मेरी जनहित याचिका

01-08-2023

मेरी जनहित याचिका

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

आम के बाग़ को आख़िरी बार देखने पूरा परिवार गया था। मेरा वहाँ जाने का मन बिल्कुल नहीं था। माँ-पिता जिन्हें हम पापा-अम्मा कहते थे, की ज़िद थी तो चला गया। पापा ने अम्मा की अनिच्छा के बावजूद बाग़ को बेचने का निर्णय ले लिया था। बाग़ यूँ तो फ़सल के समय हर साल बिकती थी। और फ़सल यानी आम की फ़सल पूरी होने पर ख़रीददार सारे आम तोड़कर चलता बनता था। और पापा अगली फ़सल की तैयारी के लिए फिर कोशिश में लग जाते थे। 

लेकिन बाग़ की देखभाल, फिर फ़सल को बेचने के प्रयासों, हर साल आम के बौर या पेड़ में लगने वाले रोगों से बचाव का इंतज़ाम कर-कर के चार साल में ही वह थक गए थे। इसलिए पूरी बाग़ अपने ही पट्टीदार को बेच डालने का निर्णय कर लिया। उनका कहना था नौकरी करते हुए आम का व्यवसाय करना सम्भव नहीं है। 

वैसे भी आम के व्यवसाय की हालत को देखते हुए एक बीघे के बाग़ का कोई ख़ास महत्त्व नहीं है। हाँ एक समय था जब छह बीघे का बाग़ था। लखनऊ से सटे मलिहाबाद में छह बीघे के बाग़ को अच्छा-ख़ासा बाग़ माना जाता है। और बाबा की देख-रेख में तीन चाचा मिलकर आम के व्यवसाय को चमकाए हुए थे। 

पापा चौथे नंबर पर थे। लखनऊ में नौकरी के चलते उनके पास समय नहीं रहता था। दूसरे खेती-बाड़ी, बाग़-बगीचा में उनका मन नहीं लगता था। जब तक बाबा थे सब सही चलता रहा। लेकिन उनके स्वर्गवास के साथ ही सब एकदम बदल गया। सारे भाई यूँ तो अपने-अपने परिवार के साथ पहले से ही अलग-अलग रहते थे। 

गाँव में बाबा और सबसे छोटे वाला चाचा ही रहते थे। लेकिन बाबा के गुज़रते ही खेत, बाग़, मकान सब चुटकी में बँट गए। बँटवारे के समय थोड़ा विवाद हुआ जिससे भाइयों के रिश्ते में खटास आ गई। जितने भाई बाहर रह रहे थे उन सबने अपने-अपने हिस्से की सारी जायदाद आनन-फ़ानन में बेच डाली। 

किसी ने पैसा जमा करने में लगाया तो किसी ने मकान में तो किसी ने गाड़ी ख़रीदने में। पापा ने भी खेत, मकान का पैसा लेकर लखनऊ के मकान में ऊपर एक फ़्लोर और बनवा दिया। कुछ जमा कर दिया। बाग़ से मिलने वाले पैसों को मेरी बहनों की शादी को और बढ़िया करने में लगाना तय किया। ख़रीददार से पैसा लेने के बाद वह चाहते थे कि जो बाग़ बरसों-बरस से उनके बुज़ुर्गों का था, फिर उन्हें मिले। 

जिसमें खेलते-कूदते उनका बचपन बीता, अब उसे सब आख़िरी बार देख लें। क्योंकि अगले दिन रजिस्ट्री पर हस्ताक्षर के साथ ही बाग़ बिक जाएगा। मालिक बदल जाएगा। फिर उस तरफ़ देखने का भी कोई मतलब, कोई अधिकार नहीं होगा। उस समय पापा का व्यवहार कुछ ऐसा था, जैसे वो बाग़ नहीं बेच रहे बल्कि परिवार के किसी सदस्य को कहीं दूर यात्रा पर बहुत दिन के लिए विदा करने जा रहे हैं। 

बाग़ में पहुँच कर वे सारे लोगों को लेकर एक-एक पेड़ के पास पहुँचे, उन्हें छू-छू कर देखा। मानो उनके स्पर्श के अहसास को स्वयं में हमेशा के लिए समा लेना चाहते हों। हर पेड़ के साथ उनकी कई-कई यादें जुड़ी हुई थीं। जिसे वह बताते चल रहे थे। जैसे कोई गाइड टुरिस्ट को बताता है। एक पेड़ के साथ तो वह चिपट से गए। उस पेड़ का एक मोटा तना नीचे-नीचे बहुत दूर तक निकल गया था। पापा बताने लगे कि बचपन में एक बार वो अपने कुछ साथियों के साथ खेल रहे थे। खेल-खेल में गाँव के एक बिगड़ैल साँड़ को छेड़ दिया। वह साँड़ इन लोगों को मारने एकदम से पलटा और दौड़ा लिया। सब जान बचा कर भागे। 

मगर वह पीछे ही पड़ गया। पापा जान बचाने के लिए इसी मोटे तने पर चढ़ गए। कई और दोस्त भी चढ़ कर अपनी जान बचाने में सफल रहे। लेकिन एक साथी जो काफ़ी भारी बदन का था, वह साँड़ से बच नहीं पाया। उसकी उसी पेड़ के नीचे दर्दनाक मौत हो गई थी। उसकी मौत से उसकी माँ इतनी आहत हुई थी कि अपना मानसिक संतुलन खो बैठी। और साल भर बाद ही एक कुँए में कूदकर मर गई। 

अपनी यह याद बताते-बताते पापा भावुक हो उठे थे। उन्होंने उस पेड़ की एक टहनी तोड़ कर अपने साथ रख ली। उसमें कई पत्तियाँ भी लगी थीं। उनकी इस हालत पर माँ ने बच्चों के ही सामने कहा, “जब इतना लगाव है बाग़ से, तो पैसा वापस कर दो, मत बेचो।’ लेकिन पापा ने उनकी बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। और दूसरी बातें करते रहे। 

उस दिन बाग़ में ही खाना-पीना हुआ, एक तरह से पूरा दिन वहीं पिकनिक मनाई गई, और साँझ ढले गोमती नगर, लखनऊ में अपने घर वापस आ गए। उस दिन पापा ने हर पेड़ के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाई थी। हम भाई-बहनों ने मोबाइल से स्टिल फोटोग्राफी की और वीडियो भी बनाए। जिसे मैंने यू-ट्यूब पर ‘बाग़ में भावुकता से भरी एक पिकनिक’ नाम से अपलोड कर दिया था, जिसे बहुत लोगों ने पसंद भी किया। वापसी में उनकी भावुकता को ध्यान में रखते हुए गाड़ी बड़े भाइयों ने चलाई। पापा को आराम से बैठने के लिए कहा गया। उस दिन पापा रात भर ठीक से सोए नहीं। बड़े बेचैन रहे। रात में कई बार उठ-उठ कर बैठते रहे। 

अगले दिन रजिस्ट्री ऑफ़िस में जब बाग़ बेचने की प्रक्रिया पूरी करके आए तो उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे सर्वोच्च न्यायालय में वह अपनी किसी संतान के जीवन से जुड़ा मुक़द्दमा हार आए हैं। घर में माँ-बच्चों सबने माहौल को हल्का बनाने का पूरा प्रयास किया। माँ को कई बार यह भुनभुनाते हुए सुना गया कि ‘अजीब आदमी हैं। समझ में नहीं आता क्या चाहते हैं? जल्दी से जल्दी बेचने के लिए रात-दिन एक किए हुए थे। जब बिक गई तो ऐसा मुँह लटकाएं हैं जैसे ना जाने क्या कुछ लुट गया है।’ पापा कई महीनों तक ऐसे ही उखड़े-उखड़े रहते थे। फिर घर में सबके दबाव में आकर उन्होंने पुरानी कार बेच कर एक नई कार ली। दोनों बड़े भाइयों के पास बाइक थी। मेरे पास नहीं थी। तो मुझे भी एक बाइक ले दी। हालाँकि वह मेरा पसंदीदा मॉडल नहीं थी। मेरा मनचाहा मॉडल बहुत महँगा था। 

देखते-देखते बाग़ को बिके साल भर बीत गए। और पापा का अब सारा ज़ोर बहनों की शादी जल्दी से जल्दी कर देने पर केंद्रित हो गया। उनकी अफनाहट देख कर अम्मा कहती ‘अभी कौन सी उमर निकल गई है जो इतना ज़्यादा परेशान हुए जा रहे हो। अभी पढ़ाई भी तो पूरी नहीं हुई है। हम तो चाह रहे थे कि पहले सुबीर की शादी कर दी जाए। घर में एक बहू आ जाए तो अच्छा रहेगा।’ माँ बड़े भइया की शादी के लिए कहतीं। बल्कि उनकी तो इच्छा यह थी कि पहले और दूसरे भइया अभिनव की शादी पहले हो फिर लड़की की। क्योंकि दो बड़े भाइयों के रहते वह उनसे छोटी लड़की की शादी के पक्ष में नहीं थीं। 

वह यह तर्क भी देतीं कि ‘अभी वह बीस की भी पूरी नहीं हुई है। आज के ज़माने में लड़कियों की शादी इतनी जल्दी कहाँ हो रही है? फिर लड़की पढ़ने में तेज़ है। ऐसे में उसे इतनी जल्दी घर-गृहस्थी के चक्कर में डाल देना उसकी पढ़ाई चौपट कर देना है।’ लेकिन पापा पर अम्मा के किसी तर्क का कोई असर नहीं होता था। हाँ अम्मा की बातों से यह बात भी उभर कर सामने आई कि लड़कों की शादी पर उनका इतना ज़ोर देने के पीछे एक और भी मुख्य कारण था। 

ताऊ जी ने अपने तीनों लड़कों की शादी कर दी थी। सौभाग्य से आज के माहौल को देखते हुए उनकी तीनों बहुएँ ना सिर्फ़ काफ़ी पढ़ी-लिखी थीं। बल्कि अपने काम व्यवहार से घर को ख़ुशियों से भर दिया था। ताऊ जी, ताई जी अपनी बहुओं की तारीफ़ करते नहीं थकती थीं। दोनों लोग आए दिन कहीं ना कहीं घूमने-फिरने निकलते रहते थे। जो भी मिलता, वह जब तक रहता, तब तक उसके सामने उनका तारीफ़ पुराण चलता रहता। 

उनकी इन्हीं सब बातों का भूत अम्मा पर भी सवार था कि जल्दी से जल्दी दो बहुएँ तो घर में आ ही जाएँ। मगर पापा की इन बातों के सामने वह निरुत्तर हो जातीं। जब वह कहते कि ‘देखो अब मेरे रिटायरमेंट के कुछ ही बरस बचे हैं। मैं रिटायरमेंट से पहले लड़कियों की शादी हर हालत में कर देना चाहता हूँ। 

‘लड़कों से पहले इसलिए करना ज़रूरी समझता हूँ कि बहुओं के आने के बाद घर में माहौल ऐसा बन जाता है कि लड़कियाँ उपेक्षित पड़ जाती हैं। लड़के अपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं। माँ-बाप की ताक़त बुढ़ौती के चलते कम हो जाती है। फिर लड़कियों के लिए शादी ढूढ़ना, करना ऐसा दुष्कर कार्य बन जाता है कि सारा काम पिछड़ने लगता है। बिगड़ने लगता है। लड़कियाँ घर बैठी रह जाती हैं। 

‘अभी जो लड़के, जब कहता हूँ साथ चले चलते हैं हर जगह, उन्हीं के पास तब इस काम के लिए समय नहीं होगा। और ना ही इच्छाशक्ति। आज जो लड़के अपनी बहनों के लिए अच्छी से अच्छी शादी के लिए तत्पर हैं वही अपनी बीवियों के सामने चाह कर भी नहीं कर पाएँगे। और मैं अपनी बेटियों के लिए यह बिल्कुल नहीं चाहूँगा। फिर बेटों की शादी का क्या, जब चाहेंगे तब हो जाएगी। लड़कों की शादी के लिए तो ऐसी कोई समस्या होती नहीं।’ 

अम्मा उनकी बातों के आगे चुप रह जातीं। और फिर पापा ने अपनी इच्छानुसार रात-दिन एक कर चार साल के अंदर दोनों लड़कियों की शादी कर दी। सौभाग्य से दोनों बहनों की शादी अच्छे घरों में हुई। दोनों ही बहनोई अच्छी नौकरी कर रहे थे और बड़ी बात कि सज्जन भी थे। उनके दोनों दामाद उनकी उम्मीदों से कहीं ज़्यादा अच्छे निकले। इस बीच दोनों बड़े भाइयों का व्यवसाय भी ख़ूब चल निकला। दोनों भाइयों ने पढ़ाई की तरफ़ कभी विशेष ध्यान नहीं दिया तो इसी को देखते हुए पापा ने जल्दी ही दोनों को बिज़नेस करवा दिया था। 

दोनों ही लोगों का रूझान भी बिज़नेस ही की तरफ़ था। तो मन का काम मिलते ही दोनों भाई जी-जान से जुट गए। और सफल हुए। मेरा मन पढ़ाई की तरफ़ था तो मैं पढ़ता रहा। बहनों की शादी के बाद अम्मा की भी इच्छा पूरी हो गई। दोनों बेटों की शादी हो गई। कहाँ तो पापा लड़कियों की शादी रिटायरमेंट से पहले करने की कोशिश में थे। लेकिन अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के चलते वह इससे आगे निकल गए। रिटायरमेंट से छह महीने पहले दो लड़कों की भी शादी कर डाली। 

अपनी दोनों बहुओं से अम्मा-पापा बहुत तो नहीं हाँ कुल मिलाकर ख़ुश रहते थे। हाँ शुरूआती चार-छः महीने ज़रूर बहुत ख़ुश रहे। मगर जल्दी ही बात बदल गई। दूसरी बहू के आने के बाद यह कुछ ज़्यादा ही तेज़ी से बदली। फिर वह समय भी जल्दी आ गया कि घर में आए दिन चिक-चिक होने लगी। दोनों भाभियों के होने के बावजूद हर हफ़्ते कई अवसर ऐसे आने लगे कि पापा-अम्मा और ख़ुद मुझे अपने लिए भी चाय-नाश्ता बनाने की नौबत आ गई। 

हमेशा ख़ुश रहने वाले अम्मा-पापा और ख़ुद मैं अब शांत रहने लगे। बड़ी भाभी के दोनों बेटे जो पाँच-छह साल के थे, उनके खेलकूद के चलते हम तीनों का मन थोड़ा बहल जाता। छोटी भाभी अपने क़रीब दो वर्षीय बेटे को घर के किसी सदस्य तक पहुँचने ही नहीं देतीं। 

मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब ना हो इसके लिए मैं पूरी कोशिश करता। पापा-अम्मा की तबियत अब इन्हीं चिंताओं के कारण ख़राब रहने लगी। फिर एक दिन मैं कॉलेज से लौटा तो देखा अम्मा-पापा सुबह से कुछ खाए-पिए बिना बैठे हुए हैं। नाश्ता के नाम पर कुछ बिस्कुट और पानी पिया था। 

जाने क्या हुआ कि उस दिन दोनों भाभियों ने किचन की ओर रुख़ ही नहीं किया। अपने लिए वो लोग होटल से कुछ मँगा चुकी थीं। यह जान कर मुझे बहुत ग़ुस्सा आया। मैं बात कुछ आगे बढ़ाता कि अम्मा-पापा दोनों ने मुझे रोक दिया। मैं नहीं मान रहा था तो अम्मा ने अपनी क़सम दे दी। 

मैंने देखा उनकी आँखें भरी हुई थीं। होंठ फड़क रहे थे। पापा की तरफ़ देखा तो क़रीब-क़रीब यही हाल उनका भी था। उन दोनों को इतना परेशान मैंने कभी नहीं देखा था। मैंने जब पूछा क्या हुआ? तो दोनों कुछ नहीं, कुछ नहीं करते रहे। मगर अम्मा का गला लाख कोशिशों के बाद भी रुँध गया तो मैं अड़ गया। तब अम्मा ने बताया कि क्या हुआ। जिसे सुन कर मेरा ख़ून खौल उठा। 

बात सिर्फ़ उसी दिन की नहीं थी। पिछले कई महीनों से ये चल रहा था। दोनों भाभियाँ पापा से बैंक में जमा सारा पैसा आधा-आधा माँग रही थीं। कह रही थीं कि ‘बिज़़नेस को ठीक से और आगे बढ़ाने के लिए पैसे दीजिए। क्या करेंगे रख कर? आख़िर हमारा भी कोई हक़ है। रात-दिन काम करते हैं। क्या हमें नौकरानी बना कर लाए हैं?’ 

पापा ने जब कहा कि ‘पैसा समीर की पढ़ाई, शादी के लिए है। तुम सबके लिए जो करना था वह सब कर ही चुका हूँ। दोनों को पहले ही कितना पैसा लगा कर बिज़नेस करवाया है। बिज़नेस अच्छा चल भी रहा है। अब जो भी है यह छोटे के लिए है। आख़िर उसके लिए भी तो कुछ करेंगे। वह बिज़नेस की जगह पढ़-लिख कर नौकरी करना चाहता है।’ लेकिन दोनों भाभियाँ नहीं मानीं। एक ही रट लगाए रहीं कि ‘पढ़ाई तो आप पेंशन से ही करा लेंगे। वह पढ़ने में तेज़ हैं, नौकरी भी ले ही लेंगे।’ लेकिन पापा ने मना कर दिया। पापा ने आख़िर दोनों भाइयों से पूछा। ‘ये क्या हो रहा है? तुम दोनों क्या घर की हालत नहीं जानते?’ 

इस पर भाइयों ने कहा कि ‘उन्हें तो यह सब पता ही नहीं है। उन्होंने कभी एक पैसा माँगने की छोड़िए ऐसा सोचा भी नहीं।’ फिर दोनों ने अपनी-अपनी बीवियों को बहुत डाँटा। कुछ दिन शांत रहने के बाद दोनों फिर पुराने ढर्रे पर लौट आईं। भाइयों के जाते ही अम्मा-पापा को प्रताड़ित करने लगीं। घर में कोई झगड़ा ना हो यह सोच कर अम्मा-पापा भाइयों तक बात पहुँचने ना देते। इससे उनकी हिम्मत और बढ़ गई। 

लेकिन घर की बात घर के ही लोगों से कब तक छिपाई जा सकती थी। भाइयों को फिर पता चला तो वह बिगड़ गए। छोटे भाई ने बीवी से यहाँ तक कह दिया कि ‘बदतमीज़ी बर्दाश्त नहीं करूँगा। ज़्यादा बदतमीज़ी की तो मायके भेज दूँगा।’ फिर मियाँ-बीवी में ही रोज़ झगड़ा होने लगा। 

अम्मा-पापा बहुओं के हाथ-पैर तक जोड़ने लगे कि ‘आख़िर क्यों कलह कर रही हो? सारी प्रॉपर्टी है तो तुम्हीं लोगों की। हम लोग हैं ही कितने दिनों के मेहमान?’ दोनों को शांत करने के लिए पापा ने कुछ रुपए निकाल कर दे भी दिए। लेकिन उनकी यह कोशिश ढाक के तीन पात साबित हुई। बहुएँ अब और बढ़-चढ़ कर उत्पात करने लगीं। सारी बात भाइयों तक पहुँच नहीं पा रही थी। 

पापा-अम्मा बहुओं के हाथ-पैर जोड़-जोड़ कर मनाते, समझाते कि घर में कलह ना करो। इन सब वजहों से दोनों बहुत परेशान थे। अम्मा ने अपनी क़सम देकर मुझे भी चुप करा दिया था। उस दिन मैंने अम्मा के लाख मना करने पर भी खिचड़ी बनाई। उन दोनों के साथ खाने बैठा। पहले कभी किचन का रुख़ नहीं किया था। उस दिन पहली बार खिचड़ी बनाई तो नमक डालना भूल गया। और जल अलग गई थी। 

पहले घर में इस तरह का खाना हमने क्या किसी ने नहीं खाया था? मगर किसी तरह हम तीनों ने भूख मिटाने की कोशिश की। हम तीनों ही उस खिचड़ी को ठीक से खा नहीं सके। अम्मा की तबियत ऐसी थी कि अगले कई दिनों तक वह किचन में जाने लायक़ नहीं थीं। तो उस दिन अम्मा से पूछ-पूछ कर रात का खाना भी मैंने बनाया। भाई दुकानें बंद कर के देर रात लौटते थे। और खाना अपने ही कमरे में खाते थे। तो उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं चला। यह क्रम कई दिन चलता रहा। 

इससे घर में शान्ति आ गई। मैंने सोचा अगर खाना-पीना अलग करने से शान्ति बनी रह सकती है तो क्यों ना सब अलग-अलग हो जाएँ। रोज़-रोज़ की चख-चख तो ख़त्म हो जाए। आख़िर भाइयों से कितने दिन यह बात छिपेगी। मैंने सोचा चलो किसी दिन भाइयों से बात करके अलग कर लेंगे। सही अवसर की प्रतीक्षा में आठ-दस दिन निकल गए। इस बीच शान्ति बनी रही तो मैंने सोचा शायद भाभियों को अपनी ग़लती का अहसास हो गया है। तो मैं थोड़ा लापरवाह हो गया। 

इस बीच मैं दोनों टाइम खाना बना लिया करता था। मगर अम्मा-पापा की ख़ुशी नहीं लौटा पा रहा था। वे अपने पोतों को गोद में लेने, खिलाने के लिए तरस रहे थे। उन्हें अपनी माँओं के साथ सामने से निकल कर जाता देख उनकी आँखें भर-भर आतीं। बच्चे भी अपने दादा, दादी, चाचा के पास आने को व्याकुल रहते लेकिन माँओं की सख़्ती के आगे वे भी विवश थे। 

क्योंकि उनकी माँ उन्हें बाबा दादी की तरफ़ बढ़ता देख कर बेतरह डाँटतीं, पीट भी देतीं। जानबूझ कर ऐसी जली-कटी बातें कहतीं कि पत्थर का कलेजा भी फट जाए। मेरे सामने तो जानबूझ कर कहतीं कि बात बढ़े। बवाल हो। लेकिन मैं अम्मा-पापा की तबियत, और माँ की क़सम के आगे विवश हो चुप रहता। भाभियों को इससे भी चैन ना मिला। 

क़रीब तीन हफ़्ते की शान्ति के बाद जब एक दिन मैं नहीं था तो भाभियों ने पापा-अम्मा से फिर झगड़ा किया। इस बार सिर्फ़ पैसा ही नहीं गहने भी निकाल कर देने को कहा। अम्मा ने मना कर दिया तो अंड-बंड बातें कीं। धक्का-मुक्की भी। जिससे अम्मा गिर कर बेहोश हो गईं। उन्हें बेहोश देख पापा ने मुझे फोन किया ‘तुरंत आओ तुम्हारी माँ की तबियत ज़्यादा ख़राब है।’ यह नहीं बताया क्यों। 

घर पहुँचा तो वहाँ कई पड़ोसियों को देख कर सहम गया। अम्मा बेड पर आँखें बंद किए हुए पड़ी थीं। पापा सोफ़े पर भरी-भरी आँखें लिए रुआँसे से बैठे थे। मैंने पूछा तो बोले, “अब सब ठीक है।” कुछ क्षण चुप रहने के बाद फिर कहा, “बेटा कहीं और छोटा-मोटा मकान किराए पर ले लो। वहीं रहेंगे। अब यहाँ ठिकाना नहीं।” और फिर लाख कोशिशों के बावजूद वह फफक कर रो पड़े। उन्हें रोता देख मेरा ख़ून खौल उठा। मैंने ज़िद पकड़ ली कि बताइए क्या हुआ? आज मैं क़सम-वसम कुछ नहीं मानूँगा। 

रोज़-रोज़ झगड़े से अच्छा है एक दिन निर्णय हो जाए। तभी पड़ोस की आंटी बोलीं, “बेटा पहले माँ-बाप की ज़िन्दगी देखो। फिर जो करना हो शान्ति से मिल बैठ कर बात कर लो सारे भाई। नहीं ऐसे तो किसी दिन कोई अनर्थ हो जाएगा। बूढ़ा-बूढ़ी की जान चली जाएगी।” फिर जो बातें मालूम हुईं उससे मैं अपना आपा खो बैठा। भाइयों को तुरंत फोन कर बुलाया। 

दोनों भाइयों को जब अपनी बीवियों की करतूतें पता चलीं तो उनकी आँखें आश्चर्य से फटी रह गईं। दोनों ने अपनी बीवियों को ख़ूब डाँटा। पीट भी दिया। बड़ी तो शांत हो गई पति के रौद्र रूप को देख कर लेकिन छोटी ने रोना-पीटना शुरू कर दिया। चीख-चिल्ला कर आसमान सिर पर उठा लिया। घर के दरवाज़े पर एक बार फिर पड़ोसी इकट्ठा हो गए। 

घंटों की उठा-पटक के बाद किसी तरह सब शांत हुए। और पापा की ज़िद के आगे सभी को झुकना पड़ा। सबके किचन और मकान में सबका हिस्सा उन्होंने अलग कर दिया। दोनों भाई कहते रहे कि ‘पापा हम लोग ऐसा कुछ नहीं चाहते।’ मगर पापा का एक ही तर्क था कि ‘देखो मैं नहीं चाहता कि हम दोनों की वजह से तुम लोगों की लाइफ़ डिस्टर्ब हो। हम दोनों अब कितने दिन के मेहमान हैं। तुम लोगों की पूरी लाइफ़ पड़ी है। तुम सब की लाइफ़ अगर हम मियाँ-बीवी के कारण डिस्टर्ब हो तो यह तो हमारे लिए और भी दुख की बात है। 

‘इसलिए भलाई इसी में है कि तुम लोग हमारी बात मानो। अपने परिवार के साथ ख़ुश रहो। हम दोनों भी अपना जीवन किसी तरह काट ही लेंगे। अब ज़िन्दगी के लिए बचा ही क्या है? एक छोटे की शादी की ही चिंता है। अपने जीते जी वह भी कर दूँ तो मुक्ति पा लूँ इस ज़िन्दगी से। इन कुछ ही दिनों में इतना कुछ देख लिया है, ज़िन्दगी के ऐसे-ऐसे रंग देख लिए हैं कि मन भर गया है। भगवान जितनी जल्दी उठा लें उतना अच्छा।’ पापा यह कहते जा रहे थे और रोते भी। 

हम सारे भाई उन्हें समझा-समझा कर चुप कराने में लगे रहे। मगर वह यह कह कर फूट पड़ते कि ‘यह दिन भी देखने पड़ेंगे ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था। आख़िर ऐसा कौन सा पाप किया था कि हमारे परिवार का यह हाल हो गया। घर के सदस्य इस तरह दुश्मनों सा व्यवहार कर रहे हैं।’ जिस कमरे में हम लोग बातें कर रहे थे उसके पीछे वाले कमरे में अम्मा सो रही थीं। जो डॉक्टर उन्हें देखने आए थे, उन्होंने कहा था कि ‘इनका बीपी, हॉर्ट बीट बहुत बढ़ गए हैं। इन्हें आराम की सख़्त ज़रूरत है। ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए जिससे इन्हें तनाव हो। इससे इनकी जान ख़तरे में पड़ सकती है।’ जब वह घर आया था तो माहौल देख कर उसे बहुत कुछ मालूम हो गया था। 

हम तीनों भाई कमरे में पापा के साथ थे। उनकी भी तबियत ना ख़राब हो जाए इसी उद्देश्य से सब कुछ सामान्य सा दिखाने में लगे हुए थे। पापा ने समस्या के समाधान के लिए सबको जो अलग किया था उसे बिल्कुल पुख़्ता कर देना चाहते थे। बार-बार दोहरा रहे थे कि ‘अब एक साथ रहना सम्भव नहीं है।’ मैं भी उनकी बात से सहमत था कि भाभियों का जैसा व्यवहार है, उसे देखते हुए तो एक साथ रहना सम्भव ही नहीं है। मगर दोनों भाई दिमाग़ से ज़्यादा भावना से काम ले रहे थे। और भावना में बहकर पापा को समझाने में लगे थे कि ऐसा कुछ ना करें। वो लोग अपनी बीवियों को समझा लेंगे। अब फिर ऐसी समस्या नहीं होगी। तभी एक और धमाका हुआ। हम सभी किसी अनहोनी की आशंका से सहम गए। 

पता चला कि मँझली भाभी अपनी स्कूटर लेकर बहुत ग़ुस्से में कहीं चली गई हैं। मैं उनसे ग़ुस्सा होने के कारण उठकर नहीं गया। लेकिन जब आधा घंटा से ज़्यादा समय बीत गया तो मुझे चिंता हुई। पापा तो सुनते ही किसी अनिष्ट की आशंका से डर गए थे। बार-बार मुझे भी ढूँढ़ने जाने के लिए कह रहे थे। आख़िर मैंने मँझले भाई को फोन किया को तो उन्होंने कॉल रिसीव ही नहीं की। फिर बड़े वाले को किया तो उन्होंने कहा, “कुछ पता नहीं चल रहा है। मोबाइल ऑफ़ किया हुआ है।”

यह सुन कर मैं भी सन्न रह गया। ऐसे में जो होता है वही हुआ। तुरंत बुरे ख़्याल मन में आने लगे कि वह कहीं कोई ग़लत क़दम ना उठा लें। आज कल तो लोग ज़रा सी बात पर सुसाइड कर ले रहे हैं। कहीं भाभी ने यह क़दम उठा लिया तो पूरा घर तबाह हो जाएगा। भइया का तो जीवन ही बर्बाद हो जाएगा। बच्चे को कौन देखेगा। बिना माँ के बच्चा कैसे जिएगा? यह बात मन में आते ही मैं तुरंत गोमती नदी पुल की ओर भागा। बाईक जितनी तेज़ चला सकता था उतनी तेज़ चलाई। 

सोचा यह नदी ना जाने कितनों को समेट चुकी है। उस सूची में मेरे घर के किसी सदस्य का नाम ना जुड़े, इस भावना से यही प्रार्थना करता नदी की हर उस संभावित जगह पर गया जहाँ अक़्सर ऐसे कांड हुए। इस बीच भाइयों को भी फोन कर के पता करता रहा। हर बार निराशा हाथ लगी। मैं दो-ढाई घंटे में घर वापस आ गया। दोनों भाई मुझसे कुछ देर पहले आ चुके थे। 

सबके चेहरे पर हवाइयाँ दौड़ रही थीं। क्या किया जाए किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई जाए। उनके मायके बताया जाए कि नहीं यही सब बातचीत कुछ देर चली फिर यह तय हुआ कि अभी और खोजबीन कर ली जाए। जहाँ तक हो किसी को बताया ना जाए। फिर यह समस्या आई कि तीन लोग इतने बड़े शहर में उन्हें कहाँ ढूँढ़ेंगे। आख़िर तय हुआ कि कुछ और क़रीबी रिश्तेदारों को साथ ले लिया जाए। इसके लिए कई लोगों को फोन कर मदद के लिए कहा गया। 

घर आने में लोग समय ना गँवाए इसलिए बोल दिया गया कि जो जहाँ है वहीं से चला जाए ढूँढ़ने। हम तीनों ने पापा को धैर्य से काम लेने को कहा। अम्मा अभी भी सो ही रही थीं। मुझे पापा की हालत देख कर और ज़्यादा घबराहट हो रही थी। उन्हें अकेले छोड़ने का मन नहीं हो रहा था। हालात ऐसे बन गए थे कि बड़ी भाभी से कुछ कहने या उन्हें नीचे कमरे में बुलाने की हिम्मत किसी में नहीं हो रही थी। अंततः मन मसोस कर हम तीनों भाई उठे कि चलें देर हो रही है। मगर तभी घंटी बजी। 

मुझे लगा जैसे भाभी ग़ुस्सा ठंडा होने पर आ गईं हैं। लेकिन गेट पर पहुँचा तो पुलिस जीप देख कर सहम गया। पूरे शरीर में सनसनाहट होने लगी। पसीना होने लगा। किसी अनहोनी की आशंका से मन काँप उठा। भाइयों के चेहरे का भी रंग उड़ गया था। लपक कर सब इंस्पेक्टर के पास पहुँचे कि क्या हुआ? तो उसने जो बताया उसे सुनकर पापा वहीं बेहोश होकर गिर पड़े। हम भाइयों के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। 

मँझली भाभी ने थाने में धारा 498 (दहेज़ प्रताड़ना क़ानून) के तहत हम तीनों भाइयों, पापा-अम्मा के ख़िलाफ़ एफ़.आई.आर. दर्ज कराई थी। साथ ही जान से मारने का प्रयास भी जुड़ा था। हम सब गिड़गिड़ाने लगे कि यह सब झूठ है। घर में दहेज़ का तो कभी नाम ही नहीं लिया गया। यह मामूली घरेलू कलह के अलावा कुछ नहीं है। बड़ी भाभी को भइया ने सामने लाकर खड़ा कर दिया। कहा कि ‘घर की ये बड़ी बहू हैं। इन्हीं से पूछताछ कर लीजिए, क्या इन्हें एक शब्द भी कभी दहेज़ के लिए कहा गया है।’ 

इस बीच जो डॉक्टर अम्मा को देख कर गए थे उन्हें ही फोन कर बुलाया गया कि पापा को भी देखें। पापा-अम्मा की हालत देख कर पुलिस का रुख़ थोड़ा नरम था। लेकिन उसने भी साफ़ कह दिया कि ‘हम क़ानून के आगे विवश हैं। इस धारा में गिरफ़्तारी तो किसी भी सूरत में नहीं रुक सकती। रिपोर्ट झूठी है या सही यह कोर्ट ही तय करेगी। हाँ रिपोर्ट लिखाने वाला रिपोर्ट वापस ले ले तो ही बात बन सकती है।’ यह सुनते ही मैंने भाभी के बारे में पूछा कि वह कहाँ हैं? मैंने सोचा कि उनके हाथ-पैर जोड़ कर उन्हें समझाऊँ कि रिपोर्ट वापस ले लें। दहेज़ को लेकर तो कोई बात ही नहीं हुई। 

पापा ने तो शादी के समय उनके फ़ादर के सामने अचानक आर्थिक समस्या आ जाने पर उनकी मदद भी तुरंत की थी। कहा था कि ‘अब आप हमारे रिश्तेदार हैं। हमारा मान-सम्मान एक है। हमें एक दूसरे का पूरा ध्यान रखना है।’लेकिन पुलिस ने उम्मीदों पर और पानी फेर दिया कि ‘वह एफ़.आई.आर. लिखाने की ज़िद पर अड़ी रहीं। और लिख जाने के बाद मायके जाने की बात कहकर जाने लगीं तो उन्हें मेडिकल चेकअप के लिए रोक लिया गया। उनके घर के लोग आ चुके हैं। आप लोगों को चलना ही हो होगा।’ इस बीच डॉक्टर ने यह कहा कि ‘मदर-फ़ादर दोनों की हालत सीरियस है।’ तो पुलिस ने उन्हें सरकारी हॉस्पिटल में एडमिट करा दिया। मगर गिरफ़्तारी किसी की नहीं रुकी। 

इस बीच सारे रिश्तेदारों को फोन किया गया। लेकिन कुछ लोग ही मदद को आगे बढ़े। दोनों भाई स्थानीय व्यापार मंडल के सदस्य थे। एक उसमें पदाधिकारी भी थे। तो व्यापारियों का भी एक हुजूम मदद को थाने पहुँचा। लेकिन पुलिस ने साफ़ कह दिया की ‘अब जो भी हो सकता है वह कोर्ट ही से हो सकता है।’ भाभी के मायके वाले लाख कोशिशों के बावजूद भी सामने नहीं आए। बात नहीं की। अगले दिन हम तीनों भाई तमाम क़ानूनी पचड़ों को पूरा कर जेल पहुँच गए। पापा-अम्मा भी तबियत ठीक होते ही जेल आ गए। वहाँ उनकी हालत देख कर भाभी की हरकत पर ख़ून खौल उठा। पापा-अम्मा हफ़्ते भर में ही आधे हो गए थे। अम्मा जिन्हें पहले कभी चलने के लिए छड़ी या किसी सहारे की ज़रूरत नहीं थी वही अब छड़ी लेकर मुश्किल से चल पा रही थीं। 

इस बीच बहनोइयों ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया कि समझौता हो जाए। मामला ख़त्म हो। सब शान्ति से रहें। जो बात हुई ही नहीं आख़िर पूरे परिवार को उसी आरोप में क्यों जेल में सड़ाया जाए। लेकिन भाभी के परिवार का दो टूक जवाब कि ‘नहीं दहेज़ प्रताड़ना ही का मामला है। मेडिकल चेकअप में चोट के निशान साफ़ मिले हैं।’ भइया ने ग़ुस्से में जो हाथ उठाए थे उन्हीं के एक-दो स्याह निशानों को वो गंभीर चोटें बता रहे थे। जान से मारने का प्रयास बता रहे थे। 

बड़ी भाभी ही बच्चों के संग घर में बची थीं। उनका नाम छोटी ने अपनी रिपोर्ट में शामिल नहीं किया था। क्योंकि वह दोनों मिल कर ही तो कोहराम मचा रही थीं। लेकिन ग़नीमत रही कि उन्होंने रिपोर्ट नहीं लिखाई। बाद में वह बच्चों के संग मायके चली गईं। घर पर ताला लटक गया। मुक़द्दमा आगे बढ़ा। पेशियाँ शुरू हुईं। बहनोई जल्दी-जल्दी पेशी लगवा कर मामला जल्दी निपटाने के प्रयास में जुटे। सुलह की भी कोशिश करते रहे। मगर शर्त आई कि सारा ख़र्च दें। और पूरा मकान भाभी के नाम लिख दिया जाए। 

पापा शर्त मानने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने साफ़ कहा, “दुनिया के सामने हम दहेज़ लोभी बन गए। हत्या की कोशिश करने वाले बन गए। जिस दरवाज़े पर कभी पुलिस नहीं आई। वो पूरा घर आज जेल में है। जो सोचा भी नहीं था वह सब ज़लालत झेल रहा है परिवार। आख़िर अब बचा ही क्या है? जिसको बचाने के लिए हम उसे मकान देकर सड़क पर भीख माँगें। 

“आज यह देंगे कल को दुकान, पेंशन भी माँगेगी। फिर क्या करेंगे? फिर इसको देंगे, तो दूसरी भी माँगेगी। उसे कहाँ से लाकर देंगे? अपना हाड़-माँस बेच देंगे तो भी ना दे पाएँगे।” मुलाक़ात के वक़्त पापा अपनी लड़कियों-दामादों के सामने रो-रोकर कहते कि ‘बेटा यहाँ जो गति हो रही है उससे तो लगता ही नहीं कि हम यहाँ से जीवित निकल पाएँगे। 

‘सही कहूँ बेटा तो अब हम घर जाना भी नहीं चाहते। जितनी बेइज़्ज़ती दुनिया के सामने हुई है। जिस तरह टीवी, पेपर में हमारा तमाशा बना है। उसके बाद तो अब जीने का मन नहीं करता। सारी दुनिया हमीं पर थूक रही है। हमें ही सारा दोष दे रही है। अरे कोई एक बार नहीं पूछता कि बहू कैसी है? मेडिकल रिपोर्ट हवा में लहराते टीवी एंकर चिल्लाते हैं कि ससुराल वालों ने बेरहमी से बहू को पीटा। लेकिन कोई एक बार भी नहीं पूछता कि उसने कितनी बार हमें मारा। धमकी दी। हमने तो रिपोर्ट नहीं लिखाई। नियम तो वृद्धों की सुरक्षा का भी है।’ उसी दिन हम लोगों को यह भी पता चला कि भाभी पहले भी कई बार झगड़ा कर चुकी हैं। धक्का-मुक्की बहुत बार किया। दो-तीन बार हाथ भी उठा चुकी थीं। हर बार जेल में सड़ा देने की धमकी देकर माँ-बाप का मुँह बंद किए रहती थीं। 

यह सब जान कर हम सारे भाई उबल पड़े। हम सबने कहा कि यह बातें समय से मालूम हो जातीं तो यह नौबत ना आती। मैंने बहनोई से कहा कि ‘वकील से बात करें कि क्या अब वृद्ध माता-पिता को मारने-पीटने, धमकाने, ब्लैकमेल करने के आरोप में एफ़.आई.आर. हो सकती है? यदि हो सकती है तो किया जाए। उसने हमारे ख़िलाफ़ झूठी रिपोर्ट लिखाई, हम क्या सच भी नहीं लिखा सकते?’ लेकिन मेरी बात पूरी होते ही पापा ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “नहीं, ऐसा कुछ मत करना। हम भी वही करेंगे तो हममें उसमें फर्क़ क्या रह जाएगा?” और फिर पोते का नाम लेकर बोले, “अगर बहू भी जेल चली गई तो उसकी देखभाल कौन करेगा? बाप तो यहाँ है। बेचारा लावारिस हो जाएगा।” 

तभी भइया बोले, “जब उनकी लड़की भी जेल में होगी तब उन्हें पता चलेगा कि जेल, पुलिस, समाज में बेइज़्ज़ती की पीड़ा क्या होती है। तभी वह केस वापस लेगी। 

“जब तक केस वापस नहीं होगा तब तक कुछ नहीं होगा। हम जेल में ही सड़ते रहेंगे। अभी ज़मानत तक नहीं हो पाई है। हम तो जो सच है वही कहेंगे। उसकी तरह झूठ तो नहीं कहने जा रहे।” लेकिन सब बेकार। सारे तर्क फ़ेल। पापा पुत्र नहीं, पोता मोह में टस से मस ना हुए। और अम्मा वह तो कुछ बोलती ही नहीं थीं। हर बात का जवाब हाँ, हूँ। वह भी कई बार पूछने पर। जेल में आने के बाद उनकी सेहत तेज़ी से गिरती जा रही थी। ज़मानत की सारी कोशिश बेकार हो रही थी। कुछ न कुछ अड़ंगा हर बार लग जा रहा था। कभी केस का नंबर नहीं आता। तो कभी नंबर आया तो जज साहब उठ गए। या फिर वकीलों ने बायकॉट कर दिया। 

जज साहब के अचानक ही चले जाने पर मन में बड़ी ग़ुस्सा आता कि हर चीज़ पर स्वतः संज्ञान लेने वाले न्याय-मूर्तियों इस बात का स्वतः संज्ञान कब लेंगे? दूसरे पक्ष के लोग कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे केस को उलझाए रखने के लिए। यही सब करते छह सात महीने बीत गए। इसी बीच एक पेशी के लिए माँ जब जेल से कोर्ट पहुँचीं तो वहीं अदालत में जज के सामने बेहोश हो कर गिर गईं। जज के आदेश पर तुरंत हॉस्पिटल पहुँचाया गया। लेकिन डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। पता चला कि ‘सडन कॉर्डिएक अरेस्ट’ हुआ था। 
उनका हृदय अपनी बहू द्वारा धोखे से दी गई विपत्ति का बोझ नहीं सह पाया था। कोर्ट के आदेश पर हमें उनके अंतिम संस्कार के लिए छोड़ा गया। संस्कार पूरा करते ही हम फिर जेल में थे। पापा की हालत भी हमें बराबर भयभीत किए जा रही थी। इस बीच आर्थिक रूप से घर पूरी तरह बर्बाद होने के कगार पर पहुँच गया। भाइयों की दूकानें उसी दिन से बंद थीं। बहनोई बराबर लगे रहे। पैसा भी ख़ूब ख़र्च कर रहे थे। बहनें जब मिलने आईं तो उनसे हम लागों ने कह दिया कि जब बाहर आएँगे तो सारा पैसा दे देंगे। बहनोइयों को जब पता चला तो वो नाराज़ हुए कि ‘यह सब सोचने की ज़रूरत नहीं है। आख़िर हम भी परिवार के सदस्य हैं।’ 

असल में बहनों, बहनोइयों का व्यवहार ही उस विपत्ति में हमें जीने की ताक़त दे रहा था। उठ खड़े होने की कोशिश के लिए प्रेरित कर रहा था। तो उन लोगों की मेहनत का परिणाम आया। हमें ज़मानत मिल गई। इस बीच बड़ी भाभी का भी हृदय परिवर्तन हुआ। उन्होंने आकर हम सब से माफ़ी माँगी। कहा कि ‘हम छोटी के बहकावे में आ गए थे। हमें बहुत पक्षतावा है।’ उनकी माफ़ी, उनके आँसू देख कर पापा ने उन्हें माफ़ कर दिया। उनके परिवार ने भी मदद शुरू कर दी। बड़ी भाभी के बयानों ने अहम भूमिका निभाई। 

कई साल मुकदमेबाज़ी के बाद अंततः हम जीत गए। सभी लोगों को कोर्ट ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया। छोटी और उसके मायके वालों को सख़्त चेतावनी मिली। पुलिस वालों को दोनों पक्षों की विवेचना ठीक से ना करने के लिए चेतावनी मिली। तब पापा ने तमाम बातों के साथ यह बहुत क्रोधित होकर कहा कि ‘हमारी गिरफ़्तारी पर तो यह मीडिया बड़ा चीखा था। लेकिन बाइज़्ज़त बरी होने पर एक शब्द नहीं बोल रहा। उसे तो यह भी नहीं मालूम कि हम बाइज़्ज़त जीत गए हैं। ऐसे मीडिया से तो अच्छा है कि देश बिना मीडिया के ही रहे।’ उनका ग़ुस्सा जायज़ ही था। लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट में जीतने के बाद हमें शंका थी कि छोटी सुप्रीम कोर्ट जाएगी। हालाँकि वकील ने पूरा विश्वास दिलाया कि केस उनके इतना ख़िलाफ़ है, हाई कोर्ट ने ऐसा फ़ैसला सुनाया है कि वहाँ केस पहली पेशी में ही ख़ारिज हो जाएगा। मगर हम लोगों के मन से डर नहीं निकल रहा था। 

इसके पहले ज़मानत मिलने के बाद दोनों भाई किसी तरह अपना बिज़नेस पटरी पर लाने में सफल हो गए थे। घर जो बहुत दिन तक बंद रहने के कारण भूत घर बन गया था उसे हमने बहुत कोशिश की। बड़ी भाभी ने भी लेकिन घर की रौनक़ नहीं लौटी। घर में हर तरफ़ माँ का आँसू भरा चेहरा दिखाई देता। लगता जैसे उनकी सिसकियाँ सुनाई दे रही हैं। बड़ी भाभी से भी अब किसी का पहले जैसा लगाव नहीं बन पा रहा था। भइया का भी। हालाँकि भाभी अपनी तरफ़ से जी-जान से लगीं थीं। 

हमेशा हँसी-मज़ाक करने वाले बड़े भइया अब बहुत गंभीर हो गए थे। दोनों भतीजे भी शांत रहते थे। उनकी बाल सुलभ-चंचलता, शरारत सब विलुप्त हो गई थी। पापा अब मशीनी मानव से बन गए थे। भावहीन चेहरा लिए कभी इधर तो कभी उधर बैठे रहते। रात में जागते मिलते। किसी से भी काम के अलावा कोई बात न करते। उनका मन बहला रहे इसके लिए हम लोगों ने कोशिश की कि उन्हें दुकान पर बैठाया जाए, लेकिन वह चुप रहे। मगर गए नहीं। घूमने-फिरने के लिए लाख कहने के बाद भी टस से मस नहीं होते। 

समय बीतने के साथ परिवार की ज़िन्दगी चलने लगी। पापा अब फिर मेरी पढ़ाई को लेकर चिंतित हो गए। वह बोले, “देखो तुम्हारी माँ तो यह इच्छा लिए मर गईं कि तुम भी एक लाइन से लग जाओ। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी भी शादी कर के अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पा लूँ। तुम्हारी माँ का मन था तुम्हारी शादी के बाद एक बार सारे परिवार के साथ रामेश्वरम् जाने का। लेकिन दुर्भाग्य ने यह सब हमसे छीन लिया। अब ऐसी इच्छा करने की मैं हिम्मत भी नहीं जुटा पाता। बस इतना चाहता हूँ बेटा कि तुम पढ़ाई पूरी कर अपनी नौकरी-वौकरी शुरू कर दो। अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। किसी पर डिपेंड ना रहो। अब मेरा किसी पर भरोसा नहीं रहा।” 
फिर पापा ने एक ऐसी बात कही कि मैं विचलित हो उठा। 

उन्होंने कहा, “छोटी ने जिस तरह परिवार को बरबाद किया। क़ानूनी पचड़ों से जो अनुभव मिला उसे देखते हुए मैंने यह तय किया है कि तुम सब को अलग-अलग कर दूँ। जिससे भविष्य में कोई समस्या ना खड़ी हो। माना अभी तुम भाइयों में सब कुछ बहुत अच्छा है। लेकिन मेरे बाद क्या होगा? इसको लेकर मेरे मन में बहुत डर है। अभी तीनों भाई मिल कर रह रहे हो। कल को सब अपने परिवार के साथ ही होंगे। पत्नियों के साथ ही होंगे। उनकी पत्नियों ने जो रूप दिखाया है उससे मैं यही मान कर चलता हूँ कि एक साथ रहने पर कभी शान्ति नहीं रहेगी। 

इसका एक ही समाधान मेरे दिमाग़ में आता है कि सब लोग अलग-अलग घरों में रहो। रिश्ते अच्छे रहें तो बोलो नहीं तो नहीं। ये मकान ऐसा बना है कि इसमें चाह कर भी अलग-अलग नहीं रहा जा सकता। इसलिए यह मकान बेच दूँगा, फिर तुम तीनों के अलग-अलग मकान बनवा दूँगा। वो मकान इतने बड़े भले ना बन पाएँ। लेकिन फिर भी ठीक-ठाक बन ही जाएँगे। हाँ, वो दोनों और पैसा लगा देंगे तो अपने मकान जैसा चाहेंगे वैसा बनवा लेंगे। मेरा क्या आज हूँ कल नहीं। जब तक रहूँगा तुममें से किसी के पास किसी कमरे में पड़ा रहूँगा।” 

पापा की बात सुनकर मैं बहुत भावुक हो गया कि इनके दिमाग़ में कैसी-कैसी बातें चल रही हैं। यह अंदर ही अंदर कितना पीड़ित हैं। उस समय वह बहुत भावुक थे। उस वक़्त हम दोनों एक पार्क में बैठे थे। शाम ढल रही थी। सूरज गहरा केसरिया होता जा रहा था, दूर क्षितिज की ओर बढ़ता हुआ। पापा के चेहरे पर उसकी किरणें पड़ रही थीं। उनका चेहरा भी तांबई सा होता जा रहा था। लगा जैसे वह भी क्षितिज की ओर चलते जा रहे हैं। अचानक ही मन में ऐसे ख़्याल आए कि मैं सहम गया। पहले तो मैं उनको अपना निर्णय बदलने के लिए समझाना चाह रहा था। लेकिन यह सोच कर शांत हो गया कि इन्हें जिसमें शान्ति मिले, ख़ुशी मिले वह इन्हें करने दिया जाए। 

यह सच ही कह रहे हैं। आख़िर कितने दिनों के मेहमान हैं? आज हैं कल नहीं। आख़िर हम लोगों ने अभी तक इन्हें जीवन में दिया ही क्या? और यह भी कि हम भाइयों ने अब तक किया ही क्या? अब तक जो कुछ भी है सब इन्हीं का किया तो है। बेचना चाहते हैं मकान, इसी में इन्हें संतुष्टि मिलती है तो यही अच्छा है। फिर जो बात कह रहे हैं वह एक कटु सत्य है। उनका निर्णय बहुत व्यावहारिक है। 

उसी दिन पापा ने रात को खाने के बाद भाइयों को बुलाकर अपने मन की बात कह दी। भाइयों के लिए भी यह एक झटका था। वैसे ही जैसे मुझे लगा था। मगर पापा ने किसी से सलाह ना माँग कर एक तरह से अपना निर्णय सुनाया था। अपनी तरफ़ से उन्होंने किसी को कोई रास्ता नहीं दिया था कोई विकल्प रखने का। मैं तो यही चाहता था कि जो भी हो उनके मन का हो। जैसे भी हो वह ख़ुश रहें। इन सब से बड़ी बात यह कि मैंने देखा कि शुरू में तो दोनों भाइयों के चेहरे पर शॉक जैसे भाव उभरे थे। लेकिन कुछ पल बाद भाव ऐसे हुए कि उनसे समझा जा सकता था कि पापा का यह निर्णय उन्हें भा गया है। फिर क्या था मकान बेचने और अलग-अलग तीन प्लॅाट ख़रीदने का काम ज़ोर-शोर से शुरू हो गया। 

पापा इस पक्ष में भी नहीं थे कि प्लॅाट अग़ल-बग़ल और एक ही मोहल्ले में हों। प्लॅाट उम्मीदों से कहीं ज़्यादा महँगे मिल रहे थे। इसलिए भाइयों ने लोन लिया। अलग-अलग मोहल्ले में तीन प्लॅाट लिए गए। मेरे प्लॅाट का भी पेमेंट भाइयों ने किया। पापा ने कहा मकान बिकने पर उसमें से ज़्यादा हिस्सा तुम दोनों को दे दिया जाएगा। कोशिश रंग लाई। तीनों मकान बन गए। 

दोनों भाइयों ने कोशिश करके अपने मकान बड़े-बड़े बनवा लिए थे। मेरे लिए मुश्किल से तीन बेडरूम का छोटा सा मकान बन सका। क्योंकि अच्छी ख़ासी रक़म प्लॅाट के एवज़ में भाइयों को भी दी गई थी। फिर वह दिन आया जब परिवार तीन टुकड़ों में अलग-अलग घरों में रहने लगा। वही परिवार जिसे मोतियों की तरह चुन-चुन कर बनाने में पापा-अम्मा ने अपना जीवन लगा दिया था। दोनों भाइयों ने पापा को अपने-अपने पास रखने की पूरी ज़िद की। मैं अब भी विश्वास से कहता हूँ कि उन्होंने वह ज़िद पूरी ईमानदारी से, पूरे मन से नहीं की गई थी। 

पापा ने मेरी तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “अभी मुझे इसी के साथ रहने दो। मकान ही अलग हुए हैं। हम लोग अलग नहीं हुए हैं।” यह बात पूरी करते ही वह एकदम फूट कर रो पड़े थे। आख़िर वह इतना दर्द कैसे सहते? पूरा जीवन लगा कर उन्होंने अपने सपनों का जो संसार बसाया था वह कहाँ बचा पाए थे। सब तो बिखर गया था। अपने सपनों का संसार बिखरने का ग़म उनसे ज़्यादा हम कहाँ समझ सकते थे। तो हम सब उन्हें चुप कराते रहे। पापा इसी तरह उस दिन भी रोए थे जब मकान बेचने के बाद चाबी नए मकान मालिक को सौंपी थी। और तब भी जब मकान से सामान निकाला जा रहा था। 

नए मकान में पहला दिन हम—बाप बेटे का ऐसे कटा जैसे किसी भूत मकान में बंद कर दिए गए हों। टीवी भी देखने का मन नहीं हो रहा था। कभी इधर बैठते, कभी उधर। खाने-पीने की चीज़ें बहुत भरी हुई थीं। कुछ मैं लाया था। और ज़्यादातर भाइयों ने लाकर भर दिया था। पहली रात बस यूँ ही कट गई। ठीक से नींद नहीं आई। अगले दिन एक बहन अपने परिवार के साथ आ गई। दो दिन अच्छे कट गए। भाँजे-भाँजियों की उछल-कूद में पापा का मन लगा रहा। लेकिन उनके जाते ही फिर वही उदासी। लेकिन हमारी बहनों जैसी बहनें कम ही होती हैं। और बहनोई भी। 

उदासी भरे चार दिन ही कटे थे कि दूसरी बहन भी आ गई। पूरा परिवार हफ़्ते भर रुका रहा। बड़ी चहल-पहल रही घर में। बहन-बहनोई जब तक रहे तब तक हर दिन पापा से बराबर कहते रहे कि ‘आप दोनों हमारे साथ चलें। वहीं रहें, जब तक समीर की शादी नहीं हो जाती।’ लेकिन पापा ने कहा, “बेटा जब तक ऐसे चल रहा है तब तक चलने दो। जब नहीं चलेगा तब कुछ सोचा जाएगा। हाँ मन जब ऊबेगा तब तुम सब को फोन कर दूँगा। जैसा हो सके तुम लोग समय निकाल कर आते रहना।”

दोनों भाई सुबह शाम दोनों टाइम आते। चाय-नाश्ता, खाना-पीना लेकर आते। दुकान से एक नौकर आकर झाडू-पोंछा का काम कर जाता। हमने, पापा ने बार-बार मना किया कि यह न करें, हम लोग कर लेंगे। इस पर भाइयों का सीधा जवाब होता कि ‘या तो साथ चलो, नहीं तो हम जो कर रहे हैं करने दो।’ भाभी भी हर दूसरे-तीसरे दिन आतीं, और जब आतीं तब घर चलने की ज़िद ज़रूर करतीं। पापा से, मुझसे बार-बार माफ़ी माँगतीं। कहतीं ‘घर चलिए। आख़िर सब आप ही का है। अपने ही घर चले चलना है।’

आख़िर में जब माफ़ी माँगतीं तो मैं देखता पापा के चेहरे पर अजीब से भाव आ जाते। जैसे बड़ी कसैली सी कोई चीज़ खा ली हो। आख़िर एक दिन उन्होंने बोल दिया गहरी साँस लेते हुए। ‘तुमने तो बस ग़लती कर दी। बहक गई छोटी के बहकाने से। लेकिन यहाँ तो पूरा घर बर्बाद हो गया। तहस-नहस हो गया। मेरे बच्चों की ज़िन्दगी, सब का जीवन बर्बाद हो गया। पूरी दुनिया में परिवार की बेइज़्ज़ती हुई, मेरे बच्चों की माँ मर गई। इसका मैं क्या करूँ। 

‘पूरी दुनिया की दौलत दे दूँ तो भी इनमें से कुछ मिलने वाला नहीं है। सबके मन में गाँठें पड़ गई हैं, वो अब ख़त्म होने वाली नहीं हैं। लाख जतन करूँ तो भी गाँठ बनी रहेगी। अरे पहले ऐसे ही नहीं कह दिया गया था कि “रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़िव चटकाय, जोड़े से फिर ना जुड़े फिर जुड़े गाँठ पड़ जाए।” मगर अब तो दुनिया पहले की सारी बातों को बेकार-बेहूदा समझती है। और जब-तक उन्हें कुछ समझ में आता है तब-तक उनके हाथ से सब निकल चुका होता है। उनके पास सिवाय पछताने के और कुछ नहीं बचता। 

‘अपने यहाँ यही हुआ है। जो गाँठ पड़ गई है वह अब ख़त्म होने वाली नहीं है। इस लिए अब जैसा चल रहा है उसे वैसे ही चलने दिया जाए। आख़िर यह भी तो कहा गया है कि प्रेम की भी अति नहीं होनी चाहिए। ज़्यादा मिठाई में कीड़े लग जाते हैं।’ उस दिन पापा की यह बात सुनकर भाभी बहुत गंभीर हो गई थीं। मुझे ऐसा लगा कि जैसे पापा जानबूझ कर इतना सख़्त हो रहे हैं जिससे भाभी दूर रहें। वैसे भी उन्होंने जो किया उसके बाद तो हमें उनसे नहीं बोलना चाहिए था, पापा तो कम से कम बोल रहे थे। उस दिन के बाद भाभी ने कभी चलने के लिए नहीं कहा। 

पापा मुझ से जल्दी से जल्दी पढ़ाई पूरी कर लेने के लिए बराबर कहते। वैसे भी इस समस्या के कारण मेरे कई साल बरबाद हुए थे। कई बार मन पढ़ाई बंद कर देने का भी हुआ। लेकिन पापा और भाइयों के प्रोत्साहन से मैं सँभल गया। इस बीच मँझले भइया ने छोटी को तलाक़ दे दिया। जब तलाक़ का नोटिस पहुँचा था तो उनके फ़ादर दौड़े आए थे। कि ‘जो हुआ उसे भूल जाइए। इंसान से ग़लतियाँ हो ही जाती हैं। आज कल लड़की की पहली शादी ही इतनी मुश्किल से होती है। डायवोर्सी की कहाँ हो पाएगी? बच्चे का क्या होगा? उसका तो भविष्य ही चौपट हो जाएगा।’ 

पापा उन्हें देखते ही बिफर पड़े थे। उनकी इस बात पर कहा था कि ‘जो ग़लती इंसान से हो जाती है उसे माफ़ किया जा सकता है। जो ग़लती जानबूझ कर की जाती है, पूरे कमीनेपन के साथ की जाती है वह अक्षम्य होती है। आपके क्षमा माँगने से हमारा जो परिवार बर्बाद हुआ वह आबाद हो जाएगा? क्या मेरी बीवी जो मर गई वह वापस आ जाएगी? क्या मेरी इज़्ज़त वापस मिल जाएगी? तब तो आप पूरा परिवार मिलकर मेरी पूरी प्रॉपर्टी लिखाने पर जुटे हुए थे। 

‘तुमने मेरे घर अपनी लड़की की शादी नहीं की थी। बल्कि सम्पत्ति हथियाने की साज़िश के तहत उसे यहाँ भेजा था। अरे शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को। बेशर्मी की भी हद होती है। अगर मैं भी तुम्हारी तरह नीचता पर उतर आऊँ तो तुम पर क़ानून के दुरुपयोग, वृद्ध लोगों को मारने के प्रयास का मुक़द्दमा कर सकता हूँ। तुम्हें अंदर करा सकता हूँ। तुम्हारी तरह झूठ साज़िश के बल पर नहीं, सच के दम पर। लेकिन इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारा परिवार बर्बाद हो। परिवार के बर्बाद होने की तकलीफ़ क्या होती है यह हमसे पूछो। 

‘यह तकलीफ़ आदमी को ज़िन्दा लाश बना देती। इसका दर्द सोते-जागते, उठते-बैठते हमेशा कोंचता रहता है। जो पीड़ा मेरे रोम-रोम में बसी है मैं नहीं चाहता वह मेरे दुश्मन को भी मिले। इस लिए जाइए और दुबारा मेरे सामने मत पड़िएगा। क्योंकि ग़लती मुझसे भी हो सकती है। आख़िर मैं भी इंसान हूँ।’ पापा का वैसा रौद्र रूप मैंने जीवन में पहली बार देखा था। नहीं तो बड़ी सी बड़ी ग़लती वह बस यूँ ही क्षमा कर दिया करते थे। उनकी डाँट, ग़ुस्से और कही गई बातों के निहितार्थ को समझने के बाद मँझली के फ़ादर ने दुबारा पापा की तरफ़ रुख़ नहीं किया। 

भइया को पता चला तो उन लोगों ने कहा ठीक किया। हमने और बड़े भइया ने सोचा था कि मँझले भइया का मन हो तो उन्हें वापस ले आएँ। बस हम लोग कोई मतलब नहीं रखेंगे। लेकिन बात करने पर वे भी पापा की तरह बिफर पड़े थे। कहा ‘मैं उसे एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। जब उसकी बातें ख़ून खौला दे रही हैं तो सामने होगी तो मैं ख़ुद पर कंट्रोल नहीं कर पाऊँगा। ऐसे में साथ रहेगी तो कुछ ऐसा-वैसा हो जाएगा।’ 

हमने सोचा कि जब इतने वर्षों के बाद भी इतना ग़ुस्सा है। तो सही यही है कि दोनों अलग हो जाएँ। मँझली को भी यह बात समझ में आ गई। तो आपसी सहमति से तलाक़ हो गया। हम लोगों ने सोचा था कि मँझली बच्चे को हर हाल में पाना चाहेगी। अपने पास रखना चाहेगी। इधर भइया भी बच्चे को हर हाल में पाना चाहते थे। हमने सोचा था मामला उलझेगा लेकिन इसके उलट वह बिना हील-हुज्जत के ही निपट गया। मँझली ने बच्चे के लिए ख़ुद तो कहा ही नहीं बल्कि मना भी कर दिया। छोटी की इस हरकत ने हम सब को एक बार फिर सकते में डाल दिया। 

हम आश्चर्य में थे कि माँ अपने स्वार्थ में इस क़द्र अंधी हो जाएगी कि अपने बच्चे से मुँह मोड़ लेगी। सोचा कि हो सकता है घर वालों ने दबाव डाला हो कि बच्चे की परवरिश कैसे करोगी? दूसरी शादी में यह बच्चा बड़ी बाधा होगा। कोई कुछ भी समझाए लेकिन क्या अपने बच्चे के प्रति माँ की ममता अब इतनी कमज़ोर हो गई है कि वो उसे अपने पास अपना नफ़ा-नुक़सान देख कर रखेगी। हमारे हृदय उस वक़्त चीत्कार कर उठे थे। जब उसने बच्चे को दिया तो वह चीख-चीख कर मम्मी-मम्मी चिल्लाता रहा। लेकिन छोटी की आँखें भीगी भर थीं, जब कि भइया बच्चे को गले से लगा कर रो पड़े थे। 

हम लोगों के भी आँसू उसका रोना सुनकर नहीं रुक रहे थे। लेकिन मँझली ने कोर्ट में बच्चा देकर जैसे उससे मुक्ति पा ली। अपने परिवार के साथ मुड़ी और चली गई। मुड़कर एक बार देखा तक नहीं। बच्चे ने चीख-चीख कर उल्टी कर दी। नाक से पानी निकल आया। हिचकियाँ बँध गईं। पस्त हो गया। निढाल होकर बाप के कंधे पर लटक गया था। तब भइया इतना भावुक हो गए थे कि बेटा बड़ा हो चुका था लेकिन उसे गोद से नीचे तभी उतारा जब गाड़ी में बैठे। 

बड़े प्रयासों के बाद वह घर में मिक्सअप हुआ। दूसरी शादी की बात आई तो भइया बोले ‘एक से इतना कुछ मिल गया कि जी भर गया। दूसरी ना जाने कौन सी दुनिया दिखाएगी? मेरे बेटे का पता नहीं क्या करेगी?’ उनकी आशंका अपनी जगह ठीक थी। मगर हम सब परेशान थे कि कैसे कटेगा उनका जीवन? मगर वो किसी के समझाने से नहीं समझे। इस विषय पर बात होते ही बिगड़ जाते। बेटा भी धीरे-धीरे बाप के साथ ऐसा मिला कि उनके बिना एक पल अलग नहीं रहता। बाप-बेटा एक दूसरे के छाया बन गए थे। बड़ी भाभी उससे जब मिलतीं तो उसे माँ का प्यार देने का पूरा प्रयास करतीं। बाबा को जैसे प्राण मिल गए थे। 

कहने को मँझले भइया अलग रहते थे। लेकिन बेटे के आने के बाद उनका ज़्यादा समय बड़े भइया के यहाँ ही बीतने लगा था। मैंने देखा इन बातों से पापा को बड़ी राहत मिलती थी। इस बीच मैंने एम.एससी. कर ली तो पापा ने कहा, “अच्छा होता कि पीएच.डी. कर लो जिससे कहीं कॉलेज में जॉब मिल जाए। फिर आगे प्रोफ़ेसर वग़ैरह हो जाओगे। एम.एससी. वग़ैरह करके कोई फ़ायदा नहीं।” फिर लगे हाथ यह जोड़ देते कि ‘जल्दी कहीं लाइन से लग जाओ तो तुम्हारी भी शादी वग़ैरह कर दूँ। मुक्ति पाऊँ ज़िम्मेदारी से। तुम्हारी माँ भी ऊपर यही सोच रही होगी।’ 

आख़िर पापा की ज़िद के आगे मैंने पीएच.डी. के लिए क़दम बढ़ाए। हालात ऐसे बने कि पीएच.डी. के लिए दिल्ली के एक संस्थान में पहुँच गया। वहाँ भी बड़े पापड़ बेलने पड़े। जो प्रोफ़ेसर साहब मिले उनकी तुनक-मिज़ाजी, और पैसे के लिए हमेशा मुँह बाए रखने की आदत ने मेरी हालत ख़राब कर दी। हॉस्टल मिल नहीं पाया। किराए पर रहना बड़ा मुश्किल हो गया। प्रोफ़ेसर साहब की आदतों के चलते एक साल तो देखते-देखते निकल गया। उनकी सेवा में जितना समय देता वह ही काफ़ी नहीं था। बहुत सी चीज़ों के लिए फोन आता कि समीर आते समय यह लेते आना। सामान ले जाता तो कभी पैसा ना देते। 

पापा जितना पैसा भेजते थे वह दिल्ली में अलग मकान लेकर रहने के लिए कम पड़ रहे थे। ऊपर से प्रोफ़ेसर साहब की सेवा में लगने वाला ख़र्च मेरी हालत को नाज़ुक किए जा रहा था। शोध के नाम पर प्रोफ़ेसर साहब से जब कोई बात करता तो उनका एक ही जवाब होता। ‘समीर अभी तुम अपने विषय को ठीक से समझ नहीं पाए हो। अभी और आगे बढ़ना मुझे उचित नहीं लगता। जिस दिन मुझे लगेगा कि आगे बढ़ना है, आगे बढ़ेंगे। ठीक है।’ हर बार यही रटारटाया जवाब सुनकर मैं परेशान हो जाता। परेशान होकर मैंने अपने एक अन्य दोस्त से बात की जो एक अन्य प्रोफ़ेसर साहब के मार्ग-दर्शन में पीएच.डी. कर रहा था। उसने कहा ये. “मान कर चलो कि यह दो साल से पहले खिसकने वाला नहीं है। तब-तक तुम और स्टडी करते रहो।” 

कुछ और सीनियर्स से अपनी समस्या शेयर की। सब एक-सा बोले। मैंने कहा, “ये क्या रिसर्च हुई?” तो एक ने कहा, “देखो परेशान होने की ज़रूरत नहीं। ये सर बहुत अच्छे हैं। पाँच साल होते-होते तुम्हें पीएच.डी. वग़ैरह सब अवॉर्ड हो जाएगी। लगे रहोगे तो कहीं किसी कॉलेज में लगवा देंगे। बस लगे रहो।” उन सबकी बातें सुनकर मैं बड़ा निराश हुआ। उन प्रोफ़सर का नाम तो बहुत सुना था। कि वह तेज़-तर्रार कड़क मिज़ाज आदमी हैं। अपने विषय के चुनिंदा विद्वानों में से एक हैं। यह सब देखकर सोचा कि लोगों ने जो बताया था वह ग़लत था या मैं ग़लत सुन रहा था। इधर घर पर पापा की सेहत संबंधी समस्याएँ और परेशान करतीं। दोनों भाई अपने बिज़नेस में व्यस्त रहते। सुबह शाम थोड़ा बहुत ही समय दे पाते थे। 

पापा अपनी ज़िद के चलते अब भी अकेले ही रहते थे। यही सब सोचकर मैं जल्दी से जल्दी पढ़ाई पूरी कर लौटना चाहता था। मन में यही था कि जब तक पापा हैं तब तक लखनऊ में ही जॉब ढूँढ़ूँगा। पापा की इच्छा पूरी होगी, उनकी ख़ुशी भी देख सकूँगा। और देखभाल भी कर सकूँगा। मगर हालात तो यह कह रहे थे कि पाँच-सात साल निकल जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं। 

कई बार मन में आया कि छोड़ कर चलूँ। वहीं कोशिश करूँ। मगर जब पापा से बात की, तो वो नाराज़ हुए कि ‘मैं इंतज़ार कर रहा हूँ कि तुम प्रोफ़ेसर बनो। तुम्हारी शादी कर मैं अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पाऊँ। वहाँ से यहाँ आओगे फिर से शुरू करोगे। दो साल जो वहाँ बिताए हैं वह समय और पैसा दोनों बरबाद होगा। यहाँ आकर तीन-चार साल में कर लोगे तो भी छह साल तो हो ही जाएँगे।’ 

पापा अपनी जगह सही थे। लेकिन मैं बड़े असमंजस में था। क्या करूँ? क्या ना करूँ? कुछ समझ नहीं पा रहा था। इसी बीच एक दिन पापा से बात कर रहा था, तो पापा ने जो बताया मँझले भइया के बारे में उससे मेरी परेशानी और बढ़ गई। पापा बड़े पसोपेश में थे। डर रहे थे कि फिर कोई समस्या ना खड़ी हो जाए। सुनकर कुछ समय तो मैं भी परेशान हुआ। लेकिन सोचा कि मँझले भइया ने जो किया वह उनकी स्वाभाविक ज़रूरत है। उन्होंने जो किया ठीक किया। 

आख़िर कब तक अकेले रहेंगे? लेकिन पापा की आशंका भी तो ग़लत नहीं है। उनका यह क़दम कोई नई समस्या ना खड़ी कर दे। उनको यही करना था तो जब कहा जा रहा था तभी दूसरी शादी कर लेते। या नहीं की तो कोई बात नहीं। जिस महिला के साथ रह रहे हैं उसे विधिवत शादी कर के रखें। किसने मना किया है। उन्हें पता नहीं क्या हो गया है। पापा को टेंशन दे रहे हैं। 

सौभाग्य है कि बच्चा बड़ी माँ के साथ घुल-मिल गया है। वो भी उसे अपने बच्चे की तरह पाल रही हैं। मगर इस नई महिला से कोई बच्चा हो गया तो क्या होगा? पहले तो इन्हीं सब के चलते साफ़ कह दिया था कि शादी नहीं करूँगा। आख़िर क्या सोचकर उठाया है उन्होंने यह क़दम। अपनी उलझन शांत करने के लिए मैंने बड़े भइया को फोन करके पूछा कि क्या मामला है? तो उम्मीद से एकदम अलग उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि ‘मुझे कुछ नहीं मालूम। उनका पर्सनल मैटर है। जो चाहे करें। मुझे कोई लेना-देना नहीं। अब मैं किसी चक्कर में पड़कर अपनी लाइफ़ और नहीं बर्बाद करना चाहता। अब सब लोग बड़े हो, जिसे जो ठीक लगे वह करे। अब मैं किसी मामले में नहीं हूँ।’ 

उनके इस बेरूखे जवाब ने मुझे सन्न कर दिया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वो ऐसा जवाब देंगे। और मँझले भइया ऐसी हरकत करेंगे। वही मँझले भइया जिनके लिए कहा जाता था कि इस मामले में वो बहुत संकोची, शर्मीले हैं। लेकिन वो तो एकदम डबल निकले। यह सब जानकर मेरा मन एकदम घबड़ा गया कि पता नहीं पापा कैसे हैं? ये दोनों भाई इस तरह जवाब दे रहे हैं। ऐसा बेरूखा व्यवहार मुझसे कर रहे हैं तो पापा के साथ क्या कर रहे होंगे? मैं पापा की हालत का अनुमान कर घबड़ा उठा। 

मैं उसी दिन बिना रिज़र्वेशन कराए ही रात को लखनऊ के लिए चल दिया। रिज़र्वेशन तत्काल में भी नहीं मिला। ट्रेन में धक्के खाते सवेरे जब घर पहुँचा तो मेरी आशंका सच निकली। पापा पूरी तरह उपेक्षित घर में अकेले पड़े थे। घर की हालत बता रही थी कि उनकी देखभाल कोई नहीं कर रहा था। कम से कम तीन-चार दिन से सफ़ाई वग़ैरह कुछ नहीं हुई थी। फ़्रिज में कई दिन का खाना पड़ा था। कुछ फल थे। मतलब पापा खाना भी नहीं खा रहे थे। दरवाज़े पर मैंने पापा को जिस हाल में देखा था वह मेरे अनुमान को शत-प्रतिशत सही ठहरा रहा था। वो मुझे देखकर चौंक गए थे। क्योंकि मैंने आने की कोई सूचना नहीं दी थी। 

पैर छूकर मैंने कहा पापा बस अचानक ही प्रोग्राम बन गया था। पैर छू कर उठा तो उन्होंने गले से लगा लिया। मैंने भी उन्हें बाँहों में भर लिया। बाप-बेटे दोनों ही की आँखें नम हो गईं थीं। मेरी आँखें माँ को ढूँढ़ रही थीं। पापा को सोफ़े पर बैठा कर मैं किचन में इसी उद्देश्य से गया था कि कुछ चाय नाश्ता बनाऊँ। लेकिन जो देखा उससे मन बहुत दुखी हुआ। माँ की याद में खोया जा रहा था। बार-बार आँखों में आँसू आ जा रहे थे। रात में भी खाना नहीं खाया था। भूख भी बड़ी तेज़ लगी हुई थी। मगर कहता किससे? मुझे पक्का यक़ीन था कि पापा भी भूखे होंगे। मगर मैं उनसे कुछ पूछूँ उसके पहले ही वह बोल पड़े। 
“रात भर के थके होगे। बैठो मैं चाय बनाता हूँ।” बाप के इस प्यार ने मेरा कलेजा ही निकाल लिया। हिलते-डुलते से वो उठने ही वाले थे कि मैंने उन्हें बैठाते हुए कहा, “क्या पापा मेरे रहते आप करेंगे यह सब।” फिर माहौल हल्का करने की गरज से मैंने बंद पड़े टीवी को ऑन किया। पापा ने बड़े भइया को फोन करने को कहा लेकिन मैंने मना कर दिया। उन लोगों के रवैये से मुझे बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था। मैंने कपड़े भी चेंज नहीं किए, पहले गया पास की दुकान से दही, जलेबी, ख़स्ता और चाय ले आया। किचन इतना गंदा था कि बिना साफ़ किए कुछ नहीं बना सकता था। थकान के कारण मेरा यह सब करने का मन नहीं हो रहा था। 

नाश्ते के बाद मैंने पापा से पूछा कि क्या भइया लोग नहीं आ रहे? क्या हाल हो रहा है घर का, खाना-पीना भी अस्त-व्यस्त है। आपकी सेहत बता रही है कि कुछ खा-पी नहीं रहे हैं। पापा बात टालते हुए बोले, “देखो हर समय कोई किसी के साथ नहीं रह सकता। और खाना-पीना सब आता रहता है। चिंता की कोई बात नहीं है। अब उम्र हो गई है। हमेशा एक-सा तो नहीं रहूँगा ना। मुझे अब चिंता है तो बस तुम्हारे कॅरियर की। शादी की। बस और किसी चीज़ की परवाह नहीं। और जब-तक यह हो नहीं जाता तब-तक मुझे कुछ नहीं होने वाला।” 

पापा साफ़-साफ़ सब कुछ छिपा रहे थे। लेकिन मैंने उनसे बहस करना उचित नहीं समझा। उन्होंने मँझले भइया के बारे में बहुत सी बातें कीं। कहा, “उससे यह उम्मीद नहीं थी। मैं डायवोर्स के बाद ही दूसरी शादी के लिए कह रहा था। लेकिन तब तैयार नहीं हुआ और अब यह सब हो रहा है। पता नहीं कौन सी औरत है? कैसी औरत है? क्या होगा समझ में नहीं आ रहा।” मैंने कहा वो समझदार हैं। वो अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीना चाह रहें हैं तो जीने दीजिए। आप चिंता मत करिए। आख़िर में जाकर पापा ने भाइयों द्वारा अपनी उपेक्षा की बात भी कह ही डाली। उनकी बातें सुनकर मुझे लगा कि अब उन्हें अकेले छोड़ कर मेरा दिल्ली जाना सम्भव नहीं है। 

शाम को भाइयों से मिलने गया। बड़े ने फ़ॉर्मेलिटी अच्छी की। भाभी ने भी। हाँ बच्चे पहले ही की तरह प्यार से मिले। बड़े भाई ने एक बार भी यह नहीं कहा कि सुबह से आए हो। फोन तक नहीं किया या पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है। कुछ भी नहीं पूछा। मँझले के पास पहुँचा तो उन्होंने यह शिकवा ज़रूर किया कि सुबह से आए हो बताया तक नहीं। हाल-चाल, पढ़ाई-लिखाई भी पूछी। फिर मुझसे रहा ना गया तो मैंने महिला की बात छेड़ दी। तो उन्होंने एक लंबी-चौड़ी दास्तान बताते हुए इतना कहा कि ‘हम दोनों परिचित तो काफ़ी समय से हैं। जो सी.ए. हमारे काम को देखता है वह उसी के ऑफ़िस में काम करती हैं। पहली बार वहीं मिली थीं। फिर बात इतनी बढ़ी कि यहाँ तक पहुँच गई। वह भी डायवोर्सी हैं। बुलंदशहर की रहने वाली हैं।’ 

मैंने कहा, “जब बात यहाँ तक पहुँच गई है तो शादी कर डालिए। भले ही मंदिर में। विभव की माँ की कमी पूरी हो जाएगी। लोग कुछ कहना-सुनना बंद कर देंगे।”

मेरे इतना कहते ही भइया तमक कर बोले, “देखो मुझे दुनिया की परवाह नहीं। मेरे लिए जो ठीक है, वह मैं जानता हूँ। वही कर रहा हूँ। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि अब मैं शादी-वादी का झमेला नहीं पालना चाहता। विभव जब तक भाभी के पास रह रहा है ठीक से तब-तक ठीक है। नहीं तो यहीं ले आऊँगा। फिर जितना उसे मैं जान पाया हूँ उस हिसाब से वह भी शादी-वादी के झमेले में नहीं पड़ना चाहती। वह शांत स्वभाव की है। एकांत ज़िन्दगी जीना चाहती है। कुल मिला कर हम दोनों फ़िलहाल एक दूसरे को सूट कर रहे हैं। जब-तक सूट कर रहे हैं, तब-तक साथ हैं। नहीं तो नई दुनिया देखेंगे।”

आख़िर मैंने पूछा, “आज नहीं आईं क्या?”

तो वह बोले, “टाइम हो गया है। आती ही होगी।” 

हम दोनों की बातें चलती रहीं। ख़ासतौर से पापा को लेकर। 

पापा के बारे में जिस रूखेपन से उन्होंने बातें कीं उससे एक तरह से ये साफ़ मैसेज था कि पापा कोई उनकी ज़िम्मेदारी नहीं हैं। मैंने देखा कि आज वीकली ऑफ़ होने के कारण वो और बड़े भाई दोनों घर पर थे। लेकिन दोनों में से कोई भी पापा के पास नहीं पहुँचा था। मेरा मन ग़ुस्से, नफ़रत से भर रहा था। आठ बजने को हुआ तो मैंने सोचा चलूँ पापा के लिए खाना वग़ैरह देखूँ। इन दोनों भाइयों ने तो दुनिया ही बदल दी है। चलने को हुआ तभी बाहर गेट खुलने की आवाज़ हुई। भइया बोले, “शायद आ गईं।” मेरी नज़र दरवाज़े की तरफ़ चली गई। भइया का अंदाज़ा सही निकला, वही थीं। जिनका नाम भइया ने अनुप्रिया बताया था। 

अनुप्रिया क़रीब साढ़े पाँच फ़ीट की अच्छी हेल्थ वाली महिला थीं। गोरा रंग, कंधे तक कटे बाल। अपेक्षाकृत मोटे होंठों पर हल्की लिपिस्टक थी। चेहरे पर दिन भर की थकान साफ़ झलक रही थी। हावभाव से वह शांत स्वभाव की ही लग रही थीं। उन्होंने स्किन टाइट लाइट ब्लू जींस और लाइट पिंक शर्ट पहन रखी थी। पैरों में स्टाइलिश कैनवॉस शू थे। साथ ही पतली सी पायल भी। 

जींस के साथ पायल मैंने कम ही देखी थी। मैं समझ नहीं पाया कि यह ड्रेस उनकी यूनिर्म थी या उनकी पसंद। भइया ने बहुत बुझे मन से मेरा परिचय दिया ‘अनु ये समीर। मेरे छोटे भाई।’ इस पर उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। मैंने भी उसी तरह जवाब दिया। क्षण भर में ही यह बात मन में कौंध गई कि इन्हें भाभी कहूँ या अनुप्रिया जी कहूँ। मगर आख़िर में हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ कह कर रह गया।     

मैं खड़ा हो ही रहा था कि उन्होंने कहा, “बैठिए। हमारे बीच अक़्सर आपकी बातें होती हैं। कैसी चल रही है आपकी रिसर्च?”

मैंने कहा, “ठीक है।” 

हाथ में लिया अपना बैग। स्कूटर की चाभी, उन्होंने सेंटर टेबल पर रखी और सोफ़े पर भइया से एकदम सट कर बैठ गईं। जैसे बैठने की जगह बहुत कम हो। इधर-उधर की दो-चार और बातों के बाद वह किचन में चली गईं। और चाय नाश्ता, लेकर लौटीं। 

मैं उन्हें समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मुझे लगा कि उन्हें समझना मेरे वश के बाहर है। कुछ ही देर में मैं घुटन महसूस करने लगा। पापा पर मन लगा हुआ था। इसलिए नाश्ता ख़त्म होते ही मैंने उठते हुए कहा भइया अब चलता हूँ। पापा इंतज़ार कर रहे होंगे। खाने की भी देर हो रही है। भइया बोले, “अच्छा ठीक है।” कुछ इस अंदाज़ में जैसे कि कह रहे हों—चलो प्यारे, निकलो यहाँ से। 

मैं घर आया तो खाना होटल से ही लेता आया। मैंने सोचा बनाने में देर होगी। पापा भूखे होंगे। होटल में जब खाना पैक करा रहा था, तो मेरे दिल में आया कि मैंने पापा के खाने की बात की लेकिन भइया ने एक बार भी फ़ॉर्मेल्टी के लिए भी नहीं कहा कि रुको यहीं बन जाएगा। तुम खा लो और उनका लेते जाना। अनु के लिए तो ख़ैर कुछ कह ही नहीं सकता। उनका हमारे परिवार से क्या लेना-देना। हाँ, यदि मैनर्स के दृष्टिकोण से देखें तो उनको भी यह कहना चाहिए था। आख़िर वो दोनों कल को यदि शादी की रस्म पूरी कर लेते हैं तो पापा उनके ससुर ही होंगे। लेकिन अनु ने भी एक शब्द नहीं कहा। 

पापा के साथ खाना खाते समय मेरी बातें होती रहीं। मैंने देखा कि पापा दोनों भाइयों के बारे में बात करने के इच्छुक नहीं हैं। वही पापा जो पहले बच्चों की बात करते नहीं थकते थे। पापा खाना खाकर लेटे और जल्दी ही सो गए। मैं थका था। लेकिन इन्हीं सब बातों को लेकर मन में चल रही उलझन के कारण नींद नहीं आ रही थी। दोनों भाइयों, भाभी और अनु की बातें घूम रही थीं। उन सारी बातों का मन में एक विश्लेषण सा होने लगा। 

अचानक मन में यह बात आई कि कहीं यह दोनों भाई घर में जो हुआ उसके लिए पापा, अम्मा को तो ज़िम्मेदार नहीं मानने लगे हैं। जो उनसे इस तरह मुँह मोड़ लिया है। इतने रूखे हो गए हैं कि बाप भूखा है, ज़िन्दा है, या मर गया इसकी भी परवाह नहीं। मुझे लगा कि मेरी यह आशंका एकदम सही है कि पापा यहाँ एकदम अकेले पड़ गए हैं। उनकी देखभाल, खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं है। मैंने तय कर लिया कि पढ़ाई हो या ना हो अब पापा को छोड़ कर नहीं जाऊँगा। 

मगर अगले दिन पापा बात शुरू करते ही आग-बबूला हो गए। ‘तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो। बाक़ी चीज़ों से तुम्हें कोई मतलब नहीं। अगर तुम्हें भी अपनी मनमर्ज़ी करनी है तो करो।’ ग़ुस्सा होते-होते यहाँ तक धमकी दे दी कि ‘नहीं करोगे तो मेरा मरा मुँह देखोगे।’ यह बात कहते वक़्त उनके चेहरे, उनकी आवाज़ में जो दृढ़ता थी, उससे मैं डर गया। आख़िर मैंने यह तय किया कि एक काम वाली लगा कर जाऊँगा। जो साफ़-सफ़ाई, खाना-पीना पूरा कर दे। 

घर क़रीब दस दिन रुका रहा। पापा की आँखें चेक कराई। उन्हें दवा वग़ैरह दिलवाई। जब तक रहा तब तक उन्हें रोज़ घुमाने ले गया। भाइयों के प्रति पापा की सोच क्या बन गई है यह जानने के लिए मैं उनसे उन लोगों की बात करने की कोशिश करता तो पापा बिना देर किए बात यह कह कर टाल देते ‘बेटा वो लोग भी अपनी समस्याओं से जूझ रहे हैं। उनको जब समय मिलता है तब वे मेरा ध्यान रखते हैं।’ 

मैं मन में कहता पापा अपनी समस्याएँ तो सब की हैं। तो क्या कोई अपनी ज़िम्मेदारी नहीं पूरी करेगा। और आपकी यह बात बिलकुल झूठ है कि वो लोग समय मिलने पर अपका ध्यान रखते हैं। ऐसा होता तो आपको बार-बार पड़ोसियों की मदद ना लेनी पड़ती। मुझे इतने दिनों में सब मालूम हो गया है। समस्याएँ तो पड़ोसियों के पास भी हैं। लेकिन आपके बुलाने पर आ तो जाते हैं। फिर बेटे क्यों नहीं? दस दिन से देख रहा हूँ कि कोई एक बार भी देखने नहीं आया कि कैसे हैं आप? और मैं, आप खा-पी रहे हैं या नहीं। फोन तक तो आया नहीं। 
मेरा मन नहीं माना तो दिल्ली लौटने से एक दिन पहले मैंने कहा पापा ऐसा है कि मैं जब तक लौट कर आ नहीं जाता तब तक आप बड़े भइया के पास रहिए। या फिर यहाँ मकान किराए पर दे देते हैं। आप मेरे साथ चलिए। आप को सेफ़ करके ही मेरा मन पढ़ाई में लग पाएगा। पापा फिर बिफर पडे़। ‘तुम मेरी सेफ़्टी की चिंता मत करो। अभी मैं इतना गया-गुज़रा नहीं हूँ कि अकेले नहीं रह सकता। अब ज़माना बहुत बदल गया है बेटा, उसे देखते हुए अपने को ढालोेगे नहीं तो नुक़्सान उठाते रहोगे। ठीक है तुम्हें मेरी इतनी चिंता है तो जब नहीं रह पाऊँगा तब चला आऊँगा तुम्हारे पास दिल्ली। ज़रूर कोई अच्छे कर्म किए हैं जो तुम जैसी औलाद मिली।’ यह कहते-कहते वह भावुक हो उठे। 

अगले दिन मैं काम वाली के सहारे पापा को छोड़ कर दिल्ली आ गया। आने से पहले अपना कर्त्तव्य समझते हुए दोनों भाइयों से भाभी एवं बच्चों से भी मिला। बच्चों को छोड़ कर बाक़ी सब ऐसे मिले जैसे कोई बिन बुलाए आ पहुँचे मेहमान से मिलता है। किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि इतने दिन रहे, दुबारा क्यों नहीं आए? मँझले भइया की अनु ने ज़रूर कहा ‘आप तो दुबारा आए ही नहीं।’ मैंने कहा बस कुछ काम में उलझा रहा। 

इस बार दिल्ली आने के बाद मेरा मन हमेशा पापा पर लगा रहता। कैसे हैं, वो क्या कर रहे होंगे। खाना खाया कि नहीं। आते वक़्त मैं दो-तीन पड़ोसियों के मोबाइल नंबर ले आया था। उन्हें फोन करता रहता। हाल-चाल लेता रहता। काम वाली को दिन भर में दो तीन बार फोन करके पूछता रहता खाना दिया कि नहीं? उनकी तबियत कैसी है? वास्तव में यदि पापा का पढ़ाई पर इतना ज़ोर ना होता। वो इसे अपनी अंतिम इच्छा ना कहते तो इस बात की पूरी सम्भावना थी कि मैं पढ़ाई छोड़ कर लखनऊ चला जाता। लेकिन पापा ने जो बेड़ियाँ डाली थीं, वो पढ़ाई पूरी किए बिना खुलने वाली नहीं थीं। 

इसलिए मैंने जी-जान से पढ़ाई पर ध्यान दिया। प्रोफ़ेसर के एकदम पीछे पड़ गया। मगर उनके जितना पीछे पड़ता वह उतना ही हर चीज़ को उलझा देते। इससे मेरी उलझन बढ़ गई। मैं चिड़चिड़ा सा होने लगा। खीझ कर मन में यह भावना पनपने लगी कि जो होना होगा, होगा। अब प्रोफ़ेसर या किसी के पीछे नहीं पड़ूँगा। इधर पैसों की दिक़्क़त भी शुरू हो गई थी। घर पर नौकरानी और कई अन्य बातों से ख़र्च बढ़ गया था। इसलिए मैं पापा से कम से कम पैसा माँगता। 

पहले जो कमरा लेकर अकेले रहता था वह छोड़ दिया। वहाँ से एक सीनियर के साथ रहने विकासपुरी आ गया। उनके साथ कुछ और लड़के भी रहते थे। उनमें एक एम.टेक. कर रहा था। बाक़ी भी ऐसे ही कुछ ना कुछ पढ़ रहे थे। सीनियर जो थे वह भी मेरी तरह रिसर्च स्कॉलर थे। कहीं कुछ काम भी करते थे। रोज़ के काम के लिए बाई थी। यहाँ आकर मैं ख़र्च में कटौती कर ले गया। लेकिन इन साथियों का खाने-पीने, जीवन शैली से शुरूआती कुछ हफ़्तों तक मैं बड़ा असहज था। मगर यह साथी इतने उस्ताद थे कि मुझे जल्दी ही अपने जैसा बनाने में सफल हो गए। 

पहले जहाँ महीने में एकाध बार नॉनवेज लेता था, अब वह महीने में बीस-बाइस दिन हो गया। पहले जहाँ स्मोकिंग, टोबैको, वाइन आदि की आदत नहीं थी। मॉडल शॉप पर कभी-कभी ले लिया करता था। अब स्मोकिंग बराबर चलती। वाइन वग़ैरह भी शुरू हो गई। फ़ैशन का चस्का भी बढ़ता गया। ख़र्चा मेरा दुगुना से ज़्यादा हो गया था। वहाँ ख़र्च कम करने गया, मगर वह कई गुना बढ़ गया। लेकिन इन साथियों ने मन ऐसा बदला था कि एक बार भी वहाँ से हटने की बात मन में नहीं आती। बचत कैसे करूँ? ख़र्च में कटौती कैसे करूँ? यह मन में नहीं आता। बल्कि और पैसा कैसे लाऊँ? कहाँ से लाऊँ? यह बात मन में आई नहीं बल्कि उमड़ने लगी। 

साथियों की शाह-ख़र्ची देख कर मैं सोचता आख़िर ये सब कैसे इतना पैसा ला रहे हैं। मैं वहाँ पहुँचने के कुछ महीनों बाद से ही पापा से महीने में दो-दो बार पैसे माँगने लगा था। संकोच बहुत होता लेकिन आख़िर में माँग ही लेता। मगर अचानक ही एक समस्या आ खड़ी हुई। पापा की तबियत ख़राब हुई तो उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा। सूचना मिलने पर मैं जब वहाँ पहुँचा तब तक भाई लोग उन्हें एडमिट करा चुके थे। उन्हें लंग्स में संक्रमण के चलते साँस लेने में मुश्किल हो रही थी। 

मेरे पहुँचते ही उनके देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई। भाई लोग थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बस दो-तीन बार आ जाते। भाभी एक बार। और मँझले भइया की अनु सुबह, शाम दो बार आतीं। उसी हनक, अधिकार के साथ जैसे वह घर की बहू हैं। आते ही ऐसा बिहेव करतीं जैसे सीनियर डॉक्टर राउंड पर आई हैं। 
पापा से ऐसे प्यार से हाल-चाल, खाने-पीने की बातें करतीं जैसे वह उन्हें ना जाने कितना प्यार करतीं हैं। 

मैंने देखा कि पापा भी उनसे इस तरह बोलते-बतियाते बिहेव करते हैं मानो वह भी उन्हें बहू मान चुके हैं। पापा क़रीब महीने भर हॉस्पिटल में रहे। तीन लाख से ऊपर ख़र्च आया। पापा के पास जो जमा-पूँजी थी वह पहले डेढ़ दो हफ़्ते में ही ख़त्म हो गई थी। दोनों भाइयों ने अगर हाथ न बढ़ाया होता तो उनका ट्रीटमेंट ना हो पाता। मेरे पास तो समय के अलावा और कुछ था नहीं। 

पापा के पास जितना था उससे सरकारी हॉस्पिटल में तो इलाज हो सकता था, लेकिन किसी अच्छे प्राइवेट हॉस्पिटल में नहीं। इस पूरे एक महीने में सभी ने अपने-अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी कुल मिला कर पूरी की। मगर अनु ने जो किया उसे मैं किस खाने में रखूँ। यह मैं समझ नहीं पा रहा था। वो मुझे समीर भइया बोलतीं। आवाज़ में मधुरता थी। हॉस्पिटल में उन्होंने मेरे हाथ में हज़ार-हज़ार के क़रीब बीस नोट थमाते हुए कहा ‘इन्हें रख लीजिए। पता नहीं कैसी ज़रूरत पड़े।’ मेरा स्वाभिमान एकदम भड़क उठा कि क्या पापा के सारे लड़के-लड़कियाँ मर गए हैं जो एक बाहरी के पैसों से उनका इलाज होगा। क्या मैं इतना निकम्मा हूँ कि पापा के लिए दस-बीस हज़ार रुपए का भी इंतज़ाम ना कर पाऊँगा। 

मैंने अपनी आग अपने अंदर ही दबाए रख कर कहा, “नहीं इनकी कोई ज़रूरत नहीं है। पैसों की कोई कमी नहीं है। फिर आप क्यों परेशान हो रही हैं। हम लोग तो हैं ही।” मेरी इस बात पर वह बड़ी बारीक़ मुस्कान के साथ बोलीं, “ठीक कह रहे हो। हम सब हैं ना। इसी लिए तो दे रही हूँ। यहाँ अंदर बाहर की बात क्यों की जाए? मैं किसी बाहरी से तो कह नहीं रही। अपने देवर से ही कह रही हूँ।” मैं उन्हें एकटक देखने लगा तो बोलीं, “चलो भाभी ना सही, फ़्रेंड के नाते तो अधिकार है मेरा। मेरे अधिकार तो तुम छीनना नहीं चाहोगे।” 

मैं अंदर ही अंदर उनकी बातों से थोड़ा असमंजस में पड़ गया। फिर भी तुरंत बोल दिया, “आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। मैंने कहा ना पैसे की कोई कमी नहीं है। ज़रूरत होगी तो देखेंगे। और ये अधिकार-वधिकार के चक्करों में मैं पड़ता नहीं। जो मुझे ठीक लगता है वो मैं करता रहता हूँ। और अभी मुझे पैसे लेना क्योंकि बिल्कुल ठीक नहीं लग रहा है इस लिए नहीं लूँगा। क्योंकि अभी इसकी ज़रूरत ही नहीं है।”

मगर वह तो जैसे पीछा छोड़ने वाली ही नहीं थीं। बोलीं, “यही तो मैं कह रही हूँ कि ज़रूरत आए उस समय के लिए रख लो। और कभी-कभी अपने मन को पीछे कर बड़ों की बात भी तो मानी जाती है।” 

यह कहकर उन्होंने मुझे निरुत्तर कर दिया। और बड़े अधिकार के साथ मेरी शर्ट की जेब में पैसे डाल दिए। इसके बाद भी उन्होंने कई बार पैसे दिए। जो कुल मिलाकर चालीस हज़ार थे। मैंने उसमें से एक पैसा नहीं ख़र्च किया। जब महीने भर बाद पापा को हॉस्पिटल से डिस्चार्ज किया गया तो बड़े भइया उन्हें लेकर अपने घर चले गए। उन्होंने कहा, “अकेले वहाँ ठीक नहीं है। और यहाँ से वहाँ जाकर देखभाल नहीं की जा सकती।” उनकी बात को सबने मान लिया। मुझे भी इससे बड़ी राहत मिली। मगर भाभी या भइया ने एक बार भी नहीं कहा कि समीर तुम भी यहीं रुक जाओ। मेरा मन इससे बहुत टूट गया। अनु वहाँ भी ऐसे मिक्सप थीं जैसे कभी मँझली भाभी हुआ करती थीं। 

मैं अपने घर चला आया। खाना बड़ी भाभी के कहने पर वहीं खा लिया था। उस दिन हॉस्पिटल में महीने भर की थकान के बावजूद मैं रात में सो नहीं पाता, क्योंकि भाइयों ने, भाभी ने जो व्यवहार किया। एक शब्द किसी ने नहीं बोला कि ‘रुक जाओ’ उससे मैं बहुत आहत था। इसलिए आते वक़्त सिग्नेचर का एक क्वार्टर, सिगरेट लेता आया था। घर में कोई तो ऐसा था नहीं जिससे मैं छिपाता। एक पापा थे तो वो भी हालात के चलते भाई के यहाँ थे। लेकिन मैं इस बात से थोड़ा निश्चिंत हुआ कि चलो उनकी देखभाल होती रहेगी। मैं अकेले यहाँ क्या कर पाऊँगा। 

व्हिस्की के सहारे मैं रात भर बेसुध हो कर सोया। अगले दिन सुबह दस बजे उठा। तैयार होकर पापा को फोन किया, वो ठीक थे। तो मैं दिन भर इधर-उधर घूमता रहा। यूनिवर्सिटी में कुछ दोस्तों के पास गया। शाम को मँझले भइया के पास गया। असल में वहाँ जाने का ना मेरा मन था। और ना कोई और बात। मैं अनु को उनका चालीस हज़ार रुपया वापस करना चाहता था। क्योंकि मेरा मन अभी तक उनके पैसों पर लगा था। 

मैं जानबूझ कर नौ बजे के बाद घर पहुँचा जिससे भइया भी मिलें। लेकिन तब तक वो दुकान से नहीं आए थे। पहुँचने पर अनु ने बैठाया। वो बातें करना चाहती थीं। पापा के बारे में, मेरी पढ़ाई के बारे में। लेकिन मैं सीधे मुद्दे पर आ गया और उनके दिए चालीस हज़ार रुपए उनके सामने रखते हुए कहा। ये रख लीजिए। चालीस हज़ार हैं। रुपयों की ज़रूरत पड़ी नहीं इस लिए ये बच गए। ये सारे नोट भी वही थे जो अनु ने दिए थे। रुपए देखकर अनु थोड़ा अचंभे में पड़ीं। बोलीं, “क्या भइया। मुझसे इतनी नफ़रत।” उनकी इस बात से मैं एकदम सकते में आ गया। 

मैंने तो सोचा था कि वो थोड़ी फ़ॉफ़ॉर्मेलिटी करेंगी और रुपए रख लेंगी। लेकिन उन्होंने तो बात का रुख़ ही ऐसा मोड़ा कि मैं परेशान हुआ। ग़ुस्सा भी आया कि ये क्यों अपने पैसों से हमारे ऊपर एहसान लादना चाहती हैं। क्या पापा के लड़के इतने सक्षम नहीं है कि एक ऐसी महिला से हेल्प लें जिसका न तो घर से कोई रिश्ता तय है, और ना यह तय है कि कितने दिन साथ रहेंगी। जिससे रिश्ता था उसने तो यह गुल खिलाया। ये क्या करना चाहती हैं। जो बात करना है भइया के साथ करें। बाक़ी से क्या रिश्ता? 

मैंने भी उन्हें बड़े सपाट शब्दों में कहा, “ज़रूरत ही नहीं पड़ी तो बेवजह फेंक तो देता नहीं। इसलिए रखिए। हमें बेवजह किसी के लिए इतना परेशान नहीं होना चाहिए। मेरा मूड इतना ख़राब हो गया,” इतना कह कर उठा। और उन्हें नमस्कार कर वापस चल दिया। उन्होंने नमस्कार का जवाब दिया या नहीं यह भी नहीं देखा। वो ‘सुनिए तो, आप नाराज़ हो गए क्या? मैंने ऐसा तो कुछ कहा नहीं।’ यह कहते-कहते वह गेट तक आ गईं। लेकिन मैंने उन पर ध्यान दिए बिना बाइक स्टार्ट की और घर चला आया। भइया से मिलने का प्लान त्याग दिया। मुझे लगा कि शायद अनु फोन करेंगी। लेकिन फोन नहीं आया। सोचा शायद भइया के आने के बाद आए लेकिन नहीं आया। इससे ना जाने क्यों मेरे मन में अजीब सी खीझ पैदा हो गई। 

अगले दो-तीन दिन मैं दिन में किसी टाइम पापा को देख आता। बाद में फोन करता रहता। क़रीब हफ़्ते भर बाद मुझे लगा कि वो ठीक हो चुके हैं तो मैं दिल्ली वापस आ गया। आते समय पापा, भाभी, भाइयों से मिला मगर किसी ने एक बार नहीं पूछा कि खाना वग़ैरह खाया कि नहीं। पैसे हैं कि नहीं। बस पापा ने पैर छूते समय आशीर्वाद दिया। ऐसे वक़्त पर अम्मा की इतनी याद आई कि मैं किसी तरह अपने को रोने से रोक पाया। सोचा अम्मा होती तो क्या वह ऐसे जाने देतीं। 

वह तो अपने किसी भी बेटे के कहीं भी जाते समय दही, अक्षत से तिलक करती थीं। चम्मच से दही शक्कर खिलाती थीं। आशीर्वाद देती थीं। मगर यह सब अब कहाँ है? अम्मा की जगह और कौन ले सकता है? अम्मा की जगह पैसे के लिए पापा ने पूछा तो मैंने कह दिया ‘हैं’। मगर सच यह था कि तब मेरे पास पैसे नहीं थे। लेकिन अब मैं वहाँ ज़्यादा ठहर नहीं सकता था। लौट कर मैं कई दिन बड़ा परेशान था। कि क्या करूँ? कहाँ से पैसा लाऊँ? पापा से अब मैं किसी सूरत में पैसा नहीं लेना चाहता था। क्योंकि अब उनकी दवा पर बराबर ख़र्च होना था। 

मैंने सोचा भाई देखभाल कर रहे हैं। लेकिन बराबर पैसा भी ख़र्च करेंगे तो ऊब जाएँगे। पैसा मिलता रहेगा तो ऊबेंगे नहीं। इस उधेड़बुन से सिर फटने लगा तो आख़िर मैंने तय किया कि हो चुकी पढ़ाई। अब लौट चलें। घर पर रहेंगे। वहीं कुछ करेंगे। फिर उस दिन शाम को अपने साथियों से कह दिया कि अब मैं जा रहा हूँ। वापसी का असली कारण मैं किसी से शेयर नहीं करना चाहता था। लेकिन चेहरे पर आ-जा रहे भावों को रोक भी नहीं पा रहा था। आख़िर एक साथी जो मेरी ही तरह रिसर्च स्कॉलर थे उन्होंने कहा, “समीर यह बात समझ में नहीं आ रही है। रिसर्च में इतना आगे आने के बाद बीच में छोड़ना सिवाय मूर्खता के और कुछ नहीं है। 

“फ़ादर तुम्हारे अब ठीक हैं। वो जानेंगे तो उनको बुरा लगेगा। जिस तरह तुम बताते रहे उससे तो तुम्हें डॉक्टरेट एवॉर्ड होना उनकी अंतिम इच्छा है। इस नज़रिए से देखें तो तुम जा क्यों रहे हो यही समझ में नहीं आ रहा है। मैं तो यही कहूँगा कि ऐसा कोई कारण है ही नहीं कि तुम सब छोड़-छाड़ कर घर चले जाओ।” इसके बाद उन्होंने जिनका नाम सौमित्र डे था और बिहार के रहने वाले थे, मुझसे सच जान ही लिया। सच जानने के बाद बोले, “अब मैं तुम्हें किसी हालत में नहीं जाने दूँगा।” फिर उन्होंने अपनी आर्थिक समस्याओं के बारे में बताया जो उन्होंने शुरूआती दिनों में झेली थीं। 

उन्होंने कहा, “मैं तुम्हारी तरह हार मान लेता तो आज कहीं का नहीं रहता। मगर अब सब कुछ अपने हिसाब से कर रहा हूँ। वो दिन भी दूर नहीं जब मैं प्रोफ़ेसर भी बन जाऊँगा।” तब उन्होंने बताया कि वह शाम को एक कोचिंग में पढ़ाते हैं। और दिन में एक कंपनी का भी काम-धाम सँभालते हैं। काम ठेके पर है। जो बचता है वह रात में घर पर करते हैं। उसी समय हमें बाक़ी साथियों के बारे में भी पता चला। केवल एम.टेक. कर रहा विपुल ही ऐसा था जो कहीं काम नहीं करता था। घर से जितना पैसा आता था वह उसके ख़र्च को देखते हुए हफ़्ते भर के लिए भी पर्याप्त नहीं था। सौमित्र के कहने पर मैंने अपने विचार बदल दिए। 

मैंने एक बार फिर तय कर लिया कि जैसे भी हो पापा की इच्छा पूरी करनी ही है। मैंने विश्लेषण दूसरी तरह से किया कि इच्छा तो हम उनकी पूरी करेंगे। लेकिन भविष्य तो मेरा ही बनेगा। जीवन भर आराम से तो मैं रहूँगा। महीने भर बड़ी जोड़-तोड़ अथक कोशिशों और सौमित्र के सहयोग से एक काम मिल गया। उससे इतना पैसा मिलना शुरू हो गया कि मैं खींच-तान कर किसी तरह अपनी गाड़ी बढ़ा सकता था। मगर साथियों की शाह-ख़र्ची से मैं स्वयं को शर्मिंदा महसूस करने लगा। मेरा भी मन उन सब की तरह ख़र्च करने को मचलने लगा। वह सब के सब ठीक वीकएंड पर रात नौ बजे तक मस्ती पर निकल जाते। फिर अगले दिन आते। बीच में भी ऐसे कई दिन होते जब इनमें से कोई न कोई रात को नहीं लौटता। 

इन सबने मुझे तब तक यह नहीं बताया था कि वे कहाँ जाते हैं? क्या करते हैं? पूछने पर यही कहते। ‘हम वो मज़ा लेते हैं जिसके बारे में तुम सोच भी नहीं सकते, और हम बता भी नहीं सकते। क्योंकि कैसे बताएँ यह हमें आता नहीं। जब आता नहीं तो बताएँ क्या? जानना है, मज़ा लेना है, तो साथ चलो।’

मैंने कहा तो ठीक है, बताओ ना कब चलना है। वैसे पार्टी-सार्टी के लिए फ़िलहाल मेरे पास पैसा नहीं है। इस पर विपुल हँस पड़ा, “अरे डिब्बे से बाहर निकल तभी जान पाएगा कि कुछ ऐसी पार्टियाँ भी होती हैं जिनमें पैसे की ज़रूरत ही नहीं होती। होती है तो ज़िंदादिली की; एक कंप्लीट पर्सनॉल्टी की। जब ये हो तो पैसा और मज़ा दोनों आता है। कूल मैन अब तुम तय कर लो कि कूल ही बने रहोगे या एक कंप्लीट मैन की तरह जियोगे।”

मुझे उसकी बात बड़ी अटपटी लगी। साथ ही चैलेंज भी। और रहस्यमयी भी। मैंने उसके साथ-साथ सौमित्र से भी और जानना चाहा लेकिन उन्होंने भी कहा, “जानना है तो साथ चलो। ऐसा एंज्वायमेंट पहले कभी नहीं मिला होगा। इसका हम चैलेंज करते हैं।” उन सब की बातों ने मुझमें उत्सुकता की ऐसी लहर पैदा कर दी कि मैंने भी एक बार चलने का निर्णय कर लिया। दो दिन बाद ही वीकएंड था। जब मैंने उन सबसे कहा कि मैं चलूँगा तो विपुल ऐसे चहका जैसे उसकी लॉटरी लग गई हो। बोला, “अरे वाह टीम में फ़्रेश प्लेअर आ गया। कल की पार्टी की तैयारी आज से ही शुरू कर दी जाए।” बाक़ी सब भी उसके सुर में सुर मिला कर हँस पड़े। 
रात दस बजते-बजते सब तैयार हो गए। सबने लिवाइस, पे-पे की महँगी जींस, ब्रांडेड शूज़, टी-शर्ट पहन रखी थी। जींस तो मेरी भी ब्रांडेड थी लेकिन टी-शर्ट नहीं। शूज़ भी ठीक ही थे। उन सब की यह सारी बातें मुझे रहस्यमयी लग रही थीं। और मुझे आगे भी बढ़ा रही थीं। सबने अपने ऊपर डियो ऐसे डाला था मानो उसी से नहा लेंगे। पूरा कमरा उसकी स्मेल से महक रहा था। 

क़रीब दस बजे दो-दो के जोड़ों में आगे-पीछे सब निकल लिए। मैं सौमित्र की बाइक पर था। विपुल की बाइक पर जेवियर और सुहेल की बाइक पर जसविंदर था। मैं उस टीम में एक ऐसा सदस्य था जिसे ये नहीं मालूम था कि करना क्या है? जा कहाँ रहे हैं? आख़िर में ये क़ाफ़िला साउथ एक्सटेंशन मार्केट में एक बड़े रेस्टोरेंट के पास रुक गया। इशारों में सब में क्या बात हो गई मुझे पता नहीं चला। फिर वहीं पास की पार्किंग में बाइक खड़ी कर सब अलग-अलग चहलक़दमी करने लगे। सौमित्र, मैं वापस रेस्त्रां के पास खड़े हो गए। 

मैं भी उत्सुकता से उन्हीं के साथ खड़ा रहा। चहलक़दमी करते बाक़ी में कोई सिगरेट पी रहा था तो कोई च्यूइंगम चबा रहा था। मगर एक काम सबने कर रखा था कि अपना-अपना रुमाल अपने गले में बाँध लिया था। उन सबकी यह नौटंकी मेरी समझ में एकदम नहीं आ रही थी। तभी थोड़ा सा आगे एक लग्ज़री महँगी कार बहुत धीमी स्पीड में आकर रेंगने सी लगी। मेरी नज़र उस कार के लुक के कारण उस पर चली गई थी। वह रेंगती हुई आख़िर रुक गई। 

तभी मैं चौंका, विपुल अचानक ही वहाँ कार के पास पहुँचा। अंदर जो भी ड्राइवर था उसने विपुल की तरफ़ के दरवाज़े का शीशा थोड़ा नीचा किया। विपुल भी थोड़ा झुका। शायद वह अंदर बैठे शख़्स से कुछ बातें कर रहा था। बमुश्किल दो मिनट बीता होगा कि कार का दरवाज़ा खुला और विपुल अंदर बैठ गया। उसके बैठते ही कार एक झटके में स्पीड लेती हुई सीधे आगे को निकल गई। मैंने सौमित्र की ओर देखा तो उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। धीरे-धीरे च्युंगम चबाए जा रहे थे। 

इसके बाद जेवियर, जसविंदर, सुहेल भी इधर-उधर टहलते रहे। पंद्रह मिनट भी ना बीता होगा कि जेवियर भी निकल गया। इसके बाद जसविंदर, सुहेल बाइक से कहीं और निकल गए। मैं सौमित्र के साथ ही रहा। तभी मैंने वहाँ कुछ और नवयुवकों को भी गले में रुमाल बाँधे देखा। मुझसे जब रहा ना गया तो मैंने सौमित्र से पूछा आख़िर हो क्या रहा है? विपुल और बाक़ी सब गए कहाँ? सभी कहीं एंज्वॉय करने के लिए चलने की बात कर रहे थे। सौमित्र ने च्यूंगम थूकते हुए कहा। 

“विपुल और बाक़ी सब तो एंज्वॉय करने गए रात भर को। अब वो कल मिलेंगे। और मैं भी निकलूँगा थोड़ी देर में।” 

मैंने कहा, “और मैं, आप लोग तो मुझे भी लाए हैं साथ। सब लोग मुझे छोड़ कर जा रहे हैं।”

सौमित्र ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “सुनो यहाँ सब अकेले ही जाते हैं। मैं भी किसी के साथ चला जाऊँगा, तुम्हें यहीं अकेले छोड़ कर, उस लेडी के साथ जो आएगी और रात भर अपनी कंपनी के लिए मुझे साथ ले जाएगी। तुम भी एंज्वॉय करने आए हो तो हम लोगों की तरह एंज्वॉय करो किसी लेडी के साथ, जो रात भर कंपनी के लिए तुम्हारा साथ चाहे।”

मैंने कहा, “मैं यहाँ किसी लेडी को जानता ही नहीं, मुझे कोई क्यों कॉल करेगी?”

इस पर सौमित्र ने कहा, “डियर इस खेल में कोई परिचित कभी भी कॉल नहीं करेगा। अपना रूमाल निकालो, गले में बाँधो। कोई लेडी ख़ुद कॉल करेगी। आएगी।”

फिर आगे सौमित्र ने जो बताया उससे मैं भौचक्का रह गया। जिनके साथ मैं आया था एंज्वॉय करने वो सब तो घिनौने लोग थे। सौमित्र भी। 

मतलब मैं इतने दिनों से जिगोलोज़ के साथ रह रहा था। मुझे शॉर्ट में डिटेल्स बताते हुए उसने कहा, “इसमें मज़ा भी है, पैसा भी है। ये रिच वुमेन कई बार दो-तीन घंटे के लिए साथ ले जाती हैं। तो कई बार रात भर के लिए। हर एक की अलग-अलग फ़ीस है। तुम भी जाना चाहते हो तो गले में रुमाल बाँधो जल्दी ही कोई आ ही जाएगी।” 

मैंने पूछा, “रुमाल ज़रूरी है क्या”

तो उसने कहा, “इससे रिच वूमेन जान जाएगी कि तुम रेडी हो। हाँ रुमाल की लंबाई तुम्हारे प्राइवेट पार्ट की लंबाई को इंडिकेट करती है।” और फिर सौमित्र ने अलग-अलग लंबाई के लिए अलग-अलग साईज़ का रुमाल बता दिया। अपनी बात पूरी कर वह बोला, “अब मैं भी तुम से अलग रहूँगा। नहीं तो कोई लेडी मुझे कॉल नहीं करेगी। तुम भी रुमाल बाँध लो।” मुझे असमंजस में पड़ा देखकर उसने कहा, “अच्छा तुम डिसीज़न लेते रहना। मैं चलता हूँ।” यह कह कर वह रोड के दूसरी तरफ़ चला गया। 

इसके पहले जिगलोज़ के बारे में मैंने सुना था। मगर यहाँ तो देखने की छोड़िए उन्हीं के साथ रह रहा था। जिगलो यानी पुरुष वेश्याओं के साथ। मैं ज़्यादा देर वहाँ खड़ा नहीं रहना चाहता था इसलिए सौमित्र की बाइक जो मेरे पास थी उसे लेकर पहले इधर-उधर घूमता रहा। फिर क़रीब दो बजे घर आकर सो गया। सौमित्र मुझसे अलग होने के बाद मुश्किल से बीस मिनट था वहाँ। फिर एक कार रुकी थी। वह आराम से चहलक़दमी करते हुए पहुँचा था वहाँ। कुछ देर बाद वह भी विपुल की तरह कार में बैठ कर फुर्र हो गया था। 

घर लौटने और सोने तक मैं इस कंफ्यूजन में था कि अब मुझे क्या करना चाहिए। इन सब के साथ रहना चाहिए या नहीं। ये सब जो कर रहे हैं वह सही है या ग़लत यह भी नहीं तय कर पा रहा था। असल में मेरा भी मन भटक रहा था। उन लग्ज़री गाड़ियों, उनमें बैठी महिलाओं और उनसे मिलने वाली रक़म, और साथ ही उनके साथ सेक्स के अट्रैक्शन ने बल्कि यह कहें कि पैसे से ज़्यादा मेरा मन सेक्स के तरफ़ भाग रहा था। 

मन में यह भी आया कि बेवजह लौट आया, चला जाता। यहाँ अकेले पड़ा बोर ही तो हो रहा हूँ। कौन है यहाँ देखने वाला? किसको परवाह है यहाँ किसी की? ये सब इतने दिनों से यह सब करते आ रहे हैं, कौन जान पाया? मैं तो साथ रह के भी नहीं जान पाया। इन सबने बताया तभी मालूम हुआ। इन सब की कमाई तो इससे ही हो रही है। नहीं तो ये भी मेरी तरह क्राइसिस झेल रहे होते। मगर इसके बारे में सब कुछ जाने बिना क़दम बढ़ाना भी तो अच्छा नहीं है। यही सब सोचते-सोचते मैं सो गया। सुबह जब नींद खुली तो दस बज रहे थे। 

उठ कर देखा तो सारे साथी अपने-अपने बेड पर बेसुध पड़े थे। इंटरलॉक की चाभी सबके पास थी। इसलिए किसी को उठाने की ज़रूरत नहीं होती थी। उठते ही पेपर और चाय की आदत से मजबूर मैंने चाय बनाई। पेपर पड़ा था दरवाज़े पर उसे ले आया। घंटे भर पढ़़ता रहा। फिर तैयार होकर प्रोफ़ेसर के यहाँ चला गया। छुट्टी में उनके यहाँ ड्यूटी बजाना ज़रूरी था। सभी साथी क्योंकि छह-सात घंटे से पहले उठने वाले नहीं थे। इसलिए मैं भी शाम से पहले लौटने वाला नहीं था। सभी साथियों का यह नियम था कि जब भी रात को अपने मिशन पर निकलते तो अगले दिन पूरा समय सोते। 

शाम को जब मैं लौटा तो घर में चिकेन, मटन, व्हिस्की, चल रही थी। मुझे देखते ही विपुल बोला, “वेलकम वेलकम माय डियर। एंज्वॉय द पार्टी।” और मैं जब तक बैठूँ तब तक उसने एक पैग बना कर मेरे सामने रख दिया। साथ में सिगरेट, लाइटर, ढेर सारे चिकेन लेग पीस से भरी प्लेट, चिकेन मंचूरियन की प्लेट भी। इस समय सब के सब फुल मस्ती में थे। सब अच्छे-ख़ासे नशे में थे। 

मैं भी उनके साथ शामिल हो गया। जिन लेडीज़ के साथ इन सब ने रात बिताई थी सब उन्हीं की बातें कर रहे थे। हमेशा की तरह बातचीत में उन लेडीज़ के लिए एक से एक वल्गर वर्ड्स बोले जा रहे थे, बातें की जा रही थीं। कोई उनकी फ़िज़ीक की बात करता। तो कोई सेक्स को लेकर उनकी जानकारी, उनकी इच्छाओं, उनकी पसंद की बात करता। बेडरूम, फ़र्नीचर, गाड़ियाँ सब कुछ शामिल था इसमें। 

मैं सच जान चुका हूँ सब यह सोच कर आज और भी खुल कर बातें कर रहे थे। पहले कुछ बातें संकेतों में होती थीं इस लिए मैं समझ नहीं पाता था। मगर आज बातचीत बिल्कुल साफ़ थी। बातचीत में सब अपनी-अपनी कमाई भी बताना नहीं भूल रहे थे। सबसे ज़्यादा जसविंदर ने पंद्रह हज़ार रुपए कमाए थे। सबसे कम जेवियर ने केवल नौ हज़ार कमाए। पार्टी ख़त्म हुई तो सब बाहर निकल गए घूमने के लिए। मुझे भी साथ जाना पड़ा। 

भीतर से मेरा मन कह रहा था कि कोई भी बाहर ना जाए। इस समय सब नशे में हैं और ऐसे में ड्राइव करना अच्छा नहीं। कहीं चेकिंग वगै़रह में पकड़ लिए गए तो और मुश्किल। देर रात जब सब लौटे तो नशा उतर चुका था। सब अब मुझसे इस बारे में खुल कर बात कर रहे थे। मुझे इस लाइन की बारीक़ियाँ बता रहे थे। और फ़ील्ड में तुरंत उतर आने को कहने लगे। तर्क एक से एक कि अभी हम पैसा इतना कमाते नहीं। आगे बढ़ने के लिए बहुत कुछ करना ही पड़ेगा। और उन सब की तमाम बातों के बाद मैंने उन्हीं के सुर में बोल दिया कि अगले वीकएंड पर चलूँगा। और गेम खेल कर ही लौटूँगा। 

सक्सेस को लेकर मैंने संदेह व्यक्त किया, और यह भी कि सड़क पर गले में रुमाल डाल कर मैं चल पाऊँगा यह भी कुछ निश्चित नहीं कह सकता। तो सौमित्र बोला, “ये कोई प्रॉब्लम नहीं है। रुमाल बाँध कर नहीं चलना चाहते तो एक प्वॉइंट ऐसा है जहाँ तुम अपने को रजिस्टर करा दो, वो तुम्हारी डिटेल्स के अनुसार क्लाइंट आने पर तुम्हें कॉल करेंगे। 

“पेमेंट भी वही तय करेंगे, तुम मिनिमम चार्ज बता देना। तुम्हें जो पेमेंट मिलेगा उसका तीस पर्सेंट तक उस प्वाइंट को देना होगा। अब तीस पर्सेंट बचाना चाहते हो तो रुमाल बाँधो, नहीं तो नहीं।” फिर सौमित्र ने रेट कैसे फ़िक्स होता है यह भी बताया। कहा ‘यदि फ़ोर, सिक्स पैक एब्स मेंटेन हैं तो पेमेंट बढ़ जाएगी’ इसके बाद वीक एंड आने तक ये सारे साथी मुझे शिक्षित करते रहे। मैं इस शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ कंफ़्यूज होता रहा, जाऊँ या ना जाऊँ इसी में उलझता रहा। और जब समय आया तो अंततः साथियों के प्रोत्साहन ने क़दम बढ़ा ही दिए। 

गले में रुमाल के साथ चलना मैंने स्वीकार कर लिया था तो किसी प्वॉइंट में डिटेल्स दर्ज नहीं कराई। उस दिन सभी एक ही जगह ना जाकर तीन तरफ़ निकले। मैं सौमित्र के साथ जनकपुरी गया। जेवियर, सुहेल आई.ऐन.ए. अंसल प्लाज़ा और विपुल कनाट प्लेस को चला गया। जसविंदर किसी पब को चला गया। सौमित्र किसी पब, कॉफ़ी हाउस या डिस्कोथेक में रुमाल बाँध कर चलना पसंद नहीं करता था। 

इस फ़ील्ड की दृष्टि से मेरा पहला दिन सक्सेफ़ुल रहा। सौमित्र को क्लाइंट मुझसे पहले मिल गई थी। या यह कहें कि पहुँचते ही मिल गई थी। मुझे घंटे भर बाद मिली। तब क़रीब बारह बज रहे थे। उसके पहले मुझे लगा कि शुरूआत ही गड़बड़ होने वाली है। अभी तक कोई आया नहीं। लेकिन निराश मन को आख़िर मंज़िल मिली। एक गहरे नीले रंग की ऑडी एसयूवी मेरे सामने रुकी। मेरी तरफ़ वाले दरवाज़े का शीशा नीचे हुआ। 

मेरी नज़र तुरंत गाड़ी के अंदर गई तो ड्राइविंग सीट पर बैठी लेडी को अपनी तरफ़ देखते पाया। गाड़ी में लाइट बेहद कम थी। फिर भी मैं उस महिला को ठीक से देख पा रहा था। उसने फ़्रेमलेश चश्मा लगा रखा था। बाल कन्धों से नीचे तक झूल रहे थे। उसने गोल गले की ढीली-ढाली डार्क ब्राउन कलर की टी-शर्ट और जींस पहन रखी थी। आँख से इशारा कर उसने क़रीब बुलाया तो मैं गाड़ी के दरवाज़े पर जाकर खिड़की पर झुका और बोला, “यस मैम, कैन आई हेल्प यू।” मेरे यह कहने पर उसने क्षण भर मेरी आँखों में देखने के बाद अंदर बैठने को कहा। मैं दरवाज़ा खोल कर अंदर बैठ गया, उसकी बग़ल वाली सीट पर। उसने गाड़ी धीरे से बढ़ाते हुए कहा, “सिंस व्हेन आर यू इन दिस फ़ील्ड (कब से हैं इस फ़ील्ड में)?” 

उसके इस अनपेक्षित प्रश्न से मैं थोड़ा गड़बड़ा गया। क्योंकि सौमित्र ने कहा था—वो तो टाइम बताती हैं, चार्जेज़ पूछती हैं। फिर भी मैंने सँभलते हुए कहा, “फ़ॉर दि लास्ट फ़्यू मंथ्स ओनली (कुछ महीने से)।” 

“हाउ मैनी (कितने)?”

मैंने कहा, “फ़ॉर दि लास्ट फ़ाइव ऑर सिक्स मंथ्स (यही कोई पाँच या छह महीने से)।”

इस पर वह बड़ी रहस्यमयी मुस्कान मुस्काई। फिर बोली, “हाउ मच डू यू चार्ज फ़ॉर दि होल नाइट। (आपकी पूरी रात की फ़ीस कितनी है)?”

मुझे सौमित्र की बातें याद आईं, उसी आधार पर मैंने कहा, “इट्स ट्वेंटी थाउज़ेंड रुपीज़, वुड यू लाइक टू पे दिस मच? (बीस हज़ार, आप इतना देना पसंद करेंगी)?” 

मेरे इतना कहने पर वह बोली, “इट्स टू मच। आई कैन अफ़ोर्ड टू पे रुपीज़ टेन थाउज़ेंड ओनली। (यह तो बहुत हैं। मैं दस हज़ार दे सकती हूँ)?”

“इट्स ऑल राइट। आई एक्सेप्ट योर ऑफ़र। (मैंने कहा ठीक है। मुझे यह स्वीकार है)।” 

मैं हड़बड़ाहट में था कि कहीं डील टूट ना जाए। एक कारण और था तुरंत हाँ करने का। वह क़रीब पैंतीस साल की बहुत आकर्षक महिला थी। मैं वह व्यक्ति था जिसने पहले कभी सेक्स का अनुभव नहीं लिया था। यहाँ तो उम्मीदों से एकदम अलग एक शानदार महिला ने न सिर्फ़ मुझे सेक्स के लिए पसंद किया बल्कि अच्छी क़ीमत भी दे रही थी। और लग्ज़री गाड़ी में ख़ुद ही बैठा कर ले भी जा रही थी। मेरे ‘डन’ करते ही वह मुस्कुराई और बोली, “इट्स ए साउंड डिसीज़न (बहुत अच्छा निर्णय है),” फिर उसने गाड़ी की रफ़्तार बढ़ा दी। 

वैसी लग्ज़री गाड़ी में मैं पहली बार बैठा था। वहाँ से मुझे लेकर वह कीर्ति नगर के पास एक अच्छे-ख़ासे बड़े से मकान के गेट पर रुकी। मुझे बैठे रहने को कह कर वह उतरी, गेट का ताला खोल कर गाड़ी पोर्च में खड़ी की। गेट बंद किया। मैं अब भी अंदर बैठा था। उसने खिड़की के शीशे पर नॉक कर अंदर आने का इशारा किया। उसके पीछे-पीछे मैं उस बड़े से घर में पहुँचा। मुझे ड्रॉइंग रूम में सोफ़े पर बैठने को कह कर वह मैडम अंदर चली गईं। 

घर मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत था। वहाँ की एक-एक चीज़ घर की रईसी को बता रहे थे और यह भी कि यहाँ सदस्यों की संख्या ना के बराबर है। मुझे बैठे पाँच मिनट भी ना हुआ होगा कि वह महिला अंदर आई। उसके ठीक पीछे एक और महिला थी, वह उसी की बहन सी लग रही थी। मगर दो-चार साल बड़ी। दोनों मेरे सामने वाले सोफ़े पर बैठ गईं। मैं उन दोनों को देख कर सहम गया। 

मैंने सोचा कि यह तो अकेली थी। इसने यह तो बताया ही नहीं कि मुझे दो को सर्विस देनी है। जब एक अंदर घर में थी तो गेट पर बाहर से ताला लगाने का क्या मतलब है? हालाँकि दोनों की बॉडी लैंग्वेज, हाव-भाव बड़े अच्छे थे। बेहद शालीन, सभ्य, सुसंस्कृत लग रही थीं। दोनों ने ऐसे बात शुरू की जैसे हम बहुत पहले से मित्र रहे हैं। पाँच मिनट की बात में ही दोनों ने ही मेरे मुँह से सच निकलवा लिया कि मैं इस फ़ील्ड में न्यूकमर हूँ, यह मेरा पहला दिन है। मेरे सॉरी बोलने पर वह दोनों मुस्कुरा कर रह गईं। इस बीच मुझसे यह पूछ लिया गया कि क्या मैं दोनों को सर्विस दे सकता हूँ। क्षण भर में मैंने सोच लिया कि मैंने ना किया तो कमज़ोर साबित होऊँगा। अनाड़ी तो साबित हो ही चुका हूँ। 

फ़ेल्योर पर्सन बन कर यहाँ से निकलना अच्छा नहीं। और इस बात की भी पूरी सम्भावना है कि दोनों के लिए एग्री न होने पर ये बैरंग ही वापस कर दें। मैंने यह सारी बातें मन में कौंधते ही पूरा कॉन्फ़िडेंस शो करते हुए ‘हाँ’ कर दी। इस पर बड़ी वाली के चेहरे पर बड़ी रहस्यमयी मुस्कान बिखर गई। इसके बाद डील फिर से तय हुई। कहाँ तो मैं एक से बीस हजा़र रुपए चार्ज करने की सोच कर घर से निकला था, फिर दस पर तैयार हो गया। वहीं फिर पंद्रह हज़ार में ही दो को सर्विस देने के लिए तैयार होना पड़ा। उन दोनों ने मुझे पूरी छूट दी थी कि मैं चाहूँ तो वापस जा सकता हूँ। 

वे मुझे कंवेंस चार्ज के साथ-साथ इतना समय देने के लिए कुछ एक्स्ट्रा चार्ज भी दे देंगी। लेकिन मैं अब रोल बैक के लिए तैयार नहीं था। इस लिए सर्विस स्टार्ट हुई। मैंने सोचा था कि दोनों अलग-अलग टाइम में सर्विस लेंगी। लेकिन मैं ग़लत था। सर्विस साथ ही देनी पड़ी। मुझे या यह कहें कि मेरे लिए यह बड़ा शॉकिंग मूवमेंट रहा। शुरू से लेकर आख़िर तक कई तरह के ड्राई नॉनवेज़, और बड़ी महँगी व्हिस्की के भी दौर चले। बेहद शालीनता के साथ। इस काम में भी बेहद हाई क्लास सोसायटी वाली बातों को मैं देख सुन रहा था। 

बड़ी वाली महिला की अंग्रेज़ी अमेरिकन अंग्रेज़ी के बहुत क़रीब थी। मेरी अंग्रेज़ी उन दोनों के सामने बस काम चलाऊ भर थी। दोनों ने बातचीत का ऐसा समां बाँधा था कि लग ही नहीं रहा था कि मैं एक अजनबी से मुख़ातिब हूँ। मेरी घबराहट ना जाने कहाँ चली गई थी। या ये कहें कि वह दोनों इतनी एक्सपर्ट थीं कि मुझे यह अहसास ही नहीं होने दिया कि मुझे क्या कैसे करना है। बल्कि उन्होंने जैसा चाहा मुझसे वैसा करवा लिया। 

लास्ट में यह कह कर तारीफ़ की कि उन दोनों ने ख़ूब एंज्वॉय किया। मेरे लिए तब यह सब आश्चर्यजनक ही था। मैं यंत्रवत सा बोल गया कि ‘मी टू’ इस पर दोनों खिलखिला कर हँस पड़ीं। मानो मेरी खिल्ली उड़ा रही हों कि बेटा तुमने क्या एंज्वॉय किया? तुमने तो वो किया जो हमने करवाया। तुम एक मशीन हो जिसका रिमोट मेरे हाथ में है। और फिर जैसे मुझे मेरे दायरे में रखने, मुझे मेरी हैसियत बताने की दोनों ने कोशिश की। 

छोटी वाली बोली, “यू शुडन्ट हैव गिवेन फ़ॉल्स इंर्मेशन। दि साइज़ ऑफ़ योर हैंकी वॉज़ नॉट प्रॉपर। वी ऐन्ज्वाएड हाउ एवर। (आपको ग़लत सूचना नहीं देनी चाहिए थी। आपकी रुमाल का आकार ग़लत था। आपको हमें धोखा नहीं देना चाहिए था। फिर भी हमने आनंद उठाया)।” उसकी इन बातों ने मुझे सकते में डाल दिया कि मैंने चीट किया। 

यह संयोग था कि फिर भी उन्होंने एंज्वॉय किया। मैंने सफ़ाई देनी चाही कि मैंने चीटिंग नहीं की। यदि ऐसा कुछ हुआ है तो मेरी जानकारी में नहीं हुआ है। मेरे चेहरे पर आए तनाव और मेरी बातों से उन्हें लगा कि मैं तनाव में आ गया हूँ। यह देख कर वह बड़े ही प्रोफ़ेशनल अंदाज़ में बोली, “आई नो दैट इट वाज़ नाट डन डेलीबरेटली बाई यू। यू कमिटेड दि सेम मिस्टेक्स विच आर नॉर्मली कमिटेड बाई नोवेसेज़ इन दिस फ़ील्ड। एज सच देयर इज़ नो नीड टु वरी अबॉउट इट। (हम जानते हैं यह आपने जानबूझकर नहीं किया। इस फ़ील्ड में आए नए व्यक्ति से जो ग़लतियाँ हो सकती हैं आपने वही कीं। इसलिए परेशान होने की आवश्यकता नहीं)।” इसके बाद मुझे मेरी फ़ीस बड़े सलीक़े से दे दी गई। 

चलते-चलते उन दोनों के साथ एक छोटा पैग फिर लिया। सुबह के चार बजने वाले थे। मुझे उस महिला ने एक ऐसे प्वाइंट पर छोड़ा जहाँ से मैं ऑटो वग़ैरह ले सकूँ। अभी सूर्योदय होने में वक़्त था। मैं ऑटो कर जनकपुरी उस स्थान पर पहुँचा जहाँ बाइक खड़ी थी। उसे लेकर घर आया और तानकर सो गया। मैं बुरी तरह थकान महसूस कर रहा था। सोकर क़रीब दो बजे उठा। बाक़ी मित्र भी जाग रहे थे। मैं भी तैयार होकर उन लोगों के साथ हो लिया। 

खाने के दौरान ही सबने अपनी-अपनी वीर गाथा सुनाई। मैंने भी अपनी सुनाई अंदर-अंदर फूलते हुए कि मैं तो पहली बार में ही एक रात में दो शिकार कर आया। मगर सबने मेरी वीरगाथा सुनकर जो हँसना शुरू किया तो देर तक हँसते ही रहे। सबने एक स्वर में कहा कि मैं तो फ़र्स्ट अटेम्प्ट में ही चीट हुआ। लूट लिया गया। बेवुक़ूफ़ बन गया। और ना जाने क्या-क्या बातें कि एक मर्द हो कर दो औरतों के सामने नहीं टिक सके। दोनों ने तुम्हें लूट लिया। 

मैं एकदम चुप था। समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब जो कह रहे हैं वह सही है। या मैं जो सोच रहा हूँ वह। खाने-पीने के बाद पिछली बार की तरह सब फिर घूमने निकल दिए। मैं अंदर-अंदर इतना अपसेट हो गया था कि जाने का मन नहीं हुआ। सबने बहुत कहा लेकिन मैं सिर दर्द का बहाना बना कर लेट गया। 

अकेला होते ही यह प्रश्न बहुत ज़्यादा परेशान करने लगा कि मैंने जो क़दम बढ़ाया है, वह सही है या ग़लत। अगर कहीं संयोगवश ही यह बात खुल गई कि मैं एक जिगलो हूँ तो दुनिया को क्या मुँह दिखाऊँगा। पापा जो मँझले भइया के लिवइन में होने से ही इतना आहत हैं कि उनसे बात नहीं करना चाहते, उनके लिए तो यह इतना बड़ा सदमा होगा कि शायद अपने को सँभाल ना सकें। और मेरी पढ़ाई, मेरे माता-पिता की अंतिम इच्छा। उसका क्या होगा? तो क्या मेरा कॅरियर ख़त्म हो गया? जाने-अनजाने मेरा—सेक्स वर्कर होना मेरा कॅरियर बन गया है। 

जिस तरह यह मित्र मंडली बता रही है कि बड़ी संख्या में लोग इसे अपना प्रोफ़ेशन बनाए हुए हैं। महीने में लाखों कमा रहे हैं। इसमें टिके रहना आसान काम नहीं है। अपने को लैंग्वेज, मैनर्स, फिज़ीक, स्टैमिना हर स्तर पर बेहतर बनाए रखना होता है। कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। कैजुअली करने वालों की संख्या ज़्यादा है, लेकिन ऐसे लोग ज़्यादा समय टिकते नहीं। पैसे भी कम मिलते हैं। 

मगर मैं इस पैसे से क्या-क्या कर पाऊँगा? कितने दिन ऐसे चल पाएगा? जब यह ख़त्म होगा तब मेरे लिए जीवन में बचेगा क्या? क्या मैं उस वक़्त ऐसी जगह खड़ा होऊँगा जहाँ हर तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा होगा। पर्सनल लाइफ़ नष्ट हो चुकी होगी। फ़ैमिली लाइफ़ की सोच ही नहीं सकता। कौन लड़की मेरे साथ आएगी? कितने दिन उससे छिपा पाऊँगा? उसे मैं कैसे फ़ेस कर पाऊँगा? मैं उसके साथ नॉर्मल बिहेव कर पाऊँगा? यह सारे प्रश्न मुझे इस क़द्र परेशान करने लगे कि सिर में वाक़ई दर्द होने लगा। 

मैं इस बीच टीवी का चैनल कई बार बदल चुका था। और उठकर व्हिस्की के भी दो पैग जल्दी-जल्दी लगा लिए थे। इसके बाद भी तर्क-वितर्क कम नहीं हुए बल्कि उन दोनों महिलाओं के साथ बिताए पल। उनकी बातें याद आने लगीं। और साथ ही रह-रह गुदगुदाने भी लगीं। मुझे लगा कैसे कुछ बिगड़ जाएगा। सारे मित्र बता रहे हैं कि किसी को कानों-कान ख़बर नहीं होगी। जब चाहो फ़ील्ड से ख़ुद की विदाई कर लो। कोई बताने ढूँढ़ने थोड़ी आता है। 

सुहेल की यह बात भी बार-बार दिमाग़ में कौंधती, ‘यार एक प्रोफ़ेशनल की तरह सोचो। वो कहते हैं न हेल्थ इज़ वेल्थ। यानी स्वास्थ्य संपदा है। संपदा। तो यार जब यह संपदा है तो इसका यूज़ भी होना चाहिए। वेस्ट करने से फ़ायदा क्या? यह हमारा एसेट है। एसेट का मैक्सिमम यूज़ ही मैनेजमेंट का फ़र्स्ट एंड लास्ट लॉ है। सारे काम करने के बाद जो समय बच रहा है, उसमें कुछ इंकम के लिए यह करना कहीं से ग़लत नहीं है। फिर ऐसा काम जिसमें मज़ा भी ख़ूब है।’ 

वह जब यह सारे तर्क दे रहा था। तब बाक़ी सब भी ज़ोरदार ढंग से उसी की हाँ में हाँ मिला रहे थे। उसकी इस बात का भी सबने समर्थन किया कि ऐसे भी मैरिड कपल हैं जो अपनी ब्लू मूवी बनाकर मार्केट में बेच कर पैसा कमा रहे हैं। जो अपनी पहचान छिपाए रखना चाहते हैं वो डिज़ाइनर मॉस्क लगा लेते हैं। जैसे बर्थ-डे पार्टी में बच्चे आदि लगा लेते हैं। मेरे लिए जानकारी के स्तर यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन ख़ुद फ़ील्ड में पहुँच कर यह सब देख कर थोड़ा अचरज में था। 

मैं सोचता कि क्या सेक्सुअल डिज़ायर इतनी पॉवरफ़ुल है कि लोग किसी भी स्तर पर उतर सकते हैं। और साथ ही पैसा भी वाक़ई इतना इंपॉर्टेंट है कि शरीर एसेट बन जाए। या अभी तक हम यह जान ही नहीं पाए हैं कि हमें चाहिए क्या? और भटक रहे हैं। मैं यह जानकर हैरान हुआ कि विपुल को कई महीने पहले एक ऐसी क्लाइंट भी मिली थी जिसने घर पहुँचने के आधे घंटे बाद डिमांड कर दिया कि क्या वो अपने दो और साथियों को भी बुला सकता है। इसी समय। साथी कैसे होने चाहिए यह भी उसने बहुत खुले शब्दों में बताया। विपुल ने उसकी अफनाहट का पूरा फ़ायदा उठाया और अपने दो साथियों को बुला भी लिया। फिर उस महिला ने जो हरकतें कीं उसके बाद विपुल उसे साइकिक क्वीन कहता था। महिला ने तीनों साथियों को रात भर के लिए पचास हज़ार रुपए पेमेंट किया था। 

विपुल का नंबर उसने सेव कर लिया था। डेढ़ दो महीने के अंतराल पर कई बार बुलाया। लेकिन उसके द्वारा किए जाने वाले क्रियाकलापों, उसकी सनक भरी डिमांड से यह तीनों इतना ऊब गए कि ज़्यादा पैसा मिलने के बावजूद उसके पास जाना बंद कर दिया। विपुल ने यह जानने की बहुत कोशिश की थी कि आख़िर वह साइकिक लेडी करती क्या है? इतनी स्मार्ट, इतनी रिच और साथ ही बहुत पढ़ी-लिखी भी है, फिर भी इस स्तर पर क्यों उतर आई है? विपुल सारी कोशिशें करके सिर्फ़ इतना जान सका था कि वह एक बिज़नेस वुमेन थी। बाक़ी उसकी फ़ैमिली लाइफ़ के बारे में कुछ नहीं जान सका कि वो मैरिड है, या अनमैरिड है? कितने फ़ैमिली मेंबर हैं? कुछ भी नहीं। 

नशे में भी वह इतनी सतर्क रहती थी कि सीधे चुप करा देती थी। ड्रिंक भी उतना ही लेती जितने से होशो-हवास क़ायम रहे। मैं सारे मित्रों के अनुभव और अपने पहले अनुभव के आधार पर सिर्फ़ इतना ही निष्कर्ष उस समय निकाल सका कि यह ऐसी दलदल है, जिससे विरले ही बाहर निकल पाते हैं। नहीं तो ज़्यादातर उसी में समाप्त हो जाते हैं। मैंने अहसास किया कि एक तरफ़ मैं इससे होने वाली तमाम समस्याएँ जान रहा हूँ, समझ रहा हूँ, निकलने की बात भी मन में आती है लेकिन सेक्स और मनी पॉवर का अट्रैक्शन जकड़े जा रहा है। क्योंकि निकलने के मेरे प्रयास बेहद कमज़ोर थे, तो आख़िर मैं इस दल-दल में आकंठ डूब गया। 

फ़ील्ड में सक्सेस के लिए जो भी फंडे ज़रूरी थे उन सबको मैंने बारीक़ी से जाना-सीखा। हर वह काम किया जिससे मेरी डिमांड ज़्यादा से ज़्यादा बने और ज़्यादा पेमेंट ले सकूँ। अपनी कोशिशों में मैं सफल भी होता जा रहा था। जल्दी ही अपने कई साथियों को पीछे छोड़ दिया। मैं इसमें इतना रम गया कि सब भूल गया। पापा को भी भूल गया। इतना कि जब पापा का फोन आता तभी उनसे बात होती। वह बातें एक दो मिनट से ज़्यादा करते तो मैं ऊबने लगता। फिर कुछ न कुछ बहाना बना कर फोन काट देता। स्थिति यह आई कि इस फ़ील्ड में आने के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि मैं लगभग आठ महीने घर नहीं गया। पापा से कह दिया कि रिसर्च वर्क का लोड ज़्यादा है, अब जल्दी नहीं आ पाऊँगा। 

बचपन में पापा के सामने मैं छोटा-सा भी झूठ बोलने से घबराता था, उन्हीं से मैं यह और अन्य झूठ बराबर बोलता रहा। साल-बीतते-बीतते मेरी आदत, मेरी सेहत और बैंक एकांउट की सेहत, पढ़ाई के प्रति नज़रिया, कॅरियर के प्रति चिंता सब बदल गई। पढ़ाई अब मैं दूसरे ढंग से कर रहा था। प्रोफ़ेसर की सेवा में समय ज़्यादा देता। उन पर ज़्यादा पैसे ख़र्च करता। अब वह भी ख़ुश थे। फिर एक दिन उन्हीं के साथ एक होटल में डिनर कर रहा था, तो मैंने मौक़ा देख कर कह दिया कि सर तीन साल होने जा रहे हैं। मैं अभी तक कुछ कर नहीं पाया। थीसिस का काम देखें तो अभी तो वह एक तरह से शुरू ही नहीं हुआ है। सर कुछ किजिए, मुझे जल्दी से जल्दी पीएच.डी. अवॉर्ड कराइए। सर अब मैं घर से ज़्यादा समय तक पैसे माँग नहीं पाऊँगा। 

सर इटैलियन फ़ूड चिकेन मिलानो, डेलीसिओसो, पैन फ्राइड एसपरागस के स्वाद में डूबे कुछ देर तक सोचते रहे। फिर बोले ‘सब हो जाएगा। परेशान होने की ज़रूरत नहीं।’ डिनर उस दिन उन्होंने भरपेट नहीं मन भर किया। आख़िर में जब होटल से बाहर आए तो बोले, “समीर तुम इतना प्यार से खिलाते हो कि मना करते नहीं बनता। आज बहुत ज़्यादा हो गया।” मैंने मस्का मारते हुए कहा, “नहीं सर आपने ऐसा कुछ ज़्यादा नहीं खाया।” मैं उनको छोड़ने से पहले थीसिस के बारे में पक्की बात कर लेना चाहता था। 

मैंने घुमा-फिरा कर फिर बात छेड़ी तो उन्होंने एक मोबाइल नंबर नोट करा कर कहा, “ये शंपा टोक का नंबर है। इन्हें मेरा परिचय देकर बात कर लेना। कोई संकोच करने की ज़रूरत नहीं है। सीधे बोल देना यह प्रॉब्लम है। फोन पर सारी बातें नहीं करना। उनसे मिलने का टाइम लेकर सीधे घर चले जाना। मैं बोल दूँगा। कोई प्रॉब्लम नहीं आएगी। शुरू में वो बहुत नानुकुर करेंगी। सीधे मना कर देंगी। लेकिन चल मत देना। वो कुछ देर बाद ख़ुद ही सब बता देंगी। वो चाहेंगी तो मैक्सिमम-तीन महीने के अंदर थीसिस तुम्हारे हाथ में होगी।” उनकी इस बात से मुझे बड़ी राहत मिली। 

मैंने अगले ही दिन मिलने का टाइम ले लिया। पहले तो उन्होंने मना किया कि आज टाइम नहीं है। लेकिन प्रोफ़ेसर साहब का नाम लेते ही बोलीं, “अं . . . ठीक है यदि आपको कोई समस्या ना हो तो नौ बजे आ जाएँ।” 

मैंने छूटते ही कहा, “मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं होगी। मैं आ जाऊँगा।” 

शंपा जी के नौ बजे शब्द ने मेरे शरीर में करेंट सा दौड़ा दिया। उसी पल मुझे यह और गहराई से अहसास हुआ कि आदमी का काम उसकी मानसिकता पर ज़बरदस्त प्रभाव डालता है। उसकी मनःस्थिति उसी के अनुरूप बनती चली जाती है। आख़िर में मुँह से यह अनायास ही निकल गया कि इस जिगलो वर्ल्ड से मैं बाहर ना आया तो वह दिन दूर नहीं जब यह मुझे पूरी तरह निगल जाएगा। 

मैं पूरा समय इसी उधेड़बुन में रहा कि मेरी मति को क्या हो गया था जो मैं इस दलदल में उतर गया। और उतर गया तो इतना समय होने के बाद भी मैं निकल क्यों नहीं पा रहा हूँ। शंपा जी का नौ बजे शब्द बार-बार मस्तिष्क में गूँज रहा था। यह गूँज मुझे बहुत परेशान कर रही थी। इससे छुटकारा पाने के लिए मैंने कई सिगरेट पी डाले। मगर बार-बार नौ बजे, शंपा जी, नौ बजे शंपा जी, से इतना परेशान हुआ कि सोचा दो-चार पैग लगा लूँ। मगर यह सोच कर कि शंपा जी के यहाँ ठीक से, सलीक़े से पहुँचना है। नशे से सूजी आँखें चेहरा लेकर जाना मूर्खता होगी। इसलिए नहीं पी। 

मैं अपने भरसक नौ बजे सलीक़े से शंपा जी के घर पहुँचा। वह नांगलोई में रहती थीं। मकान काफ़ी बड़ा था। मैंने गेट पर पहुँच कर कॉल बेल बजाई तो कुछ देर बाद एक अधेड़ से व्यक्ति ने खोल कर पूछा ‘किससे मिलना है?’ मैंने बताया तो उसने आगे इशारा कर कहा ‘ऊपर चले जाइए।’ उसके अंदाज़ से स्पष्ट संकेत मिल गया कि वहाँ शंपा जी ऊपर किराए पर रहती हैं। बड़े से पोर्च में तीन फ़ोर व्हीलर और कई टू व्हीलर खड़े थे। वह अधेड़ अपने मालिक का बहुत वफ़ादार नौकर लग रहा था। जब तक मैं शंपा जी के कमरे के दरवाज़े पर नहीं पहुँच गया वह नीचे खड़ा मुझे देखता रहा। 

सीढ़ियों के बाद क़रीब आठ-दस क़दम का टेरेस था। उसके बाद कमरा दिखाई दिया। उसका दरवाज़ा खुला हुआ था। अंदर तेज़ लाइट थी। कोई दिख नहीं रहा था। मैंने थोड़ा संकोच के साथ आगे बढ़कर दरवाज़े पर नॉक किया तो अंदर से महिला स्वर, “गूँजा कौन?” यह शंपा टोक ही थीं। मैंने बाहर ही से कहा, “शंपा जी मैं समीर।” यह सुनते ही उन्होंने कहा, “अच्छा-अच्छा अंदर आ जाएँ।” शंपा जी ने यह वाक्य थोड़ा भारी स्वर में कहा। 

मैंने शूज़ बाहर ही उतारे और अंदर दाख़िल हुआ। कमरा काफ़ी बड़ा था। लेकिन बेहद अस्त-व्यस्त। अलमारियों, टेबल, बेड हर तरफ़ किताबें, डायरियाँ, पेन, राइटिंग पैड, रजिस्टर रखे हुए थे। उस बड़े से कमरे से अटैच बाथरूम, किचन भी दिख रहे थे। बेड के एक तरफ़ थोड़ा स्पेस डाइनिंग स्पेस की तरह प्रयोग किया जा रहा था। एक साधारण सी मेज़ के पास चार कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं। 

शंपा जी क़रीब चालीस के आस-पास रही होगी। बेड पर ही बैठी थीं। एक चौड़ी टेबल सामने बेड पर ही उन्होंने रखी थी। दोनों पैर टेबल के नीचे से आगे फैले हुए थे। वह टेबल पर एक पैड पर कुछ लिख रही थीं। उन्होंने अजीब सा अस्त-व्यस्त सा गाउन पहन रखा था। बाल बड़े थे। जिसे पीछे उठा कर सी पिन लगाया हुआ था। बग़ल में ही सिगरेट ऐश ट्रे रखी थी जिसमें सिगरेट के टोटे दिख रहे थे। 

शंपा जी गोरे रंग की कुछ हेल्दी-सी थीं। मुझ पर एक नज़र डाल कर कहा, “अच्छा-अच्छा आप ही हैं समीर। आइए बैठिए।” उन्होंने स्टडी टेबल की तरफ़ पड़ी चेयर की ओर इशारा करते हुए कहा। मैं आज्ञाकारी शिष्य की तरह थैंक्यू कहता हुआ बैठ गया। तभी वह बोलीं, “अरे दूर बैठने के लिए नहीं कहा। यहाँ क़रीब बैठिए तभी बात हो पाएगी।” उन्होंने अपने दाएँ हाथ से सामने एकदम क़रीब फुट मैट के पास इशारा करते हुए कहा। 

उनके इस वाक्य से मैंने शरीर में करेंट का झटका-सा महसूस किया। मैं सहमा सा उठा कुर्सी जहाँ उन्होंने इशारा किया था वहीं खींच कर बैठ गया। एकदम सीधा। बिल्कुल तनकर। तेज़तर्रार स्टुडेंट माना जाने वाला, शोध कार्य में जुटा, भले ही जुगाड़ से मैं शंपा जी के सामने बड़ा असहज हो रहा था। भीतर-भीतर घबरा रहा था। मुझ पर उड़ती सी एक नज़र डालकर, वह फिर लिखने लगीं। वह जितना ज़्यादा चुप थीं मैं उतना ही ज़्यादा घबरा रहा था। मन में सोचा आख़िर ये इस तरह मुझे बैठा कर क्या अहसास कराना चाहती हैं। क़रीब पाँच मिनट में मेरे पाँच करम हो गए। मुझे लगा यह महिला जिस तरह टाइम ले रही है उससे तो यह प्रोफ़ेशनल लगती ही नहीं। 

पाँच मिनट बाद भी जब शुरू हुईं तो पहले सिगरेट जलाई। मुझे भी ऑफ़र किया, मैंने मना कर दिया तो लाइटर से अपनी सिगरेट जला कर एक कश लेकर बोलीं, “मुझे प्रोफ़ेसर साहब ने बताया है कि आप क्यों आए हैं। काम तो मैं कर दूँगी। लेकिन मैं इसके पहले यह बता दूँ कि मैं फ़ीस में कोई रियायत नहीं करती। और पूरी फ़ीस एडवांस लेती हूँ। हाँ काम भी टाइम पर देने की गारंटी तो नहीं लेकिन पूरी कोशिश करती हूँ। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि जो टाइम बताया उस टाइम पर काम पूरा ना किया हो।” इतना कह कर शंपा जी ने सीधे फ़ीस बता दी। जिसे सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। लेकिन शंपा जी तो पहले ही कह चुकी थीं कि फ़ीस में कोई बार्गेनिंग नहीं होगी। तो मेरा मुँह बंद था। 

मैं कुछ देर सोचता रहा कि अगर दो साल और निकल गए तो ना जाने कितने ख़र्च हो जाएँगे। जितनी जल्दी पूरी हो पीएच.डी. उतनी जल्दी घर वापस चलूँ। दूसरे जिस दुनिया में आजकल विचरण कर रहा हूँ उसके चलते तो लगता ही नहीं कि थीसिस कभी पूरी क्या आधी भी कर पाऊँगा। मुझे चुप देख वह बोलीं, “कोई जल्दबाज़ी की ज़रूरत नहीं है। आराम से सोच लें। दो-चार दिन बाद बताएँ।”

लेकिन मैं जो कैलकुलेशन कर चुका था इस बीच उससे यह निष्कर्ष निकाला कि मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है, तो मैंने तुरंत, “कहा शंपा जी मेरे पास और टाइम नहीं है।” हालाँकि यह फ़ीस यदि मैं वाक़ई घर पर डिपेंड होता तो देने के बारे में सोच ही नहीं सकता था। लेकिन ऐसा नहीं था तो मुझे यह कहते देर नहीं लगी कि, “मुझे फ़ीस मंज़ूर है। हाँ इस बात की गारंटी चाहता हूँ कि मेरा काम पूरा हो जाए। थीसिस ऐसी हो कि डिग्री अवॉर्ड होने में कोई प्रॉब्लम ना हो।”

मैंने देखा कि मेरी इस बात पर उनके चेहरे पर कुछ तनाव-सा आ गया है। लेकिन बात निकल चुकी थी। और साथ ही यह भी कि मैं इतनी लंबी-चौड़ी फ़ीस देने के लिए एग्री होने के बाद इतनी गारंटी लेना ज़रूरी भी समझता था। मगर उनके जवाब से मुझे निराशा हुई। वह बहुत बेरुख़ी से बोलीं। “क्या प्रोफ़ेसर साहब ने बातें ठीक से नहीं बताईं?” मैंने पल भर की ख़ामोशी के बाद तुरंत कहा, “शंपा जी मुझे अकाउंट नंबर बता दें, मैं फ़ीस अभी ट्रांसफ़र कर देता हूँ।” 

उन्होंने नंबर बताने में देरी नहीं की। दो अकाउंट नंबर बता कर कहा कि फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी पर्सेंट दोनों में कर दूँ। मैंने फ़ीस तुरंत ट्रांसफ़र कर के कहा, “ठीक है शंपा जी मैं अब कब आऊँ?” यह कह कर मैं उठा ही था कि उन्होंने हाथ से बैठने का इशारा करते हुए कहा, “बैठिए। अभी आप से कुछ बातें भी करनी हैं।” इस सेंटेंस से मुझे एक बार फिर करेंट लगा। फ़ीस, काम से लेकर समय तक सबकी बात हो चुकी थी। पेमेंट भी कर चुका था। वह भी हंड्रेड परसेंट। उनके मोबाइल में पैसा ट्रांसफ़र होने का मैसेज भी आ गया था। तो अब क्या चाहती हैं। 

मेरा मन अंड-बंड बातों की तरफ़ एकदम चला गया। वह उठीं वॉशरूम की तरफ़ चलीं गईं। मैं बैठा रहा। सामने टीवी पर एक मूवी ‘300’ चल रही थी। लीना हेडी और जेरार्ड बटलर की यह अद्भुत फ़िल्म 2007 में ही आई थी। यह प्राचीन राजा लियोनाइडस और उनके 300 जाँबाज़ सैनिकों की विशाल पर्शियन आर्मी के साथ दिल दहला देने वाले युद्ध की कहानी पर बनी है। 

युद्ध सहित हर दृश्य इतने स्वाभाविक फ़िल्माए गए हैं कि देखते वक़्त पलक ना झपके। निर्देशक जै़क स्नाइडर ने अपनी पूरी प्रतिभा उडे़ल दी है। मैं जब वहाँ पहुँचा था यह मूवी तब पहले से ही चल रही थी। मैंने यह फ़िल्म दोस्तों के साथ कई बार देखी थी। लीना हेडी के दो इंटीमेट सीन ऐसे थे ख़ासतौर से बटलर के साथ कि उन्हें कम से कम परिवार के साथ नहीं देखा जा सकता था। 

उधर शंपा जी वॉशरूम का दरवाज़ा खोल रही थीं। इधर वही सीन बस शुरू होने जा रहा था। मैंने सोचा शंपा जी आकर बंद कर देंगी या डीवीडी फ़ॉरवर्ड कर देंगी। मगर उम्मीद के एकदम विपरीत वह पूर्ववत अपने स्थान पर बैठ गईं। नई सिगरेट जलाई और धीरे-धीरे कश लेते हुए ध्यान से मूवी देखने लगीं। शीन जैसे-जैसे अपने चरम पर पहुँचता जा रहा था कामुक आवाज़ें वैसे-वैसे बढ़ती जा रही थीं और वैसे-वैसे मेरी असहजता भी बढ़ती जा रही थी। इसी बीच शंपा जी ने नज़र टीवी पर जमाए हुए ही पूछा, “आप स्मोकिंग करते नहीं या इस समय नहीं करना चाह रहे।”

इस अनपेक्षित प्रश्न से मैं चौंका। लेकिन सँभलते हुए कहा, “स्मोकिंग करता हूँ।”

“तो लीजिए। इतना हेजीटेशन क्यों?” इतना कह कर डिब्बी, लाइटर मेरी तरफ़ बढ़ा दी। मैंने भी एक सिगरेट जला कर पहला कश लिया और इसी बीच सीन ख़त्म हो गया। साथ ही शंपा जी का एक शब्द गूँजा ‘मार्वलस’ मुझे बड़ी राहत मिली। लेकिन शंपा जी ने फिर परेशान कर दिया यह पूछ कर कि क्या मैं फ़िल्में देखता हूँ? मैं किसी भी तरह से वहाँ और नहीं रुकना चाहता था तो तुरंत सफ़ेद झूठ बोल दिया कि मुझे फ़िल्में पसंद नहीं। 

शंपा जी ने स्क्रीन से नज़र हटाए बिना कहा, “जिस टॉपिक पर आप रिसर्च कर रहे हैं मैं उस बारे में कुछ बातें करना चाहती हूँ।” फिर मेरी प्रतिक्रिया जाने बिना ही उन्होंने बातें शुरू कर दीं। वह बातें क्या एक से बढ़ कर एक जटिल प्रश्न थे। उनके हर दस में से आठ प्रश्न के उत्तर मेरे पास नहीं थे। उस वाटर कूल्ड कमरे में मैं पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। उसी समय मैं सही मायने में समझ पाया कि मेरी पढ़ाई की डेप्थ क्या है? 

शंपा जी के सामने मैं कहीं नहीं ठहरता था। उन्होंने बीस मिनट में ही मुझे निचोड़ डाला है, यह अहसास कर के ही मेरा मन घबड़ा उठा था कि जिगलो वर्ल्ड ने कैसे मेरी पढ़ाई-लिखाई को तहस-नहस कर दिया है। जिस विषय पर मैं डॉक्टरेट की डिग्री के लिए लालायित हूँ कि मिल जाए तो कॅरियर राह पर ले आऊँ उस विषय में मुझे दस में दो नंबर मिल रहे हैं। मेरी इस दयनीय हालत से शंपा भी खीझ उठी थीं तो उन्होंने बात समाप्त करते हुए कहा, “ठीक है, ज़रूरत होगी तो मैं कॉल करूँगी।” 

मैं उठा जल्दी से थैंक्यू बोल कर बाहर आ गया। वह पूरी रात मेरी जागते हुए बीती। बार-बार शंपा जी के एक-एक प्रश्न मेरे दिमाग़ को मथे जा रहे थे। बार-बार यह बात मन में आ रही थी कि शंपा जी इन प्रश्नों के ज़रिए मेरी पढ़ाई का स्तर जाँच रही थीं, और जो स्तर पाया क्या वैसी ही गडमड-सी कोई थीसिस लिख कर थमा देंगी। और प्रोफ़ेसर साहब बस किसी तरह डिग्री दिलवा देंगे। और किसी तरह मैंने जॉब भी जुगाड़ ली तो क्लास में छात्रों को क्या पढ़ाऊँगा? 

इन बातों के अलावा एक और बात से भी मन बहुत परेशान हो रहा था। शंपा जी को लेकर मन में तमाम दूषित भावनाएँ बार-बार सिर उठा रहीं थीं। जब उनके पास था तभी से। मैं हर कोशिश करके बार-बार हार जा रहा था। मुझे बार-बार वह मुझ जैसे की सर्विस हायर करने वाली महिलाओं में से एक नज़र आ रही थीं। और हर बार उन्हें मैं अपने साथ अलग-अलग स्थितियों में पाता जिन स्थितियों में ये महिलाएँ मुझे ले जाती थीं। 

पहली बार मुझे यह सब ना जाने क्यों अटपटा, अनैतिक और घिनौना लगने लगा। मगर दिमाग़ में जहाँ यह था, वहीं मन में दूसरा पक्ष भी चल रहा था कि उन्हीं महिलाओं की तरह यह भी ऐश करें। एक बात यह भी कि इनसे पैसे की ज़रूरत नहीं। बस यह अपनी सहमति दे दें। मन में कहीं पॉप कॉर्न से भी फूटते कि यह तो मेरे हाथ में है। उनकी बातचीत, बॉडी लैंग्वेज, काम यह सब तो शुरू से ही आमंत्रित कर रहे हैं। मैं ही अफनाया हुआ भाग आया। 

इस तरह सोचते-विचारते मैंने आख़िर तय कर लिया कि यहाँ मैं ट्राई करूँगा। बाक़ी तो मुझे ख़रीदती हैं। अपनी सेक्सुअल डिज़ायर, अपनी सेक्सुअल फ़ैंटेसी के लिए एक ग़ुलाम ख़रीदती हैं। और ग़ुलाम की कोई इच्छा नहीं होती। उसकी एक ही और आख़िरी हैसियत होती है कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ ग़ुलाम है। लेकिन मैं यहाँ ग़ुलाम नहीं बनूँगा। 

यहाँ बराबर की हैसियत होगी। कोई किसी को पैसे के दम पर नहीं ख़रीदेगा। ना ही इश्क-विश्क का कोई चक्कर होगा। बस एक चीज़ होगी। परस्पर सहमति। इसके सिवा कुछ नहीं। और मैं सूत्र ढूँढ़ने लगा। बिना बुलाए वहाँ जाने की हिम्मत नहीं थी। कई दिन सोच-विचार में निकालने के बाद मैं प्रोफ़ेसर साहब को लेकर फिर पहले की तरह डिनर पर गया। उनसे जब शंपा जी की बात छेड़ी तो मेरी तरफ़ कुछ क्षण ग़ौर से देखने के बाद बोले। ‘अपनी थीसिस पर ध्यान दो।’ लेकिन मैं चुप नहीं हुआ। 

प्रोफ़ेसर साहब से इतना मिक्सप हो चुका था कि दोस्तों सा रिश्ता बन गया था। मैं जानने के लिए पीछे पड़ गया तो बोले, “समीर दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं। तुम शंपा जी के बारे में क्या सोचते हो? उससे क्या चाहते हो मैं नहीं जानता। सच यह है कि शंपा के बारे में मैं स्वयं बहुत कम जानता हूँ। हालाँकि पिछले दस वर्षों से हम एक दूसरे को जानते हैं। उसने कभी किसी को इतनी लिफ़्ट नहीं दी कि कोई उससे उसके बारे में ज़्यादा जान समझ सके, बात कर सके। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि वह असाधारण मेधा वाली औरत है।” 

“औरत!” मैं चौंका। मैं उन्हें अनमैरिड ही समझता था। 

“हाँ। तुम्हारी तरह मैं भी उन्हें काफ़ी समय तक अनमैरिड ही समझता था। दरअसल ये उड़ीसा के एक बेहद पिछड़े इलाक़े के किसी गाँव की रहने वाली हैं। ग़रीब परिवार की हैं। गाँव में कोई साधन नहीं था तो इनका परिवार भुवनेश्वर आ गया। वहीं माँ-बाप मज़दूरी किया करते थे। बच्चे पढ़ाने की धुन में स्कूल भेजा। वहाँ शंपा की प्रतिभा से सभी चकित थे। फ़ीस, ड्रेस किताबों की दिक़्क़त के चलते शंपा अपनी बड़ी बहन के साथ घरों में चौका-बरतन भी करने लगी। 

“वहीं किसी नौकर से इसका परिचय हुआ। वह भी पढ़ने में तेज़ था। दोनों की हालत एक-सी थी। तो ख़ूब पटने लगी। दोनों अपने प्रयासों से ग्रेजुएशन में पहुँच गए। यहीं से दोनों का जीवन दूसरे ट्रैक पर चल पड़ा। दोनों दिल्ली भाग आए कि यहाँ काम भी करेंगे। पढ़ेंगे भी। और एक दिन अपना मुक़ाम बनाएँगे। इन्होंने शुरूआत भी अच्छी की। लेकिन जब कठिनाइयों से सामना हुआ तो इसके आदमी की पढ़ाई छूट गई। मगर दोनों का सपना टूटा नहीं। 

“आदमी बीवी को जी-जान से पढ़ाई में आगे बढ़ाता रहा। दो बार वह आईपीएस मेन में सेलेक्ट हुई। लेकिन इंटरव्यू में फ़ेल हो गई। इसकी वजह यह थी कि तैयारी के लिए उसे जिन संसाधनों की ज़रूरत थी वह उसके पास नहीं थे। उसकी इस असफलता से उसके आदमी की छटपटाहट और बढ़ गई। इस छटपटाहट में वह ग़लत रास्ते पर चला गया। फिर एक दिन ग़ायब हुआ तो लौटा ही नहीं। 

“शंपा ने बहुत कोशिश की। पुलिस वग़ैरह हर जगह। मगर अमूमन इन मामलों में जो होता है वही हुआ। रिज़ल्ट ज़ीरो रहा। आदमी को ढूँढ़ने के चक्कर में इनकी पढ़ाई बुरी तरह डिस्टर्ब हुई। इतना ही नहीं इस बीच यह दो लोगों के सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार हो गईं। इसने रिपोर्ट लिखानी चाही वह भी नहीं लिखी गई। इसकी अनवरत कोशिश के बाद जब लिखी भी गई, तो अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़। कुछ सफ़ेदपोश लोगों के चलते ऐसा हुआ। 

“चहुँ तरफ़ पड़ती मार और आर्थिक तंगी ने इसे तोड़ कर रख दिया। हालत यह हुई कि इसने फिर कई महीने चौका-बरतन किया। झुग्गी-झोपड़ी में रही। उसी समय एक जगह जहाँ बरतन माँजती थी उस परिवार ने जब इसकी क़ाबिलियत के बारे में जाना तो इसे झुग्गी से निकाल कर अपने यहाँ रख लिया। उन्हीं लोगों ने किसी कंपनी में नौकरी दिलाई। वहाँ से टीचिंग जॉब में आ गई। वहीं से लिखने-पढ़ने की तरफ़ यह फिर बढ़ी। मगर पहले जैसी बात नहीं आई। 

“वह अध्ययनशील हैं तो जानकारियाँ बढ़ती रहीं। उसी परिवार के बच्चों का कार्य करते-करते उनके बच्चों के दोस्तों का भी कार्य करने लगी। यहीं किसी की थीसिस लिख डाली। बस यहीं से थीसिस वग़ैरह लिखने के काम में आ गई। पहले तो थोडे़ बहुत पैसे लेती थीं लेकिन जब मार्केट बन गई तो डिमांड बढ़ गई। ऐसा नहीं कि यह कोई रिसर्च वग़ैरह करती हैं तब लिखती हैं। उसके पास कैसे थीसिस लिखी जाए इसकी ज़बरदस्त समझ है। 

“पाँच थीसिस से छठी थीसिस वह चुटकियों में बना देती हैं। लेकिन पढ़ने में वह मौलिक ही लगेगी। कोई विशेषज्ञ ही बता पाएगा कि यह कटपेस्ट है। इसके अलावा पेपर, मैग्ज़ीन में भी लिखने लगीं। वहाँ दूसरे नाम से लिखती हैं। इसी तरह यह आगे बढ़ती गईं। आज अच्छी-ख़ासी रक़म कमाती हैं। लेकिन मैं इसे उसकी बर्बादी मानता हूँ। उसकी सक्सेस नहीं। 

“वह जितनी ब्रिलिएंट हैं उसे देखते हुए यह उसका स्थान नहीं है। एक्चुअली उसने पति की खोज, और रेप के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई जीतने के चक्कर में छह साल गवाँ दिए। नहीं तो वह सिविल सर्विस ना सही कम से कम कोई और अच्छी नौकरी पा सकती थीं। उन दो घटनाओं ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। ना कॅरियर बना सकी। ना अपने साथ हुए अत्याचार का न्याय ले पाई। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ तो वह अपनी ज़िन्दगी बस काट रही हैं। जिए जा रही हैं। चिड़चिड़ी इतनी हैं कि ज़रा सी बात पर कितना बड़ा तमाशा कर दें कोई ठिकाना नहीं। अच्छी फ़्रीलांसर राइटर के चलते थोड़ी बहुत पहुँच भी बना रखी है। इसलिए यदि तुमने कुछ सोच रखा है तो भूल जाओ, सिर्फ़ थीसिस याद रखो।”

प्रोफ़ेसर साहब की बात मुझे सही लगी। शंपा जी की कहानी जानने के बाद मेरे मन में उनके लिए सम्मान भाव उत्पन्न हो गया। मैंने कहा कि मैं उनके पास किसी ऐसी-वैसी भावना के साथ जाना भी नहीं चाहता। मैं थीसिस मिलने के बाद उनसे मिलते रहना चाहूँगा। एक मित्र के नाते। यदि वह चाहेंगी तो नहीं तो नहीं। 

शंपा जी ने अपना वादा पूरा किया। तीन महीना पूरा होते ही थीसिस दे दी। इस बीच उन्होंने तीन बार मुझे बुलाया। एक बार थीसिस पढ़ने को दी। पहुँचने पर बड़े प्रश्न किए। जिनके उत्तर मेरे पास नहीं थे। दूसरी बार जब थीसिस दी तो ज़ोर देकर कहा कि ‘पूरा दो-तीन बार ध्यान से पढ़ कर, डीपली समझ लीजिए। यह आपके काम आएगा।’ तीसरी बार जब उन्होंने फ़ाइनली डमी दी तो उस दिन भी उनका व्यवहार ऐसा था कि थीसिस मिलने के बाद मैं उनसे फिर मिलने की हिम्मत नहीं कर सका। शंपा जी की हिम्मत, मेहनत, शॅार्पनेस को सैल्यूट कर मैं चला आया। मित्रता की वहाँ कोई उम्मीद, कोई चांस नहीं था। वह अपनी दुनिया में अकेले रहना पसंद करती थीं। इस लिए मैंने उनसे आगे मिलने-जुलने का प्रयास करना उचित नहीं समझा। 

थीसिस को सब्मिट करने के बाद प्रोफ़ेसर साहब के अतिरिक्त प्रयासों के चलते मुझे जल्दी ही डॉक्टरेट मिल गई। जिसके बाद जश्न भी मना। लेकिन मेरे मन में बार-बार यही आ रहा था कि दोस्तों की ज़िद पर यह जश्न मना रहा हूँ। वास्तव में मुझे यह भी नहीं मनाना चाहिए था। क्योंकि इसकी वास्तविक हक़दार तो शंपा जी हैं। जितनी उच्चस्तरीय थीसिस उन्होंने लिखी है वह मैं किसी भी स्थिति में नहीं लिख सकता। कटपेस्ट के ज़रिए भी नहीं। शंपा जी की थीसिस पढ़ने वाला कोई भी यही कहेगा कि रिसर्चर ने बड़ी गंभीरता से रिसर्च की है। और बेहतरीन लेखक भी है। 

इसके बाद मैंने प्रोफ़ेसर साहब से अगले स्टेप, किसी कॉलेज, यूनिवर्सिटी में जॉब के लिए कहा कि जैसे भी हो जल्दी से जल्दी मुझे कहीं एंगेज कराएँ। उन्होंने फिर अपनी पुरानी स्टाइल में जवाब दिया। ‘परेशान होने की ज़रूरत नहीं।’ इस जवाब से मुझे थोड़ी खीझ हुई। मैं लखनऊ पापा के पास भी जाकर बताना चाहता था कि उनकी इच्छा पूरी होने में बस एक स्टेप बाक़ी है। डॉक्टरेट मिले हुए एक हफ़्ता हो गया था। लेकिन मैंने अभी उन्हें बताया तक नहीं था। ना जाने मैं कैसी मनःस्थिति में था कि ना पापा को कुछ बताने का उत्साह था। ना वहाँ जाने का। जब कि घर गए क़रीब साल भर होने जा रहा था। मन अजीब सा उचाट हो रहा था। अपनी इस स्थिति से निकलने के लिए मुझे लगा कि घर का चक्कर लगा आना ही बेहतर है। 

मगर जिस दिन जाने के लिए रिज़र्वेशन मिला प्रोफ़ेसर ने एक दिन पहले उसी दिन अपने गृह प्रवेश की सूचना दी। कहा हर हाल में तुम्हें आना है। ऐसा नहीं था कि वह मुझे बहुत चाहते थे इस लिए इतना ज़ोर दे रहे थे। असली मक़सद तो काम-धाम में ज़्यादा से ज़्यादा मदद लेना था। मुझे रुकना ही था क्योंकि मेरी डोर अभी भी उन्हीं के हाथों में थी। 

प्रोफ़ेसर ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया। मैं नौकर की तरह उस दिन जुटा रहा। जब देर रात घर पहुँचा तो थकान के मारे बदन टूटा जा रहा था। सारे साथी घर से ग़ायब थे। कोई सूचना नहीं थी। मैं खा-पीकर तो आया ही था। दो पैग व्हिस्की पी कर सो गया। मगर आधे घंटे बाद ही दर्द से नींद खुल गई। टेस्टीकल में बहुत तेज़ दर्द शुरू हो गया था। 

ऐसा पहली बार हो रहा था। क्यों हो रहा है समझ नहीं पा रहा था। इधर-उधर टहलता कि शायद कम हो जाए। लेकिन वह बढ़ता गया। कुछ ही देर में असह्य हो गया। कुछ समझ में नहीं आया तो दोस्तों को फोन मिलाया। कुछ के स्विच ऑफ़ थे। संयोग से जेवियर, और विपुल से बात हुई। दोनों आधे घंटे में आकर हॉस्पिटल ले गए। वहाँ एडमिट कर लिया गया। इंजेक्शन दवाओं से आराम मिला तो मैं सो गया। अगले दिन कई जाँचों के बाद पता चला इनफ़ेक्शन है। फिर शाम तक मुझे रिलीव तो कर दिया गया मगर ट्रीटमेंट क़रीब दो महीने चला। मुझसे डॉक्टर ने कई बातें पूछीं। लेकिन मैं सेक्सुअल रिलेशनशिप पर सही नहीं बता सका। ट्रीटमेंट का शुरूआती एक हफ़्ता बहुत कष्टदायक रहा। मैं ट्रीटमेंट पूरा होने के क़रीब ढाई महीने बाद जब घर पहुँचा तो वहाँ पापा की तबियत काफ़ी ख़राब चल रही थी। उनकी हालत बता रही थी कि उनकी देखभाल जैसे-तैसे बस हो रही है। लेकिन मैं उन्हें अपने साथ अपने घर लाने की नहीं सोच सका। क्योंकि मैं उनकी अकेले क्या सेवा कर पाता। तो भाभी के यहाँ ही जो सेवा कर सकता था वो की। वह जल्दी ही ठीक भी हो गए। 

तब मैंने उन्हें बताया कि मुझे डॉक्टरेट अवॉर्ड हो गई। सब ठीक रहा तो जल्दी ही कहीं टीचिंग जॉब मिल जाएगी। पापा बहुत ख़ुश हुए। बोले ‘अब जल्दी करो बेटा, उमर बीतती जा रही है। तुम्हारी शादी वग़ैरह हो जाए तो मुझे भी शान्ति मिले।’

उनकी हालत देखते हुए मैं चुप रहा। इतना ही कहना ठीक समझा कि पहले आप ठीक हो जाइए फिर देखा जाएगा। मेरे मन में उनकी बात पर तुरंत ही यह बात आई कि क्या शादी करना? ना उम्र रही। ना उत्साह। बल्कि अब तो इस नाम से ही शरीर में झुरझुरी सी छूटने लगती है। दहेज़ एक्ट के उस दंश को इतने साल हो गए लेकिन टीस ज्यों की त्यों बनी हुई है। जब तक दिल्ली में रहता हूँ तब तक दिमाग़ थोड़ा ठीक रहता है। यहाँ घर आते ही हर वक़्त माँ का बिलखता चेहरा आँखों के सामने घूमता रहता है। आख़िरी समय में उनकी दर्दनाक मौत। पिता की हालत। घर का बिखराव। सारे भाइयों का अलग-अलग रहना। यह सब दिमाग़ को झिंझोड़ते रहते हैं। मँझले भइया तो अब किसी से मिलना भी पसंद नहीं करते। 

अपनी अनु तक उनकी दुनिया सिमट गई है। इतने दिन हो गए हैं आए हुए लेकिन एक बार भी वह पापा को देखने यहाँ नज़र नहीं आए। बड़े भाई का परिवार भी बेगानों सा व्यवहार करता है। मैं इस तरह की बातों से इतना परेशान हुआ कि जल्दी ही दिल्ली वापसी का प्रोग्राम बना लिया। यह भी सोचा कि प्रोफ़ेसर से बोलूँ कि मेरा इंतज़ाम दिल्ली में ही करें। यहाँ मैं रह ही नहीं पाऊँगा। 

वहाँ की आपाधापी में यह सब कम से कम हमेशा मेरा लहू नहीं पीते। जब ख़ाली होता हूँ, अकेला होता हूँ तभी पीते हैं। पापा को शाम को बताया कि मैं कल रात को जा रहा हूँ। उम्मीद है जल्दी ही जॉब मिल जाएगी। उन्होंने और रुकने को कहा लेकिन मैंने असमर्थता जता दी। इससे उनके चेहरे पर आई उदासी देखकर मेरा हृदय फटने सा लगा। मैं हट गया वहाँ से। 

अगले दिन मैं मँझले भइया के पास गया कि जाने से पहले उनसे मिलता चलूँ। कितने महीने हो गए उनसे मिले हुए। फोन पर बात हुए ही छह सात महीने हो रहे हैं। अनु को भी देख लूँगा। दोनों में पहले जैसे मधुर सम्बन्ध चल रहे हैं कि नहीं। उनके सम्बन्धों का मधुर होना ज़रूरी है, नहीं तो भइया टूट जाएँगे। मँझली मेरी भाभी ही थी। लेकिन तब भी उसकी एक ग़लत हरकत के कारण इतने दिनों बाद भी मेरा यह हाल है। इनकी तो पत्नी थीं। एक बच्चा है। जो अब भी बड़ी भाभी के यहाँ ही पल रहा है। बेचारा दुनिया में माँ के होते हुए भी कैसे बिन माँ के जी रहा है। मासूम मिलते ही कैसे चिपट गया था। पापा का हाल पूछा था तो बेचारा बताते-बताते कितना उदास हो गया था कि पापा कई-कई दिन बाद थोड़ी देर को आते हैं। 

बड़ी मम्मी सबको प्यार करती हैं। मगर उसे थोड़ा कम करती हैं। मेरी मम्मी कब आएँगी, पापा ये बता नहीं रहे। बस एक आंटी को ले आते हैं। कहते हैं यही मम्मी हैं। वे मुझे बेवुक़ूफ़ बनाते हैं। मेरी मम्मी को कहीं खो दिया है। आप उनसे कहिए ना कि मेरी मम्मी ला दें। उसकी बातें आँसुओं से भरी बड़ी-बड़ी आँखें, हिचकियों ने मुझे भी रुला दिया। मैंने देखा कि वह बड़ा हो गया है लेकिन इसके बावजूद छोटे बच्चों-सी बातें कर रहा था। मन में मँझली के लिए कई अपशब्द निकल गए। कि तेरी जैसी पत्थर दिल औरत शायद ही कोई हो। और मूर्ख भी। बल्कि पागल भी। जो धन के लालच में अपने हाथों ही अपनी ख़ुशहाल ज़िन्दगी में आग लगा ले। स्वार्थी इतनी कि बच्चे को भी बिना हिचक फेंक दिया। 

बच्चे की स्थिति उसकी बड़ी मम्मी, पापा और उनके बच्चों की उसके प्रति उपेक्षा की सारी कहानी कह रहे थे। मैंने यह तय कर लिया कि जब मँझले भइया से मिलूँगा तो बच्चे के बारे में उनसे ज़रूर कहूँगा कि उसे अपने पास ही रखें। माँ का ना सही उसे बाप का प्यार तो मिलता रहेगा। ये उसका अधिकार है। अगर उसे यह नहीं दे सकते तो पैदा ही क्यों किया? बड़ों की ग़लती की सजा वह क्यों भुगते? इन्हीं सारी बातों से भरा मैं दिल्ली वापसी वाले दिन मँझले भइया के घर पहुँचा। 

शाम के सात बज रहे थे। कॉलबेल बजाई तो गेट अनु ने खोला। मैंने नमस्ते किया तो उन्होंने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया। बोलीं, “आइए बड़े दिन बाद आए।” मैंने कहा, “हाँ बस ऐसे ही टाइम नहीं मिल सका।” अनु की हालत ख़ासतौर से उनका पूरी तरह निकला हुआ पेट इस बात की स्पष्ट सूचना दे रहा था कि वे प्रेग्नेंट हैं। आठवें या नवें महीने का शुरूआती समय होगा। 

उन्होंने ढीली-ढाली एक्स एल साइज़ की कुर्ती, वैसा ही ढीला-ट्राऊज़र पहन रखा था। अजीब बेतुकी सी लग रही थीं। चेहरे की रंगत बता रही थी कि भइया ने खाने-पीने देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हम ड्रॉइंगरूम में बैठे। बैठते ही उन्होंने एक नाम पुकारा तो एक अधेड़ सी महिला आई। जिसे देखते ही अनु ने नाश्ते के लिए कह दिया। वह ड्रॉइंगरूम के दरवाज़े से ही लौट गई। नौकरानी को हुक्म देने के बाद वह मुझसे मुख़ातिब हुईं, बोलीं, “भइया इस बार बड़े लंबे गैप के बाद आए।” मैंने कहा, “हाँ, इस बार काफ़ी टाइम हो गया। कुछ काम एक के बाद एक ऐसे आते गए कि टाइम नहीं मिल पाया।” 

अनु के चेहरे की तरफ़ मेरी नज़र जैसे ही जाती तो मुझे लगता जैसे सामने मँझली बैठी है। वही पुराने दिन एक दम सामने आ गए जब मँझली पहली बार प्रेग्नेंट हुई थी। तब मँझली कितनी शालीनता संकोच से सामने आती थी। हम लोगों से नज़र झुका कर ही बात करती थी। अपने को कपडे़ में हर तरफ़ से ऐसे ढकने की कोशिश करती कि जैसे कोई ऐसे कॉम्प्टीशन में आगे निकलने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा हो जिसमें कौन सबसे ज़्यादा शरीर को ढक सकता है। माँ जब आराम करने को कहती थी तब भी संकोच करती कि सास, जिठानी काम करें और वह आराम। बार-बार काम में लग जातीं तो माँ को भगाना पड़ता था। लेकिन वही मँझली बच्चे के जन्म के बाद ऐसा बदली कि परिवार ही नष्ट हो गया। 

अपनी ही ज़िन्दगी में आग लगा ली। मायके में भी वह हरकत की कि इज़्जत के नाम पर माँ ने आत्महत्या कर ली। बड़ी भाभी ने उनके इस काम को बड़े चटखारे लेकर बताया कि मँझली डायवोर्स के बाद अपने से क़रीब चार-पाँच साल छोटे दूर के रिश्ते के एक भतीजे के साथ भाग गई। मैं अब तक नहीं समझ पाया कि उनके दिमाग़ में कैसे क्या बदल गया कि वह ऐसे बदल गईं। किसने उनका ब्रेनवॉश कर दिया था। 

अनु बराबर मुझसे बात किए जा रही थीं लेकिन मैं बेमन से उनकी बातों का सूक्ष्म-सा जवाब देता। मेरा दिमाग़ पूरी तरह से मँझली में उलझ गया था। चाय-नाश्ता जो आया वह भी करने का मन नहीं किया। अनु के बहुत कहने पर बीच-बीच में थोड़ा बहुत ले लेता। अनु बार-बार ऐसी बातें करतीं कि मैं उन पर ध्यान दूँ। उनके होने वाले बच्चे के बारे में बात करूँ। लेकिन मैं कर नहीं पा रहा था। ऊपर से एक उलझन यह भी शुरू हो गई कि इन लोगों ने शादी की रस्म पूरी की या नहीं। या ये लोग भी विश्व-प्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ियों स्टेफीग्राफ, आंद्रेआगासी की तरह कई बच्चे होने के बाद शादी की रस्म पूरी करेंगे। मेरा मन ऊब रहा था। 

अनु, मँझली को लेकर उलझन इतनी बढ़ रही थी कि घुटन महसूस करने लगा। मैं वहाँ से जल्दी से जल्दी चल देना चाहता था। भाई से मिलने की इच्छा भी कमज़ोर होती जा रही थी। मगर वह भी आ गए। उनके व्यवहार से मेरा मन टूट गया। वो ऐसे मिले जैसे कोई अनचाहे दोस्त के आने पर मिलता है। इसलिए मैंने भी जल्दी से विदा ली। चलते-चलते अनु और भइया दोनों को उनके होने वाले बच्चे के लिए शुभकामनाएँ एवं बधाई दी। शादी हुई कि नहीं इस चक्कर में मैंने अनु के तन पर शादी के सुहाग के चिह्न कई बार ढूँढ़े लेकिन वह नहीं दिखे। तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने निकलते-निकलते कह दिया। 

“भइया शादी कर ली बताया तक नहीं?” मेरे यह कहते ही दोनों चौंके। क़रीब-क़रीब एक साथ ही बोले “शादी!” उनके इस तरह चौंकने पर मैं सशंकित हुआ। मैंने कहा, “अरे भइया इसमें इतना चौंकना क्या। आप लोगों ने शादी कर ली। बेटा होने जा रहा है।” 

मेरे इतना कहते ही अनु बोली, “अरे भइया आप भी। साथ जीने के लिए ज़रूरी नहीं कि कुछ रस्में, परम्पराएँ पूरी ही की जाएँ। हमारे मन साफ़ हों। एक दूसरे के लिए चाहत हो, सम्मान हो। बस इसके अलावा और किस बात की ज़रूरत है। मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा भी और कुछ ऐसा है जिसके बिना दो लोग साथ नहीं रह सकते।” मुझे लगा कि अनु ने मुझे निरुत्तर कर दिया। 

मैं एकटक उन्हें देखता रह गया। क्या बोलूँ कुछ समझ नहीं पा रहा था, तभी भइया ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “क्या समीर तुम भी कैसी बात करते हो? आओ चलें।” 

मैंने देखा अनु मुस्कुरा रही हैं। मैंने उन्हें एक बार फिर नमस्कार किया और भइया ने कंधे पर हाथ रखे-रखे ही कहा, “समीर मुझे शादी की रस्मों, शादी नाम से नफ़रत हो गई है। शादी करो तो डॉवरी एक्ट का निरंकुश ख़ूनी पंजा अपने और परिवार के सभी लोगों के गले में डालो। जीवन हमेशा इस डर में बीते कि लड़की इस एक्ट का हथियार ना चला दे। जिस तरह से अपना घर बरबाद हुआ है उससे तो सच बताऊँ अब मुझे सिंदूर, बिंदी, पायल, बिछिया जैसी सुहाग की प्रतीक चीज़ों से भी घृणा हो गई है। इनकी छाया से भी मैं दूर रहना चाहता हूँ। इसीलिए अनुप्रिया से मैंने अपनी बातें पहले ही बता दीं। संयोग से वह भी इन परंपराओं से दूर रहती है। इसीलिए हम दोनों इतना आगे इस तरह बढ़े।” 

मैंने कहा, “लेकिन भइया जिस तरह से आप रह रहे हैं वह लिवइन है और लिवइन के लिए भी कई क़ानून बन चुके हैं। क़रीब-क़रीब विवाहित पत्नी जैसे अधिकार उन्हें भी हैं। फिर यह ज़रूरी नहीं कि एक ने ग़लती की तो सब करेंगे। ऐसे तो मुझे लगता है ठीक नहीं है। इस तरह तो शादी के बिना दुनिया ही चरमरा जाएगी। फिर हम हिंदुस्तान में हैं वेस्टर्न कंट्रीज़ या यूरोप में नहीं। शादी तो वहाँ भी लोग कर ही रहे हैं।” 

“देखो समीर जो भी हो मैं कम से कम इस जीवन में तो निर्णय बदलने वाला नहीं। ठीक है कि लिवइन के भी बहुत से नियम क़ानून हैं। लेकिन अभी दहेज़ एक्ट जैसा अंधा निरंकुश, एक पक्षीय एक्ट नहीं है। जो दूसरे पक्ष की सुने ही ना। यह एक पूरा परिवार तहस-नहस कर देता है। यह एक्ट सीधे-सीधे क़त्ल करता है तो मैं ऐसे रास्ते जाऊँ ही क्योंकि अपनी बरबादी अपनी ही आँखों से देखूँ।” 

मुझे भी लगा कि भइया की नफ़रत ग़लत नहीं है। इस एक्ट में जो भी संशोधन होने चाहिएँ वे अभी तक नहीं हुए हैं। मैंने फिर भतीजे की बात की कि आप उसे अपने साथ क्यों नहीं रखते? बेचारा अपने पेरंट्स के लिए कितना उदास रहता है। अपने पेरंट्स अपने होते हैं। चाचा, ताऊ कुछ भी करें बच्चे को वह प्यार नहीं दे सकते जो माँ-बाप देते हैं। 

मेरी इस बात पर भइया का चेहरा एकदम से बदल गया। अब क्रोध-तनाव की जगह चेहरे पर, भावुकता हावी हो गई। वह क्षण भर चुप रहने के बाद बोले, “समीर मैं यह सब जानता हूँ। लेकिन कई कारणों से विवश हूँ। एक तो उसे देखते ही उस चुड़ैल की याद आ जाती है। दिमाग़ ख़राब हो जाता है। नसें फटने लगती हैं। दूसरे मैं यह मानता हूँ कि मेरे पास से ज़्यादा अच्छी परवरिश उसकी वहाँ हो रही है। वह वहाँ रह भर ही रहा है। सारा ख़र्च मैं ही उठाता हूँ। मैं उसे लाना चाहता हूँ। अनुप्रिया से बात भी की थी। वह तैयार भी हो गई थी। 

“मैं ले आया। मगर वह इतना शैतान है कि अनुप्रिया की नाक में दम कर दिया। उसका सोना, बैठना, आराम करना हराम कर दिया। एक दिन दौड़ता हुआ सीधा उसके पेट से भिड़ गया। उसकी हालत ख़राब हो गई तो डॉक्टर के यहाँ ले जाना पड़ा। फिर अनुप्रिया ने कहा तो मैंने उसे डिलीवरी हो जाने तक भइया के यहाँ वापस भेज दिया।”

भइया की यह बात मुझे बहुत अखरी कि बेटे को अपने से अलग उन्होंने ख़ुद नहीं अनुप्रिया के कहने से किया। जो देखा जाए तो क़ानूनी या सामाजिक रीत-रिवाज़ किसी भी दृष्टि से उनकी पत्नी है ही नहीं। रखैल शब्द मुझे बेहद फूहड़ गंदा लगता है तो मैं इसे उनके लिए यूज़ ही नहीं कर सकता था। तुरंत दिमाग़ में ऐसा कोई वर्ड नहीं आया कि उनके लिए कौन सा शब्द इस्तेमाल करूँ। 

लेकिन मँझले भइया की यह बात मुझे सही लगी कि परिवार बनाने के लिए ज़रूरी नहीं कि एक रस्म को निभा कर दहेज़ एक्ट का एक तरह से फाँसी का फँदा गले में डाल लिया जाए। कम से कम तब तक नहीं ही करना चाहिए जब तक कि इस एक्ट की उन ख़ामियों को दूर ना कर दिया जाए, जिनके चलते इसका आसानी से दुरुपयोग हो जाता है। लोग दशकों से करते चले आ रहे हैं। इसमें कम से कम यह व्यवस्था तो की ही जा सकती है कि केस झूठा साबित होने पर वही सजा उसको दी जाएगी जो दूसरे पक्ष को दी गई। ऐसा करने से बहुत हद तक इसका दुरुपयोग रुक सकता है। 

लेकिन बेटे को लेकर भइया के रुख़ उनके निर्णय से मुझे उनके बेटे का भविष्य बहुत अंधकारमय लगने लगा। मुझसे रहा ना गया तो मैंने बोल दिया कि भइया मुझे ध्रुव के भविष्य को लेकर बड़ी चिंता हो रही है। बिन माँ के उस बच्चे का क्या होगा? जब कि अभी से वह इतना अकेला पड़ गया है। कारण चाहे जो भी हो। पिता अभी से अपने पास नहीं रख पा रहा है। जब कि वह कितना छोटा, मासूम है। ऐसे बच्चे आगे चल कर बहुत ग़लत रास्ते पर चले जाते हैं। क्रिमिनल बन जाते हैं। मेरी यह बात भइया को बड़ी नागवार लगी। मैंने ग़ुस्से की कई रेखाएँ उनके चेहरे पर साफ़ देख ली थीं। 

मैंने सोचा कि क्या मैंने इतना ग़लत कह दिया। वो कुछ देर चुप रह कर बोले, “चिंता की बात नहीं है। मैं उसे हर वक़्त गोद में तो लिए नहीं रह सकता। और अभी अनुप्रिया की हालत को देखते हुए उसे साथ भी नहीं रख सकता। हाँ, उसके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अब तक जो सोचा है उसके हिसाब से यह मकान मैं उसी के नाम कर दूँगा। लिखाई-पढ़ाई के लिए में जो सम्भव हो सकेगा करूँगा। बाक़ी जो सम्भव होगा वह भी करूँगा।” मैंने सोचा सब कर डालेंगे लेकिन बच्चे को साथ नहीं रखेंगे। यह बच्चे के प्रति उनकी उस घटना के कारण उत्पन्न हुई विरक्ति है या नई पार्टनर के साथ का जादू। 

बच्चे का भविष्य क्या सुरक्षित होगा, जब पार्टनर के कहने पर उसे दुत्कार रखा है तो उसके नाम प्रॉपर्टी क्या करेंगे? क्या पढ़ाएँगे-लिखएँगे? वैसे भी तुम्हारी पार्टनर अनु के लक्षण तो ऐसे दिख रहे हैं कि वह जल्दी ही आप बाप-बेटे की छाया भी आपस में नहीं मिलने देंगी। एक बार मँझली ने जो किया उस बारे में कुछ बात करने का मेरा मन हुआ, लेकिन दिमाग़ इतना भन्ना उठा था भइया की बातों से कि मैंने वहाँ से चल देना ही उचित समझा कि कहीं मेरा मुँह ना खुल जाए। मैं कोई सख़्त बात ना बोल जाऊँ। 

मैंने जल्दी से उनके पैर छुए और घर आकर सामान उठाया। जो अजीब मनहूस-सा दिख रहा था। और स्टेशन आ गया। ट्रेन दो घंटे लेट थी तो प्लैटफ़ॉर्म पर बैठे-बैठे उसका इंतज़ार करने लगा। ट्रेन के आने तक मैं घर की हालत सोच-सोच कर परेशान होता रहा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर मेरे माँ-बाप, परिवार ने ऐसी कौन-सी ग़लती की थी कि मेरा पूरा परिवार नष्ट हो गया। घर में किसी चीज़ की कमी नहीं है। लेकिन किसी के चेहरे पर ख़ुशी का एक भी चिह्न नहीं है। आख़िर इस बर्बादी का ज़िम्मेदार किसे मानूँ। मँझली की नासमझी, लालच हवस को या इस विध्वंसक क़ानून को। 

ट्रेन आ गई। उसमें बैठ गया, तब भी बातों की यह आँधी बंद नहीं हुई। आख़िर में मँझले भइया की कही बातें ज़्यादा मथ रही थीं। मेरे सामने तीनों और नीचे वाली दो बर्थ पर, एक पूरा परिवार था। शायद दो भाई अपने परिवार के साथ दिल्ली जा रहे थे। एक बच्चा छोटा और एक नौ-दस साल के क़रीब रहा होगा। उन सब की बातें, सब के चेहरे पर हँसी-ख़ुशी चमक रही थी। बड़ा बच्चा कुछ ज़्यादा ही नटखट था। बिल्कुल मँझले भइया के बेटे सा लग रहा था। 

उस परिवार का हँसना-बोलना देख कर मैंने सोचा इससे कहीं ज़्यादा ख़ुश था मेरा परिवार। यह परिवार ट्रेन चलने के बाद जब तक सोया नहीं तब तक मन में यही सब चलता रहा। मैं रात भर सो नहीं सका। जब सुबह होने को हुई तो नींद आने लगी। ट्रेन भी पहुँचने वाली थी। इसलिए मैंने सोचा घर चल कर ही सोऊँगा। 

आधे घंटे बाद ही गाड़ी प्लैटफ़ॉर्म पर रुकी, वह परिवार पहले उतरा, पीछे मैं। उस परिवार को लेने दो-तीन लोग आए हुए थे। वह छोटा बच्चा उन्हीं में से एक युवक को अंकिल-अंकिल कहता जाकर चिपक गया उससे। युवक ने भी उसे बड़े प्यार से चिपका लिया। उसे प्यार किया। मुझे लगा जैसे वह युवक मैं हूँ और बच्चा मेरा भतीजा। आँखें मेरी एकदम ही छलछला आईं। मैं वहाँ से चल दिया, वह परिवार भी बाहर के लिए चल दिया। ऑटो कर मैं घर आया। मगर रास्ते में मैंने यह तय कर लिया कि अगर भइया ने अपने बच्चे को अपने पास नहीं रखा तो मैं उनसे कहूँगा कि वह उसे मुझे दे दें। मैं पालूँगा उसे। वो अपने नए परिवार के साथ ख़ुश रहें। मैं अपने भतीजे के साथ उनसे ज़्यादा ख़ुश रहूँगा। अब तक मेरी आँखें नींद के कारण झपकनें लगी थीं। घर पर सारे साथी अपनी-अपनी डेस्टिीनेशन पर जाने को तैयार हो रहे थे। मैं सबसे हाय-हैलो कर सो गया। 

घर से आने के बाद मैं कई दिन तक कहीं नहीं गया। दोस्तों ने पूछा बात क्या है जो आने के बाद ऐसे सीरियस बने हुए हो। मैंने सबको एक ही बात बताई कि पापा की तबियत ठीक नहीं रहती। अब दिन पर दिन वह ढलते जा रहे हैं। मेरी बात पूरी होते ही सुहेल बोला। “अरे तो यार इसमें टेंशन की क्या बात है। ढलते तो हम सब भी जा रहे हैं। और एक दिन सब ही चले जाएँगे। कोई नई बात तो है नहीं है। जब से आया है टेंशनाइज किया हुआ है।” सुहेल की यह बात मुझे बहुत बुरी लगी। हम दोनों में बहस शुरू हो गई। कुछ ही देर में बहस ज़्यादा गर्मागर्म हो गई तो सौमित्र ने हम दोनों को अलग किया। 

सुहेल की बातों के बाद ख़ुद को यार दोस्तों, दुनिया से बहुत आहत, बहुत अकेला महसूस करने लगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ? यहाँ से लखनऊ लौट चलूँ। जिस काम के लिए आया था वह तो हो ही गया है। नौकरी वहीं ढूँढ़ता हूँ। मगर जब घर के लोगों का व्यवहार, उनकी हालत पर ध्यान जाता तो सोचता आख़िर इस मित्र मंडली और घर के लोगों के व्यवहार में क्या फ़र्क़ है। इतने दिन घर पर रुका रहा लेकिन किसी के व्यवहार में अपनत्व जैसा तो कुछ दिखा ही नहीं। फ़ॉफ़ॉर्मेलिटी ज़्यादा दिखी। पापा के व्यवहार में भी वह छह-सात साल पहले वाली गहराई कहाँ थी? तो क्या सचमुच मेरे घर का अस्तित्व ख़त्म हो चुका है। सब अलग-अलग होकर, अलग-अलग घर बन चुके हैं। और मैं उन घरों के लिए एक बाहरी हूँ। हालात तो सब यही बता रहे हैं। 

जब बाहरी हो चुका हूँ तो क्या मतलब है वहाँ जाकर रहने का। इस अनजान सी दुनिया में अकेला हूँ। तो कहीं भी रह लूँ। यहीं बना लूँ ठिकाना, अपने ना सही। यहाँ कहने को कुछ मित्र तो हैं ही। जो ज़रूरत पड़ने पर कुछ ना कुछ काम तो आ ही जा रहे हैं। इस बिंदु पर चिंतन-मनन करते मुझे कई दिन बीत गए, तब कहीं जाकर मैं यह तय कर पाया कि अब यह दिल्ली ही हमारी है। अब यहीं रहना है। नौकरी का इंतज़ाम हो जाए तो लखनऊ का घर बेच कर यहीं कहीं ले लेता हूँ एक मकान। फिर मँझले और बड़े भइया की राह पर मैं भी अपनी ज़िन्दगी अपने तरह जीता हूँ। अपनी अलग दुनिया बनाता हूँ। 

मैं अब प्रोफ़ेसर साहब के पीछे पड़ गया कि किसी भी तरह किसी भी कॉलेज में मुझे एडजस्ट कराएँ। मैं अब पहले से ज़्यादा उनकी सेवा करने लगा। जिगलो वर्ल्ड से मैं अपने को अलग करने की कोशिश करने लगा। इस लत से अपने को मैं मुक्त करना चाहता था। घर से आने के बाद मैं महीने भर तक किसी मिशन पर नहीं गया। मगर उसके बाद जल्दी ही मन पैसे और फिर उससे भी ज़्यादा किसी महिला के साथ अंतरंग क्षण बिताने के लिए मचलने लगा। 

यह मचलन रोज़-रोज़ बढ़ती जा रही थी। इस बीच जब मित्र मंडली लौट कर अपने मिशन की बातें बताती तो मन और ज़्यादा मचल उठता। धीरे-धीरे दो महीने हो गया। मैं कहीं नहीं गया। लेकिन एक दिन मित्र मंडली ने मेरा व्रत भंग करा दिया। 

सबने कहा इस बार एक नया एक्सपीरियंस तो है ही पैसा भी कई गुना ज़्यादा मिलना है। उन सब की बातों से मैं सशंकित हुआ कि अब-तक जो किया अब उससे ज़्यादा क्या हो सकता है? उन सब के और ज़्यादा ज़ोर देने से मैं और ज़्यादा सतर्क हो गया। मैंने पूरी दृढ़ता से कह दिया कि जब तक मुझे पूरी डिटेल नहीं बताई जाएगी तब-तक मैं चलने वाला नहीं। उन सब ने कोई और रास्ता ना देख जो कुछ मुझे बताया, उससे मैं असमंजस में पड़ गया कि जाऊँ या नहीं। मगर प्रेशर बढ़ता जा रहा था। 

मुझे लगा कि बातें डिसक्लोज़ होने के बाद ये सब मुझे अकेले छोड़ना नहीं चाह रहे हैं। मामला लाइव सेक्स पार्टी या रेव पार्टी का था। जिसके बारे में मैंने मीडिया, नेट पर देखा भर ही था। लेकिन ऐसी स्थिति में शामिल होने के बारे में सोचा भी नहीं था। 

मैंने साफ़ कह दिया कि यह मेरे वश का नहीं है कि मैं लोगों के सामने किसी से सेक्स करूँ। चाहे जितना ज़्यादा पैसा मिले मैं नहीं चल सकता। मैं नहीं कर सकता। इतना ही नहीं मैंने उन सबको भी मना किया। कहा एक लिमिट तो होनी ही चाहिए। मगर वह सब ना मानने वाले थे तो ना माने। आख़िर मुझे पार्टी में ‘ऐज़-ए-मेंबर’ शामिल होने के लिए तैयार होना ही पड़ा। जिसके लिए मुझे पैसा मिलना नहीं था। बल्कि एक मोटी रक़म देनी थी। सुहेल और जेवियर ने यह पार्टी अरेंज करने वालों से बात करके मुझे शामिल करने की परमीशन ले ली। 

वह लोग कई बातों की जाँच-पड़ताल करने के बाद मुझे बतौर सदस्य शामिल करने को तैयार हुए। लेकिन शामिल होने की फ़ीस में उन लोगों ने एक पैसे की रियायत नहीं की। जाने के लिए तैयार होने के बाद मैंने सोचा चलो यह भी देख लेंगे कि यह पार्टी कैसे होती है? लोग पैसे की हवस, तन की हवस में किस सीमा तक, कहाँ तक जा सकते हैं, यह भी देख लेंगे। पार्टी कहाँ होगी यह मुझे आख़िर तक नहीं बताया गया। 

मैंने सोचा सब अपनी-अपनी बाइक से चलेंगे। लेकिन तय समय पर हम एक लग्ज़री एसयूवी गाड़ी में चले जा रहे थे। कोई मोबाइल में गेम खेल रहा था। तो कोई किसी से बतियाने में लगा था। गाड़ी किधर जा रही है, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जब गुरुग्राम क्रॉस कर गई तो मुझसे रहा नहीं गया। अपने से आगे वाली सीट पर बैठे सौमित्र से पूछा, “अरे यार अब तो बता दो कहाँ चल रहे हैं?” तो वह हल्के से हँस कर बोले, “यार इतना परेशान क्यों हो रहे हो? जहाँ जा रहे हैं गाड़ी वहीं जा कर रुकेगी। क्यों टेंशन ले रहे हो? मुझे ख़ुद नहीं मालूम है। मुझे कोई टेंशन नहीं है। शायद जेवियर ही कुछ जानता हो।” 

सौमित्र ने जिस तरह से बात टाली। उससे मैं समझ गया कि कोई कुछ बताने वाला नहीं है। इसलिए चुप हो गया। जेवियर से भी नहीं पूछा। जानता था कि वह सौमित्र से बड़ा घाघ है। मैं अपने को चंगुल में फँसा हुआ महसूस कर रहा था। गाड़ी जब रेवाड़ी से पहले धारूहेड़ा में एक बड़ी-सी कंपनी के कैंपस में रुकी तो मैं कुछ घबड़ाया कि पार्टी और वो भी ऐसी पार्टी और इस कंपनी का क्या कनेक्शन? वह कंपनी होम एप्लायंसेज़ बनाने वाली अच्छी ख़ासी बड़ी कंपनी थी। 

ड्राइवर उतर कर अंदर गार्ड के पास गया। दो मिनट बाद एक गार्ड आया और हम सब को लेकर अंदर चला गया। अंदर क़रीब पूरी कंपनी क्रॉस कर आख़िर में एक बड़े हॉल में सब पहुँचे। ख़ूबसूरत हॉल था। हॉल में क़रीब तीस-पैंतीस लोग थे। जिनमें बहुत से युवकों के साथ-साथ टीन एज लड़कियों से लेकर प्रौढ़ सी दिखती औरतें भी थीं। 

हल्का-हल्का बड़ा मादक सा इंडियन-वेस्टर्न फ्यूजन म्यूज़िक चल रहा था। सब के हाथों में सिगरेट, हाथ में जाम थे। पूरे माहौल में अजीब सी स्मैल थी। लाइट कम थी। चारों दीवारों की फ़ुटलाइट जल रही थीं। कुछ फ़ैंसी लाइटें भी जल रही थीं। सब पूरी मस्ती में झूम रहे थे। ड्राइवर अंदर पहुँचा कर वहीं बैठे एक आदमी से कुछ कह कर चला गया। उसके जाते ही दरवाज़ा बंद हो गया। और दो-तीन स्मार्ट से लोग हाय फ़्रेंड कहते हुए आगे आए। ‘कमऑन फ़्रेंड आने में बड़ी देर कर दी।’ हालाँकि अभी बारह ही बजे थे और ऐसी पार्टियों के लिए यह समय शुरू होने का होता है। हम लोगों को साथ में ऐसे शामिल कर लिया गया जैसे कि ना जाने हम कितने पुराने यार हों। फिर किसी ने म्यूज़िक तेज़ कर दिया और सब लोग डांस करने लगे। 

डांस क्या था उन सब के हाव-भाव जैसे थे उस हिसाब से सबसे सटीक शब्द उसके लिए ‘मैथुनी नृत्य’ ही हो सकता था। कोई किसी को चिपका रहा था तो कोई किसी को। कोई सोफ़े पर बैठा तो कोई कहीं बैठा मस्ती में हिला-डुला जा रहा था। 

मेरे सारे मित्र ऐसे चिपटे जा रहे थे लड़कियों से, उनकी बॉडी लैंग्वेज, उनकी आपसी कैमिस्ट्री ऐसी लग रही थी कि ना जाने वो कितने क्लोज़ फ़्रैंड हैं। पूरी पार्टी में मैं ही एकदम अलग-थलग सा नज़र आ रहा था। आगे क्या होगा, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कोई एक घंटा बीतते-बीतते पार्टी चरम पर पहुँचने लगी। कोई नाचता तो कोई कहीं बैठ जाता। फिर नाचने वालों की संख्या कम हो गई। हमारी मित्र मंडली, कुछ लड़कियों का गुत्थम-गुत्था बढ़ता जा रहा था। 

इस गुत्थम-गुत्था में इन सब के कपड़े देखते-देखते ग़ायब होने लगे। फिर जल्दी ही वहाँ जो शुरू हुआ वह मुझे क़तई पसंद नहीं आया। इतने लोगों के सामने मित्र मंडली को उन लड़कियों के साथ सेक्स के अजीब-अजीब रूप पेश करते देख कर मैं दंग रह गया। इनके अलावा वहाँ उपस्थित तमाम अन्य महलिाएँ भी इस सेक्स गेम में हाथ साफ़ कर रही थीं। पुरुष भी। रात भर चली इस लाइव सेक्स पार्टी में लाइव सेक्स का नंगा नाच देखकर मैं हतप्रभ था। मुझे लग रहा था कि हमारा ‘इंडिया’ अब वाक़ई ‘इंडिया’ हो गया है। भारत या हिंदुस्तान तो अब रहा ही नहीं है। भारत से हज़ारों मील आगे निकल गया है। वह भारत जहाँ नैतिकता पर बड़े-बड़े ग्रंथ हैं। बड़ी-बड़ी बातें हैं। 

अगले दिन जब मंडली वापस घर पहुँची थी तो ऐसी थकी थी। ऐसी ख़ुमारी में थी कि सब जहाँ जैसे बिस्तर मिला वैसे ही उसी पर पसर गए। सबकी आँखें चेहरे अजीब से सूजे-सूजे हो रहे थे। नींद मुझे भी बड़ी तेज़ आ रही थी। लेकिन मन इतना ख़राब हो रहा था कि मैंने ब्रश किया। शॉवर वग़ैरह लेकर तब बिस्तर पर आया। वहाँ शराब, तरह-तरह के नॉनवेज और पहली बार ड्रग्स भी ली थी। मेरा सिर अब भी पकड़े हुए था। मैंने हैंग ओवर उतारने के लिए एक पैग व्हिस्की ली और सो गया। 

मैं जब शाम को सो कर उठा, मेरी मित्र मंडली तब भी सो रही थी। सब ड्रग्स के कारण पस्त थे। मैं तैयार होकर प्रोफ़ेसर साहब के यहाँ चला गया। मैं अपने को इस पार्टी की धुँध से बाहर निकालना चाहता था। प्रोफ़ेसर के यहाँ मैंने काफ़ी समय बिताया। उसके बाद एक और दोस्त के पास ग्रेटर कैलाश चला गया। उससे बहुत दिन बाद मिला था। वह एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में अच्छी पोज़ीशन पर था। और बहुत बिज़ी रहता था। 

वह जब मिला तो हाल-चाल के बाद थोड़ा वेट करने को बोला। बाद में वह मिला, तमाम बातें हुईं। और फिर रात उसी के यहाँ रुकना तय हो गया। नांगलोई में उसके घर में रात को बड़ी देर तक जब वह सो गया तब भी जागता रहा। सोचता रहा कि मुझे इस मंडली से अब जल्दी से जल्दी छुट्टी ले लेनी है। जिगलो, रेव पार्टी के बाद अब ये सब किंक स्टार बनने की सोच रहे हैं। क्रुएल सेक्स क्लब बीडीएमएस ज्वॉइन कर रहे हैं। इनकी कोई लिमिट है भी क्या? यह सब जिस तरह से आगे बढ़ रहे हैं उससे यह तय है कि एक दिन फँसेंगे ज़रूर। 

इन सब के तो आगे-पीछे इनका परिवार है। लेकिन मेरा परिवार? वह तो कभी एक फोन कर पूछता भी नहीं कि कैसे हो? जब मैं फोन करता हूँ तभी बात होती है। वह भी पापा को छोड़कर बाक़ी सब ऐसे बात करते हैं जैसे ऊब रहे हों। पीछा छुड़ाते हैं। ऐसे में मुझे ख़ुद ही अपने लिए सब करना है। मैं जब उस दोस्त के यहाँ से अगले दिन निकला तो यह तय कर के निकला कि जैसे भी हो इसी हफ़्ते इस मंडली को बॉय करना है। मैंने उसी दिन ब्रोकर से बात कर वन रूम सेट का हर हाल में जल्दी से जल्दी इंतज़ाम करने को कहा। 

मैंने शंपा जी के घर के पास ही मकान लेना तय किया था। इस लिए ब्रोकर को वही जगह बताई। तीसरे दिन उस एरिया में उसने कई मकान दिखाए। उन्हीं में से एक मैंने ले लिया। वह कुल मिला कर छोटा-सा एक अपॉर्टमेंट था। आने-जाने के टाइम को लेकर वहाँ कोई बंदिश नहीं थी। लैंडलॉर्ड कहीं बाहर रहता था। और मैंने ‘वन बीएचके’ फ़्लैट लिया था। फ़्लैट में ताला लगा कर जब घर पहुँचा तो मंडली को मैंने बताया। पूरा झूठ बताया कि मेरे फ़ादर एक दो महीने के लिए आ रहे हैं। इस लिए मैं शिफ़्ट हो रहा हूँ। यहाँ एक और व्यक्ति के लिए स्पेस नहीं है, इस लिए जा रहा हूँ। अचानक ही यह जान कर मंडली बोली। 

“अरे बोलते तो हम में से एक-दो लोग कुछ दिन कहीं और शिफ़्ट हो जाते। ऐसे अचानक छोड़ने की ज़रूरत क्या है?” मंडली को मेरा घर छोड़ना नहीं अखरा था। अचानक यूँ छोड़ना अखरा था। लेकिन मैंने तय कर लिया तो शिफ़्ट भी कर गया। मैं अपने नए ठिकाने पर मंडली को बुलाना नहीं चाहता था। सच यह था कि मंडली से अब संपर्क ही नहीं रखना चाहता था। कम से कम बात की। और एड्रेस वग़ैरह भी नहीं बताया। उनमें से किसी ने पूछा भी नहीं। हालाँकि यह फ़ैसला लेना मेरे लिए थोड़ा कठिन था। क्योंकि इस मंडली ने कई मौक़ों पर मेरी बड़ी मदद की थी। और मैं यह भी जानता था कि मंडली मेरे इस आचरण पर मुझे एहसान-फ़रामोश ज़रूर कहेगी। लेकिन हतप्रभ कर देने वाली रेव पार्टी ने मेरा मन ऐसा तोड़ा, ऐसा विरक्त हुआ कि मैं चाहता तो भी अपना फ़ैसला नहीं बदल सकता था। 

शंपा! शंपा के क़रीब घर लेने का मेरा मक़सद एक ही था कि इतने दिन बीत जाने के बाद भी मैं उन्हें अपने दिमाग़ में बराबर बसा हुआ पा रहा था। मुझे लगता जैसे वह मुझे खींच रही हैं। उनका रूखा, तेज़-तर्रार व्यवहार ना जाने क्यों मुझे सम्मोहित कर रहा था। प्रोफ़ेसर द्वारा मना करने के बावजूद मैं उन्हें भुला नहीं पा रहा था। इसलिए मैं मिलने के रास्ते ढूँढ़ने लगा। जिस रास्ते से वह निकलतीं जानबूझ कर उसी रास्ते पर जाता। मुझे यह तरीक़ा स्कूली लड़कों वाला बचकाना सा लगा। लेकिन सफल हुआ और कई मुलाक़ातें हुईं। 

मैं उन्हें बहुत आदर के साथ नमस्कार करता। वह जवाब हालाँकि बेरूखेपन ही से देतीं। कुछ और रास्ता निकालने की सोच ही रहा था कि एक दिन अचानक ही वह फिर मिल गईं। इस बार उन्होंने पूछ ही लिया कि ‘इधर कोई काम करते हैं जो आपका बराबर आना-जाना रहता है।’ मतलब साफ़ था कि वो मुझे पहले भी देख चुकीं थीं। डोर का सिरा छोर मुझे दिख गया तो मैंने पकड़ने में देरी नहीं की। मैंने छूटते ही बता दिया कि मैं यहीं पास में रहता हूँ। जिस कंपनी में काम करता हूँ वह भी यहाँ से क़रीब है। वह अब भी बेरुख़ी ही शो करती रहीं लेकिन मैं बोलता रहा। 

मैंने कहा मैं अपनी जॉब से सैटिसफ़ाइड नहीं हूँ। किसी कॉलेज में जॉब के लिए ट्राई कर रहा हूँ लेकिन मेरी तैयारी ठीक नहीं है। इत्तिफ़ाक़ से आप मिल गईं हैं तो मैं . . . मैं यह रिक्वेस्ट करना चाह रहा हूँ कि आप मुझे मेरे सब्जेक्ट पर कुछ ऐसी तैयारी करा दें जिससे मैं इंटरव्यू वग़ैरह क्लीयर कर सकूँ। मेरी इस बात पर वह कुछ देर मुझे देखती रहीं। फिर बोलीं ‘मैं आपकी क्या तैयारी कराऊँगी? डॉक्टरेट आपने की है मैंने नहीं।’ 

उनकी यह बात मुझे चाबुक सी लगी। लेकिन मैं किसी भी सूरत में अवसर चूकना नहीं चाहता था। तो तुरंत अपनी झेंप छिपाते हुए बोला मैंने डॉक्टरेट कैसे की है यह आप मुझसे ज़्यादा जानती हैं। हाँ, क्योंकि आप के पास इन सब चीज़ों को फ़ेस करने का एक शॉर्प विज़न है। आप तरीक़ा जानती हैं। थोड़ा सा गाइड कर देंगी तो मुझे सक्सेस मिल जाएगी। 

मैं अपने कॅरियर को सही रास्ते पर बढ़ सकूँगा। अचानक मेरे दिमाग़ में आया कि यह पैसे के लिए काम करती हैं तो मैंने साफ़-साफ़ कह दिया कि आपकी जो भी फ़ीस होगी वह मैं दूँगा। फ़ीस की बात आने पर वह थोड़ी देर सोचती रहीं फिर बोलीं, “आप के प्रोफ़ेसर साहब क्या आपको कुछ नहीं बताते।” अब मैं फिर फँस गया। लेकिन बात को सँभालते हुए कहा एक्चुअली वो समय नहीं निकाल पाते। दूसरे यहाँ से इतनी दूर हैं कि रोज़ जॉब के कारण पहुँच पाना मुश्किल हो रहा है। जब मिलते हैं तो बहुत कुछ बताते हैं। आप यहाँ वॉकिंग डिस्टेंस पर हैं तो मैंने सोचा आप से मदद ले लूँ। जितना समय मैं प्रोफ़ेसर साहब के पास जाने में लगाऊँगा उतने समय में आप से बहुत कुछ जान लूँगा। 

मैंने शंपा जी के लिए जब कोई रास्ता नहीं छोड़ा तो उन्होंने फ़ीस पर मामला अटका दिया। आख़िर मैंने उनके ही हिसाब से इसका भी हल निकाल दिया कि घंटे के हिसाब से पेमेंट दूँगा। टाइम के लिए यह तय हुआ कि जब उनके पास समय होगा तो वह मुझे फोन कर दिया करेंगी। इस तरह उनसे मिलने का रास्ता निकल आया। मैंने प्रोफ़ेसर को कुछ नहीं बताया। सोचा शंपा जी उन्हें बताएँगी तो देखेंगे। उन्हें भी किसी तरह मैनेज कर लेंगे। 

पहली दो-तीन मीटिंग तो इसीमें निकल गईं कि मुझे समझना जानना क्या है? और उन्हें समझाना क्या है? ज़्यादातर बातें बस इधर-उधर की हुईं। इस दौरान कॉफ़ी, सिगरेट भी चली। चौथी बार जब मैं पहुँचा तो जिस ब्रांड की सिगरेट वो पीती थीं वही सिगरेट और एक ख़ूबसूरत सा लाइटर ले लिया। मैंने सोचा नाराज़ ना हो जाएँ। लेकिन उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी लिया। यहाँ तक कि मुँह में सिगरेट लगा कर लाइटर मुझे ही जलाने को कहा। 

यह मीटिंग्स अब जल्दी ही बड़े कम अंतराल पर होने लगीं। मुझसे मेरे विषय के बारे में तो कम हाँ अन्य बातें ज़्यादा होने लगीं। एक महीना पूरा होने पर जब मैंने पेमेंट करने के लिए टोटल किया तो क़रीब बासठ घंटे निकल रहे थे। बिल बड़ा लंबा हो गया था। मैं परेशान हो गया कि महीने भर की पूरी कमाई इन्हीं के हवाले हो जाएगी। लेकिन जो तय किया था उस हिसाब से मैं कोई बार्गेनिंग नहीं कर सकता था। तो पेमेंट करने पहुँचा। उन्हें बताया शंपा जी इतने घंटे का इतना बिल हुआ है, आप अपना एकाउंट नंबर बता दें तो पैसा ट्रांसफ़र कर दूँ। 

यह कहने पर सिगरेट का एक कश लेकर मुझे देखा फिर खिलखिला कर हँसी। और कहा, “बहुत इनोसेंट हो तुम। कोई इतनी फ़ीस देता है क्या?” इसके बाद उन्होंने दस हज़ार रुपए ट्रांसफ़र करने को कहा। मैंने उन्हें बार-बार थैंक्यू बोला। एक बात ज़रूर थी। कि मुझे मेरे विषय और इंटरव्यू को कैसे फ़ेस किया जाता है। इस बारे में उन्होंने बड़ी-बड़ी बातें बताईं। कई बार उनकी बातें सुनकर मन में आता कि यह तो प्रोफ़ेसर साहब ने भी नहीं बताया। 

धीरे-धीरे दो महीने बीत गए। हमारे बीच का रिश्ता एक मेंटर और लर्नर से आगे जाकर क्लोज़ फ़्रेंड में तब्दील हो गया। इस बीच मैं प्रोफ़ेसर साहब से कई बार मिला। लेकिन उन्होंने शंपा जी को लेकर कोई बात नहीं उठाई। मतलब साफ़ था कि शंपा जी ने भी उन्हें कुछ नहीं बताया। हमारी मित्रता अब खाने-पीने से आगे बढ़ चुकी थी। मेरे साथ अब वह घूमने भी चलने लगी थीं। बड़ी चीज़ यह कि वह मुझे फ़ालतू पैसे ख़र्च करने से सख़्त मना करतीं। बीच-बीच में ज़िद करके ख़ुद भी ख़र्च करतीं। लेकिन अपनी फ़ीस लेने में रियायत ना करतीं। 

जीवन के हर क्षेत्र को लेकर उनका कंसेप्ट इतना क्लीयर था कि जब उन्हें लगता कि मैं मित्रता की सीमा क्रॉस कर रहा हूँ तो वह बड़ी शालीनता से टोकतीं। ‘इट इज़ नॉट अ पार्ट ऑफ़ फ़्रेंडशिप, समीर। इट्स अ मैटर ऑफ़ सेक्स। ओ.के.’ इतना ही नहीं। मुझे ज़रा भी एक्साइटेड पातीं तो निस्संकोच कहतीं। ‘समीर मैं तुममें अपने लिए सेक्स डिज़ायर देख रही हूँ। हम अभी सिर्फ़ एक फ़्रेंड हैं।’ यह कह कर वह मुझे एक दम पानी-पानी कर देतीं। 

मैं बग़लें झाँकने लगता। तो कहतीं, “जो मन में हो उसे कहने की हिम्मत रखो, मैं नहीं समझ पा रही हूँ कि तुम मेरे साथ इतना क़रीबी रिश्ता क्यों बनाना चाह रहे हो। मैं यह साफ़ कह दूँ कि मैंने अपनी जो दुनिया बना रखी है उसमें मैं कोई परिवर्तन करने को तैयार नहीं हूँ। मैं तो यही आश्चर्य में हूँ कि मैंने तुमसे फ़्रेंडशिप ही कैसे बना ली? मुझे लगता है कि यह बन गई। मैंने बनाया नहीं। 

“मैं नहीं समझ पा रही कि आख़िर तुम मुझसे दस-बारह साल छोटे हो फिर यह रिश्ता मुझसे क्यों बनाना चाह रहे हो? आख़िर क्या चाहते हो मुझसे?” मुझसे वही पुराना घिसा-पिटा डायलॉग ही निकल सका कि, “मैं आपको ख़ुश देखना चाहता हूँ, रेगिस्तान से दूर हरी-भरी वादियों में ले आना चाहता हूँ।”

इतना कहते ही शंपा जी बेहद गंभीर होकर बोलीं, “क्यों? क्यों लाना चाहते हो? क्या रिश्ता है मेरा तुम्हारा? फिर तुमने ये कैसे तय कर लिया कि मैं रेगिस्तान में हूँ।”

मैंने कहा, “अकेलापन। मैं अकेलेपन को रेगिस्तान में अकेले रहने जैसा मानता हूँ। मैं अकेले रह रहा हूँ। और ख़ुद को मैं रेगिस्तान में पाता हूँ। और आप भी अकेले हैं तो . . .” मैंने देखा कि मेरी इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं है। तो आगे भी बड़ी बेबाकी से कह दिया कि, “आप कहती हैं मन में जो आए उसे कहने की हिम्मत रखनी चाहिए, तो आपकी इस बात से ही हिम्मत कर पा रहा हूँ कि मैं चाहता हूँ कि आप आज अपनी इस दुनिया से निकल कर एक रात मेरी दुनिया में मेरे घर पर बिताएँ। इससे मैंने जो रेगिस्तान की बात की है उसे समझने में और आसानी होगी।” मैंने सोचा था कि शायद वो मेरी इस बात पर शॉक्ड होगी। लेकिन ऐसी कोई प्रतिक्रिया उन्होंने नहीं दी। शांत अपनी कुर्सी से उठीं मेज़ पर रखी सिगरेट निकाली, जला कर कश लेती हुई कमरे की खिड़की के पास खड़ी हो गईं। 

उनकी भाव-भंगिमा बता रही थी कि उनके दिमाग़ में कोई गहन उथल-पुथल, मंथन चल रहा है। कमरे में असहनीय सन्नाटा छाया हुआ था। मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी कि आख़िर शंपा जी का जवाब क्या होगा? इनके अंदर कौन सा तूफ़ान चल रहा है? वह किस रूप में बाहर आएगा? मैंने भी एक सिगरेट सुलगा ली। और जब रहा नहीं गया तो बड़े सशंकित क़दमों से उनके पीछे पहुँचा और डरते हुए उनके कंधे पर हाथ रख कर हल्के से दबा कर कहा, “मेरी बात से यदि आपको कष्ट हुआ है तो मुझे बहुत दुख है। मैं फिर कहता हूँ कि मेरा . . . ख़ैर छोड़िए। आप जैसा कहेंगी मैं वैसा ही करूँगा। मेरी तरफ़ से कोई प्रेशर नहीं है।” 

मैं अपनी बात खुल कर कह नहीं पा रहा था। उनकी तरफ़ से प्रतिक्रिया में हो रही पल-पल की देरी से मैं यही सोचने लगा कि मेरी बात से उनको कष्ट पहुँचा है। और क्रोध की अधिकता के कारण वह बोल नहीं रही हैं। मुझे लगा कि सॉरी बोल चैप्टर क्लोज़ किया जाए। उनके कंधे से मैंने हाथ धीरे से वापस हटाना चाहा तो अचानक ही उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठा कर कंधे पर रखे मेरे हाथ को हल्के से दबा दिया। 

उस स्पर्श में इतना अपनत्व था कि मैं सिहर उठा। मेरा पूरा बदन गनगना उठा। कोई बोल मुँह से ना निकले। फिर उन्होंने एक गहरी साँस ली। मेरे हथेली को अपने हाथ में लिए-लिए पलटी और बोलीं, “यदि मैं यह कहूँ कि तुम ख़ुद को हरी-भरी वादियों में लाने के लिए मुझे माध्यम बना रहे हो तो?” 

मैंने कहा, “नहीं, आप ऐसा ना सोचें। हरी-भरी वादियों की कोई अर्थवत्ता तभी है जब कोई अपना भी हो साथ में। हमें लगा कि हम दोनों ही एक दूसरे के लिए अच्छे साथी साबित होंगे।” मेरी इस बात पर वह बड़ी देर तक चहलक़दमी करने, सिगरेट पूरी करने के बाद बोलीं, “ओ.के., आज रात तुम्हारे साथ, तुम्हारे घर पर बिताऊँगी। देखूँगी कि तुम मेरी रेगिस्तान बनी दुनिया में कितनी हरियाली बिखेर पाते हो।” शंपा जी की आवाज़ अजीब-सी हो रही थी। जैसे वो किसी विशाल एकदम ख़ाली हॉल में बोल रही हों। उनके इस जवाब से मुझे बहुत ख़ुशी हुई। 

मैंने दोनों हाथों से उनके कंधे को हल्के से पकड़ कर कहा, “थैंक्यू। मैं आपको लेने कितनी देर बाद आ जाऊँ?” उन्होंने नौ बजे का टाइम दिया। साथ ही यह कहना ना भूलीं कि, “समीर किसी फ़ॉफ़ॉर्मेलिटी की ज़रूरत नहीं है।” मैं ओ.के. कह कर घर आ गया। घर की हालत ठीक की। इसमें मुझे अच्छा ख़ासा वक़्त लग गया। मेरे पास कुल तीन घंटे थे। फिर भी जितना काम था उस हिसाब से समय कम था। मैंने एक दम आख़िर में शंपा जी की पसंद के हिसाब से एक बढ़िया होटल से डिनर, शानदार व्हिस्की, सिगरेट सब लाकर रख दिए। रूम फ़्रेशनर पूरे घर में स्प्रे कर दिया। और ठीक नौ बजे शंपा जी के सामने हाज़िर हो गया। मुझे डर था कि लेट ना हो जाऊँ। लेकिन एग्ज़ेक्ट नौ बजे पहुँच गया था। मुझे देख कर वह मुस्कुराईं। 

मैंने कहा मैं लेट तो नहीं हुआ तो वह बोलीं ‘नेवर।’ उनकी आँखें उनका चेहरा देखकर मुझे लगा जैसे वह मेरे जाने के बाद देर तक ख़ूब रोई हैं। लेकिन मैंने कुछ पूछना उचित नहीं समझा। 

मैंने सीधे कहा, “आप तैयार हैं। टाइम हो गया है।” मैंने देखा कि उन्हें मैं जैसा छोड़ गया था वह बिलकुल वैसे ही हैं। ऐश ट्रे में सिगरेट के टुकड़े बता रहे थे कि उन्होंने तीन घंटे में आठ-नौ सिगरेट पी डाली हैं। उन्होंने कहा, “ठीक है बैठो, बस चेंज कर लूँ फिर चलती हूँ।” अस्त-व्यस्त शंपा जी मेरे बैठने का इंतज़ार किए बिना बाथरूम गईं। हाथ-मुँह धोकर आईं। अलमारी से कुर्ती, जींस निकाली फिर इशारे से ही मुझसे मुँह दूसरी तरफ़ घुमा लेने को कहा। मैं तुरंत दूसरी तरफ़ घूम गया। वहाँ चेंज करने के लिए कोई दूसरा स्पेस नहीं था। वह चेंज करती हुईं बोलीं, “तुमने आज यह अचानक ही कह दिया। पहले कभी ऐसा कोई संकेत दिया ही नहीं। मैं अब भी नहीं समझ पा रही हूँ कि मुझे चलना चाहिए कि नहीं।” 

मैंने तुरंत कहा, “मैं समझता हूँ कि यदि क़दम उठ जाएँ तो उन्हें रोकना नहीं चाहिए। हमें कुछ चीज़ें समय पर छोड़ देनी चाहिए। उसे ही सही ग़लत तय करते हुए देखते रहना चाहिए।” 

मेरी इस बात पर बोलीं, “शायद इस समय मैं यही कर रही हूँ। मैं समझने की कोशिश कर रही हूँ कि तुम्हारी बातों में क्या था? ऐसी कौन सी एनर्जी है जिसने मुझे मेरी दुनिया से बाहर आकर कुछ और देखने के लिए निकाल लिया?” 

मैंने कहा, “मैं आपको क्या बताऊँ। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, शायद यही नियम हम दोनों के बीच भी ख़ुद को साबित कर रहा है।” 

इस पर वह हँसती हुई बोलीं, “पता नहीं क्या? ख़ैर तुम मुड़ सकते हो।” 

मैं फिर से उनकी तरफ़ मुख़ातिब हुआ। उन्होंने चेंज कर लिया था। बालों में जल्दी-जल्दी आठ दस कंघी कर पिन लगाया, अपना हैंड बैग लिया, मोबाइल उठाया, बोलीं, “चलो! इस यक़ीन के साथ चल रही हूँ कि जैसा तुम कह रहे हो मुझे वैसा ही अनुभव मिलेगा।”

उनकी इस बात पर मैंने इतना ही कहा, “मेरी कोशिश में कोई कमी नहीं रहेगी।” 

बाहर आकर बाइक स्टार्ट की, जब वह बैठ गईं तो मैंने उनसे कहा, “मैंने सोचा कि एक टैक्सी कर लूँ। फिर आपकी बात याद आई कि फ़ॉफ़ॉर्मेलिटी ना करने की आपने हिदायत दी है। और आपकी किसी बात को मैं टालने के पक्ष में बिलकुल नहीं रहता।” 

“अच्छा किया। मुझे बिलकुल अच्छा न लगता यदि तुम टैक्सी लाते।” 

बाहर का मौसम अच्छा ख़ासा गुलाबी-सा हो रहा था। मार्च का दूसरा हफ़्ता था। हवा कुछ तेज़ और ठंडी थी। बाइक पर और अच्छी लग रही थी। शंपा जी पीछे बैठी थीं। उनके दोनों हाथ मेरी कमर के गिर्द कसे हुए थे। हम छह-सात मिनट में घर पहुँचे। गाड़ी खड़ी कर उन्हें लेकर ऊपर घर के सामने पहुँचा अंदर दाख़िल होने के लिए जब इंटरलॉक खोल रहा था तब वह बोलीं, “बाहर कितना बढ़िया मौसम है, मन कर रहा है कि थोड़ी देर और घूमें।”

मैंने छूटते ही कहा, “तो चलूँ।” 

तो वह हँसते हुए बोलीं, “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसे ही कह रही थी।”

छह-सात मिनट के रास्ते में मैंने और शंपा जी ने दो चार बातों के अलावा और कोई बात नहीं की थी। अंदर आकर पहले मैंने उन्हें पूरा घर दिखाया और कहा, “मुझे उम्मीद है कि यहाँ आप कोई असुविधा महसूस नहीं करेंगी।”

वह बोलीं. “बिलकुल नहीं। बहुत अच्छा लग रहा है। मुझे ऐसी सादगी में ही जीवन का सौंदर्य दिखता है।” वह बालकनी में खड़ी होकर बोलीं, “यहाँ इस ऊँचाई से बाहर का मौसम अच्छा लग रहा है। हवा रेशम-सी फ़ील दे रही है।”

उनकी बॉडी लैंग्वेज़, बातों से मुझे लगा कि वह यहाँ आकर ख़ुश हुई हैं। मुझे इससे बेहद ख़ुशी हुई। मैंने टीवी ऑन कर दिया। तभी उन्होंने फिर सिगरेट सुलगा ली। मुझे भी ऑफ़र किया। 

स्टडी टेबल पर रखी फोटो देखकर बोलीं, “यदि मैं ग़लत नहीं हूँ तो यह आपके पेरंट्स हैं।”

मैंने कहा, “हाँ। माँ अब नहीं हैं।”

इस पर बोलीं, “ओह और पापा?”

मैंने कहा, “वह लखनऊ में ब्रदर के पास रहते हैं।”

इसके बाद कुछ और बातें कीं एक गिलास ठंडा पानी पिया और बोलीं, “समीर मैं सोच रही हूँ कुछ देर बालकनी में बैठते हैं। अभी तो दस भी नहीं बजा है।”

वास्तव में उन्होंने मेरे मन की बात कह दी थी। मैंने दो कुर्सियाँ वहीं डालीं। बीच में एक छोटी टेबल भी। वहीं बैठकर हमारी बातें फिर शुरू हुईं। 

मैंने देखा शंपा जी मूड में हैं, और ना जाने कितनी बातें कह देना चाहती हैं। अंदर कमरे में मैंने टीवी बंद कर दिया। और म्यूज़िक सिस्टम पर शंपा जी की पसंद का सेमी क्लॉसिकल म्यूज़िक ऑन कर दिया। जिसकी आवाज़ बालकनी में हम तक धीरे-धीरे पहुँच रही थी। शंपा जी रह-रह कर बातें कर रही थीं। मगर इन बातों में वह अपने बारे में कुछ नहीं कह रही थीं। वह पूरे सिस्टम की बात कर रही थीं। उन्हें वर्तमान सिस्टम में बहुत सी ख़ामियाँ नज़र आ रही थीं। उनकी बातें धीरे-धीरे डेप्थ और ज़्यादा डेप्थ में जा रही थीं। 

मेरे सामने एक नई शंपा ऊभर कर आ रही थी। एक अलग ही तरह की शंपा का जन्म हो रहा था। मैं अभिभूत हो रहा था। तभी उन्होंने पानी माँगा। तो मैंने पानी के साथ ही व्हिस्की के दो स्माल पैग बनाए। आइस क्यूब डाले और सामने रखते हुए कहा, “मुझे लगता है ये माहौल को और बेहतर करेंगे।”

वह बोलीं, “मैं कहने ही वाली थी।” फिर एक सिप लेकर बोलीं, “लगता है मेरी हर चीज़ को तुमने बड़ी बारीक़ी से रीड किया है। ये मेरा पसंदीदा ब्रांड है।”

मैंने कहा, “मेरी कोशिश यही है कि जो भी करूँ वह बेहतर हो।”

“तुम अपनी कोशिश में अब तक तो सफल हो समीर। आगे के बारे में मैं जानती नहीं।”

इसके बाद शंपा जी की नॉन स्टॉप बातें, सिगरेट चलती रहीं। मुझे लगा कि ऐसे खाने का मज़ा चला जाएगा। ग्यारह बज गए हैं लेकिन बातें ऐसी थीं कि मेरा भी उठने का मन नहीं कर रहा था। शंपा जी की नज़र में देश बड़े गंभीर संकट से गुज़र रहा है। वह खोखला हो रहा है। युनिवर्सिटीज, कॉलेज या अन्य जगहों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर जो हो रहा है वह वास्तव में साज़िश है। आज़ादी के नाम पर विखंडन की प्रक्रिया चलाई जा रही है। वह कहतीं कि यह सब विदेशी फ़ंडिंग, विदेशी साज़िश का परिणाम हैं। कुछ लोग इन्हीं के इशारे पर नाच रहे हैं। वह बोलीं, “जानते हो समीर हमारे समाज की मुख्य समस्या क्या है?” 

मैंने कहा, “नहीं।”

तो वह बोलीं, “आश्चर्य है, तुम्हें मालूम होना चाहिए। ख़ैर बताती हूँ। वह है धर्म की अफीम। पहले यह धर्म समाज को दिशा देता था। राजदंड के साथ मिल कर समाज को आगे बढ़ाता था। लेकिन अब धर्म लोगों में अफीम के नशे-सा मिल गया है। लोगों को देश, समय से कोई लेना-देना नहीं है। सब अपने स्वार्थ से आगे सोचते ही नहीं। यह अफीम इतनी फैल चुकी है कि देश ही नहीं समीर यह पूरी दुनिया के अस्तित्व के लिए ख़तरा बन गई है। तमाम देशों में भरे पड़े एटॉमिक वेपन इन अफीमचियों के हाथों में कभी भी पड़ सकते हैं। और यह स्थिति बंदर के हाथ में उस्तरा जैसी होगी। ये पृथ्वी के लिए संकट की घड़ी है। जानते हो समीर हम दोनों इस संकट से मुक्ति की बात करते थे। रास्ता ढूँढ़नें की कोशिश करते थे। लेकिन क्रूर समय ने उन्हें निगल लिया। 

“वह दुनिया के बारे में कॉर्ल सागन से आगे सोचते थे। कहते थे, ‘हमारे देश ने दुनिया को वसुधैव कुटुंबकम का सिद्धांत दिया है। मैं इसे और आगे ले जाऊँगा।’ बड़ी गंभीरता से कहते, ‘शंपा, टेक्नॉलोजी जिस तेज़ी से आगे बढ़ रही है उससे हम जल्दी ही अंतरग्रहीय व्यवस्था के युग में प्रवेश कर जाएँगे। और मेरा प्रयास होगा, मेरी कोशिश यही है कि हम वसुधैव कुटुंबकम से आगे ब्रह्मांडम् कुटुंबकम बनाएँगे। दुख नाम की चीज़ इस ब्रह्मांड में नहीं होगी।’

“मगर समीर क्या मालूम था कि उनका सपना, सपना ही रहेगा। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मैं धर्म की अफीम से अपने को बचाने में सफल रही हूँ। मैं अपने हसबैंड के विचार ‘ब्रह्मांडम् कुटुंबकम’ को इस दुनिया के सामने जल्दी ही लाऊँगी। मैं एक चीज़ तुम्हें अभी बता देना चाहती हूँ कि इसमें मुझे तुम्हारे सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी। तुमसे मैं या यूँ कहूँ कि किसी से सहयोग लूँगी यह मैंने पिछले दो महीने में तुम्हारे विहैवियर को देखने के बाद सोचा। दूसरे शब्दों में कहें कि तुमने ऐसा कर दिया।”

मैंने कहा कि, “मैं अपने को लकी मानता हूँ कि आपने मुझे इस ज़िम्मेदारी के लायक़ माना।”

वह बात आगे बढ़ाएँ इसके पहले मैंने कहा कि “अगर आपका मूड हो तो बातों के साथ-साथ डिनर भी शुरू करें। गरम-गरम अच्छा लगेगा। हालाँकि सभी हॉट-पॉट में हैं।” 

उन्होंने मेरी बात पर मोबाइल उठा कर टाइम देखा फिर बोलीं, “ठीक कहते हो। टाइम हो गया है। समीर जब मैं हसबैंड के साथ थी तो भी हम दोनों ऐसे ही बातें करते थे। 

“मैं ज़्यादा बात करती थी। हम दोनों जी-तोड़ मेहनत करते थे। खाना-पीना बस ऐसे ही हो जाता था। ब्रेड, दूध, अंडा, या मौसमी फल वग़ैरह। बाद में जैसे-जैसे इंकम बढ़ी वैसे-वैसे खाने-पीने का सिस्टम बदला। महीने में तीन चार दिन होटल में खाने लगे। वो किचन में ज़्यादा समय देना पसंद नहीं करते थे।” 

मैंने कहा, “तो क्या वो किसी एक्टिविस्ट की तरह किसी बड़े अभियान की योजना बना रहे थे।” 

बालकनी से जब मैं शंपा जी को लेकर खाने की टेबल की तरफ़ बढ़ा तभी यह पूछ लिया। उस वक़्त मैं उनको कमर के पास पकड़े हुए चल रहा था। फिर चेयर खींच कर बैठाया। दूसरी तरफ़ आकर मैंने टेबल पर रखे कई हॉट-पॉट एक-एक कर खोलने शुरू किए। यह सारे हॉट-पॉट मैं आनन-फ़ानन में यह प्रोग्राम निश्चित होने के बाद ही ख़रीद कर ले आया था। जिससे शंपा जी को गरम-गरम डिनर करा सकूँ। 

एकदम नए इतने हॉट-पॉट देखकर उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने कह ही दिया, “लगता है कि तुमने बहुत पैसे ख़र्च किए हैं।” 

मैंने कहा, “ऐसा कुछ नहीं है। बस कोशिश यह की कि सब कुछ अच्छा हो।”

“हाँ, मैं समझ रही हूँ कि तुम सफल हो। लेकिन इतने सारे पॉट में तुमने क्या-क्या रखा हुआ है?” 

मैंने कहा, “मैंने हर वह चीज़ लाने की कोशिश की है, जिन्हें खा कर अच्छा लगे।”

मेरी इस बात पर वह हल्की मुस्कुराहट के साथ मुझे देखती रहीं फिर बोलीं, “मैं नहीं समझ पा रही हूँ कि तुम मेरे लिए क्यों इतना परेशान हो।” 

क्रैब डिश उनकी प्लेट में डालते हुए कहा, “लीजिए पहले इसे टेस्ट कीजिए।” 

क्रैब का एक पीस मुँह में डालती हुई बोलीं, “आज सालों बाद क्रैब खा रही हूँ। यह तो बहुत टेस्टी है। तुम भी लो।” 

मैंने कहा, “हाँ बिल्कुल।” मैं इस बार उनके तुम शब्द पर अटक गया था। उन्होंने घर आने के कुछ देर बाद से ही तुम बोलना शुरू किया था। 

वह बहुत प्यार से टेस्ट ले-ले कर क्रैब खा रही थीं। मैंने भी शुरू करते हुए इसके बाद प्लेटों में लॉब्स्टर, प्रॉन, सीफ़ूड सलाद, नॉन बटर, टूना फ़िश आदि निकालता गया। हर डिश वह पूरा स्वाद लेकर खाती जा रही थीं। और मेरी पसंद की तारीफ़ करते नहीं थक रहीं थीं। क्रैब, नॉन के अलावा वह बाक़ी सारी चीज़ें पहली बार खा रही थीं। सलाद और प्रॉन की तारीफ़ करते वह थक नहीं रही थीं। 

हाँ, जब डिनर शुरू हुआ तो मैंने उन्हें पहला पीस अपने हाथों से खिलाया था। और वह मुस्कुरा रही थीं। डिनर के साथ हमारी बातें बराबर चल रही थीं। वह बोलीं, “लगता है तुमने थीम बेस डिनर अरेंज किया है। एक नॉन को छोड़ कर बाक़ी सब सी फ़ूड हैं।”

मैंने कहा, “ऐसा कोई प्लान तो नहीं था। लेकिन होटल मेनू देखा तो यही सब मुझे पसंद आया। मैंने सोचा रोज़ की चीज़ों से कुछ अलग होना चाहिए।” 

उनके पूछने पर जब होटल का नाम बताया तो वह चौंकती हुई बोलीं, “अरे यह तो फ़ाइव स्टार है। तुमने तो बहुत ज़्यादा पैसे ख़र्च कर दिए।” 

मैंने कहा, “ख़ुशी की कोई क़ीमत नहीं होती है।” 

तो वह बोलीं, “शायद तुम्हीं सही हो।” 

क़रीब घंटे भर में हमने डिनर ख़त्म किया। मगर हमारी बातें नहीं ख़त्म हुईं। सिंक में शंपा जी के हाथ भी मैंने अपने हाथों से धोए। वह मना करती रहीं लेकिन मैं नहीं माना। मैंने देखा तब वह एक शर्म या अजीब सी संकोच में सिकुड़ सी रही थीं। 

हाथ धोकर उन्हें तौलिए से पोंछ कर मैंने कहा, “अभी स्वीट् तो बाक़ी है, बिना उसके तो डिनर अधूरा है।” 

वह बोलीं, “पहले ही बहुत खा चुकी हूँ, अब और कुछ लेने की इच्छा नहीं है।”

लेकिन मैं स्वीट डिश प्लेट में निकाल कर बालकनी में आ गया। वह पहले ही बालकनी में आ गईं थीं। हवा तेज़ थी। ठंडी भी। वह रेलिंग पकड़े खड़ी रहीं। 

मैं भी उनकी बग़ल में उन्हीं की तरह खड़ा हो गया। वह दूर आसमान में देखती हुईं बोलीं, “समीर इस शानदार डिनर के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। उनके जाने के बाद सोचा ही नहीं था कि कभी ऐसे, इस माहौल में ऐसा डिनर करूँगी।”

मैंने कहा, “शंपा जी मैं सोचता हूँ कि अब हमारे बीच धन्यवाद आदि जैसी किसी औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है।” मेरी इस बात पर वह हँसी और एक हाथ मेरे कंधे पर रख दिया। फिर क्षण भर बाद बोलीं, “समीर मुझे पूरा विश्वास है कि हम दोनों साथ-साथ लंबा सफ़र तय करने वाले हैं।”

मुझे लगा जैसे उन्होंने मेरे मन की बात कह दी। मैं उनकी तरफ़ मुड़ा और बोला, “मैं इस बात को काफ़ी समय से महसूस कर रहा हूँ। अच्छा हुआ आपने कह कर स्पष्ट कर दिया। क़रीब पंद्रह मिनट हम दोनों यूँ ही खड़े बातें करते रहे। फिर मुझे लगा वह आलस्य महसूस कर रहीं हैं। घड़ी पर नज़र डाली तो क़रीब डेढ़ बज रहे थे। मैंने कहा, “आइए आराम करिए, मुझे लगता है आप थक गईं हैं।” 

मैंने देखा खाने के दौरान जो तीन पैग व्ह्स्किी उन्होंने ली थी उसका असर ख़ूब हो रहा है। और वह असर उनकी बातों पर दिख रहा है। मेरी बात सुनकर बोलीं, “हाँ समीर, मैं आराम करना चाह रही हूँ। ले चलो मुझे।” 

मैंने प्यार से उनका हाथ पकड़ कर कहा, “आइए।” 

मगर अगले ही पल उन्होंने चौंका दिया। जो हाथ मैंने पकड़ा था उसे छुड़ाया फिर दोनों हाथ बच्चे की तरह ऐसे आगे कर दिए जैसे वह गोद लेने के लिए कहता है। उनके चेहरे पर बच्चों की सी मासूमियत और शरारत दोनों दिख रही थी। 

मैं भी मुस्कुराए बिना न रह सका। और फिर उन्हें गोद में उठाने में देरी नहीं की। थोड़ा झुक कर दोनों हाथों से उन्हें ऊपर उठा लिया। उनका चेहरा मेरे चेहरे के एकदम सामने था। उठाने के बाद मैं कुछ देर उनकी आँखों को पढ़ने की कोशिश करता खड़ा रहा। वह भी मेरी ही आँखों में देखे जा रही थीं। फिर अचानक ही मेरे होंठों को चूम लिया। मैंने करंट सा महसूस किया। कुछ समझूँ तभी उनके होंठ फिर मेरे होंठों से सट गए। मैं उन्हें ऐसे ही लिए-लिए बेड के पास आकर खड़ा हो गया। तब उन्होंने अपने होंठों को अलग किया, और नीचे उतारने का संकेत भी। मैंने उतार दिया। तभी वह बोलीं, “समीर तुमने इन कुछ घंटों में ही मेरा ऐसा ख़्याल रखा है कि लगता है जैसे मुझ पर पड़ी बरसों-बरस की अकेलेपन की मोटी चादर बाहर चल रही फागुनी बय़ार कहीं दूर उड़ा ले गई है। और अपने नर्म मख़मली स्पर्श से मुझमें बरसों से गहरे भीतर तक समाई दुख-वेदना को छू मंतर कर रही है।” 

मैं उनकी बात पर केवल मुस्कुरा कर रह गया। तभी उन्होंने कमरे में दोनों तरफ़ पड़े बेड की तरफ़ देखते हुए कहा,”लेकिन तुमने अब भी बीच में इतनी चौड़ी दरार क्यों बना रखी है। लाइक ए रिफ़्ट वैली। समीर मैं और मेरे हसबैंड इस खाई को ही ख़त्म करना चाहते थे। हर किसी के बीच से खाई ख़त्म कर देना चाहते थे। लेकिन जितनी कोशिश की वह उतनी ही हर तरफ़ और ज़्यादा बढ़ती रही। अब देखो यहाँ सिर्फ़ हम तुम हैं। तुमने मुझे एक रात अपने यहाँ बिताने के लिए बुलाया है। लेकिन यहाँ भी इतनी चौड़ी, सात फ़ीट चौड़ी खाई बनी हुई है। समीर-समीर यह खाई मुझे इरीटेट कर रही है।” 

शंपा जी की बात, उनकी भावनाएँ मुझे समझते देर नहीं लगी। मैंने कहा, “आप बैठिए मैं अभी इस खाई को हमेशा के लिए ख़त्म करता हूँ।” फिर दोनों बेड मैंने आपस में मिला दिए। यह देख कर वह बोलीं, “हाँ! अब कितना अच्छा लग रहा है।” वह बैठ गईं बेड पर। फिर अचानक ही चौंकती हुईं बोलीं, “ओह शिट।” मैं चौंका अब क्या हो गया। मैंने पूछा, “कोई प्रॉब्लम?” मुझे लगा शायद मैट्रेस हार्ड हैं। ये तो स्प्रिंग मैट्रेस पर सोती हैं। 
वह बोलीं, “नहीं प्रॉब्लम जैसी तो कोई बात नहीं है। स्लीपिंग ड्रेस तो लाई ही नहीं।”

मैं कुछ बोलता उसके पहले ही उन्होंने सॉल्यूशन दे दिया यह कह कर कि, “चलो मैनेज करते हैं।” और फिर तुरंत मुझसे उन्होंने टॉवल माँग लिया। और वॉशरूम चली गईं। लौटीं तो सिर्फ़ टॉवल में। मुँह वग़ैरह धोकर ब्रश करके आईं थीं। काफ़ी फ़्रेश लग रही थीं। 

उनके बाद मैंने भी चेंज किया, मुँह-हाथ धोने, ब्रश करने लगा। काफ़ी थकान उतर गई। मैं आया तो शंपा जी बेड पर बैठी थीं। टॉवल में बैठना मुश्किल हो रहा था तो अजीब सा पैर पीछे मोड़ कर बैठी थीं। मैं उनके क़रीब बैठ गया। वह प्रश्न जो डिनर से पहले पूछा था कि क्या उनके पास अपने सिद्धांत को फलीभूत करने के लिए कोई योजना थी। पुनः पूछ लिया। तो वह कुछ देर जैसे कहीं खो गईं। फिर बोलीं। 

“हाँ एक विस्तृत योजना बनाई थी हम दोनों ने। उस पर एक निश्चित अवधि के बाद काम करने की सोची थी।” मैं योजना के बारे में कुछ पूछूँ उसके पहले ही उन्होंने यह कह कर चैप्टर क्लोज़ कर दिया कि, “इस बारे में फिर कभी बात करेंगे। आज तो मैं सिर्फ़ इस डिनर, इस रात को जीना चाहती हूँ। तुम्हारे साथ जीना चाहती हूँ।” 

मैंने कहा, “श्योर मुझे बेहद ख़ुशी होगी।” 

तभी वह बोलीं, “ये फ़ैन और तेज़ नहीं हो सकता क्या?” 

मैंने कहा, “हो जाएगा।” और उठ कर उसे फ़ुल स्पीड में कर दिया। नाइट लैंप ऑन कर लाइट ऑफ़ कर दी। अपने बेड पर पहुँचा तब तक वह बैठी थीं। मुझसे पूछा, “सुबह कितने बजे उठते हो?” 

मैंने कहा, “कुछ निश्चित नहीं, जब नींद खुल जाए।”

वह बोलीं, “ओह मेरा भी यही हाल है। ठीक है आओ अब सोते हैं। हमारे बीच को कोई रिफ्ट वैली तो नहीं होगी ना?” 

मैं आशय पूरा समझ पाता उसके पहले ही मैं उनकी बाँहों में था। जब वह बाँहों में ले रही थीं तब मैंने जो ख़ूबसूरत अहसास महसूस किया वह पहले कभी नहीं किया था। शंपा जी वाक़ई मुझे उसी समय से एक ख़ास महिला नज़र आने लगीं। जीवन के हर क्षेत्र में काम करने का उनका अपना एक अलग अंदाज़ मोह लेता था। उनके हर काम में एक क्लासिकता होती थी। कोई उद्दंडता, कोई हल्कापन नहीं। वह पूरी रात उनके हमारे बीच डिनर और भरपूर एक होने की रात थी। सुबह तक एक तरह से वह मुझे इस मामले में भी टीच कर रही थीं। 

ऐसे जैसे सेक्स वासना नहीं है एक आर्ट है। एक क्लॉसिकल ऑर्ट, जिसकी अपनी एक कंप्लीट फिलॉसफी है। जिसे समझना आसान नहीं तो अबूझ पहेली भी नहीं है। इसे समझने के लिए धैर्य, निर्मल मन और पूरा माहौल चाहिए। और उस रात शंपा जी ने आदर्श माहौल बनाए रखा। कहने को मैंने अपने यहाँ रात बिताने के लिए उन्हें आमंत्रित किया था। लेकिन सच यह था कि रात मैं उनके साथ बिता रहा था। 

मैं उनके हाथ में एक पपेट की तरह था। जिससे वह रात भर कुशल खिलाड़ी की तरह खेलती नहीं रहीं बल्कि उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर रही थीं। और सुबह होते-होते वह पपेट प्राणवान होकर सोने, आराम करने लगा। उसकी आँख लग गई। वह सो गया। और सुबह उठा तो दस बज गए थे। उठ कर बैठा तो वह असाधारण सी महिला बिल्कुल सामान्य सी दिखती मेरी स्टडी टेबल के पास बैठी पेपर पढ़ रही थी। हॉकर बालकनी में पेपर फेंक जाता है। वह इस समय भी टॉवल में ही थीं। मैंने उठ कर गुडमॉर्निंग किया। उन्होंने बिना मेरी तरफ़ देखे ही कहा, “वैरी गुडमॉर्निंग समीर।”

यह गुडमॉर्निंग फिर जल्दी ही महीने में दो-तीन बार, फिर हफ़्ते में होने लगा। मैं पूरे अधिकार के साथ उन्हें आमंत्रित करता और वह ख़ुशी-ख़ुशी आतीं। इस बीच वह मुझे मेरे विषय में बहुत कुछ बतातीं रहती थीं। लेकिन उस अभियान उस योजना के बारे में हर बार टाल जातीं। आख़िर चार महीने बाद प्रोफ़ेसर साहब की मेहनत, और मोटी रक़म की रिश्वत ने एक कॉलेज में मेरी नौकरी पक्की कर दी। 

उस दिन प्रोफ़ेसर साहब को मैंने फिर एक होटल में पार्टी दी। अगला फ़ैसला मैंने शंपा जी को अपने ही साथ रखने का किया। उन्हें तैयार करने में ज़्यादा समय नहीं लगा। वह बस अपने लिए एक सेपरेट स्टडी स्पेस चाहती थीं। जो इस फ़्लैट में नहीं था। तो उसी अपॉर्टमेंट में मैंने ‘टूबीएचके’ फ़्लैट ले लिया। जिसमें दो लोगों के लिए बहुत स्पेस था। शंपा जी ने किराया शेयर करने की बात मुझसे मनवा ली थी। 

महीना भर साथ रहने के बाद ही मुझे लगा कि इस महिला के साथ मुझे बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था। कॉलेज में छात्रों को लेक्चर देने के लिए रोज़ मेरा लेक्चर तैयार करातीं। रोज़ मुझे वह अपनी वृहद्‌ जानकारी से चौंका देतीं। अक़्सर मुझे लगता जैसे मैं उनके सामने स्टुडेंट हूँ। उनके सामने कुछ भी करते वक़्त मेरे मन में एक संकोच बना रहता। यहाँ तक कि सेक्स के मामले में भी मैं अपने आपको उनके सामने एक स्टुडेंट से ज़्यादा ना पाता। जब कि ना जाने कितनी तरह की महिलाओं के साथ यह सब किया हुआ था। 

मैरिड, अनमैरिड, अपने से उम्र में बड़ी, छोटी, हाउस वाइफ़ से लेकर प्रोफ़ेशनल वुमेन तक। इनमें ज़्यादातर ऐसे पेश आतीं जैसे कि ज़्यादा से ज़्यादा पैसा वसूलना है। ना जाने कितनी तरह की विचित्र हरकतें करतीं करवातीं थीं। कुछ तो सॉफ़्ट ट्वाइज और ना जाने कैसे-कैसे एक्सपेरीमेंट करती थीं। कई बार इनसे मन ऊब जाता, घिन आती। 

मगर एक महिला यह भी है। यह हर चीज़ को जीवंत कर देती है। सेक्स डिज़ायर निश्चित ही इनकी ज़बरदस्त है। लेकिन अपनी डिज़ायर को कितनी ख़ूबसूरती से यह सौंदर्यमय बनाकर ख़ुद उसमें डूबती हैं और पार्टनर को भी उसके सौंदर्य का पूरा रसपान कराती हैं। मध्य कालीन शृंगार रस के कवियों की शृंगार रस में डूबी रचनाओं की तरह। जल्दी ही साथ रहते-रहते आठ महीने बीत गए। मेरे यह दिन इतने ख़ूबसूरत बीत रहे थे कि मारे ख़ुशी के मेरे पैर ज़मीन पर नहीं थे। 

मैंने एक दिन जब प्रोफ़ेसर को बताया कि कैसे मैं और शंपा इतने दिनों से साथ रह रहे हैं तो वह आश्चर्य में पड़ गए कि शंपा और मेरे साथ। छूटते ही प्रश्न खड़ा कर दिया कि ‘तुम दोनों कैसे सामंजस्य बैठाते हो। वह तुमसे बारह-चौदह साल बड़ी हैं।’ इस पर मैंने कहा मैं और वह सिर्फ़ इतना जानते समझते हैं कि हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं। स्थिति तो यह है कि अब हम एक दूसरे के बिना अपना अस्तित्व ही नहीं मान पाते। 

यह सुन कर प्रोफ़ेसर बहुत ख़ुश हुए। बोले, “मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि तुम दोनों एक साथ इतना ख़ुश हो। बल्कि मैं तुम्हें इस बात के लिए धन्यवाद देता हूँ कि भीतर ही भीतर अपने को ख़त्म करती बहुमुखी प्रतिभा की धनी, बेहद संभावनाशील और अंतरमुखी महिला को तुमने बचा लिया। उसको आत्मघाती खोल से बाहर निकाल लिया। अब कोशिश करो कि उसके अंदर की जो प्रतिभा है, संभावनाएँ हैं, वह बाहर आएँ। वह समाज को बहुत कुछ दे सकती हैं। ख़ासतौर से दलितों को। मतलब दलित महिलाओं को।” फिर शंपा के बारे में प्रोफ़ेसर ने कई ऐसी बातें बताईं जो मैं पहली बार जान रहा था। मैं आश्चर्य में था कि यह महिला इतनी गुणों से भरी है। फिर मैंने चीज़ों को और बेहतर समझने के लिए प्रोफ़ेसर को घर इनवाइट किया। 

वह संडे को आने के लिये तैयार हो गए। मैंने खाने की ढेर सारी चीज़ों का सारा इंतज़ाम किया था। शंपा को सरप्राइज़ देने के लिए यह नहीं बताया कि कौन आ रहा है। बस इतना बताया कि वह बेहद ख़ास मेहमान हैं और तुम्हें मुझसे पहले से जानते हैं। वह पूरा ज़ोर डालती रहीं दिमाग़ पर कि कौन हो सकता है? लेकिन अनुमान नहीं लगा सकी। प्रोफ़ेसर के आने के टाइम पर कॉल बेल बजी तो मैंने दरवाज़ा खोलने के लिए जानबूझ कर शंपा को ही भेजा। और वह वाक़ई मेरी उम्मीद से ज़्यादा सरप्राइज़ हुईं। 

वह इतनी ख़ुश हुईं कि उनकी आँखें भर आईं थीं। बड़े प्यार से उन्हें बैठाया। मैं जानबूझ कर अंदर कमरे में बैठा हुआ था तो अंदर आकर मुझे प्यार से गले लगा कर बोलीं, “वाकई तुमने सरप्राइज़ दिया। मैं सोच भी नहीं पाई थी कि प्रोफ़ेसर साहब यहाँ आएँगे।” इसके बाद शंपा ने उनकी ख़ातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी। मैं साथ में लगा रहा बस। प्रोफ़ेसर पूरे समय शंपा की योग्यता उनकी क्षमता की बातें करते रहे। और आख़िर में जाते-जाते यह कहना ना भूले, “शंपा मैं समझता हूँ कि अब तुम्हें फिर से एक्टिव होना चाहिए अपने उस मिशन के लिए जिसके बारे में पहले कभी तुम पूरे जोश के साथ बात करती थी। 

“मैं यह मानता हूँ कि तुम्हें जैसे साथी की ज़रूरत थी वह मिल गया है। मेरा सहयोग तुम्हारे लिए जैसे पहले था वैसे ही आगे भी रहेगा। सदैव रहेगा।” हम दोनों ने उन्हें बड़े आदर के साथ विदा किया। उनके जाने के बाद मैं शंपा से उस मिशन उस अभियान के बारे में जानने के लिए बात करने लगा जिसकी चर्चा तब प्रोफ़ेसर साहब भी बार-बार कर रहे थे कि तभी शाम को क़रीब चार बजे एक फोन आया। अननोन नंबर था तो रिसीव नहीं किया। सोचा हो सकता है कोई जी-वर्ल्ड की महिला हो। 

उस समय ऐसी किसी महिला से बात करने की सोच कर ही मुझे पसीना आ जाता था। कॉल रिसीव ना किए हुए दो मिनट भी न बीता होगा कि मैसेज आ गया। ‘फ़ादर इज़ वेरी सीरियस, कम इमीडिएटली’ सेंडर ने नाम नहीं लिखा था। अननोन नंबर था भाइयों के नंबर सेव थे। यह कौन हो सकता है यह सोचते हुए मैंने उस नंबर पर फोन किया तो अनु ने रिसीव किया। बताया ‘फ़ादर वेंटीलेटर पर हैं। सीवियर अटैक पड़ा है। तुरंत आओ।’ मैं आगे कुछ पूछ नहीं पाया। उन्होंने फोन यह कह कर काट दिया कि ‘बाद में करती हूँ।’

शंपा सब सुन रही थीं। तुरंत बोली समीर हिम्मत से काम लो। जो भी ट्रेन मिले उससे लखनऊ पहुँचो। तुम तैयार हो मैं देखती हूँ किसी ट्रेन में शायद रिज़र्वेशन मिल जाए। वह लैपटॉप खोलकर बैठ गईं। मुझे तैयार क्या होना था। एक बैग में बस कुछ कपड़े ही रखने थे। मैं तरह-तरह की आशंकाओं से घिर गया कि वेंटीलेंटर पर हैं पता नहीं क्या होगा? इधर दस दिन से कोई बातचीत नहीं हुई थी। इन लोगों ने कुछ बताया भी नहीं। तभी शंपा ने बताया किसी ट्रेन में बर्थ नहीं है। मैंने कहा जाना तो है। चाहे जैसे भी। जनरल बोगी हो या जो भी। मैं निकलता हूँ। स्टेशन पर ही देखूँगा, जो भी सम्भव साधन पहले मिल गया उसी से निकल जाऊँगा। मैं इंतज़ार नहीं कर सकता। 

मेरी व्यग्रता देखकर शंपा अचानक ही बोलीं, “सुनो समीर कितनी भी जल्दी करोगे सुबह से पहले नहीं पहुँचोगे। लखनऊ की किसी भी फ़्लाइट में टिकट बुक करती हूँ। मैं भी साथ चलती हूँ। जितनी जल्दी पहुँचा जाए उतना अच्छा है।” मैं एकदम शॉक्ड कि वह भी चलेंगी। मुझे उन्होंने कुछ बोलने नहीं दिया। चार घंटे बाद की एक फ़्लाइट में टिकट मिल गई। मैंने कहा, “तुम चल कर क्या करोगी? वहाँ तुम्हें जानता ही कौन है?” तो उन्होंने आँखों में आँखें डालकर कहा। “तुम्हारे फ़ादर हैं। मेरे भी कुछ होंगे ही ना। रही बात जानने की तो पहुँच कर बता देना। मित्र हैं। या जो उचित लगे वही बता देना।” मैं शंपा के आग्रह को टाल ना सका। उनके साथ चल दिया। 

रात दस बजे के क़रीब लखनऊ एयरपोर्ट पहुँचा। वहाँ से टैक्सी कर सीधे हॉस्पिटल। वहाँ बड़े भइया मिले। एक भतीजा भी साथ था। मैंने पूछताछ की कि कब क्या हुआ तो इतना ही बताया दो दिन पहले अचानक अटैक पड़ा और कल दोपहर से स्थिति ज़्यादा बिगड़ी तो वेंटीलेटर पर रखा गया है। मैं उनसे यह शिकायत ना कर सका कि दो दिन पहले तबियत ख़राब हुई तो फोन क्यों नहीं किया। उनका रूखा-सा जवाब परेशान कर रहा था। शंपा साथ थीं लेकिन किसी ने एक बार भी ना पूछा कि यह कौन हैं? जल्दी पहुँचने की मेरी हर कोशिश बेकार साबित हुई। बिना होश में आए ही पिता जी ने इस दुनिया से विदा ले ली। मैं उन्हें होश में देख ना सका। दो शब्द आख़िर में बोल भी ना सका। 

क़रीब तीन बजे हॉस्पिटल स्टॉफ़ ने सूचना दी कि ‘ही इज़ एक्सपायर्ड’। यह शब्द सुनते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरी सारी शक्ति खींच ली। मैं अपने पैरों पर खड़ा भी ना रह सका। दीवार के सहारे सटे-सटे फ़र्श पर बैठ गया। एकदम सन्न, संज्ञा-शून्य सा हो गया। शंपा ने मुझे सँभाला। भतीजे और भइया ने घर फोन कर दिया था। पिता का पार्थिव शरीर लेकर पाँच बजे सुबह बड़े भइया के घर पहुँचे। शाम होने से पहले बैकुंठधाम में उनका अंतिम संस्कार किया गया। 

मेरे पहुँचते ही सबका व्यवहार ऐसे हो गया था कि करने वाला आ गया है। छोड़ दो सब, यही करेगा। मुझे सब कुछ करने में संतोष मिल रहा था। लेकिन बाक़ी सदस्यों का यह रवैया चुभ रहा था। अस्वाभाविक रूप से अनु का व्यवहार संतोषकारी था। बड़े भाई को संस्कार के कामों को करना मानों बड़ा कष्टकारी लग रहा था इसका अहसास होते ही मैंने सारा काम शुरू से आख़िर तक सब कुछ किया। 

यह सोच कर कि पिता सनातन सोच, परंपरावादी, रीति-रिवाज़ को गहराई से जीते थे। तो उनका संस्कार भी क्यों ना पूरी श्रद्धा से सनातन रीति-रिवाज़ों से किया जाए। मैं यही चाहता था। लेकिन दोनों भाइयों के सख़्त एतराज़ के आगे तीन दिन में वही सब करना पड़ा। करना क्या था? एक तरह से सब निपटाया गया। इस दौरान शंपा को मैंने अपने घर में रोका था। 

बहनें भी सब आईं थीं। बड़ी बहन ने चौथे दिन शंपा का परिचय पूछा था। मैंने कहा था वह एक एजूकेशनिस्ट हैं। मेरी फ़्रेंड हैं। इन्हीं के कारण मैं पापा के जीवित रहते यहाँ आ गया था। मगर बहनों का भी व्यवहार अच्छा नहीं रहा। बहनोई तो ख़ैर बहनोई। किसी ने मुझसे यह नहीं पूछा कि कहाँ हो? कैसे हो? क्या कर रहे हो? मेरा दिल घर के सब लोगों से इतना टूट गया कि तीसरे दिन सब काम करके चौथे दिन अपने घर आ गया। 

दसवें दिन दिल्ली वापस आने के समय भी भाइयों के पास नहीं गया। फोन कर बता दिया कि आज रात जा रहा हूँ। किसी ने यह भी नहीं कहा कि मिल के जाओ। बेरुख़ी से बोला गया। ठीक है। अपने घर में जब चौथे दिन मैं आया था तो शंपा ने किराएदारों की बड़ी तारीफ़ की। कि सबने उसके खाने-पीने का पूरा ख़्याल रखा। किराएदारों से भी मैंने वही बताया शंपा के लिए जो बहनों को बताया था। लेकिन जिस दिन वहाँ रुका उसके अगले दिन किराएदारों की नज़रों में यह कौतूहल देखा कि आपकी यह मित्र हैं या कुछ और जो आप उसके साथ एक ही कमरे में सोए। मन ही मन सोचा मूर्खों तुम्हें क्या बताऊँ कि वो मेरी मित्र हैं या क्या हैं? वो तो इन सबसे परे, इन सब से आगे एक ख़ास रिश्ता रखती हैं मुझसे। 

वह मेरी मित्र, पत्नी, परिवार, सब कुछ बन चुकी हैं। बल्कि इन सबसे पहले वह मेरी मेंटर हैं। उस दिन ही मैंने तय किया कि अब इस शहर में मेरे रहने का कोई कारण तो बचा नहीं है। एक मात्र कारण पिता जी अब रहे नहीं। भाई-बहनों ने एक तरह से दुत्कार दिया है। तो क्या रहना अब यहाँ? मगर तभी मन में आया कि जब तक यह मकान रहेगा तब तक आना-जाना रहेगा। अब सही यही है कि इसे बेच दूँ, और दिल्ली में ही छोटा-मोटा फ़्लैट ले लूँ। इस योजना को शंपा ने तुरंत जल्दबाज़ी में उठा क़दम बताया। मैंने कहा मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। मैंने एक प्रॉपर्टी डीलर को यह काम सौंपा और किराएदारों को मकान ख़ाली करने को कह कर दिल्ली लौट आया। 

आने के बाद मैं अजीब मनःस्थिति में फँस गया। कहीं जाने किसी से बोलने तक का मन ना करता। शंपा से भी नहीं। जहाँ बैठ जाता वहीं बैठा रह जाता। चाय-नाश्ता, खाना-पीना रखा रहता और मैं एकदम बुत बना बैठा रहता। शंपा ने बहुत कोशिश की मुझे इस हालत से निकालने की। हार कर मुझे एक मनोचिकित्सक के पास ले गईं। महीने भर ट्रीटमेंट के बाद मैं नॉर्मल हुआ। डॉक्टर ने कहा टाइम से आ गए। अन्यथा डीप डिप्रेशन का शिकार होकर मैं कोई ग़लत क़दम उठा सकता था। इसमें सुसाइड जैसे स्टेप की सम्भावना भी थी। 

शंपा ना होतीं, मेरी इतनी देखभाल ना करतीं, डॉक्टर के पास ना ले जातीं तो मैं निश्चित ही नहीं बच पाता। यहाँ तक कि मेरी नौकरी उसके संपर्कों के कारण ही बची। यह बातें तब पता चलीं जब मैंने कॉलेज ज्वाइन किया। यह सब जानने के बाद शंपा के लिए मेरे दिल में सम्मान और बढ़ गया। मेरे मन में आता कि उसके लिए मैं क्या कर डालूँ। ऐसा क्या कर डालूँ कि वह और मैं दो शख़्स ना होकर इतना मिल जाएँ कि एक हो जाएँ। दो व्यक्तित्व विलीन होकर एक व्यक्तित्व हो जाएँ। 

कई बार ऐसा होता कि उनका चेहरा देखते-देखते खो=सा जाता। तो वह मेरी आँखों के सामने चुटकी बजा कर कहतीं। ‘ऐ मिस्टर समीर कम बैक।’ और मैं . . . मैं हँसकर रह जाता। कभी-कभी उसे बाँहों में भर लेता। बड़ी देर तक नहीं छोड़ता तो वह बोलती, “अरे यार तुम तो कभी-कभी बिल्कुल बच्चों सी हरकत करने लगते हो।” आख़िर बड़ी माथा-पच्ची के बाद मैंने यह तय किया कि यह जिस योजना को सीने में दबाए, उसको क्रियान्वित होने का सपना लिए अंदर ही अंदर घुट रही हैं। उस सपने को इनसे जान-समझकर उसे पूरा करने में जी-जान से लग जाऊँ। 

अब मेरा शेष जीवन इनके सपने को पूरा करने में बीतेगा। मेरे जीवन का यही एक मात्र उद्देश्य होगा। फिर एक दिन मैंने अपने मन की बात उनके सामने रखकर उन्हें अपने मिशन के बारे में खुलकर बात करने, उसे कैसे पूरा करना है इसके लिए उनके पास क्या रोडमैप है उस बारे में बताने को विवश कर दिया। तो वह बोलीं. “समीर मैं यही जोश, दृढ़ता समर्पण चाहती थी। मुझे तुम में पहले इन चीज़ों में कमी दिखती थी। इसलिए बात नहीं करती थी।” इसके बाद शंपा ने विस्तार से अपने विचार अपने मिशन को समझाया यह बताते हुए कि यह सारी बातें उनके पति की हैं। यह अपने-उनके संयुक्त सपने को पूरा करने का प्रयास भर है। 

वह बोलीं, “समीर यह तो तुम जानते ही हो कि मैं एक महा दलित वर्ग के परिवार से आती हूँ। मेरे पति भी ऐसे ही थे। हमने हमारे परिवार ने इसके कारण बड़ी तकलीफ़ें, अपमान झेले। इतना कि आज भी वह सब भुलाए नहीं भूलता है। समीर हम दोनों जब मिले तो किशोरावस्था थी। हम अपने अपमान, अपनी दशा पर बहुत सोचते। और जब यहाँ आए तो बरसों-बरस पढ़ते, सोचते-विचारते हमने कुछ निष्कर्ष निकाले। फिर एक योजना बनाई कि हमें करना क्या है? हमने तय किया कि हमें सबसे पहले अपने अंदर से इस भाव को ही निकालना है कि हम दलित हैं। 

“हमें इस भाव में आना होगा कि हम भी इंसान हैं। हम किसी से कम नहीं हैं। क्योंकि हमारे भाव जैसे होते हैं हम वैसे ही बनते जाते हैं। हम अब देखते हैं कि ऐसे दलित जो बहुत आगे निकल चुके हैं। बहुत प्रोग्रेस कर ली वह अब भी दलित होने की हीन भावना से ग्रसित हैं। ग़ैर दलितों से जब वे मिलते हैं तो उनमें अजीब-सी हीनता, संकोच बना रहता है। सबसे पहले हमें इस चीज़ से ऊपर उठना होगा। हम दोनों ने इसे अपने व्यवहार में लाना शुरू किया। मुझे ख़ुशी है कि मैं इसमें पूर्णतः सफल रही। क्या तुम बताओगे कि अब तक मुझमें हीन भावना का एक भी अंश पाया है।”

मैंने कहा, “नहीं, बिल्कुल नहीं। यहाँ तक कि फ़ादर के क्रिमिशन के समय जब लखनऊ में थीं तब भी नहीं।” 
इस पर वह बोलीं, “मैं हर दलित को ऐसे ही देखना चाहती हूँ। वह दलित है यह भावना पूरी तरह निकाल फेंके मैं यही चाहती हूँ। समीर मैं सिर्फ़ भारत में जो दलित हैं उन तक की ही बात नहीं कर रही। मैं बंगलादेश, पाकिस्तान की भी बात कर रही हूँ।” 

उनकी इस बात पर मैंने कहा, “अब इन देशों में हिंदू हैं ही कहाँ जो वहाँ सवर्ण-पिछड़े-दलित का प्रश्न ही उठे।” 

मेरा यह कहना था कि शंपा मुस्कुरा दीं मैं समझ गया कि कुछ ऐसा है जो मुझसे छूट गया है। मुस्कुराने के कुछ क्षण बाद वह बोलीं, “समीर ऐसा है कि दलितों ने अपनी दयनीय स्थिति से मुक्ति का मार्ग निकाला धर्म परिवर्तन। लेकिन मैं मानती हूँ कि यह समस्या का समाधान है ही नहीं। 

“किसी भी समस्या का समाधान पलायनवादी सोच से नहीं निकलता। धर्म परिवर्तन पलायनवादी सोच का चरम है। धर्म को लेकर तो मैं विशेष रूप से कहूँगी कि अपना घर अपना ही होता है। मान लो किसी वजह से घर के किसी सदस्य ने घर से हमें बेदख़ल कर दिया है तो इसका मतलब यह नहीं कि हम दूसरे के घर जा बसें। दूसरा हमारे झगड़े का फ़ायदा उठाने के लिए शरण तो देगा। लेकिन शोषण भी करेगा। हमें मालिक नहीं बना देगा। जबकि सही तरीक़ा यह है कि हमें अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए। 

“अपने घर में ही अपना हिस्सा लेकर रहना चाहिए। संघर्ष करने पर अधिकार मिलता ही है। महाराष्ट्र में ही एक युवती तृप्ति देसाई का संघर्ष देखो। उसने हिंदू-मुस्लिम दो पूजा स्थानों पर महिलाओं के प्रवेश का अधिकार सभी महिलाओं को दिलाकर ही छोड़ा। साउथ की विख्यात लेखिका कमला दास भी यही कह चुकी हैं। जो किसी कमीने इंसान के धोखे में आकर जीवन के आख़िर दिनों में धर्म परिवर्तन कर अंतिम साँस तक पछताती रहीं। यह वैसे ही जैसे हम कहीं चले जा रहे हैं। और अचानक बारिश होने लगे और उससे बचने के लिए हम किसी पेड़ की छाँव किसी मकान के शेड के नीचे खड़े होकर अपने को भीगने से बचाने का प्रयास करें।”

अपनी बात पर मुझे सशंकित देख उन्होंने बात और स्पष्ट कर दी। कहा, “देखो ज़्यादातर दलित या तो ईसाई बने या मुसलमान। ईसाई बनने पर भी कहीं ना कहीं भेदभाव का शिकार बनते ही रहते हैं। एक छोटा-सा उदाहरण ले लो। इनके यहाँ जो नन बनती हैं चाहे वह कॉनवेंट में हों या कहीं भी, वो भी नहीं बचतीं। ऐसे कनवर्जन से निम्नवर्ग से आई जो महिलाएँ नन बनती हैं उन्हें बाक़ायदा नाम दे दिया गया है ‘चेडुथी’, यह शब्द प्रतीक है उनके निम्न होने का। 

“इतना ही नहीं चाहे इनके पूजा घर हों या कॅान्वेंट ज़्य़ादातर साफ़-सफ़ाई छोटे-मोटे काम इन कंवर्टेड दलितों से ही कराए जाते हैं। तो दलित होने का अभिशाप इनके साथ यहाँ भी चिपका रहता है। ये जब मुस्लिम बन जाते हैं तो वहाँ भी यह सब है। बस प्रेयर, या इबादत एक साथ करने का मौक़ा मिल जाता है। लेकिन क्या सिर्फ़ इसी से उनकी समस्या हल हो जाएगी? इसी से उनका मान-सम्मान स्वाभिमान उन्हें मिल जाएगा? साथ प्रेयर का अधिकार तो हम संघर्ष कर के अपने मूलधर्म में भी ले लेंगे। पाकिस्तान के ‘चूरा’ लोगों की तो हालत जानते ही होगे।”

“चूरा?”

“हाँ चूरा,” मेरे लिए यह सर्वथा नया शब्द था। तो चौंकना स्वाभाविक था। मेरे चौंकने पर वह चौंकी, “आश्चर्य कि तुम्हें ‘चूरा’ लोगों के बारे में नहीं मालूम। लेकिन हमें इस लिए मालूम है क्योंकि हम दलित हैं। लेकिन मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं दलित वर्ग से थी यह भी कहना उचित नहीं समझती। सिर्फ़ बात को समझाने के लिए यह प्रयोग किया कि एक घायल ही दूसरे घायल की पीड़ा जान समझ सकता है। 

“सारे ‘चूरा’ लोग दलित हैं। ये पाकिस्तान में ज़्यादातर लाहौर पंजाब और उनके आस-पास रहते हैं। ये वो हिंदू से ईसाई बने दलित हैं जिन्होंने यह सोचकर धर्म बदलना शुरू किया था पाकिस्तान बनने से पहले ही कि वे अपनी समस्याओं से मुक्ति पा लेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें ‘चूरा’ कहा गया। इस शब्द में ही कितना अपमान, घृणा नज़र आ रही है। यह शब्द तो दलित शब्द का ही पर्याय हो सकता है। यह शब्द मुझे ज़हर बुझा शब्द लगता है। 

“इन ‘चूरा’ लोगों की हालत यह है कि आज भी ये वहाँ मैला ढोने का ही काम करते हैं। इनकी आबादी मैं समझती हूँ कि सत्तर-अस्सी लाख है। ये वहाँ नर्क का जीवन जी रहे हैं। डर के मारे ये अपना नाम भी अपनी पसंद का नहीं रख पाते हैं। ईसाई हैं लेकिन नाम मुस्लिमों के या उन्हीं सा मिलता-जुलता रखते हैं। अपनी जी-तोड़ मेहनत से इन्होंने शत-प्रतिशत साक्षरता प्राप्त कर ली है। इसके बावजूद कि वहाँ की सत्ता इन्हें अनपढ़ बनाए रखना चाहती थी जिससे सफ़ाई करने वाला समूह बना रहे। उनकी यह साज़िश बार-बार खुल कर सामने आती रहती है। 

“जानते हो इनकी सुंदर लड़कियों को जबरन उठा लिया जाता है। उनकी इज़्ज़त तार-तार कर फेंक देते हैं। मार देते हैं। या ऐसी लड़की से ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कर शादी कर लेते हैं। फिर तीन-चार बच्चे पैदा कर जहाँ मन भर गया तीन सेकेण्ड में तलाक़ देकर उसे दर-दर भीख माँगने, सेक्स वर्कर बनने के लिए ठोकर मार कर भगा देते हैं। वह फिर तिल-तिल कर मर जाती है। यह सब धर्म परिवर्तन के बाद भी हो रहा है। वह अपना त्योहार, शादी-ब्याह भी खुल कर नहीं मना पाते। अभी ईस्टर में तुमने देखा ही त्योहार मनाते क़रीब अस्सी लोगों को बम विस्फोट कर मार दिया। विस्फोट इतना भीषण था कि लोगों के चीथड़े उड़ गए। सैकड़ों घायल हो गए। 

“मगर पूरी दुनिया मातम पुरसी भी ठीक से ना कर सकी। पोप तक कड़ा विरोध ना दर्ज कर सके। तो क्या है यह सब? इसी लिए मेरा मानना है कि धर्म परिवर्तन कोई समाधान नहीं है। मैं बौद्ध, जैन, सिख की बात नहीं करती। इन्हें मैं हिंदू धर्म से अलग नहीं पाती। यह मेरी नज़र में हिंदू धर्म के परिष्कृत रूप हैं। जहाँ मैं पाती हूँ कि सच में भेद-भाव नहीं है। 

“मेरा मानना है कि हमें यहूदियों से सीखना चाहिए। हमें उन्हीं की तरह एक होकर, सुदृढ़ बन कर, सशक्त बनकर अपनी ग़ुलामी के जीवन को उतार फेंकना होगा। मैं आरक्षण व्यवस्था में भी संशोधन चाहती हूँ। क्योंकि इतने दशकों तक आरक्षण का परिणाम यह हुआ है कि दलित समुदाय के जो लोग आरक्षण पाकर आगे निकल गए हैं। उसका लाभ उनके परिवार को ही मिल रहा है। इस कारण नब्बे प्रतिशत दलित अब भी दयनीय स्थिति में बने हुए हैं। 

“उनकी यथा स्थिति तभी बदलेगी। तभी सारे दलित अपनी ग़ुलामी तोड़कर सक्षम, सुदृढ़ बन पाएँगे जब यह व्यवस्था सख़्ती से लागू हो कि जो परिवार दो बार आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं। उसे आगे नहीं दिया जाएगा जिससे जिस दलित को अभी तक अवसर नहीं मिल पाया है उसे अवसर मिल सके। उसके लिए जगह ख़ाली हो सके। 

“अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो दस-बीस नहीं सदियों-आरक्षण देते रहेंगे लेकिन सभी दलित कभी इसके दायरे में नहीं आएँगे। इनकी हालत ऐसी ही बनी रहेगी। दलित यहाँ की स्वार्थी, गंदी राजनीति का ऐसे ही एक टूल बने रहेंगे। आपस में भी लड़ते रहेंगे। इस बार एक-बार पुनः राष्ट्रपति चुनाव में यह राजनीति सामने आई। डॉ. अंबेडकर को इन सारी चीज़ों का अनुमान था। इसीलिए वह दस वर्ष के भीतर ही सारे दलितों को आरक्षण के लाभ के दायरे में ला देना चाहते थे। मगर ओछी राजनीति ने ऐसा होने नहीं दिया। 

“समीर मेरा दृढ़ मत है कि जब तक दलित अपनी भावना, आरक्षण की व्यवस्था को सही नहीं करेंगे तब तक उन्हें ग़ुलामी से मुक्ति मिलने वाली नहीं। आरक्षण में संशोधन के लिए स्वयं दलितों को ही आगे आना पड़ेगा। जिस दिन वो आगे आ जाएँगे उस दिन ये सारी राजनीतिक पार्टियाँ एक सुर में गाने लगेंगी कि हाँ यह होना चाहिए। बदलाव होते देर नहीं लगेगी। बस ज़रूरत है स्वयं दलितों के खड़े होने की ही। इसीलिए मैं कहती हूँ कि धर्म परिवर्तन से दलितों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है। धर्म परिवर्तन कोई समाधान नहीं है। जिस धर्म में हैं उसी में बराबरी का हक़ लें। धर्म परिवर्तन समाधान होता तो जो परिवर्तित हुए उनकी क्या स्थिति है? 
अरे जब यहाँ से पाकिस्तान गए मुस्लिमों को मोहाजिर कह कर नेस्तनाबूद किया जा रहा है, उन्हें मुस्लिम ही नहीं माना जा रहा, मोहाजिर नाम की एक नई क़ौम ही बन गई तो दलितों की क्या बिसात।” शंपा ने ऐसी-ऐसी बातें, तर्क योजना सामने रखीं कि मैं आश्चर्य में पड़ गया कि इस लेडी में इतना तूफ़ान भरा है। यह तूफ़ान यदि पूरी रफ़्तार से बाहर आ गया तो निश्चित तौर पर क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। इसके भीतर भरे तूफ़ान को अनुकूल स्थिति मिल जाने भर की देरी है। 

यह जिस तरह मुझ पर यक़ीन कर रही है उससे लगता है यह मुझसे बड़ी अपेक्षा कर रही है। उसकी बातों ने मेरे हृदय में भी एक चिंगारी भड़का दी कि देश के हालात के लिए मुझे भी अपना बेस्ट एफ़र्ट करना चाहिए। मैंने फट से उसके सामने प्रस्ताव रखा कि तुम्हारे आंदोलन को खड़ा करने के लिए जितना सम्भव होगा मैं वह सब करने के लिए तुरंत अपना प्रयास शुरू करना चाहता हूँ। तुम बताओ कैसे आगे बढ़ना है। मेरी इस बात पर वह मेरे चेहरे को बड़े ग़ौर से देखती रहीं। जैसे कि वहाँ कुछ लिखा है और वह उसे ध्यान से पढ़ रही हैं, फिर बोलीं, “सिर्फ़ मैं नहीं हम दोनों।” 

इसके बाद हम दोनों ने एक संगठन बनाने, सोशल मीडिया का भर पूर उपयोग करने का निर्णय लिया। इस काम के लिए जो बहुत-सा लिटरेचर शंपा ने तैयार किया था, उनको रात दिन एक करके अंतिम रूप दिया। सोशल मीडिया पर तो शुरूआत जल्दी कर दी गई। जिन बातों को पोस्ट किया जाता उनका रिस्पॉंन्स भी ठीक मिलने लगा तो उत्साह और बढ़ गया। लेकिन संगठन खड़ा करना मुझे सागर में सूई ढूँढ़ने जैसा लगने लगा। मगर जोश में कहीं कमी नहीं थी। 

काम जब आगे बढ़ना शुरू हुआ तो आर्थिक समस्या सामने आने लगी। लिटरेचर छपवाने के लिए मोटी रक़म चाहिए थी। फिर सदस्य बनाने, चंदा एकत्रित करने पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया। शंपा दिन रात एक करने लगीं। इस बीच मेरे दोस्तों में यह बात फैली तो सबने हँसी उड़ानी शुरू कर दी। लीडर ऑफ़ रिवोल्यूशन कह कर मज़ाक़ बनाना शुरू कर दिया। मगर मैं शंपा के साथ अडिग था। एकदम चिकना घड़ा बन गया। देखते-देखते कई महीने बीत गए। संगठन का कार्यालय बनाने की समस्या आ गई। पहले सोचा जहाँ रहते हैं वहीं से काम चलाएँ। लेकिन लैंडलॉर्ड को सख़्त एतराज़ था। यह बहुत बड़ी समस्या थी। 

बड़ा कहने, सुनने पर प्रोफ़ेसर साहब तैयार हुए। उन्होंने अपने मकान में एक छोटा सा कमरा इस शर्त पर दिया कि जल्दी से जल्दी हम कहीं और व्यवस्था कर लेंगे। इसी बीच लखनऊ वाला मेरा मकान बिक गया। उसके पैसे से मैं दिल्ली में मकान ही लेना चाहता था। लेकिन जितना स्पेस मैं चाहता था, जिस एरिया में चाहता था उतने पैसे में उसका चौथाई भी नहीं मिल पा रहा था। आख़िर शंपा ने भी अपनी जमा-पूंजी मिला दी। लेकिन बात नहीं बनी। तो थक हार कर एंटीरियर में लिया। वहाँ से मेरा कॉलेज, शंपा के काम, संगठन के काम में बहुत बाधा आने लगी तो एक सेकेंड हैंड कार भी ले ली। कुछ महीने ही बीते होंगे कि अचानक ही एक दिन दो लोगों ने घर आकर शंपा और मुझसे मुलाक़ात की। 

वह पूरी तैयारी के साथ आए थे। संगठन के बारे में जितनी बातें हम अलग-अलग माध्यम से प्रकाशित प्रसारित कर चुके थे वह उनके आधार पर सारी बातें समझ कर आए थे। बड़ी तारीफ़ आदि करके उन लोगों ने आर्थिक मदद की पेशकश कर दी। हमारे लिए यह एक आश्चर्यजनक ख़ुशी थी। लेकिन हम दोनों उन लोगों को ठीक से जान लेना चाहते थे। आख़िर वह चंदे में हर महीने क्यों इतनी रक़म देना चाहते थे कि हम अपना संगठन तेज़ी से खड़ा कर एक बड़ा आंदोलन शुरू कर दें। हमारे इन प्रश्नों का उन लोगों के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं था। तो हमने सोच कर बताने को कहा। 

दो दिन बाद वह फिर आने वाले थे तो हमने चिंतन-मनन कर कुछ प्रश्न, कुछ शर्तें तैयार कीं। उनसे पूछने के लिए। वह जब आए तो हमने अपने प्रश्न किए। जिसके उन्होंने संतोषजनक उत्तर दिए। हमने कहा कि भविष्य में या कभी भी कोई शर्त नहीं रखी जाएगी कि यह काम ऐसे किया जाएगा या वैसे। इसे शामिल कर लें या इसे हटा दें। यह बातें भी जब वह थोड़े ना-नुकुर के बाद मान गए तो हमने चंदा लेना स्वीकार कर लिया। पहले महीने चंदा इतना मिला कि काम को आगे बढ़ाने में आर्थिक समस्या ना आई। लिटरेचर को छपने के लिए दे दिया गया। हम दोनों ने सोचा कि इन लोगों से कहीं बीच में एक कार्यालय खुलवाने की व्यवस्था करने की बात कही जाएगी। 

सदस्यों की संख्या धीरे-धीरे ही सही लेकिन बढ़ रही थी। प्रोफ़ेसर साहब उनके साथियों का भी सहयोग मिलने लगा था। इस बीच घर पर ही जुड़ चुके कुछ लोगों की शंपा ने चार मीटिंग्स लीं। चारों में वह जब बोली तो लगा वाक़ई दशकों का अनुभवी कोई प्रखर वक्ता, नेता है। उसकी बातें सुनकर रगों में लगता जैसे लहू खौल उठेगा। मीटिंग में शामिल लोग इतने इंप्रेस हुए कि उसके कट्टर समर्थक बन गए। काम बढ़ता गया। अब हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या आ रही थी समय की। 

मैं कॉलेज से इतना समय नहीं निकाल पा रहा था कि संगठन के कामों के लिए पर्याप्त समय दे सकूँ। इससे रोज़ कुछ ना कुछ छूट जाता। शंपा बिल्कुल भूत सी जुटी हुई थी। 

इसी बीच एकदिन मेरे स्कूल्स एंड कॉलेजेस ग्रुप ने एक सम्मेलन आयोजित किया। जिसमें भारत में ग़रीबों एवं महिलाओं की स्थिति और शिक्षा विषय पर बोलना था। प्रोफ़ेसर साहब की इच्छा और प्रयास से शंपा को उसमें बोलने के लिए बतौर विशिष्ट अतिथि आमंत्रित कर लिया गया। शंपा के पास वैसे तो बहुत कुछ था इस विषय पर बोलने के लिए लेकिन उसने फिर भी और तैयारी की। 

वह अपने संगठन की संयोजक की हैसियत से वहाँ पहुँची थी। वक्ताओं में कई शिक्षाविद्, कई सफल एनजियोज़ की सफल संचालिकाएँ, सफल महिला उद्यमी शामिल थीं। ग्रुप का कार्यक्रम होने के कारण ग्रुप के सभी संस्थानों के सारे स्टॉफ़, सीनियर छात्र शामिल हुए। पूरा ऑडिटोरियम भरा था। मैं थोड़ा सशंकित था कि शंपा कहीं इस भीड़ के सामने बोलने में घबड़ा ना जाए, बहक ना जाए। लेकिन वह एकदम निश्चिंत थी। 

बड़े-से स्टेज पर वह जब अन्य आमंत्रित अतिथियों के पास जाने लगी तो मुझ से गले लग कर बोली, “समीर मैंने तो हार कर अपने को अँधेरों के हवाले कर दिया था। मगर तुमने वहाँ से मुझे खींच कर निकाल लिया। उजाले से भरी एक नई दुनिया में ला खड़ा कर दिया। वाक़ई मुझे रेगिस्तान से निकाल कर ख़ूबसूरत उपवन में ले आए। जहाँ मेरे लिए हर तरफ़ संभावनाएँ ही संभावनाएँ दिख रही हैं। इतनी कि मैं अपने लक्ष्य को आसानी से पाते हुए स्वयं को देख पा रही हूँ।” फिर अचानक मेरे दोनों हाथों को अपने हाथों में लेती हुई बोलीं। “समीर मेरे विश्वास को कभी तोड़ना मत। इस मिशन को जो इतना आगे बढ़ाया है उसे कभी बीच में छोड़ना मत।” 

यह बोलते-बोलते शंपा एकदम भावुक हो उठी थीं। आँखें भर आई थीं। मैंने सोचा कहीं इस भावुकता में वह बहक ना जाएँ तो उसे सँभालते हुए कहा, “तुम कैसी बातें कर रही हो, ऐसा सोचती भी कैसे हो? मैं तो सोच भी नहीं पाता। तभी प्रोफ़ेसर साहब आए तो उसने उनके पैर छूकर आशीर्वाद लिया। फिर मैंने उसे उस जगह ले जाकर बैठा दिया जहाँ स्वागत टीम के सदस्य स्टेज तक ले जाने के लिए उपस्थित थे। 

मैं वापस ऑडिटोरियम के एग्ज़िट गेट पर आ गया। व्यवस्था में मेरी ड्यूटी लगी थी। कुछ देर बाद कार्यक्रम शुरू हुआ। वक्ताओं ने अपने विचार रखने शुरू किए। ज़्यादातर बातें वही रटी-रटाई, आदर्शवादी, तथ्य और तर्क से परे थीं। इसीलिए ऐसे सम्मेलनों से मैं हमेशा दूर भागता था। चौथे नंबर पर शंपा ने बोलना शुरू किया। तो मैं ध्यान से सुनने लगा। ना जाने क्यों मेरी धड़कनें बढ़ गयीं। शुरूआती दो मिनट में मुझे लगा कि वह भी अपनी पूर्ववर्तियों की तरह ही बोल कर बस निपटाएगी ही। लेकिन तभी उसने गियर बदला और देखते-देखते छा गई। 

क़रीब पचीस मिनट के भाषण में मैंने नोट किया कि चार बार ताली बजी। जो बातें उसने कहीं उसका असर मैं हर तरफ़ देख रहा था। मगर साथ ही बाद में बोलने वाले कई वक्ताओं, कुछ जो परंपरावादी, यथास्थितिवादी थे उन लोगों ने शंपा के विचारों से अप्रत्यक्ष रूप से असहमति व्यक्त की। विरोध भी संकेतों में कर दिया। लेकिन शंपा ने अपनी किसी बात को वापस नहीं लिया। वह झुकी नहीं। सम्मेलन लंबा चला। क़रीब तीन घंटे। 
श्रोता क्योंकि कॉलेज के ही थे तो सब आख़िर तक रुके रहे। सुनते ना तो आख़िर जाते कहाँ। सम्मेलन के अतिथियों ने चाय नाश्ता किया। शंपा उन लोगों के बीच चर्चा के केंद्र में थी। इस बीच शंपा ने कई बार फोन कर मुझे बुलाया। वह उन अतिथियों से मुझे मिलवाना चाहती है। लेकिन मैं अपनी ड्यूटी और अपने एक्स्ट्रा स्ट्रिक्ट इंचार्ज के कारण जा नहीं सका। उसे मैसेज कर दिया कि नहीं आ पाऊँगा। वह मुझसे पहले घर पहुँच गई थी। कार्यक्रम के ऑर्गेनाइज़र ने सभी अतिथियों को उनके आवास से लाने पहुँचाने की व्यवस्था की थी। 

लोग शंपा को वहाँ मेरे इतना क़रीब देख कर कुछ उत्सुकतापूर्ण नज़रों से देखते रहे। हमारे उसके बीच रिश्ते को केवल प्रोफ़ेसर जानते थे। अच्छा ही हुआ था कि मैं उसके साथ घर नहीं गया था। मीडिया से रिलेटेड ज़िम्मेदारी भी काफ़ी कुछ मेरे ही पास थी। उसे पूरा कर घर पहुँचते-पहुँचते काफ़ी रात हो गई थी। शंपा को मैंने वहाँ अपना इंतज़ार करते पाया। स्टडी टेबल पर उसने तमाम काग़ज़ फैला रखे थे। बेड पर भी। मतलब वह अपने काम में अब भी व्यस्त थी। 

उसका एक मोबाइल बजे जा रहा था। लेकिन वह मुझे देखते ही किसी छोटी बच्ची-सी आकर मेरे गले लिपट गई। समीर, समीर कहती हुई। मैंने उसे ठीक उसी तरह गोद में उठा लिया जैसे कोई पिता ऐसे में अपने बच्चे को उठा लेता है। मैं उसको ऐसे ही लिए-लिए अंदर कमरे में आया। और उसके होंठों को चूम कर एक बार प्यार से बाँहों को और कस कर उतार दिया नीचे। 

उसने बेड पर ही बैठते हुए कहा, “समीर मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरी बातों को इतनी इंपॉर्टेंस मिलेगी। इस कार्यक्रम से मुझे एक तरह से अपने मिशन के लिए बेस्ट डोज़ मिल गई है। इसका क्रेडिट पूरा-पूरा तुम्हें जाता है।” उसकी ख़ुशी देखकर मैं भी बहुत ख़ुश हुआ। 

मैंने कहा, “शंपा तुम्हारा मिशन, तुम्हारी सफलता ही मेरा मिशन मेरी सफलता है। अभी तो हम लोग सिर्फ़ शुरू ही कर पाए हैं। अभी तो हमारा टारगेट बहुत दूर है। इतना दूर है कि अभी उसका अक्स भी नहीं दिख रहा है। इसलिए हमें अपने प्रयास और तेज़ करने पड़ेंगे। जैसे-जैसे सफलता मिलेगी हमारी ज़िम्मेदारी भी वैसे-वैसे बढ़ती जाएगी।” मेरी इस बात पर वह बोली, “मैं समझ रहीं हूँ समीर। इसके लिए मैं हर क्षण तैयार हूँ।”

ऐसी बातों के साथ-साथ हम दोनों ने खाना खाया। शंपा होटल से ही खाना ले आई थी। बहुत सादा-सा खाना। दाल-रोटी, सब्ज़ी, सलाद। शंपा किचन से दूर भागती थी। उसकी यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती थी। खाने के बाद एक या दो पैग व्हिस्की के लेना हम दोनों की आदत थी। नहीं तो हम दोनों थकान से अपने को बहुत पस्त पाते। व्हिस्की लेने के बाद शंपा ने कार्यक्रम को लेकर कुछ और बातें भी कीं। आख़िर में यह भी बताया कि एक एनजियो चलाने वाली, जिनके पति बड़े बिज़नेसमैन हैं, ने उसे अपने घर बुलाया है। 

वह मिशन से जुड़ना चाहती हैं। अपनी भरसक मदद देने को तैयार हैं। ख़ासतौर पर आर्थिक। उसकी इस बात पर मैंने कहा, “शंपा हम एक ही दिन में कुछ ज़्यादा ही सक्सेस तो नहीं पा गए। तो शंपा बोलीं, “सक्सेस जैसा तो मैं नहीं मानती, लेकिन तुम कहते हो तो मान लेती हूँ।” 

“मान रही हो तो चलो सेलिब्रेट करें।”

“सेलिब्रेट!” 

“हूँ सेलिब्रेट।’ 

“मैं समझ गई तुम क्या सेलिब्रेट करोगे। मन मेरा भी है सेलिब्रेशन का, आओ करते हैं।”

शंपा की यही साफ़गोई मुझे लूट लेती थी। मैं उसकी इसी अदा के कारण उसे ऐसे अवसर पर प्यार से माई डियर एम एल वी (मॉडर्न लेडी वात्स्यायन) कह कर जकड़ लेता था। इस पल भी मैंने यही किया। जी भर हम दोनों ने बड़ी देर तक सेलिब्रेट किया। 

अगले दिन प्रिंट मीडिया में कार्यक्रम को अच्छी ख़ासी कवरेज मिली थी। शंपा की बातों को ख़ासतौर पर जगह दी गई थी। यह देख कर शंपा का उत्साह दोगुना हो गया। मैंने कहा, “शंपा वह दिन दूर नहीं जब तुम फ्रंट पेज पर छपा करोगी। रोज़।”

वह बोली, “हाँ समीर। मेरा उद्देश्य अपने मिशन को सफल होते देखना है। जैसे-जैसे हम सफल होंगे। यह मीडिया वैसे-वैसे हमारे क़रीब आएगा। काश ये मीडिया हमें, हमारी बातों की अहमियत समझता। हमें अपना पॉज़िटिव सपोर्ट देता तो हमारा काम आसान हो जाता। हमारी बातों को सनसनी बनाकर हमें यूज़ ना करे। इसने जिस तरह से हमारी बातों को छापा है वह वास्तव में सनसनी बनाने का ही प्रयास दिख रहा है।”

शंपा के इस नज़रिए ने मेरा उत्साह ठंडा कर दिया। हफ़्ते भर बाद शंपा मुझे उस एनजियो संचालिका के पास लेकर पहुँची जिसने सपोर्ट के लिए ऑफ़र किया था। उसका शानदार बँगला, वहाँ खड़ी लग्ज़री गाड़ियों को देखकर मैं समझ गया कि एक बड़े बिज़नेसमैन की बीवी का यह सब टाइम पास, सेलिब्रेटी बनने का ज़रिया भर है। यह एनजियो भी बस अपने फ़ायदे के लिए चला रही है। 

हमें विजिटर्स स्पेस में बैठा दिया गया। फिर काफ़ी प्रतीक्षा के बाद यह बताया गया कि मैडम थोड़़ी देर में आने वाली हैं। थोड़़ा वेट करना पड़ेगा। मुझे बड़ी उलझन हुई कि बुलाकर ग़ायब हैं। यह क्या तरीक़ा हुआ। पंद्रह मिनट बाद वहाँ एक यंग लेडी आई। हमें अपने साथ लेकर चल दी। उसने एक बड़े से बहुत ही हाई-फ़ाई सजे हुए ड्रॉइंगरूम को क्रॉस कर हमें एक कमरे में बैठा दिया। कमरा स्टडी रूम-सा या यह कहें कि आराम कक्ष-सा लग रहा था। किताबें जिस तरह की और जिस ढंग से रखी थीं उसे देख कर साफ़ था कि मक़सद, दिखावा था। सजावट भर है। फ़र्नीचर बहुत ही पुराने स्टाइल का क्लासिकल लुक लिए हुए था। 

वहाँ बैठकर गप्प सटाका करने के लिए उसी अंदाज़ में कुर्सियाँ पड़ी थीं। कर्व टीवी लगा था। हम दोनों को वहाँ बैठा कर कोल्ड ड्रिंक और भुने हुए काजू रख कर महिला चली गई। पूरे घर में सन्नाटा था। एक गार्ड और हमें अंदर बैठाने वाली एक लेडी के अलावा वहाँ कोई नहीं दिख रहा था। हमें यह सब बड़ा अटपटा लग रहा था। इस तरह इंतज़ार करना बर्दाश्त से बाहर हो रहा था। मैं वहाँ से तुरंत चल देना चाहता था। लेकिन शंपा का रुख़ कुछ पता ही नहीं चल रहा था। वह लेडी टीवी भी चला कर नहीं गई थी कि मन उसी को देखने में लगाता। 

आख़िर मैंने शंपा से बोल दिया, “टू मच यार, अब मुझे नहीं लगता कि इस तरह और वेट करना चाहिए।”

शंपा बोली, “ठीक है दो-चार मिनट और देख लेते हैं, फिर चलते हैं। ऐसे चल देना भी तो अच्छा नहीं।”

हम दोनों ने ड्रिंक और काजू को हाथ भी नहीं लगाया। आख़िर पाँच मिनट और बीतते-बीतते मैं उठने को हुआ तभी कमरे के दूसरी तरफ़ का दरवाज़ा खुला और बेहद डिज़ाइनर सलवार सूट पहने एक महिला ने प्रवेश किया। चेहरे पर अमीरी का टैग और हल्की मुस्कान लिए। ख़ूबसूरत कसे हुए जिस्म की उस महिला को उसका गोरा रंग और आकर्षक बना रहा था। शंपा उसे देखते ही नमस्ते करते हुए खड़ी हुई। यंत्रवत-सा मैं भी। मगर उसके चेहरे पर नज़र पड़ते ही मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरे मुँह से नमस्ते भी पूरा न निकल सका। 

मेरे जैसा ही झटका उस महिला को भी लगा। उसके चेहरे का रंग क्षण भर को उड़ा लेकिन बेहद पेशेवराना अंदाज़ में उसने उतनी ही तेज़ी से अपने को सँभाल लिया। हम दोनों को नमस्ते का जवाब देते हुए शंपा से मुख़ातिब हुई। हमें बैठने को कहा। मैं एसी के कारण बहुत ज़्यादा ठंडे उस कमरे में भी जूते के अंदर पैरों में पसीना महसूस कर रहा था। मैं देख रहा था कि अंदर-अंदर वह महिला भी कहीं विचलित थी। लाख कोशिशों के बावजूद वह कुछ अनिर्णय की स्थिति में भी लग रही थी। उसने और हमने, हम दोनों ने एक दूसरे को अच्छी तरह पहचान लिया था। अचानक शंपा ने धमाका कर दिया। 

उसने मुझे अपना पति बताते हुए यह भी बताया कि मैं असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हूँ। कॉलेज का नाम भी बता दिया। उसने पहली बार मुझे अपना पति बताया था। मेरे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई थी। और कोई वक़्त होता तो मैं प्यार से उसे बाँहों में भर लेता। मगर इस वक़्त मैं मन ही मन सिर के बाल नोंच रहा था कि क्या ज़रूरत थी इतना परिचय देने की। नाम तो नाम, कॉलेज भी बता दिया। सीधे घर तक का रास्ता बता दिया। 

उसके मुँह से मेरे लिए तारीफ़ ही तारीफ़ निकली चली जा रही थी। और वह महिला बहुत ही बेरुख़ेपन, यह कहें कि हमें हमारे छोटेपन का अहसास कराने पर तुली हुई थी। हमें अहसास करा रही थी कि हम माँगने आए हैं। वह शंपा, संगठन को लेकर बस फ़ॉर्मेलिटी वाली बातें ही कर रही थी। मैं उसके ठीक सामने बैठा था। वह कनखियों से बार-बार मुझे देख रही थी। बातों ही बातों में अचानक ही उसने शंपा से पूछ लिया आपकी शादी कब हुई? 

शंपा ने इस प्रश्न से एक झटका-सा महसूस किया। फिर उसने कहा, “यही कोई साल भर पहले।” इस पर वह अचानक ही बोली, “शादी बहुत लेट की क्या? अभी शादी को साल भर हुआ है और आप इन कामों में लग गईं। अभी शादी एंज्वाय करनी चाहिए। और मैं नहीं समझ पा रही कि शादी फिर बच्चे वग़ैरह भी सोचेंगी ही। कैसे इस काम को करेंगी। यह कोई एक दो दिन का काम तो है नहीं। आप ने कहीं किसी से इंस्पायर्ड होकर जोश में ही बस यूँ ही तो क़दम नहीं उठा लिया।” यह कहते हुए उसने एक जलती दृष्टि मुझ पर भी डाल दी। 

उसकी इस बात से मैंने शंपा के तन-बदन में लगी आग की तपिश महसूस की। उसके चेहरे की भाव-भंगिमा बदल गई थी। कुछ क्षण शांत रह कर उसने कहा, “ये हमारी दूसरी मुलाक़ात है। बहुत-सी बातें आप सम्मेलन में ही मेरी सुन चुकी हैं। उसके बाद यहाँ उसी प्वाइंट पर फिर बात करने का लॉजिक मैं समझ नहीं पा रही हूँ। मैं ऐसा सोचती हूँ कि हमें टू दी प्वाइंट बात करनी चाहिए। इस जैसे काम को करने के लिए मैं जितना आगे बढ़ चुकी हूँ आपको क्या लगता है कि किसी की नक़ल करने या बिना किसी विज़न के सिर्फ़ इंस्पायर्ड होने से किया जा सकता है।”

शंपा की तल्ख़ी से मैं समझ गया कि बस अब यहाँ से जल्दी चलने का समय आ गया है। इस ‘हाइहेडेड’ महिला ने जानबूझकर ही शंपा को इस तरह छेड़ा है कि यह मीटिंग तुरंत ख़त्म हो। वह अपने मक़सद में कामयाब रही। मेरा अनुमान सही निकला। शंपा अपनी बात पूरी कर तुरंत उठ खड़ी हुई। और नमस्कार करती हुई बोली, “मुझे लगता है और आगे बात करके हम एक दूसरे का समय ही बरबाद करेंगे।” यह कह कर वह बाहर की ओर चल दी। मुझे तो उसके साथ नत्थी होना ही था। तो मैं हो लिया। 

रास्ते में मैंने शंपा से कहा, “आख़िर तुमने इसमें ऐसा क्या देख लिया था जो इससे मिलने चली आईं।”

“उस समय मैंने इसे जो समझा था उसके कारण चली आई। इस उम्मीद में कि यह बहुत हेल्पफ़ुल होगी हमारे काम में। अब क्या बताऊँ। सम्मेलन में जब मिली थी तो अलग खींच-खींच कर बातें कर रही थी। लग रहा था कि बस अभी सारी हेल्प कर देगी। ऐसी हेल्प करेगी, इतना काम करेगी कि बस अभी आंदोलन चरम पर खड़ा हो जाएगा। 

“मिलने के लिए ना जाने कितनी बार कहा था। चलते-चलते पूरा प्रेशर डाला था कि ज़रूर मिलूँ। मगर अभी तो ऐसे गिरगिट की तरह बदल गई कि मैं शॉक्ड हूँ। इतनी बड़ी फ़्रॉड होगी मैं सोच भी नहीं पाई थी। इस हिप्पोक्रेसी ने ही तो समाज का और बंटाधार किया है।” मैंने शंपा को कुरेदने के लिए कहा लेकिन जो कुछ भी कर रही है अपने एनजीओ के थ्रू कर ही रही है न। 

“तुम भी क्या बात करते हो? सोशल वेलफ़ेयर आजकल ऐसी रईसज़ादियों के लिए एक फ़ैशन बन गया है। ये न्यूज़ में बने रहना चाहती हैं। सोशल वेलफ़ेयर के नाम पर गवर्नमेंट से भी वसूली करती रहतीं हैं। हमेशा फ़ैशन क्लबों, होटलों में एंज्वाय करने वाली ये औरतें समाज के बारे में जानती ही क्या हैं जो समाज की सेवा करेंगी। इन्हें अपने मेकअप, हेल्थ क्लबों से मुक्ति मिले तब तो इन्हें कुछ दिखाई देगा।” 

शंपा पूरी तरह से फ़ायर थी, तभी मैंने कहा, “तुम ठीक कह रही हो। देखा नहीं किस तरह मेकअप किया हुआ था कितना मेंनटेन किया हुआ अपनी बॉडी को।”

“ऐसी बॉडी का भी कोई मतलब है जो सिर्फ़ अपने लिए ही हो। समाज, देश, दुनिया के प्रति भी तो कुछ उत्तरदायित्व बनता है।”

“तो क्या तुम यह आंदोलन अपना दायित्व समझ कर शुरू कर रही हो।:

“तुम कह सकते हो ऐसा। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचती। मैं कुछ भी केवल दायित्व निभाने के लिए नहीं करती।”

ऐसी ही बहस करते, कई और काम निपटाते हुए हम दोनों देर रात घर पहुँचे। संयोग से जिस-जिस काम के लिए जहाँ-जहाँ गए वहीं नाकामी मिली। इससे शंपा बहुत खिन्न थी। मैं भी। लेकिन मेरी खिन्नता का कारण दूसरा था। सिर्फ़ और सिर्फ़ उस रईसज़ादी को लेकर था। यह वह महिला थी जिसने मेरी सर्विस तीन बार हॉयर की थी। और तब यह मुझे इस घर में लेकर नहीं बल्कि गुरुग्राम के पास किसी जगह ले जाती थी। हर बार यह मुझे एक ही घर में ले गई। लेकिन बार-बार नए-नए रास्तों से। 

वापसी के लिए ऐसी जगह छोड़ती जो उस घर के बजाय मेरे डेस्टिनेशन के और आगे जाते थे। टैक्सी के लिए मुझे अलग से किराया देती थी। यह मेरी ऐसी क्लाइंट थी जो जब तक मुझे साथ रखती तब तक कुछ ना कुछ एक्सपेरिमेंट अवश्य करती रहती। उसकी हरकतों को मैं बहुत विकृत मानता था। वह ऐसी थी जिसे कोई भी पुरुष सैटिसफ़ाइ नहीं कर सकता। 

मैं उसकी हरकतों से इतना परेशान हो जाता था। इतना थक जाता था कि सोचता इसके लिए तो यह जितना पेमेंट करती है, यह उसका दस गुना करे तभी ठीक है। अन्यथा नहीं। यह सोचने के बाद जब इसने चौथी बार कॉन्टेक्ट किया था तो मैंने कह दिया कि कहीं और बिज़ी हूँ फ़िलहाल टाइम नहीं है। इस पर यह बहुत सख़्त नाराज़ हुई थी। अब मुझे भीतर ही भीतर अपनी जान का ख़तरा नज़र आने लगा था। 

इधर शंपा ने मेरे लिए जैसा धमाका इस रईसज़ादी के घर पर किया था वैसा ही घर पहुँच कर किया। दिन भर का थका था। देर रात जब सोने के लिए बेड पर पहुँचे तो हम दोनों दिन भर की असफलताओं पर जो बातें खाने-पीने से लेकर अब तक चली आ रही थीं उन्हें विराम दिया। टीवी ऑफ़ किया। मैं लेट गया। शंपा बग़ल में बैठी थी। मोबाइल के मैसेज बॉक्स को चेक कर रही थी। मैंने सोचा सो जाएगी थोड़ी देर में, लेकिन उसने मोबाइल में व्यस्त रहते हुए ही पूछा। 

“समीर पता नहीं मैं सही कह रही हूँ कि नहीं लेकिन मुझे वहाँ ऐसा लगा जैसे कि तुम दोनों एक दूसरे को देख कर चौंक गए थे। जैसे कि जानते हो एक दूसरे को और अचानक ही बहुत एबनॉर्मल सी पोज़िशन में आमने-सामने आ गए। आख़िर ऐसा क्यों हुआ?” शंपा की इस बात ने मुझे एकदम हिला कर रख दिया। बड़ी मुश्किल से ख़ुद को सँभाले लेटा रहा। कुछ जवाब सूझ नहीं रहा था तो चुप था। 

तभी वह फिर बोली, “सो गए क्या? कुछ बोल नहीं रहे हो।”

मैंने सोचा इसे तुरंत कुछ जवाब ना दिया तो इसका शक और गहरा हो जाएगा। मैंने नींद में होने का ड्रामा करते हुए कहा, “ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था। पता नहीं तुम्हें ऐसा क्यों लगा?” बात को डायवॉर्ट करने की गरज से मैंने यह भी जोड़ दिया कि शॉक्ड तो मैं तुम्हारी बात से हुआ था। 

“मेरी बात से, मैंने ऐसा क्या कहा था?:

“क्यों? तुमने मुझे हसबैंड कह के इंट्रोड्यूस किया।”

“ओह . . . नहीं हो क्या?”

“हूँ क्यों नहीं, शॉक्ड इसलिए हुआ कि तुमने मुझे पहली बार हसबैंड कहा। वह भी वहाँ उसके सामने। उसके पहले तुमने कभी नहीं कहा।”

“ओफ्फो समीर तुम भी ना अभी तक पति कहा नहीं कहा इसी दायरे में पड़े हुए हो। अभी तुम यह भी पूछ सकते हो कि मैंने तुम्हें पति माना कब से? तो मैं क्या जवाब दूँगी। देखो हमारा तुम्हारा जो रिश्ता है, तुम्हें स्पष्ट हो जाए इसलिए मैं यह भी जोड़ रही हूँ कि पति-पत्नी का जिसे तुम आज समझ पाए हो कि सिंदूर डाला, फेरे लगाए, माला पहनाई और बन गए पति-पत्नी। 

“मैं यह मानती हूँ कि हमारा तुम्हारा आज जो रिश्ता है,। यह धीरे-धीरे विकसित हुआ है। और यहाँ तक पहुँचा। आगे कहाँ तक जाएगा यह मैं नहीं जानती। लेकिन मेरी इच्छा यही है कि जीवन भर चले। या रिश्ते में जब तक मधुरता है। ख़ुश्बू है, अपनत्व है। जीवन राग की मिठास है अब तक। समझे माई डियर समीर। जिस दिन यह चीज़ें ना रहें रिश्तों में, उस दिन हमें ख़ुशी-ख़ुशी अलग हो जाना चाहिए। रिश्ते का बोझ ढोने की कोई ज़रूरत ही नहीं। 

“यदि हम भी यही करते हैं तो हममें बाक़ी में फर्क़ क्या रह जाएगा। समीर हमें फर्क़ बनाए रखना है। क्योंकि हमें बहुत-बहुत काम करना है। जीवन राग के रस को तरोताज़ा बनाए रखना है।” और इसके बाद शंपा ने कई रोमांटिक बातें कीं, उससे कहीं ज़्यादा स्पीड में रोमांटिक हो जीवन राग का रस बिखेर दिया। ख़ुद उसमें सराबोर हुई मुझे भी किया। और दिन भर की थकान के चलते बेसुध हो सो गई। उसका एक हाथ मुझे अपने में समेटे मेरी पीठ के गिर्द तक था। मुझे नींद नहीं आ रही थी। शंपा और उस रईसज़ादी के कारण। 

मैंने धीरे से शंपा को अपने से अलग किया। उठ कर सिगरेट जलाई और चहल-क़दमी करने लगा। रईसज़ादी से जहाँ मुझे अपनी जान का डर नज़र आने लगा था, वहीं यह डर भी लग रहा था कि कहीं शंपा पर मेरा यह राज़ खुल ना जाए। जब यह जान जाएगी तो क्या करेगी? क्या यह एक पूर्व पुरुष वेश्या को स्वीकार कर पाएगी? क्या यह इतनी उदार है कि मेरी स्थिति को समझेगी और मेरे जीवन के इस हिस्से को नज़रंदाज़ कर देगी। 

पहली बार मुझे इस बात का भी डर सताने लगा कि प्रोफ़ेसर, कॉलेज और ऐसे ही अन्य लोगों के बीच बात पहुँच गई तो मैं कैसे फ़ेस करूँगा? ना जाने कितनी महिलाओं को तो सर्विस दे चुका हूँ। ना जाने कितनी बार दे चुका हूँ। इनमें से ना जाने कौन कहाँ टकरा जाए। या जिन मित्रों के साथ इस फ़ील्ड में पहुँचा इनमें से ही कोई कहीं बात खोल दे तो। इस बात से ज़्यादा मुझे शंपा की बातें डरा रही थीं। कि रिश्ते ढोएँगे नहीं। तो कहीं यह तो नहीं कि जिस दिन इसका मन भर जाएगा उस दिन दूध की मक्खी की तरह मुझे निकाल फेंकेगी। या अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए इसे मेरे जैसे एक व्यक्ति की तलाश थी और मुझमें अपने मनपसंद गुण नज़र आए तो कैच कर लिया। 

मन में उठे इन प्रश्नों ने मुझे बहुत बेचैन कर दिया। मैंने अजीब सी घबराहट महसूस की कि मैं तो इसे अपने इस जीवन क्या हर जीवन में पाने की ख़्वाहिश पाले हुए हूँ और एक यह है कि कितनी आसानी से जब जी ना माने तब छोड़ देने की बात कर रही है। मैं ख़ुद को एकदम ठगा हुआ सा महसूस करने लगा। मन एकदम भर आया कि घर से अलग होने के बाद यह पहली शख़्स है जिसे देखकर ना जाने कैसे ख़ुद ही एक भावनात्मक लगाव पैदा हो गया। लगाव भी ऐसा कि अलग होने की नाम पर ही काँप उठता हूँ। यह अभी जैसे बोलीं उसमें तो भावनात्मक लगाव जैसा कुछ है ही नहीं। सब कुछ अपने टार्गेट को पाने के लिए मैनेज करने जैसा है। 

मैं बेचैनी में सिगरेट पर सिगरेट फूँके जा रहा था। घर में इधर-उधर पागलों सा टहल रहा था। दिमाग़ की नसें फटती सी महसूस हुईं तो एक बड़ा पैग व्हिस्की का पी गया। कुछ मिनट बाद ही दूसरा भी पी गया। मैं घर के हर कोने से टहलते हुए शंपा के पास पहुँचता उसे बेड पर सोते हुए देखता। मुझे लगता कि वह मुस्कुराते हुए मुझे देख रही है। और साथ ही वही बातें रिपीट कर रही है। वह जितना रिपीट करती मैं उतना ही ज़्यादा व्याकुल हो जाता। 

जीवन में पहली बार मैं ऐसी हालत से गुज़र रहा था। शंपा का चेहरा अचानक ही मुझे चिढ़ाता हुआ लगने लगा। मुझे ग़ुस्सा आने लगा। मैंने मन में ही कहा मैंने तुम्हें छोड़ने के लिए नहीं पाया है। तुम्हारे मन में भी यही बात नहीं बिठा पाया यह मेरी ही ग़लती है। लेकिन शंपा तुम्हारी बातों से कभी लगा ही नहीं कि तुम्हारे मन में यह चल रहा होगा। तुम्हारे लिए तो भावना या रिश्ता कोई महत्त्व नहीं रखता। तुम भी बस स्वार्थ के लिए ही साथ हो। तुमने बहुत दिनों बाद फिर मँझली की याद दिला दी। जिसने पैसों, सम्पत्ति के लालच में रिश्ते, भावना, विश्वास का ख़ून करने में देरी नहीं की। इतनी अंधी हो गई कि अपने हाथों अपनी ही ख़ुशियों में आग लगा ली। उस आग में पूरा घर जला दिया। जिसके साथ भागी उसके साथ ना जाने किस हाल में किस जगह होगी। 

तुम्हें मैं एक विद्वान एक रचनात्मक सोच वाली विशिष्ट महिला मानता हूँ। रिश्तों में जीवन राग के ख़त्म होने पर अलग हो जाने की नहीं तुमसे उम्मीद यह थी कि तुम कहोगी कि हमारे बीच कभी जीवन राग ख़त्म ही नहीं होगा। यदि हुआ तो भी हम फिर नया जीवन राग पैदा कर लेंगे। लेकिन तुमने एक सामान्य व्यक्ति की भाँति तोड़ने की बात एकदम से इतनी आसानी से कह दी। आख़िर फ़र्क़ क्या रह गया तुममें और बाक़ियों में। जिस फ़र्क़ को समझ कर मैं तुम्हारे आकर्षण में बँध गया, वह एक झटके में समाप्त हो गया। 

ऐसी बातों को सोचते-सोचते अंततः शंपा के बेड के पैताने (पैर की तरफ़) खड़ा हो गया। शंपा अपने प्रिय रात्रि परिधान में सो रही थी। उसका यह प्रिय रात्रि परिधान एक्स्ट्रा लार्ज सफ़ेद टी शर्ट है। जो उसके लगभग घुटने तक पहुँचती है। बस इसके अलावा वह सोते समय कुछ नहीं पहनती। इसी अस्त-व्यस्त से परिधान में उसे देखते-देखते मुझमें ना जाने क्या प्रतिक्रिया हुई कि मैं क़रीब-क़रीब बुदबुदाता हुआ कि शंपा मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। मैं तुम्हें इतना प्यार करूँगा कि हमारे बीच जीवन राग जन्म-जन्मांतर तक चलता ही रहेगा। 

इसके साथ ही मैं शंपा के पास बेड पर पहुँचा। और बिजली की फ़ुर्ती से उसे प्यार करने लगा। इससे उसकी गहरी नींद एकदम टूट गई। वह सकपका कर उठने की कोशिश करने लगी। लेकिन मैंने मौक़ा नहीं दिया। वह ‘ओह समीर, समीर अरे यार ये क्या हुआ?’ उसकी ऐसी किसी बात का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा। जब मैं शांत हुआ तो वह झटके से उठ कर बैठी और मुझे तरेरती हुए कहा, “व्हाट हैपिंड समीर, व्हाट इज़ दिस। ये क्या तरीक़ा है। घंटे भर पहले ही कंप्लीट किया था। ऐसा भी क्या!” 

मुझसे कुछ जवाब ना सूझा। मैं नाइट लैंप की हल्की रोशनी में अवाक्‌ सा उसे देखता रहा तो वह बोली, “आख़िर क्या बात है जो ऐसी हरकत की।” अब तक उसे ड्रिंक का पता चल गया था। उसने तुरंत कहा, “आज भी मेरे साथ दो पैग ही ड्रिंक ली थी। साथ ही सोने के लिए लेट गए थे। फिर कब उठकर और पी ली। इतनी देर तक जाग कर क्या कर रहे थे?” एक के बाद एक उसके क्वेश्चन होते जा रहे थे। लेकिन मैं अजीब सी मनःस्थिति लिए बेवुक़ूफ़ों की तरह इधर-उधर देखता रहा। कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि शंपा की बातों का क्या जवाब दूँ। आख़िर मैं डाँट खाए डरे हुए बच्चे की तरह एक तरफ़ करवट लेकर लेट गया। मेरी जान में जान तब आई जब मेरे लेटते ही शंपा न जाने क्या सोचकर चुप हो गई। कुछ ही देर में मैंने उसे भी टॉयलेट से आकर बेड पर लेटते हुए महसूस किया। 

सुबह मैं जब सो कर उठा तो नौ बज गए थे। बेड पर बैठे-बैठे कमरे में इधर-उधर नज़र दौड़ाई मगर शंपा नहीं थी। इतनी देर में मेरी आँखों के सामने रात का दृश्य दौड़ गया। मुझे बड़ा पछतावा होने लगा। कि मैंने यह क्या जंगलीपन वाली हरकत की। मुझे शंपा से माफ़ी माँगनी चाहिए। वह ग़ुस्सा हो गई होगी। मैं उठकर ड्रॉइंगरूम की तरफ़ चल दिया। उसके लैपटॉप के की-बोर्ड की बड़ी हल्की सी आवाज़ें उधर से ही आ रही थीं। मैं वहाँ पहुँचा तो मेरे स्लीपर की आवाज़ सुनकर उसने सेकेंड भर को मुझे देखा फिर लैपटॉप पर कुछ टाइप करने लगी। वह अपनी किताबें लैपटॉप पर ही सीधे टाइप करती थी। इस तरह उसने अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर कर दिया था। वह बहुत ज़्यादा ग़ुस्से में थी। 

कुछ देर एक ही जगह खड़े रह कर मैं एक डरे हुए छात्र की तरह आगे बढ़ा कि बस अब टीचर की मार पड़ने ही वाली है। वह सोफ़े पर बैठी अपने पैरों पर लैपटॉप रखे हुए थी। मैं उसके पैरों से एक क़दम पहले रुक गया। कुछ क्षण चुप रहा कि देखूँ यह क्या बोलती है। वह ना बोली। लगी रही अपने काम में तो मैंने आत्म-ग्लानि भरे लहजे में कहा, “सॉरी, अब ऐसा भी क्या ग़ुस्सा। कभी-कभी कंट्रोल नहीं रहता। हो जाती है ग़लती।”

इस बार शंपा बोली, “कंट्रोल! क्या मतलब है तुम्हारा ‘कंट्रोल’ से। अरे घंटा भर भी नहीं हुआ था। इतने दिन से साथ रह रहे हैं। फिर कंट्रोल की बात कहाँ से आ गई?” 

उसने लैपटॉप सोफ़े पर किनारे रख दिया। फिर कहा, “ऐसा तो था नहीं कि मैं उसी समय कहीं भाग जाने वाली थी हमेशा के लिए। फिर कभी ना मिलते। तुमने बिलकुल गुंडों, मवालियों की तरह मेरा रेप किया है समीर, रेप। कितनी क्रुएलिटी से तुम विहेव कर रहे थे। मैं एकदम घबरा गई थी। मुझे लगा कि तुम मेरा मर्डर करने वाले हो। तुम्हारी इस हरकत से मैं बहुत दुखी हूँ। आश्चर्य में हूँ। आई एम रियली हर्ट टू मच। आई एम डीपली शॉक्ड। उस समय तुम एक हार्डकोर रेपिस्ट लग रहे थे। दिन में ही मैंने दुनिया के सामने तुम्हें हसबैंड कहा और तुमने कुछ ही घंटों के बाद मेरा रेप कर दिया। आख़िर क्यों किया ऐसा? मैं रीज़न जानना चाहती हूँ। उस समय लग रहा था कि जैसे तुम मुझे किसी बात के लिए ब्रूटली पनिश कर रहे थे। मुझे सच बताओ समीर रीज़न क्या था? मैं हर हाल में सच जानना चाहती हूँ। बताओ मुझे क्या बात है?” 

मुझे लगा कि स्थिति बहुत गंभीर होने जा रही है। किसी तरह इसे सँभाल ना लिया तो कुछ अनहोनी जैसी बात हो सकती है। मैंने सोचा इसके ‘क्यों’ का कोई ना कोई जवाब दिए बिना काम चलने वाला नहीं है। मैं उसकी बग़ल में बैठ गया। फिर उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा, “कैसी बात कर रही हो। कोई रीज़न-वीजन नहीं है। तुम अपनी उस मेगा लार्ज टी-शर्ट में ऐसी सेक्ससिएस्ट पोज़ीशन में थी कि मैं हाइपर एक्साइटेड हो गया। थोड़ा काम व्हिस्की का भी था। समझ लो यार कि सब टी-शर्ट के कारण हुआ।” 

मैंने बात को मज़ाकिया लहजा देकर माहौल को हल्का करना चाहा। उसे बाँहों में भरना चाहा। लेकिन शंपा छोड़ने को तैयार नहीं थी। उसने मेरे हाथ को धीरे से अपने कंधे से परे हटाते हुए कहा, “मुझे कोई स्कूली गर्ल समझ रखा है क्या? कि तुम्हारी इस बचकानी बात पर यक़ीन कर लूँगी। सब टी-शर्ट के कारण हुआ ना, ठीक है आज से उसे छुऊँगी ही नहीं। और कुछ भी नहीं पहनूँगी फिर देखती हूँ तुम आगे क्या बहाना बनाओगे। तुम्हें कपड़े एक्साइटेड करते हैं ना, तो उन्हें रात में पहनूँगी ही नहीं।” 

मैंने कहा, “बार-बार सॉरी बोल रहा हूँ ना। अब बस भी करो ग़ुस्सा।” मैंने उसे फिर हँसाने की कोशिश की लेकिन उसका असर कुछ ख़ास नहीं पड़ा। बस वह थोड़ा नरम भर पड़ी। लेकिन आगे यह कह कर मुझे फिर हिला दिया। उसने कहा, “पता नहीं मेरा अनुमान कितना सही है या ग़लत कि कल केवल एक यही एबनॉर्मल बात नहीं हुई थी। उस रईसज़ादी और तुम जब मिले तो ऐसा लगा जैसे कि तुम दोनों एक दूसरे को देखकर चौंके। ऐसा कुछ तुम दोनों के बीच है जिसने वहाँ अचानक सामना होने पर दोनों को सकते में डाल दिया।” 

वह सच के इतना क़रीब है यह जानकर मेरी आत्मा भी सिहर उठी, लेकिन अपने पर नियंत्रण किए हुए मैं बोला, “तुम भी सुबह-सुबह किस हिप्पोक्रेट का नाम लेकर दिन ख़राब कर रही हो। इतना शक करना भी अच्छा नहीं। इस समय सच में तुम्हें एक कप कॉफ़ी की ज़रूरत है। तब तुम्हारा मूड सही होगा। मुझे तो ख़ैर है ही। तुम अपना काम करो मैं बना कर लाता हूँ।” मुझे पीछा छुड़ाने, बात ख़त्म करने का तुरत-फुरत यही एक रास्ता नज़र आया। मैं सीधा किचन में चला गया। 

जब मैं ग्यारह बजे कॉलेज के लिए निकला तब भी शंपा बोल नहीं रही थी। मैंने नाश्ता भी ख़ुद ही बनाया। उसको दिया तो बहाना बना दिया अभी मूड नहीं है। मैं उस समय कुछ और बात नहीं करना चाह रहा था। कॉलेज में पूरा समय मैं बहुत बेचैन रहा। कई और काम निपटाने के बाद जब मैं देर शाम घर पहुँचा तो दरवाज़ा बंद मिला। शंपा कहीं गई थी। मैं ताला खोल कर अंदर पहुँचा तो किचन सहित पूरे घर की हालत बता रही थी कि शंपा ने किचन में क़दम ही नहीं रखा। जो नाश्ता मैंने दिया था वह भी उसी तरह सोफ़े के सामने टेबल पर पड़ा था। 

घर की हर चीज़ अपनी जगह वैसी ही पड़ी थी। जैसी कल थी। मेरा दिमाग़ और परेशान हो गया। मन में प्रश्न उठा कि मैंने तो उसे प्यार किया था। अपने प्यार की पराकाष्ठा का अहसास कराना चाहा था। उस अहसास में इतना उसे डुबा देना चाहता था कि वह जीवन में किसी भी सूरत में मुझसे अलग होने की बात सोच ही ना सके। लेकिन उसने इसे उल्टा ही समझा। प्यार को रेप बता रही है। आख़िर मैंने ऐसा क्या कर दिया कि इतना ग़ुस्सा दिखा रही है। इस तरह तो मैं रह ही नहीं पाऊँगा। पागल हो जाऊँगा। आख़िर प्यार को रेप कहने की कोशिश ये क्यों कर रही है? जबकि मैंने सिर्फ़ प्यार किया था। ग़लती थी तो सिर्फ़ इतनी कि थोड़ा ज़्यादा एग्रेसिव था। कहीं इसके मन में कुछ और तो नहीं शुरू हो गया है। 

मेरे आने के क़रीब तीन घंटे बाद शंपा ग्यारह बजे घर आई। अक़्सर इतनी देर होती ही रहती थी इसलिए मैं निश्चिंत था। उसे फोन नहीं किया। और क़रीब हफ़्ते भर बाद मैंने फिर खाना भी बना लिया था। भूख लगी थी लेकिन शंपा का इंतज़ार करता रहा कि आएगी तो उसके ही साथ खाऊँगा। वह पोर्च में कार खड़ी कर अंदर आई तो उसके हाथ में काग़ज़ों के दो भारी भरकम बंडल थे। वह पम्फ़लेट थे। उसके अभियान से संबंधित। जिसे लेने हम दोनों को साथ जाना था। लेकिन वह बताए बिना अकेली ही ले आई। मेरे दिमाग़ से उतर गया था कि सात बजे उसे कॉल करना था। बंडल उसने एक तरफ़ पटका। सोफ़े पर बैठ गई। 

मैंने कहा, “बताया नहीं साथ ले आते।”

उसने बड़े बेरूखेपन से कहा, “मैंने सोचा ले आते हैं। कौन सा बड़ा काम है, सम्मेलन के दो महीने बचे हैं। तैयारी ठीक से हो नहीं पा रही है।”

मैंने कहा, “चलो मैं कल से और समय निकालता हूँ। नहीं होगा तो कॉलेज से कुछ दिन कि छुट्टी ले लूँगा।”

मेरी इस बात पर वह कुछ बोली नहीं। उठ कर बाथरूम में चली गई। मुझे यह बुरा लगा कि मैं तो बात कर रहा हूँ। इसके काम के लिए छुट्टी लेने को तैयार हूँ। लेकिन ये अभी तक ताव दिखा रही है। बेवजह तमाशा किया हुआ है। आख़िर मुझे भी ग़ुस्सा आ सकता है। मन ही मन कहा खाना बना दिया है। अब निकलूँगा नहीं। ऐसे ही सोचता हुआ मैं बैठा रहा। वह बाथरूम से बाहर आई किचन में गई तो मुझे लगा इसे भूख लगी है। 

उसके अंदर जाते ही बरतनों की आवाज़ आने लगी। उन आवाज़ों में भी मुझे ग़ुस्से की झलक दिख रही थी। बाहर आई तो दोनों हाथों में खाने की प्लेट लेकर आई। सामने रखते हुए कहा। 

“जब बना लिया था तो खा भी लेते। बेकार इंतज़ार करने की ज़रूरत क्या थी?” उसे खाना लाते देखकर जो ख़ुशी हुई थी। उसकी इस बात से मूड फिर ख़राब हो गया। 

मैंने कहा, “सोचा साथ खाते हैं।” फिर वह कुछ ना बोली खाना उसने रोज़ की अपेक्षा दुगुनी तेज़ी से ख़त्म किया। फिर प्लेट ले जाकर किचन में रख कर हाथ वग़ैरह धोकर बेडरूम में चली गई। हम रोज़ खाना एक साथ ख़त्म करके उठते थे। कभी बरतन वो रख आती थी। कभी मैं। 

उसकी इस हरकत ने मुझे फिर परेशान किया। उसे मैं उसी मेगा साइज़ टी-शर्ट में बेडरूम की तरफ़ जाते देखता रहा लेकिन कुछ कह नहीं सका। मैं माहौल को बेहतर बनाने की कोशिश में था। खाना ख़त्म कर मैंने भी बरतन वग़ैरह किचन में पहुँचाए और बेडरूम में पहुँच गया। शंपा ने लाइट ऑफ़ कर रखी थी। ड्रॉइंगरूम के दरवाज़े की तरफ़ से वहाँ इतनी लाइट पहुँच रही थी कि चीज़ों को कुछ हद तक देखा जा सकता था। 

मैंने लाइट ऑन की तो मेरा मूड एकदम से ख़राब हो गया। कि ये क्या तरीक़ा है ग़ुस्सा दिखाने का? ये कोई तरीक़ा नहीं हुआ। बातें सुबह ही बहुत हो चुकी थीं। और मैंने यही समझा था कि मामला ख़त्म। लेकिन इसने तो मामला जैसे का तैसा बना रखा है। जैसा सुबह कहा था वैसा ही किया। अपनी टी-शर्ट सच में निकाल दी है। बिना कपड़ों के ही करवट लिए लेटी है। टी-शर्ट वहाँ कहीं आस-पास भी नहीं दिख रही थी। जानबूझ कर उसे कहीं छुपाया हुआ था। 

आख़िर मैं भी अपने ग़ुस्से को क़ाबू में नहीं रख पाया। मैंने कहा, “शर्ट क्यों नहीं पहनी ये क्या तमाशा बना रखा है।” 

वह कुछ नहीं बोली लेटी रही तो मेरा ग़ुस्सा और बढ़ गया। इस बार मैंने थोडी़ तेज़ आवाज़ में कहा, “इस तरह आख़िर तुम कहना क्या चाहती हो? इतना तनाव मैं नहीं बर्दाश्त कर सकता। जो कहना चाहती हो साफ़-साफ़ कहो।” 

“मैं ना कुछ कहना चाहती हूँ ना मैंने कोई तनाव फैला रखा है, ठीक है। मैं नहीं चाहती कि मेरा एक बार फिर रेप हो। इसलिए शर्ट नहीं पहनी। आगे भी नहीं पहनूँगी। आख़िर सोते समय ज़रूरत ही क्या है इनकी। यहाँ हमारे बीच कोई तीसरा है ही नहीं और हमारे बीच कुछ छिपा नहीं है। ठीक है। अब सो जाओ मुझे नींद आ रही है। मैं बहुत थकी हुई हूँ।” 

उसके इस अजीब-ओ-ग़रीब जवाब से मैं खीझ उठा। मगर चुप रहा। उलझन के कारण बहुत देर रात में सोया। सुबह उठा तो उसे कल ही की तरह फिर ड्रॉइंगरूम में काम करते पाया। चाय भी सामने रखी थी। मैं बैठ गया तो उसने बिना कुछ बोले जो एक और कप रखा था उसमें चाय भरकर मेरी तरफ़ खिसका दिया। वह जैसे पहले से सोचे बैठी थी कि मैं जब आऊँगा तो चाय इस तरह वह मुझे दे देगी। मैंने भी चाय ले ली। दो तीन सिप लेने के बाद मैंने कहा, “ग़ुस्सा उतर गया?”

तो वह चुप रही। फिर रिपीट किया तो कुछ देर बाद बोली, “मैं ग़ुस्सा-वुस्सा नहीं थी। मैंने अपनी बात कही थी। अब भी वही कह रही हूँ। मैं अपनी बात से पीछे नहीं हटी हूँ।”

“जब ग़ुस्सा नहीं थी तो रात में क्यों किया वह सब?”

“देखो मैं फिर कह रही हूँ कि तुम या तो बात को समझ नहीं रहे हो। या समझना नहीं चाह रहे हो। या फिर मैं समझा नहीं पा रही हूँ। मैं रात में ही सब कह चुकी हूँ। जब तुम उस टी-शर्ट के कारण आउट ऑफ़ कंट्रोल हो जाते हो तो मेरी सुरक्षा ख़तरे में पड़ जाती है। ऐसे में मुझे सही यही लगा कि कारण ही ख़त्म कर दूँ। वैसे भी जब कोई चीज़ ढकी रहती है तो क्यूरोसिटी पैदा हो जाती है, जब क्यूरोसिटी ही नहीं होगी तो . . .”

“क्या ऊट-पटाँग बोलती जा रही हो। अगर औरतें लड़कियाँ कपड़े ना पहने तो क्या रेप नहीं होगा?”

“मेरी बात का मतलब यह नहीं है। तुम कुतर्क कर रहे हो। कपड़े का अपना महत्त्व है। बात मैंने अपने तुम्हारे इस घर के अंदर के दायरे की है। और तुम उसे समग्र में लिए जा रहे हो। रजनीश अगर कहते थे कि घर में किशोरवय होने तक बच्चों को निर्वस्त्र ही रखा जाए तो वह यूँ ही तो नहीं कहते थे। बात मानसिकता के निर्माण की है। कपड़े से मुक्ति पा लेने की नहीं।”

“मैं नहीं मानता कि ऐसा कुछ होने वाला है। यदि ऐसा होता तो स्पेन, या सारे यूरोपियन देशों, पश्चिमी देशों में रेप या सेक्सुअल हैरेसमेंट की घटनाएँ होनी ही नहीं चाहिएँ। या नाममात्र को होनी चाहिएँ। वहाँ तो घर क्या बाहर भी न्यूडिटी हावी रहती है।”

“अफसोस तुम्हारे इस तर्क पर मैं यह कह सकती हूँ कि तुम्हारे फ़ार्मूले से भी तो बात बनती नहीं दिख रही। यदि कपड़े पहन कर इनसे बचा जा सकता है तो मुस्लिम देशों में या मुस्लिमों में तो औरतें सिर से पैर तक कपड़ों की कई तहों में ढकी-मुंदी रहती हैं। लेकिन रेप उनके यहाँ भी बराबर होते रहते है। 

“सेक्सुअल हैरेसमेंट वहाँ भी बराबर बना हुआ है। जब कि मौत तक की सज़ा दी जाती है। इस लिए सच यह है कि मानसिकता के निर्माण की बात होनी चाहिए। ऐसी मानसिकता का निर्माण कि लोग रेप या महिलाओं के शोषण की बात सोचें ही ना। क्योंकि ऐसा किए बिना ना ये रुका है ना रुकेगा। चाहे लोगों को मौत की सज़ा दो, उनके टुकड़े-टुकड़े कर दो कोई भी फ़र्क़़ नहीं पड़ने वाला। 

“निर्भया कांड के बाद वर्मा आयोग ने क़ानून सख़्त किए लेकिन कोई फ़र्क़ पड़ा क्या? उससे भी वीभत्स कांड बराबर होते जा रहे हैं। केरल में ही लो जहाँ उच्च साक्षरता दर है। स्टुडेंट का रेप जिस बर्बरता से किया गया उस के सामने निर्भया के साथ हुई बर्बरता कुछ नहीं थी। केरल में लड़की के शरीर में ना जाने कैसी-कैसी भयानक चीज़ें इंसर्ट की गईं। उन्हें अंदर ही भयानक तरीक़े से मूव करा कर ऐसे खींचा गया कि उसके अंग क्षत-विक्षत हो गए। सारी आँतें बाहर आ गईं। इसके कुछ ही दिन बाद लॉ स्टुडेंट के साथ यही किया गया। उसके शरीर पर अड़तीस घाव थे। इस समस्या को रोकने के लिए जो तरीक़े अपनाए जा रहे हैं वे वैसे ही हैं जैसे कोई पानी की टंकी बुरी तरह जंग खा गई है। उसे बदलने के बजाय लीकेज को बंद कर-कर सड़ चुकी टंकी का समाधान ढूँढ़ा जाए।”

“तुम जैसे चाह रही हो उस हिसाब से तो ऐसी मानसिकता डेवलप करने के लिए दो-तीन पीढ़ियाँ चाहिएँ। उसके बाद भी गारंटी नहीं है।”

“यदि दो-तीन पीढ़ियों में टंकी बदली जा सकती है तो कोशिश होनी ही चाहिए। आख़िर सदियों से लीकेज बंद कर-कर के देख लिया गया। समस्या जस की तस है। जब यह तरीक़ा फ़ेल हो चुका है तो नया तरीक़ा क्यों ना आज़माया जाए?” 

“तो मैडम लीकेज बंद करने की कोशिश छोड़ कर मेरी मानसिकता बदलने की कोशिश करो। कल रात जो किया वह अब ना करना।” मैंने यह बात प्यार से कहते हुए उसके गालों को ऐसे खींचा जैसे किसी छोटे बच्चे के खींचे जाते हैं। इस पर उसका जो जवाब आया उससे मुझे परेशानी हुई। उसने कहा, “वह तुम्हारी मानसिकता बदलने के मैथड का ही एक हिस्सा है। इसलिए वह कंटीन्यू रहेगा।” मुझे इस बात से ग़ुस्सा लगा। लेकिन मैं कुछ बोला नहीं उठकर चल दिया दूसरे कमरे में। 

उसका मेरी मानसिकता बदलने का प्रयोग चलता रहा। सम्मेलन की तैयारी होती रही। मगर जब सम्मेलन हुआ तो उसके साथ-साथ मेरे पैरों तले की भी ज़मीन खिसक गई। तैयारी के दौरान लोगों से मिल रहे रिस्पांस के आधार पर हमने अनुमान लगाया था कि कम से कम दस हज़ार लोग आएँगे। मीडिया भी अच्छा रिस्पांस देगा, कवरेज देगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मुश्किल से सौ लोग आए। मीडिया के गए[गुज़रे से दो[चार पत्रकार आए चलते बने। जो सौ लोग आए वो भी आए और चल दिए। जिन लोगों को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था उनमें से सिर्फ़ दो आए। 

जब वो आए तो पचास लोग भी नहीं बचे थे। तो वो इसे अपनी इंसल्ट समझ कर चल दिए। शंपा अपना वक़्तव्य पढ़कर ही चुप हुई। चुप होने के बाद वह काफ़ी देर तक मूर्ति बनी बैठी रही। उसे गहरा सदमा लगा था। उसे हर तरफ़ से धोखा मिला था। यहाँ ऐन टाइम पर बहुत से लोगों ने जो चंदा देने की बात कही थी वह भी ग़ायब हो गए। जिससे क़र्ज़ बहुत बढ़ गया। हारे जुआरी से जब हम घर पहुँचे तो एकदम चुप थे। मैं सबसे ज़्यादा इस बात से परेशान था कि अब हम दोनों लाखों रुपए का क़र्ज़ कहाँ से भरेंगे। 

होम लोन पहले ही गले को नापे रहता है। मगर इस परेशानी से ज़्यादा मुझे दुख इस बात का था कि सम्मेलन असफल नहीं बल्कि पूरी तरह उस पर पानी फिर गया था। शंपा आते ही बेड पर ऐसे निढाल होकर पड़ गई जैसे शरीर में जान ही ना हो। जैसे योग के शवासन में पड़ी हो। मैं भी बेड पर एक तरफ़ बैठा था। मैंने कुछ देर बाद देखा उसकी आँखों की कोरों से आँसू निकल-निकल कर उसके कानों तक जाकर उन्हें भिगो रहे थे। वह भीतर ही भीतर रो रही थी। 

कुछ ही देर में मुझे लगा कि अब यह सिसक पड़ेगी। मुझसे उसकी हालत देखी नहीं गई। मैंने उसके चेहरे को दोनों हाथों से प्यार से पकड़ते हुए कहा, “शंपा ये क्या? तुमसे मुझे यह उम्मीद नहीं थी। तुम एक स्ट्रॉन्ग लेडी हो। मेरी नज़रों में तुम किसी आयरन लेडी से कम नहीं हो। हम हारे नहीं हैं। हम फ़ेल नहीं हुए हैं। हमने अपने उद्देश्य की तरफ़ पहला क़दम बढ़ा दिया है। हमारे क़दम अब पीछे नहीं हटेंगे। 

“शंपा दिल्ली जैसे शहर में सौ लोगों का आना भी बहुत बड़ी बात है। इस बार सौ हैं, आगे सौ हज़ार होंगे।

“शंपा याद रखो हर बड़ा काम छोटे से ही शुरू होता है। ज़ीरो से ही शुरू हो कर आगे असंख्य नंबर बनते हैं। आगे हम बढ़ेंगे तो कारवां बनेगा ही। आज सौ आए हैं हमारी यह उपलब्धि नहीं है। यह हमारी उस महान उपलब्धि का बीज है जो हमें भविष्य में मिलने वाली है। विशाल वटवृक्ष एक सूक्ष्म से बीज से ही निकलता है।” मेरे इतना कहते-कहते शंपा चुप होने के बजाय फ़फ़क कर रो पड़ी। 

एकदम उठकर मुझसे लिपट गई, मेरी छाती में सिर छिपाए बड़ी देर तक रोती रही। मैं उसे अपने में समेटे उसके सिर को सहलाता रहा। चुप कराने की कोशिश करता रहा। बड़ी देर बाद कहीं वह शांत हुई। मैंने कॉफ़ी बनाई। उसे देते हुए कहा, “जो हुआ उस पर सोचने के बजाय अब इस प्वाइंट पर सोचना शुरू करो कि आगे क्या करना है? मुझे पीछे मुड़कर देखना अपने पैरो में बेड़ियाँ डालने जैसा लगता है।” उस रात हम दोनों ने ब्रेड, दूध से काम चलाया। खाना वग़ैरह कुछ नहीं बनाया। 

अगले कई दिन हम दोनों ने भारी-भरकम क़र्ज़ से कैसे निपटें, इसकी योजना बनाने में निकाल दिए। मगर मेरी परेशानियाँ शंपा की परेशानियों से कहीं ज़्यादा थीं। सबसे ज़्यादा मैं इस बात से परेशान हो उठा कि शंपा ने अपने मिशन से हटने का डिसीज़न ले लिया। उसने साफ़ कह दिया कि अब वह आंदोलन वग़ैरह खड़ा करने का प्रयास नहीं करेगी। लेखन के ज़रिए ही अपने विचारों को फैलाएगी। मुझे उसका यह निर्णय परिस्थितियों के सामने घुटने टेकने जैसा लगा। 

इधर मैं जी-वर्ल्ड से अपने कनेक्शन के खुलने के भय से आतंकित होता रहा। इस बीच एक चीज़ मैंने और देखी कि शंपा अब और ज़्यादा मुझ पर ही डिपेंड होती जा रही है। वह जैसे मुझमें ही सिमट कर रह जाना चाहती थी। उसके पास बस इतना ही काम था पढ़ना-लिखना, सोना। घर के काम में बस थोड़ा बहुत ही हाथ बँटाती। मज़बूरन बाई लगानी पड़ी। एक काम जो रेगुलर था वह मेरे आने के बाद बस यूँ ही गाड़ी से घंटे भर घूम आना। यही ज़िन्दगी फिर कई साल चली। इस बीच मैंने क़र्ज़ और जी-वर्ल्ड के तनाव से मुक्ति पा ली थी। 
शंपा की इंकम का भी अच्छा योगदान रहा। शंपा ने इसी दौरान अपनी एक बुक पूरी की। ‘इस दुनिया से उस दुनिया तक’ उसे मैंने फ़र्स्ट ड्रॉफ्ट से ही पढ़ना शुरू किया था। मेरे कुछ संशोधन शंपा ने स्वीकार भी किए थे। बड़ी कोशिशों के बाद एक नामी पब्लिशर उसे छापने को तैयार हुआ। यह संयोग ही था कि जिस दिन पब्लिशर को मैन्यूस्क्रिप्ट सौंपी उसके अगले ही दिन मुझे कॉलेज के एक ट्रुप के साथ बतौर मैनेजर अमरावती जाने का आदेश मिला। सीनियर प्रोफ़ेसर अनुसुइया खरे के नेतृत्व में यह ट्रुप जा रहा था। उन्हीं के कहने पर मुझे भी जाने का आदेश मिला। 

यह दल अमरावती संत परंपरा पर शोध करने वाले छात्रों का था। मैंने सोचा शंपा को भी लेता चलूँ। उसका ख़र्च हम ख़ुद उठाएँगे। वह अध्ययनशील विद्वान महिला है। साथ रहेगी तो अच्छा रहेगा। सीनियर प्रोफ़ेसर से भी बात कर ली। उन्होंने कहा नियमतः तो नहीं चल सकते लेकिन चलो मैनेज किया जाएगा। लेकिन शंपा ने मना कर दिया। लाख कहने पर भी नहीं मानी। एक ही तर्क कि ‘मैं रहूँगी तो तुम अपना काम ठीक से नहीं कर पाओगे यह तुम्हारे कॅरियर के लिए अच्छा नहीं। मेरा भी समय किल होगा। इतने समय तक घर को बंद छोड़ देना भी ठीक नहीं।’ उसकी दोनों ही बातें सही थीं। तो अकेले गया अमरावती। 

वहाँ वाक़ई मेरा मन नहीं लग रहा था। शंपा से मेरा कितना लगाव है। वह मेरे लिए कितनी ज़रूरी है। यह मैं सही मायने में वहीं महसूस कर रहा था। शुरू के कई दिन तो मैं सो ही नहीं सका। उठ-उठ कर उससे फोन पर बातें करता। वह कहती, “सो जाओ मेरे लाल। मेरे नीले। मेरे मुन्ने। मुझे भी सोने दो। दिन भर से कितनी बातें कर चुके हो। कितनी बार कर चुके हो। तुमने तो यंग कपल को भी मात कर दिया है।” यह बात बिलकुल सही है कि हम किसे कितना चाहतें हैं, इसका सही अंदाज़ा तभी लगता है जब हम उससे दूर होते हैं। वहीं मुझे अहसास हुआ कि इसके बिना तो मेरा जीवन है ही नहीं। 

वहाँ गए दस दिन हो गए थे, और मैं बस अपने को किसी तरह सँभाल रहा था। ग्यारहवें दिन हम पूरी टीम क़रीब नौ बजे खाना खा रहे थे। तभी मोबाइल पर रिंग हुई। देखा शंपा का फोन था। रिंग के साथ उसकी खिलखिलाती हुई फोटो स्क्रीन पर आ जाती है। प्रोफ़ेसर अनुसुइया ने व्यंग्य भरी मुस्कुराहट के साथ मुझे देखा फिर खाने में जुट गईं। 

मैंने कॉल रिसीव कर जैसे ही हैलो कहा उधर से किसी आदमी की आवाज़ सुनते ही मेरा दिल एकदम घबरा उठा। कॉल करने वाले ने अपने को पुलिस इंस्पेक्टर बताया। पूछा, “ये मैडम शंपा आपकी कौन हैं?” मैंने बताया वाईफ़ तो उसने सिलसिलेवार एक स्वर में बता दिया कि इनकी कार का एक्सीडेंट हो गया है। यह सुनते ही मारे घबराहट के मैं पसीने से तर हो गया। मैं एक झटके में हकलाते हुए पूछ बैठा, “कहाँ? कैसे? वो ठीक तो हैं?” 

यह बोलते-बोलते मैं उठ खड़ा हुआ। खाना खाते बाक़ी लोगों के हाथ भी जहाँ के तहाँ ठहर गए। सब की प्रश्नवाचक दृष्टि मेरे चेहरे पर ठहर गई। इंस्पेक्टर ने उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती वग़ैरह कराने की बात बता दी। यह भी बताया कि हालत सीरियस है। तुरंत आएँ मैंने कहा, “मैं अमरावती में हूँ।”

उसने कहा, “यहाँ लोकल कोई हो तो उसे भेजिए।” मैंने सीधे प्रोफ़ेसर साहब को फोन कर के उन्हें सारी बात बताई। उनसे रिक्वेस्ट की तुरंत हॉस्पिटल पहुँचने के लिए। फिर कई और दोस्तों से भी बात की। अमरावती से मैं नागपुर पहुँचा। वहाँ से मुंबई की फ़्लाइट मिली। वहाँ से अगले दिन दिल्ली पहुँचा। वहाँ से कोई सीधी फ़्लाइट ना मिलने के कारण बड़ा टाइम लग गया। 

मैं एयरपोर्ट से सीधा हॉस्पिटल पहुँचा तो वहाँ मुझे प्रोफ़ेसर साहब और कई दोस्त मिले। सब गेट पर ही मिल गए। मैं हाँफता-काँपता उनके पास पहुँचा सबके चेहरे अजीब से बुझे-बुझे लटके हुए थे। उन सबको ऐसे देख कर किसी अनहोनी की आशंका से मैं काँप उठा। प्रोफ़ेसर साहब से मैंने पूछा तो उन्होंने कंधे को पकड़ कर ढाढ़स बँधाते हुए कहा ‘समीर हिम्मत से काम लो’ इसके बाद मुझे समझते देर नहीं लगी। मेरे आँसू बह चले, मेरे मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी। मैं जहाँ खड़ा था वहीं बैठ गया। मेरी दुनिया एकदम अचानक ही उजड़ गई थी। शंपा मुझे छोड़कर चली गई थी। उसकी डेड बॉडी पोस्टमार्टम के लिए भेजी जा चुकी थी। 

मेरे दोस्त मुझे अपने घर लेते गए। अगले दिन पोस्टमार्टम के बाद शंपा का पार्थिव शरीर मिला। मैंने शाम तक अपने मित्रों के साथ उसका अंतिम संस्कार कर दिया। घर लौटा तो लगा जैसे शरीर में जान ही नहीं रही। दोस्तों ने सँभाला। अगले तीन दिन में बाक़ी संस्कार पूरे कर दिए। जब तक इन सब कामों में बिज़ी रहा तब तक तो अहसास उतना नहीं हुआ लेकिन उसके बाद जब रात में लेटा तो मैं ख़ुद को रोक ना सका। बेड पर एक तरफ़ उसके होने की आदत पड़ गई थी। बार-बार मेरा हाथ उस हिस्से को छू रहा था जिस पर शंपा रहती थी। लगता जैसे शंपा आकर लेटने ही वाली है। मैं उसका अहसास करते हुए फपक कर रो पड़ा। पूरे घर में मेरी आवाज़ पहुँच रही थी। 

मगर मेरा अपना कोई होता तब तो मेरे पास आता। मैं रोते-रोते पस्त हो गया। ख़ुद को कोसने लगा कि आख़िर मैं उसे अकेले छोड़ कर गया ही क्यों? ना मैं जाता। ना वह बाहर शराब पीकर गाड़ी ड्राइव करती। मैं होता तो उसके इस काम के लिए ख़ुद चला जाता। मैं इस बात का सख़्ती से पालन करता था कि ड्रिंक के बाद बाहर जाना ही नहीं है। उससे मैंने आधे घंटे पहले ही फोन पर जब बात की थी तब कहा भी था रात हो गई है, अब मत जाओ। मगर अपने काम के जुनून में वह ख़ुद को ना रोक पाई। मैं यह जान भी नहीं पाया था कि उस समय उसने ड्रिंक कर रखी है। नहीं तो चाहे जैसे हो उसे रोकता। 

मैंने सोचा ख़ुद तो चली गई। इतना बड़ा काम जो छोड़ गई है अब वह कैसे होगा? कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि जब वह अपने को रेगिस्तान से बाहर ख़ुश पा रही थी, अपने सपनों को पूरा करने के लिए आगे बढ़ रही थी तो एक छोटी सी ग़लती कर अपना सब कुछ क्षण भर में खो दिया। अपनी ड्रीम बुक भी पब्लिश हुई ना देख पायी। सारी मेहनत पर पानी पड़ गया। और जो मुझे अकेला छोड़ गई, मेरा क्या होगा? अब कौन रहा मेरा इस दुनिया में? भाई बहन सब ना जाने कितने बरसों से एक दूसरे को भूल चुके हैं। अब क्या करूँ? 

यह ‘क्या’ ही मुझे अब तक जीवन में बार-बार उठ खड़े होने की ताक़त देता रहा है। मैं हर बार आगे बढ़ने में सफल रहा हूँ तो इस बार भी मेरी आत्मा की आवाज़ ने मुझे शंपा के सपने जो कि मेरा भी सपना है, को पूरा करने के लिए उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। उस स्थिति में भी मैंने तय कर लिया कि किताब छप कर आते ही मैं आगे बढूँगा। उसका बाक़ी लिटरेचर भी छपवाऊँगा और अब प्रोफ़ेसर आयशा को शामिल करूँगा।  

वह शंपा के समय से ही इच्छुक हैं। आयशा मुस्लिम महिलाओं की तलाक़ समस्या का समाधान ढूँढ़ने के लिए शंपा जैसी महिला का साथ चाहती थीं। क्योंकि वह भी इस दंश का शिकार हैं। उस वक़्त ना जाने क्या हुआ कि मेरा दिमाग़ कुछ ज़्यादा ही सक्रिय हो उठा। अचानक ही यह ख़याल भी मन में आया कि सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करूँगा कि ऐसे सारे क़ानूनों में संशोधन किया जाए जो किसी भी स्त्री-पुरुष या संस्था के ख़िलाफ़ किसी भी पक्ष के लिए एक तरफ़ा कार्यवाई करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ज़रूरत हुई तो और भी क़दम उठाऊँगा। जिससे मँझली जैसी शख़्सियत किसी क़ानून का दुरुपयोग न कर सके। 

ऐसे ही सोचते रोते सिसकते देर रात किसी समय नींद आ गई। सुबह क़रीब नौ बजे नींद खुल गई। कॉल बेल बार-बार बजे जा रही थी। बड़ा बुरा लग रहा था। पूरा बदन टूट रहा था। किसी तरह अपने को खींचते-खाँचते जाकर दरवाज़ा खोला। सामने प्रोफ़ेसर आयशा खड़ी थीं। पिछले कई दिन की तरह बड़े से हॉट पॉट में फिर वो नाश्ता, खाना-पीना ले कर आई थीं। मैं उन्हें नमस्कार कर अंदर ले आया। 

प्रोफ़ेसर से कॉलेज में ही परिचय हुआ था। वह कॉलेज में भी मेरे लिए कुछ ना कुछ लाती ही रहती हैं। कॉल बेल की आवाज़ से जो ग़ुस्सा आया था वह उन्हें देखते ही ख़त्म हो गया। उन्होंने मुझसे कहा, “तैयार हो जाओ समीर। सँभालो अपने को। जाने वाले को तो लाया नहीं जा सकता। जीने के लिए समय बहुत कम भी है। बहुत ज़्यादा भी। दुनिया बहुत छोटी भी है और बहुत बड़ी भी। यह दोनों हमारे सामने कैसी होगी यह हम पर डिपेंड करता है।” 

आयशा मेरे इतने क़रीब थीं कि उनकी गर्म साँसों को मैं महसूस कर रहा था। अचानक लगा जैसे ठीक उनके पीछे ही मँझली खड़ी है। फिर अगले ही पल मन में कहा पता नहीं कहाँ होगी? कैसी होगी? जैसी भी हो एक बार अपने लालच का परिणाम आकर देख ले। उस क़ानून की विध्वंसक शक्ति से हुई तबाही के परिदृश्य पर एक नज़र तो डाल ले। 

इसके साथ ही दिमाग़ में यह आया कि छोटे-छोटे मामलों में भी स्वतः संज्ञान लेकर क़दम उठाने वाली देश की सर्वोच्च न्याय पालिका भी ऐसे विध्वंसक समस्त क़ानूनों से उत्पन्न परिणामों का गहराई से अध्ययन करे, फिर निकले निष्कर्षों के आधार पर संशोधन के लिए क़दम उठाए। जिससे कोई भी क़ानून किसी के हाथ का हथियार ना बन जाए। सच में आख़िरी व्यक्ति तक को न्याय मिले। वह सिर्फ़ होता हुआ दिखे ही नहीं ऐसा वास्तव में हो भी। 

2 टिप्पणियाँ

  • 6 Aug, 2023 11:41 PM

    कहानी बहुत लम्बी है लेकिन जन-जन तक दो मुख्य संदेश पहुँचाने हेतु शैली व विधा अति उत्तम। दलित जनता के उत्थान के लिए उठाया गया अद्भुत कदम...और दूसरा यह कि केवल दहेज ही नहीं, झूठे बलात्कार संबंधित केस में भी जब अंधे कानून द्वारा एक पार्टी की एकतरफ़ा बात सुनकर उनके पक्ष में निर्णय सुना देना। परिणामस्वरूप निर्दोष पार्टी की न जाने कितनी ज़िंदगियाँ तबाह हो जाती हैं। ऐसे अंधे क़ानून की आँखों से पट्टी हटानी ही होगी।

  • 1 Aug, 2023 11:16 PM

    दुनिया के विभिन्न आयामों को बताती अच्छी कहानी।

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