मोटकी

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 258, अगस्त प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

मैं बीते तीस बरसों से कोई ऐसी लड़की ढूँढ़ रहा हूँ जो अपने माँ बाप, भाइयों, भाभियों के प्रति उतनी या उससे ज़्यादा निष्ठुर हो जितनी मोटकी है। उसे लड़की ही कहूँगा, क्योंकि परिवार सहित दुनिया की नज़रों में वह बावन बरस की होकर भी लड़की ही है। वह लड़की नहीं है यह सिर्फ़ मैं जानता हूँ या वो स्वयं। हाँ! मेरी पत्नी भी। गज़ब है या महान है क्या कहूँ पत्नी को यह भी बीते पचीस बरसों से नहीं समझ पा रहा हूँ। 

मोटकी और मेरे गहरे रिश्ते हैं। यह वो शादी के कुछ ही महीने बाद ही अच्छी तरह जान गई थी। शादी के क़रीब दो साल बाद ही एक दिन उसने सीधे मुझसे ही यह पूछ लिया था कि, “सीमा, जिसे आप न जाने क्यों हमेशा मोटकी ही कहते हैं, उनसे आख़िर आपका सचमुच में रिश्ता क्या है? क्योंकि जिस तरह आप दोनों मिलते हैं, वह देखने वालों के मन में संदेह पैदा करता है। संदेह के यह बादल इतने घने हैं कि अब मैं हर कोशिश करके भी अनदेखा नहीं कर पा रही हूँ।”

कुछ सेकेण्ड उसकी बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों को पढ़ने की कोशिश करने के बाद मैंने पूछा, “तुम्हें संदेह किस बात का है?” 

उसने तुरंत ही कहा, “यही कि आप दोनों के बीच एक पति-पत्नी जैसे रिश्ते हैं।”

एकदम सीधे-सीधे कही गई उसकी इस बात से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ, मैं चौंका भी नहीं। एक दिन पत्नी की ऐसी बात का मुझे सामना करना है इसका अहसास मुझे पहले से था, बल्कि यह कहूँ कि पूरा विश्वास था। 
एक बार फिर उसका चेहरा पढ़ने का प्रयास करने लगा। क़रीब तीन महीने पहले ही वह मिसकैरिज की तकलीफ़ से गुज़र चुकी थी। अम्मा ने इसके लिए मेरी लापरवाही को ज़िम्मेदार माना। सारा दोष मुझ पर मढ़ दिया था और अपनी बहुरिया की ऐसी सेवा की कि उसका वज़न ख़ूब बढ़ गया। चेहरा क्या पूरा बदन ही एक ख़ास तरह की चमक से दमकने लगा था। उस दमकते चेहरे पर मैं अनगिनत प्रश्न पढ़ रहा था। 

मैंने सोचा इसके हर प्रश्न का उत्तर दे पाना तो बहुत मुश्किल होगा। सारे उत्तरों से तो बड़ी समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं। मुझे चुप देखकर वह सीधे मेरी आँखों में देखती हुई बोली, “मैं कोई पहली बार आपके सामने नहीं आई हूँ, जो ऐसे एकटक मुझे देख रहे हैं। मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर चाहिए। और सच ही बोलियेगा। हमेशा कहते हैं न कि जो आपके मन में होता है वही ज़ुबान पर भी, तो देखती हूँ आज मन, ज़ुबान की बातों में कितनी समानता है।”

यह कहकर उसने सच ही बोलने के लिए बड़ा दबाव डाल दिया था। मैं उत्तर देने ही जा रहा था कि वह फिर बोल पड़ी, “अगर सच बोलने में मुश्किल हो रही है, तो कुछ भी न बोलिये, चलिए सो जाइये। मैं सब समझ गई हूँ। आपने बिना बोले ही इतना कुछ बता दिया है कि अब और कुछ मुझे जानना ही नहीं।” 

उसके चेहरे पर व्यंग्य भरी हल्की मुस्कुराहट थी। रूम हीटर ऑफ़ करके वह कम्बल ऊपर खींचने लगी तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर, अपने पास खींचते हुए मज़ाकिया लहजे में कहा, “सुनो सुनो प्रिये, ऐसे अधूरी बात के साथ लेटे तो नींद नहीं आएगी। मोटकी के साथ अपने रिश्ते को मैं पति-पत्नी जैसा नहीं मानता। उससे हमारा रिश्ता एकदम डिफरेंट टाइप का है।”

“अच्छा! तो उसके साथ आपके फिज़िकल रिलेशन नहीं हैं?” 

मुझे लगा वह कुछ आक्रामक हो उठी है। मैंने प्यार से उसके दोनों गालों को हल्का सा खींचते हुए कहा, “उससे जो भी रिश्ता है, जैसा भी है, सब बताता हूँ। ठंडे दिमाग़ से सुनोगी तो तुम्हें कुछ भी ग़लत नहीं लगेगा। यह सच है कि उसके साथ मेरे फिज़िकल रिलेशन हैं, यह रिलेशन तुमसे शादी करने से कई बरस पहले से हैं।”

यह सुनते ही उसकी आँखें भर आईं। भरी हुई आँखों से एकटक मुझे देखने लगी। आँसू पलकों से बाहर ढुलकने ही वाले थे लेकिन अन्य तमाम महिलाओं की तरह ऐसी बात सुनकर भी वह चीखी-चिल्लाई नहीं, शांत मेरी आँखों में देखती रही तो मैंने उसके आँसू पोंछते हुए कहा, “हमारे उसके रिश्ते के बारे में कोई धारणा बनाने से पहले पूरी बात ध्यान से सुन लो . . .” लेकिन वह बीच में ही बोल पड़ी, “अब और क्या सुनना, जब उनसे ऐसे रिश्ते थे तो उन्हीं से शादी क्यों नहीं की? दो नावों या कई नावों की सवारी करने की क्यों सूझी, यह जानते हुए भी कि यह बिलकुल ग़लत है। औरत कोई खिलौना तो नहीं, कि चलो खेलना है और कई-कई ले लिए। किसी ने भी आज तक इसे सही नहीं कहा है।”

उसकी आवाज़ में ग़ुस्सा साफ़ झलक रहा था। मैंने बहुत ही पोलाइटली कहा, “देखो मैंने दो नावों की सवारी के बारे में न पहले, न ही शादी के बाद कभी सोचा, जीवन में बहुत सी बातें परिस्थितियों वश अनायास हो जाती हैं। मोटकी से रिश्ता भी ऐसा ही रिश्ता है। जब वह पहली बार प्रेगनेंट हुई, तो पता चलते ही अबॉर्शन कराने की ज़िद कर बैठी। 

“मैंने कहा, ‘ऐसा क्यों कह रही हो हम कल ही शादी कर लेते हैं, घर वालों ने ऐक्सेप्ट किया तो ठीक है, नहीं तो हम अलग रहेंगे, इस तरह एक मासूम बच्चे को दुनिया में आने से पहले ही मारना ठीक नहीं है। हम अपनी लापरवाही की सज़ा अपने ही बच्चे को कैसे दे सकते हैं?’” 

आवेश से भरी पत्नी फिर बीच में ही बोली, “क्यों, ये इंटरकास्ट मैरिज होती इसलिए उनके और यहाँ घर पर कोई आप दोनों की शादी को ऐक्सेप्ट नहीं करता।” 

“इतनी एक्साइटेड न हो, पहले पूरी बात सुनो। उसने शादी के स्टेज तक बात पहुँचने की नौबत ही नहीं आने दी। प्रेग्नेंसी कन्फ़र्म होते ही वह एकदम भड़क उठी, एक ही बात चिल्लाने लगी कि, ‘मुझे कुछ भी नहीं सुनना समझे, मुझे अबॉर्शन कराना है, कराना है, कराना है समझे!’ मैंने उसे दो दिन समझाया कि ऐसा मत करो। 

“बच्चे के साथ उसे इमोशनली जोड़ने की कोशिश की कि किसी तरह वह ज़िद छोड़ दे। उससे बार-बार कहा तुम्हें अपने ही बच्चे को इस तरह ख़त्म करते हुए ज़रा भी दया नहीं आ रही है। सोचो लोग एक बच्चे के लिए क्या-क्या नहीं करते, गोद तक लेते हैं। एक नन्हा मुन्ना तुम्हारी ही तरह प्यारा सा बच्चा तुम्हारी हमारी गोद में खेलेगा तो कितनी अद्भुत ख़ुशी मिलेगी। लेकिन उसे जितना समझाता वह उतना ही ज़्यादा एग्रेसिव होती जाती। 

“दूसरे दिन जब वह मुझ पर चीखती हुई यह बोली, ‘तुम कुछ भी कहो, मुझे कुछ भी नहीं सुनना, नहीं सुनना, मुझे बच्चे, शादी-वादी इन सारी बातों से घृणा है। तुम मुझे इन्हीं सब में क्यों उलझाना चाहते हो? बार-बार कह रही हूँ, मेरी बात सुनते क्यों नहीं?’ 

“आख़िर वो अपनी ज़िद पूरी करवा कर ही मानी। यहाँ लखनऊ में बात नहीं बन पाई तो हरदोई जैसे छोटे शहर में जाकर एबॉर्ट करवाया। 

“अबॉर्शन होते ही वह ऐसे ख़ुश हुई जैसे मौत की सज़ा से आक्रांत कोई अपराधी अचानक ही ससम्मान मुक्त कर दिया जाए। उसकी ख़ुशी देखकर मैं हतप्रभ था। उसकी ख़ुशी को कुछ देर संज्ञाशून्य सा देखता ही रह गया।”

“इसके बावजूद आप आज भी ऐसी कठोर हृदय महिला के प्यार में आकंठ डूबे हुए हैं, वो महिला जो आपके, अपने अजन्मे बच्चे का जीवन समाप्त कर के ही नहीं मानी बल्कि अत्यधिक ख़ुश भी हुई। क्या कहूँ उन्हें और क्या कहूँ आपको, मैं! . . .”

“मैं बार-बार कह रहा हूँ कि कुछ भी कहने से पहले बात पूरी सुन लो,” मैंने उसे बीच में ही रोक दिया, उससे कहा, “बच्चे को लेकर मेरा मन आज भी दुखी होता है। लड़की या लड़का जो भी होता हमें पैरेंट बनने की ख़ुशी मिलती। लेकिन उस बच्चे पर सारा अधिकार अकेले मेरा ही नहीं था, वो माँ थी। बच्चा उसके पेट में था, उसे जन्म देने न देने का फ़ाइनल डिसीज़न उसको ही लेना था, जो उसने लिया। जो मुझे करना था वो मैंने किया।”

“इतना आदर्शवादी बनना भी ठीक नहीं, अति है ये। बच्चे पर माँ-बाप दोनों ही का बराबर का अधिकार होता है, इसलिए फ़ाइनल डिसीज़न किसी एक का नहीं दोनों का होगा। आप उनके प्यार में वो नहीं कर पाए जो आपको करना था। आप की बातों से लग रहा है कि आप उनसे दबते रहे और आज भी उन्हें ही बचाने में लगे हुए हैं। 

“समझ में नहीं आता आप पर उनका कौन-सा जादू है, जिससे आप एकदम मेस्मराइज़्ड हैं। इतना ज़्यादा कि अपनी ही नवविवाहिता पत्नी से एक दूसरी स्त्री से अपने शारीरिक संबंधों को बड़े साहस, बड़ी बहादुरी, बड़े गर्व से बता रहे हैं, उसे देवी बनाने की हर कोशिश कर रहे हैं।”

पत्नी की आँखें अब भी गीली और सुर्ख़ हो रही थीं। वह ऐसा तीखा व्यंग्य भी कसेगी ऐसा मैंने सोचा नहीं था क्योंकि उसे मैं एक बेहद सहनशील, सहृदय और एक असाधारण पत्नी मानता था, अब भी यही मानता हूँ। लेकिन उस समय मेरा मूड ख़राब हो गया। उससे इतनी कठोर बात की मुझे उम्मीद नहीं थी। 

मैंने उससे थोड़ा खीझते हुए कहा, “देखो अगर शान्ति से बात सुनना समझना चाहती हो तो मैं आगे बोलूँ नहीं तो बंद कर दूँ, उसने ऐसा क्यों किया, वो ऐसी क्यों है, उसके साथ उसके माँ-बाप, भाइयों ने जो कुछ किया, उसके बाद तो उसकी जगह जो भी लड़की होती वो वैसी ही होती जैसी मोटकी है।”

यह सुनकर पत्नी की भावभंगिमा काफ़ी कुछ बदल गई। उसका स्वर भी काफ़ी नम्र हो गया। उसने पूछा, “उनके माँ-बाप, भाइयों ने ऐसा भी क्या किया जो वो ऐसी पत्थर हृदय हो गईं कि अपने अजन्मे बच्चे को ही मार दिया।”

“ऐसा बहुत कुछ हुआ है उसके साथ, ऐसा कुछ हुआ है जिसके दर्दनाक चिह्न उसके बदन पर आज भी हैं, और जीवन भर रहेंगे।”

“क्या!”

“हाँ, जीवनभर! अबॉर्शन के बाद उसे लेकर अगले दिन लौट रहा था। कार में पिछली सीट पर मैं बैठा हुआ था। वो मेरी गोद में सिर रखे सो रही थी। एकदम निश्चिन्त। मगर मेरे दिमाग़ में उसकी बातें बवंडर की तरह घूम रही थीं। यह अगले कई दिनों तक चलता रहा। वो हफ़्ते भर की छुट्टी ख़त्म होने के बाद आराम से ऑफ़िस जाने लगी। बच्चों, शादी से उसकी घृणा वाली बात ने मुझे बेचैन किया हुआ था कि मैं तो इससे शादी, परिवार की सोच रहा हूँ और इसे इनसे ही घृणा है। 

“मैं अपने को ज़्यादा दिन रोक नहीं पाया। उससे बात की तो वह फिर भड़क उठी। तो मैंने भी साफ़ कह दिया कि जीवन इस तरह नहीं चलता है, कम से कम मैं ऐसा तपते रेगिस्तान जैसा जीवन जीने की नहीं सोचता। बिना परिवार बच्चों के जीना मैं तपते वीरान रेगिस्तान में अकेले जीवन जीने जैसा मानता हूँ। लेकिन वह अपनी बात पर अड़ी रही, मैं अपनी। 

“बहस महीनों चली। रिश्तों में खटास आने लगी। मुझे लगा कि शायद हमारे रास्ते अलग होने का समय आ गया है। लेकिन हम दोनों ही किसी हालत में अलग नहीं होना चाहते थे। विशेष रूप से वह। 

“एक दिन मैंने बात उठाई तो उसने बिना लाग-लपेट के कहा, ‘सुनो जिस दिन तुम मुझसे अलग हुए, उसी दिन मैं सुसाइड कर लूँगी समझे, जिस दिन मुझे मारना हो उस दिन मुझसे अलग हो जाना बस।’ इतना कहते-कहते वह रोने लगी . . .” 

“हद है, न इधर चलना न उधर चलना, यह तो इमोशनली ब्लैकमेल करने जैसा है।” 

“नहीं ऐसा नहीं है। उस समय तक हम रिश्तों में इतने गहरे उतर चुके थे कि अलग होने की सोच ही नहीं पा रहे थे।”

“बड़ी अजीब बात है। जब इतना क़रीब थे, तो उन्होंने आपको शादी कैसे करने दी। शादी की अल्बम, वीडियो में तो देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई लड़की अपने सगे भाई की शादी में ख़ुशी से झूम रही है, डांस कर रही है। ऐसी विचित्रता मैंने न पहले कभी देखी, न सुनी, यक़ीन है कि आगे भी नहीं सुनूँगी . . .” 

पत्नी एकदम खीझ कर बोली तो मैंने उसे समझाते हुए कहा, “कुछ भी विचित्र या अनोखा नहीं है। उसके साथ बचपन से लेकर बड़ी होने तक जो क्रूर व्यवहार उसके परिवार ने किया उससे वो ऐसी मनःस्थिति में पहुँच गई कि उसे परिवार शब्द से घृणा हो गई, इसलिए उसने मेरे साथ एक ऐसे प्रगाढ़ मित्र का रिश्ता बनाया जिसकी सीमा में फिज़िकल रिलेशन तो शामिल है लेकिन शादी, परिवार, पूरी तरह से प्रतिबंधित था, आज भी है। 

“जब मैंने शादी परिवार पर ज़्यादा ज़ोर दिया तो उसी ने मुझसे पूरा ज़ोर देकर कहा, ‘तुम शादी कर लो। ज़रूरी नहीं कि तुम मेरे लिए मेरे जैसे बन जाओ। तुमने मेरे लिए आजतक जो किया उसकी कोई सीमा नहीं है। तुम न होते तो मैं कब का मर गई होती। मेरे लिए किसी देवता से कम नहीं हो। 

‘इसलिए मेरे कारण तुम्हारा जीवन बर्बाद हो ये मैं बिल्कुल नहीं सह पाऊँगी। हाँ शादी के बाद कभी कभार मुझे भी थोड़ा समय दे दिया करोगे तो वह ही मेरे लिए बहुत होगा, बस और कुछ नहीं चाहिए तुमसे।’

“उस समय वह बहुत रोई थी, लेकिन इसके साथ ही वो मेरी शादी के लिए उसी तरह ज़िद कर बैठी जैसे अबॉर्शन के लिए की थी।”

“तो आपने उनके कहने पर मुझसे शादी की, उनकी यह बात मानते हुए कि शादी के बाद भी आप उनसे रिश्ते को बनाए रखेंगे।”

पत्नी की आवाज़ में क्रोध का पुट था। और बात भी बिल्कुल ग़लत थी। मुझे यह अच्छा नहीं लगा। मैंने उसे तुरंत ही टोकते हुए कहा, “कैसी बात कर रही हो, उस समय तक तो तुम्हारा क्या किसी का भी कहीं नाम पता ही नहीं था कि किससे शादी करूँगा। उसकी ज़िद थी कि शादी कर लूँ बस। 

“शादी के बाद भी उससे रिश्ता रखूँ यह उसने मेरी इच्छा पर छोड़ दिया था। इसके बावजूद मुझे शादी के लिए ख़ुद को तैयार करने में क़रीब साल भर लग गया था। मेरी शादी से वो सच में बहुत ख़ुश थी। उसकी ख़ुशी तुमने ख़ुद शादी में देखी ही थी।”

मेरी बात सुनती हुई पत्नी ध्यान से मुझे देखती रही। कुछ बोली नहीं तो मैंने कहा, “अब तुम्हीं बताओ जिस औरत ने मेरी इच्छा, मेरी ख़ुशी के लिए इतना कुछ किया उससे सारे रिलेशन कैसे ख़त्म कर दूँ?” 

“मैंने कुछ ख़त्म करने के लिए कहा ही कहाँ, और उससे पहले यह कि आपके और उनके बीच कुछ ख़त्म ही कहाँ हुआ है, मुझसे शादी से पहले आप दोनों के रिश्ते में शरीर था, आज भी है। तो दोनों पर कोई फ़र्क़ पड़ा ही कहाँ जो उन्हें या आपको कोई परेशानी होती। 

“फ़र्क़ तो मुझ पर पड़ रहा है कि मेरा सुहाग बँटा हुआ है। जो शरीर और मन दोनों के साथ न उनके पास रह पाता है न मेरे पास। जब शरीर उनके पास होता है तो मन यहाँ, जब शरीर यहाँ होता है तो मन वहाँ। जैसे इस समय मन तुम्हारा वहीं, अपनी प्रिय मोटकी के पास है।”

पत्नी के इस तीखे व्यंग्य बाण से मैं बुरी तरह घायल तो ज़रूर हुआ लेकिन मुँह से आह भी नहीं निकलने दी क्योंकि अपनी जगह वो सही थी, और मैं अपने को ग़लत नहीं मान रहा था। 

मुझे अपने बीच तनाव पैदा होने का अहसास होने लगा तो मैंने उसे मोटकी की यातनाओं के बारे में बताना शुरू कर दिया। सोचा महिला होने के नाते इससे यह मोटकी के प्रति ज़्यादा संवेदनशील हो सकेगी। मेरा अनुमान सही निकला। 

उसे पहले एक वह छोटी सी घटना बताई, जिसमें मोटकी को एक मामूली सी ग़लती नहीं बल्कि उसके बचपने के कारण, उसकी माँ ने उसे बैलों को बाँधने वाले पगहा (जानवरों को खूँटे से बाँधने वाली मोटी रस्सी) से इतना मारा था कि उसकी सच में चमड़ी उधड़ गई थी। पीठ में क़रीब आठ इंच लम्बा घाव कोई दवा आदि न होने के कारण पक गया था। 

उसकी फ़्रॉक बार-बार उसमें चिपक जाती थी, वह छुड़ाती तो ख़ून निकलने लगता। गर्मियों के दिन थे, वह जलन, दर्द से रात-दिन जल से बाहर जा पड़ी मछली की तरह फड़फड़ाती थी लेकिन माँ-बाप सहित कोई भी उसे डॉक्टर के पास नहीं ले गया। बारह-तेरह साल की लड़की के साथ दुश्मनों सा व्यवहार हो रहा था। 

पीड़ादाई घाव से मुक्ति के लिए माँ द्वारा भी दुत्कार दी गई वह छोटी बच्ची जो समझ पाती वह करती, नीम की पत्तियाँ उबाल कर उसके पानी से घाव धोती, तो कभी नारियल तेल लगाती। पीठ में होने के कारण यह सब ठीक से कर भी नहीं पाती थी। 

अंततः तीन महीने में उसका घाव तो ठीक हो गया, लेकिन उसके हृदय और पीठ पर उसके निशान आज भी हैं, जो घर के लिए उसमें जलती क्रोधाग्नि को बुझने नहीं देता। वह कहती है कि, इस निशान के कारण वह कभी डीप बैक ब्लाउज, साड़ी नहीं पहन पाती, पीठ को हमेशा ढँकती रहती है।”

यह घटना सुनते ही पत्नी बहुत भावुक हो कर बोली, “हे भगवान, कैसे माँ-बाप हैं। कोई अपनी ही लड़की के 
साथ ऐसा कसाइयों जैसा व्यवहार कहाँ करता है। ये उनकी सगी लड़की नहीं हैं क्या?” 

“सगी ही है। जो बताया यह तो कुछ भी नहीं है उसके सामने जो और तमाम घटनाएँ उसके साथ हुईं, सुनोगी तो रो दोगी।”

“आख़िर ये ऐसा क्या करती थी जो सब इनके दुश्मन बने हुए थे। एक दो लोग ग़लत हो सकते हैं, पूरा परिवार तो ग़लत नहीं हो सकता न।”

पत्नी की इस बात से मुझे लगा कि बात को मैं जिस ट्रैक पर ले जाना चाहता था, वह उसी ट्रैक पर चल पड़ी है। मैंने कहा, “मोटकी के साथ जो कुछ हुआ, उसका एकमात्र कारण या उसकी एकमात्र ग़लती यह थी कि, वह शोख़ चंचल तितलियों की तरह मस्त गगन में उड़ने को हर क्षण मचलती रहती थी, मगर अपनी हमउम्र लड़कियों संग नहीं, बल्कि लड़कों संग . . .”

“लड़कों संग!”

“हाँ, लड़कों संग। इसके माँ-बाप को यह पसंद नहीं था। वह मना करते, कितनी भी सख़्ती करते लेकिन ये छिप-छिपा कर निकल ही जाती। गाँव के लड़कों संग गुल्ली-डंडा, कबड्डी, पेड़ों पर चढ़ना, आम, इमली, जंगल जलेबी, बेर, मकोई तोड़ना खाना, तालाब में तैरना, बैलों, भैंसों पर चढ़ कर लड़कों संग दूर तक चले जाना, कई-कई घंटे घर से ग़ायब रहना, उन्हीं लड़कों संग ख़ूब गाली-गलौज करना, इन्हीं सब में इसको ख़ूब मज़ा आता था। 

“कितना भी मना किया जाता, समझाया बुझाया जाता लेकिन यह किसी की बात पर ध्यान ही न देती, सारी नाकेबंदी को धता बता कर रफ़ू-चक्कर हो ही जाती, बात ज़्यादा देर छिप नहीं पाती, इसे ढूँढ-ढाँढ़ कर मारते पीटते घर लाया जाता, फिर घर भर बुरी तरह पीटता। खाना-पीना बंद कर दिया जाता। 

“मगर यह भी विकट ज़िद्दी थी, सारी प्रताड़ना सह लेती, कोई नया रास्ता निकाल कर फिर नौ दो ग्यारह हो लेती।”

“ऐसे तो फिर सारी ग़लती इन्हीं की कही जाएगी, घरवालों की नहीं। लड़की थीं, लड़कों के साथ घंटों घर से दूर बाग़, तालाब, इधर-उधर वीराने में जाना, कहीं कोई घटना दुर्घटना हो जाती तो बेइज़्ज़ती तो पूरे घर की होती न। 

“ऐसी हरकतें तो कोई भी माँ बाप बरदाश्त नहीं करता। पूरा परिवार तो इन्हीं के लिए परेशान था, इसलिए उन्हें तो ग़लत कह ही नहीं सकते, आपको भी उनके घरवालों को दोष नहीं देना चाहिए, आप ग़लत कर रहे हैं।”

पत्नी बड़ी ताक़त से मुझ पर हावी हो गई तो मैंने कहा, “तुमने मुझे बड़ी जल्दबाज़ी में ग़लत ठहरा दिया, जबकि जो बताया वह कुल बातों का छोटा सा हिस्सा है। मामले का एक पक्ष है।”

“क्या!”

“हाँ। हुआ क्या कि इसकी हरकतें जल्दी ही गाँव में चर्चा का विषय बन गईं। यह पढ़ने-लिखने में तेज़ तो नहीं थी लेकिन फ़ेल कभी नहीं होती थी, सेकेण्ड डिवीज़न पास हो ही जाती थी, जबकि दोनों भाई बड़ी मुश्किल से किसी तरह पास हो पाते थे। मोटकी साफ़ कहती है कि बाबू जी उसी स्कूल में क्लर्क न होते तो दोनों एक क्लास दो दो साल में पास कर पाते। 

“जब यह कुछ और बड़ी हुई तो गाँव के कई घरों से यह शिकायत आने लगी कि अपनी लड़की को रोको, हमारी लड़कियों को भी ख़राब कर रही है, उन्हें अपने साथ लड़कों के बीच ले जाती है, दूसरे गाँवों में घूमती है। गाँव की नाक कटाने पर तुली हुई है। अब घरवालों की समस्या और बढ़ गई। 

“इस पर और ज़्यादा सख़्ती होने लगी, डंडा, चिमटा, फुकनी से भी पिटाई होने लगी। एक से बढ़ कर एक गंदी गाली, फूहड़, कटु बातें इसे कही जातीं लेकिन यह चिकना घड़ा ही बनी रही, पूरा घर हलकान हो गया लेकिन इसके कानों पर जूँ न रेंगी, तो न रेंगी . . .” 

“जब ये ऐसी थीं तो इतनी पढ़ाई लिखाई कैसे कर ली कि गवर्नमेंट जॉब में आ गईं।”

“इसे एक संयोग ही समझो। ये हाई स्कूल में पढ़ रही थी तभी इसको लेकर हुई एक घटना के कारण इसके और पड़ोसी गाँव के बीच इतना बड़ा झगड़ा हुआ कि दो दिन पुलिस फ़ोर्स लगी रही . . .”

“क्या!”

पुलिस का नाम सुनते ही पत्नी चौंक उठी। मैंने कहा, “हाँ, दो दिन फ़ोर्स लगी रही। लेकिन इसके लिए मोटकी को दोष नहीं दे सकते।”

“क्यों, जब सारी समस्या उन्हीं के कारण थी तो उनको निर्दोष कैसे कह रहे हैं?” 

“क्योंकि वो निर्दोष ही थी . . .”

“अच्छा, ज़रा मुझे भी समझाओ?” 

पत्नी के इस व्यंग्य पर ध्यान न देकर मैंने कहा, “समझो, ध्यान से समझो। पंद्रह सोलह की होते-होते इसका शरीर बहुत तेज़ी से बढ़ा। इसके ब्रेस्ट, हिप्स, थाईस गाँव की सभी लड़कियों की अपेक्षा कहीं बहुत ज़्यादा डेवलप्ड हो गए। लगता जैसे बीस-पचीस साल की हृष्ट-पुष्ट युवती हो। बचपन से ही लगातार खेलकूद, दिनभर दौड़ते भागते रहने के कारण इसका जिस्म बहुत कसरती, मज़बूत हो गया। 

“लड़कों के बीच बने रहने के चलते इसको लेकर वो सब अश्लील बातें, हरकतें करने की कोशिश करते। ये यह सब एक सेकेण्ड को भी बरदाश्त नहीं करती। ताक़त में किसी लड़के से कम नहीं थी, इसलिए बिना हिचक किसी से भी भिड़ जाती थी। 

“डंडा, ईंट, पत्थर जो भी हाथ लगता उसे ही लेकर टूट पड़ती। आये दिन यह सब होने लगा। अब भाई इस पर हाथ उठाते तो यह उन्हें भी नहीं बख्शती, अक्सर उन पर भी भारी पड़ती। 

“इसी समय इसको लेकर एक ऐसी अफ़वाह इसके आस-पास तक के गाँवों में फैल गयी कि पूरे घर में सन्नाटा फैल गया। कोई कुछ नहीं समझ पा रहा था कि क्या करे। लोगों के बीच तरह-तरह की बातें होने लगीं। मोटकी ने भी अपने को एकदम बदल लिया। 

“बाहर निकलती ज़रूर, दूर-दूर तक घूमती लेकिन अकेले ही। किसी भी दोस्त लड़के वग़ैरह को पास तक नहीं फटकने देती। भयानक रूप से चिड़चिड़ी हो गई। जल्दी ही लोग ख़ुद ही इससे दूर भागने लगे . . .” 

“अरे! ऐसी कौन सी बात थी?” 

“दरअसल कुछ बदतमीज़ लड़के जब इस पर हाथ नहीं डाल सके तो इसकी शारीरिक बनावट को लेकर तरह-तरह की बातें, अफ़वाहें उड़ानी शुरू कर दीं। जंगल की आग की तरह यह बात फैल गई कि यह थर्ड जेंडर है . . .” 

“हे भगवान ये सब भी हुआ! . . .”

“हाँ, इसी के बाद इसने अपने को सबसे अलग कर लिया, किसी को पास न फटकने देती। ज़रा सी बात क्या बिना बात भी किसी पर भी हमलावर हो जाती। इसका दुर्भाग्य यह कि माँ बाप भी संदेह कर बैठे कि कहीं अफ़वाह सच तो नहीं है। 

“माँ ने सोते समय चुपके से इसकी जाँच करने की कोशिश की। कुछ नहीं समझ पायी तो अगले दिन इससे पूछताछ शुरू कर दी, इससे यह आगबबूला हो उठी। 

“पूरा घर सिर पर उठा लिया, ऐसा तांडव किया कि पूरा घर अस्तव्यस्त हो गया, पास-पड़ोस इकट्ठा हो गया। फिर पता नहीं किस समय ये घर से भाग गई। सबने सोचा हमेशा की तरह दो-तीन घंटे में आ जाएगी, लेकिन जब रात हो गई, हर तरफ़ ढूँढ़ा गया, यह कहीं नहीं मिली तो किसी अनहोनी की आशंका से घरभर परेशान हो उठा। 

“थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा दी गई। ढूँढ़ाई भी चलती रही, और सुबह ये घर से क़रीब पंद्रह किलोमीटर दूर रेलवे स्टेशन के एक प्लैटफ़ॉर्म के आख़िरी छोर पर घायल, बदहवास हालत में मिली। फ़र्स्ट एड के बाद जब पुलिस ने पूछताछ की तब इसने बताया कि वह कहीं दूर जाने के लिए किसी ट्रेन का इन्तज़ार कर रही थी। 

“रात हो चुकी थी, प्लैटफ़ॉर्म पर अँधेरा था, तभी दो लोग उससे छेड़छाड़ करने लगे मना करने पर मुँह दबाकर उसे स्टेशन से दूर ले जाने की कोशिश करने लगे तो वह उनसे भिड़ गई, वो दो थे इसलिए वो ज़्यादा चोट खा गई। सब इसे घर ले आये, कुछ दिन तक इससे कोई कुछ नहीं बोलता था, यह गुमसुम सी अपने मन का करती रहती।” 

“आख़िर ये किस तरह के स्वभाव की थीं, ऐसा क्या चाहती थीं कि इतना कुछ ग़लत-सलत होता रहा फिर भी ये अपनी आदत से बाज़ नहीं आ रही थीं, और आपने ऐसा कौन सा जादू किया कि आपके सामने एकदम गऊ हो गईं।”

“बहुत मामूली सी बात यह थी कि ये बहुत खिलंदड़ी स्वभाव की थी, माँ बाप इस बात को समझने के बजाय इसे मार-डाँट के यह समझाने में लगे रहे कि तू लड़की है इसलिए घर के अंदर चुपचाप बंद रह, भाइयों की तरह हँसने-बोलने, खेलने-कूदने की तुझे कोई ज़रूरत नहीं है। इस भेदभाव को इसने नहीं माना, ज़िद्दी होती गई, प्रतिरोध करते-करते स्वभावतः प्रतिरोधी हो गई। 

“इसी स्वाभाव के चलते वह घटना हुई जिससे पुलिस फ़ोर्स लगी। उस दिन पड़ोस के गाँव के एक लफ़ंगे ने इसकी इज़्ज़त पर हाथ डालने की कोशिश की तो यह बिना एक पल गँवाए उस पर टूट पड़ी, गुत्थमगुत्था हो गई, इसके हाथ किसी टूटे हुए मटके का ऊपरी एक नुकीला टुकड़ा लग गया, इसने उसी से उसके चेहरे पर ऐसा हमला किया कि उसकी एक आँख, कई दाँत टूट कर बाहर आ गए, उसे अधमरा छोड़, ख़ून से लथपथ ये घर को चल दी। इसके पीछे-पीछे गाँव के बहुत से लोग आ गए। 

“विवाद खड़ा हो गया कि दूसरे गाँव के आदमी ने हमला किया, करेला ऊपर नीम चढ़ा कि वह दूसरे समुदाय का था। नाक की इज़्ज़त का सवाल पैदा हो गया, दोनों गाँवों के बीच जमकर संघर्ष हुआ, बहुत से लोग ज़ख़्मी हुए। 

“पुलिस ने किसी तरह कंट्रोल किया, दोनों तरफ़ के लोग गिरफ़्तार हुए। लेकिन अगले दिन एक और घटना हो गई, जिसको इसने मारा था उसपर हॉस्पिटल में किसी ने हमला किया, वो मर गया। विवाद फिर बढ़ गया। कई दिन में कंट्रोल में आया। 

“इसके बाद गाँव के लोगों ने इसके पेरंट्स पर प्रेशर डाला कि यह पढ़-लिख तो रही ही है। इसे किसी दूसरे शहर भेज दो, वहाँ सुरक्षित भी रहेगी, पढ़-लिख भी लेगी। घर वालों को अंततः मानना पड़ा। इस तरह यह लखनऊ आ गई।”

“मेरे लिए बड़ा मुश्किल है कुछ कह पाना कि पेरंट्स सही हैं या ये, इसलिए यह आप ही तय करिये। लेकिन ये आपको कहाँ, कैसे मिल गईं?” 

“मुझसे मिलना भी एक संयोग ही था। रविंद्रालय में कोई कार्यक्रम था, वहीं ये सहेली के साथ थी। मेरी ठीक बग़ल वाली सीट पर। डेढ़-दो घंटे के कार्यक्रम में दोनों बातें करतीं रहीं। ये कम बोल रही थी, लेकिन सटीक बोल रही थी। इसकी बातों से मैं बहुत इम्प्रेस हुआ, कार्यक्रम के बाद दोनों को साथ चाय पीने के लिए कहा, ये संकोच करती रही लेकिन इसकी सहेली तुरंत मान गई। 

“वहीं पता चला कि ये ग्रेजुएशन करके नौकरी की तलाश में है, बहुत परेशान है, प्राइवेट पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही है, बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा रही है, उसी सहेली के साथ रूम शेयर कर रही है। सहेली ने ही इसके लिए नौकरी की बात उठाई। मेरा फोन नंबर लिया, अपना संपर्क नंबर दिया। 

“यह वो समय था जब देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हो चुकी थी। सरकारी विभागों में नौकरी को लेकर एक नई तरह की हलचल थी, फिर भी सरकारी नौकरी गूलर का फूल ही थी। फोन पर इन दोनों से होने वाली बातों से मोटकी की समस्याओं की लम्बी सूची मेरे सामने आती जा रही थी। 

“उन्हें देख कर मुझे इस पर बड़ी दया आती, आख़िर मैंने अपने संपर्कों को साधा इसे ढाई-तीन महीने में ही डेली वेजेज़ पर नौकरी दिला दी जिससे इसकी समस्याएँ कम हुईं। इस बीच दोनों बड़ी तेज़ी से क़रीबी मित्र बनती चली गईं। 

“मोटकी सहेली से भी ज़्यादा तेज़ क़रीब आ रही थी। आये दिन मिलना-जुलना होने लगा। ऐसे ही छह-सात महीने और बीते होंगे कि मोटकी की सहेली की शादी हो गई, वो चली गई। यह अकेली पड़ गई। 

“ये अब मुझसे ज़्यादा समय चाहती, मैं नहीं दे पा रहा था, दूसरे एक लिमिट से आगे मैं बढ़ना नहीं चाहता था, लेकिन यह बढ़ती ही चली आ रही थी। नहीं मिलता तो फोन पर बहुत भावुक हो जाती, इमोशनल बातें करती, रोने लगती, आख़िर मुझे मिलना पड़ता। ऐसे ही दो ढाई साल बीता, मेरी कोशिश सफल हुई, इसकी नौकरी रेगुलर हो गयी।”

“यानी आपने उनकी सारी समस्या ख़त्म कर दी, उसके बाद आपको क्या लगा, उनकी बढ़ती क़रीबी नौकरी के लिए थी या सच में आपके लिए?”

“ये क्या कह रही हो, वह मेरे लिए ही आगे बढ़ रही थी। रेगुलर होने के बाद उसने दूरी बनाने नहीं सारे फ़ासलों को जल्दी से जल्दी ख़त्म करने की कोशिश की।”

“और इनके माँ बाप, इस बीच वो लोग कहाँ रहे?” 

“वो लोग पहले डेढ़-दो महीने में आते थे, धीर-धीरे उनका आना कम होता गया क्योंकि इसका व्यवहार उन लोगों के प्रति बहुत रूखा बना ही रहा। फिर एक बार इसने मेरा परिचय कराया तो नौकरी, मकान दिलाने से लेकर ऑफ़िस में आई समस्याओं को कैसे मैंने दूर किया यह सब बताया, प्रशंसा के कोई शब्द बाक़ी नहीं छोड़े। 

“माँ-बाप ने कहा, ‘बेटा अब हम निश्चिन्त हो गए हैं, यह तुम्हारे सहारे यहाँ सुरक्षित है।’ फिर मेरा फोन नंबर नोट किया, अपने घर गाँव बुलाया। मैंने सोचा चलो अब यह घर वालों से मिल-जुल कर रहेगी, जल्दी ही शादी हो जाएगी अपनी ससुराल में ख़ुश रहेगी। लेकिन मेरा सोचना ग़लत निकला . . .” 

“क्यों?” 

“क्योंकि घरवाले ज्यों ही शादी की बात करते ये आगबबूला हो उठती, उन्हें उल्टे पाँव वापस भेज देती। बहुत दिन यह सब चलता रहा, आख़िर घरवालों ने मुझसे कहा, ‘भैया तुम्हीं समझाओ, आख़िर बात क्या है? कहीं किसी को पसंद कर रखा है तो बताए, वहीं कर देते हैं।’ 

“मैंने बात उठाई तो मुझसे ग़ुस्सा हो गई, ज़्यादा कोशिश की तो बोली, ‘देखो अगर तुमने भी वही बातें कीं तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। मैंने कह दिया कि मुझे शादी नहीं करनी है तो नहीं करनी है।’ आख़िर मैं चुप हो गया। सोचा ज़िद्दी लड़की है कहीं कुछ कर लिया तो मुश्किल हो जाएगी।”

“सही ही किया, ऐसे लोगों का कोई ठिकाना नहीं होता। इनके माँ बाप को और कोशिश करनी चाहिए थी, समय अब भी है।”

“उन लोगों ने जो कुछ हो सकता था सब कर डाला, यहाँ तक कि किसी बाबा से तंत्र-मंत्र भी करवाया, लेकिन इसकी ज़िद के आगे सब फ़ेल हो गया। हार कर उन लोगों ने एक तरह से इससे रिश्ता ख़त्म ही कर लिया है। 

“इस बीच कई बार इसकी तबियत बहुत ज़्यादा ख़राब हुई। एक बार हाथ टूट गया, लेकिन सूचना मिलने पर भी कोई देखने तक नहीं आया। ये मुझे ही फोन कर कर के बुलाती रही। अब तुम्हीं बताओ ऐसी हालत में इसे अकेला छोड़ देना ठीक होता?” 

“ठीक होता या नहीं यह आप ही समझिये, लेकिन इतना ज़रूर कहूँगी कि उन्हें साथ देते-देते कहीं मुझे अकेला नहीं छोड़ देना। मेरी दुनिया का कोई कोना किसी और को नहीं दे देना।”

यह कहते हुए वह बहुत भावुक हो गई, दोनों हाथों से मुझे जकड़ लिया। मैंने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा, “तुम्हें छोड़ना होता तो शादी ही क्यों करता, तुमसे सच क्यों बोलता, झूठ बोल देता कि मोटकी से ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है। यह हमेशा ध्यान रखना कि कभी भी कोई भी तुम्हारा स्थान नहीं ले सकता।”

इसके बाद कुछ और बातें हुईं फिर पत्नी सो गई। मेरा यह अनुमान ग़लत निकला कि मोटकी को लेकर मेरा सच भूचाल ला देगा। लेकिन आगे बत्तीस साल बाद मोटकी ने भूचाल लाने वाला ही काम किया। ऐसा भूचाल जिससे इस जीवन में मैं शायद ही उबर पाऊँ। 

उस रोज़ की बातचीत के बाद मोटकी के प्रति पत्नी की असाधारण उदारता को देखकर मैं हतप्रभ रह गया था। डेढ़-दो महीने बाद ही एक दिन जब उसने मोटकी का हालचाल पूछा तो मैं आश्चर्य में पड़ गया। 

इसके बाद वह हफ़्ते में एक दो बार मोटकी का हालचाल ज़रूर पूछती। हाल-चाल बताते हुए मैं उसके चेहरे के भावों को गंभीरता से पढ़ता, लेकिन मुझे उसमें मोटकी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं मिलती, इससे मुझे आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी होती। 

दूसरी तरफ़ मोटकी भी जब मिलती तो ज़रूर पूछती कि, ‘दीदी कैसी हैं?’ हालाँकि वह पत्नी से तीन साल बड़ी थी लेकिन उसे दीदी ही कहती थी। जल्दी ही वह महीने में दो-तीन बार घर आने लगी। 

मेरी शादी के बाद भी उसका घर आना माता-पिता को कुछ ख़ास नहीं सुहाता था, जबकि पत्नी में एक ख़ास तरह की उत्सुकता दिखती थी यह जानने की कि मोटकी के मन में मेरे लिए क्या चलता रहता है। हालाँकि उसके स्वागत सत्कार में कोई कमी नहीं रखती थी। 

अब मैं मोटकी के साथ पहले की तरह ज़्यादा एकांत समय नहीं जी पाता था, बहुत मुश्किल से महीने में दो तीन बार ही अवसर मिल पाता था। कई बार वह बहुत उदास मन से कहती, “अब तो तुमसे यह कहने का भी हक़ नहीं रहा कि आज रात यहीं रुक जाओ।”

एक बार यही कहती हुई वह एकदम से लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी। बहुत मुश्किल से उसे चुप कराया। उसे समझाया कि, “यह निर्णय तो तुम्हारा ही था। मैं तो शादी के लिए कितना ही पीछे पड़ा था।”

उसने सिसकते हुए कहा, “मैं तुम्हें कहाँ कुछ कह रही हूँ। मैं अपने निर्णय पर अब भी क़ायम हूँ, हमेशा रहूँगी। क्या करूँ, मन ही है, कभी कभी तुम्हारे सामने कमज़ोर पड़ जाती हूँ।”

कुछ सोचकर मैंने कहा, “देखो इसीलिए मैं बार-बार कह रहा हूँ की जीवन इस तरह नहीं चलता, अब भी समय है, सोचो, अपना डिसीज़न बदलो, किसी अच्छे आदमी के साथ शादी . . .”

“बिलकुल नहीं, बिलकुल नहीं . . . फिर कभी न कहना। जब एक बार कह दिया है तो क्यों उसी बात को दोहरा रहे हो।” 

एकदम ग़ुस्से में वह बहुत कुछ बोलती चली गई। पिछली बातें शुरू कर दीं। मैं चुपचाप सुनकर चला आया। शादी के लिए आगे भी दो बार और बात की, वह हर बार उसी तरह आक्रामक हो उठी। इसके बाद मैंने फिर कभी यह प्रसंग नहीं उठाया। 

समय के साथ-साथ मोटकी का घर आना-जाना बढ़ता गया। परिवार की अभिन्न सदस्य सी बन गई। और धीरे-धीरे वह छोटे-छोटे काम के लिए भी मुझ पर डिपेंड होती चली गई। ऑफ़िस में कुछ लम्पट टाइप के कर्मचारी अधिकारी उसे परेशान करने लगे तो उसके डॉयरेक्टर को एक सीनियर आई.ए.एस. अधिकारी से फोन करवाना पड़ा। 

आरक्षण व्यवस्था ने जल्दी ही उसके प्रमोशन के अधिक रास्ते खोल दिए वह क्लास टू ऑफ़िसर बन गई। लेकिन साथ ही एक समस्या भी खड़ी हो गई। उसका एक सीनियर अधिकारी हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गया कि वो उससे शादी कर ले। तरह-तरह से उसे परेशान करने लगा, कहने लगा नहीं मानी तो तेरी नौकरी खा जाऊँगा। 

इतना त्रस्त कर दिया कि वह इस्तीफ़ा देने की सोचने लगी। मैंने फिर समझाया कि इतना डर कर मत रहो। आख़िर उस लफ़ंगे के ख़िलाफ़ उसी से लिखित शिकायत करवाई, उसकी विभागीय जाँच शुरू हो गई, साथ ही एक दबंग को भी सामने खड़ा कर दिया तब जाकर वह अपनी खोल में वापस गया। 

मैं इस बात से बहुत परेशान हो रहा था कि उसे मज़बूत, साहसी बनाने का जितना प्रयास कर रहा था, वह उतना ही ज़्यादा मोम बनती जा रही थी। बचपन वाली तेज़ तर्रार दबंग आक्रामक मोटकी न जाने कहाँ, क्यों विलुप्त हो गई। मगर अचरज यह कि माँ बाप घर वालों के लिए वही पुरानी वाली दबंग मोटकी बनी रही। 

मेरे बेटे के जन्म पर वह बेटे, पत्नी, मेरे लिए बहुत क़ीमती उपहार ले आई, मैंने देखा पत्नी ने उसे रिटर्न गिफ़्ट उससे ज़्यादा क़ीमती दिया। यही मैं हर अवसर पर होता देखता रहा। इसके ज़रिये भी पत्नी के मनोभावों को समझने की कोशिश करता रहा, मोटकी के प्रति उसका हर काम मुझे एक सुप्रीमेसी के भाव का अहसास कराता। 

समय के साथ दोनों के बीच रिश्ता ऐसा बनता चला गया, कि उनकी बातचीत, हँसी मज़ाक़ देखकर कभी लगता जैसे घनिष्ठ सहेलियाँ हैं, तो कभी लगता जैसे सगी बहनें हैं। मोटकी जब आती तो पूरे समय बेटे के साथ ख़ूब खेलती। 

बेटा पंद्रह सोलह का होते-होते ख़ूब तंदुरुस्त, क़रीब छह फ़ीट का हो गया। लेकिन मोटकी तब भी उसके साथ ऐसे खेलती कूदती जैसे हमउम्र दोस्त हों। कई बार दोनों की धमाचौकड़ी इतनी ज़्यादा हो जाती कि मुझे या पत्नी को टोकना पड़ता। 

जब मैं उसके घर पर रुकता तो अक्सर वह पूरी-पूरी रात बातें करती। लेकिन वह रात बेहद तनावपूर्ण हो जाती जिस रात को मैं उसे उसके माँ बाप के क़रीब लाने का प्रयास करता। कई बार तो सुबह चार बजे ही उठ कर चल देता। 

दो तीन घंटा बीतते ही वह फिर फोन करने लगती, लेकिन मैं फिर दो तीन दिन तक कॉल रिसीव नहीं करता। इस पर वह घर आ जाती, तब तक अगर मेरा मूड सही नहीं होता तो मैं कहीं और चला जाता था। तब वह ज़िद्दी रुक जाती थी तो मैं देर रात सोने के समय आता। मगर घर में कब तक बचता, आख़िर पकड़ लेती, सॉरी बोलकर, कान पकड़ कर हँसा कर ऑफ़िस चली जाती। 

लेकिन ज़िद मेरी भी थी कि माँ बाप और इसके बीच की दूरी समाप्त करके ही रहूँगा। मगर उसके हठ के आगे मेरी कोशिश हर बार पिछड़ जाती, उसके माँ बाप कई बार गंभीर रूप से बीमार पड़े, महीनों हॉस्पिटल में एडमिट रहे, लेकिन मेरी कोशिशों के बावजूद उसने किसी बाहरी की तरह फ़ॉर्मेलिटी के सिवा कुछ नहीं किया। 

मैं ग़ुस्से से बिफर पड़ता, बात करना बंद कर देता। लेकिन वह फिर रो-धो कर, अपने आँसुओं की धारा में मेरा ग़ुस्सा बहा ले जाती। 

आख़िर चार फरवरी को उसके बावनवे जन्मदिन के क़रीब ढाई महीने बाद एक ऐसी रात आई जिसकी कल्पना मैंने कभी नहीं की थी, निश्चित ही मोटकी ने भी नहीं की थी ऐसा विश्वास से नहीं कह पा रहा हूँ। जन्मदिन पर वह केक, पार्टी आदि कुछ नहीं करती थी। मेरे साथ घूमने-फिरने, होटल में डिनर के बाद रात मेरे साथ बिताती थी बस। 

बावनवे जन्मदिन की रात हर बार की तरह बहुत ठंडी थी। खाने-पीने के बाद क़रीब डेढ़ बजे रजाई में वह मेरे साथ दुबकी, मेरे हाथ की बीच वाली उँगली अपने दाँतों के बीच बार-बार दबा रही थी। उसका बदन मुझे असाधारण रूप से गरम लगा, जैसे तेज़ बुख़ार में तप रही हो। मैंने पूछा तो हर शब्द के बाद दीर्घ विराम लेती हुई बोली उतारोगे तभी तो उतरेगा न . . .

आधे घंटे बाद जब वह बाथरूम जाकर लौटी तो कुछ ऐसी बातें हुईं जिसमें मैंने माँ बाप का ज़िक्र कर दिया। अब उसका बदन तो ठंडा था, लेकिन कमरे का वातावरण असाधारण रूप से गरम था। उसके जन्मदिन की रात है यह सोचकर मैं रजाई में चला गया, कुछ देर में वह भी आ गई, पीछे से मुझे बाँहों के घेरे में लेकर सटी हुई लेट गई। 

इसके बाद कल्पना से परे वाली रात सोलह अप्रैल को आई। बाहर मौसम बहुत गरम हो रहा था। कमरे में एसी की ठंडक ख़ुशनुमा अहसास करा रही थी। मैं बेड पर पीछे तकिया लगाए बैठा, गोदी संगड़क जाँघों पर रखे कुछ ज़रूरी काम करता हुआ, मोटकी से बातें भी करता जा रहा था। 

वह मेरे पैरों पर तकिया, उस पर सिर रखे, मोबाइल में रील देखती हुई बतिया रही थी। कई दिन से क्षुब्ध थी कि उसके माँ बाप प्रॉपर्टी में उसे उसका हिस्सा नहीं दे रहे हैं, जबकि क़ानूनन उसका भी अधिकार है। 

हमेशा की तरह मैंने सच का पक्ष लिया, कह दिया कि, “संविधान में भी मौलिक अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्यों का भी उल्लेख है। जब तुम तीस बत्तीस सालों से उनकी सेवा को कौन कहे उनसे ठीक से बात तक नहीं कर रही हो, तो उनकी प्रॉपर्टी में तुम्हें अधिकार ही कहाँ है . . .” 

मेरी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि वह चीखती-चिल्लाती हुई उठ बैठी, मेरी आँखों में आँखें डालकर मुझे पक्षपाती बताती हुई माँ बाप को अपशब्द कहने लगी। यह भी नहीं सोचा कि आधी रात के सन्नाटे में आवाज़ पास पड़ोस तक पहुँच रही होगी। एक अनपढ़ गँवार प्रचंड झगड़ालू औरत भी उस समय उसके सामने सहम जाती। 

मैं हैरत ग़ुस्से से उसे देख रहा था, अचानक उसके मुँह से माँ बाप के लिए भद्दी गलियाँ निकलीं, उसी के साथ एक के बाद एक दो चाँटों की आवाज़ के साथ कमरे में सन्नाटा पसर गया। वह एकटक मुझे देख रही थी, आँखों से आँसू झर रहे थे। क्रोध से मेरा शरीर थरथरा रहा था। 

उस पर एक आग्नेय दृष्टि डाल कर बेड से नीचे उतरा, वह अब तकिये में मुँह लगा कर सिसक-सिसक कर रोने लगी थी। मैंने कपड़े पहने, वहाँ कपड़े आदि सहित मेरे जो कुछ सामान हमेशा पड़े रहते थे, उन्हें लिया, बेड पर पड़ी चादर उस फेंकी, और बाहर आ गया। फिर यह सोच कर कॉल बेल बजाई कि मोटकी गेट बंद कर ले, आधी रात हो रही है, कहीं कोई चोर उचक्का घुस गया तो इसकी जान ख़तरे में पड़ जाएगी। 

कई बार बेल बजाने के बाद वह आँसू बहाती हुई ही गेट पर आई। उस पर एक गहरी नज़र डाल कर मैंने गाड़ी स्टार्ट की, एक्सीलेटर पर प्रेशर बढ़ा दिया। बत्तीस साल से चला आ रहा अटूट रिश्ता हमेशा-हमेशा के लिए टूट गया था। मैं स्टीयरिंग पर बार-बार हाथ पटक रहा था कि यही हाथ मेरी मोटकी पर उठा था। 

1 टिप्पणियाँ

  • 29 Jul, 2024 12:17 PM

    आज तक आपकी जितनी भी कहानियां पढ़ी थीं लंबाई और to the point कथ्य पढ़ कर इसे सर्वोत्तम कहूँगी। सामान्यतया आपकी कहानियां कहानी कम उपन्यासिका अधिक लगती थीं। अन्यथा नहीं लेंगे, बहुत सी जानकारियां अनावश्यक रूप से लदी हुई भी लगती थीं। यह कहानी केवल मुख्य कथा को लेकर चलती है, यही बात इसे विशेष भी बनाती है। शुभकामना, आइंदा इसी तरह का लेखन करते रहें। नए किस्म का चरित्र है मोटकी का।पति-पत्नी में इतनी understanding को पढ़ कर अच्छा लगा। सामान्यतया हिन्दी रचनाओं में स्त्रीयों का चरित्र या तो देवी समान दर्शाया जाता है या डायन जैसा। बहुत अच्छा लगा दोनों स्त्री पात्रों का चित्रण। एक लीक से हटकर लिखी कहानी के लिए हार्दिक बधाई और धन्यवाद।

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