हो। जब आज नहीं कल भूखों मरना ही है, तो जैसे कल, वैसे आज।' मगर उसने ऐसी बात कही कि मेरा कलेजा ही निकाल ले गया।”

“अरे! ऐसा क्या बोल दिया?” 

हँसली ने रफ़िया के इस प्रश्न का उत्तर देने के बजाय कहा, “हाय-हाय, सब बात पर बात करे जा रही हैं, अभी तक एक कप चाय कौन कहे पानी तक नहीं पूछा किसी ने। ये बुढ़िया भी बैठी-बैठी टुकुर-टुकुर देख रही है। एक बार भी नहीं बोली। पहले तो आते ही चिल्लाती थी ए चाय बना ला। आज क्या हो गया, चाय ख़त्म हो गई कि पानी। आंय।”

हँसली ने ज़ोरदार आवाज़ में कहते हुए तीन-चार तालियाँ ठोंक दीं। 

सभी फिर हँस पड़ीं। इसी बीच रफ़िया ने ज़किया से चाय बनाने के लिए बोलते हुए कहा कि, “ये लॉक-डाउन, ग्राहकों का टोटा ऐसे ही पड़ा रहा न, तो चाय ही नहीं, खाना-पानी, दवा-दारू के भी लाले पड़ने ही पड़ने हैं। रखा हुआ कितने दिन चलेगा। हमें लगता है, हम लोग कोरोना से नहीं भूख से ज़रूर मरेंगे।”

रफ़िया की बात पूरी होते ही हँसली ने कहा, “चल चुप कर, भूख से मरेंगे। देख हम लोग भूख से तो नहीं मरेंगे ये पक्का मान, बाक़ी चाहे जिससे मरें। समाचार में कई दिन से बोला जा रहा है कि अब की अनाज पीछे के सारे रिकॉर्ड तोड़ कर उससे भी ज़्यादा पैदा हुआ है। गवर्नमेंट सबको राशन दे भी रही है, वह भी एकदम मुफ़्त। और बताऊँ, जब-तक शाखा बाबू जैसे लोग दुनिया में हैं, तब-तक तो कोई खाने बिना तो नहीं ही मरेगा।”

हँसली की बात से रफ़िया को जैसे कुछ याद आ गया। उसने तुरंत उससे पूछा, “अरे हाँ, तुमने बताया नहीं तुम्हारे शाखा बाबू ने क्या कहा कि तुम अपना कलेजा उन्हीं को देकर बिना कलेजे के ही चली आई।” 

“अरे हाँ, जब चाय, दारू नहीं मिलेगी तो दिमाग़ तो भूलेगा ही। शाखा बाबू ने कहा, ’हँसली जिस दिन चूल्हा नहीं जलेगा, उस दिन हम-सब मिलकर जलाने की कोशिश करेंगे। सब मिलकर कोशिश करेंगे तो चूल्हा जलेगा और ख़ूब जम के जलेगा। तुम सब एकदम निश्चिंत रहो। हम, हमारे बच्चे खाना तभी खाएँगे जब हम तुम्हें खिला लेंगे। आख़िर तुम भी हमारे ही हो। सब लोग एक ही परिवार के हैं। वसुधैव कुटुम्बकम हम लोग ऐसे ही थोड़ी ना लिखते बोलते चले आ रहे हैं।’ फिर उसने पीठ थपथपाते हुए कहा, ’अच्छा चलता हूँ, खाना लेकर आऊँगा।’ और फिर ऐसे मुस्कुराता हुआ चला गया जैसे उसके सामने कोई मुश्किल है ही नहीं। मैं खड़ा देखता ही रह गया। ताली ठोंकना भी भूल गया। खड़ा सोचता रहा कि वाह रे, क्या दिलदार आदमी है तू। अब तू बता, तू होती मेरी जगह तो कलेजा साथ लिए आ पाती या वहीं छोड़े आती।” 

उसे ध्यान से सुन रही रफ़िया बोली, “सही कहा तुमने, वह बात ही नहीं, काम भी कलेजा निकालने वाला ही कर रहें हैं। एक तरफ़ वह लोग हैं, जो उजाले में हम लोगों के पास खड़ा भी नहीं होना चाहते, नफ़रत से मुँह फेर लेते हैं, थूक देते हैं, और जब अँधेरे में, छिप-छिपा के आएँगे तो नासपीटे न जाने क्या-क्या करेंगे। कहाँ-कहाँ घुस जाएँगे कुछ पता ही नहीं रहता। 
“ऐसे दोगलों से कलेजा फट जाता है। मन करता है कि उन्हें उठाकर नीचे फेंक दूँ। अपने पास फटकने भी ना दूँ। अपनी छाया भी न छूने दूँ। इन सबसे ज़्यादा इनके मुँह पर थूक दूँ। लेकिन हम-लोगों की बदक़िस्मती देखो। यही दोगले हमारे कस्टमर हैं। 

“दो महीने से नहीं आ रहे हैं तो हमारे खाने-पीने के लाले पड़ गए हैं। राशन तीन-चार दिन से ज़्यादा का नहीं बचा है। मन बड़ा निराश हो रहा है, टूट रहा है, लेकिन शाखा बाबू जैसे बन्दे भी हैं। जो कलेजा निकाल लेते हैं। ऐसे कुछ लोगों के कारण ही उम्मीदें बनी रहती हैं कि जैसे-तैसे गाड़ी खिंच ही जाएगी।”

“ये तो तुम सही कह रही हो, लेकिन मैं ये सोच रही हूँ कि ऐसी उम्मीदों से गाड़ी घिसट भर सकती है दौड़ नहीं। एक बात बताऊँ, मैं दो-चार दिन से बार-बार सोच रही हूँ कि हम-लोगों को भी कुछ और रास्ते ढूँढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। किसी ऐसे काम-धंधे को किया जाए जिससे इस नरक के जीवन से भी फ़ुर्सत मिले। 

“वैसे भी कमाठीपुरा अब तब से और भी ज़्यादा तेज़ी से सिकुड़ता जा रहा है जब से लिपी-पुती चेहरों वाली धंधे को ऑनलाइन ही हमसे छीनने लगी हैं। देखती नहीं हो कि आए दिन किसी कोठे, किसी होटल, न जाने कहाँ-कहाँ छापे में एक से एक पुते चेहरों वाली, लंबी-लंबी गाड़ियों वाली पकड़ी जा रही हैं। 

“कितनी तो ऐसी हैं जो निकली हैं पढ़ने, लेकिन साथ ही हमारे धंधे में भी कटिया डाल कर हमारी कमाई छीन लेती हैं, लगती हैं कमाने। जो नौकरी कर रही हैं उनमें भी कई कटियाबाज़ी में भी लग जाती हैं। हमारे धंधे पर भी हाथ साफ़ कर हमें ही किनारे लगाने पर तुली रहती हैं। जैसे हम-सब को तो कुछ चाहिए ही नहीं।”

हँसली अपनी भड़ास निकाल ही रही थी कि तभी ज़किया सभी के लिए ग़िलास में चाय लेकर आ गई। उसे देख कर रफ़िया ने हँसली से कहा, “लो चाय पियो। वैसे बात तो तुम सही कह रही हो। कमाठीपुरा, और हमारा धंधा दोनों ही सिमटते जा रहे हैं। एक समय इतनी कमाई होती थी कि पूरी कोठी चमकती थी। अब तो जो कुछ टूट-फूट रहा है, वैसे ही पड़ा रह जा रहा है, न रंगाई-पुताई न मरम्मत, ये दरवाज़ा देख ही रही हो, कोई ठिकाना नहीं कि कब ऊपर ही आ गिरे। यह सब तो एक तरफ़ अब तो दवा-दारू का भी पैसा नहीं रहता। रही-सही कसर इस नामुराद कोरोना ने पूरी कर दी। फरवरी से ही ग्राहक आधे होने लगे थे। लॉक-डाउन के बाद तो एकदम सूखा पड़ना था, तो वो पड़ा है। यह एकाध महीना और ऐसे ही लगा रहा तो फ़ाँका-कशी की नौबत आ जाएगी।”

रफ़िया की बात पूरी होते ही ज़किया ने सुर्र-सुर्र आवाज़ करती हुई चाय सुड़क रही हँसली को देखते हुए कहा, “लॉक डाउन के बाद ग्राहक आने लगेंगे यह भूल ही जाओ। इस बीमारी के ख़ौफ़ से जब लोग घर से बाहर निकलने में ही काँप रहे हैं, दस हाथ दूर से मिल रहे हैं, तो ऐसे में कोठे पर आने की सोच कर ही उनकी रूह काँपेगी। अब ये धंधा समझ लो ख़त्म ही हो गया। ये जो कह रही हो कुछ और करने की सोची जाए, तो सच बताऊँ, अब सोचने का वक़्त ही नहीं बचा है। अब ख़ाली कुछ और करने का वक़्त रह गया है। और कुछ क्या होगा ख़ाली वो तय करो।”

ज़किया की बात पर हँसली ने चाय का ग़िलास स्टूल पर रख कर दनादन तीन-चार तालियाँ ठोंक कर कहा, “अरे चुप कर मूई, सबको इतना डराती काहे को है। मेरा मतलब यह नहीं था कि सब कुछ तुरंत ही ख़त्म हो जाएगा। पहले तो ये बात गाँठ बाँध ले कि ये तन का धंधा कभी बंद नहीं होगा। यह तो जब-तक आदमी जात है, तब-तक चलेगा। क्योंकि इस तन को दोनों तरह का खाना चाहिए। ठंडा गोश्त भी और गरम गोश्त भी। इनमें से एक भी बंद नहीं होगा, क्योंकि इनके बिना आदमी ज़िंदा ही नहीं रह सकता। इसलिए वह इन दोनों ही तरह के गोश्त का इंतज़ाम कर ही लेता है। बाक़ी कोई और काम करे या ना करे। और कुछ छूटता है तो भले ही छूट जाए। 

“देखती नहीं साले परिवार का खाना-पीना, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, सब-कुछ किनारे कर सारा पैसा बटोर के चले आते हैं गर्म गोश्त खाने। तू ही बता, क्या तेरे पास अक़्सर ऐसे कस्टमर नहीं आए होंगे, जिनकी हालत देखकर तुझे उन पर पर शक हुआ होगा कि पता नहीं तेरा पूरा पैसा दे भी पाएगा कि नहीं।”

यह कहती हुई हँसली ने फिर चाय का एक लम्बा घूँट सुर्र की ज़ोरदार आवाज़ के साथ सुड़का। उसे ध्यान से सुन रही ज़किया ने कहा, “हाँ यह तो है। लेकिन अपनी जान से सब डरते हैं। इस बीमारी की तो बात ही कुछ और है। इतना ख़ौफ़ इस दुनिया में कभी ना रहा होगा, जितना आज है। ना कोई फ़ौज, न फाटा। मगर कोई दरवाज़ा तक नहीं खोल रहा, पेपर, दूध तक नहीं बिक रहा है। डर के मारे बड़े-बड़े मांस-मछली खाने वाले घास-फूस साग खाने लगे हैं। दस रुपए किलो चिकन सुना है कभी। इस से पाँच गुना महँगा तो साग बिक रहा है।”

इतना सुनते ही हँसली बोली, “आय, हाय हाय हाय हाय, क्या ज़ुबान है रे तेरी। बस बीस-बाइस साल की उम्र में इतना सब-कुछ जान गई। दिन भर मोबाइल में घुसी जाने क्या-क्या देखती रहती है। सब की नानी बन गई है।” 

हँसली ने ज़किया की बातें सुनकर यह कहा ही था कि तभी सदफ़िया ने कोई लंबी सी बात अपने पोपले मुँह से कह डाली। जिसे सब ने समझा लेकिन हँसली को फिर कुछ समझ में नहीं आया तो झल्लाती हुई ताली ठोंक कर बोली, “अरे बुढ़िया तू दाँत लगवाएगी नहीं, बोल तेरे साफ़ फूटेंगे नहीं, बात मेरे समझ में आएगी नहीं तो मैं तेरी बात का जवाब क्या दूँ। समझ में नहीं आ रहा है कि गाली दे रही है या कुछ और कह रही है।”

तभी ज़किया खिलखिला कर हँसती हुई बोली, “मुक़द्दर को कोस रही हैं। गालियाँ दे रही हैं बीमारियों को कि बार-बार आकर जीवन बर्बाद किये रहती हैं। नसीब को अँधेरे में धकेल देती हैं। जब यह अठारह की थीं, तब भी आई थी ऐसी ही एक बीमारी। उस बीमारी में भी बहुत सारे लोग मारे गए थे। जब से कोरोना चालू हुआ है तब से जब भी बोलेंगी, अपनी जवानी का कोई न कोई अफ़सान बताने लगेंगी। ना जाने कौन-कौन सा अफ़साना बताती हैं। आधा समझ में आता है, आधा लॉक-डाउन की तरह पहेली बन जाता है। बूझते रहो, समझते रहो पहेली।”

हँसली ने ज़किया की बात सुनने के बाद रफ़िया की तरफ़ देखते हुए पूछा, “ए कोई मसालेदार अफ़साना बताती है क्या। बताओ ना, थोड़ा टाइम ही कटे। वैसे भी अब गला साफ़ हो गया है। कान भी भन-भना क्या रहा है धुँआ निकल रहा है उसमें से। इसने चाय में इतनी काली मिर्च, अदरक, लौंग और न जाने क्या-क्या डाला है कि भले धुँआ निकल रहा हो लेकिन मज़ा भी ख़ूब आ रहा है।” 

हँसली ने यह कहते हुए दूर से ही ज़किया की बलाएँ लेते हुए अपने दोनों हाथों की उँगलियों को कानों के पास ले जाकर हल्के से दबा दिया। जिससे एक साथ कई पट्ट-पट्ट आवाज़ हुई। 

तभी रफ़िया कुछ सोचती हुई बोली, “मसालेदार क्या, आदमी ख़ाली बैठा रहेगा तो दुनिया भर की बातें तो ज़ेहन में घूमेंगी ही, जब-तक कस्टमर आ रहे थे, तब-तक सब पर यहाँ बैठी निगाह रखती रहीं। मगर अब कुछ नहीं तो जब देखो तब, कोरोना, स्पेनिस फ़्लू, प्लेग, यह, वह। और एक यह है, जबसे हर तरफ़ कोरोना-कोरोना हुआ है, मोबाइल में देख-देख कर कुछ जान लिया है, तब से जब चाय माँगो तो चाय के नाम पर काढ़ा ही देती है।” 

रफ़िया ने ज़किया की तरफ़ देखते हुए बात पूरी की तो हँसली बोली, “अरे वह सही कर रही है, इससे सब बची रहोगी इस बीमारी से। बनाती भी बढ़िया है। गला साफ़ हो गया है। अच्छा इसका फ़साना बता। बात को टाल मत।”

हँसली टाइम पास करने के लिए बातें जारी रखना चाहती थी। उसके आग्रह को रफ़िया टाल नहीं सकी। और बेमन से बोलना शुरू किया, “अब फ़साना क्या, दिल का अस्सी-नब्बे साल पुराना ज़ख़्म है, जिसे इस बीमारी ने खरोंच-खरोंच कर ताज़ा कर दिया है। न जाने कितने सालों बाद इधर हफ़्ते भर में तीन-चार बार आँसू बहा चुकीं हैं। टीवी में जैसे ही लोगों के मरने की बातें सुनती हैं, वैसे ही अपना कोई ना कोई फ़साना बताने लगती हैं। समाचार चैनल ना लगाओ तो ज़िद करके लगवा लेंगी। इसीलिए अब चलाते ही नहीं। ऊपर से तंगी के चलते अब रीचार्ज़ भी नहीं हो पा रहा है। 

“इनको आज भी अपना वह दुख जब याद आता है तो इन्हें गहरी टीस देता है। जो इनके साथ तब हुआ था जब यह सोलह-सत्रह वर्ष की रही होंगी। उसी समय इनका निक़ाह एक फूफीजात भाई से कर दिया गया। यह इनका दूसरा निक़ाह था। पहला शौहर किसी बीमारी से बहुत जल्दी मर गया था। उससे इनके एक बेटी थी। वह भी साल भर की उम्र में हैजा से मर गई थी। 

दूसरा शौहर निक़ाह के कुछ दिन बाद ही इन्हें गाँव से लेकर यहाँ मुंबई (तब बम्बई) चला आया। आठ-दस दिन ख़ूब मौज़-मस्ती की। साथ लेकर ख़ूब घूमा-फ़िरा। यह बहुत ख़ुश हुईं कि अब अपना नसीब बढ़ियाँ हो चला है। 
ख़ूब चाहने, प्यार करने वाला शौहर मिला है। इन्हें तब यह ग़ुमान ही नहीं था कि चंद रोज़ की है यह चाँदनी, काली अँधेरी रात आने ही वाली है। क़हर टूटने ही वाला है। जिसे प्यारा शौहर समझ टूट कर चाह रहीं हैं, वही जीवन-भर के लिए दोज़ख़ में डालने वाला है। 

“उस मरदूद का मन जब इनसे भर गया, पैसे सारे ख़त्म हो गए तो शैतान इन्हें घुमाने के बहाने यहाँ कमाठीपुरा लेकर आया और यहीं किसी ज़हूरन बाई के कोठे पर बेच कर चला गया। 

“बोला थोड़ी देर में आता हूँ। लेकिन जब गया तो लौट कर फिर कभी नहीं आया। घंटे भर बाद ही जब इन्हें पता चला तो ख़ूब रोईं-धोईं। चीखीं-चिल्लाईं तो ज़हूरन ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। 

“इतना ही नहीं उसी रात ग्राहकों के सामने डाल दिया। रही-सही कसर दो-तीन ग्राहकों ने पूरी कर दी। यह सुबह तक बेहोश पड़ी रहीं। इतने पर भी जब इन्होंने छुटकारा पाने की कोशिश बंद नहीं की तो ज़हूरन ने इन पर बेइंतिहा ज़ुल्म किया। 

“भूखा रखा, डंडों, चिमटों, चमड़े की बेल्टों से मारा। बिना कपड़ों के रखा। एक अकेली जान, ज़हूरन और उसके दर्जन-भर दल्लों का कैसे मुक़ाबला करती और कब-तक करती, कितना करती। आख़िर इन्होंने अपने को नसीब के हवाले कर दिया।”

चाय पीती हुई अब-तक ध्यान से सुन रही हँसली ने कहा, “अरे रे रे बड़ा हरामी था साला। शौहर नहीं नंबर एक का हरामी दल्ला था, दल्ला। गाँव में ऐसे ही लड़कियों से निक़ाह कर करके उनको यहाँ लाकर बेच देता रहा होगा। 
 ऐसे हरामियों को तो टाँग पर टाँग रखकर चीर देना चाहिए। इस उमर में जब इनकी यह रंगत है तो जवानी में तो यह क़हर बरपाती रही होंगी। कमीने ने बहुत मोटी रक़म लेकर बेचा होगा इन्हें। सच में शौहर होता तो चाहे जो करता, मगर कोठे पर बेचने की बात तो सोचता भी नहीं। पक्का दल्ला ही था। और बता, फिर आगे क्या हुआ?” 

“अब आगे भी जो बातें हैं, वो इतनी हैं कि, कहती जाऊँ तो दिन, महीने साल बीत जाएँगे लेकिन इनके अफ़साने नहीं ख़त्म होंगे। ख़ुद को नसीब के हवाले करने के दो साल बाद एक बार फिर इनको लगा कि इनका नसीब खुलने वाला है। लेकिन तभी फैली महामारी स्पेनिश फ़्लू ने इनके नसीब को हमेशा के लिए बिगाड़ दिया। फिर ये हमेशा के लिए कमाठीपुरा की और कमाठीपुरा इनका हो गया।”

“कैसे भला? पूरा बता न, काहे को टाल रही है।” 

हँसली की इस बात पर रफ़िया ने कहा, “लगता है तू आज पूरी फ़ुर्सत में है।”

यह सुनते ही हँसली दोनों हथेलियों को भरपूर फैला कर एक ताली ठोंकती हुई बोली, “ऐ लो, कैसी बात करती है तू। इस कोरोना ने पूरी दुनिया को ही फ़ुर्सत दे दी है। सब घरों में बैठे ताली ठोंक रहे हैं, काढ़ा पी रहे हैं। तू भी ख़ाली बैठी फ़ुर्र-फ़ुर्र काढ़ा पी रही है कि नहीं। चल बोल न आगे।”

हँसली के ज़्यादा ज़ोर देने पर ज़किया ने रफ़िया से कहा, “आज ये पीछा छोड़ने वाली नहीं, सारा मग़ज़ ख़ाली करके ही मानेगी।” 

इतना सुनते ही हँसली ज़किया को मीठी झिड़की देती हुई बोली, “ए मूई तू चुप कर, ख़ाली काढ़ा पिला के गला जला रही है, ये नहीं कुछ खाने को ले आए। चल जा कुछ ले आ। ए तू चुप क्यों हो गई, चल आगे की सुना न।” 

हँसली फिर रफ़िया की ओर मुख़ातिब हो कर बोली तो रफ़िया ने हँस कर उसके दुपट्टे की ओर इशारा कर कहा, “पहले अपनी दुकान तो ढँक, बताती हूँ आगे क्या हुआ।” 

रफ़िया ने बड़ी देर से उसका दुपट्टा, उसकी गोद में गिर जाने से खुली, उसकी छातिओं की ओर इशारा करते हुए कहा, तो ज़किया खिलखिला कर हँस दी। सदफ़िया को बातें तो कुछ समझ में न आईं थीं, लेकिन सबको हँसता देख कर वह भी अपने पोपले मुँह से हँस दी। इससे खिसियाई हँसली ने एक ज़ोरदार ताली ठोंक कर रफ़िया से कहा, “ए तू मेरी दुकान में क्यों घुसी जा रही है, तेरा इरादा क्या है? तेरे से बहुत बड़ी है मेरी दुकान, खो जाएगी उसी में, हाँ।” 

इसके साथ ही उसने एक बड़ा ही अश्लील इशारा भी किया। उसे देखते ही ज़किया सहित सभी हँसती-हँसती दोहरी हो गईं। 

रफ़िया भी हँसती हुई बोली, “अब ऐसी भी बड़ी दुकान का क्या फ़ायदा जो सँभाले न सँभले। मेरी छोटी दुकान ही अच्छी है, कम से कम सम्भली तो रहती है।”

हँसली आगे कुछ और ऐसी-वैसी बात न बोले, इसलिए रफ़िया बात बदलती हुई बोली, “अब सुन आगे क्या हुआ। फ़साना तो लंबा है। लेकिन बहुत छोटे में बताऊँगी। ऐसा हुआ कि, इन्होंने ख़ुद को ज़हूरन के हवाले करने के बाद अपने काम से उसका विश्वास जीत लिया। 

“इनके ग़ज़ब के हुस्न के चलते दुगने ग्राहक आने लगे। और दूसरी लड़कियों की जगह ज़हूरन इनकी दोगुनी क़ीमत वसूलती। इन्होंने जल्दी ही कोठे पर अपना दबदबा क़ायम कर लिया। ज़हूरन के बाद कोठे पर इन्हीं की चलती। ज़हूरन जल्दी ही एक के बाद एक काम इन्हीं पर डालती चली गई। तभी महामारी फैल गई। लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने लगे। आज की तरह तब दवाई-सवाई तो थी नहीं। 

“जो भी उस बीमारी के चपेट में आया वह बचा नहीं। आज की तरह सरकार की तरफ़ से राशन-पानी का भी कोई इंतज़ाम नहीं किया गया था। ग्राहक नज़र नहीं आते थे। एक महीना दो महीना करते-करते दो साल बीत गए। बीमारी से ज़्यादा लोग तो भूख से मर गए। 

“ये बार-बार यही बताती हैं कि, देखते-देखते कमाठीपुरा वीरान हो गया। कोई कोठा ऐसा नहीं बचा था, जिसकी आधी या फिर बहुत से ऐसे थे जिसमें सभी की सभी लड़कियाँ मर गईं। ऐसे भी कोठे थे जिन पर कोई ताला लगाने वाला भी नहीं बचा था। ख़ौफ़ इतना कि किसी में कुछ छूने की ज़ुर्रत नहीं थी। विरान पड़े कोठे कुत्ते, बिल्लिओं, के डेरे बन गए। 

“इनके कोठे पर ज़हूरन सहित कई और लड़कियों को फ़्लू ने निगल लिया। मेरी तो आज भी यह सुन कर रूह काँप जाती है कि एक साथ कोठे से चार मय्यत निकली थीं कब्रिस्तान के लिए। कंधा देने वाला भी कोई नहीं था। जैसे-तैसे मिट्टी ख़ाक के हवाले कर दी गई। 

“ज़हूरन के जाने के साथ ही यह कोठे की मालकिन बन गईं। सब एक-एक दिन गिनतीं कि अब उनकी बारी, अब उनकी बारी। लेकिन ज़हूरन के बाद इनके कोठे पर किसी और की बारी नहीं आई। 

“देखते-देखते एक साल बीता, दूसरा बीता, बीमारी कभी क़मज़ोर पड़ती, कभी लौट आती। फिर ऐसे ही ख़त्म होने को आ गई। दल्ले फिर से नई-नई लड़कियाँ लाकर कोठे गुलज़ार करने में लग गए। ग्राहक लाने लगे। कमाठीपुरा फिर गुलज़ार होने लगा। 

“इसी बीच एक दिन, एक दल्ला, एक ग्राहक रणजीत बख्स सिंह को लेकर इनके पास आया। यह आज भी उसका नाम भूली नहीं हैं। ज़हूरन के जाने के बाद से ही इन्होंने किसी ग्राहक के साथ सोना बंद कर दिया था। कोठे की मालकिन होने के नाते भी किसी ग्राहक के साथ सोती नहीं थीं। जबकि किसी भी कोठे की सबसे कम उम्र की मालकिन थीं। 

“शबाब में कोठे की सारी लड़कियाँ इनके सामने कहीं ठहरती ही नहीं थीं। रणजीत बख्स बजाय किसी और लड़की के इन्हीं पर फ़िदा हो गया। सेना का अधिकारी था। विश्व-युद्ध में न जाने कहाँ-कहाँ लड़ कर लौटा था। 

“वह किसी ज़मींदार का बेटा था। बहुत ही ख़ूबसूरत था। जल्दी ही इनका भी मन उस पर आ गया। वह इनको अपनी बेग़म बनाने की बात करने लगा। लेकिन इनका मन पहले इतना और इतनी बार टूटा था कि इनको उसकी बात पर यक़ीन ही नहीं होता। 

“लेकिन वह भी ज़िद का पक्का था। आख़िरकार इनको उसकी बात पर विश्वास हो गया। यह उसके साथ जाने, शादी करने को तैयार हो गईं। कोठा किसी और को सौंपने, जाने की तैयारी करने लगीं। ज़हूरन की तरह अपनी सबसे भरोसेमंद ख़ास लड़की को कोठे की मालकिन बनाने की तैयारी भी कर डाली। 

“मगर तभी इनकी बदक़िस्मती एक बार फिर जाग उठी। जिस बीमारी को समझा गया कि वह विदा ले चुकी है, वह जाते-जाते इनके नसीब को ऐसा कुचल गई कि यह फिर कभी उबर न सकीं। वह स्पेनिश फ़्लू इनके सपनों के शहज़ादे रणजीत को भी साथ लेते गया।”

अपनी बात पूरी करते ही रफ़िया ने एक गहरी साँस ली। हँसली एक चुप, हज़ार चुप बड़ी ग़मगीन सी उसे देख रही थी। इसी बीच रज़िया एक थाली में ढेर सा लइया, चना, नमक मिला कर ले आई। उसमें चना कहने भर को था। हरी मिर्च की जगह लाल पिसी मिर्च दिख रही थी। 

रज़िया तिपाए पर थाली रख भी न पाई थी कि हँसली ने एक भरपूर मुट्ठी उठा कर मुँह में डाल लिया और जल्दी-जल्दी चबाती हुई बोली, “हाय-हाय, नसीब का इतना ज़ालिमाना मज़ाक। मैं तो समझती रही कि ऊपर वाला सबसे ज़ालिमाना मज़ाक हम जैसों को ऐसा बना कर करता है। हाय रे रे। मैं बेवजह बुढ़िया की खिल्ली उड़ाती रही। बड़ी दुःखियारी है ये तो। अब कभी कुछ न कहूँगी। तौबा मेरी तौबा।”

हँसली ने अपने दोनों कान पकड़ते हुए आगे कहा, “लेकिन ये ऐसी ग़मगीन ज़िन्दगी जीते रहने की काहे ज़िद किए हुए है। और इक्कीस साल में इसे क्या मिल जाएगा।”

इतना कहते हुए उसने मुँह में भरी लइया ख़त्म कर पान-मसाला का पाऊच निकाल लिया। शायद उसे लइया बिलकुल अच्छी नहीं लगी थी। मसाला देखते ही ज़किया टोकती हुई बोली, “अरे नहीं-नहीं, खाओगी तो थूकोगी, इससे कोरोना फैलने का डर है। पुलिस देख लेगी तो जुर्माना अलग है।” ज़किया की आवाज़ में थोड़ी तल्ख़ी थी। 

हँसली थोड़ा सकपका गई। रफ़िया ने भी ज़किया की बात दोहरा दी तो हँसली ने पाऊच वापस कुर्ते की जेब में रखते हुए कहा कि, “सच रे तू तो शेरनी है शेरनी। बुढ़िया के बाद तू ही बन यहाँ की महारानी। ले नहीं खाती। हाँ तू आगे बता।”

हँसली ने एक तरह से ज़किया पर व्यंग्य कर अपना ग़ुस्सा ही उतारा था। समझ ज़किया भी गई थी। असल में वह चाहती ही नहीं थी कि वह इन हालात में आए और कोठे पर रुके। 

उसे ग़ुस्सा आ रहा था कि जब सरकार कह रही है घर से बाहर न निकलें, न अपनी और न ही दूसरों की जान को संकट में डालें। संक्रमण फैलाने वाले न बने। यह फिर भी ज़बरदस्ती आकर बैठी हुई है। पुलिस वाले भी मूर्ख ही रहे होंगे जो इसे घूमने दे रहे हैं। इसे पकड़ा नहीं। 

उसने मन ही मन सोचा अगर यह जल्दी ही न गई तो इससे कह दूँगी जाने के लिए। हो जाए ग़ुस्सा मेरे ठेंगे से। रफ़िया भी यही चाहती थी कि वह चली जाए। इसलिए वह बातों को समेटने में लगी रही। 

उसने ज़किया की तरफ़ देखते हुए कहा, “इसके ख़्वाब बहुत ऊँचे हैं। यह इस गंदगी से निकलना चाहती है। मुझे क्या, यहाँ हम-सब को भरोसा है कि यह इस गंदगी से बाहर अपनी साफ़-सुथरी इज़्ज़त से भरी दुनिया बना लेगी। इतना सब के बाद भी इस गंदगी में रह कर भी जैसे-तैसे अपनी पढ़ाई जारी रखी हुई है। फूफी इसकी ज़ेहनियत देख कर ही तो इसे पढ़ाने लगी। 

“बहुत महीना पहले ही कई बार बोल चुकी है कि कमाठीपुरा जल्दी ही ख़त्म होने वाला है। कुकुरमुत्तों से उग आए हैं कमाठीपुरा न जाने कितने होटलों, घरों में। थकी-हारी हिरोइनें, पढ़ने-लिखने वालियाँ, बहुत सी नौकरी वालियाँ पूरा का पूरा चलती-फिरती कमाठीपुरा बन गई हैं। फूफी को तो ख़ैर इतना नहीं मालूम था। 

“यही उनको मोबाइल से सब पढ़कर सुनाती दिखाती रहती है। तभी से तो वह इसके पीछे पड़ी रहती हैं कि हम-लोगों की तो बाक़ी बची ज़िन्दगी कट जाएगी किसी तरह, मगर तेरा तो अभी पूरा जीवन पड़ा है। मगर हालात देखो कि देखते-देखते सब बंद हो गया। 

“रोज़-रोज़ सब समाचार में बताते हैं कि यह बीमारी लंबे समय तक हमारे साथ बनी रहेगी। कोई दवा नहीं है, बचाओ ही इलाज है। तो सब बंद ही समझो। 

“कोई मरने तो कमाठीपुरा आएगा नहीं। अब दुकान करने, सब्ज़ी बेचने के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं है। सरकार भी राशन, पैसा उसे ही दे रही है जिसका राशन कार्ड, बैंक अकाउंट है। पैसा सीधे उसके अकाउंट में जा रहा है। हम लोगों के पास तो कार्ड भी नहीं है।”

अब-तक कुछ गंभीर हो चुकी हँसली ने कहा, “यही रोना तो यहाँ भी है। ना बाप का पता, न महतारी का, ना तो घर का। तो कहाँ से बनेगा राशन कार्ड, वोटर आई डी कार्ड। बाक़ी सब बिना काम-धाम के भी खाएँगे जिएँगे। और हम लोग . . .”

यह कहती हुई हँसली ने तीन चार तालियाँ ठोंक दीं। 

यह देख रफ़िया, ज़किया, रज़िया तीनों ने सोचा चलो बात ख़त्म हुई। अब यह यहाँ से जल्दी जाए। लेकिन तभी सदफ़िया ने फिर कुछ कह दिया। जिसे समझते ही रफ़िया ने मन ही मन कहा अरे बूढ़ा चुप क्यों नहीं रहती। टलती बला को फिर रोक लिया। 

उसकी आशंका सही निकली। इस बार हँसली ने सदफ़िया की बात समझ ली। छूटते ही बोली, “तेरा दिमाग़ भी बूढ़ा गया है। हिल गया है। अरे देखना सब चलेगा, यह कमाठीपुरा भी चलेगा। अरे जब तू इक्कीस साल और जीने के लिए खूँटा गाड़े बैठी है, तो कमाठीपुरा और आगे काहे नहीं बढ़ेगा। तेरे को कुछ याद भी है। 

“जब एड्स आया तब भी ऐसे ही हा-हा कार मचा था, कि सब ख़त्म हो जाएगा, कोई कमाठीपुरा बचेगा ही नहीं। इसकी कोई दवा नहीं है। आदमी औरत मिले नहीं कि मरे। लेकिन देख ना, ऐसा कुछ हुआ, सब-कुछ तो वैसे ही चलते चला आ रहा है। 

“कुछ दिन धंधा मंदा ज़रूर पड़ा। लेकिन फिर सारा धंधा वैसे ही चल निकला कि नहीं। सब गुब्बारे लेकर फिर से दौड़ते-भागते कमाठीपुरा आने लगे। दुनिया-भर के सारे कमाठीपुरों की रौनक़ फिर से लौटने लगी। बल्कि गुब्बारों के साथ तो धंधा और भी चल निकला। दवाई कंपनियों का भी। 

“ख़ाली यह गुब्बारा ही बेच-बेच कर अपना ख़ज़ाना भर रही हैं। और बेवकूफ़ गुब्बारा ख़रीद-ख़रीद कर लुटा रहे हैं अपना ख़ज़ाना। अब तू ही बता बंद हुआ कुछ। देखना इस कोरोना वायरस वग़ैरह से भी कुछ नहीं होगा। यह सब हारेंगे। 

“अरे आदमी से बड़ा वायरस कोई हुआ है क्या आज-तक। देखना ई दवा कंपनियाँ मुँह का भी कोई गुब्बारा ले आएँगी। गुब्बारा ही बेच-बेच कर अपना ख़ज़ाना भरेंगी। उनका मुनाफ़ा कई गुना बढ़ जाएगा। वह भी मज़े में रहेंगे, वायरस भी मज़े में रहेगा। ग्राहकों की भी चाँदी रहेगी। सारे कमाठीपुरा फिर से सोना ही सोना काटेंगे। चाँदी नहीं। समझी बूढ़ा, सब चलेंगे नहीं दौड़ेंगे।” 

रफ़िया ने देखा कि ज़किया हँसली की बातों, फूफी को बार-बार बूढ़ा कहने से बहुत उबल रही है। बात कहीं बिगड़े ना तो फ़ौरन ही इस बात को ख़त्म करने की सोच कर बोली, “अरे बंद करो फ़ालतू की बातें। कमाठीपुरा चलेगा तो तो चलेगा, नहीं चलेगा तो भी कुछ करके चलाएँगे ही जीवन।”

इसी समय हँसली का फ़ोन बज उठा। कॉल रिसीव करके बात करती हुई वह उठ खड़ी हुई। कुछ ही सेकेण्ड में अपनी बात ख़त्म करके बोली, “अब मैं चली, मुओं ने कहीं से दारू का जुगाड़ कर लिया है। जल्दी नहीं पहुँची तो सब अकेले ही उड़ेल लेंगे।”

हँसली ने बात पूरी करने से पहले ही एक कान में लटके मास्क को मुँह पर चढ़ाया और भागती हुई निकल गई। उसके जाते ही ज़किया बोली, “चलो बला टली। लेकिन मेरा काम बढ़ा गई। सारा घर धोना पड़ेगा। आज, अभी लिखकर दरवाज़े पर चिपका देती हूँ कि कोरोना काल में ‘सदफ़िया मंज़िल’ के अंदर आना सख़्त मना है। अब इसको तो कभी नहीं घुसने दूँगी।”

रफ़िया बोली, “अब चुप भी हो जा। इतना ग़ुस्सा ना किया कर।”

“क्यों ना किया करूँ। बार-बार धोना तो मुझे पड़ता है।”

अपनी बात कहते-कहते ज़किया धुलाई के लिए भीतर से सिरका, नमक, पानी का घोल लेने चली गई . . . 

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