पगडण्डी विकास

01-11-2023

पगडण्डी विकास

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

हाय दिल्ली की सर्दी कह कर ठंड से कुड़कुड़ाने वाले लोग अगर एक बार महोबा के रेलवे स्टेशन पर रात गुज़ार लें, तो निश्चित ही कहेंगे ‘हाय महोबा की सर्दी। इससे तो अच्छी है अपनी दिल्ली की सर्दी।’ महोबा स्टेशन के प्लैटफ़ॉर्म नंबर एक की बेंच पर बैठा मैं ठंड से काँप रहा था। दिल्ली में पाँच साल रह कर मैं वहाँ की पाँच सर्दियाँ झेल चुका था। किन्तु इतनी ठंड मैंने वहाँ कभी महसूस नहीं की थी। ना ही उतना कोहरा उन पाँच सालों में मैंने वहाँ कभी देखा था जितना कि इकत्तीस दिसंबर की रात को उस वक़्त वहाँ देख रहा था। 

महोबा में ट्रांसफ़र होकर आने के बाद वहाँ मेरा सर्दी का यह पहला मौसम था, साथ ही पहला मौक़ा जब वहाँ रात में घर से बाहर था। मैं थोड़ा डरपोक क़िस्म का आदमी हूँ। ऑफ़िस से आने के बाद घर से मैं बाहर तभी निकलता हूँ जब बहुत ज़रूरी हो जाता है। नहीं तो अपने कमरे में खा-पी कर टीवी देखता हूँ और किशनगंज, बिहार में अपने परिवार से बात कर के सो जाता हूँ।     

ट्रांसफ़र होकर मैं कुछ ही महीने पहले वहाँ पहुँचा था। बीवी दोनों छोटे बच्चों को किशनगंज बाबू जी, अम्मा जी के पास भेजा दिया था। कहा था, यहाँ मुझे ज़्यादा दिन ठहरना नहीं है। बच्चे अभी छोटे हैं। छोटा तो तीन ही महीने का है। यहाँ अनजान शहर में मैं तो दिन भर ऑफ़िस में रहूँगा, तुम सब को कौन देखेगा? ज़रूरत पड़ने पर कोई भी मदद को नहीं है। बीवी का मन क़तई नहीं था कि मैं महोबा में अकेले रहूँ और वह सास-ससुर के पास। 

आज कल की दबंग बीवियों-सी होती तो शायद ना मानती। और मेरे जैसा दब्बू, डरपोक पति ऐसा कहने की हिम्मत भी ना कर पाता। मगर मेरी अतिशय, सीधी-सादी, भावुक, सीरियल में भावुक दृश्य देख कर हुचक-हुचक कर रो पड़ने वाली बीवी बिना किसी बहस के मान गई कि ठीक है जैसे भी हो साल भर किसी तरह सास-ससुर के पास रह लूँगी। मगर उससे ज़्यादा नहीं रुक पाऊँगी। फिर ऐसे बिलख-बिलख के रोई कि पूछिए मत। 

जिस दिन मैंने यह कहा था उसके बाद घर छोड़ने जाने तक उसकी आँखें मुझे गीली ही दिखीं। उसकी ये गीली आँखें मुझे भी कमज़ोर कर रही थीं। तो मैंने कहा, “सुनो अगर यही हाल बनाए रखना है तो मैं भी यहाँ नहीं रुक पाऊँगा। और तुम्हें यहाँ रख कर दिन भर ऑफ़िस चला जाऊँ यह भी मुझसे नहीं होगा। ऐसे में नौकरी छोड़ कर सीधे अम्मा-बाबू जी के पास किशनगंज चलते हैं। वहीं कुछ करेंगे-धरेंगे।” इतना कहने के बाद उसने अपने को बड़ी मुश्किल से सँभाला था। 

उस सर्दी में जब मैं स्टेशन के लिए घर से चला था तब भी पत्नी को फोन किया था। उसकी हिदायत थी कि स्टेशन पहुँच कर फोन करूँ। फोन पर आते ही उसने नसीहत दी कि ‘किसी से कुछ ले-दे कर खाना नहीं। ज़्यादा बात नहीं करना। कहाँ जा रहे हो यह किसी को ना बताना। ठंडा बहुत हो रहा है। बैग से कंबल भी निकाल कर ओढ़ लेना।’ उसकी हिदायत पर मैंने एक बैग में कंबल रख लिया था। जैकेट, टोपी, मफ़लर सब पहन रखा था। बीवी की नसीहत पर कंबल रखना मुझे तब भारी लगा था। लेकिन स्टेशन पर जब ठंड ने सताना शुरू किया तो लगा कि अच्छा किया। 

हालाँकि मैं रास्ते के लिए हमेशा लोई पसंद करता हूँ, तो उसी बैग में मैंने लोई भी रख ली थी। वही ओढ़ कर बेंच पर बैठा ट्रेन का इंतज़ार करने लगा। पूरे प्लैटफ़ॉर्म क्या क़रीब-क़रीब पूरे स्टेशन पर सन्नाटा पसरा था। ज़बरदस्त कोहरा था। लाइट के बल्ब, हैलोजन, ट्यूब ऐसे लग रहे थे जैसे उन पर मिट्टी पोत दी गई है। ख़ूब धूल उड़ रही हो। कोहरा हल्की चलती हवा के कारण धुआँ सा उड़ता दिख रहा था। रेलवे ने प्लैटफ़ॉर्म काफ़ी लंबा बनाया है लेकिन शेड उसके क़रीब चालीस पर्सेंट हिस्से पर ही है। पूरे प्लैटफ़ॉर्म पर इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे। स्‍टाफ भी अपने-अपने कमरों में दुबका था। प्लैटफ़ॉर्म के दूसरे सिरे पर एक चाय वाला जहाँ मैंने थोड़ी देर पहले चाय पी थी वह भी अपनी दुकान बंद कर के चला गया था। 

मुझ से दस-पंद्रह क़दम की दूरी पर प्लैटफ़ॉर्म की छत को सहारा देता मोटा पिल्लर ऊपर तक गया था। पिल्लर से ही सटे दो कुत्ते एक दूसरे से गुँथे से पड़े सो रहे थे। मुझे बेंच पर बैठे आधा घंटा हो रहा था। ट्रेन का टाइम भी हो रहा था। मन में व्याकुलता हो रही थी कि ट्रेन जल्दी आ जाती तो उसमें बैठूँ। इस ठंड से कुछ तो छुटकारा मिले। ठंड को ध्यान में रख कर ही मैंने थर्ड एसी में रिजर्वेंशन कराया था। 

प्लैटफ़ॉर्म का सन्नाटा देखकर मैंने सोचा कि महोबा से क्या मैं ही अकेला जा रहा हूँ। टाइम हो रहा है और कोई दूसरा यात्री दिखाई नहीं दे रहा। मुझे ठंड बराबर बढ़ती हुई लग रही थी। मैंने तभी मोबाइल में लोकल टेम्प्रेचर देखा तो वह पाँच डिग्री सेंटीग्रेड हो रहा था। कुछ देर में मुझे लगा कि टेम्प्रेचर देखने के बाद मुझे और ठंड महसूस हो रही है। 

दिल को तसल्ली दी कि बस थोड़ी देर और ट्रेन आ ही रही होगी। घर से मोबाइल पर ही ऑन लाइन ट्रेन की स्थिति देख कर ही चला था। इस कोहरे और हाड़ कँपाती ठंड में भी वह मात्र डेढ़ घंटे लेट थी। अन्य बहुत से लोगों की तरह मेरे लिए भी यह थोड़ा आश्चर्य का विषय था। नहीं तो ऐसे मौसम में ट्रेन का सात-आठ घंटे लेट होना आम बात रही है। मैंने सोचा चलो जो भी है, आए तो जल्दी। और ऐसे ही पहुँचा भी दे। आठ-नौ घंटे लेट ना हो। साले की शादी दो ही दिन बाद है। 

सोचा इस साले को भी और कोई डेट नहीं मिली थी। हर साल तो यह कड़ाके की ठंड पड़ती है, वह यह अच्छी तरह जानता है। फिर भी यह मूर्खता किए बैठा है। मगर उसकी सारी मूर्खता एक तरफ़ है क्योंकि आख़िर वो साला है, वो भी इकलौता। पहुँचना हर हाल में है। मेरा साला बना भी तो दिसंबर में ही था। हाँ तब इस साले ने बड़ी ख़ुराफ़ात की थी। मेरे सीधे होने का पूरा फ़ायदा उठाया था। नाक में दम कर दिया था। चलो साले से ब्याज सहित हिसाब पूरा करूँगा। अब बेचैनी में मैं बार-बार मोबाइल में टाइम देखने लगा। लगता जैसे टाइम बढ़ ही नहीं रहा है। इसी बीच मेरे कानों में किसी के कराहने की आवाज़ पड़ी। 

आवाज़ मेरी बेंच के पीछे से आ रही थी। इस समय ऐसा क्या हुआ? कुछ ग़लत की आशंका से दिल की धड़कनें बढ़ गईं। मैंने पीछे मुड़कर देखा। मेरी बेंच से क़रीब आठ फ़िट की दूरी पर दीवार से सटी एक प्रौढ़ महिला ज़मीन पर लेटी थी। उसने कार्टन के टुकड़े बिछा रखे थे। चिथड़ा सी धोती और उसी पर पुरानी-सी बुशर्ट कुछेक कपड़े उसने और पहने थे। एक शॉल भी फटी-लत्ता सी लपेट रखी थी। इस हाड़ कँपाती ठंड में उसके पास ठंड से बचने के लिए और कुछ नहीं था। शॉल भी इतनी फटी थी कि वह उससे अपने को पूरा नहीं ढँक पा रही थी। बुरी तरह काँप रही थी। 

मैंने उसे ध्यान से देखने का प्रयत्न किया लेकिन कपड़ों के कारण जब समझ ना पाया तो उठ कर उसके पास गया। वह दर्द से कराह रही थी। उसे क्या तकलीफ़ थी मैं नहीं समझ पा रहा था। मैंने दो-तीन बार पूछा कि क्या तकलीफ़ है? मगर वह कराहती रही। मैंने भी मूर्खता की हद कर दी थी। एक भिखारिन की तकलीफ़ क्या हो सकती है? भूख, प्यास, आवश्यक कपड़ों, सर्दी, गर्मी, बरसात, आँधी, तूफ़ान, से अपनी रक्षा ना कर पाने से जो भी कष्ट हो सकते हैं, उसके अलावा और क्या दुःख दर्द होंगे इसके। मैं वहाँ कुछ देर खड़ा रहा। 

उस की हालत पर मुझे बड़ी दया आ रही थी। मन में आया कि इसकी कुछ मदद कर सकूँ तो बहुत अच्छा होगा। मगर क्या करूँ? इतनी ठंड इसके लिए कहीं जानलेवा ना साबित हो, यह सोच कर मैंने तय किया कि जैसे भी हो पहले इसे ठंड से बचाऊँ। फिर मैंने बैग से कंबल निकाल कर उसे दोहरा करके ओढ़ा दिया। जिससे वह ज़्यादा कारगर हो। यह भूखी भी होगी यह सोचकर मैंने जो भी बिस्कुट वग़ैरह जो मेरे पास थे उसे उसके सिरहाने ले जाकर रख दिया। 

इसी बीच एक और आदमी दो-तीन सूटकेस, बैग लिए आकर बेंच पर बैठ चुका था। उसे पहुँचाने एक आदमी आया था। शायद वह उसका टैक्सी ड्राइवर था। महिला को कंबल ओढ़ाने के बाद भी उसके कराहने की आवाज़ मुझे सुनाई दे रही थी। मेरे मन में उसे आराम देने के लिए व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। मन में ऐसी तीव्रता मैंने कभी किसी के लिए महसूस नहीं की थी। मैंने फिर बैग खोला। उसमें से पत्नी की दो शॉल जो उसने मँगाई थी वह निकाली और दोनों उसी के ऊपर डाल दी। 

वापस आकर बेंच पर बैठा तो वह आदमी मुझे देख रहा था। उसने मुँह में तंबाकू दबा रखी। उसे मैंने अब ग़ौर से देखा तो हुलिया से मुझे कोई बिज़नेसमैन लगा। मुझे अपनी तरफ़ देखता पाकर उसने कहा। “भाई साहब एक बात कहूँ नाराज़ तो नहीं होंगे?” मेरे ‘नहीं’ कहने पर वह बोला। “आपने जो किया बढ़िया है। लेकिन आप इन सब को जानते नहीं हैं। इसे आपने कपड़े दे दिए हैं। लेकिन ये कल फिर ऐसी ही मिलेगी। ये यह सारे कपड़े कहीं बेच देगी। फिर नशा-पत्ती करेगी। इन सब ने इसे धंधा बना लिया है। इतने सारे नियम-क़ानून हैं लेकिन पुलिस भी कुछ नहीं करती। वह भी इनसे हफ़्ता लेती है। इस लिए इनको देना इनकी आदत ख़राब करना है। भीख माँगने की आदत को बढ़ावा देना है।”

उसकी बात पर मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया कि अजब आदमी है। किसी की तकलीफ़ में उसे एक पैसे की मदद तो करना दूर, दूसरे को भी मना कर रहा है। मानवता नाम की चीज़ ही नहीं। ऊपर से मुझे शिक्षा दे रहा है। कुछ देर तो मैं समझ ही नहीं पाया कि इसे इसकी बातों का जवाब क्या दूँ? मैं देखता भर रहा। तभी वह फिर बोल पड़ा। “देखिए जब इन को भीख नहीं मिलेगी तभी ये कुछ काम-धंधा करेंगे। नहीं तो ऐसे ही माँगेंगे और खाएँगे-पिएँगे। इस तरह हम अपने बीच से कभी भिखारियों को ख़त्म नहीं कर सकेंगे। भीख माँगना एक धब्बा, अभिशाप है हमारे समाज का। आख़िर कब तक इसे अपने साथ चिपकाए रखेंगे। ये अभी तक हमारे साथ चिपके हुए हैं इसके लिए हमारी ये बेकार की दया ही ज़िम्मेदार है कि हम ऐसे ही दे-दे कर इन्हें पाले हुए हैं। इन्हें और आगे बढ़ने की ख़ुराक देते हैं।” 

उसकी यह बातें मुझे ख़ुद पर बड़ी तोहमत लगीं। और उसकी ढिठाई भी कि इसकी हिम्मत तो देखो कि ना जान ना पहचान और लेक्चर ऐसे दे रहा है जैसे मैं इसका नौकर हूँ। अब तक मैं भी उसको जवाब देने के लिए तैयार हो चुका था। मैंने छूटते ही कहा, “ऐसा है कि सारे नियम-क़ानून से ऊपर है मानवता। मुझे मालूम नहीं है कि दुनिया में कहीं कोई ऐसा क़ानून है कि किसी की जान बचाने के लिए किसी को सज़ा दी जाए। और यह भी कि किसी की जान ख़तरे में है तो उसे नज़रंदाज़ कर आगे बढ़ जाएँ, उसकी जान ना बचाएँ।” मेरी बात सुनते ही वह थोड़ा तेज़ आवाज़ में बोला। 

“नहीं-नहीं मैं किसी की जान बचाने से मना नहीं कर रहा। मैं तो भीख ना देने की बात कर रहा हूँ। जिससे भीख माँगने की प्रथा को बढ़ावा ना मिले।”

उसके तेवर और बात पर मैंने थोड़ी सी विनम्रता ओढ़ते हुए कहा ‘अरे भाई मैं साफ़-साफ़ कह रहा हूँ कि मैंने किसी को भीख नहीं दी। मैं भीख को बढ़ावा देने ना देने के बारे में सोचता ही नहीं। मुझे वह महिला बीमार, लाचार, बेसहारा, बेघर दिखी। उसकी हालत ऐसी है कि तुरंत उसे ठंड से बचाया ना गया तो उसकी जान जा सकती है। और मैंने उसकी जान बचाने की ही कोशिश की है। मैं पूरे विश्वास के साथ यह मानता हूँ कि मैंने मानवता के नाते अच्छा ही किया है।” मैंने सोचा अब वह चुप हो जाएगा। लेकिन मेरा आकलन ग़लत निकला। वह तुरंत पूरी दृढ़ता से बोला। 

“हाँ ये तो कह सकते हैं कि जान बचाई। लेकिन भीख तो दी ही गई। और इससे इस प्रथा को बढ़ावा भी मिला ही।”

वह यह बात पूरी कर आख़िर में हँस भी दिया। इससे मुझे लगा कि वह मेरी खिल्ली उड़ा रहा है। यह बात दिमाग़ में आते ही मुझे ग़ुस्सा आ गया। मैं इतनी खीझ महसूस कर रहा था कि अपने दब्बू स्वभाव के बावजूद नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए बोला, “अब मुझे जो करना था वह तो मैंने कर दिया। उससे मुझे कोई अफ़सोस नहीं बल्कि संतोष ही है। हाँ आप चाहें तो पुलिस में कंप्लेंट कर मुझे अरेस्ट करा दें। मैं आपके इस काम से बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगा। आप भी अपना कर्त्तव्य पूरा कर लीजिए।” 

अब वह समझ गया कि मुझे उसकी बातें अच्छी नहीं लगीं। तो वह रफ़ू करते हुए बोला, “अरे नहीं-नहीं मेरा मतलब यह नहीं है। आप तो बुरा मान गए। आप जैसे अच्छे इंसान को कोई क़ानून गिरफ़्तार ही नहीं कर सकता। मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। मुझे तो यह सोचना भी दुनिया की सबसे बड़ी मूर्खता लगेगी। ये तो हमारी इन सरकारों को सोचना चाहिए कि हमारे देश में ग़रीब हैं क्यों?” उसकी बात से मैं समझ गया कि यह उन्हीं लोगों में से एक है जो ऐसे स्थानों पर टाइम पास करने के लिए आस-पास के लोगों को किसी ना किसी मुद्दे पर निरर्थक बहस में उलझा ही लेते हैं। 

दैवयोग से मुझे भी यह अच्छा लगता है। लेकिन बहस करने में नहीं सुनने में। मगर वहाँ कोई और नहीं था जो उससे बहस करता। मैंने सोचा चलो जब तक ट्रेन नहीं आती तब तक इसी से झक लड़ाते हैं। यह सोचते हुए मैंने तुरंत बात आगे बढ़ाई। कहा, “देखिए असल में हम भारतीयों की असल समस्या यह है कि हम पीढ़ियों से इस सोच के हो गए हैं कि कोई देवता, मसीहा आएगा और हमारी सारी समस्याओं को हल कर देगा। हम केवल एक ही काम करते हैं कि मसीहा का इंतज़ार करते हैं। यह काम हम बहुत ईमानदारी, निष्ठा, मेहनत से करते हैं। इंतज़ार में पीढ़ी दर पीढ़ी निकाल देते हैं। लेकिन कभी हताश निराश नहीं होते, कभी नहीं थकते।”

मेरी बात सुनते ही वह आश्चर्य सा व्यक्त करते हुए बोला, “अरे भाई साहब आपने तो बड़ी ऊँची बात कह दी। यह बिल्कुल सही है। मैं तो कभी यह सोच ही नहीं पाया। मगर ये बताइए आपके दिमाग़ में यह कैसे आ गया कि हम भारतीय हमेशा किसी मसीहा का ही इंतज़ार करते रहते हैं?”

मुझे लगा कि बात अब उस ओर मुड़ गई है कि अंतहीन बकवास चलती रहेगी। मैंने बात आगे बढ़ाई। कहा, “देखिए ये स्टेशन ही देखिए। अब याद करिए ज़रा साल डेढ़ साल पहले के स्टेशन। जब हर तरफ़ गंदगी भरी रहती थी। छोटे-छोटे स्टेशनों की तो बात ही ना करिए। अच्छा ये बताइए आप तो यहीं के रहने वाले लगते हैं। क्या गवर्नमेंट द्वारा स्वच्छता अभियान शुरू करने से पहले यह स्टेशन इतना साफ़-सुथरा रहता था। हालाँकि अब भी उतना नहीं है जितना होना चाहिए।”

“हाँ . . . ये बात तो है। सेंट्रल गवर्नमेंट के स्वच्छता अभियान से पहले इतनी क्या इसकी पचीस पर्सेंट भी सफ़ाई नहीं रहती थी। लेकिन इससे मसीहा वाली बात कैसे जोड़ रहे हैं?” 

“बड़ी मामूली सी बात है। देखिए सफ़ाई को लेकर हमारे यहाँ समाज ख़ासतौर से धर्म में सफ़ाई स्वच्छता के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कही गई हैं। बहुत ज़ोर दिया गया है। हम अपने घरों में तो बड़ा ध्यान रखते हैं। लेकिन बाहर जितना चाहें, जहाँ चाहें वहाँ उतनी गंदगी करते हैं। हॉस्पिटल, स्टेशन, ऑफ़िस, सड़क, यहाँ तक कि मंदिर, नदी तक नहीं छोड़ते। हाँ बातें हम लोग ख़ूब करते हैं। अरे यार यहाँ इतनी गंदगी है। वहाँ इतनी गंदगी है। गवर्नमेंट कुछ करती नहीं। लेकिन अपने कर्त्तव्य के बारे में कभी बोलते क्या सोचते तक नहीं। लेकिन ये पी.एम. आया तो इसने सफ़ाई को ही मुख्य मुद्दा बना दिया। 

“बीमारी, और बाहर फ़्रेश होने के लिए जाने वाली महिलाओं की सुरक्षा, को देश के सम्मान से जोड़ दिया। इतना ज़ोर देने लगा कि बहुत लोगों को वह सफ़ाई का पुरोधा, मसीहा नज़र आने लगा। देखिए हालात तेज़ी से बदलने लगे कि नहीं। वही देश है। वही लोग हैं। व्यवस्था वही है। बस एक व्यक्ति ने कुछ ऐसी बातें कहीं। कुछ ऐसा ज़ोर दिया कि स्थितियाँ बदलने लगीं। यानी हम ऐसी सोच के लोग हैं कि सोए रहते हैं। हमें जगाने वाला कोई चाहिए। 

“हनुमान जी को तो श्राप था कि उन्हें अपनी ताक़त का ज्ञान तभी होता था जब कोई उन्हें याद दिलाता था। लेकिन हम सब ऐसे क्यों हो गए? हम इंसानों को तो ऐसा कोई श्राप मिला नहीं फिर भी स्वामी विवेकानंद को कहना ही पड़ा। ‘उतिष्ठत भारत, जाग्रत भारत।’। अगर हम लोग सोते हुए ना होते तो यह बात कही ही क्यों जाती।” 

मेरी बात पूरी होते ही वह बोला, “हाँ मैं मानता हूँ इस बात को। आप की बातों से लगता है कि आप किसी राजनीतिक पार्टी से गहरा सम्बन्ध रखते हैं। लेकिन भाई काम तो शुरू से होता ही रहा है। कोई नई बात तो है नहीं। धीरे-धीरे एक दिन सब सही हो जाएगा।”

उस की इस बात पर मैं हँस पडा़। इस बीच उसने अपना परिचय भी दिया था। अपना नाम धीरज सोमवंशी बताया था। मैंने हँसते हुए ही कहा, “धीरज जी मैं किसी पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं रखता। मुझे ये सारी पार्टियाँ और नेता सबके सब एक-से लगते हैं। क्यों कि मैं यह मानता हूँ कि ये जो भी करते हैं वह वोट के लिए करते हैं। उनकी पार्टी को वोट कैसे मिले, वो कैसे जीतें यही उनका मक़सद होता है। बस फ़र्क़ इतना है कि कोई कम है कोई ज़्यादा। मैं जॉन क्वांटन की इस बात को शत-प्रतिशत सही मानता हूँ कि ‘ये नेता तो जब लोगों को सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी नज़र आती है, तो वो जाकर कुछ और सुरंग ख़रीद लाते हैं।’ तो इन नेताओं की तो मैं बात ही नहीं करता। ये नेता हम देशवासियों को नई-नई सुरंगें दिखाने वाले ना होते तो सत्तर साल बाद भी देश जापान, चीन से पीछे ना होता। सत्तर साल से ग़रीबी हटाने के नारे दे-दे कर वोट लिये जा रहे हैं। लेकिन ग़रीब बढ़ते जा रहे हैं। नेता अमीर होते जा रहे हैं। 

“आज भी कितने लोग खाना-पीना, रोटी, कपड़ा, मकान के अभाव में मर रहे हैं। इससे ज़्यादा शर्मनाक, डूब मरने वाली बात और क्या होगी? एक दो नहीं सत्तर साल बीत गए भाई। और कितना वक़्त चाहिए? इन नेताओं की तो ग़रीबी, सारी परेशानियाँ नेता बनते ही दूर हो जाती है। इसलिए मैं किसी नेता या पार्टी की नहीं। व्यक्ति विशेष ही की बात करता हूँ। 

“जिस व्यक्ति ने स्वच्छता अभियान शुरू किया मैं उसे नेता नहीं एक व्यक्ति के रूप में लेता हूँ। क्योंकि उसका यह काम ऐसा है जिसमें मुझे उसका कोई राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध होता नहीं दिखता। इसके उलट जिस तरह सख़्ती भी बरती जा रही है उससे उसे नुक़्सान हो सकता है। हाँ आतंकियों, कश्मीरियों के मुद्दे पर उसे मैं उसी रास्ते पर मुड़ता देख रहा हूँ, जिस रास्ते पर उसके पूर्ववर्ती चले थे।” 

“ये तो बड़े आश्चर्य वाली बात कह रहे हैं आप। ये पी.एम. तो शुरू से ही एकदम अलग चला है कश्मीर मुद्दे पर। बड़ा सख़्त है आतंकियों पर।” 

“धीरज जी यही तो! यही तो मैं कह रहा हूँ कि पहले ठीक चले। उम्मीदें बधीं कि आतंकियों, गद्दार अलगाववादियों से देश की सवा अरब जनता मुक्ति पाएगी। लेकिन बाद में चार क़दम आगे, दो क़दम पीछे वाली हालत मुझे दिखाई दे रही है। दो उदाहरण देता हूँ। पहला नवंबर 2014 का। आतंकी कार में जा रहे थे। ख़ुफ़िया सूचना पर सेना ने उन्हें एक चौराहे पर रोकना चाहा, नहीं रुके। दूसरे, तीसरे पर भी नहीं रुके। 

“अंततः मजबूर होकर सेना ने कार्यवाही की और वो दोनों आतंकी मारे गए। सेना की इस कार्यवाही पर विपक्षी पार्टियाँ सेना की तरीफ़ तो नहीं कर सकीं। उल्टे उसी पर राशन पानी लेकर चढ़ पड़ीं। पी.एम. ने भी सपोर्ट नहीं किया। जाँच के आदेश हो जाते हैं। लेकिन प्रेशर इतना पड़ा कि जाँच पूरी होने से पहले ही अंततः सेना के बहुत बड़े अधिकारी को माफ़ी माँगनी पड़ी। जाँच पूरी हुई तो सेना सही निकली। 

“यह पहला मौक़ा था जब सेना के इतने बड़े अधिकारी को माफ़ी माँगनी पड़ी। इतना अपमान झेलना पड़ा। देश के दुश्मन गद्दारों से माफ़ी माँगनी पड़ी। चलिए यहाँ तक किसी तरह बरदाश्त कर लिया जाए। मगर अति तो तब हो गई। जब स्थानीय चुनाव के वक़्त इसे मुद्दा बनाया गया। कहा गया कि देखिए इतने बड़े अधिकारी ने पहले कभी माफ़ी नहीं माँगी लेकिन अब माँगी। अब आप ही बताइए कि जो सेना अपनी जान देकर हमारी रक्षा करती है। हम आप यहाँ निश्चिंत होकर सुरक्षित गप्प मार सकते हैं, उसी सेना को माफ़ी माँगने के लिए विवश किया जाता है। वोट के लिए माफ़ी को हथियार बनाया जाता है। वहाँ सेना के मनोबल को किस तरह कुचला जा रहा है इसका एक उदाहरण और देता हूँ। 

“यही अप्रैल 2016 की बात है। एक लड़की के साथ दुर्व्यव्यहार पर मामला भड़क उठता है। आतंकी अपना खेल खेलने लगते है। हंदवाड़ा में भीड़ सुरक्षा बलों पर हमलावर हो गई। सेना के जो बंकर वहाँ पचीस-तीस वर्ष से बने थे उसे आंतकी भीड़ तोड़ती रही। उसे नेस्तनाबूत करती रही, मगर सेना को इन गद्दारों पर कार्यवाई नहीं करने दी गई। यहाँ भी मामला झूठा निकला। इससे सेना का मनोबल चूर-चूर नहीं होगा तो क्या होगा? फिर भी हम अपेक्षा करते हैं कि सेना हमारी रक्षा करे। पी.एम. के क़दम यहाँ भी आगे-पीछे होते रहे। इससे वहाँ अलगाववादी और मज़बूत हो रहे हैं। 

“इतना ही नहीं इन अलगाववादियों को पिछली सरकारें पालती आईं हैं। इनकी सुरक्षा हमारी सरकार करती है। इन पर करोड़ों रुपए ख़र्च करती है। इनके लिए होटलों में सैकड़ों कमरे हमेशा बुक रहते हैं। मतलब कि हमारे ही पैसे से इनके खाने-पीने रहने, सुरक्षा का सारा इंतज़ाम होता है। मगर फिर भी ये हमें डसते रहते हैं। नई सरकार, नई पार्टी से लोगों ने उम्मीद की थी कि इन अलगाववादियों को कम से कम सरकार पालना बंद करेगी। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। दुनिया में ऐसा उदाहरण कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए इस मुद्दे पर मुझे उसके प्रति सख़्त नाराज़गी है। इसलिए आपसी बातों को किसी फालोअर की बात मानकर ना चलें। एक सामान्य देशवासी की बात मानें।”

मेरी इन बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद वह बोला, “आप तो बड़ी दिलचस्प बातें करते हैं। टीवी चैनलों पर डिबेट में राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं की तरह अपनी बातें कह रहें हैं। बड़ा अच्छा लग रहा है आप से बात करके। मगर विनायक सेन जी मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि मैं भी आपकी तरह किसी पार्टी का मेंबर भी नहीं हूँ। मैं एक बिज़नेसमैन हूँ। और एक बात बहुत साफ़ मानता हूँ, कहता हूँ कि कुछ भी कहिए। देश ने विकास तो किया है। इस सच से हम मुँह नहीं मोड़ सकते। आप को भी इस सच को मानना चाहिए। टेन में टेन नहीं तो हम इसके लिए उन्हें सेवेन, एट मॉर्क्स तो दे ही सकते हैं। विकास तो हुआ ही है। क्या कहते हैं आप?” 

उसकी बातें सुनते हुए मैं सोच रहा था बेटा बोल जितना बोलना है। लेक्चर दे ले। मेरा टाइम आसानी से कट रहा है। बस पंद्रह मिनट और। इसके बाद तो ट्रेन की पता नहीं किस बोगी में तू और किस में मैं। मगर तब-तक तूने ये जो विकास हमें दिखाया है उसका असली चेहरा तुझे दिखाता हूँ। मगर तुम्हारी बातों का जवाब देने से पहले एक बार उस महिला को देख लूँ वह कैसी है? तेरी बातों में उसे भूल ही गया। बातूनी, बकलोल कहीं का। 

मैंने उठते हुए उससे कहा, “एक मिनट मैं उसकी हालत देख कर आता हूँ। शायद उसे कंबल ओढ़ने के बाद आराम मिला है। अब उस की आवाज़ नहीं आ रही है।” मेरे इतना कहते ही वह बोला, “अरे विनायक जी आप कहाँ परेशान हो रहे हैं। उसे जो चाहिए था वह आपने दे दिया, अब वह तान कर सो रही है।” लेकिन मैं उसकी बात को अनसुनी करता हुआ उसके पास गया। देखा वह सो रही थी। 

मैंने उसे कंबल, शॉल से पहले ही अच्छे से सिर तक ढँक दिया था। अब वह पहले की तरह बिल्कुल नहीं कराह रही थी। उसे आराम से सोता देख कर मुझे बड़ी संतुष्टि मिली। कोहरे की तरफ़ मेरा ध्यान फिर गया वह अब पहले से ज़्यादा दिख रहा था। हम शेड के बीचों-बीच थे, वह महिला दीवार से सटी थी। फिर भी कोहरे का झोंका ऐसा लगता कि अंदर तक आ ही जा रहा है। मैं वापस आकर बैठा। प्लैटफ़ॉर्म की घड़ी पर नज़र डाली तो वह बंद मिली। 

मैंने मोबाइल में देखते हुए कहा, “धीरज जी अब तो ट्रेन के आने का टाइम दस मिनट ही रह गया है। लेकिन ट्रेन के बारे में अभी तक कुछ एनाउंस नहीं हुआ।” मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि एनाउंसमेंट शुरू हो गया। मेरी उत्सुकता बढ़ गई। ‘यात्री गण कृपया ध्यान दें . . .’  इसके बाद पूरी बात सुनकर मैंने कहा, “लीजिए धीरज जी विकास देखिए। ट्रेन घंटा भर और लेट हो गई। विकास के सत्तर साल हो गए लेकिन हम ट्रेन तक टाइम से नहीं चला पा रहे हैं।”

धीरज हँसते हुए बोला, “कोई बात नहीं विनायक जी हमारी बात भी अभी पूरी नहीं हुई है। जब तक पूरी होगी तब-तक एक घंटा बीत जाएगा, पता भी नहीं चलेगा।” वह हा-हा कर फिर हँस पड़ा। मेरे कुछ बोलने से पहले ही रेडीमेड खैनी तंबाकू का पाऊच निकाल कर बोला, “लीजिए ऐसे मौसम में ये बुद्धिवर्धक चूर्ण लीजिए। बड़ा आराम मिलेगा।” मैंने तुरंत मना कर दिया। झूठ बोल दिया कि मैं तंबाकू नहीं खाता। 

उसके तंबाकू ऑफ़र करते ही मेरे दिमाग़ में आए दिन ट्रेन, बस में ज़हर खुरानों द्वारा ऐसे ही यात्रियों से दोस्ती करते, फिर खाने-पीने की चीज़ों में ज़हर देकर बेहोश या मार कर लूटने की घटनाएँ आ गईं। पत्नी इन चीज़ों को लेकर मुझे बराबर आगाह करती रहती है कि अनजान आदमियों से भूलकर भी कुछ मत लेना, ना खाना-पीना। मैंने देखा अब तक सात-आठ और यात्री भी प्लैटफ़ॉर्म की अन्य कई बेंचों पर बैठ गए थे। मेरे मना करने पर वह तंबाकू दाँत और होट के बीच में चुटकी से दबाते हुए बोला, “विनायक जी ये बुद्धिवर्धक चूर्ण मैं स्टुडेंट लाइफ़ से ही खाता आ रहा हूँ। बिना इसके तो मैं अब कोई काम ही नहीं कर पाता। ये ट्रेन ड्राइवर भी मुझे लगता है कि बिना इसके इंजन स्टार्ट कर नहीं पाते।”

ट्रेन के लेट हो जाने से ज़्यादा मुझे अब उसकी ऐसी बेहूदा बातों से खीझ होने लगी। मैंने सोचा कि खीझ कर कहीं मैं कोई सख़्त बात ना बोल बैठूँ और बेवजह यहाँ लड़ाई-झगड़ा हो इसलिए मैं चुप रहा। सोचा यह बकलोल बकलोलई (निरर्थक, अनर्गल बातें) करेगा। फिर मेरी कोई बात इसको चुभ गई तो यह झगड़ा भी करेगा। मगर वह ऐसा बातूनी था कि चुप ही नहीं हुआ। विकास के पीछे ही पड़ गया। इतना कि मैं चुप नहीं रह पाया। 

मैंने कहा, “आप जिस विकास की बात कर रहे हैं उस बारे में इतना ही कहूँगा कि जापान, चीन और हम लोग लगभग साथ-साथ आज़ाद हुए। मैं एकदम साफ़ कहता हूँ कि जापान, चीन ने वास्तविक विकास किया। दुनिया के पहले पाँच-छह शक्तिशाली देशों में शामिल हैं। चीन जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहा है अमरीका, रूस जैसी महाशक्तियाँ अगले कुछ सालों में उससे पिछड़ जाएँ तो आश्चर्य नहीं। जापान का विकास तो इन सबसे आगे है ही। 

“हम यहाँ ट्रेन के इंतज़ार में ठिठुर रहे हैं। बैठने तक की ढंग की जगह नहीं है। सुरक्षा को लेकर संदेह है। चीन मैग्लेव ट्रेन चला रहा है। जिसमें पहिए ही नहीं होते। उसकी गुड्स ट्रेन्स कई देशों को पार कर लंदन तक सामान पहुँचा रही हैं। जापान की बुलेट ट्रेनों का जवाब नहीं। हमारे यहाँ अभी बुलेट ट्रेन शुरू होने में चार-छः साल और लग जाएँ तो आश्चर्य नहीं। हम नोट छापने के लिए इंक, काग़ज़ तक बाहर से मँगाते हैं। सेना के हथियारों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर हैं। वो सप्लाई बंद कर दें तो हफ़्ते भर भी किसी से लड़ नहीं सकते। 

“देश में शत-प्रतिशत साक्षरता एक सपना बनी हुई है। पूरी शिक्षा व्यवस्था आँसू बहाने को विवश करती है। महिलाएँ क्या पुरुष, बच्चे बूढ़े कोई भी सुरक्षित नहीं। बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य सहित किसी भी क्षेत्र में हम नहीं कह सकते कि हम फ़लाँ क्षेत्र में विकसित हो गए हैं। ग़रीबी दूर नहीं कर सके। फिर भी सरकार बड़ी बेशर्मी घमंड के साथ प्रचार करती है कि ग़रीबों को हम मनरेगा योजना के तहत सौ दिन रोज़गार देते हैं। इससे उनकी रोज़ी-रोटी चलती है। तो भाई बेशर्म नेतागण ये भी तो बताओ कि बाक़ी दौ पैंसठ दिन ये ग़रीब जो फांकाकसी करेंगे उसका ज़िम्मेदार कौन है? 

सत्तर साल में हम उनको इतना सक्षम, स्वावलंबी क्यों नहीं बना सके कि ऐसी योजनाओं की ज़रूरत ही न पड़ती। इतने सालों में हम लोगों को गड्ढा खोदने, झऊवा उठाने लायक़ ही बना सके। फिर भी हम ऐसी योजनाओं पर घमंड करते हैं। अरे ऐसी योजनाएँ देश के माथे पर कलंक हैं। काला धब्बा हैं। सबसे पहले तो हमें इस कलंक को साफ़ करने का अभियान चलाना चाहिए। हम आगे बढ़े ही नहीं। हम रेंग रहे हैं। यह नई सरकार भी बड़ी बातें कर रही है। अगर आधा भी कर ले तो भी बहुत काम होगा। हालात बदल जाएँगे। मगर इसके लिए भी आठ-दस साल तो चाहिए ही। तो धीरज जी मैं बहुत साफ़ कहता हूँ कि विकास तो चीन, जापान ने किया है। हमने नहीं।”

“अरे आप कैसी बातें कर रहे हैं विनायक जी। आपकी बातों को मानें तो पिछले सत्तर साल में हमने कुछ किया ही नहीं। कोई विकास नहीं किया तो ये बताइए देश के कोने-कोने तक हम ट्रेन से जा पाते? जहाज़ से दुनिया में कहीं भी जा सकते? खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हैं। अब तो हर साल इतना आनाज चूहे, कीड़े खा जाते हैं, इतना बर्बाद होता है जितना ऑस्ट्रेलिया पैदा करता है। मेडिकल फैस्लिटीज़ के कारण मेडिकल टुरिज़्म बढ़ रहा है। खेल में आगे बढ़ रहे हैं। सड़कों का जाल बिछ रहा है। बड़े-बड़े एजूकेशन सेंटर हैं, जहाँ विदेशों से भी लड़के पढ़ने आते हैं। सबसे ज़्यादा पिक्चरें यहाँ बनती हैं। अंतरिक्ष में रिकॉर्ड-तोड़ सफलताएँ हासिल कर रहे हैं। पाकिस्तान, चीन जैसे दुश्मन देश सीधे टकराने से बचते हैं। क्या ये सब विकास नहीं है? विकास नहीं है तो क्या है?” 

धीरज को यह सब कहते हुए मैं जितना सुन रहा था उससे कहीं ज़्यादा यह सोच रहा था कि ये बकलोल चुप ना हुआ तो ऐसे ही सिर खाता रहेगा। इसको एकदम चुप कराने के लिए यह बहुत ज़रूरी हो गया है कि इसको एकदम धो-पोंछ कर सुखा डालूँ। मैंने यही सोच कर उसके चुप होते ही कहा, “लेकिन चीन, जापान के आगे कहाँ ठहरते हैं? निश्चित ही इसका जवाब हमारे, आपके पास, देश के किसी व्यक्ति के पास नहीं होगा। बंधुवर सच कहूँ कि हमने विकास किया नहीं है। विकास हो गया है। दुनिया के अर्थ-शास्त्री इस विकास को चमत्कार या कुछ भी कहें। लेकिन मैं इसे ‘पगडंडी विकास’ कहता हूँ।”

यह कहते ही धीरज एकदम चौंक गया। अपनी जगह थोड़ा तन कर बैठते हुए उसने कहा, “‘पगडंडी विकास’! अरे भ‍इया ये कौन सा विकास है? पहली बार सुन रहा हूँ। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है।” धीरज ने हँसते हुए यह बात कही। हँस मैं भी रहा था। इस पर वह फिर बोला, “बताइए भाई बताइए। ‘पगडंडी विकास’ को हम भी जान लें।” मुझे लगा यह बकलोल अब ज़्यादा नहीं बोलेगा, अब रही-सही कसर पूरी कर दूँ। मैंने कहा, “ठीक है। तो ध्यान से सुनिए ‘पगडंडी विकास’ क्या है? 

“पहले ये बताइए कि गाँव से आपका सम्बन्ध कितना है?:

उसने कहा, ”गाँव से तो अब मेरा कोई सम्बन्ध रहा नहीं। असल में मैं वहाँ की ‘बिलो द बेल्ट राजनीति’, आए दिन की समस्याओं से बहुत ऊब गया तो खेती-बाड़ी सब बेच-बाच कर गाँव को हमेशा के लिए जयराम कह आया हूँ। फ़ादर थे नहीं। माँ की भी यही इच्छा थी। उसे हमेशा यही डर सताए रहता था कि दुश्मन पट्टीदार कहीं मेरी हत्या ना कर दें। इसी बीच एक हत्या गाँव में हो भी गई तो फिर माँ एकदम पीछे पड़ गई। फिर आनन-फ़ानन में बेच-बाच दी सारी खेती-बाड़ी।” 

“मतलब कि आप गाँव में पल-बढ़े हैं। लंबे समय तक वहाँ रहे हैं। इसलिए आपने पगडंडी देखी ही नहीं है बल्कि उस पर ख़ूब चले भी हैं। पगडंडी कैसे बनती है वह भी आप जानते हैं। वैसे आप अगर ख़ुद बताते तो और अच्छा था।”

“नहीं आप ही बताइए। आप पगडंडी नहीं ‘पगडंडी विकास’ की बात कर रहे हैं। जो मैं पहली बार सुन रहा हूँ। इसलिए आप ही बताइए। मुझे तो सिर्फ़ सुनना है।”

“चलिए अच्छी बात है। देखिए मेरी नज़र में भारत का विकास ‘पगडंडी विकास’ इसलिए है क्यों कि जैसे गाँव-देहात या कहीं भी किसी क्षेत्र में लोगों के किसी एक ही दिशा में आते-जाते रहने से उस पूरी जगह जहाँ लोगों के पैर पड़ते हैं, वहाँ से घास वग़ैरह ग़ायब हो जाती है। साफ-सुथरी एक पट्टी सी बन जाती है। जैसे गंजे व्यक्तियों के सिर पर से बीच से बाल ग़ायब हो जाने से बीच में सफा-चट सिर नज़र आता है। यानी कि लोगों के चलने से एक रास्ता बन जाता है। घास ग़ायब हो जाती है। तो यह रास्ता किसी ने बनाया नहीं। यह लोगों के चलते रहने से विकसित हो गया। किसी ने सोच-समझ कर सयास इसका विकास नहीं किया। बस हो गया। तो ठीक ऐसा ही है हमारे देश का अधिकांश विकास। जो किया नहीं गया बस हो गया। लोग चलते रहे और देश भी चलता रहा। 

“इस ‘पगडंडी विकास’ के कारण ही हम अँधेरे में ठंड से काँपते ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हैं। और हमें यह तक नहीं पता कि वाक़ई ट्रेन की लोकेशन क्या है? जापान, चीन में जितनी दूरी लोग ट्रेन से एक घंटे में तय कर लेते हैं। हमें हमारी ट्रेनें उतनी दूर कम से कम पाँच-छह घंटे में पहुँचाती हैं। तो धीरज जी ‘पगडंडी विकास’ और किए गए विकास में ये मूल फ़र्क़ है। अब कहिए क्या कहेंगे? मैंने सही कहा या ग़लत।” 

मुँह में तंबाकू भरे धीरज हूँअहूँ . . . अ कर हँसते हुए उठकर पिल्लर के पास गया। पिल्लर के एक कोने पर पिच्च से थूक कर वापस आया। अपनी जगह बैठ कर बोला, “वाह विनायकजी बहुत ख़ूब। आपकी पगडंडी थ्योरी का भी जवाब नहीं। बड़े-बड़े अर्थ शास्त्रियों की थ्योरी इसके आगे पानी भर रही है, तो मैं क्या बोलूँगा? विकास किया गया और विकास हो गया, इन दोनों के बीच आपने ऐसी विभाजन रेखा खींची है कि सारे क्योश्चन ख़त्म हो गए हैं। हालाँकि मैं अपने एक गुरु की बात कभी नहीं भूलता कि उत्तर कितना भी सटीक हो, प्रश्न की सम्भावना कभी ख़त्म नहीं होती।”

“तो करिए प्रश्न,” मैंने मन ही मन सोचा यार थोड़ा चुप क्यों नहीं हो जाते। मैंने टाइम पास करने की सोची थी। तुम से झक लड़ाने या सिर खपाने की नहीं। अब भी प्रश्न करने की सम्भावना तलाश रहा है। पता नहीं कितना प्रश्नानुकूल प्राणी है। प्रश्न करने को कहते ही वह बोला, “प्रश्न की सम्भावना ख़त्म नहीं होती, मैंने यह कहा। फ़िलहाल कोई प्रश्न है यह मैंने नहीं कहा।” अपनी बात पूरी करते-करते ही उसने फिर तंबाकू का पाउच निकाल लिया। मुझसे पूछा मैंने फिर मना कर दिया। 

मन ही मन सोचा चेन स्मोकर सुना था। ये तो चेन टोबेको ईटर लग रहा है। अभी थूक कर आया फिर खाने जा रहा है। खाकर पाउच फिर जब जेब में रखने लगा तो मैंने उससे पूछ ही लिया, “क्या आप मुँह में तंबाकू हमेशा दबाए रहते हैं?” तो उसने मुझे कुछ आश्चर्य में डालते हुए कहा कि, “मैं तो सोते समय भी मुँह में दबाए रहता हूँ। ना लूँ तो सो नहीं पाऊँगा।” मैंने कहा, “इन पैकेटों पर कैंसर पेशेंट की भयावह फोटो रहती है। फिर भी आप लोग खाते रहते हैं। डर नहीं लगता कैंसर होने का। यह नहीं सोचते कि कुछ हो गया तो परिवार को कौन देखेगा?” 

मेरे इतना कहते ही वह हँसा। बोला, “आप भी कैसी बातें करते हैं। ये बताइए कि हम लोग ट्रेन, बस वग़ैरह से हर जगह आते-जाते रहते हैं ना। जब कि हर साल लाखों लोग एक्सीडेंट में मर जाते हैं। अपंग हो जाते हैं। परिवार तो तब भी दोराहे पर आ जाता है। बिखर जाता है। फिर भी हम घर से निकलना बंद नहीं करते। इतना कोहरा है। जर्नी के हिसाब से यह सबसे ख़तरनाक मौसम है। फिर भी देखिए हम लोग निकले हैं कहीं ना कहीं जाने के लिए। तो जो होना होगा वह होगा। नहीं होना होगा नहीं होगा।” 

बात करने की उसकी टोन से मुझे लगा कि उसे मेरी बात बुरी लगी। दूसरे मैंने बेवजह इसे फिर छेड़ दिया। फिर से सिर खाएगा। इसलिए बात ख़त्म करने की ग़रज़ से कहा, “हाँ सही कह रहे हैं। बेवजह परेशान होते हैं हम लोग कि ये हो जाएगा वो हो जाएगा।” ये कह कर मैं चुप हो गया। मगर मन में यह बात भी आ गई कि ऐसी सोच के चलते ही शायद पहले यह कहा गया कि, ‘चिलरे (चीलर) के डर से कथरी नहीं छोड़ी जाती।’ लेकिन इसका जवाब भी तो तभी के लोगों ने दिया कि, ‘दीदा (आँख) फोड़ें अपने हाथ, नाव (नाम) लगावें भवानी के।’ ख़ुद कुआँ में कूद कर कहें कि यही होना था। वाह री सोच। बचाव के कैसे-कैसे कुतर्क हैं। 

मैंने सोचा अच्छा होता यदि गवर्नमेंट इन चीज़ों का उत्पादन ही बंद करा दे। मैंने अपने दिमाग़ को शांत करने की कोशिश की और उठ कर फिर उस महिला को देखने गया। मुझे इस बार और शान्ति मिली कि वह आराम से सो रही थी। मैं वापस आकर बैठा ही था कि एनाउंसर की आवाज़ फिर गूँजी, ‘यात्री गण कृपया ध्यान दें’। मेरे कान खड़े हो गए। ध्यान से सुनने लगा कि कितनी देर में आ रही है ट्रेन। मगर जो एनाउंस हुआ उससे मैंने खीझ कर सिर पीट लिया। ट्रेन लेट नहीं हुई थी। कैंसिल कर दी गई थी। यह सुन कर प्लैटफ़ॉर्म पर जो गिने-चुने यात्री बैठे थे ठंड से सिकुड़े, उन सब में एक हलचल सी उत्पन्न हो गई। धीरज उठकर फिर वहीं पिच्च से थूक कर आया। और मुझसे पूछा, “विनायक जी अब क्या किया जाए? ये तो अच्छा तमाशा हो गया।”

“तमाशा क्या महा तमाशा हो गया। मुझे हर हाल में पहुँचना है। समझ में नहीं आ रहा क्या करूँ।”

“पहुँचना मुझे भी है। चाहूँ तो भी जर्नी पोस्टपोन नहीं कर पाऊँगा। क्योंकि अपनी आदत से परेशान हूँ। घर से जब निकल देता हूँ तो जहाँ जाना होता है वहाँ फिर हर हाल में जाऊँगा। फिर चाहे आँधी आए या तूफ़ान। ट्रेन ना सही। बस से जाऊँगा। मगर सबेरे तक तो यहीं रुकना पड़ेगा। इस कोहरे में बाहर कहीं कुछ भी मिलने वाला नहीं। घर में भी कोई ऐसा नहीं जिसे बुला सकूँ। होता तो भी मैं इस मौसम में बुलाता नहीं। इस लिए रात तो यहीं काटनी है।”

मैंने भी उससे सहमत होते हुए कहा, “हाँ। काटनी तो यहीं पड़ेगी। रात क्या सवेरे आठ-नौ बजे से पहले कोई साधन मिलने वाला नहीं। इतना लंबा टाइम काटना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। इन सालों ने ये भी नहीं बताया कि ट्रेन कैंसिल क्यों की?” 

“अरे बताएँगे क्या? अंडरस्टुड है। ज़ीरो विजिविलिटी है। यही बताएँगे।”

“फिर भी धीरज जी बताना तो चाहिए ना, ये तो हम अनुमान लगा रहे हैं। हमारे यहाँ कोहरे के कारण ट्रेनें ठप्प होती हैं। ज़िन्दगी ठप्प होती है। ये सब जानते हैं। कोई नई बात नहीं है। रीज़न बता देने से कुछ बिगड़ नहीं जाएगा।”

मैंने जूते पहने-पहने पैर उठाकर बेंच पर रख लिए। उन्हें उतारने की हिम्मत नहीं हुई। पैर जैसे गले जा रहे थे। वूलेन मोज़े, जूते पहने थे। लेकिन लग रहा था जैसे कुछ पहना ही नहीं है। लोई को पूरी तरह लपेट लिया था। केवल आँखें खुली थीं। धीरज ने कंबल निकाल कर ओढ़ लिया था। उसने अपने सूटकेस, बैग सब बेंच के सामने सटा कर रख लिए थे। पैर उन्हीं पर फैला लिया था। उसने जूते उतार दिए थे। मैंने भी अपना सामान वैसे ही रखा था लेकिन लोई में सिकुड़ा गठरी बना बैठा था। मैं काँप रहा था। धीरज मेरी स्थिति कुछ ही देर में समझ गया। उसने कहा, “विनायक जी आप काँप रहे हैं। कंबल, शॉल सब तो आपने उसे दे दिया। अब क्या करेंगे?” 

मैंने कहा, “कुछ ख़ास दिक़्क़त नहीं है। इस लोई में रात कट ही जाएगी। मैं तो सोच रहा हूँ कि मैं इतने कपड़े पहन कर भी ठंड महसूस कर रहा हूँ। उस महिला का क्या हाल होगा?” 

“आप तो बड़े दयालु लगते हैं। अपनी तकलीफ़ से ज़्यादा एक अनजान महिला, एक भिखारिन की चिंता ज़्यादा है।”

“नहीं, चिंता वाली कोई बात नहीं है। मैं तो बस उसकी तकलीफ़ का अंदाज़ा लगाने का प्रयास कर रहा था,” मैं हल्के से हँसते हुए बोला।

“विनायक जी आज के जमाने में इतनी दयालुता ऐसी सोच का कोई मतलब नहीं है। लोग इसे बेवुक़ूफ़ी समझते हैं। और यह भी कि ऐसे लोगों का लोग मिस यूज़ करते हैं। उनका फ़ायदा उठाते हैं। इसलिए हमें प्रैक्टिकल होना चाहिए।”

“अब चलिए जो भी है। मैं समझता हूँ कि मैं प्रैक्टिकल हूँ। इससे पहले यह कि जो आदत है, जो नेचर है मेरा वह तो मैं चेंज नहीं कर पाऊँगा।”

हमारी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि फिर एनाउंसमेंट हुआ। आने वाली तीन और ट्रेनों के कैंसिल होने की सूचना दी गई। जिसे सुन कर मैंने धीरज से कहा, “क्या बात है, एक के बाद एक ट्रेनें कैंसिल हो रही हैं। ऐसे में लेट तो ख़ूब होती हैं। लेकिन इस तरह एक साथ कैंसिल नहीं।” 

धीरज ने कहा, “ठीक है, आप सब सामान देखिए। मैं इन्क्वारी से पता करके आता हूँ। कोहरे के कारण ट्रेनें लेट हो रही हैं या कोई और बात है।”

लौट कर धीरज ने बताया आगे एक स्टेशन के क़रीब एक एक्स्प्रेस ट्रेन ज़बरदस्त हादसे का शिकार हो गई है। बहुत से यात्रियों की डेथ हो गई है। पूरा ट्रैक जाम है। क्षतिग्रस्त है। इसीलिए ट्रेनें कैंसिल की जा रही हैं। यह बताने के साथ ही उसने अपने मोबाइल पर एक न्यूज़ चैनल का लाइव प्रसारण ऑन कर दिया। चैनल पर वही न्यूज़ चल रही थी। हर तरफ़ उसमें हा-हा कार मचा दिख रहा था। एंकर, रिपोर्टर एक्सीडेंट के लिए क़यास के आधार पर तरह-तरह के कारण बता रहे थे। जिसमें सिगनल को कोहरे के कारण ना देख पाने, ठंड के कारण पटरियों में क्रैक, फ़िश प्लेट, मेंटिनेंस की कमी से लेकर देशद्रोही शक्तियों द्वारा ट्रैक को नुक़्सान पहुँचाने आदि तक की बातें थीं। 

लोगों की चीख-पुकार, खून-खच्चर मुझसे ना देखा गया तो मैं धीरज के पास से अपनी जगह चला आया। फिर क्रोध में बोला, “कितना बढ़िया विकास हुआ है अपने देश का। सबसे सुरक्षित कही जाने वाली ट्रेन जर्नी भी सुरक्षित नहीं है। बराबरी करने चले हैं चीन, जापान की। जापान में तो पिछले पचास साल में एक भी ट्रेन दुर्घटना नहीं हुई। जय हो ‘पगडंडी विकास’ की।” यह कह कर मैं फिर से ख़ुद को लोई में लपेट कर बैठ गया, सुबह होने का इंतज़ार करते हुए। 

धीरज ने भी चैनल बंद कर दिया। फिर से मुँह में तंबाकू दबा ली। इंक्वायरी पर जाते समय पिच्च से थूक कर गया था। कुछ देर वह चुप बैठा रहा। फिर मोबाइल ऑन कर अपने पैरों पर उसे टिका दिया। कंबल ओढ़े ही था। मोबाइल म्यूट मोड पर था। कुछ देर उसे ऐसे देख कर मैंने पूछ ही लिया, “क्या देख रहे हैं?” इस पर उसने गहरी साँस लेकर छोड़ते हुए कहा, “टेंशन फ़्री चैनल देख रहा हूँ।” जब वह बोल रहा था तो उसके मुँह से ढेर सारी भाप निकल रही थी। मेरे भी। 

मैंने पूछा, “ये कौन सा चैनल है जो टेंशन फ़्री कर देता है?” 

“ऐसे बहुत चैनल हैं। ये देखिए।” 

उसने मोबाइल थोड़ा मेरी ओर घुमा दिया। एक नज़र डालते ही मैंने कहा, “ओह, तो ये है टेंशन फ़्री चैनल।” धीरज पॉर्न साइट देख रहा था। उसने कहा, “विनायक जी कुछ भी कहें, कम से कम ये साइट्स मेरा टेंशन तो दूर कर ही देती हैं। इसीलिए इन साइट्स को मैं टेंशन फ़्री चैनल कहता हूँ।”

मैंने कहा, “पता नहीं आपने सही कहा या ग़लत। मेरी समझ में ये नहीं आता कि ये टेंशन फ़्री करते हैं या टेंशन फ़ुल। जो चीज़ मुझे समझ में नहीं आती उसकी तरफ़ मैं देखता भी नहीं। आप ये देखकर टेंशन फ़्री होते हैं तो होइए। मैं तो आराम करूँगा।” कह कर मैंने अपनी टोपी आँखों के क़रीब खींच ली। मन में चलता रहा कि कैसे जल्दी घर पहुँचूँ। शादी में टाइम से पहुँच पाऊँगा कि नहीं। ऐसे मौसम में सवेरे दस-ग्यारह बजे से पहले बस भी नहीं मिल पाएगी। रात भर जागना अलग है। नहीं कोई सामान ही लेकर खिसक गया तो और मुश्किल। मगर मेरी सारी कोशिश बेकार गई। पता नहीं कब नींद आ गई। मैं वैसे ही बैठे-बैठे सो गया। 

नींद तब खुली जब एक चाय वाला चाय-चाय करता सामने से निकल गया। टाइम देखा तो सुबह के सात बज रहे थे। धीरज पर नज़र डाली तो वह जागता मिला। चाय पी रहा था। उसी ने चाय वाले को बुलाया था। नज़र मिलते ही बोला, “विनायक जी आप तो ख़ूब सोए, बहुत थके हुए लग रहे थे।”

मैंने कहा, “हाँ, पता नहीं कब नींद आ गई।” तभी मेरा ध्यान लोई पर गया। यह देख कर कि मेरी लोई के ऊपर एक और लोई पड़ी है, मैंने उसे उठाया कुछ समझता कि तभी धीरज बोला, “मैंने ही ओढ़ा दिया था। देखा कि आप सोते हुए भी काँप रहे हैं, तो मैंने सोचा कैसे व्यक्ति हैं, दूसरे को आराम देने के लिए ख़ुद को तकलीफ़ में क्या बल्कि अपनी जान ही ख़तरे में डाल रखी है। ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ करने का कर्त्तव्य तो मेरा भी बनता है। लेकिन भाई मैं आपकी तरह महान नहीं हूँ, इसलिए कंबल ख़ुद ओढे़ रहा कि मुझे ठंड ना लगे। लोई ख़ाली थी तो वह आपको ओढ़ा दी। फिर कुछ देर बाद आपका काँपना बंद हुआ। आप गहरी नींद सो गए।” इसी बीच धीरज ने चाय वाले को इशारा कर मुझे भी चाय दिलवाई। मैंने उसे चाय, लोई दोनों के लिए धन्यवाद कहा। बोला, “भाई आपने तो परिवार के सदस्य की तरह मेरा ध्यान रखा। मैं कभी भूल नहीं पाऊँगा।” 

गरम-गरम चाय बड़ी राहत दे रही थी। प्लैटफ़ॉर्म पर अब कुछ ज़्यादा लोगों की आवाजाही भी शुरू हो गई थी। तभी मेरा ध्यान उस महिला की तरफ़ फिर गया कि देखूँ उसका क्या हाल है? उठी कि नहीं। मगर उधर देखते ही मुझे तेज़ झटका लगा। उसे मैंने जो कंबल, शॉल ओढ़ाई थी वह सब ग़ायब थे। महिला उसी तरह अब भी पड़ी थी। खाने का जो सामान मैंने उसके सिराहने रखा था वह भी ग़ायब था। 

मैं जल्दी से उठ कर उसके पास गया। क़रीब से उसे देखा तो मेरे होश उड़ गए। महिला के चेहरे पर मक्खियाँ लग रही थीं। मुझे समझते देर नहीं लगी कि उस बेसहारा, बेचारी के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। शायद रात में उसी वक़्त उड़ गए थे जब मैं उसे कंबल वग़ैरह ओढ़ा कर कुछ देर बाद यह समझ बैठा था कि अब वह ठंड से राहत मिलने के बाद आराम से सो रही है। 

मुझे बहुत दुख हुआ। अपने को दोषी मानते हुए मैंने सोचा कि जब पहली बार इसे ठंड से काँपते हुए देखा था तभी इसे हॉस्पिटल भिजवाने का प्रयास करना चाहिए था। इसे ट्रीटमेंट मिल जाता तो यह बेचारी बेमौत ना मरती। साथ ही मुझे बेहद आश्चर्य और ग़ुस्सा आ रहा था कि इंसानियत क्या दुनिया से बिल्कुल ख़त्म हो गई है कि एक मरते हुए प्राणी के तन पर से भी कपड़ा उठा ले गए। 

मैं मूर्तिवत खड़ा एकटक उसके चेहरे को देख रहा था। मुझे बड़ी आत्मग्लानि महसूस हो रही थी कि बेचारी मेरी नादानी से मर गई। मैं इतना मूर्ख हूँ कि कब मुझे क्या करना चाहिए यह भी तय नहीं कर पाता। तभी धीरज मेरी बग़ल में आकर खड़ा हो गया। उसने उसे देखते ही कहा, “अरे ये तो मर गई है।” 

“हाँ . . . लेकिन उस आदमी को क्या कहूँ जो इसका कंबल, शॉल भी उठा ले गया। कैसे-कैसे निष्ठुर लोग हैं इस दुनिया में।”

“निष्ठुर क्या, वह भी इसी के जैसा रहा होगा। उसे भी ज़रूरत रही होगी, तो ले गया। चलिए आइए। पुलिस आ गई तो दुनिया भर की पूछ-ताछ हम लोगों से करेगी।”

मैंने सोचा इसे बचा तो नहीं सका लेकिन कम से कम इसके अंतिम संस्कार का तो कुछ इंतज़ाम कर ही दूँ। मैंने धीरज से कहा, “पुलिस क्या आएगी। अभी तो कहीं ठंड में दुबकी सो रही होगी।” फिर मैंने जी.आर.पी. को सूचना दी। धीरज का मन नहीं था कि मैं यह सब करूँ। जी.आर.पी. ने मेरा मोबाइल नंबर, नाम सब नोट कर लिया। 

उन्हीं से पता चला कि कई महीने पहले एक ट्रेन से इसे लेकर कुछ लोग उतरे। फिर इसे यहीं छोड़ कर चले गए। यह कुछ विक्षिप्त-सी थी। कुछ बता नहीं पा रही थी। पूछ-ताछ करने पर बस रोती थी। बहुत कोशिश की गई, लेकिन कुछ पता नहीं चला। फिर इसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया गया। यहीं माँगती-खाती पड़ी रहती थी। उसकी व्यथा-कथा सुन कर मेरा हृदय रो पड़ा। बड़ा क्रोध आया उसके परिवार वालों पर कि कैसे कमीने लोग थे जो ऐसी हालत में बेचारी को बोझ समझ कर यहाँ लावारिस छोड़ गए। 

बड़े भारी मन से मैं धीरज के साथ स्टेशन से बाहर आ गया। उसके ढेर सारे सामान को बाहर लाने में मैंने पूरी मदद की थी। उसने अपनी आदत के विपरीत अपनी यात्रा कैंसिल कर दी थी। और घर चला गया था। हम दोनों ने एक दूसरे का मोबाइल नंबर ले लिया था। हम दोस्ती की राह पर चल पड़े थे। मैं बस स्टेशन की तरफ़ चल दिया कि कुछ तो साधन मिले। जिससे मैं घर अपने परिवार के पास पहुँचूँ। रात में कई घंटे सो लेने से मैं राहत महसूस कर रहा था। धीरज की तरह पस्त नहीं था। 

बड़ी मशक़्क़त के बाद मुझे ग्यारह बजे प्रयाग के लिए बस मिली। वहीं से मुझे किशनगंज के लिए ट्रेन मिलनी थी। बस स्टेशन से बस जब बाहर निकलने लगी तो मेरी नज़र स्टेशन में यात्रियों के बैठने के लिए बरामदे में बने सीमेंटेड बेंच पर चली गई। जो कंबल मैंने महिला को ओढ़ाया था वही ओढ़े एक अधेड़ सा व्यक्ति बैठा था। उसके ही बग़ल में उसी की हमउम्र एक महिला बैठी थी जिसने वही शॉल ओढ़ रखी थी जो मैंने रेलवे स्टेशन वाली महिला को ओढ़ाया था। मगर इस महिला को मैं इस मामले में अभागी नहीं कह सकता था। क्योंकि उसका पति या जो भी हो, कोई तो था जो उसके साथ था। 

बस रेंगती हुई और आगे बढ़ रही थी। और मेरी नज़र बस की खिड़की से बराबर उन दोनों पर लगी थी। धूल से गंदे उनके चेहरे, आदमी की धूल में सनी बरसों से ना बनाई गई उलझी हुई क़रीब-क़रीब पूरी ही पक चुकी दाढ़ी। वह दोनों भी भीख से अपनी ज़िन्दगी गुज़र-बसर करने वाले लग रहे थे। मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि यह दोनों उस महिला के मरने के बाद कपड़े उठा लाए थे या उसके जीते जी, जिसके कारण ठंड से वह मर गई। उनको मैं ओझल होने तक देखता रहा। बस अब तक स्टेशन से निकल कर मेन रोड पर आ चुकी थी। तभी मोबाइल पर पत्नी का फोन आ गया। सवेरे आठ बजे जब उसका फोन आया था तब मैंने उसे यहाँ जो कुछ हुआ वह नहीं बताया था। बस इतना कहा था कि टाइम से कुछ घंटे देर से पहुँचूँगा। 

फोन रिसीव करते ही वह सुबुकते हुए बोली, “बड़ा ग़ज़ब हो गया।” फिर उसने विस्तार से पूरी कहानी बता दी। कि मेरे साले की जिस लड़की से शादी होनी थी उसके चाचा अपने तीन बच्चों, पत्नी के साथ आ रहे थे। जिस ट्रेन का एक्सीडेंट हुआ उसमें उनकी परिवार सहित डेथ हो गई। लड़की वालों के यहाँ हा-हाकार मचा हुआ है। उसके परिवार के लोग डेड बॉडीज़ के लिए रवाना हो चुके हैं। शादी का होना तो अब मुश्किल ही लग रहा है। उसके परिवार वालों को जब फोन किया गया तभी उन्होंने ख़ुद ही कह दिया कि इस डेट में तो शादी नहीं होगी। सारे रिश्तेदारों को फोन कर करके मना किया जा रहा है। पत्नी को मैंने शांत रहने को कहा। वह उस समय अपने मायके पहुँच चुकी थी। मैंने सास-ससुर, साले से बात की। उन्हें धैर्य रखने को कहा। 

पत्नी को बता दिया कि अब इस समय मेरे आने का कोई मतलब नहीं रह गया है। इसलिए मैं बाद में आऊँगा। मैंने धीरज की तरह अपनी यात्रा कैंसिल कर दी। बस स्टेशन से क़रीब दो-तीन किलो मीटर आगे निकल चुकी थी। मैं उसे वहीं रुकवा कर उतर लिया। और वापस घर को चल दिया। रास्ते भर यही सोचता रहा कि इन सत्तर सालों में देश ने ना जापान, चीन से आगे विकास किया होता कम से कम उसके क़रीब तो होते। और तब देशवासी ऐसी दुर्घटनाओं, ठंड, ग़रीबी, भूख, गर्मी, से यूँ ही बेमौत में ना मर रहे होते। ऐसे परिवार के परिवार तबाह बर्बाद ना हो रहे होते। हे ईश्वर इस देश का भाग्य कब बदलोगे? देश के इन कर्ता-धर्ताओं से तो उम्मीद रही नहीं। अब तुम्हीं कुछ क़दम क्यों नहीं उठाते? मेरी यात्रा की तरह देश का विकास क्यों कैंसिल कर रखा है। हे ईश्वर, हे ईश्वर कुछ तो बोलो। 

3 टिप्पणियाँ

  • 6 Nov, 2023 05:09 PM

    'चार क़दम चलना और फिर दो क़दम पीछे हो जाना' भी विकास की ओर अग्रसर होना ही कहलाएगा...चार क़दम न सही दो क़दम ही सही। और फिर पिछले सत्तर-पचहत्तर वर्षों से तेज़ी से प्रगतिशील हुए जापान या अन्य देशों से भारत की तुलना करना जायज़ नहीं। कारण है भ्रष्टाचार, जो कभी मिट तो न पायेगा लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहुत सीमा तक नियंत्रित तो किया जा चुका है। ग्लास को आधा ख़ाली देखने की बजाय हमें आधा भरा देखना होगा। एक ही समस्या पर दो व्यक्तियों का विभिन्न दृष्टिकोण दर्शाती यह आलेख रूपी कहानी रोचक है।

  • 26 Oct, 2023 10:06 AM

    एक चलचित्र सा प्रतीत हुआ यह आलेख... वास्तविक स्थिति का वर्णन... कई प्रश्नों को जन्म देता यह आलेख पठनीय है एवं मार्गदर्शक भी

  • 26 Oct, 2023 12:26 AM

    मार्मिक सत्य

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
बात-चीत
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें