श्यामा 

15-09-2025

श्यामा 

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

यादों में ही खोई रही और रात आँखों में ही कट गई, इस ओर उनका ध्यान तब गया जब घर के पास ही बने मंदिर में प्रातः आरती के साथ ही बज रहे घंटों की आवाज़ कानों में पड़ी। लड़के, बहू के बार-बार मना करने के बावजूद तकिये के बग़ल में ही रखे अपने मोबाइल को उठा कर उन्होंने टाइम देखा, सुबह के छह बज रहे थे। “हे भोलेनाथ,” बोलती हुई उन्होंने रजाई को एक तरफ़ हटाया और उठकर बैठ गईं। जनवरी का महीना आधा बीत चुका था, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, इसके बावजूद उन्हें अपनी आँखों में जलन और गीलापन महसूस हुआ। उन्हें कुछ भूला नहीं कि सारी रात क्या हुआ। आँसुओं को पोंछती हुई उठीं, खिड़की पर पड़े पर्दे को एक तरफ़ खिसका दिया। शीशे के उस पार उन्हें घने कोहरे के सिवा और कुछ दिखाई नहीं दिया। 

घुटनों, कोहनियों सहित बदन का हर जोड़ उन्हें दर्द से परेशान मिला। घुटना ज़्यादा पीड़ित मिला। कमरे से बाहर निकलीं तो देखा हर तरफ़ अँधेरा हो रहा था, ऊपर निगाह दौड़ाई तो बहू बेटे के कमरे उन्हें बंद मिले, सभी सो रहे थे। उन्होंने बरामदे में लगी लाइट ऑन की। उसकी रोशनी में बीच आँगन में सास द्वारा लगाया गया तुलसी का बिरवा उन्हें ठंड और कोहरे से बड़ा कुम्हलाया हुआ-सा दिखा। कुछ देर तक उसे वह एकटक देखती ही रहीं। उन्हें लगा जैसे उनकी सास वहीं ठण्ड से काँपती खड़ी पूजा कर रही हैं। 

दूसरी शादी कर जब वह इस घर में आई थीं तो उनकी सास ने शादी के हफ़्ते भर बाद ही बीचों-बीच आँगन में यह चौरा बनाकर उसमें एक छोटा-सा तुलसी का पौधा लगाया था। वह पौधा देखते-देखते घर के एक-एक कामों को, हँसी-ख़ुशी, दुख-दर्द के हर पल को अपने में समेटते हुए क़रीब अठाइस-तीस बरस का हो गया था। जड़ से ऊपर को बढ़ता तना ख़ूब मोटा हो गया था। ऊपर छोटी बड़ी निकली अनगिनत शाखाओं ने उसे ख़ूब झाऊदार बड़ा बना दिया था। सास ने बार-बार उन्हें यही बताया, समझाया था कि जिस घर में रोज़ तुलसी की पूजा होती है, वहाँ सुख समृद्धि हमेशा बनी रहती है। श्यामा तुम रोज़ सवेरे पहले तुलसी पूजा करके ही अपना दिन शुरू करती रहोगी तो जीवन भर सुखी रहोगी। वह स्वयं जाड़ा, गर्मी, बरसात कोई भी मौसम हो भोर में ही उठकर पूजा करती थीं। 

जाड़ों में तो कई बार स्लेटी से होते आसमान में कई-कई तारे भी उनका साथ देते हुए दिख जाते थे। बारिश के दिनों में तो कई बार भीगती रहतीं लेकिन पूजा बंद नहीं करतीं। दीया बुझने न पाए इसके लिए एक हाथ में छाता लिए रहती थीं। 

उसकी शादी के पाँच साल बाद जब उन्होंने अंतिम साँस ली तो घर के सभी लोगों ने उनके पार्थिव शरीर को कुछ देर तुलसी की छाँव में रखना चाहा था, लेकिन कई बुज़ुर्ग रिश्तेदार जो आए हुए थे उन्होंने ऐसा करने से यह कहते हुए मना कर दिया कि, इससे तुलसी अपवित्र हो जाएगी, सूख जाएगी। लेकिन तब उनका मातृभक्त बेटा सभी की बातों को अनसुना करते हुए उन्हें कुछ देर तुलसी की छाँव में रखने के बाद ही अंतिम यात्रा पर ले गया था। 

वह जब से इस घर में आईं हैं, तभी से अपनी सास की कई बातों की तरह इस बात का भी पालन करती हुई तुलसी पूजा करके ही अपना दिन प्रारंभ करती हैं। आज ऊपर जिस कमरे में बहू बेटे हैं, अभी भी वहाँ सो रहे हैं, शादी के बाद जब वह इस घर में आईं थीं तो वही कमरा उनके लिए सजाया गया था, दूसरे पति के साथ जीवन की दूसरी सुहागरात सुबह सूरज की किरणों ने जब खिड़की पर दस्तक दी तब कहीं पूरी हुई थी। लेकिन उस पूरी सुहागरात में उन्हें ऐसा अहसास होता रहा जैसे पहला पति वहीं उसी के साथ बना हुआ है, वही उसे छू रहा है, बात कर रहा है, उपहार दे रहा है और प्यार करता जा रहा है। वह तन मन हर तरह से सारी रात दूसरे पति में डूब जाने, विलीन हो जाने की तब तक जीतोड़ कोशिश करती रहीं जब तक रात विलुप्त नहीं हो गई, लेकिन पूर्व पति को अलग नहीं कर सकी थीं। 

अजीब तरह से ख़ुद को दो पाटों के बीच पिसती हुई महसूस कर रही थीं। मगर नया-नवेला पति हर तरह से उन्हीं में खोया उसकी इस विचित्र स्थिति से अनभिज्ञ बना रहा। वह उसकी वास्तविक मनःस्थिति से उस समय भी अनजान था जब वह पहले पति से अलग होने के बाद उससे बोली थीं, “इंतज़ार के लिए हमारे पास मिनट भर का भी समय नहीं है। शादी हमें आज ही, अभी ही करनी है।”

तो उसने कहा था, “मैं भी एक मिनट की भी देरी नहीं करना चाहता, लेकिन आर्य समाज मंदिर में शादी करने के लिए पहले वहाँ रजिस्ट्रेशन कराना होगा, दो गवाहों का इंतज़ाम करना होगा। बहुत जल्दी करूँगा तब भी शाम हो जाएगी, इसलिए हो सकता है आज के बजाय शादी कल हो . . . 

तो वह एकदम चिहुँकती हुई बोली थीं, “नहीं नहीं, बिलकुल नहीं। कल क्या शाम का भी इंतज़ार नहीं कर सकती। आर्य समाज या किसी भी मंदिर में डेढ़ दो घंटे में ही शादी करनी ही करनी है। मुझे किसी गवाह अवाह की भी बिलकुल भी ज़रूरत नहीं है। भगवान के बाद हमीं एक दूसरे के गवाह भी हैं, हमें किसी और की बिलकुल भी ज़रूरत नहीं है। बस सिंदूर, माला, फूल और भगवान को चढ़ाने के लिए प्रसाद ले आओ . . . 

“लेकिन . . . 

“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, जो कह रही हूँ वो तुरंत करो। किसी वजह से कह रही हूँ, समझते क्यों नहीं?”

“लेकिन बात क्या है? कुछ मुझे भी बताओगी।”

“अरे कोई बात नहीं है, जो कह रही हूँ वो करो न।”

“ओफ़्फ़ो, बात है भी, नहीं भी है, कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या कह रही हो?”

“तुम अभी सिर्फ़ इतना समझो कि जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी शादी की रस्म पूरी कराओ बस।”

इसके बाद होने वाले दूसरे पति ने कोई बहस नहीं की। आर्य समाज मंदिर में व्यवस्था होने में समय लगेगा यह समझते ही एक शिव मंदिर में उसकी माँग में सिंदूर भरकर, मंगलसूत्र पहना दिया था, जिस माँग को श्यामा ने ख़ूब रगड़-रगड़ कर धोया था कि पहले पति के नाम के सिंदूर का कोई कण भी न रह जाए, वह मुक्त स्वच्छ हो जाए लेकिन धोने के बाद जैसे ही दर्पण देखती तो उसे पति की छवि उभरती हुई सी दिखती और डर कर वह दर्पण से दूर हट जाती। जब नया जीवनसाथी माँग भर रहा था तो उसे लगा जैसे भरी हुई माँग को ही वह भी भर रहा है, जिसके भार से वह कुचली जा रही है। सच भी तो यही था लेकिन फिर भी वह डिगी नहीं और जब माँग भर गई तब उसने अपने नए पति के पैर छू कर उनसे आशीर्वाद लिया था। फिर दोनों एक साथ भगवान शिव के समक्ष नतमस्तक हुए थे। 

इसके बाद श्यामा ने अपने ख़ुशहाल जीवन के साथ-साथ दोनों बच्चों के लिए प्रार्थना की थी, “हे ईश्वर मेरे बच्चों को कभी भी मुझसे अलग न करना, उनका भी जीवन सुन्दर ख़ुशहाल बनाना। भगवान उनका (पहले पति) भी जीवन सुरक्षित ख़ुशहाल बनाना। कोई अच्छी सी जीवनसाथी उन्हें भी दे देना। हे परमपिता परमेश्वर जो लिखा आपने मेरे भाग्य में वह हो रहा है। मुझसे, मेरे बच्चों से और उनसे (पहले पति) हुई सारी ग़लतियों को क्षमा करना। पहले ही की तरह मैं सदैव तुम्हारा पूजन करती रहूँगी प्रभु, हम सब पर कृपा बनाए रखना।”

उसने अपने तीन और पाँच वर्षीय बेटों का भी सिर प्रभु के चरणों में नवाया था। जिनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि उनकी माँ इस आदमी के साथ क्या कर रही हैं? और उनके पापा यहाँ क्यों नहीं आए? वह सहमे हुए से बड़े कौतूहल के साथ उनके कामों, उन्हें देख रहे थे। श्यामा की आँखों में आँसू चमक रहे थे। बग़ल में ही नतमस्तक नव जीवनसाथी भी ईश्वर को बेहद भावुक मन से धन्यवाद कहते हुए, कृतज्ञता प्रकट कर रहा था कि भगवान तुमने देखते ही देखते जो चाहा वह सब मुझे दे दिया। अब घर पर अम्मा भी हँसी-ख़ुशी सब स्वीकार कर लें यह कृपा भी ज़रूर करना। तुम्हारी कृपा से ही सब हो रहा है, वह सदैव बनाए रखना . . . 

विवाह की यह सूक्ष्मतम रस्म पूरी करने के बाद श्यामा ने शान्ति महसूस की थी कि पूर्व पति की तरफ़ बार-बार भागते उसके मन के कारण उसके निर्णय के बदल जाने की अब कोई सम्भावना बची नहीं रही। अब उसके क़दम मुड़ कर फिर से पूर्व पति की तरफ़ बढ़ने की कोशिश ही नहीं करेंगे। उसे यह नया रिश्ता, नव जीवन रोके रहेगा। लेकिन मंदिर से निकल कर तो रास्ते भर दिल घबराता रहा कि पता नहीं सास घर में घुसने भी देंगी या नहीं। कहीं हम दोनों पति पत्नी को दरवाज़े से ही बाहर न कर दें। कह तो यह बार-बार रहे हैं कि, “तुम्हें घबराने की ज़रूरत नहीं है। मेरी माँ जैसी इस दुनिया में कोई नहीं है। वह कई वर्षों से मुझसे शादी करने के लिए कह रही थीं। अब मैंने कर ली है तो वह ख़ुश ही होगी, डाँटेंगी नहीं। तुम्हें बहू मानेंगी, पूरा सम्मान, प्यार देंगी।”

लेकिन उनकी बातों पर उसे विश्वास हो नहीं हो पा रहा था। वह सोचती ही रही थी कि आख़िर कोई माँ कब चाहेगी कि उसका बेटा किसी लड़की नहीं ऐसी औरत से शादी करे, जिसके तीन साल, पाँच साल के दो दो बच्चे हों और उन दोनों बच्चों को भी साथ लेकर आए। लेकिन जब वह घर पहुँचीं तो अचंभित हो गई थी। सास और उनके व्यवहार को देख कर हक्का-बक्का हो गई थीं। 

घंटे भर पहले बने उसके पति ने जब उनका पैर छूकर कहा, “अम्मा तुम कहती थी ना बेटा अब शादी कर लो, कब तक हम तुम्हें बना-बना कर खिलाते रहेंगे। हमारी उम्र बहुत हो रही है, हमसे अब काम नहीं होता, अब हमारा भी मन होता है कि इस घर में कोई बहुरिया आए, हमें भी दो जून खाना खिलाए, हमसे भी दो बोल बोले, पोता पोती हों, उनको हम खिलाएँ, उनकी खिलखिलाहट से इस घर की मनहूसियत ख़त्म हो। तो लो देखो हम शादी करके तुम्हारे लिए बहुरिया और पोता दोनों ही एक साथ ले आए हैं, पोतों के लिए दो-चार साल इंतज़ार करने का कष्ट मैं तुम्हें नहीं देना चाहता था . . .” 

यह कहते हुए उन्होंने इशारा किया तो वह बहुत घबराती हुई, पीपल के पत्तों की तरह काँपती हुई उनके पैर छू रही थीं, और वह दोनों हाथों से उसके सिर को पकड़ कर आशीर्वाद दे रही थीं, उनका भी हाथ काँप रहा था, वह अवाक्‌ थीं, कि उनका बेटा अचानक ही ऐसे बहुरिया लाकर खड़ी कर देगा यह तो चलो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन ऐसी बहुरिया लेकर आएगा जो साथ में दो-दो बच्चे भी ले आएगी इसकी कल्पना भी नहीं की थी। नई-नवेली बहू उनके दोनों पैर पकड़े बैठी रही, फिर कुछ ही क्षण में उसने अपने चेहरे, फिर गर्दन से थोड़ा नीचे कुछ गुनगुनी बूँदों का गीलापन महसूस किया। उनकी सास बिना आवाज़ ही रो रही थीं, आँखों से टप टप झरते आँसुओं से अपनी बहू को मानों सर्वख़ुशियों से परिपूर्ण नवजीवन का आशीर्वाद दे रही थीं। 

उनके इन आँसुओं से आहत हो उठे बेटे ने अपने दोनों हाथों से माँ की आँखों को पोंछते हुए कहा था, “अम्मा काहे को रोती हो, तुम्हारे लिए ही तो यह शादी करके बहुरिया ले आया हूँ। मैं पहले जैसी कोई बहुरिया नहीं ले आना चाहता था जिसके चलते इस घर के कोने-कोने में एक सन्नाटा हमेशा के लिए फैल गया। ऊपर से लेकर नीचे तक कई कमरे ऐसे हो गए हैं जिनके दरवाज़े महीनों महीनों खुलते ही नहीं। पापा ने अपनी इहलीला ही समाप्त कर ली। बड़े भैया ने हमेशा के लिए परिवार सहित पहले यह घर, फिर यह देश ही छोड़ दिया। इतने दिनों में हमें सिर्फ़ इतना ही पता चल पाया है कि वह ब्रिटेन में कहीं बस गए हैं। अम्मा अब यह फिर न हो। वैसे भी अब हम सिर्फ़ दो ही बचे हैं, यही सोच कर इनसे मंदिर में ही शादी कर के सीधे तुम्हारे पास आ गया।” 

बहुत भावुक हो रही माँ ने भर्राए स्वर में कहा था, “भगवान तुम दोनों को ख़ुश रखें, इससे ज़्यादा मुझे और क्या चाहिए। उसने जो ख़ुशियाँ छीन लीं हमसे, उन्हें अब वापस तो कर नहीं पाएगा। जो रह गया है इसी में ख़ुश रहना है बेटा . . .” 

यह कहती हुई वह झुकीं और क़दमों में बैठी नई बहू को पकड़ कर उठाती हुई बोलीं थीं, “उठो बेटा, मुझे विश्वास है तुम इस घर में फैले मनहूस अँधियारे को हमेशा के लिए दूर करके ख़ुशियों का उजियारा भर दोगी। ख़ुद भी ख़ुश रहोगी, हम सबको भी ख़ुश रखोगी। मेरी तो उमर (उम्र) हो गई है। अब यह सारी दुनिया तुम्हीं लोगों की है। सम्भालो अपनी दुनिया, जैसी चाहो वैसी बना लो।”

यह कहती हुई वह अब भी डरे सहमें से अपनी माँ ही के पीछे खड़े दोनों बच्चों की ओर मुख़ातिब होकर बड़े ही स्नेह प्यार से बोलीं, “आओ बेटा, अपनी दादी के पास आओ . . .” लेकिन अभी भी सहमें बच्चे और भी ज़्यादा माँ के पीछे दुबक कर उनके आँचल को पकड़ लिया था। श्यामा कुछ ही मिनटों में सास के मुँह से अपने बच्चों के लिए दादी शब्द सुनकर बहुत भावुक हो गई थीं। इस एक शब्द के ज़रिये सास ने वह सारी बातें कह दी थीं जिन्हें लेकर वह गंभीर संशय में पड़ी हुई थीं, परेशान थीं, काँप रही थीं कि सास उसे बहू मानेंगी या नहीं इससे पहले तो यह कि घर में अंदर क़दम रखने भी देंगी कि नहीं। लेकिन इन सब के विपरीत सास ने एक शब्द में ही कह दिया कि उसे उन्होंने हृदय से पूरे प्यार स्नेह के साथ न सिर्फ़ बहू मान लिया है बल्कि उसके बच्चों को अपना पोता भी स्वीकार कर लिया है। वह अचंभित हो रही थीं कि एक बार भी सास ने उससे पूर्व पति, बच्चों के पिता के बारे में नहीं पूछा, जबकि बातों से साफ़ है कि इन्होंने भी अभी तक कुछ नहीं बताया है। कहीं यह मुझे परित्यक्ता या विधवा तो नहीं समझ रही हैं। 

सास ने जब छोटे वाले बच्चे को गोद में लेकर दुलारना शुरू किया तो बड़े बेटे का भी हाथ पकड़े रहीं, इसी बीच उसने पति की ओर प्रश्नाकूल दृष्टि से देखा तो उन्होंने बड़ी प्यार भरी दृष्टि से देखते हुए संकेतों में ही समझाया था कि सब ठीक है, निश्चिन्त रहो। तभी बच्चों को प्यार करती हुई सास को जैसे कुछ याद आ गया, और उन्हें वहीं खड़ा रहने को कह कर किचन में चली गईं, वापस एक प्लेट में अक्षत, हल्दी, लोटे में जल लेकर लौटीं। दोनों को टीका कर गृह प्रवेश की रस्म पूरी कर कमरे में बिठाया था। किसी पड़ोसी की मदद से मिठाई मँगाने जाने लगीं तो बेटे ने रोकते हुए कहा, “अम्मा तुम बैठो, मैं देखता हूँ।” फिर बाहर खड़ी मोटर साइकिल में से मिठाई, फल लाकर अम्मा के हाथों में रख दिया था। उन्होंने दोनों का मुँह मीठा कराकर बच्चों को गोद में बिठा कर खिलाया। 

दोनों बच्चे तब तक उनके साथ सहज हो गए थे। उसके बाद खाना-पीना शुरू करने लगीं तो श्यामा ने ख़ुद ही उन्हें रोकते हुए कहा, “अम्मा अब सब काम मैं करूँगी, आप आराम कीजिये।”

“अरे नहीं बेटा, इस घर में आज तुम्हारा पहला दिन है, आज मुझे ही करने दो, कल से देखते हैं . . .”

“नहीं अम्मा जी मेरे रहते अब आप कुछ नहीं करेंगी।”

आख़िर सास को उसकी बात माननी ही पड़ी थी। दोनों बच्चों को उन्हींके पास छोड़कर उसने खाना पीना सब किया। थके हारे एक अनजान सी दुनिया में पहुँचे बच्चे अपनी नई दादी के पास सो गए थे। इसी बीच सास ने कब उसके लिए ऊपर एक कमरे को उसकी सुहागरात का कमरा बना दिया यह वह तब जान पाई जब सोने से पहले उन्होंने कहा, “बेटा तुम दोनों नहा धोकर साफ़ कपड़े पहन कर पूजा के कमरे में आ जाओ।”

दोनों ने सोचा कोई रस्म होगी जो अम्मा उनसे सम्पन्न कराना चाह रही हैं। जब पहुँची तो भगवान को प्रणाम कर आशीर्वाद लेने को कहा। जब दोनों आशीर्वाद लेकर उनके क़रीब पहुँचे तो उसे एक जूलरी बॉक्स खोलकर देती हुई बड़े प्यार से बोलीं थीं, “बेटा मेरी तरफ़ से यह उपहार तुम्हारे लिए है।” 

उसमें सोने का सुन्दर-सा हार, और टॉप्स थे। उसने उसे लेने से पहले उनके पैर छुए तो वह आशीर्वाद देती हुई बोली थीं, “तुम दोनों सदैव सुखी रहो। अब बहुत रात हो गई है। जाओ तुम दोनों भी आराम करो। अभिसार ऊपर पापा वाला कमरा मैंने ठीक कर दिया है, अब से वह तुम दोनों का है।” 

यह सुनते ही श्यामा अचानक ही बड़े असमंजस में पड़ गई थीं। बच्चे कहाँ सोएँगे इस ओर उसका ध्यान पहली बार गया। जैसे ही उसने सास के कमरे की ओर देखा, सास की बूढ़ी अनुभवी आँखों को उसकी समस्या को समझते देर नहीं लगी, उन्होंने बिना अहसास कराए तुरंत ही कहा, “बच्चे कुछ ही घंटों में मुझसे ऐसे हिलमिल गए हैं जैसे जन्म से ही मेरे पास हों। उन्हें मेरे ही पास रहने दिया करो, मेरा भी मन लगा रहेगा। इतने बरसों से अकेलापन झेलते-झेलते बहुत टूटती जा रही हूँ, बहुत थक गई हूँ।”

श्यामा को भी समझते देर नहीं लगी थी कि सास ने उसके मन में अंकित बातों, असमंजस को तुरंत ही पढ़, समझ लिया है, आख़िर वह भी तीस-बत्तीस बरस में बहुत धूप-छाँव देख चुकी थीं। कुछ ही घंटों के अंदर सास का अपने, अपने बच्चों के लिए इतना प्रगाढ़ आत्मीय लगाव देखकर वह अभिभूत हो उठी थीं। कहाँ तो वह आते समय थर-थर काँप रही थीं कि पता नहीं सास घर के अंदर क़दम भी रखने देंगी या दरवाज़े से ही अपशब्दों की बौछार कर, अपमान की लाठियों से पीट-पीट कर भगा देंगी। लेकिन इन्होंने तो पहले क्षण से ही हृदय से ऐसे बहू स्वीकार किया, ऐसे व्यवहार कर रही हैं जैसे बरसों पहले विधिवत ब्याह कर यहाँ आई हों। 

वह बेहद भावुक हो गई थीं, आँखों से अश्रुधारा बह चली थी। यह देख उससे ज़्यादा बड़ी डील-डौल की सास ने उसे गले से लगा लिया तो वह एकदम से रो पड़ी थीं, तो सास ने चुप कराते हुए कहा था, “बेटा यह शुभ घड़ी है। मैं तुम्हारी स्थिति समझ रही हूँ, किसी असमंजस में पड़कर ख़ुद को कष्ट में नहीं डालो, अब जब क़दम बढ़ा दिया है तो पीछे मुड़कर देखने की ग़लती नहीं करो, आगे देखो, बढ़ो, अपना, हम सबका जीवन सुखी बनाओ। जिसके लिये तुमने इतना बड़ा क़दम उठाया है। मुझे नहीं मालूम कि तुमने यह क़दम क्यों उठाया, लेकिन पूरा विश्वास है कि इसके अलावा तुम्हारे पास और कोई रास्ता नहीं बचा रहा होगा। आओ तुम दोनों मेरे साथ आओ। देखो यह बात याद रखो कि घर की ख़ुशी बहुत कुछ निर्भर करती है घर की औरत पर, और तुम . . .”

सास उसका हाथ थामे उससे थोड़ा आगे-आगे चलती हुई बोलती जा रही थीं। उनके क़दम जब ऊपर एक कमरे में ठहरे तो कमरे की स्थिति देखकर श्यामा को समझते देर नहीं लगी कि सास ने उसे जीवन दर्शन समझाते-समझाते उसे उसके सुहाग कक्ष में पहुँचा दिया है। घर में कोई और था नहीं जो उसे वहाँ पहुँचाने की रस्म पूरी करता तो बात समझाने के बहाने उन्होंने ख़ुद ही रस्म पूरी कर दी। कम समय में अचानक ही कमरे को जितना सजाया सँवारा जा सकता था, उन्होंने वह सब किया था, और जो कुछ रखना था वह भी रख दिया था। अपना काम पूरा करते ही उन्होंने कहा, “श्यामा समय हमेशा सब कुछ बदलता रहता है, हर कोई अपना स्थान बदलता, या ख़ाली करता है, जिससे उसके पीछे वाले के लिए स्थान ख़ाली हो सके। अब यह स्थान तुम्हारा हुआ। मुझे ख़ुशी है मैं अपना कर्त्तव्य पूरा कर पायी। अब मैं चलती हूँ। और हाँ! अब इस फोटो को भी यहाँ नहीं होना चाहिए . . .”
यह कहती हुई बेड के सामने पति के साथ लगी अपनी फोटो उतार कर नीचे लेती गई थीं। 

क़रीब तीस-बत्तीस बरस पहले जिस स्थिति का सामना करने से बचने के लिए श्यामा ने मंदिर में बिना एक पल गँवाए शादी करने की ज़िद की थी वह स्थिति इतने बरसों बाद अंततः उसके सामने साल भर पहले आ ही गई। वह हर जतन कर के थक गईं, हार गईं लेकिन अपने मन को पहले पति के पास जाने से रोक नहीं सकीं। उनसे मिलने के लिए जलबिन मीन-सी तड़प उठीं कि बस एक बार उन्हें देख लूँ, पता नहीं कैसे हैं? शादी की, कि नहीं? वह उनका ख़्याल रखती है कि नहीं? खाने-पीने में बड़े लापरवाह थे, मक्खी हमेशा नाक पर बैठी रहती थी, बिना बात के ही जब देखो तब खाना छोड़ देते थे। 

उनके शुरूआती कुछ महीने तो इस संकोच में निकल गए कि लड़के से कैसे कहूँ कि अपने सगे पिता की खोजबीन करके बस एक बार उनसे मिलवा दो और ख़ुद भी मिल लो, आख़िर वही तुम्हारे सगे पिता हैं, तुम्हारी धमनियों में उन्हीं का रक्त प्रवाहित हो रहा है, तुमसे होता हुआ वही लहू तुम्हारे बच्चे में भी दौड़ रहा है। अब तुम्हारे पालक पिता तो रहे नहीं, तुम उचित समझना तो अपने सगे पिता से सदैव मिलते रहना। वह भी अब रिटायर ही होने वाले होंगे, जो हो सके तो उनकी भी वैसे ही सेवा करना जैसे पालक पिता की, की थी। 

उन्होंने बहुत प्रयासों के बाद जब संकोच का बँधन तोड़कर मन की बात लड़के से कही तो वह आश्चर्य से कुछ देर उनके चेहरे को अपलक देखता ही रह गया। उसे माँ की आँसुओं से भरी आँखों में अपने पालक पिता का ही मुस्कुराता चेहरा दिखाई दे रहा था। जिन्होंने उसे, उसके छोटे भाई को बड़े लाड़-प्यार से पाला था। जीवनभर अतिशय प्यार दिया था। जब छोटा भाई शादी होते ही पत्नी के बहकावे में आकर उनसे झगड़ कर, चला गया हमेशा के लिए घर छोड़ कर, तो कितना दुखी होकर कहा था, “उसकी कोई ग़लती नहीं, मेरी परवरिश में ही कोई कमी रह गयी होगी तभी तो वह ऐसे झगड़ा करके चला गया।” कितने अच्छे, कितने महान थे वह। 

कुछ देर तो लड़के को समझ में ही नहीं आया कि माँ को क्या उत्तर दे। उसे चुप देखकर उन्होंने पूछा, “क्या सोच रहे हो बेटा? मैंने कुछ ग़लत तो नहीं कह दिया?” 

“अं . . . नहीं, नहीं अम्मा। इतने बरसों में तुमने हम लोगों से शायद ही कभी यह बात की हो। सगे पिता जैसी कोई बात तो हमारे दिमाग़ में ही नहीं थी, अचानक ही सुनकर समझ ही नहीं आया कि क्या कहूँ? वह कहाँ हैं, कैसे हैं, हमें तो कुछ मालूम ही नहीं है। कैसे पहचानूँगा उन्हें, क्या कहूँगा उनसे, कैसे पहुँचूँगा उनके पास? कुछ समझ में नहीं आ रहा है।”

“बेटा उनके ऑफ़िस का पता मुझे कुछ-कुछ याद है, तुम वहीं जाकर उनके बारे में पूछना, अगर वह रिटायर हो गए होंगे तो उनके साथ के कुछ लोग तो अभी होंगे ही, उन्हीं से पूछ लेना वह कहाँ है, घर का पता वग़ैरह तो वहाँ से मिल ही जाएगा।”

माँ ने शहर और विभाग का भी नाम बता दिया। उनके आज्ञाकारी पुत्र ने काफ़ी कोशिश करके उनका ऑफ़िस ढूँढ़ लिया। वहाँ उसे पता चला कि उन्हें रिटायर हुए तो चार साल हो गए हैं। और वह इसी शहर के एक वृद्धाश्रम में रहते हैं, क्योंकि उनका कोई परिवार वग़ैरह नहीं है। वह बहुत सीधे सज्जन व्यक्ति हैं, महीने में एकाध बार यहाँ ऑफ़िस में सभी से मिलने ज़रूर आते हैं। उनकी पत्नी ने उनकी पीठ में छूरा भोंका, उन्हें धोखा दिया। उनके दोनों बच्चों को लेकर अपने प्रेमी के साथ भाग गई। बेचारे अकेले रह गए, बच्चों, पत्नी की याद में पूरा जीवन अकेले ही बिता दिया, लेकिन दूसरी शादी नहीं की। 

लोगों ने बेटे से उसकी माँ के लिए आवारा, बदमाश, बदचलन जैसे शब्द कहे। कहने वालों को यह नहीं मालूम था कि जिसे अपशब्द कह रहे हैं उसी का बेटा उनसे बात कर रहा है। माँ के लिए अपमानजनक बातें सुनकर बेटे का ख़ून खौल उठा, तिलमिला उठा वह, लेकिन माँ की बात याद कर कि किसी भी सूरत में अपना सही परिचय नहीं देना इसलिए ख़ून का घूँट पी कर ख़ुद को प्रतिक्रिया देने से रोके रहा, लेकिन फिर भी इतना ज़रूर बोल दिया कि, “हो सकता है कि उनकी कोई मजबूरी रही हो, उनके पक्ष को भी जाने बिना किसी महिला के लिए ऐसी बातें कहना ठीक नहीं है।” उसकी बात सुनकर लोग बहस पर उतर आए तो उसने वहाँ से तुरंत चल देना ही उचित समझा। 

पिता के बारे में लोगों से प्रशंसा ही प्रशंसा और यह सुनकर कि माँ के चले जाने के बाद उनकी, बच्चों की याद में वह अकेले ही जीवन बिता रहे हैं, उसका मन अपने ऐसे महान पिता से जल्दी से जल्दी मिलने के लिए व्याकुल हो उठा। उसका मन बार-बार यह सोच कर भी परेशान हो रहा था कि उसके पास पिता की कोई फोटो भी नहीं है, कैसे दिखते होंगे, यदि मैं उनपर गया होऊँगा तो मुझसे कुछ तो उनका चेहरा मिलता जुलता होगा ही। 

मन में चलती तमाम उधेड़बुन के साथ वृद्धाश्रम पहुँचकर गेट पर बैठे कर्मचारी से पिता का नाम बताकर कहा उनसे मिलना है तो कर्मचारी ने उससे पूरा परिचय पूछा। आवश्यक जानकारी लेने के बाद उसे एक हालनुमा कमरे में लेकर पहुँचा, जहाँ आठ दस बेड पड़े हुए थे। जिस पर कुछ वृद्ध लेटे हुए थे, कुछ गहन उदासी में लीन मूर्तिवत बैठे हुए थे, तो दो-तीन अपने मोबाइल में व्यस्त थे। कर्मचारी ने कहा, “जाईये मिल लीजिये।”

वह बड़े असमंजस में पड़ गया किसके पास जाए, पिता को पहचान ही नहीं पा रहा था। उसे ठहरा हुआ देख कर कर्मचारी ने पूछा “क्या बात है, आप जाते क्यों नहीं?” 

“. . . इनमें . . . इनमें पुष्कर जी कौन हैं?” 

“क्या! आप उन्हें पहचानते नहीं तो मिलने कैसे चले आये?” 

“देखिये मैं जब चार-पाँच साल का था तब उनसे मिला था, इसलिए . . . 

“ओह . . . ठीक है आइये।”

वह उसे कोने में खिड़की के पास बेड पर बैठे एक लम्बे डीलडौल के व्यक्ति के पास ले जाकर उनसे बोला, “साहब ये साहब आपसे मिलने आए हैं, लेकिन आपको पहचानते ही नहीं, कह रहे हैं जब यह चार-पाँच साल के थे तब आपसे आख़िरी बार मिले थे।” 

यह सुनकर वह आगंतुक को ध्यान से कुछ देर ऐसे निहारते रहे, जैसे कुछ याद करने का प्रयास कर रहे हों। जब कुछ याद नहीं कर पाए तो बड़ी विनम्रता से बोले, “मैं आपको पहचान नहीं पा रहा हूँ, बताइये आप कौन हैं? कहाँ से आ रहे हैं?” 

आगंतुक ने कुछ कहने के बजाय अपना मोबाइल निकाल कर उन्हें अपने बचपन की एक फोटो दिखाते हुए पूछा, “क्या आप इन्हें पहचानते हैं?” 

फोटो में आगंतुक अपनी माँ और भाई के साथ था। फोटो देखते ही बुज़ुर्ग की आँखें भर आईं, होंठ फड़कने लगे। आगंतुक ने अपनी फोटो पर उँगली रखते हुए कहा, “यह मैं हूँ।”

“अरे बेटा, बेटा, मोहित मेरे लाल . . .” 

वह बेटे को गले लगाकर फफक कर रो पड़े। मोहित भी होशोहवास सँभालने के बाद जीवन में पहली बार सगे पिता को देख अपनी रुलाई नहीं रोक पाया। हमेशा कठोर बने रहने वाले पुष्कर जी को इस तरह रोते देख कर हाल के सारे बुज़ुर्ग इकट्ठा हो गए। उनमें से कुछ लोगों ने उन्हें चुप कराया। पानी पिलाया। 

दोनों अपनी भावनाओं पर जब नियंत्रण कर पाए तब बुज़ुर्ग ने वृद्धाश्रम के अपने साथियों से कहा, “यह मेरा बेटा मोहित है। जब यह पाँच साल का था तभी किसी वजह से इसकी माँ और मैं अलग हो गए थे। उसके बाद आज मैं इसे पहली बार देख रहा हूँ। यह अब इतना बड़ा हो गया है कि इसका भी एक बेटा है . . .” 

वह भावुकता में बहुत कुछ ऐसा भी बोलते चले गए जो शायद उन्हें नहीं बोलना चाहिए था। शायद माँ के साथ हुई पुरानी बातों की याद आने से उन्हें ग़ुस्सा आ गया था। बेटे ने हाथ जोड़कर उन्हें समझाया, “पापा जी जो हो गया उसे भूल जाइए। अब बीते हुए को वापस नहीं लाया जा सकता। शायद हमारे भाग्य में यही लिखा था, जो हम आपके रहते हुए भी आपसे अनजान इतने दिनों तक दूर रहे।”

इसी के साथ उसने घर से चलते समय माँ का रिकॉर्ड किया हुआ वह वीडियो दिखाया जिसमें वह हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम कर रही थीं, अपनी ग़लतियों के लिए क्षमा माँग रही थीं। वीडियो देखकर वह फिर भावुक हो गए, नाराज़ भी। हल्के से बुदबुदाए, “अब बचा ही क्या है? क्या मतलब है प्रणाम, क्षमा-वमा का . . .”

इस बीच उनके लिए आश्रम ने चाय नाश्ता मँगवाया, बाप-बेटे को बात करने के लिए अकेला छोड़ कर सभी बाहर लॉन में चले गए। उन्हें वहाँ प्रतिदिन शाम को होने वाली हास्य गोष्ठी, चाय पार्टी में सम्मिलित होना था। एकांत मिलने पर पिता पुत्र की बातचीत लम्बी होती चली गई। पुत्र ने पिता को समझाने का बहुत प्रयास किया कि पुरानी बातों को भूलकर वह माँ से मिलने को तैयार हो जाएँ, घर चले चलें, यदि वहाँ नहीं चलना चाहते तो वह जिस शहर में, जहाँ रहना चाहे वहाँ सब लोग मिलकर रहते हैं। लेकिन पिता किसी भी स्थिति में क्षण भर को भी उसकी माँ से मिलने को तैयार नहीं हुए। एक घर में साथ रहने की तो बात ही नहीं सुनी। हार कर बेटा लौट आया। श्यामा उससे सारी बातें सुनकर बहुत रोईं, फूट-फूट कर रोईं कि पति ने उनकी याद में पूरा जीवन ही अकेले बिता दिया। उनके दो-दो बेटे हैं फिर भी कोई उनके आगे-पीछे नहीं, वृद्धाश्रम में रह रहे हैं। 

बहू ने किसी तरह उन्हें चुप कराया, “कहा अम्मा आप चुप हो जाइए। इस बार मैं भी उनके पास जाऊँगी, उनके पोते को भी लेकर जाऊँगी। हम सबको देखकर शायद उनका मन बदल जाए। उनका ग़ुस्सा ख़त्म हो जाए।” 

बेटे, बहू और पोते ने भी मिलकर बहुत प्रयास किया, कई-कई बार गए उनके पास। अनुनय-विनय सब कुछ किया, हाथ जोड़े, पैर पकड़े, पोता गले से लिपट गया, बाबा जी घर चलो यह भी बार-बार बोला। वह ख़ुद पोते के साथ खेले भी लेकिन चलने के नाम पर टस से मस नहीं हुए। उन्होंने हर बार यही कहा, “अब मेरे जीवन में क्या रखा है? किस बात के लिए मैं किसी से मिलूँ और क्यों मिलूँ। जिस व्यक्ति ने तुम सबको पाल-पोसकर इतना बड़ा किया, तुम्हारा वास्तविक पिता तो वही है। मैं तो केवल जन्म देने और शुरूआती पाँच वर्षों तक तुम्हारे पालन पोषण का ही हक़दार हूँ। अब मैं उस व्यक्ति की पत्नी परिवार के पास जाकर उसकी आत्मा को कष्ट पहुँचाने का पाप नहीं करना चाहता। 

’उसने सही ग़लत जो भी किया वह सब उसके साथ गया। इतना ज़रूर कहूँगा कि उसे शादी ही करनी थी तो किसी से भी करता, लेकिन उसने किसी का घर तोड़कर, किसी का जीवन बर्बाद करके, अपना घर बसाने का घृणित कुकर्म, पाप किया। और इस पाप में वह अकेला नहीं तुम्हारी माँ भी बराबर की भागीदार है। मैं तो आजतक यह नहीं समझ पाया कि उसे ऐसा क्या चाहिए था जो मैं उसे नहीं दे पा रहा था। उसकी हर इच्छा का ध्यान रखता था, पूरी करता था। हमारे बीच तो कभी-कभी थोड़ी-बहुत टुन्न-भुन्न के सिवा कोई लड़ाई-झगड़ा भी नहीं होता था। उसके साथ तुम्हारी माँ और तुम्हारी माँ के साथ वह जीवन भर कितना ख़ुश रहा यह मैं नहीं जानता। लेकिन उन दोनों के एक होने के बाद से आज तक मेरा जीवन वेदना की आग में हर क्षण झुलसता ही चला आ रहा है। अब जीवन बचा ही कितना है, जो भी बचा है वह भी तेज़ी से इसी कष्ट पीड़ा की आग में भस्म होता जा रहा है। 

“मैं तो हर क्षण चाहता हूँ कि जितनी जल्दी समाप्त हो जाए उतना ही अच्छा है, मुक्ति मिले मुझे इस झुलसते पीड़ा से तड़पते जीवन से। मैं तो सब कुछ भूल जाना चाहता था लेकिन क्या करूँ, तुम दोनों बेटों की याद बहुत आती थी। जब जब तुम्हारी उम्र के बच्चों को देखता तो मिलने के लिए तड़प उठता, बड़ी याद आती। तुम्हारी माँ तुम दोनों की एक-एक फोटो तक उठा ले गई थी। तुम दोनों मेरे दिमाग़ में हमेशा चार-पाँच साल के ही बने रहे, कभी बड़े हुए ही नहीं, कैसे दिखते हो जाना ही नहीं, जब तुम्हें देखा तो जाना मेरे बच्चे इतने बड़े हो गए हैं, लेकिन अब मेरे नहीं हैं। छोटे को तो अभी भी नहीं जान पाया कि वह कैसा है . . .” 

पिता की यह बात सुनते ही बेटे ने मोबाइल में अपने छोटे भाई की फोटो उन्हें दिखाई जिसमें वह अपनी पत्नी बच्चे के साथ था। फोटो देखकर उनकी आँखों में फिर आँसू आ गए, बहुत भावुक होकर बोले, “कितना दुर्भाग्यशाली हूँ मैं, मेरे बेटे कब बड़े हो गए, कब शादी, कब उनके बच्चे हो गए यह सब मुझे कुछ पता ही नहीं। अपने बेटों की शादी करने, पोतों को गोद में खिलाने का सुख क्या होता है यह सब कुछ जाना ही नहीं। मुझे सिर्फ़ इतना ही पता है कि उनकी याद में कई कई दिन तक खाना-पानी सब छूट जाता था। बार-बार बीमार पड़ा, अस्पताल में भर्ती हुआ, ऑफ़िस वालों ने मदद की। भाई बहन भी काफ़ी दिन तक साथ देते रहे। कुछ दिन बाद सब पैसों के पीछे पड़ गए। एक लिमिट बाद जब हाथ थोड़ा टाइट किया तो सब ने साथ ही छोड़ दिया। 

“अब मेरा घर परिवार जो कुछ भी है, यहाँ आश्रम के मेरे यह साथी ही हैं। मैंने अपना मकान भी इसी वृद्धाश्रम को लिख दिया है। मेरे न रहने पर इसीका होगा। अभी तो वहाँ से जो भी किराया मिलता है सब अपने इन्हीं परिजन पर ख़र्च करता हूँ। पेंशन से अपना ख़र्चा चला लेता हूँ। अब जो भी है, जैसा भी है, यही है मेरा जीवन। जितने दिन ईश्वर ने लिखा है उतने दिन चलता रहेगा। अपने इन परिजन को छोड़कर अब मैं किसी भी हालत में नहीं लौटना चाहता उस पुरानी दुनिया में। मैं नहीं मिलना चाहता, नहीं देखना चाहता उसे जिसने किसी के बहकावे में आकर अकारण ही मेरा जीवन बर्बाद कर दिया। मेरी ख़ुशी मेरे बेटों को ही लेकर चली गई। इससे मुझे रिश्तेदारों, मित्रों, समाज में कितना अपमानित होना पड़ा, मेरा कितना मज़ाक़ बनाया लोगों ने, क्या-क्या ताने मारे यह मैं ही जानता हूँ। परेशान होकर दुनिया से अपने को अलग कर लिया। बरसों बरस तक ऑफ़िस के बाद ख़ुद को कमरे में बंद किये रहता था . . . 

“लेकिन अब मुझे तुम्हारी माँ से भी कोई नाराज़गी नहीं है। वह उसके साथ ख़ुश थी ठीक है। मेरे जीवन में ऐसे ही अकेले रहना लिखा था तो मैं अकेला ही जीवन बिता आया। उसके जाने के बाद बहुत लोगों ने, भाई बहनों ने बार-बार मुझे सलाह दी, मुझ पर प्रेशर डाला कि जब उसने दूसरी शादी कर ली तो आप उसकी याद में क्यों अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं, पिछ्ला सबकुछ आप भी भूल जाइए और दूसरा विवाह कर अपना नया जीवन शुरू कीजिए। जीवन अकेले नहीं कटता। अकेलापन जीवन को तिलतिल कर ख़त्म कर देता है, घुन की तरह खोखला कर कर के ख़त्म करता है। मगर मेरा मन इसके लिए कभी तैयार ही नहीं हुआ। हर बार मन में यही बात आती यदि मेरे जीवन में सुख लिखा होता तो उसी के साथ सुखी रहता। फिर इस बात की क्या गारंटी कि दूसरी शादी करूँगा तो वह जीवन भर साथ निभाएगी।”

वह ढेर सारी बातें ऐसे करते रहे जैसे जीवन भर का ग़ुबार निकाल रहे हों। वैसे सच था भी यही, उनका ऐसा अपना था ही कौन जिससे वह अपने मन की पीड़ा साझा करते। ऐसी-ऐसी बातें कि पत्थर दिल कलेजा भी सिहर उठे, आँखों से आँसू बहने लगे। बेटे, बहू, पोते से बतियाते-बतियाते वह बार-बार रोते, फूट-फूट कर रोते लेकिन वापस चलने के नाम पर बिलकुल सख़्त हो जाते। किसी भी तरह तैयार नहीं हुए। देखते देखते लंबा समय निकल गया। बेटा, बहू, पोता हाथ-पैर जोड़कर, भावनात्मक रिक्वेस्ट कर कर के हार गए, लेकिन वह अपनी बात पर अडिग बने रहे। बेटे बहू ने यहाँ तक कहा कि, “पापा अच्छा केवल एक बार अम्मा से दस मिनट के लिए मिल लीजिए बस . . .”

उन लोगों को यह उम्मीद थी कि सामने देखकर शायद पापा की नाराज़गी दूर हो जाए, भावनाओं का ज्वार दोनों को एक कर दे, वह साथ आ जाएँ। मगर सारी बात की एक बात वह यह बोले कि, “तुम सब जब चाहो तब आते रहो, यहाँ मेरे साथ एक-दो दिन रुक भी सकते हो लेकिन अन्य किसी से मैं बिल्कुल नहीं मिल सकता।”

लेकिन बेटा भी इतने दिनों बाद अपने सगे पिता को देखकर अब उन्हें अलग वृद्धाश्रम में रहने देने के लिए तैयार नहीं था। वह जैसे एकदम ज़िद पर उतर आया और मामले को कोर्ट में लेकर चला गया। अदालत में न्यायमूर्ति के सामने हाथ जोड़कर विनती की, “माननीय न्यायमूर्ति जी मेरी आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि आप मेरे पिता को यह आदेशित करें कि वह कम से कम एक बार अपनी पत्नी, मेरी माँ से मिलने को अवश्य ही तैयार हो जाएँ।”

माननीय न्यायमूर्ति के जीवन में अपनी तरह का यह पहला विचित्र मामला सामने आया था। क़ानून की किस धारा के तहत वह आदेशित करें यह समझना सहज नहीं था। उनके पास एक ही रास्ता बचा था कि वह अपने विवेकाधिकार का प्रयोग कर कोई आदेश दें, या यह कह कर मामले का निपटारा करें कि किसी के व्यक्तिगत मामले या इच्छा के विषय में अदालत तब-तक कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती जब-तक कि उसके मामले से किसी क़ानून का कोई उल्लंघन न हो रहा हो, समाज या किसी व्यक्ति को कोई हानि न पहुँच रही हो। 

लड़के के बार-बार आग्रह करने पर अंततः न्यायमूर्ति ने कहा, “अदालत उन्हें आपकी माँ से मिलने के लिए आदेश तो नहीं दे सकती। उनके साथ जो भी हुआ निश्चित तौर पर उससे उन्हें अपूरणीय क्षति पहुँची है, ऐसी क्षति जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। अदालत की पूरी सहानुभूति उनके साथ है, लेकिन मानवीय आधार पर उनसे यह आग्रह कर सकती है कि वह कम से कम एक बार अवश्य मिल लें, बातचीत कर जो भी समस्या है उसका समाधान निकालने का प्रयास भी अवश्य करें। अब जो शेष जीवन बचा है उसे बेहतर बनाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। इसलिए ऐसा रास्ता निकालने का प्रयास करें कि वह वृद्धाश्रम को छोड़ कर अपना शेष जीवन परिवार के साथ व्यतीत कर सकें।”

बेटा कोर्ट का आग्रह पत्र लेकर पत्नी और बेटे के साथ फिर पहुँचा पिता के पास, तो वह थोड़ा नाराज़ हो गए। बेटे से कहा, “इस तरह मुझ पर दबाव डालने की कोशिश मत करो। इससे मुझ पर दूसरा प्रभाव भी पड़ सकता है।”

उन्हें नाराज़ समझते ही बेटा और बहू दोनों ने उनके पैर पकड़ लिए। बेटा रोने लगा तो पिता भी भावुक हो गए। इसी बीच पोते ने भी कहा, “बाबा आप हमारे साथ क्यों नहीं चलते। मैं और आप दोनों साथ खेला करेंगे।”

गोलमटोल चार साल के पोते की बातों ने उन्हें और भी कमज़ोर कर दिया, लेकिन फिर भी अपनी बात पर अडिग रहे। पोते को प्यार करते हुए कहा, “बेटा तुम सब लोग जब चाहो तब यहाँ आते रहो। जब भी तुम्हारी छुट्टी हुआ करे, पापा अम्मा के साथ चले आया करो। यहाँ पर यह सब मेरे साथी हैं। इनको छोड़कर अब मैं कहीं और नहीं जा सकता।”

वास्तव में गोद में बैठे पोते से बतियाते हुए वह यह बातें बेटे को ही सुना रहे थे। उन्हें लगा यह पर्याप्त नहीं है तो बेटे से स्पष्ट कहा, “यह कोर्ट का आदेश नहीं है। मानवीय आधार पर एक आग्रह मात्र है। आग्रह को स्वीकार करना, नहीं करना इसका पूरा अधिकार मेरे पास है।”

क़ानून की समझ उन्हें भी है बेटे को यह अहसास कराते हुए उन्होंने बात समाप्त कर दी। मगर बेटा भी आख़िर उन्हीं का ख़ून था। वह भी अपने लक्ष्य को पाए बिना चुप बैठने को तैयार नहीं हुआ। फिर अदालत न्यायमूर्ति के पास पहुँचा। उनसे पुनः करबद्ध प्रार्थना की, “माननीय न्यायमूर्ति महोदय मेरे पिताजी को वीडियो कॉल पर बुलवा कर यदि एक बार आप उन्हें मिलने के लिए कह देंगे तो वह अवश्य ही मान जाएँगे। मेरे पूरे परिवार की ख़ुशी और पिता को फिर उनका परिवार मिल जाए इसके लिए माननीय अदालत का कह देना ही पर्याप्त होगा। माननीय अदालत की इस महान कृपा के लिए हमारा पूरा परिवार माननीय अदालत का आजीवन आभारी रहेगा।”

कुछ विचार करने के बाद उसने न्यायमूर्ति जी के आदेश पर अपने पिता को वीडियो कॉल किया और उनसे विनम्र प्रार्थना की, कि वह माननीय न्यायमूर्ति जी से बात कर लें। न्यायमूर्ति ने फोन लेकर सबसे पहले उसके पिता से उनका पक्ष जाना समझा। पिता ने वही सारी बातें उनसे संक्षेप में कहीं जो बातें बेटा पहले से कहता चला आ रहा था। 

उन्हें सुनने के बाद माननीय न्यायमूर्ति ने उसके पिता से कहा, “अदालत आपको कोई आदेश नहीं दे रही है। आप एक पढ़े-लिखे समझदार और बुज़ुर्ग व्यक्ति हैं। समाज के प्रति भी हमारे कुछ उत्तरदायित्व होते हैं, हमें उसका भी पालन करना चाहिए। हम सब समाज का हिस्सा हैं अतः अदालत आपसे पुनः आग्रह कर रही है कि मानवीय आधार पर अपनी पत्नी से एक बार बातचीत अवश्य कर लें। क़ानून की दृष्टि में आप दोनों आज भी पति-पत्नी हैं। क्योंकि आप दोनों ने डायवोर्स नहीं लिया है। बड़ी से बड़ी समस्या का भी समाधान बातचीत से ही निकलता है। अदालत को आपके साथ पूरी सहानुभूति है। आपने अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा बहुत ही कष्टमय व्यतीत किया, लेकिन अभी शेष जीवन को बेहतर बनाने की पूरी सम्भावना है। इसलिए आपको बातचीत करनी चाहिए। इससे पहले यह कि आप और आपकी पत्नी के बीच जो कुछ भी हुआ, उसकी सज़ा आपके बेटे, आपकी बहू और आपके पोते को क्यों मिले, इसलिए बातचीत में पूरा प्रयास यह हो कि आप और आपकी पत्नी का शेष जीवन परिवार के सभी सदस्यों के साथ सुखमय व्यतीत हो।” 

बेहद सहिष्णु सहृदय न्यायमूर्ति ने और भी कई भावनात्मक बातें कहीं। जिसके बाद बेटे का अथक प्रयास सफल हो गया, पिता बातचीत करने के लिए तैयार हो गए। माननीय न्यायमूर्ति को धन्यवाद देते हुए कहा, “सभी मेरे पास बात करने के लिए वृद्धाश्रम आ सकते हैं।”

अदालत से यह रास्ता खुलते ही बेटा बहुत कुछ सोचते हुए माँ, पत्नी और बेटे को लेकर अगले दिन ही पिता के पास पहुँच गया। पिता को देखते ही माँ फूट-फूट कर रोने लगी, उनके पैर पकड़ लिए। पहले तो पिता बहुत कठोर बने रहे, कुछ भी नहीं बोल रहे थे। लेकिन जल्दी ही उनकी भी आँखें भर आईं। दादी को रोता देख कर पोता भी रोने लगा। बेटा, बहू की आँखों से आँसू पहले ही बह रहे थे। इन आँसुओं ने शिला से कठोर बने पिता को भी द्रवित कर दिया। 

वह पैरों को पकड़े ज़मीन पर बड़ी देर से बैठी रोती हुई पत्नी को उठाकर गले से लगाते-लगाते फफक कर रो पड़े। बहू, बेटा और पोता भी उन्हींसे चिपक गए। आश्रम के तमाम उनके साथी भी आसपास खड़े थे। अपने अपने परिवारों से ठुकराए हुए उन वृद्धों की आँखों में भी आँसू आ गए। कई तो अपने पर नियंत्रण नहीं कर पाए और रोने लगे। भावनाओं का ज्वार जब कुछ थमा तो बात फिर आगे बढ़ी . . . 

बेटे, बहू, वृद्धाश्रम के साथियों के समझाने पर आख़िर पिता सबके साथ रहने को तैयार हो गए। मगर एक शर्त रख दी कि वह उस घर में नहीं जाएँगे। सभी को उनके घर वापस आना पड़ेगा। आख़िर उनकी बात को सभी ने मान लिया। जब अंत भला तो सब भला हो गया। पिता ने वृद्धाश्रम के अपने सभी साथियों के लिए स्पेशल भोजन बनवाया। अपने अकाउंट से पैसा निकलवा कर बेटे के माध्यम से सभी के लिए एक-एक सेट कपड़ा, उनकी ज़रूरत की सभी चीज़ें मँगवा कर उन्हें दीं। जब परिवार के साथ अपने घर चले गए तो उसके बाद भी डेली कम से कम दो-तीन घंटा समय वृद्धाश्रम को देना उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। उनकी पत्नी भी साथ रहतीं। बेटा, बहू और पोता भी अक्सर साथ होते। उन्होंने पत्नी की पिछली सारी ग़लतियों को माफ़ कर दिया। पत्नी जब कभी पुरानी बातों को याद करती है तो यह कहकर चुप करा देते हैं कि, “हमेशा के लिए भूल जाओ पिछली सारी बातें। अब जो सामने है, बस वही सच है, इसके अलावा सब झूठ है।”

लेकिन बेटा मन ही मन पिछ्ला भी सब सच है इस पर अडिग रहते हुए, उस पालक पिता को भुलाना ही नहीं चाहता है जिसने अपने बच्चे सिर्फ़ इसलिए नहीं पैदा किए, जिससे उसके भाई और उसके साथ कोई भेदभाव न होने लगे। उस पर बच्चों के साथ सौतेला व्यवहार करने का आरोप न लग जाए। समय मिलते ही वह उस घर में जाना नहीं भूलता है, जिस घर के जर्रे-जर्रे में पालक पिता से जुड़ी सारी यादें रची बसी हैं, उसे बार-बार बुलाती हैं। वह तुलसी का बिरवा भी जो माँ का साथ छूटने से सूख कर ऐसे झंखाड़ बन गया है, जैसे जल देने वाली की याद में प्राण त्याग दिया हो। 

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