छायावाद विश्व मानवता से जुड़ा है और वर्तमान काव्य निजी अंतर्द्वंद्व से: प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित

01-03-2024
  • प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित
    प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित

छायावाद विश्व मानवता से जुड़ा है और वर्तमान काव्य निजी अंतर्द्वंद्व से: प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 
 

  • कोई समेकित भारतीय साहित्य अभी तक नहीं स्थिर हो पाया।     

  • बाज़ारवाद अवश्य चिंतनीय है, पर इस भौतिक युग में उसके बिना पूर्ण निर्वाह भी सम्भव नहीं है। 

  • पश्चिमी सौंदर्य शास्त्र में मार्क्स, फ़्रायड, सार्त्र आदि का आतंक छाया हुआ है। भारतीय सौंदर्यबोध मुख्यतः संवेदनशास्त्र अर्थात्‌ दर्शन से नियंत्रित है। 

  • सूचना क्रांति को अक्षर जगत से जोड़ना और जनसंचार के सहारे साहित्य का परिविस्तार करना बहुत लाभप्रद होगा। 

  • अंग्रेज़ी माध्यम से आवश्यक प्रचार-प्रसार यदि किया गया होता तो ‘कामायनी’, ‘उर्वशी’ जैसी कृतियाँ नोबेल पुरस्कार से अवश्य अभिमण्डित हो जातीं। 

  • हिंदी साहित्य की वर्तमान दशा-दिशा में बिखराव ज़्यादा है, संख्यात्मक विस्तार तो ज़्यादा है पर घनत्व नहीं है। 

अपने विशिष्ट साहित्यिक योगदान से वरिष्ठ साहित्यिकार प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित ने हिंदी साहित्य जगत के हर कोने को प्रभावित किया है। उन्होंने क़रीब सवा सौ शोध समीक्षात्मक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों का संपादन किया। देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाया 

और लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के संस्थापक अध्यक्ष भी रहे। क़रीब सात दशकों से चल रही उनकी अनवरत साहित्य साधना के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से ‘साहित्य भूषण सम्मान’, ‘दीनदयाल उपाध्याय सम्मान’, हिन्दी साहित्य सम्मेलन से ‘साहित्य वाचस्पति उपाधि’, साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा ‘आथर इन रेजीडेन्स फ़ेलोशिप’, ‘तुलसी अवधश्री सम्मान’, इंटरनेशनल सेंटर, कैम्ब्रिज से ‘इंटरनेशनल मैन ऑफ़ दी इयर’, अमेरिकन इन्स्टीट्यूट से ‘डिसटिंगिस्ट परसनालिटी ऑफ़ दी वर्ड’, आदि सम्मान प्रदान किये गए हैं। आज भी साहित्य सृजन, विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों में व्यस्त रहने वाले सूर्यप्रसाद दीक्षित जी से बीते दिनों समग्र हिंदी साहित्य, देश की दशा-दिशा सहित अनेक अन्य बिंदुओं पर बात-चीत हुई। अतिशय उदारमना, सहिष्णु व्यक्तित्व के धनी सूर्यप्रसाद जी का मानना है कि भारतीय साहित्य को वैश्विक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए एक भारतीय अनुवाद प्राधिकरण की स्थापना करनी चाहिए। बातचीत के प्रस्तुत प्रमुख अंश में नोबेल से लेकर दिए लिए जाने वाले अन्य पुरस्कारों के परदे के पीछे की वस्तुस्थिति पर भी उनकी बेबाक टिप्पणी अचंभित करती है। 

—प्रदीप श्रीवास्तव 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आपका अध्ययन, अध्यापन, लेखन, अनुभव बहुआयामी है, विराट है। सर्वप्रथम आपसे आपके प्रारंभिक जीवन, शिक्षा दीक्षा के विषय में जानना चाहूँगा। 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

प्रदीप जी, आपने मेरे अध्ययन, अध्यापन, लेखन, अनुभव आदि को विराट कहा, यह आपकी उदारता है। हाँ, मेरा अध्ययन क्षेत्र बहुआयामी अवश्य है। मुझे लगता है, संसार में हज़ारों भाषा-साहित्य हैं। उनमें से एक है हिंदी। इस हिंदी से रोज़ी-रोटी कमाने वाले हर शिक्षक को, उसके हर रूप की थोड़ी बहुत जानकारी तो होनी ही चाहिए। 

रहा मेरा प्रारंभिक जीवन और आरंभिक शिक्षा-दीक्षा का प्रश्न। मैं एक ग्रामीण किसान परिवार में जन्मा था, जिसमें तब एक भी साक्षर व्यक्ति नहीं था। आज से छियासी वर्ष पूर्व वह गाँव आधुनिक स्कूली शिक्षा से वंचित था। वहाँ एक खंडहर में लोअर प्राइमरी पाठशाला चलती थी। मेरे पंडित जी ने ज़बरदस्ती घर से ले जाकर मुझे भर्ती कर दिया था। 

उर्दू शिक्षा का माध्यम था। मैंने वहाँ से अल्लिफ अव्वल तक पढ़ाई की। दो वर्ष बाद मुझे लगभग चार किलोमीटर दूर बछरावां नामक क़स्बे की ‘बेसिक प्राइमरी पाठशाला’ में प्रवेश मिला। वहाँ से सोम और चहर्रुम (कक्षा चार) तक की पढ़ाई की। उसी वर्ष देश आज़ाद हुआ था। उसके बाद सरकारी मिडिल स्कूल में प्रवेश मिला। दो वर्ष बाद बोर्ड की परीक्षा होने के छह माह पूर्व ही वह संस्था हायर सेकेंडरी स्कूल (श्री गाँधी विद्यालय बछरावां) में विलयित हो गयी। हाई स्कूल करते हुए मेरी रुचि हिंदी की ओर बढ़ी और फिर बढ़ती ही रही। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आपका छात्र जीवन जिस परिवेश में बीता, उस परिवेश में ऐसी कौन सी बातें थीं जिनके कारण आपका रुझान साहित्य की तरफ़ हुआ? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

इस कॉलेज में अपने हिंदी लेक्चरर श्री नृपति सिंह भदौरिया जी से प्रेरित होकर मैं अंत्याक्षरी और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगा। जैसे-जैसे सफलता मिलती गई उत्साह भी बढ़ता गया। साहित्य परिषद में बराबर सक्रिय रहा। ज़िला स्तर और प्रदेश स्तर की प्रतियोगिताओं में सफलता मिली तो उत्साह कई गुना बढ़ गया। 

अंत्याक्षरी के पीछे मैंने बहुत सारी रचनाएँ रट डालीं। शायद वाद-विवाद प्रतियोगिता के कारण ही वक्तृत्व कला का विकास हुआ। साहित्य परिषद से जुड़ने के कारण संगठन क्षमता की भी वृद्धि हुई। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

क्या परिवार, सगे-सम्बन्धियों, मित्रों में ऐसे लोग भी रहे जिन्होंने आपको साहित्य के लिए प्रेरित किया, या इनमें साहित्य की दुनिया से जुड़े हुए लोग भी थे जिनको देख कर आपको प्रेरणा मिली? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

मेरे संयुक्त परिवार में बड़े ताऊजी मेरे अभिभावक थे। उन्होंने बहुत बढ़ावा दिया। मेरे लिखने-पढ़ने के लिए घर के बाहर एक अलग कमरे की व्यवस्था कर दी। बछरावां कॉलेज तक आने-जाने के लिए साइकिल सुलभ करा दी। और १९५५-५६ में अपने व्यय से मेरी कविताओं का एक संकलन (मंजरी) का प्रकाशन करा दिया। उन्हीं दिनों मैंने गाँव में एक पुस्तकालय (सरस्वती सार्वजनिक पुस्तकालय) स्थापित किया था, जिसके भवन फ़र्नीचर आदि की व्यवस्था उन्हीं के द्वारा की गई थी। उनसे प्रेरित होकर मैं कवि सम्मेलनों में भाग लेने लगा। गाँव की रामलीला में मैं प्रतिवर्ष कभी राम का तो कभी लक्ष्मण का अभिनय किया करता था। वे बराबर मेरी पीठ थपथपाते रहे। हमारे गाँव में ही श्री चंद्रमणि पांडेय नाम के एक प्रसिद्ध रामायणी थे, जो ‘सनेही मंडल’ के कवि थे। अच्छे नाटककार थे। 

मेरे आरंभिक काव्य गुरु वे ही थे। जिन दिनों मैं इंटर कर रहा था, वे ‘रायबरेली के कवि’ नामक एक पुस्तक लिख रहे थे। उस पुस्तक के लिए मुझ से कई लेख लिखवाये और मेरा हौसला बढ़ाया। उनके निर्देशन में मैंने कई कविताएँ और लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपवाए। इस तरह इंटर करते-करते हिंदी के प्रति मेरा अनुराग घनीभूत हो गया। 

इंटर परीक्षा में मेरिट लिस्ट में नाम होने के कारण मुझे छात्रवृत्ति मिल गई और मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। मुख्य विषय थे: संस्कृत, हिंदी, अंग्रेज़ी। लखनऊ में रहते हुए मैं माधुरी संपादक पंडित रूप नारायण पांडेय, आशु कवि जगमोहन नाथ अवस्थी, नागर जी, तोरन देवी ‘लली’ जी और रमई काका के काफ़ी निकट रहा। उन दिनों दैनिक स्वतंत्र भारत के साप्ताहिक संस्करण में ‘युवा संघ’ नामक एक स्तंभ छपता था। उस समिति की बैठक प्रति सप्ताह पायनियर प्रेस में होती थी। मैं उसमें काफ़ी सक्रिय रहा। एम.ए. करते हुए हिंदी विभाग के कई गुरुजनों का मैं स्नेह भाजन बना। 

इनमें सर्वोपरि थे पंडित ब्रजकिशोर मिश्र जी। उन्हीं के निर्देशन में मैंने पीएच.डी. शोध प्रबंध लिखा। इस प्रकार गुरुजनों की कृपा से मेरा छात्र जीवन प्रायः निष्कंटक रहा। 

प्रदीप श्रीवास्तव:प्रायः 

देखा गया है कि लेखक अपने साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ कविता से ही करता है, क्या कारण है इसके पीछे, आपकी शुरूआत कैसे हुई? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

आप शत-प्रतिशत सही हैं, प्रदीप जी। हिंदी के अधिकतर साहित्यकारों का साहित्यिक जीवन कविता से शुरू हुआ है। मैं भी काव्य रचना से प्रेरित होकर हिंदी साहित्य की ओर बढ़ा था। उन दिनों मंचों और पत्र-पत्रिकाओं में कविता की बड़ी धूम थी। कविता संवेदनशील व्यक्ति को सहजतः अपनी ओर खींच लेती है। 

चूँकि सृजन की इच्छा जीव मात्र का प्रमुख लक्षण है, इसलिए भाषा-ज्ञान होते ही वह अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए भावाकुल हो उठता है और जब जितना कुछ रच लेता है, उससे लौकिक सुख का अनुभव करने लगता है। 

भावुकता का पहला विस्फोट कवित्व पूर्ण होता ही है। धीरे-धीरे बौद्धिकता की वृद्धि होने पर वह चिंतन वैचारिक लेखन अर्थात्‌ गद्य लेखन की ओर मुड़ जाता है मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

अपने पीएच.डी. छायावादी गद्य साहित्य में की है। छायावादी युग के किन साहित्यकारों ने आपको सबसे ज़्यादा प्रभावित किया और क्यों? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

पाँच लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. करते हुए मैं छायावाद से बहुत प्रभावित था। इसका एक कारण तो यह कि निराला, पंत, महादेवी उन दिनों कवियों में सर्वोच्च शिखर पर थे। मुझे उन्हें देखने-सुनने के अनेक अवसर प्रायः मिलते रहते थे। प्रसाद जी का काव्य ‘आँसू’ युवा मानस पर छाया हुआ था। प्रसाद के नाटकों के संवाद, उनकी कहानियाँ, विशेष रूप से ‘कामायनी’ महाकाव्य मुझे बहुत ही सम्मोहनकारी लगे। पंत जी कोमलकांत कल्पनाओं के राजकुमार कहे जाते थे। 

महाप्राण निराला कवि कर्म के आदर्श बन गए थे। महादेवी जी रहस्य और वेदना की प्रसिद्ध कवयित्री थीं। उनसे बड़ी विदुषी कवयित्री भारत के किसी भाषा में नहीं थी। जिन दिनों मैं एम.ए. का विद्यार्थी था, काव्य क्षेत्र में सनेही मंडल बहुत सक्रिय था। कवियों के कवि सनेही जी महाकवि अनूप शर्मा और हितैषी जी हमारे पड़ोसी ज़िलों के थे। आशु कवि मोहन मंचों पर छाए रहते थे। इस चतुष्टय के अलावा लखनऊ में ही ‘हालावाद’ से जुड़े कवि भगवती चरण वर्मा, कविवर बच्चन, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, श्याम नारायण पांडेय, अवधी कवि वंशीधर शुक्ल एवं रमई काका इन कवियों को नगर में प्रायः सुनता रहता था। 

छायावादी कवियों में मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया है प्रसाद जी ने और निराला जी ने, इसलिए कि प्रसाद जी ने प्रेम, सौंदर्य, आनंद की त्रिवेणी प्रवाहित की है। उन्होंने अपने नाटकों में राष्ट्र का सांस्कृतिक इतिहास लिखा है। अपने कथा लेखन द्वारा मानवी संवेदना को स्वर दिया है और ‘कामायनी’ के माध्यम से जीवन-विभीषिका का चिरंतन समाधान प्रस्तुत किया है। निराला जी ने अपने बहुविध लेखन द्वारा जीवन-संघर्ष की जो प्रेरणा प्रदान की है और साहित्य क्षेत्र में निरंतर जो प्रयोग किए हैं वे हमें सहजतः प्रभावित करते रहे हैं। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

खड़ी बोली के विकास की दृष्टि से आप छायावादी युग को किस तरह देखते हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

खड़ी बोली के विकास में छायावाद की बहुत बड़ी भूमिका रही है। इसके पूर्व ब्रजभाषा ही लोकप्रिय काव्य भाषा थी। ब्रजभाषा है तो बहुत ललित लवंगी। उसमें बड़ी लोच है, बड़ा माधुर्य और मार्दव है किन्तु समकालीन जीवन-संघर्ष की और उसके उपयुक्त ओजोदीप्त शब्दावली की उसमें कमी है। कविता के अतिरिक्त वह संसार की भाषा शिक्षण के माध्यम भाषा, राजभाषा और भौतिक जीवन की कामकाजी भाषा नहीं बन सकी। 

छायावाद पूर्व द्विवेदी मंडल द्वारा जो खड़ी बोली कविता लिखी जा रही थी उसमें इतिवृत्तामकता वर्णनात्मकता सपाट बयानी और औपदेशिकता अति पर पहुँच गई थी। जैसे आपकी कृपा के बल से सब कुशल है। इस प्रकार के गद्यात्मक वाक्य बहुशः लिखे जाने लगे थे। हरिऔध और मैथिलीशरण जी ने भरसक उसे काव्योपम बनाया था, लेकिन अभी तक ब्रजभाषा वाला पूरा पद-लालित्य नहीं आ पाया था। यह श्रेय मिला छायावादी कवियों को, उस बीच प्रसाद, पंत, निराला ने खड़ी बोली को इस प्रकार सँवारा और निखारा कि निराला जी के ही शब्दों में—“एक-एक शब्द बना ध्वनिमय साकार।” छायावादी भाषा की लक्षण व्यंजना ने लोगों का मन मोह लिया। छायावादोचित सरल शब्दावली और गहरा जीवन दर्शन जन सामान्य को प्रभावित करता ही है, जैसे प्रसाद जी की यह पंक्ति:

“सुख-दुख में उठता-गिरता संसार तिरोहित होगा। 
 मुड़कर न कभी देखेगा, किसका हित-अनहित होगा।”

अथवा:

“चुन-चुन ले रे कन कन से जगती की सुप्त व्यथायें।
अवकाश कहाँ है उनको, सुनने को करुण कथायें॥”

इसी प्रकार पंत की चित्र भाषा सम्मोहनकारी है। जब वे लिखते हैं:

“सिखा दो न हे मधुप कुमारि, मुझे भी अपने मीठे गान।”

निराला जी की भाषा अपनी संघटना से हमें चमत्कृत करती है। ‘राम की शक्ति पूजा’ की यह पंक्तियाँ मस्तिष्क को झकझोर देती हैं:

“रावण विरुद्ध प्रत्यूह क्रुद्ध कपि विषम हूह 
प्रतिपल परिवर्तित व्युह, भेद कौशल समूह।” 

ऐसी टकसाली भाषा पहले नहीं थी। महादेवी की जैसी बिंबधर्मिता भी पूर्ववर्ती कवियों में नहीं थी। उनका यह बिंब विधान देखिए:

“सजल अंक धर, दर्पण सा सर, आज रही निशि दृग इंदीवर।” 

ऐसी कल्पना वास्तव में अतुलनीय है। छायावादी काव्य में व्यक्त प्रकृति प्रेम, राष्ट्रीय संस्कृति, विश्व बोध स्वच्छंदता, वेदनावाद, रहस्य दर्शन आदि ने आधुनिक खड़ी बोली कविता का इतना परिष्कार-संस्कार किया कि उसके समक्ष पारंपरिक कविता फीकी पड़ गई, कालातीत लगने लगी। और मुक्ति आंदोलन के उस दौर में छाया वादी कविता तो सबसे प्रासंगिक प्रतीत हुई। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

छायावादी युग के साहित्य को आप किस दृष्टि से देखते हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

मैं छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद यहाँ तक कि भारतेंदु और द्विवेदी के स्थिति काल को भारतेंदु मंडल और द्विवेदी मंडल कहता हूँ। मेरे विचार से आधुनिक काल के तीन युग हैं (१) नवजागरण काल (२) स्वातंत्र्य संघर्ष काल और (३) समकाल। इनमें छायावादी कविता की अवधि है—लगभग १९१६ से १९४० तक। चूँकि १९१६ में ‘जूही की कली’ की रचना हो चुकी थी, अतः ऐसी श्रेष्ठ छायावादी कविता के सृजन वर्ष में छायावाद का जन्म काल मानना न्यायोचित ही होगा। 

छायावादी कवियों ने अपनी छायावृत्ति के सहारे काव्य की एक नई शैली अभिव्यंजना शैली के रूप में स्थापित किया था। उसी शैली में उन्होंने कविता के साथ-साथ नाटक, कहानी, रेखाचित्र आदि भी लिखे। इस दौर का साहित्य नवजागरण और मुक्ति आंदोलन से प्रेरित रहा है, इन रचनाकारों ने नारी जीवन के प्रति संवेदना व्यक्त की मानवतावाद को प्रश्रय दिया, व्यक्ति स्वातंत्र्य की माँग की और भावी मंगलाशा को स्वर दिया। 

पंत जी ने लिखा—“नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन”। निराला ने कहा, “तोड़ो तोड़ो कारा।” प्रसाद जी ने “समरस हो जड़ और चेतन” की गुहार लगाई और महादेवी ने मानवीय करुणा की। उनका एक बड़ा मार्मिक गीत है, “दुलरा देना, बहला देना, यह तेरा जग शिशु है उदास। रूपसि, तेरा घन पाश’ मुझे यह दौर हर दृष्टि से भरा-पूरा दिखाई देता है। 

इन कवियों का रचना संसार बड़ा व्यापक है। इनके अधिकतर उद्गार अंतर्तम से प्रकट हुए हैं। इन्होंने अपने अध्यवसाय, चिंतन-मनन और नैसर्गिक संवेदन के सहारे जीवन-जगत की शाश्वत समस्याओं का विधेयात्मक विकल्प प्रस्तुत किया है। 

प्रसाद जी ने शैवागम से, निराला ने वेदांत से, पंतजी ने अरविंददर्शन से और महादेवी जी ने बौद्ध करुणा से प्रेरित होकर भारतीय समाज के योग क्षेम का संदेश दिया। इन्होंने रहस्य, दर्शन, इतिहास युगीन राजनीतिक परिदृश्य अर्थव्यवस्था समाज-मनोविज्ञान आदि के परिप्रेक्ष्य में यथार्थ को और उसकी विधेयात्मक आदर्शवादी परिणति को प्रश्रय दिया। इस प्रकार साहित्य की जो सार्थकता सिद्ध हुई, साथ ही छायावादी कविता, कवित्व के शिखर पर जिस ऊँचाई तक पहुँची, वह हमारे गर्व और हर्ष का विषय है। इसकी पुष्टि छायावाद और छायावादी कवियों पर मेरी लगभग एक दर्जन पुस्तकों में दृष्टव्य है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, आदि के अलावा आप और किन साहित्यकारों को छायावादी युग के प्रमुख साहित्यकारों में सम्मिलित करना चाहेंगे? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

छायावादी कवि चतुष्टिय प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी अपनी काव्यकृति छायावृत्ति की दृष्टि से अतुलनीय हैं। यों छायावादी प्रभाव को आत्मसात करके काव्य सृजन करने वाले कई कवि उस बीच दिखाई पड़े हैं। जैसे माखनलाल चतुर्वेदी, रामकुमार वर्मा, इलाज चंद्र जोशी, उदय शंकर भट्ट, हरि कृष्ण प्रेमी, जनार्दन झा द्विज, मोहनलाल महतो, लक्ष्मी नारायण मिश्र, चंद्र प्रकाश सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री, सुमित्रा कुमारी सिन्हा आदि। बहुत दिनों तक दिनकर, बच्चन जी भी उससे प्रेरित रहे। 

किन्तु बाद में अधिकतर कवियों की दिशा-दृष्टि बदल गई। कोई ‘बलि पंथी’ हो गया कोई ‘हालावादी’ कोई ‘प्रगतिवादी’। प्रत्येक युगधारा के वेग से प्रभावित होकर पहले बहुत सारी तरंगें कुछ देर और दूरी तक उसके साथ बहती हैं, फिर परिस्थितिवश दिशा बदल देती हैं। वस्तुस्थिति यह है कि छायावाद का शुद्ध रूप तो केवल इसी चतुष्टय में दिखाई देता है। वह भी उनके पूरे लेखन में नहीं। प्रसाद के पूर्ववर्ती और निराला, पंत के परवर्ती लेखन में छायावाद नहीं है। फिर भी उनका और अन्य गौड़ छायावादी कवियों का महत्त्व निर्विवाद है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

छायावादी साहित्य की मुख्य विशेषताओं के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

छायावाद की मुख्य विशेषताएँ हैं: स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति, अज्ञात सत्ता के प्रति रहस्य चेतना, प्रगाढ़ प्रकृति प्रेम, प्राणोन्मुखी रसिकता से युक्त प्रेम और सौंदर्य, राष्ट्रीय भावना, अतीत प्रेम, भावी की मंगलाशा, गहन वेदना अनुभूति, विराट विश्वबोध और जागृत युगबोध। इन कवियों ने जैविक अनुभूतियों का उदात्तीकरण किया है। जैसे प्रसाद जी ने अपने वैयक्तिक विरह मिलन को, “मानव जीवन वेदी पर विरह मिलन” का परिणय बना दिया है। प्रसाद जी स्पष्ट कहते हैं कि, “विष प्याली जो पी ली थी, वह मदिरा बनी नयन में। सौंदर्य पलक प्याले का, अब प्रेम बना जीवन में।”

पहले वासना का विष उमगता है, फिर वह मादक सौंदर्य में बदल जाता है और अंत में उसकी परिणति प्रेमामृत में हो जाती है। इन कवियों ने नवीनता का आह्वान किया है। पंत जी का आग्रह है, “द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र।” निराला का आग्रह है, “नव गति, नव लय ताल छन्द नव”। 

प्रसाद जी मानते रहे कि पुरातनता का निर्मोक एक क्षण के लिए भी प्रकृति को सह्य नहीं है। वह नित्य नूतनता के आनंद की सृष्टि करती रहती है। इस चतुष्टय में प्रसाद जी मुख्यतः प्रेम सौंदर्य आनंद के कवि हैं। 

पंत जी सुंदरम के और कोमलकांत कल्पनाओं के कवि हैं। महादेवी जी वेदना की रानी यानी दुख की बदरी हैं। चारों परस्पर पूरक हैं। ये तत्कालीन काव्य कानन की चार दिशाएँ हैं। 

हालाँकि ये युग प्रवृत्तियाँ न्यूनाधिक रूप में छायावाद के पहले भी थीं और कुछ बाद में भी दिखाई देती हैं, किन्तु छायावाद में इनका घनत्व ज़्यादा है। छायावाद की पहचान मुख्यतः उसकी अभिव्यंजना शैली से जुड़ी हुई है। यह कविता प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों तथा उपमानों के सहारे रची गई है। 

इसमें कल्पना की अनंत उड़ान दिखाई देती है। गूढ़ार्थ व्यंजना, वाग्वैदघ्य और रसात्मक उक्ति वैचित्र्य उसके विशिष्ट गुण हैं। इस कविता में अभिधा का प्रयोग कम दिखता है। 

इतिवृत्तामकता और वर्णनात्मकता भी कम है। इन कवियों ने मुहावरों, लोकोक्तियों, सहायक क्रियाओं और आंकड़ों से परहेज़ किया है। प्रतीकों का ज़्यादा सहारा लिया है। जैसे प्रसाद जी लिखते हैं—“पतझड़ था, झाड़ खड़े थे, सुखी सी फुलवारी में। किसलय दल कुसुम बिछा कर आए तुम इस क्यारी में।” यहाँ पतझड़, झाड़ प्रतीक हैं विपन्नता के। 

फुलवाड़ी और क्यारी हैं जीवन वाटिका। किसलय दल कुसुम हैं प्रेम सौंदर्य। इन कवियों ने बड़े-बड़े रूपक बनाए हैं उत्प्रेक्षय की झड़ी लगा दी है प्रायः विशेषण विपर्य का प्रयोग किया है जैसे, “थक जाती थी सुख रजनी”। यहाँ थकान आती है प्रेमी युग्म को न कि रात को। यह केवल एक विशिष्ट अभिव्यंजना पद्धति या अंदाज़े बयाँ है। बिंबों का प्रयोग इसमें बराबर होता रहा है। छायावादी बिंब प्रायः अमूर्त (एब्स्ट्रैक्ट) हैं। जैसे:

“अवनि अंबर की रुपहली सीप में
तरल मोती सा जलधि जब काँपता।”

यहाँ आकाश और पृथ्वी के संपुट को सीपी कहना, उसके बीच लहराते समुद्र को मोती कहना एक विराट-विदग्ध बिंब है पर वह चाक्षुष नहीं। इसी तरह रूप, रस, गंध, स्पर्श, ध्वनि, गति, वय, वर्ण एवं मनोभावों के अमूर्त बिंब इन कवियों ने बनाए हैं। इन सब के छायांकन के कारण ही इसे छायावाद कहा जाता है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

क्या आप ऐसा मानते हैं कि छायावादी साहित्य ने ब्रजभाषा साहित्य को मुख्य धारा से बाहर कर दिया? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

छायावाद ने ब्रजभाषा काव्य को उखाड़ने में सहायता अवश्य की है। उन दिनों ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली का आंदोलन चल रहा था। एक ओर थे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके मंडल के हरिऔध और मैथिलीशरण गुप्त आदि कवि। दूसरी ओर थे रत्नाकर स्नेही आदि कवि। हिंदी साहित्य सम्मेलन के एक अधिवेशन में रत्नाकर जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में छायावादी कविता का बड़ा माखौल उड़ाया था। उसका उत्तर कवि पंत ने ‘पल्लव’ नामक काव्य कृति की भूमिका में दिया। यह सही है कि छायावादी कविता ने खड़ी बोली को काव्योपम भाषा बनाया। उसकी भाषा में ब्रज का लालित्य भी है और खड़ी बोली का नया स्वर भी। 

खड़ी बोली कविता अपनी सपाट बयानी के कारण वाचिक परंपरा से जुड़ गई थी। ब्रजभाषा केवल मुक्तकों मुख्यतः कवित्त, सवैया, छंदों में सिमट गई थी। नखशिख वर्णन, षट् ऋतु वर्णन, समस्या पूर्ति और मुक्तक काव्य में केंद्रित हो जाने के कारण ब्रजभाषा काव्य और अप्रासंगिक हो चला था। 

खड़ी बोली कविता में गद्यात्मकता हावी थी। जो सनेही मंडल के कवियों में ज़्यादा दिखाई देती है। उनके साथ-साथ चल पड़ा था मधु काव्य जो विदेशी प्रतीकों में उलझा हुआ था। 

दूसरे राष्ट्रीय काव्य जिसमें उद्बोधन का स्वर ज़्यादा था। उसी बीच लोकप्रिय हुआ छायावादी काव्य जिसमें इन सभी भाषिक परंपराओं के गुणों का सन्निवेश दिखाई देता है। यही उस कविता के सम्मोहन का मुख्य कारण सिद्ध हुआ। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

छायावाद के अर्थ को लेकर बड़ा मतवैभिन्य है, महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘अन्योक्ति पद्धति’, डॉ. नगेंद्र ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’, राम चंद्र शुक्ल ‘शैली वैचित्र्य’, नन्द दुलारे वाजपेई ‘आध्यात्मिक छाया का भान’, मुकुटधर पांडेय ‘रहस्यवाद’, सुशील कुमार ने ‘अस्पष्टता’ आदि, आप के विचार से छायावाद का सटीक अर्थ क्या है, और क्यों? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

छायावाद के मूल अर्थ को लेकर आपने जो छह मत उद्धृत किए हैं वे सब अंशतः सही हैं। इनके अतिरिक्त एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व यदि और जोड़ दिया जाए तो वह तत्त्व है छायांकन अर्थात्‌ वस्तु की छाया भाव की छाया अर्थात्‌ रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द अर्थात्‌ पंच ऐंद्रिय संवेदनों से जुड़े हुए अरूप बिंबों प्रतीकों का छायांकन। छायानुभूति व्यक्त हुई है कभी सांगोपांग रूपकों द्वारा, कभी बिंबों प्रतीकों उपमानों और विशेषण विपर्यय द्वारा। 

विडंबना यह है कि समीक्षकों ने छायावाद के प्रवर्तक कवियों के कथनों पर ध्यान नहीं दिया। और उसे अंग्रेज़ी रोमैंटिसिज्म तथा बांग्ला कविता से जोड़ दिया। प्रसाद जी ने ‘छाया’ शब्द पर विचार करते हुए आचार्य आनंद वर्धन एवं कुंतक द्वारा व्याख्यायित ‘मोती की आब’ और ‘लावण्य की ज्योति’ (छाया) की कविता से जो तुलना की थी उसी को आगे बढ़ाते हुए इन कवियों ने इस वस्तु शिल्प को छायावादी कहा। पंत ने इसे ‘छाया दर्शन’ नाम दिया और महादेवी जी ने ‘छाया वृत्ति’। 

‘छायावाद की सही परख पहचान’ नामक अपनी पुस्तक में मैंने बहुत विस्तार से ‘छायावाद’ का स्वरूप स्पष्ट किया है, किन्तु उससे सहमत होते हुए भी हमारी पीढ़ी के विद्वान मुकुटधर पांडेय, रामचंद्र शुक्ल, नंद दुलारे बाजपेई, डॉ. नागेंद्र, डॉ. नामवर सिंह आदि द्वारा की गई स्थापनाओं से मुक्त नहीं हो पाए हैं। मेरे अभिमत पर तो नक्कर खाने में तूती की आवाज़ वाला मुहावरा घटित हो रहा है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

छायावाद के विषय में नामवर सिंह ने कहा था कि, “छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।” उनके इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

नामवर जी की छायावाद विषयक पुस्तक बहुत सुविचारित नहीं है, छात्रोपयोगी होने से प्रसिद्ध अवश्य रही है। चूँकि पूरे साहित्य को वे मार्क्सवादी चश्में से देखते रहे हैं इसलिए छायावाद को भी उन्होंने मार्क्स युग जागरण में केंद्रित कर दिया। ज्ञातव्य है कि उन्होंने छायावादी भावबोध को आधुनिकता बोध के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध घोषित किया है (कविता के नए प्रतिमान) वस्तुतः नवजागरण ही गदर के बाद भारतेंदु मंडल और द्विवेदी मंडल के रचनाकारों का भी मुख्य विषय था। उस दौर के कई कवि स्वतंत्रता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। 

छायावादी कवि भारत की गत महिमा से अभिभूत होकर स्वर्णिम अतीत का गौरव गान तो कर रहे थे, पर वे स्वाधीनता आंदोलन से सीधे नहीं जुड़े थे। उस बीच राष्ट्रीय जीवन में जितनी बड़ी-बड़ी घटनाएँ जैसे जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड, दांडी यात्रा, चौरी चौरा कांड, आज़ाद हिंद फ़ौज, सत्याग्रह, विश्व युद्ध आदि उन पर किसी छायावादी कवि ने कोई रचना नहीं प्रकाशित की। केवल पंत जी महात्मा गाँधी से प्रभावित रहे। मार्क्सवाद के विकल्प के रूप में छायावादी कवि राजनीतिक स्वतंत्रता से ज़्यादा मानव मुक्ति के आकांक्षी थे। उन्हें राष्ट्र भी प्रिय था और विश्व भी। मनुष्य भी प्रिय था और प्रकृति भी। युगीन यथार्थ का चित्रण भी अभीष्ट था और कल्पना लोक का निर्माण भी। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

उन्होंने छायावाद के अर्थ के बारे में लिखा कि, “छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो १९१८ से १९३६ ई. के बीच लिखी गईं।” उनके इस विचार पर आपकी टिप्पणी क्या है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

मैं यह नहीं मान सका हूँ कि प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी की समस्त कविताएँ (जो १९१८ से १९३६ के बीच लिखी गईं) छायावादी हैं। मेरा दृढ़ मत है कि छायावाद का रचनाकाल लगभग १९१६ से १९४० तक रहा है। चूँकि १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन हुआ था और चूँकि उसी तिथि से प्रगतिवाद का आविर्भाव दिखाना उनकी दृष्टि में ज़रूरी था, इसलिए उन्होंने छायावाद की अवधि घटा दी। मैं यह नहीं मानता कि इस अवधि १९१८-१९३६ का सारा काव्य छायावादी है। १९१८ में प्रकाशित प्रसाद जी के ‘चित्राधार’ में ब्रजभाषा के पुराख्यान हैं या खड़ी बोली की आरंभिक कविताएँ हैं। उनमें छायावाद तो कदापि नहीं है। इसी तरह पंत जी की ‘ग्राम्या’, ‘युग वाणी’ में और निराला की ‘अणिमा’, ‘कुकुरमुत्ता’ आदि कृतियों में छायावाद नहीं है। १९१६ से १९४० के बीच अन्य कई कवियों ने छायावादी वस्तु-शिल्प को अपना लिया था जैसे उदय शंकर भट्ट, भगवती चरण वर्मा। 

यहाँ तक की बच्चन की ‘सतरंगिणी’ और दिनकर की ‘रसवंती’ में कई छायावादी लक्षण दिखाई देते हैं। वस्तुतः यह छायांकन (शैडो आर्ट) की यह शैली एक सहज प्रवृत्ति है, केवल-युग प्रवृत्ति नहीं। ब्रिटिश शासन के दमन चक्र के बीच उसे अपनाना ज़रूरी था। दूसरे कविता में सपाट बयानी जब ज़्यादा भर जाती है तो उससे ऊब कर यह व्यंजना शैली अपनाई जाती है। दूसरी ओर जब व्यंजना लक्षणा अपनी अति पर पहुँच जाती हैं तब फिर सरलीकरण या साफ़गोई की माँग होती है। इतिहास दर्शन के इस अभिलक्षण को समझे बिना छायावाद का सही विवेचन नहीं हो सकता। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

छायावादी साहित्य और आज के साहित्य में मूलभूत अंतर क्या पाते हैं? साहित्य जगत में छायावादी युग जिस तेज़ी से उभरा उसी तेज़ी से उसका अवसान भी हो गया, इसके पीछे आप मुख्य कारण क्या मानते हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

आपने पूछा कि छायावादी साहित्य और आज के साहित्य में मूलभूत अंतर क्या है? आपने ठीक ही इसे (छायावाद को) संपूर्ण साहित्य में व्याप्त माना है। केवल काव्य में ही नहीं। वस्तुतः छायावादी प्रवृत्ति के साथ-साथ नाटक, कहानी आदि कई विधाओं में दिखाई देती है। प्रसाद जी के कई संवाद कविता जैसे ही हैं। उनकी कई कहानियों (जैसे ‘पुरस्कार’, ‘आकाशदीप’), उपन्यास (‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘इरावती’) पंत की नाट्य कृति ‘ज्योत्स्ना’, (पल्लव का प्रवेश) भूमिका, ‘परिमल’ (निराला) की भूमिका तथा महादेवी के संस्मरणों एवं रेखाचित्रों में यह छायावादी वस्तुशिल्प विद्यमान है। 

मैंने १९६३ में ‘छायावादी गद्य’ की खोज करते हुए यह स्थापना की थी। रहा आज के साहित्य और छायावाद के साम्य-वैषम्य का प्रश्न? मुझे लगता है छायावाद संवेदना प्रधान है और परवर्ती काव्य वैचारिकता प्रधान। छायावाद में प्रवृत्ति ज़्यादा है और परवर्ती काव्य में नवाचार। परवर्ती काव्य में अलगाव तत्त्व। छायावाद विश्व मानवता से जुड़ा है और वर्तमान काव्य निजी अंतर्द्वद्व से। छायावाद में सौष्ठव पर ज़्यादा ज़ोर है, परवर्ती काव्य में जुगुप्सा पर। छायावाद मंगलाशा का काव्य है, परवर्ती काव्य कुंठा का। छायावाद का रचना संसार काव्योपम है, परवर्ती काव्य काव्येतर विषयों से भी सम्बद्ध है। छायावाद बिम्ब प्रधान है, छायावादोत्तर काव्य में सपाट बयानी ज़्यादा है। 

आपका एक प्रश्न है कि छायावाद का अवसान तेज़ी से क्यों हुआ? देखा जाए तो आधुनिक युग के आरंभिक दोनों चरण (भारतेंदु, द्विवेदी मंडल) बीस-पचीस वर्षों के रहे हैं। प्रकृतिवाद, प्रयोगवाद की अवधि तो उनसे भी कम दिखाई देती है। इसका कारण है हमारी “फ़ास्ट लाइफ़” इस बीच विदेशी प्रभाव बहुत पड़ा, पूर्ण अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य मिला, इसलिए प्रगति, प्रयोग, समकालीन कविता, नई कविता तथा क़िस्म-क़िस्म की कविताओं के नाम जल्द-जल्द उछाले गए। छायावादी दौर में ‘कामायनी’ के बाद लिखी गई किसी कृति को कालजयी नहीं कहा जा सकता। प्रसाद जी ने सही कहा था—“है परंपरा चल रही है यहाँ, ठहरा जिसमें जितना बल है।” छायावादोत्तर काव्य शिल्प धारिता शक्ति के अभाव में चिरस्थायी नहीं हो पाए हैं। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आपकी (डी.लिट्.) व्यवहारिक सौंदर्य शास्त्र में है, सौंदर्य शास्त्र को कला दर्शन कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा या दोनों एक ही बात हैं, यदि दोनों ही भिन्न हैं तो मुख्य भिन्नता क्या है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

मेरे मतानुसार सौंदर्य शास्त्र केवल कला दर्शन ही नहीं है। ललित कलाओं के दर्शन को ‘लालित्य तत्त्व’ कहते हैं। षट् ललित कलाओं, स्थापत्य, नृत्य, संगीत, चित्र एवं मूर्ति कला को प्रायः मिथक एवं पुरातत्त्व से जोड़ते हैं। उसमें मानव शास्त्रीय दृष्टि से प्रागैतिहासिक तत्त्वों का संयोग खोजते हैं। कुछ लोग सौंदर्य-मंडन (प्रसाधन) को सौंदर्य शास्त्र मान लेते हैं और कुछ काव्य-शास्त्र को अर्थात्‌ रूपक, प्रतीक, बिम्ब, उपमान एवं कल्पना आदि तत्त्वों को सौंदर्य शास्त्र समझ लेते हैं। मेरा विनम्र मत है कि इन सभी छह तत्त्वों को मिलाकर सौंदर्य शास्त्र पूरा होता है। मैंने छायावाद के व्यावहारिक सौंदर्य शास्त्र नामक कृति में उसे एप्लाइड (अनुप्रयुक्त) पद्धति से समझने का प्रयास किया है। 

अर्थात्‌ बने बनाए सिद्धांतों के आधार पर संपुष्टिकारक उदाहरण नहीं छाँटे, बल्कि कविता की राह से गुज़रते हुए छायावादी तत्त्वों की खोज की है। इसके लिए मैंने सांख्यिकी शैली अर्थात्‌ रूढ़ शब्दों की आवृत्ति पर आधारित भाषिक मनोविज्ञान का भी सहारा लिया है। प्रसाद जी ने लिखा था, “बन जाता सिद्धांत और फिर पुष्टि हुआ करती है।” मैंने किसी बने बनाये सिद्धांत का अविकल सहारा न लेकर मूल पाठ के माध्यम से छायावादी अंतः तत्त्वों की खोज की है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

भारतीय सौंदर्य शास्त्र और पश्चिमी सौंदर्य शास्त्र दोनों ही में आप बुनियादी अंतर क्या देखते हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

भारतीय और पश्चिमी सौंदर्यशास्त्र में काफ़ी अंतर है। जैसे हम सुखांत हैं, वे प्रायः दुखांत। हम रस, भाव योग और साधारणीकरण पर आस्था रखते हैं, वे न रस सिद्धांत को मानते हैं, न साधारणीकरण को। उन्हें कला और आस्वादक के बीच ‘मानसिक अंतराल’ दिखता है और सर्वत्र व्यक्ति वैचित्र्य मिलता है। हम ज़्यादा समष्टिवादी हैं, वे ज़्यादा व्यक्तिवादी। हमें रुचिकर है आदर्श परक स्वप्न लोक, उन्हें पसंद है जुगुप्सा मूलक यथार्थ। 

हमें प्रिय है ‘पॉज़िटिव’ विधेयात्मक शक्ति, जिसे पश्चिम वाले ‘यूटोपिया’ यानी संभ्रम मानते हैं। हम समाधान चाहते हैं, वह सनसनी मूलक समस्याएँ। हम लोकोत्तर दिव्य भव्य मानव यहाँ तक कि अप्सरा बिम्ब या स्वप्न सुंदरी तक से जुड़े रहे हैं, वे लघु मानव, स्पाइडर-मैन और चुड़ैलों से ज़्यादा घिरे हुए हैं। भारतीय साहित्य भावनात्मक अधिक है जबकि पश्चिमी साहित्य प्रायः बौद्धिक है। 

भारतीय प्रतीक विद्या मुख्यतः रहस्य दर्शन का विषय है, पश्चिमी प्रतीक भाषिक प्रोक्ति तक सीमित है। हमारा साहित्य ग्रामोन्मुख है, उनका साहित्य उपनिवेशीय नगरों का है। दोनों में रूप रंग का रुचि भेद भी है। दोनों की सौंदर्य दृष्टि में काफ़ी अंतर है। हमें काले नेत्र और केश पसंद हैं, उन्हें भूरे। हमें अप्सरा सुंदरी प्रिय है, उन्हें स्मार्ट नायिका। तथ्य यह है कि पश्चिमी सौंदर्य शास्त्र में मार्क्स, फ़्रायड, सार्त्र आदि का आतंक छाया हुआ है। 

भारतीय सौंदर्यबोध मुख्यतः संवेदनशास्त्र अर्थात्‌ दर्शन से नियंत्रित है। इसके साथ-साथ कुछ सार्वभौम और सर्वकालिक प्रवृत्तियाँ दोनों में विद्यमान है, इसलिए कि मानवीय संवेदना में देशकाल की प्रायः एक जैसी ही प्रतिछवियाँ दिखती हैं। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आपने जिन गुरु जी के सान्निध्य, मार्ग दर्शन में अपनी पीएच.डी. पूरी की उनके साथ आपका रिश्ता कैसा रहा, आज भी आप उन्हें कैसे याद करते हैं, उनके व्यक्तित्व के बारे में क्या कहना चाहेंगे, उनकी ऐसी कौन सी बातें हैं जो आपको आज भी प्रभावित करती हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

मेरे शोध निर्देशक थे डॉक्टर ब्रज किशोर मिश्र। बड़े लोकप्रिय शिक्षक, बड़े सहृदय गुरु। उनकी शिक्षण शैली से अभिभूत होकर ही शिक्षक बनने की महत्वाकांक्षा मेरे मन में जागी थी। दुर्भाग्य से उनका असामयिक निधन हो गया। उनके बाद डॉ. देवकीनंदन श्रीवास्तव जी का निर्देशन मिला। वे साधुमना विद्वान थे, पर सत्ता विहीन थे। दुर्भाग्य से कोई भाग्य-विधाता गुरु मुझे नहीं मिला। बस, निर्बल के बल राम। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आपने जोधपुर में नामवर सिंह के साथ क़रीब पाँच वर्ष काम किया। अभी जल्दी ही आपने अपने एक संस्मरण में नामवर सिंह जी के व्यक्तित्व, कृतित्व पर कई ऐसी बातें भी याद कीं उन्हीं पाँच वर्षों के कालखंड की जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वह पहली बार सामने आईं विशेष रूप से ‘आधा गाँव’ उपन्यास को लेकर जो विवाद हुआ था। उन्हें पढ़ कर दो बातें मन में आती हैं, पहली यह कि क्या कारण रहे कि इतने लम्बे समय तक आपने उस बारे में कोई बात नहीं की। 

दूसरी यह कि पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि आपने बहुत ही संकोच के साथ वह कुछ बातें कहीं और इस संकोच के कारण बहुत सी बातें अब भी शेष हैं जो सामने नहीं आ पाईं, जबकि उन्हें आना ही चाहिए, और क्या यह कहना उचित होगा कि उनके व्यक्तित्व की ऐसी बरगदी छाया रही कि बहुत से पौधे पनप ही नहीं पाए। क्या वह बरगदी छाया आप पर भी पड़ती रही? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

डॉ. नामवर सिंह मेरे विभागाध्यक्ष थे, उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। किसी की आलोचना करना मेरी फ़ितरत नहीं है। आपने उनके बारे में कुछ रहस्यपूर्ण तथ्य जानने की जिज्ञासा की थी, इसलिए अब मैंने ऐसे कुछ तथ्य बताए जो अचर्चित हैं। मैं उनकी बरगदी छाया की नीचे गया ही नहीं। जोधपुर में एक ही चयन समिति से वे प्रोफ़ेसर और मैं रीडर चुना गया था। नामवर जी कार्यभार नहीं सिद्ध कर पाए फलतः पद निरस्त हो गया। 

हाँ, अपने एक चहेते को पाठ्य पुस्तक संपादक बनाकर रीडर नियुक्त करा दिया था। मैंने उनसे दीक्षा नहीं ली थी इसलिए न कोई अपेक्षा रही न कोई शिकायत। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

बीते डेढ़-दो दशक में विज्ञान ने बहुत तेज़ी से विकास किया है, विशेष रूप से दूरसंचार के क्षेत्र में। मोबाइल क्रांति ने तो दुनियाभर का ज्ञान लोगों की मुट्ठी में कर दिया है, अपने हर प्रश्न का उत्तर वो गूगल में ढूँढ़ते हैं, इस स्थिति ने क्या लोगों की विचार-धारा, उनके अध्ययन आदि की आदत को भी प्रभावित किया है, यदि हाँ, तो इस प्रभाव को आप सकारात्मक पाते हैं या नकारात्मक? विशेष रूप से साहित्य के प्रति लोगों की अभिरुचि पर इसका कैसा प्रभाव देखते हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

समकालीन विचारधाराओं और तकनीकों से अवगत होना, सूचना क्रांति को अक्षर जगत से जोड़ना और जनसंचार के सहारे साहित्य का परिविस्तार करना बहुत लाभप्रद होगा। मैंने पहली बार १९७७ में प्रयोजनमूलक हिंदी की परिकल्पना करते हुए आठवें दशक में संचार भाषा हिंदी, भाषा प्रौद्योगिकी इक्कीसवीं सदी की हिंदी, प्रयोजनी हिंदी जैसी एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित कर यह माँग उठाई थी। आज इंटरनेट, विकिपीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, ब्लॉग, ट्वीटर, फ़ेसबुक आदि से जुड़ना उपयोगी, बल्कि अपरिहार्य हो गया है। बस उसकी अति न होने पाए, ताकि पठनीयता, दर्शनीयता, श्रवणीयता और सही साहित्यास्वाद बना रहे। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

इसी क्रम में बाज़ारवाद के विषय में क्या कहना चाहेंगे, इसने सोच-विचार के स्तर पर लोगों को किस तरह प्रभावित किया है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

बाज़ारवाद अवश्य चिंतनीय है, पर इस भौतिक युग में उसके बिना पूर्ण निर्वाह भी सम्भव नहीं है। हम कलमजीवी बनकर सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर सकें, यह आवश्यक तो है किन्तु उसके लिए भूत लेखन, पोर्न या ब्लू लेखन, दलीय दलबंदी, हल्का प्रोपगेंडा लेखन, और मंचीय मसखरेबाज़ी, कुंजी लेखन, और प्रकाशकीय शोषण से हमें बचना होगा। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

 . . . और साहित्य, आपकी दृष्टि में साहित्य पर बाज़ारवाद का कैसा प्रभाव पड़ा? \

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

बाज़ारवाद के कारण इस बीच ‘बेस्ट सेलर’ बुके एवार्ड, लिटरेरी कन्वेंशन तथा पुरस्कार वितरण की जो कपट लीला चल रही है उससे साहित्य की स्वायत्तता और शुचिता का ‘ग्राफ’ बहुत नीचे चला गया है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

क्या आप इस बात से सहमत हैं कि इसने साहित्य को भी एक उत्पाद में परिवर्तित कर दिया है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

सचमुच इधर साहित्य सृजन के बजाय ‘उत्पादन’ हो गया है। वह बैठे-ठाले का बेवक़्त का प्रसव बल्कि मिसकैरेज जैसा है। सद्यः कविः यशः प्रार्थी जनों में अपने भावों को शब्द-बद्ध कर लेने का कौतुक कुछ ज़्यादा ही उमग रहा है। 

अधिकतर लेखन मौलिकता, उपयोगिता, स्तरीयता तथा स्वाध्याय से नियंत्रित न होकर औपचारिक प्रगल्भता में परिणत हो गया है। इस झाड़-झंखाड़ में श्रेष्ठ साहित्य दबता जा रहा है। फलतः साहित्य जीवन से दूर होता जा रहा है। साहित्य से प्राप्त मनोरंजन और ज्ञानार्जन के दूसरे बेहतर विकल्प तकनीक द्वारा सुलभ हो गए हैं। उनका मुक़ाबला यदि साहित्य नहीं कर पा रहा है इसके लिए मात्र पाठक ही ज़िम्मेदार नहीं हैं। हमें उपभोक्ता की माँग का शोध सर्वेक्षण करके साहित्य में पहले युगानुकूल परिवर्तन करना होगा। साहित्यास्वाद जब लौट आए तब प्रयोग कौतुक दिखाया जा सकता है। ज़रूरत है साहित्य को परिस्पर्धी बनाया जाए। केवल आत्मपरक कुंठा दोहन से देर तक सहृदय जुड़ा नहीं रह सकता। उसे बेहतर बनाने से ही साहित्य की उपयोगिता प्रकट होगी। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

क्या कारण कि अंग्रेज़ी में साहित्य सृजन करने वाला लेखक अल्प समय, अल्प लेखन से जितनी प्रसिद्धि पा जाता है, यह भी कि अपने लेखन से वह धनार्जन भी करता है, वहीं दूसरी ओर हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक बहुत ज़्यादा लिखने, ज़्यादा समय के बाद भी यह सब नहीं पा पाते, जहाँ तक बात धनार्जन की है तो हिंदी में तो लेखक पुस्तकों को प्रकाशित करवाने के लिए प्रकाशकों को पैसे भी देते हैं। 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

पश्चिम के लोग मार्केटिंग अच्छी करते हैं। अंग्रेज़ी का पाठक वर्ग बहुत विस्तृत है। उसमें नयापन ज़्यादा है, और अति साहसिकता भी ज़्यादा है। मर्यादाबद्ध भारतीय लेखक उतना जोखिम नहीं झेल पाते, इसलिए नाम और नामा दोनों में पिछड़ जाते हैं। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

समग्र भारतीय साहित्य को आप किस दृष्टि से देखते हैं, वैश्विक स्तर पर आप भारतीय साहित्य को कहाँ पाते हैं? क्या आप यह मानते हैं कि भारत एक बहुभाषी देश है, हर भाषा का अपना साहित्य है इसी के चलते वैश्विक स्तर पर भारतीय साहित्य जैसी कोई बहुत चमकदार छवि नहीं बन पा रही है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

हमारे यहाँ भारतीय भाषाओं का साहित्य तो है, पर कोई समेकित भारतीय साहित्य अभी तक नहीं स्थिर हो पाया। इसीलिए वैश्विक स्तर पर उसकी स्थायी छवि नहीं बन पा रही है। 

‘गीतांजलि’ के बाद एक भी कृति पर नोबेल एवॉर्ड नहीं मिला। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रबंधनशास्त्र की आवश्यकता है। खेलों के विकास की तरह इसका विकास भी यदि राष्ट्रीय एजेंडा का विषय बन जाता है तो बेहतर परिणाम दिखते। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आपको पीएच.डी. किये हुए देखा जाए तो एक युग बीत गया है। वह युग जिसमें गुरु शिष्य के बीच एक भावनात्मक लगाव भी होता था, गुरु पूरे मनोयोग से शिष्य को उस विषय के बारे में बताता था, मार्ग-दर्शन देता था जिस विषय पर वह शोध कर रहा होता था। शिष्य भी उसी मनोयोग से सब-कुछ करता था, परिणामस्वरूप उस विषय पर कुछ गंभीर, महत्त्वपूर्ण बात निकल कर सामने आती थी। और आज स्थिति बिलकुल उलट है, भिन्न है। समान्यतः पीएच.डी. करना एक हँसी-खेल बन कर रह गया है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कई बरस पहले दिल्ली में मैं कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आया जिनमें, प्रोफेसर्स, शोधार्थी और एक ऐसी महिला थी जिससे शोधार्थी एक मोटी धनराशि देकर थीसिस लिखवा लेते थे। 

वह महिला चार थीसिस से एक नई पाँचवीं थीसिस अल्प समय में तैयार कर देती थी। मैंने उस सारे सिस्टम को लम्बे समय तक जानने-समझने के बाद एक लम्बी कहानी लिखी ‘मेरी जनहित याचिका’ जो इस पूरे सिस्टम का सच बयाँ करती है। 

इसी शीर्षक से दस कहानियों का मेरा कहानी संग्रह भी है, साथ ही यह कहानी कैनेडा की एक वेब पत्रिका साहित्यकुंज, भारत में मातृभारती डॉट कॉम में भी प्रकाशित हुई। आप ऐसी किन स्थितियों, कारणों को इसके लिए ज़िम्मेदार मानते हैं जिनके चलते पीएच.डी. करना आज एक हँसी-खेल बन गया? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

शोध कार्य सचमुच उपहास्यास्पद स्थिति में है। साहित्यिक शोध ऐतिहासिक अनुसंधान की जगह पुस्तक समीक्षा और प्रकाशकीय विज्ञापन बनकर रह गया है। न सही विषय, न उपयुक्त निर्देशन, न विशेषज्ञ, न निष्ठावान परीक्षक और न ही सही शोध प्रक्रिया

चौर कर्म को रोकने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इधर कुछ क़दम उठाए हैं। कभी-कभी कुछ अच्छी थीसिसें भी दिख जाती हैं, किन्तु इनकी ग्रेडिंग (रैंकिंग) नहीं हो पाती। ‘सब धान बाइस पसेरी।’ अच्छी थीसिसें अप्रकाशित ही रह जाती हैं। 

शोध प्रबंधों के लिए प्रकाशन अनुदान, सरकारी ख़रीद और पुरस्कारों पर रोग लगा हुआ है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अब कुछ चिंता प्रकट की गई है। शायद बुक ट्रस्ट द्वारा कभी इसका निराकरण किया जाए। कंप्यूटर बुक्स के साथ स्याही प्रकाशन को प्रश्रय देना अत्यावश्यक है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

स्वाधीनता के बाद से ही जो शिक्षा-नीति चली आ रही थी क्या वह भी इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार थी? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

पुरानी शिक्षा नीति निश्चय ही सत्साहित्य की इस दुर्दशा की ज़िम्मेदार है। यदि प्राचीन लुप्तप्राय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, सर्वेक्षण परक शोध, अनुवाद, कोश निर्माण आदि को शोध से जोड़ दिया जाए तो उसका स्तर कुछ अवश्य उठ जाएगा। 

इसके लिए बेहतर होगा कि किसी एक जे.आर.एफ़. को पचास हज़ार मासिक आवृत्ति देने के बजाय सबको पाँच-पाँच हज़ार दे दिए जाएँ तो शोध का बेहतर रूप दिखाई देगा। 

संप्रति शोध कार्य बेरोज़गारों का अड्डा बना हुआ है। दुश्चिंता ग्रस्त शोधार्थियों में यथेष्ट हौसला नहीं है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

नई शिक्षा-नीति के बारे में आपके क्या विचार हैं? क्या यह शिक्षा क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन करने में सक्षम है? इसके चलते पीएच.डी. करना हँसी-खेल नहीं रह जाएगा? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषाओं, बोलियों, प्राचीन संपदा, राष्ट्रीय संस्कृत और भारतीय ज्ञान परंपरा को महत्त्व दिया गया है। 

शोध की शुरूआत अब एम.ए. से हो गई है। इससे कुछ स्थिति बदलेगी। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

क्या कारण है कि १९१३ में टैगोर की ‘गीतांजलि’ को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद आज १०० वर्ष से भी अधिक समय बीत गया है लेकिन भारत के किसी भी साहित्यकार को यह पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, इसके पीछे मुख्य कारण आप क्या मानते हैं, क्या हमारे यहाँ ऐसा कोई साहित्य लिखा नहीं जा रहा है या जो लिखा जा रहा है वह पश्चिमी जगत तक पहुँच नहीं पा रहा है, एक तरह से वह अँधेरे में पड़ा रहता है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

नोबेल पुरस्कार न मिलने का एक मुख्य कारण है प्रचार-प्रसार की कमी। अंतरराष्ट्रीय राजनीति से निपटने के लिए हमें राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करना होगा। श्रेष्ठ कृतियों का अंग्रेज़ी में उत्तम अनुवाद कराना होगा। अंग्रेज़ी माध्यम से आवश्यक प्रचार-प्रसार यदि किया गया होता तो ‘कामायनी’, ‘उर्वशी’ जैसी कृतियाँ नोबेल पुरस्कार से अवश्य अभिमण्डित हो जातीं। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

देश में हिंदी साहित्य की दशा-दिशा के विषय में आपके क्या विचार हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

हिंदी साहित्य की वर्तमान दशा-दिशा में बिखराव ज़्यादा है, संख्यात्मक विस्तार तो ज़्यादा है पर घनत्व नहीं है। आवश्यक है कि सर्जनात्मक लेखन का प्रशिक्षण दिया जाए। प्रकाशन, पुरस्कार, पाठ्यक्रम-निर्धारण और बिक्री की सुव्यवस्था सुनिश्चित की जाए। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

बतौर साहित्यकार देश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य के विषय में आप क्या कहना चाहेंगे? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए मैं काफ़ी कुछ आश्वस्त भी हूँ और कुछ खिन्न भी। आश्वस्ति का कारण है, देश का आर्थिक विकास, आत्मनिर्भरता, भारतीय संस्कृति का नवोत्थान, राष्ट्रीय सुरक्षा, वैश्विक प्रतिष्ठा, आतंक-भ्रष्टाचार आदि से मुक्ति और ग़रीबों से सम्बन्धित विभिन्न योजनाएँ। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मद्देनज़र मैं बहुत आशान्वित हूँ। चिंता का विषय है विभिन्न दलों की यह कौरवी सेना, जो भरसक एकजुट होकर प्रधानमंत्री जी के विकास यज्ञ में बाधाएँ डालती रहती हैं। जनता को भड़काती रहती है। 

मेरे विचार से साहित्यकारों को भी सकारात्मक दृष्टि अपनाकर राष्ट्रीय विकास में सहभागिता निभानी चाहिए। स्वायत्तशासी साहित्यिक संस्थाएँ, प्रायः रुग्ण दिखाई देती हैं। उन पर पार्टी तंत्र हावी है। नियुक्तियों में यदि पारदर्शिता आ जाए, वे मनोनयन के बजाय सुगठित चयन समितियों द्वारा की जाएँ, नौकरशाही ख़त्म हो जाए तो सोद्देश्य भाषा साहित्य का बेहतर विकास किया जा सकता है। संप्रति आर्थिक विकास के सापेक्ष भाषा साहित्य की विकास प्रक्रिया उपेक्षित है। इसे ग्रह, शिक्षा एवं संस्कृति मंत्रालयों से मुक्त कर जब स्वतंत्र भाषा मंत्रालय द्वारा परिचालित किया जाएगा तो अच्छे परिणाम परिलक्षित होंगे। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

क्या एक कारण यह भी नहीं है कि भारतीय साहित्य का अनुवाद विशेष रूप से अंग्रेज़ी, फ़्रैंच, स्पेनिश आदि भाषाओं में न के बराबर है जिससे उसकी पहुँच भारत से बाहर नहीं होती, और अभी हिंदी भाषा वैश्विक स्तर पर वह स्थान नहीं बना सकी है कि हिंदी साहित्य अंग्रेज़ी साहित्य की तरह दुनिया में कोई भी पढ़ सके? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

भारतीय साहित्य को वैश्विक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए हमें एक “भारतीय अनुवाद प्राधिकरण” की स्थापना करनी चाहिए, जो प्राचीन और वर्तमान युग की श्रेष्ठ कृतियों के प्रमाणिक अनुवाद तीव्र गति से प्रकाशित-प्रसारित करता रहे। हिंदी माध्यम से यदि भारतीय भाषाओं की ‘क्लासिक’ तथा ‘आउटस्टैंडिंग’ कृतियों के अच्छे अनुवाद एक राष्ट्रीय अभियान के रूप में कर डाले जाएँ तो एक समेकित भारतीय साहित्य बन जाएगा। 
उन चुनी हुई सर्वश्रेष्ठ कृतियों के उत्तम अनुवाद जब विश्व की प्रमुख भाषाओं में करा दिए जाएँगे तो विश्व स्तर पर भारतीय साहित्य की पहचान बन जाएगी। यह भी ज़रूरी है कि इस प्राधिकरण की सहमति के बिना किसी की कोई कृति विश्व भाषाओं में अनूदित न हो, ताकि भारतीय साहित्य की छवि कुप्रभावित न हो। इसके लिए अनुवाद कला को सर्वाधिक प्रश्रय देना हितकारी होगा। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

बात तो यह भी है कि हिंदी अभी देश में ही राष्ट्रभाषा का भी स्थान नहीं पा सकी है, वह राजभाषा और यह भी कि संपर्क भाषा बन कर रह गई है, ऐसी स्थिति के लिए आप मुख्य कारण क्या मानते हैं, आपकी दृष्टि में वैश्विक स्तर पर हिंदी का प्रचार-प्रसार कैसे किया जा सकता है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

राजभाषा के रूप में हिंदी को पूरी मान्यता दिलाने के लिए अब यह ज़रूरी है कि देश के सभी राज्यों से मत संग्रह करके जिस भाषा के सम्बन्ध में सर्वाधिक मत प्राप्त हो जाएँ तो उसे तत्काल संघ की राजभाषा के रूप में लागू कर दिया जाए और यह प्रावधान हटा दिया जाए कि जब-तक सर्वसम्मति से सारे राज्य सहमत न होंगे तब-तक ‘धारा ३४३’ को लागू नहीं किया जाएगा। 

सभी राज्य अपना राज्य कार्य अपनी क्षेत्रीय भाषा में करने के लिए अधिकृत हैं। केंद्रीय प्रशासन में हिंदी एवं द्वितीय (सहायक) राजभाषा के रूप में अंग्रेज़ी संपर्क भाषा का काम करेगी। इस नियम के लागू हो जाने से हिंदी स्वमेव राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा मान ली जाएगी। वैश्विक स्तर पर हिंदी का प्रचार-प्रसार करने के लिए हमें अपने पड़ोसी देशों, भारत वंशी बहुल देशों, अप्रवासी भारतीय बहुल देशों और अन्य विदेशों में दूतावासों के माध्यम से व्यापक प्रचार अभियान चलाना होगा। 

हमें संयुक्त राष्ट्र की मान्यता प्राप्त करनी होगी। प्रवासी हिंदी लेखन को बढ़ावा देना होगा और इसके लिए सभी माध्यमों विशेषतः सूचना प्रौद्योगिकी का भरसक उपयोग करना होगा। इसीलिए अत्यावशयक है कि केंद्र में भाषा का स्वतंत्र मंत्रालय स्थापित किया जाए। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

नोबेल पुरस्कारों को प्रदान किए जाने में कई बार पूर्ण निष्पक्षता का अभाव भी दिखता है। कहा यह भी जाता है कि पुरस्कारों को प्रदान करने से पहले कई तरह के छिपे हुए उद्देश्यों को भी प्राप्त किए जाने का प्रयास किया जाता है। और यह भी कि बहुत से लेखकों को वह समय से प्रदान नहीं किया गया। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है कि २०१० में मारियो वार्गास ल्योसा ने पुरस्कार प्राप्त करते समय विलम्ब से पुरस्कार मिलने की मन की पीड़ा व्यक्त की थी। इन बिंदुओं पर आपके क्या विचार हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

नोबेल पुरस्कार भी अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक पूर्वाग्रह और वैयक्तिक रागद्वेष से प्रेरित हैं। सही निर्णय के लिए बेहतर होगा कि पहले उत्कृष्ट साहित्य के वैश्विक मानक स्थिर कर लिए जाएँ और कंप्यूटर द्वारा रैंकिंग, ग्रेडिंग यानी रेटिंग का सहारा लेकर पुरस्कार योग्य सर्वश्रेष्ठ रचना का चयन किया जाए। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

बीते कई वर्षों में हिंदी साहित्य जगत में पुरस्कारों को प्राप्त करने और प्रदान करने की एक होड़-सी मची हुई, ऐसी बातें भी सामने आ रही हैं कि लेखक पुरस्कारों के लिए मोटी धनराशि भी ख़र्च करते हैं, आयोजकों को देते हैं कि फ़लाँ पुरस्कार उनको प्रदान करें, ऐसी स्थिति को आप किस दृष्टि से देखते हैं, यह साहित्य को विशेष रूप से हिंदी साहित्य जगत को किस तरह से नुक़्सान पहुँचा रहा है? पुरस्कार प्रदान करने और प्राप्त करने वालों को क्या कहेंगे? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

हिंदी जगत के अधिकतर पुरस्कार विवादास्पद हैं, मैंने भी सुना है कि कई सम्मान-पुरस्कार ख़रीद-फ़रोख़्त और कमीशन ख़ोरी के शिकार हो गए हैं। इसलिए भी कि अब कवि लेखक बहुत हो गए हैं। काव्य सृजन और कथा लेखन का धंधा कुटीर उद्योग की तरह फैल रहा है क्योंकि पठनीयता और पाठकीयता बहुत कम हो गई है, और लिखास, छपास, भड़ास बहुत बढ़ गई है चूँकि पुरस्कारों की संख्या भी शताधिक है, इसलिए चयन में अराजकता भी भर गई है। जब जनाधार कम हो जाता है तो यश प्रार्थी रचनाकार राज्याश्रयी, मठाश्रयी एवं सेठाश्रयी मान्यता के लिए व्याकुल हो उठता है। ये छद्म पुरस्कार/सम्मान जीवन मरण के प्रश्न बन गए हैं। अधिकतर लोग कंप्यूटर से दस-पाँच प्रतियाँ छपवा कर पुरस्कारार्थ जमा कर देते हैं। वर्ष पर्यंत इसी पुरस्कार स्वयंवर की व्यूह रचना में लगे रहते हैं। शासन भी यदाकदा तुष्टिकरण की नीति अपनाता है। ज़्यादातर क्षेत्रीयता जातीयता तथा दलीय विचारधारा हावी रहती है। 

इसलिए वस्तुनिष्ठ निर्णय प्रायः नहीं हो पाता है। इसकी विश्वसनीयता की रक्षा का यही एक उपाय है कि निश्चित मानक बनाकर निर्णय में पारदर्शिता लायी जाए। मैंने लगभग पचास वर्ष पूर्व “राज्याश्रय और साहित्य” नामक पुस्तक के माध्यम से यह आग्रह किया था कि प्रत्येक संस्था पुरस्कृत और तिरस्कृत समस्त पुस्तकों की विस्तृत मूल्यांकन रिपोर्ट अवश्य जारी करे, ताकि जनमत के आधार पर निर्णय हो व्यक्ति मत द्वारा नहीं। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आप लखनऊ विश्वविद्यालय में पत्रकारिता और जनसंपर्क विभाग के संस्थापक अध्यक्ष भी रहे हैं, उस दौर के पत्रकारिता जगत और आज के पत्रकारिता जगत को आप किस रूप में देखते हैं, जबकि आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हर तरफ़ छाया हुआ है। 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंपर्क विभाग की स्थापना करके लगभग दस वर्षों तक अध्यक्ष का दायित्व निभाया। मोकामा (मॉरिशस) के महात्मा गाँधी संस्थान (विश्वविद्यालय) में एक माह तक शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया। अतिथि शिक्षक के रूप में कई विश्वविद्यालय में साठ वर्ष की अवस्था तक यह विषय पढ़ाता रहा। आज यह प्रशिक्षण काफ़ी कुछ बदल गया है। यह सैद्धांतिक के बजाय ‘प्रैक्टिकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया’ में ही खो गया है। पत्रकारिता कला की पुरानी प्रविधि अब कालातीत हो गई है। टेक्नीशियन और प्रबंध तंत्र प्रत्येक पत्र-पत्रिका पर हावी हैं। 

संपादक निष्प्रभाव हो गए हैं। जनसंपर्क (बीट एरिया सर्वेक्षण) की बजाय अधिकतर समाचार संकलन अब प्रायोजित होता है या मोबाइल से होता है। संवाददाता केवल ‘क्राइम रिपोर्टर’ हो गए हैं। सोशल मीडिया ने इधर उनकी तानाशाही को काफ़ी प्रभावित किया है। पत्रकार अब दलीय एजेंट का काम कर रहे हैं। पहले वे ज्ञान के विश्वकोश और भाषा के विशेषज्ञ माने जाते थे। अब वे हॉकर जैसे लगते हैं। टीवी की चर्चाओं में वे हाहाकार करते दिखते हैं। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

बड़ी तेज़ी से एक के बाद एक वेब हिंदी साहित्यिक पत्रिकाएँ सामने आ रही हैंl डिजिटल पुस्तकों का दौर बढ़ता जा रहा है, क्या इसे प्रिंट पत्रिकाओं, पुस्तकों की समाप्ति की घोषणा माना जाए? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

इधर वेब पत्रिकाएँ तेज़ी से बढ़ी हैं या बढ़ती जा रही हैं। यह डिजिटल साहित्य रोचक और तात्कालिक तो है, पर इत्मीनान से पढ़े जाने वाले गंभीर साहित्य को पढ़ने के लिए मुद्रित पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं की भी बड़ी ज़रूरत है। 

रेडियो, टीवी पत्रकारिता तथा वेब जर्नलिज़्म की बढ़ोतरी के बावजूद मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं की पाठक संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इसलिए कम से कम इस दशक में तो उनके ख़त्म हो जाने का कोई ख़तरा मुझे दिखाई नहीं देता है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आप लखनऊ विश्वविद्यालय के अलावा इलाहाबाद, सागर, बड़ौदा, उज्जैन, गोवा, कोचीन, वर्धा, दिल्ली विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रोफ़ेसर भी रहे। कहाँ काम करते हुए आपको सबसे ज़्यादा संतुष्टि महसूस हुई, और क्यों? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

मैंने देश-विदेश के लगभग डेढ़ दर्जन विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रोफ़ेसर के रूप में अध्यापन किया, सैकड़ों पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों में भाग लिया, विभिन्न अंचलों को निकट से देखा, काफ़ी तुलनात्मक विवेचन भी किया। आज मैं ख़ुदा को हाज़िर नाजिर करके कहता हूँ कि मुझे सबसे ज़्यादा संतुष्टि मिली लखनऊ विश्वविद्यालय में। इतना सौहार्द और किसी में कहीं नहीं दिखा। 

मैंने जोधपुर और लखनऊ को मिलाकर सैंतालीस साल वैक्तिक शिक्षक के रूप में काम किया और आगे दस वर्षों तक अवैतनिक शिक्षण कार्य किया। मुझे कभी अप्रिय दुर्वाद सुनने को नहीं मिला। 

लखनऊ में दो विभागों का अध्यक्ष रहा, लगभग बारह वर्षों तक। कई तरह के जोखिम भरे प्रयोग किये, किन्तु कहीं से कोई शिकायत नहीं मिली। शिक्षक साथियों और शिक्षार्थियों का बड़ा स्नेह सान्निध्य एवं सहयोग मिला। यहाँ के छात्रों की प्रबुद्धता, अभिरुचि और सुचिता से मैं बहुत प्रभावित रहा हूँ। हिंदी विषय में और किसी को लखनऊ से बेहतर मानने को मैं तैयार नहीं हूँ। 

१९९२ की बात है। लंदन विश्वविद्यालय के हिंदी प्रोफ़ेसर रुपर्ट स्नेल यहाँ एक योजना लेकर आए कि उनके विद्यार्थी प्रतिवर्ष छह माह के लिए हिंदी पढ़ने के लिए लंदन विश्वविद्यालय की ओर से यहाँ भेजे जाएँगे। मैंने सहजतः प्रश्न किया कि आपने दिल्ली, काशी, प्रयाग की जगह लखनऊ का चयन कैसे किया? उन्होंने कहा—दिल्ली की हिंदी में पंजाबीपन और काशी, प्रयाग की हिंदी में देशीपन ज़्यादा है। मानक हिंदी के लेखन, संभाषण में उनसे बेहतर है लखनऊ। दूसरे यहाँ का शिक्षण प्रयोगधर्मा है। यहाँ सक्रिय भाषा प्रयोगशाला है। पाठ्यक्रम बहुआयामी है और वातावरण हमारी ‘ब्रिटिश कल्चर के अनुरूप (संभ्रांत) है।’ उनका यह आकलन काफ़ी तथ्याश्रित लगा। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

अपनी पुस्तकों के विषय में कुछ चर्चा कीजिये विशेष रूप से ‘हिंदी साहित्येतिहास की भूमिका’, ‘सूक्ति सुधा’, ‘विश्व पटल पर हिंदी’, ‘संचार भाषा हिंदी’, ‘निराला समग्र’, ‘प्रसाद समग्र’, ‘सेनापति’, ‘मिश्रबन्धु’, ‘ब्रज संस्कृति विश्वकोश’, ‘छायावाद: सौ साल’ इनमें कौन-सी ऐसी पुस्तक है जिसे पूर्ण कर आपने संतुष्टि महसूस की। 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

मैंने अपनी लगभग सवा सौ शोध समीक्षात्मक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। अधिकतर मौलिक हैं, प्रासंगिक हैं और उपयोगी हैं। साहित्येतिहास से जुड़ी मेरी चारों पुस्तकें नए इतिहास दर्शन के अनुसार पुनर्लेखन की माँग कर रही हैं। वर्तमान में प्रचलित अधिकांश इतिहास ग्रंथों से मैं शतप्रतिशत सहमत नहीं हूँ और प्रमाण पूर्वक अपने संशोधनों की अपील करता रहा हूँ। इनके अतिरिक्त मेरी कुछ पुस्तकें ऐसे महत्त्वपूर्ण हिंदी सेवियों से जुड़ी हुई हैं, जिनकी बहुत बड़ी देन रही है, किन्तु जिन पर एक भी पुस्तक नहीं लिखी गई है|जैसे कवि सेनापति, मिश्र बंधु, लाला भगवान दीन। इसी ध्येय से मैंने “अल्पख्यात रचनाकार कोष” बनाया है। मिश्र बंधुओं ने एक सौ दस वर्ष पूर्व ‘हिंदी नवरत्न’ नामक पुस्तक द्वारा दस सर्वश्रेष्ठ कवियों का स्थान निर्धारण किया था। उसका परिविस्तार करते हुए मैंने ‘हिंदी सौ रत्नों’ की खोज की और एक निश्चित मानदंड के सहारे उनकी पोज़ीशन तय करने की कोशिश की मेरे विचार से रचनाकारों की सही रैंकिंग, रेटिंग करना अब ज़रूरी है और उसके लिए एक बहुमान्य निकष भी। मैंने कोशिकारिता के क्षेत्र में बहुत श्रम किया है। पचास वर्ष पूर्व मैंने ’वृहद् हिंदी पत्र-पत्रिका कोश’ बनाया। लगभग आठ वर्षों तक इस काम में लगा रहा। १८२६ (उदन्त मार्तंड) से लेकर २००० तक की लगभग पंद्रह हज़ार पत्र-पत्रिकाओं का इसमें एनसाइक्लोपीडियन वर्णन है। ‘ब्रज संस्कृति विश्व कोश’ पाँच विशाल खण्डों में प्रकाशित हुआ है। ‘अवध संस्कृति विश्वकोश’ मात्र संपादन न होकर मेरा एकल लेखन है। इसमें भी लगभग पाँच वर्षों तक मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ी है। इसी बीच मैंने ‘अवधी शब्द कोश’, ‘अवधी साहित्य कोश’, ‘हिंदी राम काव्य कोश’ और ‘अनूदित हिंदी ग्रंथ कोश’ का निर्माण किया है। 

अनूदित ग्रंथ कोश में ३५०० प्रविष्टियाँ हो चुकी हैं, पर अभी ओर-छोर नहीं मिल रहा है। इसी क्रम में एक विराट हिंदी काव्य संकलन (ग्लोसरी) बनाने की इच्छा मन में जागी। मुझे 17वीं शती के अंतिम चरण में हफीजुल्ला खां के द्वारा संचित ‘सूक्ति-संग्रह’ के दो पाठ मिले। दोनों को मिलाकर रीतिकाव्य से जुड़े ढाई सौ कवियों के दो हज़ार दस छंद स्थिर करके मैंने ‘हफीजुल्ला खां हजारा’ के नाम से प्रकाशित किया जो सबसे बड़ी ग्लोसरी कही जा सकती है। काव्य प्रेमियों के लिए ‘गोल्डन ट्रेजरी’ की तरह या सचमुच संग्रहणीय है। छायावाद और आधुनिक साहित्यकार मुख्यतः भारतेन्दु, मैथिली शरण गुप्त, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल, दिनकर, अज्ञेय आदि मुझे अति प्रिय हैं। पुराने कवियों में कबीर, तुलसी, सुर, जायसी और कई रीति कवि भी प्रियतर हैं। मैंने इन पर समीक्षा कृतियाँ लिखीं हैं। जिन रचनाओं की टीकाएँ मुझे स्तरीय प्रतीत नहीं हुईं, उन पर मैंने स्वतंत्र भाष्य लिखे हैं। 

मैं जायस का निकटवर्ती हूँ। पद्मावत की अवधी भाषा के देशज शब्द अरबी में लिपियांत्रित होने के कारण लोगों को जहाँ ठीक-ठाक समझ में नहीं आए उन्हें शुद्ध करते हुए मैंने पद्मावत प्रभा (टीका-भाष्य) प्रकाशित किया निराला कृत ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘कामायनी’ का अध्यापन मैंने निरंतर लगभग ४० वर्षों तक किया है। 

इनके कई भाष्य कई शिखर समीक्षकों ने किए हैं, किन्तु उनके बीच मेरे भाष्य को ज़्यादा स्नेह मिला है। ‘कामायनी’ भाष्य को मैं ‘मानस पीयूष’ जैसा बनना चाहता हूँ। 

अभी उस दिशा में प्रयास चल रहा है। प्रयोजन मूलक हिंदी विषय से प्रेरित होकर मैंने पत्रकारिता अनुवाद कला, कोशकारिता, मीडिया लेखन, शोध प्रौद्योगिकी, भाष्य ज्ञान, पाठालोचन, विचार परक विज्ञान लेखन, राजभाषा कंप्यूटिंग पर काम किया है। हिंदी के अपने काव्यशास्त्र तथा व्यावहारिक सौंदर्य शास्त्र की स्थापना में वर्षों से दत्तचित्त हूँ। 

अवधी भाषा साहित्य और लोक साहित्य के संचयन तथा विवेचन में मैंने भरसक पहल की है। इसी ध्येय से मैंने ग्यारह पत्रिकाओं का संपादन किया है। रचनात्मक लेखन मुख्यतः हास्य व्यंग्य, संस्मरण, तथा चरितात्मक साहित्य-सृजन का भी प्रयास किया है। ‘साहित्यिकी’ संस्था स्थापित कर लगभग पचीस हज़ार पुस्तकों और पत्रिकाओं का सार्वजनिक पुस्तकालय एवं शोध केंद्र संचालित कर हिंदी के ऋण शोधन का भरसक प्रयत्न किया है तथा छियासी वर्ष की अवस्था में अभी आठ-दस घंटे श्रम करने का नियम निभाया है। 

शोध के स्तरोन्यन हेतु मैंने मौलिक उपयोगी विषयों पर छह विश्वविद्यालयों से निर्देशक के रूप में जुड़कर हिंदी और पत्रकारिता पर ११२ पीएच.डी., डि.लिट्. शोध प्रबंध लिखवाए हैं। 

इस विश्वास से किसी एक विधा का मैं विशेषज्ञ नहीं बन पाया, पर हर कोने को झाँकने का सौभाग्य मुझे मिला है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आपने ‘उत्कर्ष’, ‘उद्भव’, ‘अवधी’, ‘ज्ञानशिखा’, ‘शोध’, ‘कुलसन्देश’, ‘साहित्य भारती’, ‘संचारश्री, ‘चाणक्य’, ‘प्रभास’, ‘खोज’ जैसी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का लम्बे समय तक संपादन भी किया है, लम्बा अनुभव रहा सम्पादन का। आपकी दृष्टि में एक संपादक की दृष्टि कैसी होनी चाहिए, उसे किसी पुस्तक, पत्रिका के संपादन के समय किन बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

पुस्तक समीक्षा के लिए आवश्यक है कि हम सही कृति का चयन उसकी मौलिकता, उपयोगिता और प्रामाणिकता के आधार पर करें न कि किसी के दबाव से, किसी स्वार्थवश, किसी प्रक्रिया से प्रेरित होकर या कि मैत्री भाव से। समीक्ष्य कृति का गहन पाठ आवश्यक है। इसमें हड़बड़ी या फ़र्ज़ अदायगी बाधक होती है। अधिकतर पुस्तक समीक्षाओं के शीर्षक में छद्म विशेषण या अभिदान आरोपित कर दिए जाते हैं। मानों वह पुस्तक समीक्षा न होकर किसी परंपरा का अनुशीलन या सिद्धांत का निर्वचन है। पुस्तक समीक्षा का वस्तुनिष्ट होना ज़रूरी होता है। इसमें वस्तु, शिल्प विशेष रूप से भाषा पर अवश्य ध्यान केंद्रित करना चाहिए। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

वर्तमान समय में जो साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं, उनमें कौन सी पत्रिका आपको किन कारणों से सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है, और यह भी कि इन सभी पत्रिकाओं के सम्पादकों में कौन संपादक आपको सबसे बेहतर लगता है, सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है। 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में मुझे अक्षरा, वागर्थ, बहुवचन, भाषा, गवेषणा, साक्षात्कार, समकालीन भारतीय साहित्य आदि बेहतर लगती हैं। संपादकों में अक्षरा संपादक मनोज कुमार जी से मैं अपेक्षाकृत ज़्यादा प्रभावित हूँ। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

विदेश में भी हिंदी की अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ निकल रही हैं जैसे कैनेडा से ‘साहित्यकुंज’ जिसे उसके संस्थापक संपादक, लेखक सुमन कुमार घई क़रीब बीस वर्षों से निकाल रहे हैं, ‘वसुधा’ संस्थापक संपादक लेखिका डॉ. स्नेह ठाकुर, ब्रिटेन से लेखक संपादक तेजेन्द्र शर्मा ‘पुरवाई’ निकाल रहे हैं, इन पत्रिकाओं में भारत सहित तमाम देशों के लेखक लिख रहे हैं, दुनिया में हिंदी भाषा, साहित्य के प्रचार-प्रसार में इन पत्रिकाओं के योगदान के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे? बात यह भी है कि क्या देश के साहित्य जगत में इन पत्रिकाओं के बारे में कोई चर्चा होती है, क्या देश के साहित्य जगत द्वारा उन्हें प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

विदेशों में प्रकाशित हिंदी पत्रिकाओं का विस्तृत विवरण मैंने अपने ‘वृहत हिंदी पत्र-पत्रिका कोश’ में दिए हैं। देशांतरी पत्रकारिता पर शोध कार्य भी कराये हैं। ‘विश्व पटल पर हिंदी’ नामक पुस्तक में उनका संघन सर्वेक्षण किया है। इधर कुछ संस्थाओं द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है। अब हिंदी जगत उनकी यथेष्ट नोटिस भी ले रहा है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

प्रवासी साहित्यकार बराबर लिख रहे हैं, जैसे कैनेडा में डॉ. स्नेह ठाकुर, सुमन कुमार घई, डॉ. शैलजा सक्सेना, हंसा दीप, ऑस्ट्रेलिया में कौशल श्रीवास्तव, हरिहर झा, तंजानिया में सूर्यकुमार सुतार, ब्रिटेन में दिव्या माथुर, शन्नो अग्रवाल, तेजेन्द्र शर्मा, ज़किया जुबेरी, अरुणा सब्बरवाल, अरुणा अजितसरिया, न्यूजीलैंड में डॉ. सुनीता, नीदरलैंड में डॉ. ऋतु, अमेरिका में देवी नागरानी, सुधा ओम ढींगरा आदि, निःसंदेह कुछ महत्त्वपूर्ण भी लिखा जा रहा है। 

प्रवासी साहित्यकारों से चर्चा में यह बात भी निकल कर सामने आती है, बल्कि उनकी पीड़ा कि भारत में प्रवासी साहित्य को महत्त्व नहीं दिया जाता, यह कह कर नकारा जाता है कि वे अतीत को ढोते हैं, जबकि यह सच नहीं सिक्के का एक पहलू भर है आप क्या सोचते हैं इस बारे में? क्या साहित्य को भारतीय साहित्य, प्रवासी साहित्य में बाँटना उचित है? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

देशी-विदेशी प्रायः हर रचनाकार यह पीड़ा व्यक्त कर रहा है कि उसे यथेष्ट महत्त्व नहीं दिया जा रहा है। प्रवासी साहित्यकारों ने पैसे के बल पर अपना अलग मंच बना रखा है और उन्होंने अपने लेखन को एक पृथक प्रवृत्ति घोषित कर दिया है यह उचित नहीं है। हिंदी साहित्य को देशी विदेशी खाँचे में नहीं बाँटना चाहिए। केवल विदेशी तकनीक के बल पर अधिकाधिक कंप्यूटर कोश बना लेने एवं ख़ूबसूरत पुस्तकें छाप लेने से ही कोई श्रेष्ठ साहित्यकार नहीं बन सकता। 

उत्कृष्ट सृजन के लिए चाहिए सघन संवेदना, स्वाध्याय और साधना। अपनी समीक्षा करवाने के लिए बहुत आकुल भी नहीं होना चाहिए। केवल आभिजात्य प्रदर्शन एवं प्रोपेगेंडा, लोकार्पण, पुरस्कार, उपाधि आदि को प्रायोजित कर कोई सफल साहित्यकार नहीं बन जाता। आत्म समीक्षा के पूर्व यह भी विचारणीय है कि उसने दूसरों का कितना साहित्य पढ़ा है और उन पर कितना लिखा है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए आपको राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कार, सम्मान प्रदान किये गए हैं जैसे ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान’ से ‘साहित्य भूषण’ सम्मान, १९९८; ‘दीनदयाल उपाध्याय सम्मान’, उ.प्र., २००२; हिन्दी साहित्य सम्मेलन से ‘साहित्य वाचस्पति’ उपाधि १९९९; इण्टरनेशनल सेण्टर, कैम्ब्रिज से ‘इण्टरनेशनल मैन ऑफ़ दी इयर’ १९९८ से २०१३; ‘अमेरिकन इंस्टीट्यूट’ से ‘डिसटिंगिस्ट पर्सनॉल्टी ऑफ़ दी वर्ड’ १९९८ से २०१३। यह ऐसे पुरस्कार, सम्मान हैं जिन्हें पाकर कोई भी साहित्यकार विद्वान स्वयं को गौरवान्वित महसूस करेगा। आज जब इन पुरस्कार, सम्मानों के विषय में आप सोचते हैं, तो कैसा महसूस करते हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

पुरस्कार और सम्मान यदि अयाचित रूप से ससम्मान प्राप्त हो जाएँ तो सुख संतोष मिलता है। मेरा वश चले तो मैं कविता, कथा लेखन के बजाय हिंदी विज्ञान लेखन, चिंतन परक लेखन, कोशकारिता, अनुवाद, हिंदी कंप्यूटरीकरण आदि से संबंधित श्रेष्ठ कृतियों को सबसे ज़्यादा और सबसे पहले सम्मानित करूँ या कराऊँ। 

दुर्भाग्य की बात है कि देश के बड़े पुरस्कार केवल काव्य एवं कथा लेखन में केंद्रित हैं। उनमें कई तरह के रैकेट्स काम कर रहे हैं। पर इनसे भी कभी न कभी मुक्ति मिलेगी। मेरा मन कहता है “हम होंगे कामयाब एक दिन।”

प्रदीप श्रीवास्तव:

हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए आप केंद्र और राज्य सरकारों से क्या अपेक्षा करते हैं? क्या आप के पास ऐसी कोई योजना है जिसे आप सरकार के समक्ष रखना चाहते हैं? 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

केंद्र और हिंदी राज्यों से मेरी अपील है कि हिंदी को सत्य निष्ठा के साथ राजभाषा/राष्ट्रभाषा बनाएँ, प्रत्येक पाठ्यक्रम में उसे स्थान दें, शीघ्रातिशीघ्र उसे शिक्षा का माध्यम बनाएँ। अनुवाद प्राधिकरण स्थापित करें। प्रकाशन, पुस्तकालय और बिक्री की व्यवस्था सुनिश्चित करके पाठकीयता बढ़ाएँ, पुरस्कारों के मानक तय करें। 

वैश्विक हिंदी की प्रतिष्ठा का प्रयास करें, यांत्रिक हिंदी का विकास करें। शोध समीक्षा का स्तरोन्नयन करें, सर्जनात्मक प्रशिक्षण दें। भाषा का मानकीकरण करायें और इस प्रकार उसका सर्वांगीण विकास करें। मैंने चौबीस वर्ष पूर्व एक लघु पुस्तिका छपवाई थी, ‘हिंदी को बचायें बढ़ाए कैसे’। इसमें पचास सूत्रीय राष्ट्रीय एजेंडा प्रस्तावित किया गया है। इसकी हज़ारों प्रतियाँ मैं बाँट चुका हूँ। अब यह दायित्व आप सब पर है। 

प्रदीप श्रीवास्तव:

आपने बातचीत के लिए अपना बहुमूल्य समय दिया इसके लिए आपको हार्दिक धन्यवाद। 

प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित:

आपने हिंदी के वृहत्तर हित में बड़े सार्थक सवाल उठाए हैं। मुझे समाधान के योग्य समझा है इसलिए आपके प्रति हार्दिक आभार। 

  • प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित
    प्रोफ़ेसर सूर्यप्रसाद दीक्षित

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