स्याह उजाले के धवल प्रेत

01-12-2022

स्याह उजाले के धवल प्रेत

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

पोस्ट-ग्रेजुएट राज-मिस्त्री वासुदेव को समाचार शब्द से ही घृणा है। वह टीवी, रेडियो, अख़बार कहीं भी समाचार देख सुन नहीं सकता, नाम लेते ही आग-बबूला हो जाता है। कहता है, “यह सब समाचार कम बताते हैं, बात का बतंगड़ बना कर तमाशा-ही-तमाशा करते हैं, नेताओं की तरह लोगों को भरमाते हैं, लड़ाते हैं, आग लगाते हैं, गुंडे-बदमाशों, माफ़ियाओं को दिखा-दिखा कर उन्हें हीरो बना देते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं।”

उसके उलट उसकी ग्रेजुएट पत्नी दया को समाचार देखना बहुत पसंद है। उसे समाचार चैनलों पर होने वाली डिबेट्स धारावाहिकों से भी ज़्यादा पसंद हैं, क्योंकि यह उसे ज़्यादा मनोरंजक लगती हैं। लेकिन घर में जब-तक वासुदेव रहता है, तब-तक वह यह सब कम ही देख पाती है। 

इनके तीन बेटे एक बेटी सहित चार संतानें हैं। अपने छह सदस्यीय परिवार के पालन-पोषण के लिए वासुदेव राज-मिस्त्री के काम के साथ-साथ छोटी-मोटी दलाली भी कर लेता है। बिहार के ‘सिताब-दियारा’ गाँव से पाँच-छह साल पहले दिल्ली आया था। 

उसकी राजनीतिक समझ-बूझ बड़ी अच्छी और स्वभाव बड़ा आक्रामक है। बातचीत के समय बड़े गर्व, ताव से कहता है कि “मैं देश में आपात-काल थोपने वाली इंदिरा गांधी की, अत्याचारी सत्ता को उखाड़ फेंकने वाले, स्वतंत्रता-सेनानी एवं सम्पूर्ण-क्रांति के जनक, लोक-नायक जे.पी. (जय प्रकाश नारायण) के गाँव ‘सिताब-दियारा’ का हूँ। उनके सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में मेरे बाबू जी ने भी हिस्सा लिया था। 

“दो प्रदेशों उत्तर-प्रदेश और बिहार, और दो महान पवित्र नदियों गंगा और घाघरा के बीच बसा मेरा गाँव इन नेताओं की मक्कारी, झूठ, इनके भ्रष्टाचार के कारण ही आज़ादी के सत्तर साल बाद भी, वह विकास नहीं कर पाया जो महान जे.पी. की जन्म-भूमि होने के कारण होना चाहिए था। इसके लिए गुंडे-माफ़ियाओं को हीरो बनाने वाली, हीरो-हीरोइनों के कपड़े, हीरोइनों के बेबी-बम्प दिखाने की दीवानी मीडिया की उपेक्षा भी नेताओं जितनी ही ज़िम्मेदार है।”

गाँव, देश के समुचित विकास की बात शुरू होते ही वह बड़े क्रोध में कहता है कि “जिस महान जे.पी. ने अंग्रेज़ों द्वारा, अंग्रेज़ों के लिए बनाई गई, कतिपय भारतीय अंग्रेज़ों के नेतृत्व वाली, कांग्रेस पार्टी की तानाशाही को चुटकियों में धूल चटा कर, देश को सच में आज़ादी दिलाई, उस व्यक्ति के जन्म-स्थान की घोर उपेक्षा करने वाले नेता, मीडिया भला क्या इस देश का भला करेंगे। ये अपने फ़ायदे के लिए ज़रूरत पड़े तो देश भी बेच डालेंगे।” 

व्यवस्था से सदैव नाराज़ रहने वाले वासुदेव के एक बेटे, एक बेटी का जन्म दिल्ली में ही हुआ था। यहीं एक कॉलोनी में एक कमरे के मकान में गुजर-बसर कर रहा है। गाँव में खेती-बाड़ी कुछ ख़ास थी नहीं कि वह परिवार का जीवन-यापन गाँव में ही कर पाता। राज-मिस्त्री का काम बहुत अच्छा जानता है, इसलिए कभी ख़ाली नहीं रहता। गृहस्थी की गाड़ी खींच ले रहा है। 

उसका मन हमेशा यही सोचता, परेशान रहता है कि किसी तरह रहने भर का, एकाध कमरे का ठौर हो जाता, तो जो सारी कमाई मकान मालिक खींच लेता है, वह बच जाए। वह राशन-कार्ड भी नहीं बनवा पा रहा है कि सरकार द्वारा मिलने वाला सस्ता अनाज ही उसे मिल पाता। 

स्थानीय नेता पार्षद की जी-हुज़ूरी करते-करते सालों निकल गए, लेकिन वह हर बार उसे एक ही रटा-रटाया जवाब देता है, ‘अभी व्यस्त हूँ, फिर कभी आना, तब देखूँगा।’ नेता के कहने पर दिल्ली विधान-सभा चुनाव के समय सारा काम-धंधा छोड़कर झंडा, बैनर लिए, गोल टोपी लगाए, सारा-सारा दिन उसके पीछे-पीछे लगा रहा, पार्टी सत्ता में दोबारा आ भी गई, लेकिन वासुदेव की समस्या जहाँ की तहाँ बनी हुई है। जबकि नेताजी और मोटे हो गए हैं, महँगी एस.यू.वी. गाड़ियों का उनका क़ाफ़िला भी लम्बा हो गया है। 

उसके लम्बे क़ाफ़िले की ही तरह अपनी लम्बी होती समस्याओं से वह बार-बार व्याकुल हो उठता है। नेता को देखते ही भुनभुनाने लगता है कि ‘नौकरी न चाकरी, न कोई काम-धंधा, फिर भी न जाने कहाँ से इतना अकूत पैसा लूट के ले आता है।’ 

उसे देखते ही उसके झूठ-फ़रेब से उसका ख़ून खौल उठता है। विवशतावश चाह कर भी उससे दूरी नहीं बना पा रहा है। क्योंकि वह नेता नहीं वास्तव में नेता का चोला ओढ़े, सफ़ेद रेशमी खद्दर पहनने वाला हत्यारा, माफ़िया गुंडा है। इसलिए सामने पड़ने पर नमस्कार कर लेता है, तीसरे, चौथे उसके दरबार में हाज़िरी भी लगा आता है। 

ग़ुस्से से उसका ख़ून उबल पड़ता है, जब वह उस बहुरूपिए माफ़िया को अपने समुदाय का जायज़-नाजायज़ सारा काम आँख मूँदकर करते और दूसरे समुदाय के लोगों को केवल बेवक़ूफ़ बनाते, पैसा वसूलते, टालते देखता है। 

वह दाँत पीस-पीस कर रह जाता है, जब उसे खुले-आम महिलाओं का शोषण करते पाता है। काम के लिए आने वाली महिलाओं को अपमानजनक ढंग से छूते, बाँहों में भरते देखता है। तब उसका मन करता है कि एक तेज़ भारी बाँका ले आए और एक झटके में उस दोगले पापी की खोपड़ी काटकर, ज़ोर से उस पर एक ठोकर मार दे। 

जब सीए‌ए (सिटीज़न अमेंडमेंट एक्ट) पहले कई बार की तरह आया, तो उसे यह रँगा सियार एक और नए रंग में दिखा। मीडिया, दुनिया के सामने इस मुद्दे पर अपनी घोषित पार्टी लाइन की दोगली नीति पर चलता हुआ और दूसरी तरफ़ शाहीन बाग़ में विदेशी टुकड़ों पर मोटाते, अराजकता पैदा कर देश में आग लगाने को जी-जान से जुटे, आस्तीन के साँपों के तथा-कथित सीएए विरोधी आंदोलन को ताक़त देने में जुटा हुआ। 

वासुदेव भट्ठी में दहकते लोहे सा दहक उठता है, जब उसे खुले-आम यह कहते सुनता है, ’कौन सा देश, कैसा देश, इस सरकार को हम घुटनों पर ला देंगे। हर तरफ़ इतनी आग लगाएँगे कि उनको बुझाते-बुझाते ये थक जाएँगे, लेकिन बुझा नहीं पाएँगे।’

कैमरे के सामने खुले-आम अपने गुर्गों ग़ुलामों से कहता कि ’तुम लोग बस एक बात पूरी ताक़त से चलाओ फैलाओ कि यह हमारी क़ौम के ख़िलाफ़ है। हम पर यह बराबर ज़ुल्म करते आ रहे हैं। हमें तबाह करने, देश से बाहर करने की इनकी यह बहुत बड़ी साज़िश है। कोई कुछ भी बोले, कुछ भी कहे, कुछ भी पूछे लेकिन तुम-लोगों को बार-बार हर बार यही कहते रहना है बस, इसके अलावा और कुछ नहीं।’ 

यह सुनकर वासुदेव मन ही मन सुलगता हुआ कहता है, ‘तू जितना घिनौना, गंदा ऊपर से दिखता है, उससे हज़ार गुना ज़्यादा भीतर से भी है। तू और तेरी बेईमान पार्टी देश को लूट ही नहीं रहे हैं, देश को आग भी लगा रहे हैं। पता नहीं देश की सरकार तुझ जैसे गद्दारों के झुण्ड देख नहीं पा रही है, या देख कर भी अंधी बनी हुई है। लेकिन नहीं, असली ज़िम्मेदार तो वो लोग हैं, जिन्होंने कुछ सौ यूनिट बिजली, और पानी की मुफ़्त रेवड़ी के लोभ में अपना धर्म, स्वाभिमान, नैतिकता बेच कर मक्कारों को फिर बैठा दिया है सिंहासन पर। 

‘तुमको अफ़ग़ानिस्तान तक में नेस्तनाबूद कर दिया। जहाँ तुम्हारी हस्ती की निशानियाँ, तुम्हारे हज़ारों-हज़ार साल पुराने मंदिर, आज भी तुम्हारी जाहिलियत के अफ़साने कहते वीराने में खड़े हैं। काबुल में अपने ढाई हज़ार साल पुराने ‘आशा-माई’ मंदिर को दे लो भव्य रूप, है बाज़ुओं में दम। (काबुल, अफ़ग़ानिस्तान में क़रीब ढाई हज़ार वर्ष पुराना ‘आशा-माई’ मंदिर एक पहाड़ पर स्थित है। मंदिर के नाम पर ही पहाड़ का नाम ‘असामयी’ रखा गया है। अफ़ग़ानी हिंदू माँ दुर्गा को ही आशा की देवी के रूप में भी पूजते हैं। जो अब वहाँ गिनती के ही बचे हैं) अरे हम वो हैं, जिन्होंने फ़ारस को निगल कर ईरान बना दिया, दुनिया को कहीं ख़बर तक नहीं हुई। हस्ती तो तुम्हारी मिटने के रास्ते पर दौड़ रही है गधो।’ यह कहकर जानवरों की तरह मुँह फाड़-फाड़ कर हँसता। 

उसकी नसों का ख़ून पिघले शीशे सा तप उठता है, जब वह अपने भाड़े के टट्टुओं के साथ दारू पीते, बोटी नोचते हुए खींसें निपोरता और कहता, ‘यह गधे, पागल, तराना गाते नहीं थकते कि हस्ती मिटती नहीं हमारी . . . यह मूर्ख कितनी जल्दी भूल गए कि चुटकी बजा के तुम्हारा हिंदुस्तान तोड़ कर पाकिस्तान बना दिया।’ 

वह मन ही मन कुढ़ता है, कहता है, “क्या देश की सरकार नशे में है या कुम्भ-करण की नींद सो रही है, जो इस गद्दार और इसके जैसे ही दारू के नशे में गली-गली में घूम रहे गद्दारों के झुण्ड नहीं देख पा रही है। और बाक़ी लोगों को भी ये झुण्ड क्यों नहीं दिख रहे हैं। मुझ जैसे मिस्त्री को सब दिख रहे हैं, तो ये बड़े-बड़े, पढ़े-लिखे, समझदारों को क्यों नहीं दिख रहे हैं। 

‘ये साला हफ़्तों से काम पर नहीं जाने दे रहा है। रोज़ शाहीन बाग़ में दस-दस घंटे बैठा देता है, कि चलो चल कर वहाँ भीड़ बढ़ाओ, गोल टोपी अलग ज़बरदस्ती थमा देता है। कहता हूँ भाई रोज़ की दिहाड़ी मर रही है। तो मक्कार कहता है, ‘तुम परेशान न हो, हम तुम्हारा पूरा ख़्याल रख रहे हैं न।’ दो टाइम बड़े, छोटे, कुत्ते न जाने कौन-कौन से जानवरों की बिरयानी पकड़ा कर, साला बड़ा एहसान जताता है।” 

वह जब धरना-स्थल पर दस-बारह घंटे ज़बरदस्ती की ड्यूटी बजा कर वापस घर लौटता है, तो बहुत ग़ुस्सा होता है। उस माफ़िया रंगे नेता को बहुत ही गंदी-गंदी गालियाँ देता है। लौटते समय रोज़ जो एक बोतल शराब उसे दी जाती है, उसे कमरे में बक्से के पीछे छिपा कर रखते हुए बोलता है, “कमीना बिरयानी की तरह अँग्रेज़ी बोतल में पता नहीं कौन सी नक़ली शराब भरवा कर दे रहा है। बार-बार कहता हूँ कि मैं दारू नहीं पीता, मगर साले ज़बरदस्ती थमा देते हैं। इस नक़ली ज़हर को तो अपने खाने-पीने वाले दोस्तों को भी नहीं दूँगा। इसी के पियक्क्ड़ लगुओं-भगुओं को थमा दूँगा।”

इसके साथ ही वह देश की सरकार को फिर कोसता है कि “जब इनकी आँखों के सामने यह सब हो रहा है, तब फिर काहे को हाथ पर हाथ धरे बैठी है। गुंडों-दरिंदों, भाड़े के टट्टूओं, अर्बन नक्सलियों, ग़द्दारों के झुंड से वार्ता करके इनको काहे सिर पर चढ़ा रही है। 

“जो लोग आग लगाने की पहले से तय किए हुए बैठे हैं, आग लगाने के लिए ही यह सब कर रहे हैं, ऐसे गद्दारों से कैसी वार्ता? अरे बात-चीत तो देश को अपना मानने वाले इंसानों से की जाती है।” 

वह यहीं नहीं रुकता है, आगे कहता है, “ई जहाँ देखो वहीं घुसी रहने वाली न्याय-मूर्तियाँ बात करो, बात करो रटे जा रही हैं। अरे जब कोई तुमसे न्याय माँगने जाए, तब दो न्याय तो अच्छा भी लगे, ये कौन सी बात हुई कि न्याय माँगने वाला कोई नहीं और हम ज़बरदस्ती न्याय देने के लिए चढ़े जाएँ। 

“अरे वो गँवार खुले-आम देश को आग लगाने की बात कर रहे हैं, गाली दे रहे हैं, फिर भी पूरी दोगलई से बोलने की आज़ादी का रोना रो रहे हैं। छाती पीट रहे हैं कि हमें बोलने नहीं दिया जा रहा है। अरे गद्दारों से पहले पूछो कि बोलने को कौन कहे, सीधे आग लगा रहे हो, और धोखा दे रहे हो कि तुम्हें दबाया जा रहा है, ज़ुल्म ख़ुद कर रहे हो और दुनिया-भर में छाती पीट रहे हो कि हम पर ज़ुल्म किया जा रहा है। उन गद्दारों, उनके भाड़े के टट्टुओं के एक झुण्ड के लिए जिसको देखो वही उछल रहा है। 

“अरे दिल्ली की पाँच करोड़ जनता को भी सड़क पर चलने, बोलने की आज़ादी है। भाड़े के टट्टू सड़क जाम किए बैठे हैं। महीनों से जान-बूझकर ऐसी जगह बैठे हैं कि दिल्ली का रास्ता अस्त-व्यस्त हो जाए। सारा कारोबार चौपट हो जाए। 

“लोग ऑफ़िस, फ़ैक्ट्री काम-धंधे पर नहीं जा पा रहे हैं। सब चौपट हो रहा है। ग़रीबों के भूखों मरने की नौबत आ रही है। अरे तुम तो सबसे बड़े ताक़त वाले हो, न्याय देने वाले हो, ये कुछ सौ लोगों का झुण्ड पाँच करोड़ लोगों का जीवन नरक बनाए हुए है, इतना घनघोर अन्याय तुम्हें नहीं दिख रहा। 

“तुम तो तानाशाहों से भी बड़े ताक़तवर हो, क्यों नहीं पुलिस को, सरकार को आदेश देते कि वो देश को आग लगा रहे, पाँच करोड़ लोगों के साथ घोर अन्याय कर रहे इस झुण्ड को काल-कोठरी में झोंक दे, जिससे न्याय हो सके। तुम्हारी तो ज़बान हिलने भर की देर है, क्या से क्या नहीं हो सकता। 

“लेकिन ज़बान हिलेगी क्यों? तुम लोगों को क्या? तुम्हें तो हर चीज़ की सरकारी सुविधा है। राजाओं-महाराजाओं से ठाठ हैं। महीना पूरा होते ही वेतन मिलना ही मिलना है। और उन गुंडे बदमाशों के झुंड के पास भी, न जाने कहाँ-कहाँ से पैसा आता ही रहता है। कभी इसका भी संज्ञान ले लिया करें तो कितना अच्छा हो, देश का कितना भला हो सकता यह भी अच्छी तरह समझ ही सकते हैं। 

“न जाने कौन-कौन से तरह का कपड़ा पहने, अजीब-अजीब तरह की दाढ़ी बढ़ाए, न जाने कहाँ-कहाँ के उठाइगिरे, देश-द्रोही आकर ऐसे पैसा बहाते हैं, दलालों को देते हैं कि जैसे न जाने कितने बड़े देश के राजा हैं। साले चोरों की तरह मुँह छिपाते हुए आते हैं, दलालों गुर्गों को पैसा दे के, कानों में फुसफुसा के छछूंदरों की तरह घुस जाते हैं बिलों में। 

“नाक के नीचे देश की जड़ खोदी जा रही है, और इस सरकार के नाक, कान, मुँह में न जाने कौन सा कितना तेल भरा पड़ा है कि इसे कुछ पता ही नहीं चल रहा है, गद्दारों को समझाने, बतियाने में लगी है। दुनिया जानती है कि लातों के भूत, बातों से नहीं, लातों से ही मानते हैं, तो इनको लतियाओ, बतियाओ नहीं। जहाँ एक बार लतियाओगे तो इन गद्दारों की आंदोलन के नाम पर चल रही यह गद्दारी ठिकाने लग जाएगी। 

“गद्दारी ये करें, और मरें रोज़ कमाने खाने वाले। नहीं! ख़ाली दिहाड़ी वाले कहाँ, बड़ी-बड़ी कंपनियों में, मोटी-मोटी तनख़्वाह पाने वाले, बड़े-बड़े सेठ, दुकानदारों, की भी तो हालत ख़राब हो रही है। सारे रास्ते बंद हैं, लोग अपनी फ़ैक्ट्रियों, ऑफ़िसों, दुकानों को नहीं पहुँच पा रहे हैं। काम-काज ठप्प हैं, ताले पड़ते जा रहे हैं। मर कर्मचारी, नौकर ही नहीं, मालिक भी रहा है। फ़ैक्ट्रियाँ बंद पड़ी हैं, सब-कुछ चौपट हो रहा है।”

वासुदेव घर लौट कर स्वयं से ऐसे ही तब-तक बड़बड़ाता हुआ अपनी भड़ास निकालता रहता है, जब-तक कि उसकी पत्नी चाय-पानी दे कर यह न कहती, “लो चाय पियो और अपना दिमाग़ ठंडा रखो। अरे धरना आज नहीं तो कल ख़त्म हो ही जाएगा। भाड़े के टट्टुओं से अपनी यह धोखा-धड़ी की दुकान कितने दिन चला पाएँगे। मज़दूर कामगारों को टोपी पहना-पहना कर कब-तक दुनिया को धोखा देंगे।”

तब भी वह यह कहे बिना नहीं रहता है कि “अरे तब-तक तो हम जैसों की हालत ख़राब हो रही है। खाने-पीने के लाले पड़ रहे हैं। बच्चों के स्कूल बंद पड़े हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई बर्बाद हो रही है। और ये न सोचो कि ये जल्दी ख़त्म होने वाला है। उन सब की तैयारी बहुत लम्बी है। वह टोपी ही नहीं बुर्क़ा भी थोक में रखे हुए हैं। 

“जैसे हम-लोगों को टोपी पहनाते हैं, वैसे ही तमाम साड़ी वाली औरतों को बुर्क़ा भी पहना देते हैं। मगर मुश्किल तो यह है कि इतना पैसा भी नहीं है कि यह मकान छोड़कर कहीं और चलें, दलाल को सँभालें, नए मकान मालिक को सँभालें, क्या-क्या करें? कहाँ से लाएँ दोहरा-तिहरा ख़र्चा। चिंता तो अब दंगे को लेकर ज़्यादा हो रही है।”

“दंगा!” दया चौंकी। 

“हाँ, दंगा। जब इन गद्दारों ने देखा कि भाड़े के टट्टुओं से काम नहीं चल रहा है। इतनी अति कर दी है, आग मूत रहे हैं कि सरकार लाठी डंडा चलाए, गोली चलाए, दो-चार दर्ज़न मरें, तो छाती पीटें कि हाय हम पर जुलुम (ज़ुल्म) हो रहा है, पूरे देश में आग लगाएँ, दुनिया में देश की थू-थू कराएँ। 

“सबको बातें करते सुनता हूँ, सोशल-मीडिया पर लोग बराबर कह रहे हैं कि धरने-प्रदर्शन का यह देश-द्रोही कुटिल ड्रॉमा वाम-पंथियों, अर्बन-नक्सलियों, हर क्षण प्रधानमंत्री बनने के लिए फुदकते रहने वाले कांग्रेस के युवराज और राष्ट्रीय जोकर के दिमाग़ की उपज है। 

“इनकी इस उपज को क्रियान्वित करने वाला मास्टर-माइंड, देश-द्रोही संगठन पी.एफ़.आई. और उसके सहयोगी संगठन हैं। आंदोलन के नाम पर ये आग यह सब कई ज़िलों में फैला चुके हैं। और यहाँ दंगा कराने के लिए दूसरे प्रदेशों के तमाम ज़िलों से ख़ूनी दरिंदों, हत्यारों, नर-पिशाचों को इकट्ठा कर रहे हैं। 

“यहाँ जगह-जगह फैले उनके मददगार उन्हें अपने घरों में ठहराए हुए हैं। सोशल-मीडिया पर यह सब चल रहा है, दुनिया को दिख रहा है, लेकिन देश की सरकार इन गद्दारों की करतूत समझ के भी, इनकी कमीनगी को बर्दाश्त कर रही है, कुछ नहीं कर रही है यह मुझे, मुझ जैसे बाक़ी लोगों को समझ में नहीं आ रहा है। 

“मगर देश की सरकार की बर्दाश्त करने की इस घनघोर क्षमता से ये सब पागल कुत्तों की तरह बउरा गए हैं। इनकी हिम्मत, इनका दिमाग़ सातवें आसमान पर पहुँच गया है, तो अब सीधे दंगा करने की तैयारी में जुटे हैं। उन सब की जैसी तैयारी देख रहा हूँ, उससे तो लग रहा है कि ये जल्दी ही होने वाला है। इन सबकी बहुत बड़ी गहरी साज़िश चल रही है। 

“अंदाज़ा तुम इसी से लगा लो कि साले तख़्त, कुर्सियों पर औरतों को बैठा देते हैं। सामने की कुर्सियों पर सबसे बुज़ुर्ग, घर की खलिहर पंचायती औरतों को। जितनी औरतें होती हैं, उससे ज़्यादा गुंडे दरिंदे पीछे, आस-पास भले-मानुष का भेष धरे रँगे-सियारों की तरह खड़े या बैठे रहते हैं। इन सबके पास चाकू-छूरे, तमंचे, देसी बम सब का इंतज़ाम है। उनके हाथ खून-ख़राबे के लिए फड़क रहे हैं। वहीं पर दो-तीन ऐसी भी जगह बना रखी हैं, जहाँ यह सारे दिन खाते-पीते, अय्याशी करते रहते हैं।” 

यह सुनकर दया चकित होती हुई पूछती है, “अच्छा, लेकिन जब उन सबने दंगे की ही तैयारी कर रखी है तो फिर औरतों को काहे बैठा रखा है। और ये राष्ट्रीय जोकर कौन है?” 

दया वासुदेव की बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही है। उसका यह संशय वासुदेव को चुभ गया। वह ग़ुस्साता हुआ बोला, “दिन-भर टीवी में घुसी रहती हो, और इतना भी समझ में नहीं आता कि दुनिया को धोखा देने की यह उनकी चाल है। 

“यह सब औरतें सिखा-पढ़ा कर बैठाई गई हैं कि अगर पुलिस कोई कार्यवाई करे, लोगों को हटाने की कोशिश करे, तो तुम-लोग बेतहाशा चीखने-चिल्लाने लगना कि हाय मार डाला। बूढ़ी औरतों को भी नहीं बख्शा, महिलाओं की इज़्ज़त पर हाथ डाला, कपड़े फाड़ डाले। और ख़ुद ही अपने कपड़े फाड़ भी लेंगी। 

“उनके चीखने-चिल्लाने, झूठे गंदे आरोपों से पुलिस कुछ देर को सकते में आ जाएगी, उसके हाथ थम जाएँगे। तभी चारों तरफ़ जो भाड़े के ख़ूनी हत्यारे गुंडे घेरे रहते हैं, वह पुलिस पर पहले से ही छुपाए गए हथियारों, ईंट-पत्थरों, छूरों, तमंचों से हमला कर देंगे। इससे बड़ी संख्या में पुलिस, निर्दोष अनजान लोग मारे जाएँगे। 

“यह औरतें भी इस हमले में पूरी तरह शामिल रहेंगी। लेकिन इसके उलट हंगामा यह मचाया जाएगा कि पुलिस ने शांति-पूर्ण ढंग से धरना पर बैठे लोगों पर बर्बर अत्याचार किया। बुज़ुर्ग, युवा महिलाओं, लड़कियों पर भी गोलियाँ चलाईं। उन्हें बचाने आए मर्दों पर लाठियाँ, गोलियाँ बरसाईं। 

“और तब यह जो टीवी, अख़बार वाले हैं न, यही सब दिन-भर चीख-चीख कर पूरी दुनिया सिर पर उठा लेंगे। हंगामा करने में सबसे बड़ा रोल निभाएँगे यहीं के कई विश्व-विद्यालयों, कॉलेजों में छात्र-संगठनों के नाम पर बने देश-द्रोही संगठन, टुकड़े-टुकड़े, कैंडिल मार्च और पुरस्कार वापसी गैंग। इनका नेतृत्व करेंगे वाम-पंथी, अर्बन नक्सली और राष्ट्रीय जोकर पप्पू। अब समझ में आया न राष्ट्रीय जोकर कौन है, या तुम भी . . . 

“ये सब खोपड़ी खा लेंगे कि पुलिस वालों ने बहुत अत्याचार किया। इन पुलिस वालों को गोली मारो, फाँसी पर चढ़ाओ। बाक़ी पार्टियाँ भी सेकुलरिज़्म के नाम पर, अपनी दुकान चमकाने के लिए आग में घी डालने लगेंगी। रोज़ साले वहाँ ऐसे पहुँचेंगे ढेर के ढेर घड़ियाली आँसू बहाते हुए, जैसे इनके बाप-महतारी, लड़का-बच्चा मर गए हैं या फिर पत्नी किसी और के साथ रुपया-पैसा, गहना लेकर भाग गई है।”

दया उसका ग़ुस्सा शांत करने के लिए और जतन करती हुई कहती है, “तुम अब थोड़ी देर बच्चों को लेकर बाहर टहल आओ। कोई सब्ज़ी मिल जाए तो लेते आओ। सवेरे के लिए कुछ नहीं है, और हाँ नमक भी ले लेना, ख़त्म हो गया है। यह सब राज-काज है, इनके चक्कर में न रहो। बेवजह काहे को अपना दिमाग़ ख़राब करते रहते हो।” 

लेकिन दया का यह जतन भी सिरे से ख़राब हो गया। वासुदेव शांत होकर बच्चों को बाहर ले जाने की बात पर भड़क कर कहता है, “कैसी मोटी बुद्धि की औरत है रे। तनको दिमाग़ है खोपड़ी में कि ख़ाली गोबर भरा है। जब देखो तब बराबरी करेगी कि हमहू तोहरे तरह पढ़े हैं, बी.ए. पास हई। अरे पढ़-लिख कर परीक्षा दिए रहो या बाप-महतारी पैसा-रुपया देकर कॉपी लिखवा दिए थे, या जैसे हमरे कॉलेज में हम-सब किताबें से छाप के डिग्री ले आए थे वैसे ही पढ़े हो। 

“अरे इतनी मोटी बात समझ में नहीं आ रही है कि एक तो बाहर इतना ठंडा हो रहा है, ऊपर से घंटा-भर से बता रहा हूँ कि दंगा कराने की पूरी तैयारी है। किसी भी समय शुरू हो सकता है। लेकिन बेवक़ूफ़ गोबर-पथनी कुछ समझने के बजाय बाहर भगा रही है कि जाओ घूमो, वह भी बच्चों के साथ। 

“मेरी बातें बहुत बुरी लग रही हों तो वह साफ़-साफ़ बताओ, हम ऐसे ही चले जाएँ वहीं। बिरयानी तो खाने को मिल ही जाएगी, भले ही कुत्ता, कौवा की हो। वहाँ चौबीसों घंटे हज़ारों प्लेट बिरयानी बाँटी जा रही हैं। कइयों को खुसफुसाते हुए सुन चुका हूँ कि नगर-निगम वाले आपस में मज़ाक करते हैं कि आवारा कुत्तों को पकड़ने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ रही है। सब पता नहीं कहाँ ग़ायब हुए जा रहे हैं। 

“वहाँ इकट्ठे झुण्ड इतने मक्कार फरेबी हैं कि कह रहे हैं कि यह आंदोलन केवल सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम), ऐनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन), ऐनपीआर (नेशनल पापुलेशन रजिस्टर) के विरुद्ध नहीं बल्कि ग़रीबों, सताए जा रहे लोगों का, उन पर हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ है। 

“अरे कोई इन मक्कारों, गद्दारों से यह क्यों नहीं पूछता कि गद्दारों, सताए हुए लोगों, जब तुम इतने ताक़तवर हो कि रोज़ हज़ारों प्लेट चिकन, मटन बिरयानी, पेटी की पेटी शराब की बोतलें, सिगरेट, पान-मसाला, लाखों रुपया बाँट कर हज़ारों लोगों का झुंड महीनों इकट्ठा कर सकते हो, टेंट, कुर्सियों, तख़तों, दरियों, चादरों, मिनरल वॉटर, माइक, बिजली, चाय-कॉफी, समोसा-पकौड़ी, पर लाखों-लाख रुपए रोज़ ख़र्च कर सकते हो, तो कमज़ोर कहाँ से हो, सताए हुए कहाँ से हो। 

“सता तो तुम रहे हो गद्दारों पाँच करोड़ दिल्ली-वासियों को, काम-धंधा चौपट कर रहे हो, उनका सुख-चैन बर्बाद किए हुए हो, पूरा देश परेशान है, फिर भी देश की भलमनसाहत देखो कि तुम जैसे गद्दारों की खुले-आम गद्दारी को अभी तक बर्दाश्त कर रहा है। 

“और कोई देश होता, तो गद्दारों के ऐसे झुंडों को न जाने कब का कुचल कर, बर्बाद कर, नेस्तनाबूद कर चुका होता, दुनिया को कानों-कान ख़बर तक न होती। तुम्हारी अंधेर-गर्दी यही एक देश है जहाँ चल रही है, मगर ये सोचे रहना कि ज़्यादा बर्दाश्त करने वाला, चुप रहने वाला, जब भड़कता है तो सामने वाले की राख भी ढूँढ़े नहीं मिलती।”

वासुदेव एक स्वर में बोलता ही चला जा रहा है। दया जब समझ गई कि आज यह चुप कराए चुप नहीं होंगे तो वह ख़ुद ही चुप हो गई। उसने सोचा, लगता है कोई बात गहरी चोट कर गई है। गाँव में रहो तो दबंगों की, प्रधान की गुंडई झेलो। शहर में रहो तो यहाँ खद्दर-धारी गुंडों, गद्दारों की गुंडई झेलो। 

इन गुंडों की गुंडई के चलते, चाहे गाँव हो या शहर, कहीं भी चैन से हम जैसों को खाने-पीने, जीने का ठिकाना नहीं है। आग लगे ऐसे लोकतंत्र को। कॉलेज में प्रोफ़ेसर साहब ठीक ही कहती थीं कि ‘भारत का लोक-तंत्र तो भीड़ तंत्र बन चुका है, इससे अच्छा तो हिटलर-तंत्र है।’

बेचारी के अच्छे-ख़ासे इंजीनियर पति की रंगदारी न देने पर गुंडे ने दिन-दहाड़े भरी बाज़ार में गोली मार कर हत्या कर दी और असलहा लहराते हुए आराम से पैदल ही भाग गया था। बेचारे की लाश सड़क पर तीन घंटा पड़ी रही, तमाशा देखने वाले आगे नहीं बढ़े, और पुलिस तीन घंटे बाद आई थी टहलती हुई। 

हत्यारे गुंडे के विरुद्ध नाम-ज़द रिपोर्ट लिखवाने के लिए उन्होंने सारा ज़ोर लगाया, हाथ-पैर तक जोड़े लेकिन कमीने दरोगा ने अकड़ते हुए कहा था, “हम अपना काम अपने हिसाब से करेंगे समझी न। नौकरी कर रही हो, जवान हो। बचाओ अपने आप को, कोई कुछ कर देगा, कहीं उठा-वुठा ले गया तो हमारा काम और बढ़ा दोगी। 

“अरे वह सब ऊपर नेताजी के आदमी हैं। कहीं कुछ होने वाला नहीं है। जाओ अपने को, बच्चों को सँभालो। कॉलेज में भी तुम सब बैठे पंचायत करते रहते हो कि अरे ऐसे मारा थानेदार ने, ऐसा कहा, वैसा कहा। अरे सब इंजीनियर लूटता है। मिल-बाँट कर रहता तो काहे होता यह सब।”

बेचारी अपनी इज़्ज़त, जान, बच्चों को बचाने के लिए नौकरी छोड़-छाड़ कर न जाने कहाँ चली गईं। कॉलेज, मोहल्ले में भी डर के मारे एक आदमी नहीं खड़ा हुआ उनके साथ कि सब इकट्ठा होकर पहुँचते थाने, घेरते गुंडों के दलाल उस थानेदार को। कितनी अकेले पड़ गई थीं बेचारी। 

इनका ग़ुस्सा भी ग़लत नहीं है। वहाँ से ऐसा सोच के चले थे कि चलो देश की राजधानी है। कोई दबंग-गुंडा मारने-पीटने वाला, रंगदारी माँगने वाला नहीं होगा। आराम से कमाएँगे-खाएँगे, बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाएँगे। मगर यहाँ तो गाँव के दबंगों से भी बड़े-बड़े गुंडे हैं। सफ़ेद कपड़ा पहने यह गाँव के गुंडों से ज़्यादा ख़तरनाक हैं। देखने में साफ़-सुथरा गुंडा हैं बस। गली-गली, एक-एक नुक्कड़ पर बैठे हैं ख़ून चूसने के लिए। 

उसके मन में यह भी आया कि इस समय पति की जगह वह होती, तो वह भी इसी तरह चिल्लाती, जिस तरह वह चिल्ला रहा है, ग़ुस्सा कर रहा है। आज ज़रूर कोई ऐसी बात हुई है इनके साथ जो शायद पहले कभी नहीं हुई होगी। इसीलिए इस तरह आज बहुत दिन बाद फिर बच्चों के सामने गाली-गलौज की है। 

उसने दुध-मुँही बिटिया को बड़े बेटे के पास छोड़ा और रोज़ की तरह खाना बनाने लगी। रोज़ नौ बजे तक सो जाने की परिवार की आदत है। क्योंकि सवेरे बच्चों को स्कूल, वासुदेव को साइट पर जाना होता है, लेकिन बीते काफ़ी दिनों से इन धूर्तों के तथा-कथित आंदोलन के कारण बंद हैं। 

दया पति को चाय-पानी देकर काम में लग गई कि वह शांत हो जाए। वासुदेव ने चाय पी कर ज़मीन पर बैठे-बैठे मुँह में पान-मसाला दबा लिया। और मोबाइल में व्हाट्सएप पर लग गया। उसमें भी उसे शाहीन बाग़ के ही मैसेज ज़्यादा दिख रहे थे, जिन्हें देख-देख कर वह मुँह ऊपर करके अजीब सी आवाज़ में गाली देता। 

बीच-बीच में बाहर जाकर नाली में पीक थूक आता। और कोई दिन होता तो वह अपनी दुध-मुँही बिटिया, बाक़ी बच्चों को लेकर कुछ देर बाहर टहलता, फिर कमरे में उसको लिए हुए खिलाता, बच्चों को पढ़ाता, जिससे दया खाना-पीना, चौका-बर्तन आराम से कर लेती। 

दया काम करती हुई सोच रही थी कि आज यह डेढ़-दो बजे से पहले सोने वाले नहीं हैं। और उससे पहले टीवी भी चलने वाला नहीं है। लेकिन आधे घंटे बाद ही वह आश्चर्य में पड़ गई। व्हाट्सएप मैसेज देखते-देखते वासुदेव ने न जाने ऐसा कौन सा मैसेज देख लिया कि एक झटके में उठ कर, टीवी ऑन करके एक न्यूज़ चैनल लगा दिया। संयोग से वह दया का फ़ेवरेट चैनल था। वह भीतर ही भीतर ख़ुश हो गई। वह काम में लगी रही लेकिन कान उसके टीवी से जुड़े रहे। 

बच्चे कमरे में पड़े एक-मात्र बड़े से तख़्त पर सो गए। सब रजाई में ऐसे दुबके हुए हैं, जैसे चिड़िया के घोंसले में उसके छोटे-छोटे चूजे। वह दोनों पति-पत्नी तख़्त के बाद बची छोटी सी जगह में चटाई के ऊपर एक गद्दा बिछाकर सोते हैं। सर्दी बहुत पड़ रही है, फरवरी का महीना है, पूरी रात क्या दिन में भी काफ़ी समय कोहरे की चादर खिंची रहती है, कड़ाके की पड़ती इस ठंड के बावजूद दोनों चाह कर भी एक रजाई नहीं ले पाए हैं। पुराने से कंबल से काम चला रहे हैं। सोते समय दोनों अपनी-अपनी साल भी उसी पर डाल लेते हैं। 

खाना बनते ही दया ने बच्चों को उठा कर खिलाया, बिटिया को अपना दूध पिला कर सुला दिया। फिर दोनों ने खाया-पिया। सोने का समय हुआ तो वासुदेव एक बार फिर घर से बाहर निकला। बड़ी सावधानी से इधर-उधर देखा, फिर रोज़ की तरह घर के सामने ही कुछ देर टहलने के बजाय पान-मसाला थूक कर अंदर आ गया। 

कुल्ला करके बिस्तर में घुसते हुए कहा, “बहुत गहरी साज़िश हो रही है। सालों ने परसों से स्ट्रीट-लाइट को बंद करना शुरू कर दिया है। पता नहीं कहाँ से नए-नए चेहरे मोहल्ले भर में दिखने लगे हैं। सब चोरों की तरह आते-जाते हैं। सालों के चेहरों पर लकड़बग्घों सी मक्कारी, चालाकी टपकती है।” 

तभी दया का हाथ उससे छू गया तो वह बातों का ट्रैक बदलते हुए बोला, “तुमसे कितनी बार कहा है कि काम करने के बाद दो मिनट हाथ सेंक लिया करो। एकदम बर्फ़ जैसा ठंडा हाथ छुआ के बदन में एकदम छौंका लगा देती हो।” 

दया ने सोचा चलो पाँच घंटे बाद कुछ और बात तो बोले। असल में उसने यह जान-बूझकर किया था। वह जानती है कि उसे ठंड कुछ ज़्यादा ही परेशान करती है। इसलिए वह कई बार सोते समय ऐसे ही उसे छू-छू कर परेशान करती है। जब वह बिदकता है तो बहुत प्यार भरा ताना मारती है कि “कैसे मर्द हो, मेहरिया के हाथ भी नहीं गर्मा सकते।” 

यह ताना सुनते ही वासुदेव हर बार ताव में आ जाता है, और उसका यह ताव ख़त्म तब होता है, जब वह अपने हिसाब, तौर-तरीके से उसके हाथ गर्म करके आख़िर में यह ज़रूर पूछता है कि “क़ायदे से गरमाए गवा हाथ कि नाहीं, कि अउर गरमाई।” 

दया तब भी ताना ही मारती हुई कहती है कि “बस राहे देयो, आज बहुत गरमाए दियो हो। आगे जब ठंडाई तब गर्माना। एकै दिन ज़्यादा गरमईहो तो थक जइहो।” 

लेकिन दया की यह युक्ति आज काम नहीं आई। वासुदेव ने उसकी बात पर ध्यान दिए बिना ही अपनी बात जारी रखी कि “पूरे मोहल्ले में ऐसा सन्नाटा कभी नहीं रहता था। चेहरे उन्हीं के खिले हैं, जो शाहीन बाग़ साज़िश का हिस्सा हैं। 

“वहीं बहुत से विवश हम जैसों के भी चेहरे नज़र आते हैं। जो धरना प्रदर्शन के नाम पर साज़िश, शराब, अय्याशी, हथियारों, ईंट-पत्थरों का पूरा का पूरा इंतज़ाम होते देख रहे हैं, पूरी तैयारी पर मूक-बधिरों की तरह देश की सरकार की तरफ़ टकटकी लगाए देख रहे हैं कि उसकी आँखें खुलें, वह कठोर क़दम उठाए, क्योंकि राज्य सरकार तो उन्हें भरपूर मदद कर रही, आस्तीन के साँपों को दूध पिला रही है।”

वासुदेव आग-बबूला हो रहा है। दया खीझ रही है कि शाम से ही बोले चले जा रहे हैं, अब तो चुप हो जाएँ, कितना बोलेंगे। उसने कहा, “मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि यह सब तुमको, दुनिया को दिख रहा है तो पुलिस, सरकार को क्यों नहीं दिख रहा है, वह उन्हें पकड़ती क्यों नहीं।”

यह कह कर उसने जैसे गर्म तवे पर पानी छिड़क दिया। वह और भड़कता हुआ बोला, “बार-बार कह रहा हूँ कि बड़ी गहरी साज़िश चल रही है। परसों ही व्हाट्सएप पर एक वीडियो में इन्हीं सब के लिए एक आदमी कह रहा था कि देश-वासियों को बहुत सतर्क हो जाना चाहिए, देश के दुश्मन अब छद्म रूप धारण करके देश को आग लगाएँगे। 

“उनके एक हाथ में राष्ट्रीय-ध्वज तिरंगा तो दूसरे में संविधान होगा और उनके कपड़ों में छिपे होंगे देश को आग लगाने वाले हथियार। देशवासियों को इन रंगे हुए गद्दारों पर कड़ी दृष्टि रखनी ही होगी, अन्यथा बड़ा धोखा हो जाएगा। मैं उसकी बात को वहाँ प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। जो कुछ उसने कहा वही सब-कुछ वहाँ हो रहा है।” 

दया को कुछ देर पहले तक जो नींद आ रही थी, वह वासुदेव की बातों से कहीं ठहर गई, उसने पूछा, “लेकिन ये बताओ जब वहाँ इतने लोग बैठे हैं, तो सबके सामने शराब, नशा-खोरी, अय्याशी कैसे हो रही?” 

“हद है, तुझे मेरी बात पर विश्वास क्यों नहीं हो रहा है, अरे मैं भी वहाँ पर दस-बारह घंटे बैठ कर पानी नहीं पीटता रहता। ध्यान से देखता रहता हूँ सब। जब ये अर्बन नक्सली, बड़ी बिंदी गैंग अपनी इन बड़ी पढ़ाकू छात्राओं के साथ आती हैं, ये माइक पकड़ कर बड़ी शेरनी बनती हैं, उल्टी-सीधी बातें बोलकर आग लगाती हैं, कहती हैं हम झुकने वाले नहीं हैं, सरकार की ईंट से ईंट बजा देंगे, हमें आज़ादी चाहिए, हम आज़ादी लेकर रहेंगे। 

“सच यह है कि ये सब सच में पढ़ने-लिखने वाली नहीं, धोखेबाज़, आवारा-बदमाश, नशेड़ी अय्याश लड़कियाँ, औरतें हैं। सच में पढ़ने-लिखने वाली लड़कियों, लड़कों के पास टाइम कहाँ रहता है कि भाड़े के इकट्ठा गुंडों-मवालियों, गद्दारों के झुंड में शामिल होकर देश में आग लगाने बैठें। इन सबको अय्याशी, नशे के लिए जो पैसे चाहिए, उसके इंतज़ाम के लिए यह सब कुछ भी कर सकती हैं। 

“इन्हें पैसे देकर, कोई कहीं भी बुला सकता है, इनसे कुछ भी कहला-करवा सकता है। ये कैसे कहाँ-कहाँ मुँह मारती फिरती हैं, पहले यह सिर्फ़ सुनता था, विश्वास नहीं कर पाता था, लेकिन अब प्रत्यक्ष वहाँ सब देख रहा हूँ। पता तो वहाँ यह भी चला है कि फिल्मी दुनिया के कुछ लुटे-पिटे और वहाँ के माफ़ियाओं से जुड़े चेहरों को इन सब ने अपने पक्ष में बयान दिलवाने, माहौल बनवाने के लिए दसियों लाख रुपए दिए हैं। यह सब देख-सुनकर, उन पर नहीं ख़ुद पर आश्चर्य होता है कि पहले इन बातों विश्वास क्यों नहीं कर पाता था।” 

वासुदेव की ऐसी बातों के बाद भी दया उसकी सारी बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही है, उसने कहा, “पता नहीं आज तुम शाम से ही कैसी-कैसी बातें कर रहे हो, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। ऐसा नहीं हो सकता। वो भी पढ़ने-लिखने वाली लड़कियाँ हैं, आवारागर्दी करने थोड़ी न निकली हैं। हाँ फिल्मी लोगों के लिए मान सकती हूँ कि जब वो सब पैसों के लिए सारे कपड़े उतार कर दुनिया को अपना बदन दिखाती फिरती हैं, कैमरों के सामने ऐसे सम्बन्ध बनाती हैं, जैसे हम बंद अँधेरे कमरों में, बिस्तरों में छिप कर बनाते हैं, तो चार शब्द बोलने में उन्हें कैसा संकोच होगा।” 

अविश्वास का ढिंढोरा पीटती दया की इन बातों ने वासुदेव का ग़ुस्सा और बढ़ा दिया। उसने कहा, “हद कर दी तुमने, हम वहाँ अपनी इन्हीं आँखों से जो देख रहें हैं, वही सब बता रहे हैं, आँखों देखी बात पर तुमको विश्वास नहीं हो रहा है। वहाँ इधर-उधर बनाए गए चोर कोनों में आदमी छोड़ो, जो बड़ी-बड़ी नेता, कलाकार बनकर पहुँचती है न आग लगाने, उन सब को सिगरेट, शराब, ड्रग्स पीते, लेते मैंने ख़ुद बार-बार देखा है। 

“यह सब खाने-पीने के बाद ढेर सारा सौंफ़, इलायची मुँह में ख़ूब भरकर, कुछ देर चबाने के बाद थूक देती हैं, जिससे शराब की बदबू नहीं आए। इसके बाद च्युंगम भी चबाती रहती हैं, जिससे सचाई कोई जान न सके। वहीं उनको एक-दूसरे को चूमते-चामते, लिपटते, बेहयाई-बेशर्मीं की हद पार करते हुए भी देखता हूँ। 

“वो जो टुकड़े-टुकड़े गैंग का नेता अपने बिहार में आकर लोक-सभा चुनाव लड़ा था, वह यहीं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ता है। आतंकवादियों के लिए, गद्दारों के साथ मिलकर यहीं दिल्ली में गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहा था, भारत तेरे टुकड़े होंगे . . . अच्छा हुआ कि अपने बिहार में सारे बिहारियों ने उसको हराकर फिर यहीं भेज दिया, नहीं तो बिहार की बड़ी बदनामी होती कि इसने एक देश-द्रोही गद्दार को चुनाव जितवा दिया। 

“यह सब पढ़ने-लिखने वाले नहीं, देश की जड़ खोदने वाले हैं। इनके गैंग के गैंग हैं। इनको दुश्मन देशों से पैसा मिलता रहता है। उसी से यह ऐशो-आराम से रहते हैं। ये दस-दस, पंद्रह-पंद्रह साल से पढ़ते ही चले आ रहे हैं, आख़िर ये कौन सी पढ़ाई, रिसर्च कर रहे हैं, जो पंद्रह-सोलह सालों में भी पूरी नहीं होती। 

“इन सबके झुण्ड हैं तो कम ही संख्या में, लेकिन जहाँ भी एक आग लगाता है, वहाँ बाक़ी सारे के सारे दौड़ते-हाँफते पहुँच जाते हैं, और इतना आग मूतते हैं, मीडिया इनको इतना हाई-लाइट करती है कि हर जगह यही गद्दार दिखने लगते हैं। पढ़ने-लिखने वाले तो हमेशा अपनी किताब के साथ रहते हैं। यह जानने के बाद भी तुम हमारे ऊपर शक कर रही हो।” 

उसके बढ़े ग़ुस्से से दया थोड़ा सहम गई, उसने बड़ी नम्रता से कहा, “नहीं, मैं कोई शक नहीं कर रही, मैं तो ख़ाली . . .” 

“सुनो, तुम पहले हमारी पूरी बात सुनो, अगर यह सारे दल्ले अय्याशी नहीं करते हैं, तो जब सरदार जी प्रधानमंत्री थे, तो नेहरू विश्व-विद्यालय में कंडोम एटीएम की मशीन क्यों लगवाई थी, कि जब चाहो, तब जितना हो उतना कंडोम निकाल लो। 

“अरे मैंने व्हाट्सएप पर न जाने कितनी बार पढ़ा है कि सफ़ाई करने वाले बताते हैं कि डस्टविन में ढेरों मिलते हैं। तुम्हीं बताओ कि अगर वहाँ अय्याशी नहीं होती है, तो यूज़ किए हुए कंडोम क्यों मिलते हैं? अगर यह सब वहाँ नहीं हो रहा है, तो क्या यह कंडोम प्रेत-प्रेतनी यूज़ करते हैं? जेऐनयू में कोई पति-पत्नी तो रहते नहीं। लेकिन तुमको तो मेरी बात काटने की आदत पड़ गई है न।”

दया को लगा कि कुछ ज़्यादा ग़लत बोल गई है, तो बात को सँभालने की कोशिश करती हुई बोली, “तुम तो बेवजह ग़ुस्सा हो जाते हो, हम कहीं बाहर जाते ही कितना हैं, जो सारी बातें जान जाएँ।” 

लेकिन वासुदेव उसे अब कोई रियायत देने को तैयार नहीं है, उसने कहा, “अब बाहर जाए बिना भी सारी बातें जानी-समझी जा सकती हैं, समझी। दिन-भर टीवी, मोबाइल में घुसी रहती हो, लेकिन उसमें काम की चीज़ें तो देखोगी नहीं। डिबेट के नाम पर समाचार चैनल वाले जो मुर्गे लड़ाते हैं वो देखोगी, या आवारा भाग्य जैसे सीरियल।” 

वासुदेव का सारा ग़ुस्सा पत्नी के सबसे प्रिय सीरियल ‘कुमकुम भाग्य’ पर निकला, तो उसे थोड़ा बुरा लगा। उसने कहा, “जब देखो तब सीरियल के लिए ताना मारते रहते हो। दिन-भर टाइम ही कितना मिलता है? सुबह से लेकर रात तक काम से तो फ़ुर्सत मिलती नहीं। 

“कोई सो रहा है, तो कोई जाग रहा है। किसी को खाना खिलाना है, तो किसी को दूध पिलाना, नहलाना-धुलाना है, किसी का होम-वर्क पूरा कराना है, तो किसी का कुछ। इस बीच साँस लेने के लिए ज़रा सा टीवी क्या देख लेती हूँ, उसमें भी तुमको ग़ुस्सा आता है, बच्चों के कार्टून के चक्कर में तो कभी-कभी वह भी देखने को नहीं मिलता।” 

इसके साथ ही बात कैसे भी जल्दी ख़त्म हो, इसके लिए दया ने दूसरा रास्ता भी अपनाया। अब-तक गर्म हो चुके हाथों से प्यार भरा ग़ुस्सा दिखाती हुई पति को दूर खिसकाने की बनावटी कोशिश की, तो वह बोला, “अच्छा-अच्छा, एक तुम ही तो हो, जो दुनिया में काम करती हो। पहले यह बताओ कि हमें लगता है कि फिर से पेट फुला लिए हो, फिर तो तैयारी नहीं कर लिए हो अपनी माई से आगे निकलने की।” 

यह सुनते ही दया समझ गई कि अब गाड़ी पूरी तरह पटरी पर आ गई है, तो उसने कुछ रोब के साथ कहा, “अच्छा, कुछ नहीं सूझा तो यही सही, हमारी माई को लेते आए बीच में, हम कोई तैयारी-वैयारी नहीं किए हैं समझे। बहुत हो गए बच्चे अब और नहीं। तुम जो करने की तैयारी किए हो, उसे करो, हमें नींद आ रही है, बाद में हमें नींद से जगाना नहीं बता दे रहे हैं।” 

दया की यह कोशिश शत-प्रतिशत सफल रही, वासुदेव ने बड़ी नरमाई से कहा, “ठीक है, जो कह रही हो वही सही, तुम्हारा हाथ भी ख़ूब गरम हो गया है।”

वासुदेव की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि बिटिया की रोने की आवाज़ आने लगी, और दया हँसती हुई उठकर उसके पास चली गई। वासुदेव उसकी हँसी में छिपे व्यंग्य को समझ कर बोला, “थोड़ी देर हँस लो, उसके बाद तो हम ही हँसेंगे।” 

दया ने भी तुरंत उत्तर दिया, “ठीक है, तुम भी जितना मन आए उतना हँस लेना।” उसने सोचा चलो कम-से-कम छह घंटे बाद मनहूस शाहीन बाग़ से बाहर तो आए। 

वासुदेव सवेरे सो कर उठा ही था कि तभी पार्षद का एक चमचा हाथ में तस्वीह लटकाए आ धमका। मिलते ही बोला, “हाँ भाई-जान मिज़ाज ठीक है, काम-धंधा मज़े में है?” 

वासुदेव ने भीतर ही भीतर कुढ़ते हुए कहा, “हाँ, हाल-चाल ठीक ही है। काम-धंधा का तो रास्ता ही बंद है।” उसने सोचा पहले आते-जाते न जाने कितनी बार मिला, लेकिन कभी एक शब्द नहीं बोला, आज हाल-चाल पूछ रहा है, लगता है दाल में कुछ काला है। 

उसके मन में यह बात चल ही रही थी कि तभी तस्वीह वाले ने दाएँ-बाएँ देखकर पाँच हज़ार रुपए उसके हाथ में पकड़ा कर मुट्ठी बंद करते हुए कहा, “परेशान क्यों होते हो मियाँ, सब चल नहीं दौड़ रहा है। आज अगर हो पाए तो अपने दो-चार और लोगों को भी लेकर पहुँचना। वहाँ बढ़िया बिरयानी, छोला-पूड़ी और हलवे का भी इंतज़ाम है। जो साथ आएँगे उनकी भी दिहाड़ी नहीं मरेगी, वहाँ बैठे-बैठे दिहाड़ी से ज़्यादा ही मिल जाएगा।” 

यह कहते हुए उसने अपनी जालीदार गोल टोपी ठीक की और पहले की ही तरह आराम से चलता हुआ घने कोहरे में ग़ुम हो गया। 

वासुदेव उसे बहुत दिन से जानता है, लेकिन यह नहीं जानता है कि वह बिना कोई काम-धंधा किए अपना परिवार कैसे पालता है। ग्यारह बच्चों, तीन बेगमों सहित पंद्रह लोगों का परिवार है, ठीक से खा-पी भी रहा है, तीन कमरों में पता नहीं कैसे रह रहा है। 

वह दरवाज़े पर ही खड़ा सोचने लगा कि देखने में कितना भला-मानुष लगता है। मगर शातिर इतना है कि अपने साढू भाई के छोटे भाई की ही बीवी भगा लाया। कितना पुलिस-फाटा सब हुआ, लेकिन छोड़ा नहीं और न ही वह औरत ही अपने शौहर के पास जाने को तैयार हुई। 

कैसे बेशर्मों की तरह मोहल्ले वालों के सामने ही पुलिस से भिड़ती रही, ‘मैं अपनी मर्ज़ी से आई हूँ। यही हमारे शौहर हैं, हमें वहाँ वापस नहीं जाना। वह दिन-रात मारता है। खाना नहीं देता। हमें मर्द का प्यार चाहिए, मर्द का।’ 

उसका शौहर, परिवार के लोग, पुलिस के सामने, दुनिया के सामने प्रमाण देते रहे कि “ये, इस धोखेबाज़ आदमी के बरगलाने में फँस कर झूठ बोल रही है। हम तो इस आदमी की रिश्तेदार होने के नाते मदद करते रहे। इसकी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम कर रहे थे। मगर यह आस्तीन का साँप हमें ही डस कर चला आया। फिर मैंने औरत को तलाक़ दिया ही नहीं है, तो यह किसी और के साथ कैसे जा सकती है। यह नाज़ायज़ है।” 

पुलिस, दुनिया उसका सच समझ रही थी, लेकिन क़ानून के आगे विवश थी। क्योंकि यह और वह भगोड़ी औरत दोनों ही कहते रहे कि “हम देश का क़ानून मानते हैं। और वह हमें अपनी मर्ज़ी से किसी के भी साथ रहने का हक़ देता है। ये तलाक़ देने का ड्रामा अपने पास रखें।”

भगोड़ी बीवी तो इसी के सुर में इससे ज़्यादा तेज़ बोल रही थी कि “हमें ज़रूरत नहीं है इनके तलाक़-वलाक की, क़ानून हमें कहता है कि हम चाहे जिसके पास अपनी मर्ज़ी से चले जाएँ।” कितनी बेशर्मी से खुले-आम शौहर को ना-मर्द बताती रही। 

आख़िर क़ानून के फंदों में फँसी पुलिस झगड़ा-फ़साद न हो, यह सुनिश्चित करके चली गई। बेचारा शौहर भी अपने परिवार के साथ भरी दुनिया में अपमानित हो, हाथ मलते हुए वापस लौट गया। तमाशा देख रही भीड़ में इसका पड़ोसी बुज़ुर्ग आख़िर बोल ही पड़ा था, ‘वाह भाई, ये अच्छा है, अपने फ़ायदे के हिसाब से जब मन हो देश का क़ानून मानो, जब मन हो इस्लाम का। डरो ऊपर वाले से, इन गुनाहों का क्या जवाब दोगे वहाँ।’ 

और तब अपनों की ही पीठ में छूरा घोंपने वाला यह विश्वासघाती, मक्कार, धोखेबाज़ पूरे घमंड में ऐसे बार-बार टोपी ठीक कर रहा था, जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर लिया हो। तीनों बेगमों के बीच रोज़-रोज़ होने वाली लात-जूता, गंदी-गंदी गलियों, अश्लील बातों से पड़ोसियों की शान्ति, आराम की ऐसी की तैसी अलग किए रहता है। 

मोहल्ले-भर में फैली इस अफ़वाह का भी इस निर्लज्ज पर कोई असर नहीं है कि पहली वाली बेगम के आए दिन घर में घुसे रहने वाले अपने ममाज़ात भाई से भी रिश्ते हैं। और क्योंकि भगोड़ी बेगम इस रिश्ते में बाधक भी बन रही है, इसीलिए घर में चीख-चिल्लाहट ज़्यादा बढ़ गई है। 

वासुदेव कोहरे में उसके खो जाने के बाद भी उसी ओर बड़ी देर तक ऐसे देखता रहा, जैसे कि वह उसे दिख रहा हो। उसने मन ही मन कहा, ‘मियाँ टोपी मजबूरी में चला आता हूँ, औरों को लाकर देश से गद्दारी करने का अपना अपराध और बड़ा नहीं करूँगा। 

‘तुम अभी हमारे दिमाग़ को समझे नहीं हो, कहीं घूम गया तो जो गद्दारी की दूकान वहाँ सजा रखी है, उसे वहीं रखे गैस सिलेंडरों में आग लगा कर सेकेंडों में उड़ा दूँगा, फूँक दूँगा उसे, जो होगा देख लेंगे। कम से कम देश-वासियों, देश की बर्बादी तो रुकेगी।’

वह मन मसोस कर धरना-स्थल जिसे वह गद्दारी स्थल कहता है, वहाँ बारह बजे पहुँचा। उसके पहले महीने भर का राशन घर में भर गया था। दया ने कहा भी कि “अभी डेढ़-दो हफ़्ते का सामान है, काहे सब लेते आ रहे हो, रखने के लिए जगह भी तो चाहिए न।”

तो पहले से ही खीझे परेशान वासुदेव ने दाँत पीसते हुए कहा, “तू अपनी खोपड़ी का कचरा बाहर फेंक कर, अपना दिमाग़ किसी बात को समझने में कब लगाएगी रे। कल से बार-बार कह रहा हूँ कि दंगा ज़रूर होगा। 

“जल्दी ही किसी भी समय शुरू हो सकता है। इन सब गद्दारों ने पूरी तैयारी कर रखी है। दंगा होगा तो कर्फ़्यू लगेगा ही लगेगा। ऐसे में बच्चों, तुझको, ख़ुद को भूखा मारेंगे क्या? गद्दारों, दंगाइयों के साथ-साथ भूख की मार से भी बचना है, समझी गोबर-पथनी।”

दया उसे एकटक देखती रह गई थी, वह भावुक हो रही थी कि यह आदमी ऊपर से कितना बात-बात पर ग़ुस्सा होता रहता है, ग़ुस्सा नाक पर बैठा रहता है। लेकिन हमें, बच्चों को अपनी जान से ज़्यादा प्यार करता है। 

उस दिन वासुदेव रात को लौटा तो पहले तो घंटा-भर गाँव में माँ-बाप, भाइयों से बात की। उसके बाद काफ़ी देर तक अपने कई साथियों से बतियाता रहा। दया उसकी बातें सुन-सुन कर घबराती परेशान होती रही, खाना-पीना, बच्चों को सँभालती रही। 
जब बच्चे सो गए तो देर रात वासुदेव उसको दिन-भर जो देख-सुन कर आया था, वह सब-कुछ उसे बताने लगा कि “वहाँ गुंडई-बदमाशी इतनी बढ़ गई है, मनबढ़ई इतनी हो गई है कि अब पत्रकारों के साथ भी मार-पीट कर रहे हैं। 

“जो पत्रकार उनके मुर्गा-दारू के चक्कर में पड़ कर, उनकी गद्दारी को बहादुरी भरा क़दम बता कर, उनकी प्रशंसा के पुल गढ़ते हैं, उन्हें अपने हक़ के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा बताते हैं, उन्हें तो कोने में ले जाकर नोटों की गड्डी और किसी महिला के साथ अय्याशी भी करवाते हैं। 

“लेकिन जो ईमानदार, देश-भक्त पत्रकार उनके फेंके गए टुकड़ों को लात मार कर, देश के सामने सच लाने लगते हैं, उनकी पोल खोलने लगते हैं, जब वहाँ बैठी औरतों, आदमियों से पूछते हैं कि यहाँ क्यों बैठी हैं? किस बात का विरोध कर रही हैं? तो वो कहतीं हैं कि हमें बैठने के लिए पैसा मिल रहा है, खाना मिल रहा है, इसलिए बैठे हैं, बाक़ी हमें कुछ नहीं पता। 

“तो यह सुनते ही वह गद्दार पागलों की तरह बउरा उठते हैं, पूछने वाले पत्रकार को मार-पीट करके, उन्हें भगाने लगते हैं। आज एक टीवी पत्रकार इनकी पोल खोल रहा था तो इन सब ने उसके साथ मारपीट कर ली। दो दिन पहले एक महिला पत्रकार के साथ भी यही किया था।”

यह सुनते ही दया एकदम से बोल पड़ी, “हाँ यह तो हम भी टीवी पर देखे थे। तुम भी वहाँ पर सँभल कर रहा करो। हमें बहुत डर लगता है कि कहीं बहुत ज़्यादा लड़ाई-झगड़ा न हो जाए और पुलिस आ कर सबको पकड़ने लगे, साथ में तुमको भी ले जाए।” 

“अरे तुम भी क्या बार-बार पुलिस-पुलिस कर रही हो। वो चाहे तो इन दल्लों, गद्दारों को मिनट भर में लठिया कर जेल में ठूँस दे, फेंक दे इन्हें इनके दड़बों में, मगर उन विचारों की भी मजबूरी है। सरकार उनके हाथ-पाँव बाँधे रहती है। देश की सरकार सही मौक़े का इन्तज़ार कर रही है, क्योंकि उसे न्यायमूर्ति लोग अपना हथौड़ा दिखा-दिखा कर डराते रहते हैं। कुछ करते ही स्वतः संज्ञान लेके सरकार का आदेश ही पलट देते हैं। 

“इससे सरकार का अपमान तो होता ही है, वह गद्दारों के सामने कमज़ोर भी पड़ जाती है। गद्दार इससे और भी ज़्यादा मज़बूत हो जाते हैं। इसलिए सरकार ऐसे समय पर अपना हथौड़ा चलाएगी जब किसी के पास संज्ञान लेने का भी समय न रहे। समस्या इतनी ही नहीं और कई गुना ज़्यादा है, क्योंकि लोगों को साफ़-साफ़ दिख रहा है कि यहाँ की राज्य-सरकार ही वोट-बैंक बनाने के लिए इन गद्दारों को ख़ूब खाद-पानी दे रही है। 

“ऐसा नहीं है कि थोड़ी सी बिजली-पानी मुफ़्त देने का टुकड़ा फेंक कर, कुछ बे-रीढ़ के मुफ़्त-खोरों के चलते मुख्यमंत्री बन बैठे, गद्दारों से ही मक्कार इस आदमी को कुछ पता नहीं है। वह सब-कुछ जानता है, बल्कि मैं यह भी कहता हूँ कि उसके भी इशारे पर यह सब-कुछ हो रहा है। 

“उसको एक-एक पल की ख़बर है कि बहुत भयानक दंगा कराने की ख़ूब ज़ोर-शोर से तैयारी हो रही है। देखती नहीं कि उसके इशारे पर, उसके कई नेता लोगों का ध्यान अपनी ओर से हटाने के लिए, देश की सरकार पर रोज़ आरोप लगाते हुए चिल्लाते हैं कि ‘दंगा हो सकता है, साज़िश हो रही है जी। वो दंगा कराने की तैयारी में लगे हैं जी।’”

यह सब सुन-सुन कर दया की घबराहट और बढ़ जाती है। ऐसे में वह बड़ी बेतुकी सी बात बोल उठती है, “जब उसको सब पता है, यहाँ उसकी सरकार है तो, वह यह सब बंद क्यों नहीं करवाता, रोकता क्यों नहीं इन उत्पातियों को।” 

यह सुनते ही वासुदेव खीजता हुआ बोला, “अरे तुम तो बहुत बड़ी बुड़बक हो, बार-बार कह रहा हूँ उसकी भी सह है, वह देश की सरकार को बदनाम करने के लिए ही तो उत्पातियों को सह दे रहा है, बार-बार मनगढ़ंत आरोप लगा रहा है, दंगा हो जाने पर कहेगा, 'देखा जी, मैं तो पहले ही कह रहा था जी, ये लोग तो ऐसा ही करते हैं जी।’

“सोशल-मीडिया पर इसी लिए लोग उसे भारतीय राजनीति के, गंदे कचरे के ढेर का, सबसे घिनौना गंदा कचरा कहते हैं। सत्ता, वोट के लिए सब जितना नीचे गिर सकते हैं, ये उतने नीचे से और नीचे गिरना शुरू करता है। झूठ बोलना, आरोप लगाना, पोल खुलने पर थूका हुआ चाट लेना, उसका प्रिय शौक़ है। दूसरों पर झूठे आरोप लगाने के लिए कोर्ट में एक नहीं कई बार लिखित माफ़ी भी माँग चुका है। उसकी राजनीति थोड़े से मुफ़्तखोरों, गद्दारों पर टिकी है बस। 

“मगर अचम्भा तो इसी बात का है कि ईमानदार मीडिया, सोशल-मीडिया पर भी बहुत से लोग सच दिखा रहे हैं, लेकिन फिर भी दुनिया पता नहीं क्यों सब देख कर भी अंधी बनी हुई है, कुछ बोल नहीं रही है। कोई स्वतः संज्ञान भी नहीं ले रहा है। 

“मोहल्ले में सबके चेहरों पर ही यह सारी बातें साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती हैं, लेकिन सब चुप हैं। मैंने ख़ुद दो-चार से बात उठाई, मगर वह कुछ बोले बिना ऐसे चल दिए, जैसे मैं वहाँ था ही नहीं।”

पति की बातें सुनकर दया की चिंता एकदम बढ़ गई। उसने कहा, “जब सब चुप हैं, तो तुम भी चुप रहा करो, अकेले कहाँ क्या कर लोगे, बेवजह जान ख़तरे में डालने की ज़रूरत नहीं है। पूरे परिवार की जान पहले ही ख़तरे में है। सुनो गैस भी ख़त्म होने वाली है, कल पहले उसका कुछ इंतज़ाम करो।” 

“तुम चिंता न करो, मुझे याद है। पहले ही कह रखा है, कल दोपहर तक मिल जाएगी। ब्लैक में दुगुना दाम दे-दे कर हालत ख़राब हो गई। राशन-कार्ड बन गया होता तो गैस कनेक्शन मिल जाता। 

यह साली गद्दारों, टपोरियों की सरकार, देश के दुश्मन घुस-पैठियों के राशन-कार्ड ढूँढ़-ढूँढ़ कर बना रही है, उनको जगह-जगह मकान, प्लॉट देकर बसा रही है। मगर हम जैसे लोग जो इस देश के ही हैं, हमारा कार्ड नहीं बनने दे रही है। चार साल हो गए, मगर न इस सरकार के कर्मचारी सुनते हैं, न ही इसके नेता, दल्ले बनने देते हैं।” 

वासुदेव को चिंता के कारण न तो दया के हाथ ठंडे लगे, न ही बाद में गर्म। दोनों ही दाल-रोटी के साथ-साथ अपनी, बच्चों की सुरक्षा की चिंता में सोचते-सोचते बिना ठंडा-गरम की बात किए ही किसी समय सो गए। आज उनकी बिटिया भी नहीं रोई। एक-दो दिन ऐसे ही और बीत गए। 

ऐसी ही एक ठंड से ठिठुरती रात को परिवार रजाइयों, कंबलों में दुबका सो रहा था, बारह ही बजे होंगे कि अचानक ही तेज़ धमाके की आवाज़ से पूरा परिवार चिंहुक कर जाग गया। दुध-मुँही बच्ची तेज़-तेज़ रोने लगी, दया जल्दी से बच्ची को गोद में लेकर उसे दूध पिलाने लगी कि वह चुप हो जाए। बाक़ी बच्चे भी मम्मी, पापा बुलाने लगे। वासुदेव ने उन्हें समझाया कुछ नहीं हुआ सो जाओ। 

लेकिन तब-तक एक के बाद एक कई धमाकों ने बच्चों ही नहीं दया, वासुदेव को भी हिला कर रख दिया। दया बच्चों के पास उनकी रजाई में जाकर उन्हें चुप कराने लगी। वो सब उससे चिपके हुए काँप रहे थे, लेकिन वह स्वयं नहीं। वह स्थिति को समझने, उससे निपटने की सोचने लगी। धमाकों के बाद कहीं दूर से चीख-पुकार, गोलियों की भी आवाज़ें आने लगीं। 

वासुदेव भुनभुनाया, “आख़िर गद्दारों ने अपना असली घिनौना रूप दिखा ही दिया।” वह दरवाज़े से चिपका बाहर की आहट लेने लगा। उसने एक हाथ में किचन वाला चाकू और दूसरे हाथ में तीन फ़िट का एक सरिया पकड़ रखा है। उसने दया से कहा, “चिंता मत कर, बच्चों को सुला दे, मेरे रहते तुम लोगों तक कोई नहीं पहुँच पाएगा।”

उसकी बातों से दया को बड़ी हिम्मत मिली। वह बच्चों को समझा-बुझा कर रजाई में फिर सुलाने का प्रयास करती रही। बच्चे लाइट जलाना चाहते हैं, लेकिन उसने उन्हें समझाकर मना कर दिया। पति-पत्नी सुरक्षा की दृष्टि से अन्धेरा ही रखना चाहते हैं। 

कई घंटों तक धमाकों, फ़ायरिंग, चीख-चिल्लाहट की आवाज़ें आती रहीं। दंगाई अपना घिनौना पैशाचिक कुकृत्य करते रहे। जब-जब तक पुलिस पहुँची, दंगाईयों पर नियंत्रण करना शुरू किया तब-तक सवेरा हो चुका था। हर तरफ़ तमाम मकानों से लपटें अभी भी निकल रही थीं, सड़कों, गलियों में तमाम लोगों को बुरी तरह मारा-काटा, जलाया गया था। 

जगह-जगह लोगों के क्षत-विक्षत शव पड़े हुए थे। गद्दारों की साज़िश, तैयारी साफ़ दिख रही थी कि हर वह दुकान, मकान बिलकुल सुरक्षित था, नहीं तोड़ा-फोड़ा, जलाया गया था, जिन पर नो सीएए लिखा था। अब-तक कर्फ़्यू लग चुका था। 

घर में पूरी तरह से बंद वासुदेव न जाने कितने बरसों बाद, दिन-भर टेलीविजन पर समाचार देखता रहा, व्हाट्सएप पर तरह-तरह के आने वाले मैसेज भी। यह सब देख-देख कर उसका ख़ून खौल उठता है। नसों में जैसे अंगारे भर उठते हैं। 

बाँहें फड़कना बंद नहीं हो रहीं। उसका मन कर रहा था कि एक बड़ा सा बाँका ले आए और हर उस दंगाई का हाथ, पैर, सिर काट कर फेंक दे, जिस तरह इन दरिंदों ने निरपराध सोते हुए लोगों को मारा-काटा है, दुकानें, घर जलाई हैं। 

टीवी पर उसे पूरी तरह से जली, नष्ट हुई उस लाला की दुकान भी दिखी, जिसके यहाँ से वह सामान लाता है। टीवी रिपोर्टर साज़िश की गहराई बताते हुए दिखा रहा था, कि किराने की दुकान पर नो सीएए नहीं लिखा था, इसलिए लाला की दुकान फूँक दी गई। उससे सटी हुई टायरों-साइकिल की दुकान पर बड़ा-बड़ा लिखा था नो सीएए, वह एकदम सुरक्षित थी। पूरी बाज़ार में यही हाल था। 

समाचार देख-देख कर वह आग-बबूला होता हुआ दया से कहता है, “मेरी बात नहीं मान रही थी न, देखो मेरी एक-एक बात सही निकली कि नहीं। मैं कह रहा था कि साज़िश बहुत गहरी हो रही है। टीवी बार-बार कह रहा है कि जिस तरह एक ही समुदाय के लोगों को मारा गया है, उनकी दुकानों, मकानों में आगजनी की गई है, यह एक-दो दिन की नहीं, महीनों की तैयारी के बाद ही हो सकता है। सरकार की नाक के नीचे इतनी बड़ी साज़िश, तैयारी होती रही और सरकार सोती रही।”

वह सरकार को गाली देते हुए बोला, “सच तो यह है कि टपोरियों की राज्य-सरकार सोती नहीं रही, तुष्टिकरण के रास्ते अपना वोट-बैंक बढ़ाने के लिए, दंगाइयों को खुली छूट देकर पूरी तैयारी करवाती रही। जिससे देश की सरकार बदनाम हो, और वो अपनी कमाई, कुर्सी और ज़्यादा मोटी और मज़बूत कर सके। 

“आज अमरीका का राष्ट्र-पति डोनॉल्ड ट्रंप आया हुआ है, देश की ज़्यादा बदनामी हो, इसलिए दंगे का टाइम आज ही का चुना गया। अरे मैं कहता हूँ कि ये टीवी वाले पत्रकार भी बऊरहे हैं। इन सबको कुछ भी नहीं मालूम, सच तो दिखा ही नहीं रहे हैं। तैयारी के हिसाब से तो यह अभी शुरूआत है, अभी यह और कई जगहों पर भी फैलेगा, मेन मार्केट में आगजनी, हत्याएँ और ज़्यादा होंगी।” 

उसकी इन बातों से दया की धड़कनें और बढ़ गईं। अब उसे पति की एक-एक बात पर विश्वास हो रहा है, अविश्वास करने का कोई रास्ता उसे नहीं दिख रहा है। क्योंकि उसकी हर बात सही निकल रही है। आगे और दंगा होगा यह सुनकर उसने कहा, “सुनो, चाहे जैसे हो बच्चों को लेकर कहीं और चलो। जहाँ पर जान का ख़तरा न हो।”

उसकी बात सुनकर वासुदेव भड़क कर बोला, “दिमाग़ से एकदम ख़ाली हो गई हो क्या? कर्फ़्यू लगा हुआ है, घर से बाहर नहीं निकल सकते, और यह मूढ़मती कह रही है कि घर बदलो। सुनो, अब मेरा भी माथा बहुत ख़राब हो गया है। अब यहाँ से हम कहीं नहीं जाएँगे। कर्फ़्यू हटने के बाद भी नहीं जाएँगे, यहीं रहेंगे। 

“यह भी नहीं कि नर-पिशाच दंगाई आएँगे तो हम छिपने की कोशिश करेंगे, मरने के डर से काँपते रहेंगे और वह सूअर हमें आराम से मार-काट कर चले जाएँगे, ख़ुशी से जश्न मनाते हुए, पागलों की तरह शोर मचाते हुए। वो हमें मारेंगे तो हम भी मारेंगे। मार कर ही मरेंगे, ऐसे नहीं।”

दया को उसकी बातें, व्यवहार, बहकी-बहकी सी लगीं। उसने कहा, “कैसी बातें कर रहे हो, अरे तुम यहाँ कौन सी गोली बंदूक धरे हो, जो सैकड़ों राक्षसों से अकेले लड़ सकोगे। यह दिल्ली शहर है, अपना गाँव नहीं, कि लाठी, बल्लम, कांता, अद्धी लेकर निकल पड़े और ‘निकला हो’ आवाज़ देकर दूई-तीन दर्जन लोगों को और बुला लिया। हो गए सब इकट्ठा, जिसको चाहा उसको मार तोड़-कर गिरा दिया। अरे अपनी नहीं तो कम से कम इन बच्चों की तो सोचो, अभी तो यह सब ठीक से आँखें भी नहीं खोले हैं और तुम मरे मारे की सोच रहे हो। कैसे निर्दयी बाप हो।” 

दया की यह बात वासुदेव को चुभ गई, उसने कुछ तेज़ आवाज़ में कहा, “मैं कह रहा हूँ न कि तुम्हारे दिमाग़ में भूसा भरा है, भूसा। बार-बार कह रहा हूँ कि कोई मारने आएगा तो हम लड़ेंगे। ये नहीं कि गिड़गिड़ाएँगे। इन बिहारी हाथों में इतना दम है कि मरने से पहले आठ-दस को काट डालेंगे। जब तुम सबको बचाने का कोई रास्ता नहीं बचेगा, तो तुम सबको मार कर ही अपने प्राण निकलने दूँगा, जिससे कोई घिनौना नर-पिशाच हमारे परिवार को छू न सके।”

वासुदेव की आँखें क्रोध, घृणा से रक्ताभ हो रही हैं। लेकिन गोद में बच्ची ली हुई दया ने, इस ओर ध्यान दिए बिना ही कहा, “पता नहीं हमारे दिमाग़ में भूसा भरा है कि तुम्हारे दिमाग़ में। अरे आज-तक मार-काट पर उतारू भीड़ से कोई लड़ पाया है जो तुम लड़ लोगे। जितनी आसानी से तुमने मारने-काटने की बात कह दी, उतनी आसानी से हमको, बच्चों को, ये-ये, इस आठ महीने की बिटिया को अपने हाथों से काट पाओगे, तुम्हारी समझ . . .” 

दया की बात पूरी होने से पहले ही वासुदेव और भड़कता हुआ बोला, “ऐ बुड़बक तू एकदम चुप कर, एकदम चुप। अपनी काली ज़ुबान अब हिलाना भी नहीं। अब-तक भीड़ से वही नहीं लड़ पाया है, जिसके दिमाग़ में तुम्हारी तरह भूसा भरा रहता है, मरने से डरता है, डरपोक होता है, वो नहीं लड़ पाता। बाक़ी भीड़ से लड़ते भी हैं, जीतते भी हैं, नहीं जीत पाते हैं, तो मरने से पहले बहुतों को मार देते हैं। 

“सारागढ़ी में दस सिखों ने दस हज़ार जिहादियों के झुण्ड को मार-मार कर, काट-काट कर तब-तक अपनी चौकी को बचाए रखा, जब-तक कि उनकी दूसरी फ़ोर्स नहीं आ गई। और तू कहती है कि भीड़ से कौन लड़ पाया है। और सुन, हम भी अकेले नहीं छह जने हैं। 

“इसी घर में एक हथियार ऐसा है कि हम सेकेण्ड भर में साठ को मार देंगे। इस पूरे मोहल्ले में हर तरफ़ आग ही आग फैल जाएगी, अपने घर के साथ-साथ आस-पास के कई घर उड़ जाएँगे। और अगर भगवान ने ज़रा भी साथ दिया, तो हम यह सब करके यहाँ से आराम से बचकर निकल भी लेंगे समझी।” 

वासुदेव ने अपनी बात इतनी दृढ़ता से कही कि दया की आत्मा काँप उठी। उसकी आँखें फैल कर बड़ी हो गईं, आश्चर्य से मुँह खुला रह गया। वह पति वासुदेव को जितना जानती है, उस हिसाब से उसके मन में अविश्वास की बात आ ही नहीं सकती। 

वह आश्चर्य-चकित है, उसके मन में कई प्रश्न ज़ोर-ज़ोर से उठ रहे हैं कि ऐसा कौन सा हथियार है इस घर में, जिसके बारे में हमें पता तक नहीं है, और इन्होंने उसे कब लाकर घर में रखा, हमें बताया क्यों नहीं। उसने अब-तक अपने पति के रौद्र रूप के सामने स्वयं को सँभाल लिया है। 

ग़ुस्से से दहकती उसकी आँखों में, बिना किसी डर-संकोच के देखती हुई, उसकी ही तरह दृढ़ता से पूछा, “यह बताओ कि तुम ऐसा कौन-सा हथियार लाए हो जो सेकेंडों में साठ-सत्तर लोगों को मार कर, हम-सबको लेकर यहाँ से बचके निकल लोगे। 

“इस एक कमरे के घर में उसे रखे कहाँ हो? और सबसे बड़ी बात कि हमको आज-तक बताया क्यों नहीं? हम जब से दंगा की सुने हैं, तब से यही सोच-सोच कर परेशान हैं कि ज़रूरत पड़ जाए तो घर में एक ढंग का चाकू तक नहीं है कि अपना बचाव भी कर सकें।” 

पत्नी की बातों, उसकी दृढ़ता को देख कर वासुदेव की बाँछें खिल गईं। उसने उसकी आँखों में बहुत ही हिंसक दृष्टि से देखते हुए कहा, “चलो तुम्हारे कुछ तो हिम्मत आई। चाकू हथियार के बारे में सोची तो, और जब सोच लियो हो तो ज़रूरत पड़ने पर चला भी लोगी। जैसे ही मौक़ा मिलेगा तो छूरा भी ले आएँगे, उसको तुम्हें चलाना भी सिखाएँगे।”

दया अभी भी उसे आश्चर्य से देख रही है। उसने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा, “पहले तुम यह बताओ कि वह हथियार लाकर रखे कहाँ हो, जिससे साठ लोगों को मार दोगे, तमाम मकान उड़ा दोगे।” 

रहस्यमई हथियार को लेकर दया की प्रश्नानुकूलता, व्याकुलता अपनी जगह उचित है। उसकी बात सुनते ही वासुदेव ने किचन के लिए प्रयोग होने वाली, कोने में बनी जगह पर रखे गैस सिलेंडर को देखते हुए कहा,  “वह रहा हथियार, लाल रंग यह सिलेंडर। जो सेकेण्ड भर में साठ तो क्या पूरे झुण्ड के चिथड़े उड़ा देगा। हमला होने पर दरवाज़े के सामने रखकर इसी में आग लगा दूँगा। फटेगा तो नर-पिशाचों के चिथड़े उड़ा देगा।”

वासुदेव की आँखों में क्रूरता और भयानक हो उठी है। उसकी आँखों में ख़ून उतरा हुआ सा लग रहा है। दया पर भी जैसे उसके ही भाव, मानसिकता हावी होती जा रही है। मगर उसकी प्राथमिकता में पूरे परिवार की सुरक्षा अभी भी बनी हुई है। उसने कहा, “उनके साथ-साथ हमारे भी तो चिथड़े उड़ जाएँगे। उनसे ज़्यादा चिथड़े तो हमारे ही उड़ेंगे, इसके अलावा और कोई रास्ता क्यों नहीं ढूँढ़ते।” 

वासुदेव ने कहा, “इस समय बचने का इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। ऐसी हालत में जो भी हो सकता है, वह सब सोचा है। दरवाज़ा तुरंत तो टूट नहीं जाएगा। दो-चार मिनट तो लगेगा ही। इतनी देर में हम सिलेंडर दरवाज़े पर लगा कर, तख़्त खड़ा करके उसके पीछे आ जाएँगे। तख़त के साथ रजाई-गद्दा, ये बक्सा, सब लगा देंगे। तख़्त गद्दों की आड़ से हो सकता हम-लोग बच जाएँ। थोड़ी-बहुत ही चोट आए बस। 

“और तब हम बाहर नर-पिशाचों के बीच मची चीख-पुकार, भगदड़ का फ़ायदा उठाकर उनके बीच से निकल भागेंगे। ऐसे थोड़ी सी हिम्मत, कोशिश करने से कम से कम बचने की कुछ तो उम्मीद रहेगी। और अगर नहीं बचे, तो कम से कम आत्मा को शान्ति तो मिलेगी कि हम डरपोक कायरों की तरह, भेड़ बकरियों सी बदतर हालत में नहीं, बल्कि छह जने मरने से पहले साठ जने को मार कर मरे।” 

वासुदेव ने इसके बाद भी बार-बार उसे बहुत कुछ ऐसे समझाया-सिखाया जैसे कि पत्नी बच्चों को रण-क्षेत्र में जाने से पहले आख़िरी प्रशिक्षण दे रहा है। जब एक बार दया ने कहा कि “कोई अलग कमरा नहीं है, इन सबका बच्चों पर ग़लत असर पड़ेगा।” 

तो उसने दया की आँखों में देखते हुए कहा, “इन सबको भी अभी से बहादुर बनाना है, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।” 

यह सुनकर दया कुछ सोचती हुई बोली, “यह सब तो ठीक है, लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि अपना गाँव, अपना मकान जैसा कुछ नहीं हो सकता। भले ही एक टाइम खाए, फटा कपड़ा पहने, लेकिन रहे अपने गाँव घर में ही। इससे कम से कम कभी ऐसे घाते में तो जान नहीं पड़ेगी जैसे इस परदेस में आकर पड़ी हुई है।” 

कर्फ़्यू के चलते घर में बंद पति-पत्नी जब-तक जागते, तब-तक सुरक्षा की रणनीति पर बातें करते रहते, अपनी तैयारी और मज़बूत करते रहते, लगातार बंद रहने से परेशान बच्चों को समझाते-बुझाते चुप कराते रहते। कोशिश करते कि वो ज़्यादा समय सोते रहें। 

दूसरी तरफ़ वासुदेव का विश्लेषण, अनुमान शत-प्रतिशत सही होता गया। दंगा और ज़्यादा फैलता चला गया देखते-देखते तीन-चार दिन में क़रीब पाँच दर्जन क्षत-विक्षत लाशें मिलीं। एक आईबी अफ़सर को सूअरों ने धोखे से खींच कर उसे चाकू से छलनी कर दिया। उसके शरीर के अंग-अंग काट दिए, आँखें निकाल लीं। 

चाकुओं के चार सौ घावों से बिंधा उनका शव एक गंदे नाले में फेंक दिया। नीचता की हद यह कि नाले की गाद (सिल्ट) में जितना गहरे हो सकता था, उतना गहरे दबा दिया। यह समाचार देख कर वासुदेव ने बच्चों का भी ध्यान नहीं रखा, भयंकर गालियाँ देता हुआ बोला, “इन आस्तीन के साँपों की गद्दारी देखो, इस परिवार के यहाँ इनका दसियों साल से आना-जाना था। सूअरों ने परिवार को धोखा दिया। धोखे से काट डाला। यह अभी क्या, कभी भी विश्वास करने लायक़ न थे, न रहेंगे। 

“पार्षदी के चुनाव में उस अधिकारी, उसके परिवार से हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता फिरता था कि आपको बहुत लोग जानते हैं, हमारी इज़्ज़त आपके हाथ में है, आप चाहेंगे तो हम जीत जाएँगे। मक्कार साले ने टोपी उतार कर उनके सामने रख दी थी। जितवा दिया तो सूअर ने इस तरह एहसान चुकता किया। सालों की तैयारी देखो मिठाई वाले के पहाड़ी नौकर का हाथ-पैर काट कर ज़िन्दा आग में झोंक दिया।”

वासुदेव की क्रोधाग्नि अनवरत भड़कती ही जा रही है। वह दया को कुछ बोलने ही नहीं दे रहा है, अपनी बात ही कहता जा रहा है। सारा ग़ुस्सा उसी पर निकालते हुए बोला, “कह रही थी न कि काहे इतना सामान इकट्ठा कर रहे हो, अरे तुम्हारी बात मान लेता तो चार दिन में ही सब भूखों मर जाते।” 

उसकी इस क्रोधाग्नि से दया बेचारी अकारण ही तब-तक झुलसती रही, जब-तक पुलिस प्रशासन की सख़्ती से दंगा ख़त्म नहीं हो गया। उसे बाहर निकलने का अवसर नहीं मिल गया। लेकिन बाहर उसने जो कुछ देखा उससे उसकी क्रोधाग्नि और भड़क उठी। 

वह ऐसे कई लोगों के घर गया, जिन्हें वह जानता था और नर-पिशाचों ने उन्हें धोखे से मार दिया था। उस साथी के परिवार का रुदन देख कर वह आपे से बाहर हो गया जो अपने दुध-मुँहे बच्चे के लिए दूध लेने निकला था, और सूअरों ने उसे चाकूओं से गोदने के बाद ज़िंदा ही जला दिया था। 

उसे और कई लोगों ने पकड़ न लिया होता, तो वह बदला लेने के लिए दो-चार लोगों को मार ही डालता। इससे दंगा बदले की राह पर चल कर और भयावह रूप से फिर भड़क सकता है। सैकड़ों गुना ज़्यादा फैल सकता है। क्योंकि नेता अपनी दुकान चमकाने के लिए घड़ियाली आँसू बहाते चले आ रहे हैं। बयान-बाज़ी कर रहे हैं। 

दया के बार-बार फोन करने के बावजूद वासुदेव क़रीब तीन घंटे बाद घर वापस आया। दंगे के बाद से वासुदेव घर-बाहर जहाँ भी रहता है, ज़रा-ज़रा सी बात पर क्षण-भर में अपना आपा खो बैठता है। उसका क्रोध, आवेश तब कुछ कम हुआ, जब पार्षद को गिरफ़्तार कर लिया गया। सीसीटीवी कैमरों में वह हत्याएँ करता, करवाता, साफ़ दिख रहा था। उसके भाड़े के सैकड़ों सूअर भी पकड़े गए। 

उनमें ज़्यादातर पड़ोसी राज्यों के बड़े शिक्षण-संस्थानों के कारिंदे और धर्मांध छात्र थे। इन गिरफ़्तारियों पर सरकार को कोसते हुए उसने कहा, “मूर्खों यह पहले कर लेते तो इतने निर्दोष लोग न मारे जाते, अरबों रुपये की सम्पति नष्ट न होती, अमरीकी राष्ट्रपति के सामने शर्मिंदगी न झेलनी पड़ती . . .” 

वह और बहुत कुछ कहने जा रहा था लेकिन दया ने उसे रोक दिया। 

दंगा शांत हुआ तो विदेशी टुकड़ों पर पलने वाले संगठनों ने शाहीन बाग़ की आग फिर तेज कर दी। टोपी वाला वासुदेव के पास फिर पहुँचा, तो उसे देखते ही उसका पारा एकदम से सातवें आसमान के पार चला गया। उसने उसे किसी बात की परवाह किए बिना, बेहिचक उल्टे पाँव वापस लौटा दिया। कहा, “हमारा काम-धंधा चौपट हो गया है। हमें तो पाँच सौ देकर वहाँ बैठा देते हो बारह घंटा। ख़ुद मोटी-मोटी रक़म अपनी जेब में भरते रहते हो।”

यह सुनते ही उसने वासुदेव से बहुत ही दोस्ताना अंदाज़ में मुस्कुराते हुए कहा, “अरे भाई-जान ऐसी भी क्या बात है, चलो आज और बढ़वाते हैं . . .” 

उसकी बात पूरी होने से पहले ही वासुदेव ने ग़ुस्सा होते हुए कहा, “ऐसा है, कुछ पैसों के लिए मुझे झूठ, मक्कारी, गद्दारी का साथ देकर अपने देश, अपने लोगों के साथ गद्दारी नहीं करनी है। पाँच सौ क्या लाखों मिले तो भी नहीं चलना है। मुझे अपना काम-धंधा सँभालना है, ईमानदारी से जो मिल जाए, उससे ज़्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए। देश से, अपनों से गद्दारी करके तो एक पैसा भी नहीं।”

वासुदेव के इस व्यवहार से टोपी-वाला उसे कुछ देर भौचक्का देखता ही रह गया। कुछ क्षण पहले तक उसकी जिन आँखों में दोस्ताना भाव का सागर उमड़ रहा था, वहाँ अचानक ही क्रोध का ज्वालामुखी धधक उठा। उन दहकती आँखों से उसने वासुदेव की आँखों में देखा तो वहाँ अनगिनत ज्वालामुखी धधक रहे थे। उसने अपनी नज़रें नीची कीं और पलट कर गली में दूर होता चला गया। उसके आक़ा अगर जेल न भेज दिए गए होते, तो वह यूँ आसानी से नहीं जाता। 

दया दोनों की बातें दरवाज़े की आड़ में खड़ी सुन रही थी। टोपी वाले के जाते ही वासुदेव जैसे ही अंदर आया, वह तुरंत ही उससे भड़कती हुई बोली, “अरे न जाते तो कोई बात नहीं, लेकिन यह सब बोलने की क्या ज़रूरत थी। अब वह गुंडों-हत्यारों को इकट्ठा करके आएगा, मार-पीट करेगा।” 

यह सुनते ही वासुदेव भड़क उठा। उसने कहा, “एकदम बउरही हो का। जो आएगा उसके चिथड़े उड़ा दूँगा यह कितनी बार बोल चुका हूँ, तेरी खोपड़ी में घुसता नहीं क्या? यह साला निकम्मा, धोखेबाज़ हमको लालच देकर हमसे गद्दारी करवाएगा, जो चाहेगा वो करवाएगा। अब हमसे ज़रा भी चूँ-चपड़ की तो मैं इसकी मीडिया के सामने पोल खोल दूँगा, पुलिस को सब बता दूँगा . . .” 

वह आगे कुछ बोले उसके पहले ही दया ने कहा, “अब शांत भी रहो ज़रा, अपना दिमाग़ ठंडा रखो। यहाँ परदेश में कौन पुलिस तुम्हारी बात सुनेगी।” 

“पुलिस मेरी बात नहीं सुनेगी, तो मीडिया पुलिस को मेरी बात सुना-सुना कर उसका कान फोड़ देगी, कार्यवाई करने के लिए उसे थानों से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर देगी।”

इसके साथ ही वासुदेव ने जेब में रखे मोबाइल को छूते हुए कहा, “इसमें मैंने पहले ही तमाम वीडियो बनाए हुए हैं। भेज दूँगा मीडिया वालों को, मीडिया नहीं सुनेगी तो सोशल-मीडिया पर डाल दूँगा। जब पूरी दुनिया में फैल जाएगा तो पुलिस की हिम्मत नहीं होगी कि वह मेरी बात पर ध्यान न दे, उस मक्कार टोपी वाले पर हाथ नहीं डाले।” 

उसको ध्यान से सुन रही दया ने कहा, “यह बताओ, तुम्हीं ने बताया था कि इन सबने पुलिस वालों पर, मीडिया वालों पर हाथ उठाया, इसके बाद भी पुलिस ने इनको पकड़ा क्या?” 

यह सुनते ही वासुदेव ने दहकती आँखों से उसे देखते हुए कहा, “घबराओ मत, अपने देश की पुलिस जब ठोंकती है न तो पुश्तों तक को ठोंकती है। अपने बिहार में कभी देखा नहीं क्या?” 

“देखा, देखा भी बहुत है, सुना भी बहुत है। लेकिन यह बिहार नहीं, दिल्ली है।”

“सुन, चाहे बिहार हो या दिल्ली, अपने देश क्या, पूरी दुनिया की पुलिस एक जैसी होती है। जब ठोंकना शुरू करती है तो साँस भी नहीं लेती, बस ठोंकती रहती है।” 

दोनों की ऐसी बहसें रोज़ का क़िस्सा बन गई हैं। वासुदेव टोपी वाले को भगाने के बाद फिर से अपने काम-धंधे की तलाश में निकलने लगा। अब जब कभी-कभार टोपी वाला दिख जाता है, तो ख़ुद ही वासुदेव को सलाम ठोंकता है। हाल-चाल पूछता, मुस्कुराता है। 

उसकी मुस्कुराहट वासुदेव को बहुत कुछ कहती हुई लगती है। वह सोचता इस दोगले चेहरे के पीछे कोई बड़ी साज़िश ज़रूर चल रही है। इस पर कुछ ज़्यादा ही ध्यान देना पड़ेगा। वह रात को दया के ठंडे हाथों को गर्म करने के दौरान उसको सारी बातें बताता रहता है। 

और तब दया बराबर यह महसूस करती है कि अब वासुदेव के हाथ उसके हाथों को पहले जैसी नरमाई से गरमाने के बजाय, जैसे बहुत ग़ुस्से में भरकर, अपनी खीज उसी पर उड़ेल कर, अपना दिन भर का तनाव कम करते हैं। इतने आवेश में आ जाते हैं कि उसे मजबूरन बोलना पड़ता है, “ज़रा सँभाल के, बच्चे जाग जाएँगे।” 

लेकिन स्थितियाँ एक के बाद एक ऐसी बनती जा रही हैं कि उन्हें सँभलने ही नहीं दे रही हैं। एक दिन दया की कुछ ज़्यादा ही ठंडी हथेली को ज़्यादा ज़ोर से गर्माता हुआ वह बोला, “इस साले चीं-चं-चूं ने नई बीमारी कोरोना वायरस हर जगह फैला दी है। यहाँ दिल्ली में भी अब इसके मरीज़ ज़्यादा तेज़ी से बढ़ने लगे हैं। 

“साइट पर इंजीनियर बतिया रहा था कि ‘बहुत जल्दी ही यहाँ की भी सिचुएशन ख़राब होने वाली है। चीन और कई अन्य देशों की तरह यहाँ भी सब बंद हो सकता है। नौकरी छोकरी सब चली जाएगी। जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा।’ बड़ी चिंता हो रही है कि कहीं ऐसा न हो कि घर लौट कर फिर से भटकना पड़े, खेतिहर मज़दूर बनकर दबंगों की ग़ुलामी करनी पड़े। इंजीनियर बहुत परेशान था कि गाड़ी की क़िस्त नहीं दे पाएगा तो वह भी छिन जाएगी, क्या मुँह लेकर घर जाएगा कि गाँव से फटीचर निकला था, फटीचर ही वापस पहुँचा।”

“तो क्या सब-कुछ बंद हो जाएगा?” दया ने आश्चर्य से पूछा। 

“हाँ सब-कुछ, जैसे अभी कर्फ़्यू में बंद हुआ था वैसे ही। समझ में नहीं आता कि जब पढ़े-लिखे, बड़ी-बड़ी तनख़्वाह वाले लोग इतना डरे हुए हैं, परेशान हैं, तो हम जैसे किताब से छाप के परीक्षा पास करने वालों, राज-मिस्त्रियों की कऊन हैसियत रह जाएगी।” 

कोरोना वायरस के बारे में वासुदेव से ज़्यादा दया अपडेट है। लेकिन उसकी और बातें करके वह पति की चिंता नहीं बढ़ाना चाहती है इसलिए उसने कहा, “दिमाग़ पर इतना ज़्यादा ज़ोर न दो। जो सबके साथ होगा, वही अपने साथ भी होगा। सरकार कुछ न कुछ तो करेगी ही। हम-लोग भी जितना हो सके, उतना सामान इकट्ठा करके रख लेंगे।”

दया की बात सुनते ही एक पल ठहर कर वासुदेव ने कहा, “चलो तुम्हारी भैंस सी मोटी अक़्ल में ऐसी बातें भी घुसने लगी हैं, अब दिमाग़ का आधा क्या पूरा भार ख़त्म हो गया।”

यह कहते हुए वह कुछ ज़्यादा ही उत्साहित हो उठा कि तभी दया को लगा कि शायद कोई बच्चा जाग गया है। वह उसे किनारे हटाते हुए बच्चों के पास गई, सभी को बहुत ध्यान से देखा, सारे बच्चे बहुत गहरी नींद में सो रहे थे। लौट कर बोली, “कितनी बार कहा कि मनई की तरह रहा करो, छोटा सा कमरा है, कोई बच्चा जाग गया तो अनर्थ हो जाएगा, लेकिन तुम्हारे समझ में कुछ आता ही नहीं।” 

वासुदेव ने उसे फिर दबोचते हुए कहा, “अरे चलो सब ठीक है, वह सब अभी इतने बड़े नहीं हुए हैं कि कुछ समझ भी पाएँ। क्या करूँ, इतनी कमाई हो ही नहीं पा रही है कि दो कमरे का घर ले सकूँ।”

वासुदेव जहाँ कुछ बातें समझ कर भी न समझने की आदत का शिकार है, वहीं दया उसे हर बात समझा-समझा कर, उसके दिमाग़ में अपनी बातें पूरी तरह भर देने का कोई अवसर कभी भी नहीं छोड़ती थी। लॉक-डाउन की आशंका के चलते वह जल्दी-से जल्दी गाँव लौट चलना चाहती है। 

वह शाहीन बाग़ तमाशे के चलते क़रीब तीन महीने से नर्क बनी ज़िन्दगी से ऊब चुकी है, वासुदेव से कहती, “इन कुकर्मियों ने जैसी आग लगा रखी है, उससे अब यहाँ रहने वाला नहीं है, चलो अब गाँव में ही रहो। यहाँ के जितना पैसा वहाँ भले नहीं मिलेगा, लेकिन कुछ भी करोगे तो खाने-पीने की कमी नहीं रहेगी। 

“यहाँ आधी कमाई तो किराया और फ़ालतू के ख़र्चों में निकल जाती है। सबसे बड़ी बात अपना घर-द्वार, परिवार, अपने गाँव के लोगों के साथ रहो, तो लगता है कि दुनिया में अपने भी लोग हैं, जो दुःख-दर्द बाँटेंगे, साथ रहेंगे। यहाँ तो भीड़ में भी अकेले ही हैं, लगता है दुनिया में कोई अपना है ही नहीं।” 

लेकिन वासुदेव उसकी बात को हमेशा की तरह अनसुनी कर साथियों से लॉक-डाउन की बातें करता, अपनी आदत के विपरीत समाचार भी देखता रहता, बीच-बीच में यह भी कहता कि “आज-कल बिना इसके सारी बातें मालूम नहीं हो पातीं।”

यह सुनकर दया बोले बिना नहीं रह पाती है, कहती है कि “पहले तो गाली देते नहीं थकते थे।”

यह सुनकर वासुदेव चुपचाप मुँह दूसरी तरफ़ कर लेता है। समाचारों के आधार पर उसने तय किया कि कम से कम महीना भर का राशन इकट्ठा कर लें, बस इतनी तैयारी काफ़ी है, बाक़ी जो होगा देखा जाएगा। लेकिन लॉक-डाउन उसके अनुमान से पहले ही लग गया। उसकी तैयारियाँ अधूरी रह गईं। 

सब्ज़ी के नाम पर केवल आलू, प्याज़ थे, जो डेढ़-दो हफ़्ते में ही ख़त्म हो गए, और उसके दो हफ़्ते बाद दाल भी। दो-तीन दिन तो चावल उबाल कर नमक तेल से काम चलाया। फिर कुछ मददगार संगठनों की सूचना उसे व्हाट्सएप पर मिली, उसने उन नंबरों पर फोन किया, लेकिन वह सब फ़र्ज़ी निकले। 

सबसे बड़ी मुसीबत तो बच्चों की हो रही है। वासुदेव उनकी परेशानी देखकर व्याकुल हो जा रहा है। उसने अपने सारे साथियों से संपर्क किया। एक जगह से फिर नया नंबर मिला, उसने नोट करने से पहले पूछा, “यह नंबर सही तो है न, पहले वालों की तरह सब गड़बड़झाला तो नहीं है।”

साथी ने कहा, “मुझे भी कहीं से मिला है, बात कर लो, हो सकता है सही हो।”

उसने बड़ी आशंकाओं के साथ फोन किया, अपनी समस्याएँ बताईं तो उस व्यक्ति ने पूरा आश्वासन दिया कि “अगले कुछ घंटों में सामान लेकर आप-तक कोई पहुँचेगा। इस बार उसे कुछ आशा जगी, लेकिन पूरी तरह आश्वस्त फिर भी नहीं था। मगर मुश्किल से डेढ़-दो घंटा बीता होगा कि उसके पास एक कॉल आई, उससे उसका पूरा एड्रेस पूछा गया। 

थोड़ी देर बाद फिर फोन आया कि “दरवाज़ा खोलिए, मैं सामान ले आया हूँ।”

उसने दरवाज़ा खोलकर देखा तो खाकी पैंट, सफ़ेद शर्ट पहने, सफ़ेद टोपी लगाए, मोटर-साइकिल पर दो लोग ढेर सारा सामान लिए खड़े थे। उन्होंने केवल इतना पूछा कि ‘आपने सामान के लिए फोन किया था।’

उसके हाँ करते ही दोनों ने सामान एक कोने में रखते हुए कहा, “कोशिश यही करिएगा कि इनका प्रयोग कल शाम से करिएगा।” इतना कहकर सामान पर सेनिटाइज़र स्प्रे किया और कहा, “जब दो दिन का सामान रह जाए तो फिर फोन कर दीजिएगा।”

वासुदेव ने हाथ जोड़कर दोनों को धन्यवाद कहा। बोला, “आप लोग अपनी जान ख़तरे में डालकर अनजान आदमी की मदद के लिए आए, सच में आप लोग किसी देवता से कम नहीं हैं।”

उनमें से एक व्यक्ति ने कहा, “हमारा संगठन देश-वासियों के प्रति, अपना कर्तव्य निभाने का प्रयास सदैव से ही करता आ रहा है।”

उनके जाने के बाद भावुक वासुदेव ने दया से कहा, “हम बेवजह सुनी-सुनाई बातों पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वालों की खिल्ली उड़ाया करते थे, लेकिन देश में जब भी कहीं परेशानी आती है तो यही लोग हर जगह दिखाई देते हैं। पहले बहुत बार समाचार में भी इन्हें देखकर, इनकी हम ख़ुद ही खिल्ली उड़ा चुके हैं कि हाफ पैंटिया आ गए।”

लेकिन दया ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह मन ही मन क्रोधित होती हुई कहती रही कि मेरी बात मान कर, गाँव चले चलते तो आज भूखों मरने, दूसरों से मदद लेने की नौबत नहीं आती। वासुदेव उसके मनोभाव समझ रहा था, और यह भी कि उसकी बात न मान कर उसने वाक़ई बड़ी ग़लती कर दी है। उसने फोन कर के अपने साथियों को भी सारी बातें बताईं। 

दिन पर दिन उन दोनों की चिंता बढ़ती जा रही है कि कब-तक ऐसे ज़िन्दगी चल पाएगी। महामारी भयानक ही होती जा रही है। कहीं कोई बीमार पड़ गया तो क्या होगा। वह गाँव में परिवार के लोगों से बात करता तो वहाँ भी सब डरे सहमें ही लगते। 

दस दिन बीते होंगे कि संघ वालों का फिर फोन आ गया कि सामान की आवश्यकता हो तो बताइएगा। वासुदेव कम से कम सामान में काम चला रहा है। हर समय समाचार पर ध्यान रखता है कि स्थिति बिगड़ रही है या कि सुधर। 

देखते-देखते सर्दी विदा हो गई और मई की तपिश का अहसास कराता अप्रैल बीतने लगा, उससे कहीं ज़्यादा डरावनी स्थिति बनाते हुए कोरोना ने शाहीन बाग़ के गद्दार मक्कारों को दुम दबा कर अपने बिलों में दुबक जाने के लिए विवश कर दिया। 

ऐसे ही एक दिन यह समाचार देख कर वह भड़क उठा कि लॉक-डाउन के सारे नियम-क़ानून तोड़कर हज़ारों की संख्या में लोग एक ही जगह इकट्ठे हो गए हैं। कोरोना-वायरस के लक्षणों के बाद भी अपना इलाज नहीं करा रहे, उल्टा स्वास्थ्य कर्मचारियों पर थूक रहे हैं। 

जिधर से भी निकल रहे हैं, हर तरफ़ थूकते हुए जा रहे हैं। हर सामान यहाँ तक कि नोट, सिक्के पर भी थूक लगाकर दे रहे हैं, जो ज़बरदस्ती पकड़ कर एडमिट कर दिए गए हैं, वो नर्सों, डॉक्टरों पर थूक रहे हैं। नर्सों के सामने निर्वस्त्र होकर अश्लील हरकतें कर रहे हैं। 

एकदम हत्थे से उखड़ा वासुदेव ज़ोर-ज़ोर से कहने लगा, “यह सब तो मूर्ख पागल हैं, दुनिया के दुश्मन हैं, पूरी दुनिया जी-जान से बीमारी ख़त्म करने में लगी है, और यह पागल उसको बढ़ाने में लगे हुए हैं, गँवार कह रहे हैं कि यह ऊपर वाले ने भेजा है। लोगों को उनके गुनाहों की सज़ा दे रहा है। क़यामत आ गई है।”

दया ने उसे तुरंत चुप कराया कि कहीं बातें सुनकर पास-पड़ोस के लोग झगड़ने न आ जाएँ। लेकिन वासुदेव दिन-भर समाचार देखता और ऐसे ही अपनी कोई न कोई प्रतिक्रिया देता रहता है। अचानक एक दिन सीएम का बयान सुनकर आपे से बाहर हो गया, पुरज़ोर आवाज़ में कहने लगा, “आज-तक मेरी नज़र में इससे गंदा कोई नेता नहीं हुआ। 

“सारे नेता मिलकर जितना झूठ बोलते हैं, यह पट्ठा उतना झूठ अकेले ही बोल देता है। झूठ बोल-बोल कर सीएम बन बैठा। सीएम बनते ही हर वादों से मुकर गया और अब झूठ बोल रहा है कि इतने लोगों को रोज़ मुफ़्त खाना खिलाया जा रहा है। अरे झूठे क्या भूत-प्रेतों को खिला रहे हो, जो मीडिया वालों को भी नहीं दिख रहे हैं, या अपने दंगाई रिश्तेदारों को। सारे दंगाई, हत्यारे तेरी ही पार्टी के निकले। 

“पहले शाहीन बाग़ में गद्दारों का दंगल, फिर दंगा, अब देश का और सत्यानाश करने के लिए महामारी को हथियार बना कर लाशें बिछाने में लगा है, लाशों से अपनी गद्दी मज़बूत कर रहा है हत्यारे आदमी।”

वासुदेव की आवाज़ बढ़ती चली जा रही है। बच्चे बाप का भयानक ग़ुस्सा देखकर डर के मारे माँ के पीछे छिपे जा रहे हैं। पड़ोसी कहीं लड़ने ही न आ धमके यह सोचकर दया फिर सामने आई। बहुत क्रोधित होती हुई बोली, “तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या? काहे को बवाल कराने पर तुले हुए हो, हम सबको मरवा कर मानोगे क्या? एक तुम ही बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हो गए हो। 

“झूठा, फरेबी, मक्कार जो भी है, वो मुख्यमंत्री है, सही कर रहा है, ग़लत कर रहा है, यहाँ कोठरी में बैठे-बैठे कैसे जान सकते हो। अरे वह हम सब से ज़्यादा जानता है, इसीलिए मुख्यमंत्री बना बैठा है, और हम यहाँ पर मज़दूरी कर रहे हैं, अपना घर-द्वार छोड़ कर यहाँ जानवरों की तरह एक कोठरी में पड़े हैं, जिसमें न धूप मिले, न हवा।”

दया की भी आवाज़ काफ़ी तेज़ थी। लेकिन फिर भी वासुदेव शांत होने के बजाय कुछ क्षण उसे देखने के बाद बोला, “तुम सही कह रही हो, हम उसकी तरह न झूठ बोल पाते हैं, न घड़ियाली आँसू बहा पाते हैं, न मक्कारी कर पाते हैं, न उसकी तरह हत्यारों, दंगाइयों को पाल पाते हैं, न उसकी तरह गोरख-धंधा करवाते हैं, न ख़ुद चोर-बेईमान होते हुए, दूसरे लोगों को चोर-बेईमान कहते हैं। 

“इसीलिए वह मक्कार मुख्यमंत्री बना बैठा है, और हम क्योंकि सच में सच बोलते हैं, ईमानदार हैं, इसलिए घर-परिवार छोड़ कर यहाँ मज़दूरी कर रहे हैं, और इस दो सौ स्क्वॉयर फ़ीट के दड़बे में जानवरों की तरह ठुंसे हुए से रह रहे हैं। जिस दिन हम भी उसकी तरह हो जाएँगे, उस दिन हम भी नेता बन जाएँगे, हम भी मुख्य-मंत्री क्या प्रधान-मंत्री, राष्ट्र-पति बन जाएँगे।”

इसके साथ ही उसने दया को कई सख़्त बातें कह दीं, जिन्हें सुनकर उसका भी पारा चढ़ गया, लेकिन कुछ सोचकर उसने ख़ुद पर नियंत्रण रखा और दाँत पीसती हुई बच्चों के कारण थोड़ी धीमी आवाज़ में बोली, “आना आज हाथ गरमाने तब पूछूँगी ई सब। तब तो आवाज़, बातें कुछ और हो जाती हैं, तुम्हारा भी यह सब धोखा, झूठ-फ़रेब नहीं तो और क्या है।”

इस बग़ावत भरी धमकी को सुनकर, वासुदेव कुछ देर उसे देखने के बाद, उसी की तरह बहुत धीमी आवाज़ में बोला, “ठीक है, घबड़ाओ न, रात होने दो, पता चल जाएगा कौन, क्या, कितना गर्माएगा।”

इसके साथ ही कमरे में भयानक तनावपूर्ण सन्नाटा छा गया है। बच्चे पहले से ही डरे-सहमें दुबके हुए हैं। एक लॉक-डाउन कमरे भी लग चुका है, जो बाहर के तनाव से कहीं ज़्यादा घनीभूत है। 

लॉक-डाउन का समय जैसे-जैसे बीत रहा है, पति-पत्नी का तनाव वैसे-वैसे बढ़ रहा है। दोनों के बीच यह तनाव रात में हाथ गरमाने के समय भी अब ज़्यादा दिखने लगा है। एक दिन वह झल्लाती हुई बोली, “घर में बंद होने का मतलब यह नहीं है कि जब देखो तब हाथ गरमाने लगे, आख़िर तुम्हें हो क्या गया है, पहले तो ऐसे नहीं थे। 

“इस छोटी-सी कोठरी में न बच्चों का ध्यान रखते हो, न दिन का, न रात का। बस हाथ . . . अरे इतनी बड़ी विपत्ति आ गई है, ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ गई है। काम-धंधा सब बंद है। खाना-पानी भी बंद ही समझो। संघ वाले राशन न दे रहे होते तो अब-तक भूखों मर गए होते। यह बीमारी तो बाद में मारेगी, भूख-प्यास पहले ही मार देगी। 

“यह नहीं कि शान्ति से भगवान का नाम लें, पूजा-पाठ करें कि इस विपत्ति से जल्दी मुक्ति मिले। अरे मेरी नहीं तो कम से कम बच्चों की तो सोचो।” हाथ गरमाने के टाइम पर दया से ऐसी बातें सुनकर वासुदेव ऐसे शांत हो जाता है, जैसे कोई नटखट बालक टीचर के आते ही शांत हो जाता है, और उसके जाते ही फिर से शुरू हो जाता है। 

दोनों के बीच बड़ी तनाव-पूर्ण स्थिति बराबर बनी हुई है, और इसी बीच एक दिन रात नौ बजे के आस-पास एक-एक करके उसके कई साथियों के फोन आए कि जो लोग अपने गाँव लौटना चाहते हैं, सरकार ने उन्हें भेजने के लिए मुफ़्त व्यवस्था की है। सारी बसें फ़लाँ-फ़लाँ स्थानों पर लगी हुई हैं। 

अब दोनों में इसी बात को लेकर बहस शुरू हो गई कि चला जाए या न चला जाए। वासुदेव किसी भी सूरत में गाँव का रुख़ नहीं करना चाहता है। वह दया को समझाते हुए बोला, “देखो पहले तुम बात को समझो, गाँव पहुँचने पर बड़ी बेइज़्ज़ती होगी। 

“गाँव में घर, बाहर सब कहेंगे कि ‘बड़का क़ाबिल बनके गए थे कमाने। चार दिन बंदी नहीं झेल पाए, लुटिया डंडा झोला लड़का-बच्चा लेकर दोनों भागे वापस चले आए गाँव।’ वहाँ तो सब यही जानते हैं कि हम यहाँ कउनों बढ़ियाँ नौकरी कर रहे हैं, हर महीना तनख़्वाह मिल रही है। उन्हें क्या मालूम कि यहाँ मिस्त्री-गिरी में ज़िन्दगी खप रही है। 

“दूसरे मुझे इस मुख्यमंत्री की बात पर रत्ती-भर का भरोसा नहीं है। ये अव्वल दर्जे का मक्कार कौन सी कारिस्तानी कर दे, इसका कोई ठिकाना नहीं है। मुझे शक इसलिए भी हो रहा है कि अगर सरकार ने सच में ऐसी कोई व्यवस्था की होती तो समाचार में ज़रूर आता। 

“चोरी-छिपे व्हाट्सएप मैसेज क्यों भेजा जाता। जो मक्कार वाह-वाही लूटने के लिए गिरे से भी गिरा काम करता रहता है, बिना कुछ किए-धरे ही अपना नाम जोड़ लेता है, वह भला इस काम में वाह-वाही लूटने में पीछे कैसे रह जाएगा। मुझे तो इसमें कोई गहरी साज़िश मालूम पड़ रही है। लॉक-डाउन लगा हुआ है, बाहर निकलते ही पुलिस जेल में डाल सकती है।”

दोनों की बहस जारी ही थी कि तभी किसी ने दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक दी। दोनों ने प्रश्न-भरी नज़रों से एक दूसरे को देखा, तभी दूसरी बार फिर से खटखटाया गया। बाहर जो भी था, वह बहुत जल्दी में लग रहा था। वासुदेव ने जल्दी से एक चाकू अपने कपड़ों में छुपाया और दूसरा दया को थमा कर इशारा किया पीछे आने को। 

उसने सावधानी से थोड़ा सा दरवाज़ा खोलकर बाहर देखा, तो पार्षद का एक चमचा मुँह पर मास्क लगाए खड़ा था। दरवाज़ा खुलते ही उसने भी बस वाली सूचना दी, साथ ही कहा कि अपने सारे साथियों को भी बता दो। मुझे और लोगों को भी बताना है। इतना कहकर वह जल्दी से चला गया। 

अब वासुदेव को लगा कि व्हाट्सएप मैसेज में कुछ तो दम ज़रूर है। फिर उसने कई साथियों को जल्दी-जल्दी फोन लगाएँ तो क‍इयों ने उससे छूटते ही कहा कि ‘तुम अभी तक घर में ही पड़े हो, हम निकल चुके हैं बस में बैठने के लिए।’

इतना सुनते ही वासुदेव ने दया से कहा, “चल जल्दी कर, चला जाए नहीं तो सीट नहीं मिलेगी।” वह दोनों जितना सामान समेट सकते थे, समेट कर बच्चों के साथ चल दिए। उन दोनों के दिमाग़ में बस तक पहुँचने की जल्दी थी। 

वासुदेव के दिमाग़ में अब ऐसा कुछ नहीं चल रहा है कि गाँव पहुँचने पर लोग क्या कहेंगे, या कि लॉक-डाउन के बावजूद घर से बाहर निकल रहे हैं तो पुलिस पकड़ लेगी। वह पैदल ही चल कर जब क़रीब दो घंटे में वहाँ पहुँचे, जहाँ पर बसों के खड़े होने की बात कही गई थी, तो वहाँ एक भी बस नहीं मिली, लेकिन स्ट्रीट लाइट में आँखें जहाँ तक देख सकती थीं, वहाँ तक लोगों की भीड़ ही भीड़ दिखाई दे रही थी। 

दया ने यह सब देख कर कहा कि “लगता है हम-लोगों को आने में देर हो गई, सारी बसें चली गई हैं।”

वासुदेव से कुछ बोला नहीं गया, वह अपराध-बोध से ग्रस्त हो गया कि उसने व्यर्थ की बहस में समय बर्बाद किया, नहीं तो बस मिल जाती। वह दोनों हैरान-परेशान, सामान, बच्चों को लिए इधर-उधर भटकने लगे। जिस किसी से पूछते सबका हाल उसके जैसा ही था। सभी को उसी तरह सूचना मिली थी, जैसे उसको। एक भी बस वहाँ आई ही नहीं यह जानकर वह इस अपराध-बोध से मुक्त हो गया कि ग़लती उसकी थी। 

उसने अपने साथियों को एक-एक करके फोन किया तो उन सबका भी वही हाल था। जो जहाँ भी पहुँचा, वहाँ किसी को एक भी बस नहीं मिली। सभी एक स्वर में कहने लगे कि किसी कमीने की नहीं, इसी मक्कारों की पार्टी की यह बड़ी साज़िश है। इतने लोग सड़कों पर हैं, लेकिन एक पुलिस कहीं नहीं दिख रही है। 

इसी बहाने दिल्ली को पूर्वांचलियों से ख़ाली कराने, उनके बीच बीमारी फैला कर उन्हें मारने, महामारी को और फैला कर लॉक-डाउन को फ़ेल करने की साज़िश है। ये जो लाखों लोग एक जगह ही इकट्ठा हो गए हैं, इनमें से अब शायद ही कोई कोरोना संक्रमण से बच पाए। आख़िर मक्कार अपने उद्देश्य में सफल हो गया है। हमारे ही वोटों से गद्दी पर बैठा, हमारी ही पीठ में छूरा घोंप दिया। 

सभी अब बस से ज़्यादा कोरोना से संक्रमित होने के भय से चिंतित हो गए। दया-वासुदेव, बच्चों सहित एक ओवर-ब्रिज के नीचे बैठ गए। हर तरफ़ लोग ही लोग जमा दिख रहे हैं। परिवार बुरी तरह थक कर चूर है, चलते-चलते दया ने अचानक कुछ सोच कर बोतल में पानी भर लिया था, लेकिन वह पूरे परिवार को थोड़ी राहत देकर समाप्त हो गया। 

वासुदेव कुछ देर सुस्ताने के बाद बोला, “सवेरा हो जाए तो कमरे पर वापस चल देंगे, अब कोई मुफ़्त की बस क्या, हवाई जहाज़ भी कहेगा, तो भी घर से नहीं निकलेंगे। किसी को हो या न हो, मुझे पक्का विश्वास है कि यह मुफ़्तखोरी की राजनीति करने वाले मक्कार आदमी की ही कारिस्तानी है। उसी ने पार्टी गुंडों के ज़रिए यह अफ़वाह उड़ाई, लोगों के घर ग़लत सूचना भिजवाई। उसी की पार्टी का दल्ला ही तो मेरे पास आया था। बड़ा जल्दी में था कि सबको बताना है।” 

क्रोधित वासुदेव ने सबके सामने ही पार्टी, उसके गुंडों को कई बड़ी भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए कहा, “इसने सारे पूर्वांचलियों को ठगा है, सब इसकी साज़िश का शिकार बन गए हैं।” उसकी बात सुनकर पास-पड़ोस में बैठे लोगों का सिर उसकी ही ओर घूम गया। 

यह देखकर दया ने उसे चुप रहने को कहा। स्थिति को देखते हुए वह शांत हो गया और अपने साथियों को फोन करके पता करना शुरू किया कि कौन कहाँ पर है। सबसे बस की बात ज़रूर पूछता और जैसे ही उसे यह बताया जाता कि यहाँ भी कोई बस नहीं है तो उसके मुँह से धारा-प्रवाह गालियाँ निकलने लगतीं। मगर धीमीं आवाज़ में, जिससे किसी और के कान में उसकी बातें नहीं पड़ें। 

तभी उसे यह भी पता चला कि उसके और कई साथी भी उसी ब्रिज के नीचे कहीं बैठे हैं। उनमें से एक के बच्चे की तबीयत ज़्यादा ख़राब है, उसे एक-दो उल्टी हो गई तो आस-पास बैठे लोग उसकी कुछ मदद करने के बजाय जितना दूर हट सकते थे, उतना दूर हट गए हैं। 

यह सुनकर वासुदेव ने कहा, “घबराओ मत, बहुत देर तक पैदल चलकर यहाँ आए हो, बच्चा भी थक गया होगा, ज़्यादा दिक़्क़त हो तो हमारे पास चले आना। हम यहीं सातवें खंबे के पास हैं, जहाँ पर एक पुरानी गाड़ी खड़ी है।” 

फोन करके वह दया की तरफ़ मुड़ा, तो देखा वह ज़मीन पर लेटी हुई बच्ची को दूध पिला रही है, उसी से सटे हुए बाक़ी बच्चे सो रहे थे। वह दूध पीती बच्ची पर एक दृष्टि डालते हुए बोला, “आँचल से बिटिया को ढाँक नहीं सकती हो क्या, घर हो या बाहर, जहाँ देखो मटकी खोलकर चालू हो जाती हो।”

पहले बच्चे के बाद से ही उससे यह बात सुन-सुन कर दया के कान पक चुके हैं। उसने कुछ जवाब देने के बजाय अपने शरीर को ढक लिया। वह कुछ भुनभुनाई भी जिसे वासुदेव नहीं सुन पाया। यदि वह सुन लेता तो वह चीखता-चिल्लाता, उसने बात ही ऐसी कही थी, जो किसी भी पति को भीतर तक चुभ सकती थी। 

रात-भर हर तरफ़ से कहीं किसी बच्चे के रोने की आवाज़, तो किसी की बहस, गाली-गलौच की आवाज़ आती रही। इस बीच पुलिस की कई गाड़ियाँ आती-जाती रहीं, मगर बस के नाम पर एक रिक्शा भी नहीं दिखा। 

पुलिस प्रशासन ने इस तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया, यह जानने की आवश्यकता ही नहीं समझी कि लॉक-डाउन के बावजूद लोग इतनी भारी संख्या में सड़क पर क्यों इकट्ठा हैं। ऐसा लग रहा था जैसे कि उन्हें सब-कुछ मालूम है कि लोग यहाँ पर क्यों इकट्ठा हैं। 

अपने घर पहुँचने के लिए व्याकुल इन लोगों को, कोई भी, कुछ भी बताने वाला नहीं है। मीडिया वाले भी भोर में आकर जब गए तो सुबह होते-होते चैनल पर समाचार आने लगा। सुबह होते ही कई स्वयं-सेवी संगठनों ने लोगों को पानी और बिस्कुट आदि पहुँचाने शुरू कर दिए। 

लेकिन इनमें से ज़्यादातर एक-दो लोगों को बिस्कुट, पानी की बोतल देते हुए फोटो खिंचवा कर, वीडियो बनवा कर चलते बने। मगर संघी लोग मॉस्क, फेस-शील्ड लगाए बिस्कुट, पानी, लइया-चना, ब्रेड लोगों को देते रहे। इसकी न वो ख़ुद कोई फोटो खींच रहे थे, वीडियो बना रहे थे, न ही कोई और। 

वासुदेव, दया ने फिर से उन्हें जन-सेवा में लगा देख कर एक दूसरे को देखा। दया ने कहा, “यह बेचारे अपनी जान ख़तरे में डालकर, जहाँ देखो वहाँ हर किसी की मदद के लिए पहुँच जाते हैं, लेकिन इनके पास इतने पैसे कहाँ से आते हैं।”

वासुदेव ने उसके पैकेट से बिस्कुट निकालते हुए कहा, “न ये किसी से पैसा लेते हैं, न कोई इनको पैसा देता है, यह सब-लोग आपस में मिलकर अपने पास से सारी व्यवस्था करते हैं। यह सभी कहीं न कहीं नौकरी, या काम-धंधा करने वाले लोग हैं। गाँव के मास्टर साहब, प्रधान को नहीं देखा, कैसे उन लोगों का पूरा परिवार लगा रहता है।”

दोनों अब-तक संघियों से मिले पानी, बिस्कुट, ब्रेड बच्चों संग खा-पी चुके थे। जिससे उन्हें बड़ी राहत मिली थी। दया ने लइया-चना सहित बाक़ी चीज़ें भी, बच्चों के लिए बचा कर बैग में रख दीं। जो खाने-पीने के बाद फिर माँ से चिपके ज़मीन पर ही सो रहे थे। 

जब अँधेरा छटने लगा, आसमान से तारे ग़ायब हो गए, दूर सामने क्षितिज रेखा केसरिया होने लगी तो वासुदेव कमरे पर वापस चलने की सोचने लगा, वह सवेरे-सवेरे ठंडे मौसम में ही लौट जाना चाहता है। 

लेकिन उसके मन के किसी कोने में बस की आस अब भी बनी हुई है। इसलिए उत्सुकता भरी दृष्टि से लोगों को, इधर-उधर हर तरफ़ देखता है कि शायद कहीं कोई बस दिखाई दे, लेकिन अगर कुछ उसे दिखाई देता है तो सिर्फ़ पुलिस-प्रशासन की गाड़ियाँ, जो पता नहीं क्या देखती हुई, आगे जाकर ओझल हो जाती हैं। 

अंततः धूप तेज होते देखकर वह सामान उठा कर चलने लगा। दया ने अब-तक बच्चों को उठा कर फिर से बिस्कुट पानी खिला-पिला दिया था। वह कुछ क़दम ही चले थे कि एक के बाद एक कई बसें आती नज़र आईं। वह दया के साथ कुछ उत्सुकता आशा के साथ ठहर गया। बसें एक-एक करके उनसे थोड़ी दूर पर रुकती गईं। 
उनसे आगे पुलिस वाले थे, उन्होंने जब भीड़ को यह बताया कि ये बसें उनको लेकर घर तक जाएँगी तो भीड़ की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। मारे ख़ुशी के लोगों की आँखें चमक उठीं कि अब वह अपने गाँव, घर-द्वार पहुँच जाएँगे। 

पुलिस वालों की ढुल-मुल व्यवस्था के चलते बस में बैठने को लेकर ख़ूब धक्का-मुक्की हुई, झगड़े तक की नौबत आ गई। कोरोना से बचने के लिए सेंट्रल गवर्नमेंट की गाइड-लाइन सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ ख़ूब उड़ती रहीं। 

धक्का-मुक्की, रेलम-पेल के बीच वासुदेव परिवार सहित एक बस में बैठ गया। सभी प्रवासियों के चेहरे पर ख़ुशी चमक रही है। सबको पूरा विश्वास हो गया है कि वे अब अपने-अपने गाँव-घर ज़रूर पहुँचेंगे। सब के सब प्रदेश सरकार की ख़ूब प्रशंसा करने लगे। 

दया ने बच्ची को दूध पिलाते हुए वासुदेव से कहा, “हम बार-बार कहते हैं कि किसी को ठीक से जाने बिना कुछ न कहा करो, मगर मेरी बात काहे सुनोगे। आख़िर बस भेजी ही गई। अरे घर के काम-काज में देर-सबेर हो जाती है, ये तो सरकारी काम-काज है। लेकिन नहीं, मार गाली-गलौज किये जा रहे थे। परदेश का मामला है, कहीं कोई लड़ाई-झगड़ा कर बैठे तो और जी का आफ़त। लेकिन हम कह रहे हैं, तो कैसे सुन लेंगे कोई बात।” 

अब-तक चुप बैठा वासुदेव फिर भड़क उठा, तमतमाते हुए बोला, “ऐसा है, ठीक से जानो-सुनो तुम, हमें अब भी बिलकुल विश्वास नहीं है। वो मक्कार अपनी मक्कारी, धोखेबाज़ी से बाज़ आ ही नहीं सकता, इसके पीछे ज़रूर कोई न कोई चाल है, समझी। उसके असली चेहरे की तरह, जल्दी ही उसकी यह चाल भी सामने न आ जाए तो कहना। 

और हमको ज्ञान देने से पहले, ये अपनी मटकी बंद करके दूध पिलाना सीखो पहले। दस साल से कह रहा हूँ, लेकिन समझ नहीं आ रहा है। किसी औरत को आज-तक देखा है बच्चे को ऐसे दूध पिलाते हुए, घर हो बाहर, सड़क हो बस, जहाँ देखो मटकी की प्रदर्शनी लगाए बैठी हैं, आओ, मुफ़्त (मुफ्त) में देखो प्रदर्शनी। हँ . . .अ . . . हमको ज्ञान दे रही हैं।”

दया को अंदाज़ा नहीं था कि वह बच्ची को दूध पिलाने के ढंग को लेकर इतना ग़ुस्से से भरा बैठा है। और बहाना ढूँढ़ रहा था उस पर बरसने के लिए। वह कहना तो चाहती थी कि तुम लोग देखते ही काहे हो कि हम छिपाते फिरें। दुनिया में मटकी देखते, खंगालते फिरते होगे, तभी ख़ुद पर आई तो बौखलाए बिदक रहे हो। लेकिन वह चुप रही और बच्ची को आँचल में ढँक लिया, कुछ ऐसे कि कुछ न दिखे, ख़ासतौर से . . . तभी बेटे ने पूछा, “अम्मा घर कब पहुँचेंगे?” तो उसने कहा, “जल्दिये पहुँचेंगे बेटा।” 

उसकी आवाज़ में घर पहुँचने की आशा, विश्वास दोनों झलक रहे थे, लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि अभी तो पहाड़ सी समस्याएँ उनकी प्रतीक्षा कर रही हैं। वह जिस शासन-प्रशासन को धन्यवाद दे रहे हैं, प्रशंसा कर रहे हैं, जल्दी ही उनके मुँह से इनके लिए गालियाँ निकलेंगी, अच्छी भावना बदल जाएगी। 

क्योंकि प्रदेश सरकार ने उन्हें घर तक पहुँचाने के लिए नहीं, बल्कि उनसे मुक्ति पाने के लिए षड्यंत्र के तहत यह बसें भेजी हैं। जो उन्हें ऐसे अधर में छोड़ने वाली हैं, जहाँ उनसे न जीते बनेगा न ही मरते। ज़िन्दगी का वो नर्क देखने-भोगने वाले हैं, जिसके बारे में उन्होंने न कभी सोचा होगा, न सुना होगा, न देखा होगा। 

कोविड-१९ के सारे प्रोटोकॉल की धज्जियाँ उड़ातीं, लोगों को ठूँस-ठूंस कर बैठाए हुए बसें, फर्राटा भरती जो चलीं, तो सुबह नौ बजते-बजते दिल्ली बॉर्डर से उत्तर-प्रदेश बॉर्डर में प्रवेश कर चार-पाँच किलोमीटर आगे जाकर रुक गईं। और सबको तुरंत ही जल्दी-जल्दी उतर जाने के लिए कहा। 

असमंजस उहा-पोह में डूबे लोग जब-तक कुछ समझते तब-तक बसें उन्हें उतार कर वापस दिल्ली की ओर ऐसे भागीं, जैसे कोई उनका पीछा कर रहा हो। लोग सड़क पर अब-तक काफ़ी तेज हो चुकी धूप में, ठगे से उनको आँखों से ओझल होते हुए देखते रह गए। 

किसी को कुछ देर समझ में ही नहीं आया कि हुआ क्या, जब समझ में आया कि उनके साथ धोखा हुआ है, तो उन सब ने अपना सिर पीट लिया। रात-भर के सब थके-हारे, नींद से बोझिल होती आँखें, क्षण प्रति क्षण तेज होती जा रही धूप में सब बिलबिलाने लगे हैं। कहीं भी दूर-दूर तक छाया नाम की चीज़ नहीं है। 

है तो धूप में चमकती, दूर तक चली जा रही सड़कें, हर तरफ़ धूल-मिट्टी, और लोगों की तरह-तरह की बातें ही बातें, भूख-प्यास से बच्चों का रोना-चिल्लाना इसके अलावा और कुछ नहीं। 

जैसे दिल्ली में ब्रिज के नीचे वासुदेव को हर तरफ़ भीड़ ही भीड़ दिख रही थी, वैसे ही यहाँ भी हर तरफ़ लोग ही लोग हैं। घंटों बीत गए लेकिन शासन-प्रशासन का एक भी आदमी नहीं दिखा। बच्चों का रोना, चीखना-चिल्लाना धूप की तरह बढ़ता ही जा रहा है। 

महिलाएँ अपने बच्चों की तकलीफ़ देख-देख कर रो पड़ रही हैं। कुछ मर्दों की भी आँखों से आँसू निकल-निकल आ रहे हैं। मगर वहाँ कौन है, जो उन्हें, उनकी हृदय बींध देने वाली पीड़ा को देखता, समझता, महसूस करता। 

सूर्य-देव भी मानो उनके साथ हुए इस पाशविक अत्याचार से क्रुद्ध होकर अपना रौद्र रूप दिखाने पर तुले हुए हैं। जिससे अंततः धोखा खाए, अपने घरों को लौटने को आतुर ग़रीब ही झुलस रहे हैं। मार चाहे जैसी भी हो, शिकार आख़िर ग़रीब ही होता है, और वहाँ लगा लोगों का यह हुजूम शिकार बन गया है, उस मक्कार का जिस पर उन्होंने आँख मूँद कर भरोसा किया था। 

यह सभी अपने भरसक हर कोशिश करने लगे कि कैसे भी हो आगे बढ़ें, और कम से कम पानी की कुछ तो व्यवस्था हो। सभी अपने-अपने सारे साथियों, रिश्तेदारों को फोन करके कुछ व्यवस्था करने की विनती कर रहे हैं। 

मगर कोरोना का भय इतना कि सबको बस आश्वासन ही आश्वासन, बातें-ही बातें सुनने को मिल रही हैं। इन्हीं बातों में निकल कर आया कि मीडिया वालों को फोन करो, सारी स्थिति को बताते हुए, पूरी भीड़ का वीडियो बनाकर व्हाट्सएप पर डालो। सबके सामने समस्या मोबाइल की बैटरी ख़त्म होने की भी आ रही है। 

हज़ारों लोगों की हैरान-परेशान भीड़ सुलगती सड़क पर रुकने के बजाय आगे बढ़ने लगी हैं। वासुदेव के पास भी आगे बढ़ने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है। रात-भर का थका-माँदा समूह आगे बढ़ता जा रहा है। 

बहुतों के पैरों में छाले पड़ गए हैं। बहुतों के तो वह छाले फूट भी चुके हैं। फूटे छालों के घाव की पीड़ा, चालीस डिग्री की तप्ती गर्मीं में भीतर तक वेध रही है। गर्म हवा के थपेड़े झुलसाए दे रहे हैं। 

सभी के गले सूखी बंजर भूमि से हो रहे हैं। डिहाइड्रेशन के कारण सब की हालत बदतर होती जा रही है। मगर अपने-अपने बच्चों के प्राणों को बचाने के लिए उनके क़दम ठहर नहीं रहे हैं। 

वासुदेव अपने एक बच्चे को गोद में, तो दो बच्चों को कंधों पर बैठाए हुए है। बैग सिर पर रखे है। दया की गोद में सबसे छोटी बच्ची हाँफ रही है। चलते-चलते कई लोग गिर जा रहे थे। पस्त हो कर जलती ज़मीन पर ही पसर जा हैं। 

लेकिन कोई किसी के लिए चाहते हुए भी ठहर नहीं रहा है। समूह को आगे निकलता देख कर, ज़मीन पर गिरा हुआ आदमी सारी ताक़त समेट कर गिरता-पड़ता आगे बढ़ने लगता है। समूह की ज़िद आगे बढ़ते रहने की थी, तो अंततः मंज़िल के शुरूआती पड़ाव को सामने आना ही पड़ा। 

दो घंटे बाद समूह एक क़स्बे में प्रवेश कर ठहरने लगा है। वह क़स्बे की बाज़ार में है, जहाँ लॉक-डाउन के कारण गंभीर शान्ति है। सभी दुकानों के सामने बैठते जा रहे हैं, बैठ क्या रहे हैं, बल्कि एक तरह से वहाँ गिरते जा रहे हैं। दुकानों के आगे इक्का-दुक्का पेड़ भी हैं। उनसे उन्हें कोई छाया तो नहीं, हाँ सीधी पड़ती धूप से राहत ज़रूर मिल रही है। 

मगर एक चीज़, जिसकी उन्हें जान बचाने के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वह सिरे से ही नदारद है। दूर-दूर तक पानी का नामोनिशान नहीं है। जैसे वहाँ किसी को पानी की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। समूह के तमाम सदस्यों ने आस-पास का कोना-कोना छान मारा, लेकिन उन्हें हर तरफ़ निराशा ही हाथ लगी। 

भरी दोपहरी में सब भूखे-प्यासे, छालों के दर्द से कराहते पड़े हैं। कई बच्चों क्या, बड़ों की भी जान पर बन आई हैं। मगर तभी समूह के भाग्य ग्रह थोड़ा मंगलकारी स्थिति में प्रवेश कर गए, प्रशासन की दो गाड़ियाँ उनके बीच आकर रुकीं, उसे देखते ही लोग उसकी तरफ़ लपके तो पुलिस की गाड़ी से अनाउंस किया गया, “आप लोग अपनी जगह बैठे रहिए। आपको घर भेजने के लिए गाड़ियों की व्यवस्था की गई है, वह कुछ ही देर में आ रही हैं।” 
तभी समूह से पानी-पानी की आवाज़ उठी तो अब-तक गाड़ी से बाहर आ चुका अधिकारी बोला, “पानी भी आ रहा है, थोड़ा धैर्य रखें। आप लोगों की सुविधा के लिए प्रशासन ने सारी व्यवस्था की है। हम आपकी स्थिति के बारे में पूरी जानकारी ले चुके हैं। आप-लोग निश्चिन्त रहिए, अब आपको कोई कष्ट नहीं होने दिया जाएगा।”

यह सुनकर वासुदेव भुनभुनाया, “बसें तो उस मक्कार ने भी भेजी थीं, आधी रात को हमें धोखे से घर से निकाल कर, अंगार बनी सड़कों पर फिंकवाने के लिए। कहीं तुम भी वही क़िस्सा न दोहराओ। अबकी यह तय मान लो कि धोखाधड़ी हुई तो बसें फूँके बिना नहीं छोड़ेंगे, भले ही जान चली जाए। बस से उतरेंगे तभी जब घर आ जाएगा।”

वह कुछ और भी बोलने जा रहा था, लेकिन तभी दया ने उसे रोक दिया। इस बीच खाने-पीने की चीज़ों से भरी दो गाड़ियाँ आ गईं। जिसे देखते ही समूह में एकदम से हलचल मच गई। इस हलचल को प्रशासन के लोगों ने किसी तरह नियंत्रण में रखते हुए सभी को पानी, बिस्कुट दिया। 

साथ ही यह भी कहा कि सभी अपने चेहरे को अगौंछा, रुमाल या जिसके पास जो भी कपड़ा है, उसी से ढक लें। प्रशासन की इस व्यवस्था ने समूह की जान में जान डाल दी। क‍इयों ने कहा कि यहाँ का सीएम योगी महात्मा है, तभी यह सब हो रहा है। 

एक महात्मा से ज़्यादा कौन समझ सकता है हम ग़रीबों, इंसानों का दर्द। आधा घंटा बीतते-बीतते एक के बाद एक कई बसें आईं, सबको लेकर उनके ज़िलों की तरफ़ बढ़ गईं। बैठते-बैठते लोगों ने, प्रशासन के लोगों से लेकर क्लीनर, ड्राइवर तक, सबसे बार-बार पूछा, “भैया अबकी बीच राहे में तो नहीं छोड़ेंगे न। ज़िले तक तो पहुँचा देंगे न।” सभी के बार-बार हाँ बोलने पर भी लोगों के मन में संशय कुलबुलाता रहा। 

वासुदेव एकदम पीछे वाली सीट पर परिवार सहित बैठा है। उसकी दुध-मुँही बच्ची की तबीयत ख़राब लग रही है। बाक़ी बच्चों की भी पस्त हालत देखकर दया की आँखों से आँसू निकल रहे हैं। वासुदेव की भी चिंता बढ़ रही है। 

उसकी दृष्टि बस में लगी टीवी पर चल रहे समाचार पर बराबर लगी हुई हैं। यह देखकर उसके मुँह से फिर गालियाँ निकलने लगीं कि दिल्ली के मक्कार के द्वारा, आधी रात को धोखे से, घर से निकाल कर, प्रदेश के बार्डर से बाहर फेंकने के कारण भगदड़, परेशानियों के चलते तीन बच्चों सहित पाँच लोग मर गए हैं। 

दया ने फिर उसे किसी तरह चुप कराने का प्रयास किया लेकिन वह चुप नहीं हुआ। दिल्ली सरकार को वह मक्कार सरकार कहके उस पर बरसने में लगा है। उसकी बातों को सुनकर लोग मुड़-मुड़ कर उसकी तरफ़ देखते हैं। कुछ तो उसके सुर में ही सुर मिलाने लगे हैं। जिससे बस बहसबाज़ों का अड्डा लगने लगी है। 

दया इससे बहुत डर गई है, वह बार-बार उसे जितना चुप कराने की कोशिश कर रही है, वह उतना ही ज़्यादा आक्रामक होता जा रहा है। उसने उसे बीमार बिटिया का वास्ता दिया, साफ़-साफ़ कहा कि “काहे बवाल करे पर उतारू हो, कंडक्टर ने कहीं बस से नीचे उतार दिया न, तो सारी नेता-गिरी भूल जाओगे।”

लेकिन वह चुप तब हुआ जब शोर बढ़ने पर क्लीनर ने आकर उसे बहुत हड़काते हुए कहा, “ऐसे शोर मचाएगा तो ड्राइवर साहब गाड़ी कैसे चलाएँगे।” 

उसने दया की बात दोहराई, “ज़्यादा राजनीति करनी है तो नीचे उतर जाओ। तुम लोगों को परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। सरकार अपना काम कर रही है, बसों, पानी, नाश्ते हर चीज़ का तो इंतज़ाम कर दिया है, फिर काहे शोर मचा रहे हो।”

क्लीनर की डाँट से वासुदेव के साथ जो अन्य लोग चालू हो गए थे, वह सब भी शांत हो गए। ड्राइवर बस तो बहुत तेज़ चला रहा है, लेकिन लॉक-डाउन के कारण जगह-जगह बाधाएँ आ रही हैं। 

जिससे सफ़र लंबा खिंचता जा रहा है, लेकिन सबको संतोष है कि चलो चार-छह घंटा लेट ही सही, घर तो पहुँचेंगे। मगर इन भोले-भाले लोगों को यह नहीं मालूम है कि कोरोना से निपटने के लिए जो तैयारियाँ हर जगह की गई हैं, उससे उनके सामने असली संकट तो अब आने वाला है। 

हालाँकि रास्ते में कई जगह उन्हें खाने-पीने की चीज़ें मुहैया कराई गईं, जिससे उन्हें काफ़ी राहत मिली है। मगर लंबे होते जा रहे सफ़र ने उन सब को बुरी तरह थका कर रख दिया है। जब यह लोग बाइस-तेईस घंटे बाद अपने गाँव की सीमा पर पहुँचे, तो वहाँ के प्रशासन ने उन्हें वहीं रोक लिया। सबको उतार कर सड़क किनारे पेड़ों के नीचे बैठा दिया। 

सुबह के ग्यारह बजने वाले हैं, दिल्ली छोड़े इन सब को क़रीब तीस-बत्तीस घंटे हो गए हैं। धूप तेज़ और चमकीली होती जा रही है। घने पेड़ों के बावजूद गर्म हवा के थपेड़े हलकान कर रहे हैं। इसके बावजूद सबके चेहरे पर धूप ही की तरह एक ख़ुशी चमक रही है कि अपने गाँव पहुँच गए हैं। 

थोड़ी देर में अपने घरे-द्वारे, अपने परिवार के सारे लोगों के साथ होंगे। अपना दुख-दर्द बाँटेंगे। क़रीब तीस-बत्तीस घंटे बाद ढंग से खाना-पानी मिलेगा। जी-भर के खाएँगे-पिएँगे और तीन-चार दिन जी-भर के आराम करेंगे। बदन का पोर-पोर क्या रोंया-रोंया थक कर चूर हो गया है। 

मगर उनकी सारी आशाओं पर प्रशासन ने यह कहते हुए पानी फेर दिया कि गाँव के स्कूल, पंचायत भवन में उनके रुकने की व्यवस्था की गई है। अगले दो हफ़्ते सभी लोग वहीं पर क़्वारेन्टाइन रहेंगे, सबकी कोविड-१९ की जाँच भी होगी। 

यह सुनते ही सबके चेहरे की चमक ग़ायब हो गई है। सभी को स्कूल और पंचायत भवन में ठहरा दिया गया है। उनके खाने-पीने की सारी व्यवस्था वहीं की गई। शाम तक सब की जाँच के लिए सैंपल लिए गए, जिसकी रिपोर्ट तीन-चार दिन बाद आनी है। 

सबके घरों तक सूचना पहुँच गई है। मोबाइल फोन एक बार फिर उनका सहारा बना। परिवार के लोगों ने कहा, “चलो, जैसे इतना दिन वैसे ही दो हफ़्ता और सही।” कुछ लोग तो अति उत्साह में क़्वारेन्टाइन सेंटर तक पहुँच गए, लेकिन पुलिस-प्रशासन की सख़्ती के कारण उन्हें अपने घरों में बैरंग वापस जाना पड़ा। 

वासुदेव ने किसी तरह दूर से ही अपने भाई को चिल्ला कर बताया कि “बिटिया की तबीयत अच्छी नहीं है। सारे बच्चे इतना थक गए हैं कि एकदम पस्त पड़े हैं।” वास्तव में वासुदेव ने बिटिया के बारे में जितना सोचा था, तबीयत उसकी, उससे भी कहीं बहुत ज़्यादा ख़राब थी। 

इसके चलते रात क़रीब साढ़े तीन बजे, उसने इस दुनिया से रिश्ता-नाता तोड़ लिया। मानो यह कहते हुए कि नहीं रहना वायरसों, धोखेबाज़ों, मक्कारों से भरी इस दुनिया में, जहाँ न दिखने वाले वायरसों से ज़्यादा ख़तरनाक हैं, दिखने वाले इंसान नाम के वायरस। 

इनसे बड़ा वायरस तो कोई हो ही नहीं सकता। इन सबसे बड़े वायरसों ने धोखा न दिया होता, झूठ फ़रेब करके चिलचिलाती धूप में न धकेला होता, तो मुझे इस दुनिया से मुक्ति न लेनी पड़ती। 

उस बड़े से हॉल में दया की हृदय को झकझोर देने वाली रुलाई बड़ी मर्मान्तक है। वासुदेव एकदम मूर्तिवत बैठा बच्ची को छाती से चिपकाए चीखती-चिल्लाती दया को देख रहा है। उसकी आँखों से आँसू निकल-निकल कर, उसके चेहरे को भिगोते हुए नीचे उसके पैरों के पास गिरते जा रहे हैं। 

हॉल में बाक़ी लोग भी जाग गए हैं, मगर कोरोना-वायरस का भय किसी को पास नहीं आने दे रहा है, बल्कि सब और अपनी-अपनी जगह दुबके जा रहे हैं। इतना ही नहीं किसी अत्यधिक डरे आदमीं ने प्रशासन को फोन कर दिया है। प्रशासन तुरंत सक्रिय हो गया है। 

सुबह दस बजे कोविड-१९ नियमानुसार उस दुध-मुँही बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया गया। उस नन्ही सी जान को धरती-माता के हाथों में सौंप दिया गया। जन्म देने वाले माँ-बाप अपने कलेजे के उस टुकड़े का अंतिम संस्कार तक नहीं कर पाए, जिसे वो प्यार से कभी गुड़िया तो कभी रुद्राणी कहते थे। 

और चाहते थे कि अपनी रुद्राणी को कुछ मिनटों को ही सही अपने घर के आँगन में ज़रूर ले जाएँ, ये कैसी फूटी क़िस्मत है कि जन्मीं परदेश दिल्ली में, और घर पहुँच कर भी घर न पहुँच पाई, कुछ मिनटों की दूरी से चली गई परलोक। अब कम से कम उसकी अंतिम यात्रा तो वहीं से प्रारम्भ हो। 

लेकिन हाय रे उनका दुर्भाग्य, प्रशासन किसी सूरत में इसके लिए तैयार नहीं हुआ, स्पष्ट कह दिया कि कोविड-१९ नियमों के चलते परमिशन नहीं दे सकते। बीमारी से सबको बचाने के लिए क्रूर नियम की भेंट चढ़ गई उनकी यह इच्छा भी। वो क़्वारेन्टाइन सेंटर से ही वीडियो कॉल के ज़रिए, अपनी बच्ची का अंतिम संस्कार होते देखते रहे, जिसे दो सरकारी कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर संपन्न कर रहे थे। 

बच्ची के तीनों भाई भी, अपनी नन्ही सी बहन को धरती-माता के हाथों में जाते देखते रहे, रोते-बिलखते माँ-बाप से चिपक कर कहते रहे, “अम्मा गुड़िया को बचा लो, पापा गुड़िया को बचा लो।” परिवार की रुलाई से हॉल का का शायद ही कोई व्यक्ति रहा होगा, जिसकी आँखों में आँसू न आए हों। 

लेकिन भय का साम्राज्य इतना क्रूर था कि कोई हिम्मत नहीं कर सका कि परिवार को सांत्वना देने के लिए उसकी तरफ़ एक क़दम भी बढ़ाता। वासुदेव का परिवार फोन पर सांत्वना देता रहा, मगर घर से निकल कर कोई एक क़दम भी आगे नहीं आया। सब डर गए कि बिटिया कहीं कोरोना संक्रमित तो नहीं थी, यदि वह संक्रमित रही होगी तो पूरा परिवार ज़रूर संक्रमित होगा। इस वज्र-पात का दया वासुदेव ने अकेले ही सामना किया। 

क़्वारेन्टाइन का समय भी तेज़ी से बीत रहा है। हर सदस्य रोज़ दसियों बार बात करता। वासुदेव हर बार यही कहता कि उस जल्लाद, लालची, झूठे, मक्कार ने धोखा देकर दिल्ली से भगाया न होता, तो हमारी बिटिया न मरती। वह मेरी बिटिया का हत्यारा है हत्यारा। मेरी बिटिया का ही नहीं, वह सैकड़ों नहीं, न जाने कितने लोगों का हत्यारा है। 

गद्दी के लिए वह दंगा, बीमारी फैलाने से लेकर हर वह काम कर सकता है, जो कोई जानवर भी अपनों से नहीं करेगा। वासुदेव की बातों से हॉल में उपस्थित हर-कोई सहमत होता है। क्योंकि वह सब भी उसी राह से गुज़रे हैं, उसी हथियार से घायल हुए हैं, जिससे वासुदेव। 

जैसे-तैसे इन क़िस्मत के मारों का क़्वारेन्टाइन टाइम का आख़िरी दिन आ गया, सबके चेहरों पर ख़ुशी थी। अपने घरवालों से बात पर बात कर रहे थे, वासुदेव और दया भी, लेकिन शाम को वासुदेव अपने एक भाई से लंबी बात करने के बाद बहुत उदास हो गया। 

इतना ज़्यादा कि दया ने किसी अनिष्ट की आशंका से घबराते हुए पूछा, “क्या हुआ, कौन-सी बात हो गई जो इतना परेशान हो गए हो।”

कई बार पूछने पर बड़े भारी मन से वासुदेव ने कहा, “क्या बताएँ, चार-पाँच साल हम लोग अपने गाँव-घर से दूर परदेश में का रहे, अपने घर वालों के लिए भी परदेशी हो गए हैं। हमें लगता है, अब आपन दाना-पानी अपने ही गाँव-घर से उठ चुका है। 

“दिल्ली से तुम्हारी ही बात मान कर चला कि चलो अपने गाँव, अपने घर-परिवार में चलते हैं और अब घर-परिवार, गाँव छोड़ कर कभी भी कहीं भी नहीं जाएँगे। मगर परिवार के एक-एक आदमी की बात अब यही कह रही है कि ‘नहीं बाबू, नहीं, अब तुम्हारा दाना-पानी यहाँ से उठ चुका है, अब तुम परदेसी हो गए हो।’ ग़ज़ब हो गई है यह दुनिया, अपने घर में ही हम परदेसी हो गए हैं, और शहर में प्रवासी। 

“वाह रे मेरी क़िस्मत, अपने ही देश, घर में हम-सब, वह क्या कहते हैं, शरणार्थी बनकर रह गए हैं। हालत यह है कि घर पहुँचने से पहले ही सोचना पड़ रहा है कि कोरोना-वायरस से देश को जल्दी मुक्ति मिले, डेरा-डंडा, बीवी, शेष बचे बच्चे लेकर फिर से दिल्ली या शहर-शहर भटकने निकल चलें।” 

यह सुनकर दया घबरा गई, उसने पूछा, “ये क्या कह रहे हो? अपना घर है, अपना भी कुछ अधिकार है।”

“हाँ, अपना भी अधिकार है, लेकिन अब हम परदेसी हो गए हैं, इसलिए उस अधिकार का कोई मतलब नहीं रह गया है। अब ‘सिताब दियारा’ अपना ‘सिताब दियारा’ नहीं रह गया है। बीते बारह-पंद्रह दिन से घर वाले बात-बात में यही समझा रहे हैं।”

दया की घबराहट अब-तक ख़त्म हो चुकी थी, उसने कहा, “तुम सही कह रहे हो। हम तुम से डर के मारे नहीं बताए थे, अम्मा, बहनी, लोगन से जब-जब बात की, तब-तब यही लगा कि अब घर-परिवार से सम्बन्ध की डोर बहुत कमज़ोर हो गई है। अब हम-लोग घर-गाँव वालों के लिए शरणार्थी बन गए हैं। अब हम-लोगों की ज़िन्दगी में दर-दर भटकना ही लिखा है बस।”

बहुत ध्यान से दया की बात सुन रहे वासुदेव ने अचानक ही बहुत ही सख़्त आवाज़ में कहा, “न हम शरणार्थी थे, न बनेंगे। घर उनका है, लेकिन गाँव नहीं, वह अपना घर-द्वार अपने पास रखें। मैं अपना अधिकार भी भूल जाता हूँ, रहें वो लोग निश्चिन्त होकर, हम रह लेंगे कुछ दिन पेड़ के नीचे। बना लेंगे वहीं कहीं अपनी झोपड़ी। कर लेंगे मज़दूरी मगर अब इधर-उधर भटकेंगे नहीं। 

“इस भटकने के चलते ही मेरी बिटिया बे-मौत मर गई। अब मैं किसी को ऐसे मरने नहीं दूँगा। वैसे भी अब गाँव भी बहुत बदल गया है, कुछ न कुछ काम तो यहाँ भी शुरू कर लूँगा। जीने का कोई रास्ता बना ही लूँगा। बस मन होना चाहिए, मन है तो रास्ता बनेगा ही बनेगा।”

यह कहते हुए वासुदेव के चेहरे पर बड़े कठोर भाव उभर आए, जिसे देख कर दया की आँखों से आँसू निकलने लगे। मगर उसके होंठों पर बड़ी प्यारी सी मुस्कान भी उभर आई थी। तभी छाती में हुई सिहरन ने उसे बिटिया रुद्राणी की याद दिला दी। वह बिटिया का नाम लेकर रो पड़ी। 

उसको चुप कराते हुए वासुदेव ने कहा, “रोती क्यों हो, हम पर विश्वास करो, हम जल्दी ही कोई रास्ता बना ही लेंगे।”

वासुदेव यह नहीं समझ पाया कि दया उसकी बातों से रो रही है या कि एक माँ परिस्थितियों की भेंट चढ़ गई अपने कलेजे के टुकड़े के लिए रो रही है, जिसे वह छाती का दूध पिला-पिला कर पाल रही थी। वही दूध मचल रहा था, पीने वाले की प्रतीक्षा कर रहा था और उसकी यह मचलन एक माँ को बेचैन कर रही थी . . .

3 टिप्पणियाँ

  • उस त्रासदी को फिर से अनुभव कर मेरे आँसु निकल रहे हैं. ....मार्मिक और यथार्थ लेखन...

  • 12 Dec, 2022 02:18 PM

    काश ये कहानी तब आती जब शाहीन बाग चल रहा था। आपने सारा कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। केजरीवाल की असलियत जनता तक पहुँचे, आपकी कलम ऐसे ही सच लिखती रहे, बहुत-बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएं

  • एक समर्थ लेखक की सशक्त कृति. प्रदीपजी के विषय चयन, उसकी गहराई और फिर प्रस्तुति, लाज़बाब, बेमिसाल, निर्विवाद. साधुवाद, बधाई, अभिनन्दन!!

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