क्षमा करना वृंदा

01-08-2022

क्षमा करना वृंदा

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

 . . . . . . एक गुमनाम नर्स की असाधारण कथा

 

मैं क़रीब दो साल की रही होऊँगी, तभी मेरे पेरेंट्स का डायवोर्स हो गया था। इसके बाद मदर मुझे लेकर ननिहाल आ गईं। ननिहाल में तब नाना-नानी थे। उन्हें बहुत शॉक लगा कि उनकी बेटी का वैवाहिक जीवन चार साल भी नहीं चला। 

उन्हें शॉक इस बात का भी लगा कि बेटी डायवोर्स लेकर सिलवासा से दिल्ली आ गई, लेकिन उन्हें इस बात की भनक भी नहीं लगने दी कि डायवोर्स लेकर आई है। कभी फ़ोन पर बात-चीत में या जब साल भर पहले आई थी, तब भी यह संकेत तक नहीं दिया था कि उन दोनों पति-पत्नी में कोई मन-मुटाव चल रहा है। 

मत-भेद, मन-भेद इतने हो चुके हैं कि अब साथ रहना मुश्किल हो गया है। जब बच्ची को लेकर आई तो अपने व्यवहार से यह पता ही नहीं चलने दिया कि जीवन का इतना बड़ा निर्णय लिया है। और निश्चित ही कड़क स्थितियों से गुज़र कर आई है। 

“अकेली ही क्यों आई बेटा?” नानी के यह पूछने पर अटपटा सा जवाब दिया था, “मॉम  वह वहीं पर हैं।”
यह नहीं बताया कि डायवोर्स लेकर आई हैं। उनका बहुत उखड़ा-उखड़ा सा चेहरा देखकर जब अगले दिन नानी ने काफ़ी पूछा तो मदर ने संक्षिप्त सा जवाब दे दिया था, “मॉम हमारा डायवोर्स हो गया है।”

यह सुनकर नाना-नानी उन्हें अवाक्‌ देखने लगे, तो उन्होंने बड़ी आसानी से जवाब दिया था, “मॉम हमने महसूस किया कि हम अब एक साथ नहीं रह सकते तो यह स्टेप उठाया। हमारे सामने और कोई रास्ता नहीं बचा था। हम-दोनों को ही मन-भेद के साथ रिश्ते को झेलते रहना पसंद नहीं था। अब हम-दोनों आज़ाद हैं।”

हतप्रभ नानी ने कहा, “बेटी कम से कम एक बार तुम दोनों, हम-लोगों से बात तो कर लेते। फ़ोन पर रोज़ इतनी बार बातें होती थीं, तुमने कभी एक शब्द ऐसा नहीं बोला, जिससे कुछ मालूम होता। वह एक साल से बात ही नहीं कर रहे थे। तुमसे पूछती तो तुम टाल-मटोल कर जाती थी।”

मदर ने बहुत लापरवाही से जवाब दिया, “मॉम इसमें बताने या न बताने वाली कोई बात ही नहीं थी। साथ रहने के लिए जो बातें होनी चाहिए थीं, वह नहीं रह गई थीं, तो रिश्ता ख़त्म हो गया, सिंपल सी बात है।”

नाना-नानी हैरान-परेशान उन्हें देखते सुनते रहे। मदर ने यह कोई पहली बार उन्हें आश्चर्य में नहीं डाला था। ऐसे ही चार साल पहले अचानक शादी करके आईं डैड के साथ और बड़े आराम से बोल दिया कि “मॉम हम ने शादी कर ली है।”

मदर ने नाना-नानी को तीसरी बार आश्चर्य में नहीं, बल्कि बुरी तरह झकझोर कर रख  दिया था, जब डायवोर्स के बाद एक दिन, किसी काम से जा रही हूँ, कह कर गईं, और फिर रात में नौ बजे फ़ोन करके यह बताया कि “मॉम मैंने शादी कर ली है।”

पहले ही की तरह बोलीं, “मॉम हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा था। प्लीज़ आप फ़्रेशिया को सँभाल लेना। हम हनीमून के लिए निकल चुके हैं।”

इस कॉल के बाद नाना-नानी मुझको यह सोच कर सँभालते रहे कि चलो हफ़्ते दो हफ़्ते में हनीमून से लौटेगी, तो अपनी बच्ची को ले जाएगी। तभी नए दामाद से भी मिल लेंगे। लेकिन हफ़्ते भर बाद ही उन्होंने, उन्हें जीवन का सबसे तगड़ा झटका देते हुए उनसे फ़ोन पर ही कहा, “मॉम हम-दोनों कैनेडा जा रहे हैं। अब वहीं रहेंगे। आप लोग अपना ध्यान रखिएगा। 

“फ़्रेशिया को अपने साथ रख पाइयेगा तो ठीक है, नहीं तो किसी अनाथालय में दे दीजिएगा। अब हम शायद कभी नहीं मिल पाएँगे। क्योंकि हम हमेशा के लिए जा रहे हैं। सॉरी मॉम, मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था।”

इतना कहकर उन्होंने फ़ोन काट दिया था। और नानी रिसीवर हाथ में पकड़े मूर्तिवत सामने बैठे नाना को पथराई आँखों से देखती रहीं। वह भी विचलित हो गए कि ऐसी क्या बात हो गई कि यह मूर्ति बन गई है। उन्होंने पूछा, “अरे भाई कुछ बोलोगी क्या हुआ? किसका फ़ोन था?” 

नाना की तेज़ आवाज़ ने उन्हें हिलाया-डुलाया, उनकी चैतन्यता लौटी, तो उन्होंने सारी बातें बताईं, जिसे सुनकर वह भी अवाक्‌ रह गए। दोनों एक-दूसरे को फटी-फटी आँखों से देखते रहे कि यह क्या हो गया! 

मैं उस समय नाना की गोद में ही खेल रही थी। कुछ देर पहले ही बड़ी मुश्किल से चुप हुई थी। नानी ने मुझे देखते हुए अपनी बेटी यानी मेरी मदर को कई अपशब्द कहे। 

बोलीं, “अब इस बुढ़ापे में हम इस दो साल की बच्ची को पालेंगे। अब हम ख़ुद कितने दिनों के मेहमान हैं, जो बच्ची की देखभाल करेंगे। हमारे अलावा और कौन है इस घर में, जो हमारे बाद इसे देखेगा।”

फिर नाना पर ग़ुस्सा होती हुई बड़ी अटपटी बात कहनी शुरू की, “मैं शुरू में इसीलिए कहती थी कि दो-तीन बच्चे होने दो, कम से कम कोई तो आज साथ होता।”

नाना ने खीझते हुए कहा, “यह कैसी मूर्खता वाली बात कर रही हो। चार होते तो चार और तरह की समस्याएँ खड़ी होतीं। एक है, तो कम से कम एक ही समस्या है, नहीं तो रोज़ कुछ न कुछ समस्याएँ चलती ही रहतीं।इस समस्या पर, इस समय या कभी भी बात करने का कोई मतलब ही नहीं है। जो समस्या उसने फ़िलहाल हमारे सामने खड़ी कर दी है, अभी केवल उसी के बारे में सोचना, समाधान निकालना है। इसके लिए भी उसने हमारे सामने दो ही विकल्प छोड़े हैं कि या तो हम फ़्रेशिया को पालें या फिर अनाथालय में ही डाल दें।”
यह सुनते ही नानी ने कहा, “नहीं! फूल सी इस बच्ची को हम अनाथालय में बिल्कुल नहीं डालेंगे। अभी हम ज़िन्दा हैं। हम पालेंगे।”
 . . . और इस तरह मैं नाना-नानी की गोद में पली-बढ़ी, पढ़ी-लिखी। मेरी पढ़ाई पूरी होते-होते नाना-नानी इतने बुज़ुर्ग हो गए कि वो मुझ पर ही निर्भर हो गए। मैं अनायास ही बुढ़ापे से चलने-फिरने में भी असमर्थ हो जाने पर उनका वॉकर, बन गई। उनकी हर गतिविधि के लिए उनकी ऊर्जा, सहारा बन गई। 

नाना की पेंशन इतनी नहीं थी कि वह पति-पत्नी के बुढ़ापे के अतिरिक्त ख़र्चे के साथ-साथ मुझको कोई ऊँची शिक्षा, अच्छा कॅरियर दिला पाते। हालाँकि मैं पढ़ने में तेज़ थी। किसी तरह नर्सिंग का कोर्स करके मैं एक हॉस्पिटल में नौकरी करने लगी। 

नौकरी के साथ-साथ, नाना-नानी की देखभाल करने में मुझे बहुत समस्याएँ झेलनी पड़तीं। बारह-चौदह घंटे की ड्यूटी के बाद मैं थक कर चूर हो जाती थी। फिर भी उनकी सेवा बहुत ही मन प्यार से करती थी। 

नाना को ज़्यादा समय देना पड़ता था, क्योंकि वह इतने कमज़ोर हो गए थे कि उन्हें नहलाने-धुलाने, कपड़े पहनाने से लेकर खाना तक खिलाना पड़ता था। नानी अपना काम किसी तरह कर लेती थीं। और ड्यूटी के समय फ़ोन करके बता देती थीं कि क्या हाल है। 

मुझ को उन दोनों लोगों ने ऐसी सेवा करने के लिए दो साल से ज़्यादा अवसर नहीं दिया। और दोनों लोग, मुझे गहरे दुःख में एकदम अकेला छोड़ कर चले गए। पहले नाना एक दिन सुबह उठे ही नहीं। मुझे बहुत गहरा दुख हुआ। मैं उन्हें बहुत-बहुत प्यार करती थी। आख़िर के क़रीब दो साल उनकी सेवा मैंने एक नर्स नहीं, बल्कि एक माँ की तरह की थी। 

उनका जाना मुझे बहुत ही ज़्यादा खला। दुर्भाग्य यह भी कि उनका शोक भी ठीक से न मना पाई थी कि हफ़्ते भर बाद ही नानी भी चली गईं। वह पति के जाने का दु:ख बर्दाश्त नहीं कर पाई थीं। 

जब घर एकदम ख़ाली हो गया, कोई काम ही नहीं रह गया, तो घर का सन्नाटा मुझे तोड़ने, डराने लगा। इससे बचने के लिए मैं आए दिन, ड्यूटी के बाद भी, हॉस्पिटल में ही बाक़ी समय भी बिताने लगी। 
बाक़ी नर्सों की ड्यूटी भी कर देती। पूरा स्टॉफ़ भी मुझे हर तरह से सपोर्ट करता। इन सब के चलते मैं दो-तीन दिन में घर आती, साफ़-सफ़ाई, कपड़े वग़ैरह धुलती, आराम करती और ज़रूरी सामान, तीन-चार सेट कपड़े लेकर फिर हॉस्पिटल लौट जाती। 

नाना-नानी ने मुझे पेरंट्स के बारे में कभी-कभी, थोड़ी-बहुत बातें बताई थीं। यह संयोग था कि मदर की शादी का एल्बम मुझे नानी की अलमारी में ही मिल गया था। उसे मैं आए-दिन देखती थी। आख़िरी फ़ोटो तक पहुँचते-पहुँचते मैं बिलख-बिलख कर रो पड़ती थी। 

आँसू तो पहली फोटो देखने के साथ ही निकलने लगते थे। इसमें पेरेंट्स शादी के जोड़े में एक साथ मुस्कुराते हुए बेहद ख़ूबसूरत लग रहे थे। इस एक एल्बम के अलावा मुझे एक भी ऐसा सूत्र नहीं मिला, जिसके सहारे मैं अपने पेरेंट्स को ढूँढ़ पाती। 

नाना-नानी ने पूछने पर हर बार यही बताया था कि “वह अपने सारे पेपर्स कब निकाल कर लेती गई, उन्हें पता ही नहीं चला। यह एल्बम भी पता नहीं क्यों छोड़ गई थी, या फिर छूट गया, उसे याद नहीं रहा।” यह एल्बम न रहा होता, तो मैं अपने पेरेंट्स का चेहरा भी न जान पाती। हालाँकि कोशिश तो उन्होंने यही की थी। 

मैंने पहली फोटो फ़्रेम करवा कर, नाना-नानी की फोटो के साथ दीवार पर टाँग दी थी। उसकी एक पासपोर्ट साइज़ की कॉपी अपने पर्स में रखती थी। यही फोटो अपनी फ़ेसबुक, टि्वटर, इंस्टाग्राम की डीपी पर भी लगाई थी। 

मैं सोशल मीडिया को पसंद नहीं करती। यह मीडिया मुझे फ़ेक और अन-सोशल लगता है। किताबें पढ़ना मेरा शौक़ है। लेकिन इस उम्मीद में इनसे जुड़ी, डीपी पर उनकी फोटो लगाई कि शायद मेरे पेरेंट्स किसी दिन मिल जाएँ। वह दुनिया में जहाँ भी होंगे, यदि देखेंगे तो हो सकता है कि मुझसे संपर्क करें। 

घर पहुँचते ही मुझे हर तरफ़ नाना-नानी के अक्स दिखाई देने लगते थे। पेरेंट्स को लेकर तरह-तरह की बातें, प्रश्न बर्छियों की तरह मुझे हर तरफ़ से शरीर में चुभते हुए लगते थे। परेशान होकर मैं फिर से हॉस्पिटल चली जाती थी। 

मन से मैं इतनी बुझी हुई सी हो गई थी कि किसी भी चीज़ के लिए मेरे मन में जोश-उमंग उल्लास कुछ रह ही नहीं गया था। हॉस्पिटल की इक्का-दुक्का नर्स ही बहुत कोशिश करके मुझे अपने साथ कभी-कभार कहीं घूमने-फिरने ले जा पाती थीं, अन्यथा मेरा सारा समय हॉस्पिटल में मरीज़ों की सेवा में निकल जाता था। अपनी ड्यूटी हावर्स के अलावा भी तीन-चार घंटे और काम करना मेरा रूटीन था। 

एक सहकर्मी, फिर एक डॉक्टर ने मेरी तरफ़ रिलेशनशिप के लिए क़दम बढ़ाए। डॉक्टर ने तो अपने घर में, साथ रहने के लिए ऑफ़र किया, पूरा दबाव डाला था। एक बार ग़लत ढंग से पकड़ने की कोशिश की, तो मैंने इतना कड़ा प्रतिरोध किया कि फिर कभी वह मेरे क़रीब भी नहीं आते थे। 

मैंने उन दोनों से खुलकर साफ़ शब्दों में कह दिया था कि “मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं है। मैं इन चीज़ों के लिए नहीं बनी हूँ।”

मेरी इस बात, व्यवहार से यह बात हवा में कुलाँचें भरने लगी कि वह शारीरिक संबंधों के लिए अनफ़िट है। थर्ड जेंडर है। एक थर्ड जेंडर हॉस्पिटल में कैसे नौकरी कर सकती है। इसके जेंडर की जाँच होनी चाहिए। 

यह सब सुनकर मुझे बहुत दु:ख हुआ कि उन दोनों के मन का नहीं हुआ, तो उन्होंने मेरे इंकार को इस तरह तोड़-मरोड़ कर, ऐसी गंदी अफ़वाह उड़ाई। मैं बहुत अपमानित महसूस करती। दुःख अपमान से आँखें पूरा दिन आँसुओं से भरी रहतीं। 

मैं सोचती कि क्या लड़की केवल पुरुषों के भोग लिए बनी, एक जीती-जागती मशीन भर है। घर बाहर कहीं भी, क्या वह निश्चिंत होकर नहीं जी सकती। ऐसे क्षणों में मुझे किशोरावस्था में घर पर बार-बार आने वाले अपने एक अंकल ज़रूर याद आते। जो किसी चर्च से जुड़े हुए थे। शौक़िया फ़ोटोग्राफ़र भी थे। कोई ख़ास काम-धाम नहीं करते थे, फिर भी न जाने कैसे उनके पास बहुत पैसा था। अपनी दोनों लड़कियों को अमरीका में पढ़ा रहे थे। 

जब भी आते तो मेरे लिए पेस्ट्री, कैडबरीज़ चॉकलेट का बड़ा गिफ़्ट पैक ज़रूर लाते। यह सब मुझे अपनी गोद में ही बिठा कर देते, ख़ूब प्यार भी करते जाते। मैं ख़ुश होती कि चलो नाना-नानी के बाद मुझे प्यार करने वाले एक अंकल भी हैं। 

लेकिन जल्दी ही मैंने महसूस हुआ कि उनका प्यार तो अंकल वाला प्यार है ही नहीं। वह गंदे वाले आदमी जैसा प्यार करते हैं। शरीर के हर उस हिस्से को स्पर्श करते हैं, जो उन्हें बिलकुल भी नहीं करना चाहिए। और यह सब नाना-नानी की नज़र बचा कर करते हैं। 

मुझे बाइबिल की कहानियाँ सुनाने के नाम पर न जाने कौन-कौन सी कहानियाँ सुनाते कि उनमें अश्लीलता के सिवा कुछ नहीं होता था। बाइबिल की एक पात्र मारिया मेग्डालिना (मैरी मैग्डलेन) का उल्लेख करते हुए कहते कि “पंद्रह अप्रैल चौदह सौ बावन को एक महान चित्रकार लिओनार्डो द विन्ची का जन्म हुआ था। 
उन्होंने मारिया की ऑयल पेंटिंग बनाई थी। जो दुनिया कि महान पेंटिंग्स में शामिल की जाती है। उनके इस कार्य से प्रभु यीशु बहुत ख़ुश हुए थे। उनकी कृपा विन्ची पर ऐसी हुई कि वह अमर हो गए। मारिया की उस ऑयल पेंटिंग का पोस्ट-कार्ड साइज़ चित्र दिखाते। जिसमें मारिया क़रीब-क़रीब निर्वस्त्र थीं। 

एक दिन मुझसे बोले, “मैं तुम्हारी ऐसी ही ढेर सारी तस्वीरें खींच कर, तुम्हें दुनिया में फ़ेमस कर दूँगा। दुनिया के बड़े-बड़े लोग तुमसे मिलेंगे। तुम्हारे पास बहुत सारा पैसा आएगा। तुम बहुत बड़े से, शानदार घर में प्रिंसेज़ की तरह रहोगी। 

“बहुत बड़ी-बड़ी कारों में घूमने निकलोगी। ऐसा करके तुम पवित्र कार्य करोगी। क्योंकि मारिया प्रभु यीशु की पत्नी थीं। प्रभु यीशु तुमसे उसी तरह ख़ुश हो जाएँगे, जैसे विन्ची से हुए थे। तुम्हें तुम्हारे पेरेंट्स से मिला देंगे।”

उनका पेरेंट्स वाला तीर सटीक लक्ष्य पर लगा। वह मेरे हृदय को भेद गया। मैं उनके झाँसे में आ गई। उनके कहने पर नाना-नानी को भी कुछ नहीं बताती। दो दिन बाद पड़े रविवार को वह चर्च में प्रेयर अटेंड कर सीधे घर आ गए। 

चाय-नाश्ता पहले की ही तरह बना कर मैं ही ले आई। उसी समय उन्होंने नाना-नानी से कहा, “फ़्रेशिया को इसकी आंटी ने बुलाया है। आज का दिन यह हमारे साथ बिताएगी। शाम को घुमाने भी ले जाएँगे। और डिनर के बाद मैं छोड़ जाऊँगा।” 

नाना-नानी ने मुझे आधे-अधूरे मन से भेज दिया। मैं तो उतावली थी ही। क्योंकि उनके तीर का घाव समय के साथ बड़ा होता गया था। उनकी कार में जब मैं उनके बहुत बड़े से घर पर पहुँची, तो वहाँ का ऐश्वर्य देख कर बहुत प्रभावित हुई। 

अंकल ने मुझे पूरा घर दिखाया, लेकिन आंटी कहीं नहीं दिखीं। पूछने पर कहा, “उनकी एक अर्जेन्ट कॉल आ गई थी। जल्दी ही वापस आ जाएँगी।”

आंटी नहीं हैं यह जानकर मैं भयभीत हो गई। मुझ में उभरा भय, मेरे चेहरे पर दिखने लगा। मेरी हालत समझते ही उन्होंने कहा, “तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं है। तुम एक महान काम के लिए आई हो, आओ मैं तुम्हें प्रभु यीशु के दर्शन करवाता हूँ।”

वह मुझे एक बहुत बड़े से कमरे में ले गए। जहाँ की चारों दीवारों पर चार कलर की महँगी फैंसी लाइट्स जल रहीं थीं। जो बहुत धीमीं थीं। कमरे के बीचों-बीच बड़ा सा झाड़-फानूस लटक रहा था। जो रंग-बिरंगी लाइट्स से जगमगा रहा था। यह सब मैं पहली बार देख रही थी, अभिभूत थी। 

वह दीवार पर टँगे प्रभु यीशु के बड़े से चित्र के सामने, मुझे लेकर खड़े हो गए। कहा, “देखो प्रभु यीशु कितने स्नेह से तुम्हें देख रहे हैं,” साथ ही उन्हें प्रणाम किया। मैंने भी। वहीं ख़ूबसूरत सी मेज़ पर, चाँदी के बर्तन में रखे पानी को उन्होंने अपनी अंजुरी में लेकर मुझ पर छिड़कते हुए कहा, “देखो प्रभु यीशु की कृपा तुम पर बरस रही है। 

“यह बचपन से ही तुम्हें कष्ट दे रहे, तुम्हारे पेरेंट्स को तुमसे दूर कर देने वाले शैतानी साए से तुम्हें मुक्ति दिलाएँगे। जल्दी ही तुम अपने पेरेंट्स से मिलोगी। तुम पर ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ बरसेंगी।”

मुझे उस पानी की ख़ुश्बू बहुत अच्छी लग रही थी। मुझे ठीक सामने वाली दीवार पर उतना ही बड़ा मारिया का भी वही चित्र दिखा। क़रीब-क़रीब नग्न। अन्य दीवारों पर भी क़रीब दर्जन भर चित्र पूर्णतः निर्वस्त्र स्त्री-पुरुषों के टँगे हुए थे। 

सभी चित्रों के फ़्रेम और साइज़ एक समान थे। चित्रों पर चित्रकारों के नाम लिखे हुए थे। वो मुझे लेकर एक-एक चित्र के सामने पहुँच रहे थे। उनके डिटेल्स बताते जा रहे थे। ये सभी चित्र पश्चिमी देशों के आर्टिस्ट्स की क्लासिक न्यूड पेंटिंग्स थीं। इनमें मुझे चार बहुत अच्छी लगीं। 

पहली टिज़ियानो वेसेलियो टिटियन की पंद्रह सौ पचीस में बनाई गई पेंटिंग ‘वीनस एनाडायोमीन’। यह वाशिंगटन डीसी में नेशनल गैलरी ऑफ़ आर्ट में लगी हुई है। 

दूसरी अठारह सौ अड़सठ में लॉर्ड फ्रेडरिक लीटन की बनाई गई पेंटिंग ‘एक्कटेया’, जो उन्होंने ग्रीक पौराणिक कथा से प्रेरित होकर बनाई थी। तीसरी जूल्स जोसेफ लेफ़ेब्रे की अठारह सौ बांसठ में बनाई गई पेंटिंग ‘क्लोई’ थी। अंकल ने बताया कि क्लोई पेरिस की एक मॉडल थी। 

चौथी पेंटिंग थी जॉन विलियम गॉडवर्ड की ‘टेपिडेरियम’ जिसकी अंकल ने सबसे ज़्यादा प्रशंसा की, सबसे ज़्यादा ब्योरा देते हुए कहा, “ये रोमन साम्राज्य की संस्कृति से प्रेरित है। उस दौर में उच्च वर्ग में, विशेष रूप से महिलाओं के स्नान की ऐसी ही व्यवस्था होती थी।”

वो क़रीब पंद्रह-बीस मिनट तक मुझे यह सब दिखाते रहे। इस दौरान उनका दाहिना हाथ निरंतर मेरी कमर, नितम्बों पर ही रेंगते रहे। कभी-कभी कंधों पर भी। 

उनकी उस दुनिया में, तब मुझ पर उनका ऐसा प्रभाव पड़ रहा था कि उनकी उन गन्दी हरकतों की तरफ़ मेरा ध्यान ही नहीं गया। 

इस तरफ़ मेरा ध्यान तब गया, जब वह मुझे लेकर दूसरे कमरे में पहुँचे और तब भी उनकी वह हरकतें जारी रहीं। इस तरफ़ ध्यान जाते ही मुझे यह सब बहुत बुरा लगने लगा, लेकिन चाह कर भी मना करने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। 

उस कमरे में उन्होंने मुझे अपनी गोद में बैठा कर, एक से बढ़ कर एक, ख़ूब टेस्टी चीज़ें खिलाईं-पिलाईं। आख़िर में जो पिलाया, वह विह्स्की है, यह समझते ही मैंने मना किया, लेकिन वह नहीं माने। नाना-नानी हफ़्ते में तीन-चार दिन सोते समय लेते थे, तेज़ जाड़ों में थोड़ी सी मुझे भी देते थे, इसलिए विह्स्की से मैं परिचित थी। 

इस बीच मैंने उनकी गोद से हटने की कई कोशिशें कीं, लेकिन उन्होंने हटने तब दिया, जब प्रभु यीशु को ख़ुश करने के लिए मुझे आधुनिक मारिया बनाने लगे। उन्होंने विन्ची की तरह आयल पेंट्स, तूलिका से कैनवस पर अर्ध-नग्न मारिया को नहीं उकेरा। बल्कि अपने महँगे कैमरे से मेरी पूर्ण नग्न तस्वीरें खींचीं। मारिया के नाम पर। 
मैं पूरे विश्वास के साथ यही सोचती थी कि विन्ची ने मारिया को उकेरते समय अपनी मॉडल को स्पर्श नहीं किया होगा। लेकिन अंकल ने मुझे पूर्ण नग्न करके, पहले हर वह कर्म किए, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ कुकर्म की श्रेणी में आते हैं। 

यदि आज भी मैं क़ानून का सहारा लूँ, तो पॉक्सो क़ानून (बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा प्रदान करने लिए २०१२ में बच्चों का संरक्षण क़ानून [POCSO] बनाया गया था) के तहत अंकल, आंटी दोनों को सज़ा हो सकती है, इस बुढ़ापे में भी। 

यदि हैशटैग मी-टू के रास्ते चलूँ, तो कम से कम अपनी बेटियों, नातिनों, समाज के सामने नज़र उठा कर देखने लायक़ नहीं रहेंगे, यदि उन दोनों में ज़रा भी आत्म-सम्मान बचा होगा। 

उन्होंने मुझे मारिया बनाने का खेल अगले क़रीब दो साल तक खेला। और पहली बार को छोड़ कर आंटी हर बार खेल में शामिल होती रहीं। दोनों ने मुझे इस तरह अपने जाल में फँसाया था कि मैं अकेले में फूट-फूट कर रोती, लेकिन बार-बार कोशिश करके भी नाना-नानी या किसी और से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। 
क्योंकि किसी से कहने पर नाना-नानी को जान से मार देने की उनकी धमकी, उनकी चमकती पिस्टल मेरे लिए किसी कोने में बे-आवाज़ चुपचाप रो लेने के सिवा और कोई रास्ता नहीं छोड़ती थी। वैसे नाना-नानी के सिवा और कौन था भी मेरा। 

दो साल बाद मेरे साथ उनका हर हफ़्ते दो हफ़्ते में मारिया-मारिया खेलना बंद तब हुआ जब एक दिन दोनों ही लोग फेमा क़ानून (विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम) के उल्लंघन में दस साल के लिए जेल चले गए। 

आय का कोई स्रोत न दिखा पाने, कई अन्य गैर-क़ानूनी कार्यों के चलते, उनका आलीशान मकान, कार आदि सहित चल-अचल, सारी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली गई। चर्च ने भी उनकी कोई मदद नहीं की, क्योंकि उन्होंने चर्च को भी धोखा दिया था। 

तीन कमरों का एक छोटा सा मकान ही बचा रह गया, क्योंकि वह उनकी पैतृक सम्पत्ति थी। देखते-देखते सब-कुछ ऐसे बिगड़ा कि पैसों की तंगी के चलते दोनों लड़कियों को पढ़ाई अधूरी छोड़ कर घर वापस लौटना पड़ा। तीन कमरों के छोटे से मकान में ही। 

उन्हें छोटे-मोटे स्कूलों में टीचरी करनी पड़ी। लेकिन ऐशो-आराम में बड़ी हुईं ये लड़कियाँ जीवन के कठिन रास्ते पर ज़्यादा दूर नहीं चल पाईं। अपने कट्टर प्रोटेस्टेंट ईसाई पिता, जो कैथोलिक ईसाईयों को छोटा मानते हुए, उनसे घोर घृणा करते थे, उन्हें एक क्षण को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे, उनकी हर बात को धता बताते हुए बड़ी लड़की एक कैथोलिक युवक के ही साथ शादी करके दिल्ली चली गई। 

शादी से पहले जब वह जेल में पेरेंट्स से युवक के साथ मिली, उनसे शादी के बारे में बात की, तो वह कैथोलिक से शादी की बात सुनते ही भड़क गए। बहस आगे बढ़ी तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ‘तुम्हें शादी प्रोटेस्टेंट से ही करनी होगी, नहीं तो हमसे हमेशा के लिए रिश्ता ख़त्म करना होगा।’

लड़की ने कुछ ही क्षण सोच कर कहा, ‘ओके डैड, हमारी बातें कम्प्लीट हो चुकी हैं। इसलिए मैं अपनी यह आख़िरी मुलाक़ात अब यहीं ख़त्म करती हूँ। अब मॉम के पास जाने का भी मुझे कोई मतलब नहीं दिखता, इसलिए आप ही उन्हें बता दीजियेगा।’

यह कहते हुए उसने उन्हें नमस्कार किया, उठ कर चल दी। वह उसे आगे गलियारा मुड़ कर ओझल होने तक अवाक्‌ देखते रहे। उन्हें उससे इतने ठेठ अंदाज़ में, तुरंत ही ऐसा जवाब मिलने की ज़रा भी आशा नहीं थी। 
दूसरी लड़की ने भी ज़्यादा समय नहीं लिया। एक सॉफ़्ट-वेअर इंजीनियर से आर्य-समाज मंदिर में शादी कर के चली गई। 

एक दिन मन में ऐसी ही पुरानी बातों को सोचती हुई मैं वॉर्ड बिज़ी में थी। सुबह से ही तनाव के कारण हल्का-फुल्का नाश्ता करने के अलावा कुछ नहीं खाया था। दोपहर के कुछ समय बाद ही एक एमर्जेन्सी डिलीवरी का केस आ गया। शुरू में लगा कि मामला सीरियस है। लेकिन घंटे भर में नॉर्मल डिलीवरी हो गई। 

जब शाम को मेरी ड्यूटी ऑफ़ हुई तो मैं घर नहीं गई। रेस्ट-रूम में लेटी मोबाइल पर सोशल-मीडिया के ज़रिए अपने माँ-बाप को ढूँढ़ने में लगी रही। थोड़ा ही समय बीता था कि एक साथी नर्स ने आकर कहा कि “फ़्रेशिया मेरी तबीयत कुछ ख़राब है, अगर तुम्हें कोई प्रॉब्लम न हो तो मेरी ड्यूटी देख लो।”

ऐसे समय में सभी मेरे पास ही आते थे। क्योंकि मैं कभी किसी को मना नहीं करती थी। ख़ुशी-ख़ुशी काम के लिए तैयार हो जाती थी। हमेशा कुछ न कुछ पढ़ते रहने के कारण जो भी मुझे थोड़ी बहुत जानकारी थी, उसके चलते हॉस्पिटल में मैं डॉक्टर विदाऊट डिग्री के नाम से चर्चित थी। इन कुछ बातों के कारण भी सभी मुझे बहुत चाहते थे। मैं सब की चहेती थी। 

मैंने साथी नर्स से कहा, “ठीक है तुम आराम करो, मैं देख लेती हूँ।”

मैं पूरी रात, पूर्ण ज़िम्मेदारी के साथ ड्यूटी करती रही। सुबह ड्यूटी चेंज होने के समय अचानक ही हंगामा मच गया। जो एमर्जेन्सी डिलीवरी केस आया था, डिलीवरी भी नॉर्मल हो गई थी, जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ थे, वह महिला, उसका पति, बच्चे को छोड़कर भाग गए। पुलिस को बुलाना पड़ा। नाइट शिफ़्ट के सभी लोगों से पूछताछ हुई। 
सीसीटीवी कैमरे से सुराग़ मिला कि क़रीब चार बजे वह उलझन होने की बात कह कर वॉर्ड में टहल रही थी। उसके बाद अचानक ही बाहर निकल गई। 

सुबह सात बजते-बजते बच्चे की तबीयत ख़राब हो गई। उसकी साँसें बड़ी तेज़ चल रही थीं। हालाँकि देखने में वह बहुत ही स्वस्थ लग रहा था। हॉस्पिटल मैनेजमेंट या कोई अन्य उसकी ज़िम्मेदारी लेने, इलाज का ख़र्च उठाने के लिए तैयार नहीं था। 

मैनेजमेंट सख़्त नाराज़ था कि महिला तो पहले ही बिना कोई पेमेंट किए भाग गई, अब वह बच्चे का ख़र्च नहीं उठा सकता। पुलिस कोई क़दम बढ़ाना नहीं चाह रही थी। बीमार बच्चे को चाइल्ड लाइन भेजा नहीं जा सकता था। 

ऐसे में बच्चे पर मुझे बड़ी दया आई कि बच्चे की यह कैसी बदक़िस्मती है कि निर्दयी माँ-बाप लावारिस छोड़ कर चले गए। ऐसा ही करना था, तो पैदा ही क्यों किया। 

अवैध संतान के कारण ऐसा किया, तो संतान नहीं अवैध तो तुम्हारे सम्बन्ध थे। बच्चे को सज़ा क्यों दी? ख़ुद की अय्याशी का परिणाम स्वयं भुगतते, निर्दोष मासूम निरीह को सजा देने का अधिकार तुम्हें कहाँ से मिल गया। 

मैं मन ही मन बच्चे के माँ-बाप को अपशब्द कह रही थी। मुझे बार-बार अपनी आँखों के सामने अपने माँ-बाप दिख रहे थे। बच्चे पर मुझे इतनी दया आई कि मैंने मैनेजमेंट से कह दिया कि बच्चे के ट्रीटमेंट का सारा ख़र्चा मैं उठाऊँगी। जब-तक बच्चे के माँ-बाप नहीं मिलते, तब-तक उसका पालन-पोषण भी मैं ही करूँगी। 

इसके साथ ही मैंने डिलीवरी का सारा बिल भी पेमेंट कर दिया। बच्चे के ट्रीटमेंट में कोई कमी न हो, इसके लिए भी जो पेमेंट करने को कहा गया, वह भी कर दिया। उस समय मुझे हॉस्पिटल से बड़ी निराशा हुई कि इतना बड़ा हॉस्पिटल होकर भी एक नवजात बच्चे को इसलिए ट्रीटमेंट नहीं दे सकता, क्योंकि चंद रुपए नहीं मिले। 

मैं पूरे समर्पण, मन से बच्चे की देख-भाल करने लगी। जब वह दो सप्ताह में पूरी तरह ठीक हो गया, तब मैंने घर जाने की सोची। लेकिन बच्चे से इन दो हफ़्तों में इतना भावनात्मक लगाव हो गया था कि उसे किसी और के सहारे छोड़ कर जाने का मन ही नहीं हो रहा था। सब कहते कि ‘इसकी रियल मदर तो तुम ही हो गई हो।’ मैं ऐसी बातों का कोई जवाब देने के बजाय मुस्कुरा कर रह जाती। 

दो हफ़्तों में मैंने बच्चे को सिर्फ़ एक दिन, दो घंटे के लिए अकेला छोड़ा था। घर से अपने कपड़े और कुछ ज़रूरी सामान लाने के लिए। इस दो घंटे के लिए भी अपनी सबसे क़रीबी फ़्रेंड वृंदा से विशेष रूप से रिक्वेस्ट करके गई थी कि ‘लियो’ को एक सेकेण्ड के लिए भी अकेला नहीं छोड़ना। 

मैं लियो को हमेशा अपने सीने से लगाए रखना चाहती थी। उसे ‘लियो’ नाम मैंने ही दिया था। मुझे लियो में पहले ही दिन से कई तरह की समस्याएँ होने का संदेह होने लगा था। 

मेरी रिक़्वेस्ट पर डॉक्टर ने लियो की सारी जाँचें करवाईं। रिपोर्ट्स आने के बाद जो बातें पता चलीं, उससे मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे, कि यह कैसी सज़ा है इस बच्चे को। 

और मुझको भी। क्योंकि अब इससे इतना ज़्यादा लगाव हो चुका कि इसकी हर पीड़ा मुझे बहुत कष्ट पहुँचाती है। मैं स्तब्ध रह गई, यह जानकर कि लियो देख नहीं सकता, इससे बढ़कर यह कि बोल-सुन भी नहीं सकता। 
देखने में वह काफ़ी स्वस्थ और सुंदर लग रहा था। उसकी आँखों की पुतलियाँ ध्यान से देखने पर ही मालूम होता था कि वह स्थिर नहीं रह पातीं, लगातार हिलती रहती हैं। मैं जब उसे गोद में उठाती, तो वह हाथ-मुँह से मेरे स्तनों को खोजने लगता। 

उसे माँ का दूध पीने का दुर्लभ सौभाग्य भी नहीं मिल पाया था। मिल्क बैंक से जो दूध मिलता था, वही उसे पिलाती थी। लेकिन लियो उसे जल्दी पीता नहीं था। 

एक दिन जब वह दूध के लिए बहुत रोने लगा, तो मैंने वॉर्ड में एक ऐसी माँ को हाथ-पैर जोड़ कर लियो को दूध पिलाने के लिए तैयार कर लिया, जिसका बच्चा गंभीर स्थिति के कारण वेंटिलेटर पर था। वह पहले तो थोड़ा संकुचाई, लेकिन फिर बड़े मन से उसे दूध पिलाने लगी। उसका नाम ‘कावेरी’ मैं आज भी भूली नहीं हूँ। 
लियो की रुलाई, एक सामान्य नवजात शिशु की रुलाई की तरह नहीं थी। उसके रोने पर अजीब तरह की खीयीआं खीयीआं आवाज़ निकलती थी। सिर पर उसके सामान्य से अधिक काले, घुँघराले बाल थे। ख़ूब तंदुरुस्त होने के कारण हाथ-पैरों में रिंग सी पड़ रही थी। 

लियो को जिस दिन हॉस्पिटल्स से रिलीव किया गया, उसी दिन कावेरी के बेटे को वेंटिलेटर से आईसीयू में शिफ़्ट किया गया। उसकी हालत तेज़ी से बेहतर होती जा रही थी। मैं कावेरी को हर तरह से सहयोग करती रही। उसे चलते-चलते बहुत धन्यवाद दिया। 

जब लियो को लेकर मैं घर आने लगी, तो उसकी ज़िम्मेदारी लेने के लिए मुझसे कई पेपर साइन करवाए गए। उसको घर लाने से पहले, मैं एक बार फिर उसे अपनी प्रिय फ़्रेंड वृंदा के सहारे छोड़ कर दो घंटे के लिए घर आई थी। 

मैं दो हफ़्ते से बंद पड़े पूरे घर की ठीक से सफ़ाई करना ज़रूरी समझ रही थी। मैंने पूरे घर को ख़ूब साफ़ करके सेनिटाइज़ किया। उसके लिए ख़ूबसूरत सा पालना, कपड़े, दूध की बोतल, पैंपर्स भी ले आई। 

जब उसे लेकर घर पहुँची, तो सबसे पहले नाना-नानी की फोटो के पास लेकर गई। उन्हें देखती हुई बुबुदाई, ‘आप लोग भी देख रहे हैं न लोगों को। मज़ा किया, पैदा किया, फिर किसी रैपर की तरह बाहर फेंक दिया। 
मैं तो सोचती थी कि दुनिया में अकेली मैं ही हूँ, जिसके पेरेंट्स उसे कूड़े की तरह डस्टबिन में डाल कर चले गए। यहाँ तो कम से कम मुझे आप लोगों के हाथों में, झूठ बोलकर ही सही, डाल गए थे। इस प्यारे लियो को तो इसके गंदे क्रूर माँ-बाप लावारिस ही फेंक गए। 

‘मेरे पेरेंट्स कौन थे, यह कम से कम मैं उनकी फोटो देख कर, उनका चेहरा तो जानती हूँ। कभी मिले तो पहचान भी सकती हूँ।’  मेरे आँसू बह रहे थे। नाना-नानी के बाद मैं पेरेंट्स की फोटो के पास गई। 

उनसे भी मन ही मन कहा, ‘अपने बच्चे को डस्टबिन में फेंकने वाले एक आप लोग ही नहीं हैं। आप से भी ज़्यादा क्रूर पेरेंट्स हैं दुनिया में। आप जैसे लोगों को पेरेंट्स बनने का अधिकार ही नहीं है। आप जैसे लोग दुनिया में किसी के नहीं हो सकते। जिनके साथ मिलकर आप कपल बनते हैं, वास्तव में आप लोग एक दूसरे के भी नहीं हैं। 

‘केवल अपने स्वार्थ, अपनी हवस के लिए कपल बनते रहते हैं, एक से मन भरा, तो सेकेण्ड भर में उसे छोड़कर, फ़ौरन दूसरे को पकड़ लेते हैं, आप जैसे लोग पेरेंट्स, मानवता, रिश्ते के नाम पर कलंक हैं। कभी मिले, तो अपने इस क्वेश्चन का आन्सर हर हाल में लूँगी, कि आप लोग ऐसा क्यों करते हैं?’

इसी समय लियो रोने लगा। शायद उसे भूख लग गई थी। डायपर भी चेंज करने वाला हो गया था। मैंने उसे एक हाथ में लिए-लिए ही, बेड पर उसकी रबर बेड-शीट बिछाई। और उसे लिटा दिया। मैं उसके लिए रेडीमेड बिस्तर भी ले आई थी। लिओ पूरे जोर-शोर से रो रहा था। 

उसे घर लाते समय, तमाम तरह की कार्यवाइयों को पूरा करते हुए मुझे इस बात का ध्यान नहीं रहा कि घर पहुँचते ही इसे भूख लग सकती है। हॉस्पिटल में तो वह भली महिला कावेरी, इसका रोना शुरू होते ही, ख़ुद ही इसे लेकर दूध पिलाने लगती थी। 

मैंने बहुत ही जल्दी से हॉस्पिटल के मिल्क-बैंक से लिया हुआ दूध, कटोरी में डाल कर, उसे गोद में सही पोज़ीशन में लेकर चम्मच से पिलाना शुरू किया। लेकिन वो बार-बार उगल देता। ख़ूब हाथ-पैर चलाता हुआ मेरे स्तन ढूँढ़ता रहा था। बड़ी मुश्किल से किसी तरह दूध पिलाया। पेट भरते ही वह एक बार फिर सो गया। 
मुझे ख़ुद भी बहुत भूख लगी हुई थी। दिन भर काम के कारण लंच तक करने का अवसर नहीं मिल पाया था। पूरा दिन दो समोसे और कुछ बिस्कुट पर ही बीत गया था। दो हफ़्ते से घर पर भी नहीं थी। इसलिए फ़्रिज में रखी खाने-पीने की चीज़ें ख़राब हो गई थीं। जब लियो के लिए सामान ख़रीद रही थी, तब ध्यान ही नहीं रहा कि अपने लिए भी कुछ ले लेती। 

पर्स में रखी तीन-चार टॉफ़ियाँ निकालकर खाईं, पानी पिया, फिर कपड़े चेंज करके खाना बनाने लगी। लियो को मैं अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी। लेकिन उसे गोद में लेकर काम नहीं कर सकती थी, तो थोड़ा काम करने के बाद बार-बार उसे देखने जाती। बड़ी देर तक उसे देखती ही रहती। फिर मन में जो भावनाएँ, बातें उठतीं, उससे मेरे होंठों पर हल्की सी मुस्कान आ जाती। 

जैसे-तैसे मैंने चावल-दाल बनाया। कोई सब्ज़ी थी नहीं, तो अचार से ही काम चलाया। पाउडर-मिल्क से अपने लिए कई कप चाय बनाकर, फ्लास्क में रख ली। हालाँकि मुझे ब्लैक कॉफ़ी की आदत है, लेकिन पता नहीं क्यों उस समय चाय पीने का मन हो गया। लियो की दूध की बोतल निकाल कर उसे गर्म पानी से धोया। 

उसके लिए रात-भर के हिसाब से दूध लेकर आई थी। उसे फ़्रिज में रखा था। खा-पीकर एक किताब और एक कप चाय लेकर, मैं लियो के बग़ल में ही बेड पर पीछे टेक लगाकर बैठ गई। 

चाय पीते-पीते बार-बार उसे देखती, एक उँगली से बड़े हल्के से उसके गालों को छूती। मन में बड़ी देर से जो बातें उठती चली आ रही थीं, उससे अब भी मेरे होंठों पर कभी मुस्कान आ जाती, और कभी उदासी। 

बढ़ते तनाव से बचने के लिए, मैंने सामने लगे टीवी को ऑन करके, उसका साउंड ऑफ़ कर दिया, जिससे लियो की नींद न टूट जाए। मैं यह विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कि लियो सुन नहीं सकता। उसकी तरफ़ एक सेंटर टेबल लगाकर, उस पर तकिया, दो-तीन बेड-शीट रखकर ऊँचा कर दिया। जिससे लियो सुरक्षित रहे। 

हालाँकि यह बात दिमाग़ में अच्छी तरह थी कि अभी तो यह करवट भी नहीं ले सकता। लेकिन मन में मेरे कुछ और चलता था, और करती कुछ और थी। शायद मैं अपने मन को शांत रखने के लिए वह सब कर रही थी, जिसकी वास्तव में उस समय कोई ज़रूरत ही नहीं थी। 

मैंने ऑफ़िस से महीने भर की छुट्टी ले ली थी। कई सालों से एक भी छुट्टी नहीं ली थी, ऊपर से एक्स्ट्रा हॉवर काम करती रहती थी, इसलिए छुट्टी मिलने में मुझे कोई मुश्किल नहीं हुई। बल्कि इंचार्ज ने व्यंग्य भी किया कि ‘चलो तुमने छुट्टी तो ली। भले ही उस बच्चे के लिए।’

मेरा मन न तो टीवी देखने में लग रहा था, न उपन्यास पढ़ने में। आख़िर हिंदी के महान लेखक नरेंद्र कोहली का वह उपन्यास ‘पूत अनोखो जायो’ रख दिया। स्वामी विवेकानन्द पर केंद्रित यह बहुत मोटा सा, छह सौ पचपन पृष्ठों का उपन्यास मैं क़रीब दो महीने से पढ़ रही थी। 

कभी भी सात-आठ पेज से ज़्यादा पढ़ ही नहीं पाती थी। क्योंकि थकान के मारे दिमाग़ और आँखें साथ नहीं देती थीं। उस दिन इतनी पस्त थी कि एक लाइन पढ़े बिना ही, लियो की तरफ़ करवट लेकर लेट गई। रात ज़्यादा नहीं हुई थी, फिर भी मुझे तेज़ नींद लगी हुई थी, लेकिन मैं सो नहीं पा रही थी। आँखें बंद करते ही लियो दिखने लगता। मेरी आँखें खुल जातीं। 

आख़िर हार कर मैं हमेशा की तरह फिर से मदर की शादी का एल्बम उठा लाई। कभी एल्बम तो कभी टीवी को देखते-देखते घंटा भर बीता होगा कि मैं एल्बम लिए-लिए ही सो गई। 

सोते ही मैं सपना देखने लगी कि मैंने लियो को अपनी छाती पर लिटाया हुआ है, उसके साथ बातें कर रही हूँ। मेरी बातों पर वह ख़ूब हाथ-पैर चला रहा है। बीच-बीच में थक जाता है, तो अपने नन्हें-नन्हें नाज़ुक से हाथों से मेरी छाती से कपड़े हटाने की कोशिश करने लगता है। 

उसे चिढ़ाने के लिए मैं कपड़ों पर हाथ रख लेती हूँ। जब वह कपड़े नहीं हटा पाता है, तो रोने लगता है। उसका रोना देख कर मैं एकदम भाव-विह्वल हो ख़ुद ही कपड़े हटा देती हूँ। 

स्तनों को देखते ही वह जल्दी से निपल मुँह में लेने के लिए मचलने लगता है। निपल तक नहीं पहुँच पाने पर फिर रोने लगा, तो मैंने अपने हाथों से निपल उसके मुँह में दे दिया। 

वह चुटुर-चुटुर की आवाज़ के साथ दूध पीने लगता है। दोनों हाथों से स्तनों को पकड़ने के चक्कर में उन पर चट-चट हथेलियाँ मारता, ख़ूब भर-पेट दूध पिए जा रहा था। 

मुझे दूध इतना ज़्यादा हो रहा है, कि दूसरे स्तन से अपने आप ही, उसकी धाराएँ निकल-निकल कर मेरे कपड़े भिगो रही हैं। इसी बीच न जाने कहाँ से अट्ठाईस साल बाद मेरी मदर, मेरे सौतेले पिता को लेकर आ धमकीं। 
आते ही उन्होंने झटके से लियो को पकड़ कर एक तरफ़ झटक दिया और चीखती हुई बोलीं, “बेवक़ूफ़! दूसरे के बच्चे को दूध पिला रही है। तू तो मदर है ही नहीं, तुझे दूध कैसे हो सकता है। किसे बेवक़ूफ़ बना रही है।” 

मुँह से निपल झटके से खिंचने के कारण मेरे निपल से ख़ून निकलने लगता है। 

मदर के इस व्यवहार से मुझे बहुत तेज़ ग़ुस्सा आ जाता है। मैं बड़ी फ़ुर्ती से उठ कर खड़ी हो गई मदर के सामने और तेज़ आवाज़ में कहा कि “आप कौन होती हैं मुझे कुछ कहने वाली . . .” इसी के साथ मेरी नींद खुल गई और मैं झटके से उठ बैठी। मैं पसीना-पसीना हो रही थी। लियो अपनी ख़ास तरह की आवाज़ में रो रहा था। 

मैंने एक नज़र अपने कपड़ों पर डाली फिर लियो को उठा लिया। गोद में आते ही वह चुप होकर छाती टटोलने लगा। मुझे सपने में कही गई मदर की बात याद आई, ‘तू तो मदर है ही नहीं।’ मैं बड़े असमंजस में थी कि दसियों साल हो गए, सपने में तो मदर को कभी देखा ही नहीं। एल्बम में जैसी हैं, बिल्कुल वैसी ही दिख रही थीं। 

मैंने सोचा लेकिन अब-तक तो बूढ़ी हो चुकी होगी। सौतेले फ़ादर की तो कभी फोटो भी नहीं देखी। बिलकुल सिख जैसे लग रहे थे। तो क्या मेरे सौतेले फ़ादर सिख हैं। वह भी मदर की तरह एकदम यंग हैं। तो क्या मदर सिक्खड़ी बन गई हैं। उन्होंने तो लियो को ज़मीन पर पटक ही दिया था। 

कितनी फ़ुर्ती से मैंने लियो को ज़मीन से कुछ इंच ऊपर ही पकड़ लिया था। और मदर को डाँटते हुए लियो को चूम लिया था। यह क्या हो रहा है? मुझे ऐसा सपना क्यों आया? क्या मतलब है इसका? 

मैं ऐसा ही कुछ सोच रही थी कि इसी बीच लियो और तेज़ रोने लगा। मेरे मन में न जाने क्या आया, न जाने किस भावना से प्रेरित होकर मैंने कपड़े हटाकर, उसके मुँह में निपल दे दिया। वह तुरंत चुप हो गया। 

लेकिन कुछ ही क्षण में, उसे छोड़कर वह फिर रोने लगा। मेरे दिमाग़ में तुरंत ही माँ की बात गूँजी ‘तू तो मदर है ही नहीं।‘ यह बात आते ही मैंने लियो को कलेजे से लगा लिया। मन ही मन बोली, ‘मैं ही हूँ तेरी मदर। किसी के कहने से मुझ पर कोई फ़र्क़ पड़ने वाला नहीं।’ 

पहली बात तो यह कि वह होती कौन हैं मुझे कुछ कहने वाली। वह मेरी क्या, किसी की भी मदर कहलाने लायक़ नहीं हैं। लियो को मैंने फिर पहले की ही तरह बड़ी मुश्किल से दूध पिलाया। 

उसके सो जाने के बाद उसकी बोतल भी भरकर रख ली। जिससे उठने पर उसे तुरंत दूध दे सकूँ, उसे रोना ना पड़े। मैं पहले दिन रात-भर सो नहीं सकी। जहाँ आँखें बंद करती, मुझे लगता जैसे लियो मेरी छाती पर लेटा दूध के लिए मचल रहा है। और मेरी आँखें खुल जातीं। 

लियो औसतन दो-ढाई घंटे में जाग जा रहा था। जब-जब मैं उसे दूध पिलाती तो यह ज़रूर सोचती कि इस समय इसे माँ का दूध मिलना ही चाहिए। आज तक तो मिल गया। भले ही दूसरी माओं का। 

लेकिन कल से तो डिब्बे वाले दूध का ही सहारा है। काश बच्चे पैदा किए बिना भी, औरत के निपल को बच्चे के मुँह में देते ही, दूध आ जाने की व्यवस्था नेचर ने की होती। 

अगले दिन तो लियो ने जैसे आफ़त ही कर दी। डिब्बे का दूध मुँह में जाते ही उगल देता। मेरी हर कोशिश बेकार हो रही थी। भूख से लियो की रुलाई देखकर मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे। मुझसे उसकी रुलाई देखी नहीं जा रही थी। 

अचानक मुझे हॉस्पिटल में लियो को दूध पिलाने वाली कावेरी याद आई। वो लियो को अपने आँचल से ढक कर दूध पिलाती थी। मैंने तुरंत ही अपना टाइट कुर्ता उतारा। दुपट्टे को साड़ी की आँचल की तरह ओढ़ लिया। 
लियो को गोद में लेकर निपल उसके मुँह में दिया, कुछ सेकेण्ड दूध न मिलने पर जैसे ही उसने रोते हुए मुँह हटाया, मैंने उसके मुँह में बोतल का निपल दे दिया। उसने पीना शुरू कर दिया, दो-तीन बार शुरू में छोड़ा, उसके बाद पीने लगा। 

फिर तो उसे दूध पिलाने का यही तरीक़ा हर बार का हो गया। जब वह आसानी से दूध पीता तो उसे देखकर मुझे इतना संतोष मिलता कि मेरी आँखें भर आतीं। बार-बार कुर्ता या टी-शर्ट उतारने की झंझट से बचने के लिए मैंने सामने से खुलने वाली मैक्सी पहननी शुरू कर दी। 

मुझे सबसे ज़्यादा समस्या होती थी खाना बनाने, घर की साफ़-सफ़ाई, कपड़ा धोने और नहाने के समय। मैं बाथरूम का दरवाज़ा खुला रखकर, लियो के पालने को अपनी आँखों के सामने ही रखती। 

मैं उसकी ख़ूब मालिश करती, लेकिन किसी ब्रांडेड बेबी मसाज ऑइल वग़ैरह से नहीं। क्योंकि मीडिया में ऐसी कुछ रिपोर्ट्स के बारे में चर्चा सुनी थी कि इन ब्रांडेड बेबी मसाज ऑइल में कुछ ऐसे हानिकारक रासायनिक तत्व भी हैं, जिनसे बच्चों को त्वचा सम्बन्धी गंभीर बीमारी होने की प्रबल सम्भावना होती है। 

मैं यह सोच कर ही सहम जाती कि स्किन कैंसर होने का भी ख़तरा बहुत बढ़ जाता है। ऐसे कुछ मामले सामने आए भी हैं। यह बातें जानने के बाद से ही मेरा विश्वास सभी रासायनिक तेलों के ऊपर से पूरी तरह उठ गया था। मैं हॉस्पिटल में नवजात बच्चों की माओं को मसाज आयुर्वेदिक तेल से ही शुरू करने की सलाह देती थी। 
मैं लियो की आयुर्वेदिक तेल से ही मालिश करती, उसको सरसों और बेसन का उबटन लगाती। यह सब करते-करते मैं दिन-भर में थक कर चूर हो जाती। मैंने एक बार सोचा कि कोई नौकरानी रख लूँ। 

लेकिन यह सोच कर, यह बात मन से निकाल दी कि मुझे ज़्यादा से ज़्यादा पैसा बचाना है। लियो का जहाँ भी, जैसे भी होगा, ट्रीटमेंट करवाना है। जैसे भी हो कम से कम इसकी आँखें तो ठीक करवानी ही हैं। 

घर आने के बाद से ही मैं नेट पर बड़े-बड़े हॉस्पिटल्स के उन डॉक्टर्स को सर्च कर रही थी, जो ‘ईऐनटी’ और आँखों की फ़ील्ड के जाने-माने नाम थे। जहाँ भी मुझे उम्मीद दिखाई देती, लियो की रिपोर्ट वहाँ भेजती। ऑनलाइन डॉक्टर की फ़ीस भी भेजती रहती है। मगर हर जगह से मुझे निराशा ही निराशा हाथ लग रही थी। 
मेरी असली परीक्षा तो तब शुरू हुई, जब छुट्टियाँ ख़त्म होने के बाद हॉस्पिटल ज्वाइन किया। पहले ही की तरह वर्क-लोड बहुत ही ज़्यादा था। पंद्रह-सोलह घंटे की ड्यूटी करनी पड़ रही थी। लियो को साथ ले जाने के अलावा मेरे पास कोई और रास्ता नहीं था। 

हॉस्पिटल में क़िस्म-क़िस्म के इन्फ़ेक्शन से बच्चों को संक्रमित होने का डर बहुत ज़्यादा रहता है। यह सोचते ही मैं सहम जाती थी। लेकिन विवश थी। उसको कहाँ, किसके सहारे छोड़ती। ग़नीमत यह थी कि लियो अब बोतल से आराम से दूध पी लेता था। 

हॉस्पिटल में मुझे मेरी आशाओं के विपरीत बहुत सहयोग मिलने लगा, मेडिसिन स्टोर पर बैठने वाली मेरी मित्र तृषा और मेरी सीनियर नर्स वृंदा तो शुरू से ही मेरी बहुत मदद करती आ रही थीं। जब मैं ज़्यादा बिज़ी होती, तो इनमें से कोई न कोई लियो को सँभाल लेती। पूरा स्टॉफ़, डॉक्टर भी लियो के प्रति मेरे लगाव को देखकर आश्चर्य में पड़ जाते। 

कोई न कोई अक़्सर कहता है कि ‘तुमने अपने को लियो के साथ एक सगी माँ की तरह अटैच कर लिया है। माँ से भी ज़्यादा उससे प्यार कर रही हो। मान लो कभी उसके रियल पेरेंट्स आ गए, पुलिस ने उन्हें ढूँढ़ लिया, तब तो क़ानूनन उसे वापस करना ही पड़ेगा। तब तुम्हें बड़ी तकलीफ़ होगी। कैसे सँभालोगी ख़ुद को।’

यह सुनकर मैं बहुत गंभीर हो जाती। एकदम चुप हो जाती। आँखों में आँसू आ जाते। कई बार तो उस समय लियो को गोद में ऐसे उठा लेती जैसे कि कोई तुरंत ही उसे उठा ले जाएगा। 
मैं रूँधे गले से कहती कि “उनके हाथ-पैर जोड़ लूँगी। कह दूँगी कि जैसे छोड़ गई थी इसे, वैसे ही भूल जाओ हमेशा के लिए। तुमने कोई प्यार से इसे जन्म नहीं दिया। इसके साथ जो किया, उससे तो यही पता चलता है कि तुम्हारे लिए यह सबसे बड़ी समस्या था। 

“यह तुम्हारी चाहतों का नहीं, तुम्हारी अय्याशी के कारण हुआ एक्सीडेंटल बेबी है। जिससे तुम जन्म के पहले से ही घृणा करती थी। उसे मरने के लिए छोड़ कर भाग गई थी। उस समय तो यह ख़ूबसूरत बेबी था। तुम्हें मालूम ही नहीं था कि इसे कोई प्रॉब्लम है।” फिर भी नहीं माने तो कह दूँगी कि “जाओ, जो करना है कर लो, नहीं दूँगी। लड़ लो मुक़दमा। मेरे जीते जी मेरे लियो को अब मुझसे कोई नहीं ले पाएगा। 

“मैं कोर्ट में साबित कर दूँगी कि जिस माँ-बाप ने जन्म के कुछ घंटे बाद ही बच्चे को लावारिस मरने के लिए छोड़ दिया, ऐसे क्रूर हत्यारे माँ-बाप को बच्चे को दिया जाना बच्चे की जान को ख़तरे में डालना है।”

मेरे भाव, मेरी दृढ़ता देखकर सभी चुप हो जाते। यही प्रार्थना करते कि वह न लौटें। पुलिस रियल पेरेंट्स को ढूँढ़ ही ना पाए। वो कहते, “लियो के लिए तुमसे अच्छी माँ वो हो ही नहीं सकती।” और यही सच होता चला गया। पुलिस उन्हें ढूँढ़ ही नहीं पाई। वैसे भी ऐसे मामलों में पुलिस ज़्यादा पेन लेती ही कहाँ है। 

और फिर तेज़ी से साल दर साल बीतते चले गए, लियो बड़ा होता गया। मैं हर साल घर पर ही लियो का बर्थ-डे मनाती थी। 

एक-एक करके जब पाँच साल निकल गए, तो मैं उसकी पढ़ाई को लेकर चिंतित रहने लगी। मैंने हर तरह से यह पता किया कि क्या ऐसे बच्चों को पढ़ाने का भी कोई सिस्टम है, जो जन्म से गूँगे, बहरे, अंधे तीनों हों। 
मुझे हर जगह यही जवाब मिला कि नेत्रहीन बच्चों के लिए ‘ब्रेल लिपि’ तो है, लेकिन उसके माध्यम से भी पढ़ाई तभी सम्भव है, जब बच्चा कम से कम सुनना अवश्य जानता हो। 

मुझे लियो जैसे बच्चों को पढ़ाने वाला कोई स्कूल, कोई मैथेड नहीं मिला। लेकिन मैं निराश नहीं हुई। तय किया कि जैसे भी हो, मैं कोई न कोई तरीक़ा अवश्य ढूँढ़ूँगी, जिससे लियो को पढ़ा सकूँ। उसे इस दुनिया के स्याह-सफ़ेद दोनों पक्ष दिखा सकूँ। 

मैं जब-जब यह सोचती, तब-तब मुझे चार जनवरी अठारह सौ नौ को फ़्रांस में जन्में लुई ब्रेल याद आते। जिन्होंने मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में नेत्रहीनों को पढ़ने के लिए विशिष्ट प्रणाली विकसित कर दी। जो उन्हीं के नाम पर लोगों के बीच लोकप्रिय होती चली गई। 

साथ ही मुझे उनके दुर्भाग्य पर भी बड़ा तरस आता। सोचती वह लियो से कम दुर्भाग्यशाली नहीं थे। पहले तीन साल की उम्र में चोट लगने से अच्छी-भली आँखों की ज्योति गवाँ बैठे। और जब एक तरह से नेत्रहीनों की ज्योति बनने वाली प्रणाली विकसित कर दी, तो उनके जीते-जी क्रूर समाज ने उनके नाम पर उसे मान्यता नहीं दी। क्रूरता, अन्याय भी इतना कि वो मर गए, सौ साल बीत गए, तब अन्यायियों की सोई आत्मा जागी। उनके गाँव ‘कुप्रे’ में बनी उनकी क़ब्र पर इकट्ठा होकर, उनके अवशेष को निकाल कर उन्हें राजकीय सम्मान दिया। 

मगर इन सबका कोई अर्थ भी है? जब-तक वह जीवित रहे तब-तक तो उन्हें अपमानित ही किया। सौ साल तक उनके काम को एक सेनाधिकारी चार्ल्स बार्बर के नाम से स्थापित करने कोशिश की। 

मैं सोचती कि गॉड ने भी मेरे लियो और लुई ब्रेल के साथ सिर्फ़ अन्याय ही अन्याय किया। लुई को पहले टीबी जैसी भयानक बीमारी दी, फिर मात्र तैंतालीस साल की उम्र में बुला लिया। अगर वह उन्हें लम्बा जीवन देते, तो वो लियो जैसे लोगों के लिए भी कोई प्रणाली ज़रूर विकसित कर देते। आख़िर वो स्वभावतः एक आविष्कारक थे। 

मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट दुःख तब होता, जब लियो खाने-पीने की चीज़ें माँगने के लिए हाथ से तरह-तरह के संकेत करता, लेकिन मैं समझ ही न पाती। ऐसे ही बाथरूम जाने की बात कहता, लेकिन वह भी समझ न पाती, जिससे उसके कपड़े ख़राब हो जाते। 

एक दिन जब वो बच्चों वाले कमोड पर बैठा हुआ था, तभी मेरे दिमाग़ में आया कि क्यों न मैं भी लुइ ब्रेल की तरह प्रयास करूँ। लियो, लियो जैसे बच्चों को पढ़ाने की प्रणाली ढूँढ़ूँ। यह सोचते ही मेरे दिमाग़ में एक प्रणाली की रूप-रेखा कुछ-कुछ स्पष्ट होने लगी। 

मैंने लियो का एक हाथ पकड़ कर पहले कमोड को दो-तीन तरफ़ टच कराया, फिर उसके पेट पर अपने हाथ से लिखा टॉयलेट। यह क्रिया मैंने छह-सात बार दोहराई। उसे वापस कमरे में लाकर फिर उसके पेट पर ही अपनी उँगली से लिखा टॉयलेट, फिर वापस ले जा कर कमोड को टच कराया। 

पाँच-छह दिन यह प्रैक्टिस करवाने से लियो समझ गया कि टॉयलेट जाना है, यह बताने के लिए किस तरह टेढ़ी, आड़ी, तिरछी, ऊपर, नीचे लाइनें बनानी हैं। मैंने उसे यह भी बताया कि तुम्हें कुछ कहना है, यह बताने लिए पहले ताली बजा कर मुझे बुलाया करो। 

चौथे दिन ही, महसूस होने पर उसने पहले ताली बजानी शुरू कर दी थी। पहली बार उसके ऐसा करने पर मैंने उसके पास पहुँच कर अपनी हथेली की दूसरी तरफ़ से उसके पेट पर दाएँ-बाएँ करके पूछा क्या है? तो उसने मेरे पेट पर टॉयलेट लिख दिया। हालाँकि पहली बार पूरी तरह सही नहीं लिख पाया था। 

लेकिन उसकी उँगलियों के मूवमेंट को समझते ही, मैं इतनी ख़ुश हुई कि लियो को गले से लगा लिया। और रूँधे गले से बोली, ‘माय सन, माय सन, मैं तुझे ख़ूब पढ़ाऊँगी।’

इस स्पर्श लिपि प्रणाली को मैं इतना विकसित कर लेना चाहती थी कि उसके सहारे लियो को ख़ूब पढ़ा सकूँ। 
एक दिन मैं स्लेट और चॉक ले आई। उसे एक-एक चीज़ टच कराती और फिर स्लेट पर उससे लिखवाती। यह सब मैं रोमन में लिखवाती थी। सबसे पहले मैं अपने को स्पर्श कराती फिर मदर लिखवाती, साथ में अपना नाम फ़्रेशिया भी। उसे उसका भी नाम लिखवा कर रटाया। 

इसके बाद मैंने उसे खाने-पीने की चीज़ों के बारे में भी बताया। जिससे वह अपनी मन-पसंद चीज़ें माँग सके। हालाँकि उसे एक-एक चीज़ को बताना बहुत कठिन हो रहा था। मगर इन सब पर अकेले भारी पड़ रहा था लड़की, लड़के का अंतर बताना। 

यह एक ऐसा काम था, जिसे बताने का रास्ता मुझे लाख प्रयासों के बाद भी नहीं सूझ रहा था। कई महीने बीत गए लेकिन बात जहाँ की तहाँ ठहरी हुई थी। जो तरीक़ा आसानी से मेरे दिमाग़ में कौंध कर गुम हो जाता, वह मुझे घोर अनैतिक लगता। एक दिन रोटियाँ बनाते समय मुझे एक तरीक़ा सूझा। 

मैंने आटे से लड़के-लड़की की मूर्ति बनाई। फिर लियो से उन्हें हर जगह टच कराया। विशेष रूप से उन हिस्सों को जो लियो को लड़के, लड़की का अंतर समझा सकें। 

ढेरों प्रयासों के बाद उसने जो प्रतिक्रिया दी, उससे मैं बहुत ख़ुश हुई, कि मैंने सबसे बड़ी परीक्षा पास कर ली है। मेरे प्यारे लियो ने मेल-फ़ीमेल का अंतर समझ लिया है। जिसे मैं न सुलझ पाने वाली सबसे जटिल समस्या समझ रही थी, वह थोड़ी ज़्यादा मुश्किलों के बाद अंततः सुलझ गई है। 

लेकिन मैं पूरी तरह ग़लत थी। वास्तव में समस्या अनंत गुना ज़्यादा उलझ गई थी। इतना ज़्यादा जटिल हो गई थी कि उसने मेरे दिमाग़ के सारे तंतुओं को ही उलझा कर रख दिया। बात दिमाग़ से निकलती ही नहीं। मेरे सिर का चकराना बंद ही नहीं हो रहा था। 

हुआ यह कि लियो को पढ़ाई गई बातों को मैं थोड़े-थोड़े समयांतराल पर चेक करती रहती थी। वैसे ही जब मेल-फ़ीमेल अंतर की बात को भी चेक किया तो बहुत बड़ी उलझन में पड़ गई। 

लियो ने कुल मिला कर मेल-फ़ीमेल का मतलब यह समझा था कि मेल मतलब स्वयं और फ़ीमेल मतलब आटे की बनी गुड़िया। 

मैं जहाँ से शुरू हुई थी, वहीं नहीं बल्कि उससे भी और पीछे चली गई हूँ, यह जानकर मुझे कुछ देर को बड़ी निराशा हुई। मुझे लगा कि लियो को मैं मेल-फ़ीमेल का अंतर कभी नहीं समझा पाऊँगी। 

यह गॉड द्वारा बनाए गए इस अंतर को जाने बिना ही अपना जीवन जिएगा। इसके लिए यह एक और भयानक सज़ा से कम नहीं है, यह सोचकर मैं एकदम तड़प उठी। मैंने सोचा नहीं-नहीं, यह अपना जीवन इस सज़ा को भुगतते हुए ऐसे ही बिलकुल नहीं जिएगा। मैं इसे यह अंतर समझा कर ही रहूँगी, चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े। किसी भी सीमा तक जाना पड़े। 

मैं उसी क्षण से वह तरीक़ा ढूँढ़ने लगी, जिससे उसे अंतर समझा सकूँ। एक समस्या यह भी पैदा हो गई थी, कि वह अपने नाम और लड़का को लेकर कन्फ्यूजन में पड़ गया। पहले जहाँ लियो का मतलब स्वयं को समझता था, अब वह लड़का का मतलब स्वयं को समझने लगा। 

सोचते-सोचते कई दिन निकल गए, लेकिन मुझे कोई भी रास्ता सुझाई नहीं दे रहा था। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, वैसे-वैसे मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 

एक दिन हॉस्पिटल से छुट्टी मिलने पर घर के लिए निकली। हमेशा की तरह लियो भी साथ में था। चलते समय स्कूटर पर उसे सामने पैरों के बीच खड़ा कर लेती थी। उस दिन भी खड़ा करते समय, समस्या समाधान के लिए मैंने दृढ़ता-पूर्वक मन ही मन एक निर्णय ले लिया। निर्णय लेते ही मेरा चेहरा लाल हो गया। 

रास्ते-भर मैं यह सोचती रही कि इस समस्या के समाधान के लिए मैं नैतिक, अनैतिक के प्रश्न को बीच में लाई ही क्यों? ऐसी समस्याएँ, इनके समाधान के हर प्रयास, तरीक़े नैतिक-अनैतिक की सीमाओं से परे होती हैं। 
मेडिकल साइंस अगर नैतिक-अनैतिक की सीमा में बँध कर आगे बढ़ती, तो कोई भी वैक्सीन, दवा, चिकित्सीय यंत्र बन ही नहीं पाते। मैं अपनी तरह के एक अनोखे रेअर ऑफ़ रेअरेस्ट केस को सॉल्व करने की कोशिश कर रही हूँ। 

सफल हुई तो अपनी खोज पर एक पूर्ण व्यवस्थित पुस्तक लिखुँगी, जिससे ऐसे अन्य केस भी सॉल्व किए जा सकें। मैं अपनी कोशिश तब-तक बंद नहीं करूँगी, जब-तक मैं सफल नहीं हो जाऊँगी। लियो को इस दुनिया की हर चीज़ को जानने-समझने, पढ़ने-लिखने लायक़ नहीं बना दूँगी। 

घर पहुँच कर चाय-नाश्ता, खाना-पीना, यह सब करते समय भी मेरी कैलकुलेशन बंद नहीं हुई थी। लियो के कुछ बड़ा होने के बाद से ही, मैं नाना-नानी का डबल-बेड प्रयोग करने लगी थी। जिससे हम-दोनों ज़्यादा जगह में आराम से सो सकें। मैं लियो को हमेशा दीवार की तरफ़ लिटाती थी। 

उस दिन भी सोने से पहले मैं हमेशा की तरह उसके साथ खेल रही थी। उसको गुदगुदी लगाती, पलट कर वह भी वैसा ही कर रहा था। टीवी भी चल रहा था। जिस पर मैं बीच-बीच में नज़र डाल लेती थी। मगर इन सबके बीच दिमाग़ में यही चलता रहा कि जो निर्णय लिया था, उस पर आगे बढ़ूँ, कि नहीं। 

इस असमंजस में खेल-कूद लंबा खिंच गया। अचानक ही मेरा चेहरा फिर लाल हो गया। मेरे चेहरे पर इतनी ज़्यादा तमतमाहट, उत्तेजना तो उस समय भी नहीं होती थी, जब कॉलोनी में कुछ लोगों ने मुझसे लियो के बारे में पूछताछ की थी। और मैंने बिना हिचकिचाहट के झूठ बोला था कि मैंने एकल माता-पिता के रूप में लियो को गोद लिया है। 

मैंने पहले हँसते, खेल-कूद करते, लियो के होंठों पर उँगली रखकर उसे शांत किया, उसके हाथों को रोका। एक बार फिर उससे अंतर जानने, समझाने, बताने की कोशिश की, तो बात जहाँ की तहाँ ठहरी हुई ही मिली। इस पर मैं कुछ देर तक मूर्तिवत उसे देखती रही। कुछ हलचल न होने पर लियो ने फिर से हाथ मेरी तरफ़ बढ़ाया। 

मैंने दोनों हाथों से उसकी हथेलियों को प्यार से पकड़ कर चूम लिया। उतने ही प्यार से उसके कपड़े भी उतार कर अलग रख दिए। अपने भी। फिर लियो के हाथ को पकड़ कर उसके विशिष्ट अंगों को स्पर्श कराया। उसके बाद अपने सारे अंगों को भी। साथ ही अपनी ख़ुद की विकसित स्पर्श लिपि से समझाने का प्रयास किया। 
मैंने महसूस किया कि उसने कई बार के प्रयास के बाद अंतर को काफ़ी हद तक समझ लिया है। ठीक से समझाने के लिए, अंतर को एकदम से स्पष्ट कर देने वाले अंगों को स्पर्श कराने, बताने पर मैंने विशेष ध्यान दिया। 

मैंने उसे यह भी सिखाया था कि जब वह कोई काम सीख ले, जान ले, बात पूरी हो जाए, तो ताली बजाकर इसकी पुष्टि ज़रूर करे। मैंने देखा जब वह अंतर समझने की क्रिया में लगा हुआ था, तब बहुत अजीब तरह से ऐसे शांत हो गया था, जैसे कोई बहुत ही गंभीर बात सोच रहा हो। 

लेकिन काफ़ी देर बाद जब उसने अंतर समझ लिया तो ताली बजाकर हँसा था। उसकी ताली और हँसी से मुझे अपने उद्देश्य में सफल होने का सर्टिफ़िकेट मिल गया था। मैंने ख़ुशी के मारे उसे गले से लगा लिया था। 
मुझे बहुत संतोष हो रहा था कि मेरा बेटा, जी हाँ, मैं उसे अपना बेटा ही कहती थी, उसने वह अंतर समझ लिया है, जिसे जानना उसके लिए बहुत ज़रूरी था। जिसे जाने बिना उसका जीवन अधूरा था। 

जो उसे, उसके अस्तित्व के महत्त्व को समझा रहा था। उसे अपने होने के महत्त्व का अनुभव करा रहा था। मैं उसे बड़ी देर तक बाँहों में जकड़े बैठी-बैठी बाएँ-दाएँ पेंडुलम की तरह हिलती रही। लियो भी अपनी छोटी-छोटी बाँहों से मुझे पकड़े उसी तरह से चिपका हुआ था जैसे बंदरिया का बच्चा उससे चिपका रहता है। 

कुछ देर बाद मैं उसे ऐसे ही पकड़े-पकड़े लेट गई। कुछ इस तरह मानो शरीर को थकाकर तोड़ देने वाला कोई जीवन-मरण से जुड़ा, बहुत बड़ा काम सफलता-पूर्वक करके फ़ुर्सत मिली है, चलो अब आराम करें। 

लेटने के बाद भी मैं उसको अपने से सटाए रही। वह भी दुध-मुँहे बच्चे की तरह चिपका रहा। उसके हाथों की उँगलियाँ उसी तरह ख़ुदुर-फुदुर करती रहीं, जैसे दुध-मुँहा बच्चा शान्ति से दूध पीता हुआ माँ की छातियों पर करता है। 

उसकी उँगलियाँ मेरे निपल को पकड़े इधर-उधर ऐसे करती रहीं, जैसे कि अभी-अभी अपना सीखा हुआ पाठ पूरी गहराई से समझने, कंठस्थ करने में लगा हुआ है। 

छह साल की उम्र में उसने प्रकृति द्वारा स्थापित स्त्री-पुरुष के अंतर को, प्रकृति के द्वारा ही खड़ी की गई हर बाधा को, मदर के द्वारा अदम्य साहस, मेहनत से हटाए जाने के बाद समझ लिया था। 

ऐसे ही उसने मदर की उँगलियों के सहारे प्रकृति द्वारा खड़ी की गई, हर उस बाधा को, बात को, पार करना, सीखना जारी रखा, जिसके सहारे प्रकृति ने उसे हर उस बात से अनभिज्ञ रखने की जी-तोड़ कोशिश की थी, जो उसने स्वयं इस सृष्टि को सृजित करने हेतु प्रयोग की हुई है। 

मैंने पूरे मन-प्राण से उसको अच्छी से अच्छी परवरिश देकर जल्दी ही एक हृष्ट-पुष्ट बालक बना दिया। वह अपनी उम्र के बालकों में सबसे ज़्यादा हृष्ट-पुष्ट लंबा और सुंदर दिखता था। 

जैसे-जैसे वह बढ़ रहा था, उसकी आँखों को लेकर मेरी चिंता भी बढ़ती जा रही थी। इस बीच देश-विदेश में ऐसा कोई नाम-चीन हॉस्पिटल, डॉक्टर नहीं था जिससे मैंने संपर्क न किया हो। 

मैंने स्वयं कई आई, ईएनटी स्पेशलिस्ट से सलाह-मशविरा करके उसकी एक-एक डिटेल्स की रिपोर्ट तैयार की थी। वही दुनिया-भर में हर आई, ईएनटी स्पेशलिस्ट्स, हॉस्पिटल्स को मेल करती थी। 

मैं जी-जान से यही प्रयास कर रही थी कि तीनों अंग न सही, कम से कम आँखें या फिर बोलना, सुनना, कुछ तो सही हो जाए। जिससे इसे जीवन में मेरे या किसी के भी सहारे की ज़रूरत कम या फिर एकदम न रहे। आँख प्रत्यारोपण के ऑपरेशन के लिए मैं अपनी एक आँख भी डोनेट करने के लिए तैयार थी। 

लेकिन यहाँ मैं प्रकृति की बाधाओं को पार नहीं कर पा रही थी। हाँ स्पर्श-लिपि के ज़रिए उसे जीवन, दुनिया से ज़्यादा से ज़्यादा परिचित कराती जा रही थी। यहाँ मुझे प्रकृति लाख कोशिश करके भी पिछाड़ नहीं पा रही थी। 

लेकिन इसके चलते मुझे कई बार नई-नई मुश्किलें भी झेलनी पड़ रही थीं। जैसे जिस दिन लियो ने लड़की-लड़के का अंतर समझा, उसके दो दिन बाद ही हॉस्पिटल में उसने मेडिसिन स्टोर कीपर तृषा से वैसा ही व्यवहार करने का प्रयास किया, जैसा मुझसे किया था। 

वह मासूम यह समझना चाहता था कि मदर ड्यूटी के दौरान जिनके पास उसे छोड़ जाती हैं, वह मदर ही की तरह उसका ध्यान रखती हैं, वह फ़ीमेल हैं या फिर मेल। उसकी इस मासूमियत को तृषा ने कुछ और ही तरह की शरारत समझा। और ख़ूब हँसी। 

जब मैं पहुँची तो मुझे बता-बता कर हँसते-हँसते, लोट-पोट होंने लगी। कहा, “तुम्हारा बेटा बहुत स्मार्ट है। तुमने उसे उसकी एक्चुअल एज से तीन गुना ज़्यादा बड़ा कर दिया है। 

“अब जल्दी से जल्दी इसकी शादी भी कर दो, नहीं तो ये ख़ुद ही कर लेगा। या कहीं मैं ही इस स्मार्ट बॉय को दिल न दे बैठूँ, और कर लूँ शादी। देखने में ज़रूर नन्हा-मुन्ना है, लेकिन वास्तव में स्मार्ट हस्बैंड बन जाएगा।”

उसकी बातें सुनकर मैं भी हँसी। लेकिन सच यह था कि भीतर-भीतर मेरा मन रो था। फिर भी ऊपरी मन से साथी से कहा, “ठीक है, मेरे बेटे से बनाओ मैरिज। बन जाओ मेरी बहू।”

हँसी-मज़ाक के बाद मैंने उसे बताया कि “इसे मेल-फ़ीमेल का अंतर बताया था। लेकिन मुझसे ग़लती यह हो गई कि इसे यह नहीं समझाया कि यह बात वह किसी और से नहीं करेगा।”

मैंने तृषा से सॉरी बोला, तो उसने कहा, “अरे इसमें सॉरी-वारी की कोई बात ही नहीं है। वह इतना मासूम है, उसे क्या मालूम यह सब। इस बेचारे के साथ तो ख़ुद ही इतना बड़ा मज़ाक हुआ है। इसके साथ हुए मज़ाक के सामने तो, दुनिया के सारे मज़ाक बौने हैं।”

यह कह कर उसने लियो के माथे को चूमते हुए कहा, “तुम इसके लिए किसी देवदूत से कम नहीं हो फ़्रेशिया। तुम इसकी नाक-कान, आँखें सब हो। तुम्हारे ही सहारे वह इस दुनिया को देख रहा है। मैं इतना ज़रूर कहूँगी कि इस दुनिया की ख़ूबसूरती ही इसे दिखाना। बदसूरती दिखाकर इसका मन मत दुखाना।”

मैंने कहा, “नहीं तृषा, इसे दोनों दिखाना ज़रूरी है। नहीं तो ये ख़ूबसूरती का महत्त्व नहीं समझ पाएगा।”

तभी लियो ने ताली बजाई। मतलब वह मुझसे कुछ कहना चाहता था। मैंने अपनी हथेली उसके हाथ से स्पर्श कराई, तो लियो ने टॉयलेट लिखना शुरू किया ही था कि मैं उसे टॉयलेट लेती गई। 

मैंने घर आकर रोज़ की तरह उसकी पढ़ाई आगे बढ़ाई। सबसे पहले उसे समझाना शुरू किया कि बाहर किसी को टच नहीं करना है। यह ग़लत है। जब उसने ऑफ़िस में ताली बजाई थी, तभी मैंने यह भी महसूस किया था कि आवाज़ ज़्यादा तेज़ थी। इससे कोई नाराज़ हो सकता है। बुरा मान सकता है। 

फिर मैंने कुछ सोचकर उसे हवा में ही शब्दों को लिखना सिखाना शुरू किया। एक तो हर समय स्लेट चॉक साथ रखना मुश्किल होता था, दूसरे हाथ पर कम जगह के कारण वह ठीक से लिख भी नहीं पाता था। 

मैंने सबसे पहले उसे सॉरी लिखना सिखाया। स्पर्श-लिपि की तरह इस वायु-लिपि को सीखने में उसे ज़्यादा दिक़्क़त नहीं हुई थी। मैंने उसे समझाया कि हॉस्पिटल में चलकर आंटी को सॉरी बोलना। अगले दिन मेरा ऑफ़ था, तो उसे अच्छे से सिखाने का पर्याप्त समय मिल गया था। 

लियो ने जब हॉस्पिटल पहुँच कर अपनी तृषा आंटी को हवा में लिखकर सॉरी बोला, तो वह समझ ही नहीं पाईं। और प्रश्न-भरी दृष्टि से मुझको देखने लगी, तो मैंने कहा, “ये परसों की बात के लिए तुमसे सॉरी बोल रहा है। वही लिख रहा है एस ओ आर . . .

“ओह, बेटा, बेटा तुमने ऐसा कुछ नहीं किया कि तुम्हें सॉरी बोलना पड़े। तुम्हारे जैसा प्यारा बच्चा कोई शैतानी कर ही नहीं सकता कि उसे सॉरी बोलना पड़े।”

फिर उसने मुझको देखते हुए कहा, “यार तुमने प्यारे से बच्चे को बेवजह परेशान किया। मुझे बहुत दुख हो रहा है।”

मैंने कहा, “दुख वाली कोई बात नहीं है। तुम अपनी हो, तुम्हें शुरू से सारी बातें मालूम हैं। लेकिन सब तो नहीं जानते न। कहीं और किया तो सोचो कितनी समस्या हो सकती है। कल को और बड़ा होगा, तब ऐसा करेगा तो इसकी जान भी ख़तरे में पड़ जाएगी। मैं तुम्हारी एहसानमंद रहूँगी कि तुमने बताया और मेरा ध्यान इस तरफ़ गया।”

“क्या यार, कैसी एहसान-वैसान की बात कर रही हो। आपस में इन बातों की कोई ज़रूरत नहीं है। तुमने तो ऐसा अनोखा काम कर दिया है, और आगे बढ़ा रही हो, जिसका दुनिया में दूसरा उदाहरण ही नहीं है। 

“मैंने कभी न सुना है, न पढ़ा है कि किसी अनमैरिड यंग लेडी ने किसी अपरिचित के बच्चे को ऐसे अपनाया हो और उसके लिए अपने सुख-दु:ख को भूल कर, उसी की परवरिश में एक-एक पल बिता रही हो। 

“तुम्हारा काम तो इसलिए और भी ज़्यादा ग्रेट है, क्यों कि तुमने एक स्पेशल चाइल्ड को अपनाया है। जबकि बहुत से सगे पेरेंट्स भी ऐसे होते हैं, जो अपने स्पेशल चाइल्ड को कहीं इधर-उधर छोड़ कर उनसे छुटकारा पा लेते हैं। मैं तो कहूँगी कि इसके लिए तुम्हें नोबेल या इससे भी बड़ा पुरस्कार मिलना चाहिए।”

“बस भी करो यार, कभी देव-दूत बना देती हो, तो कभी नोबेल दिला देती हो। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है कि ऐसे महान सम्मान पाने की अधिकारी बन जाऊँ। क्योंकि लियो के लिए न ही मैंने अपना सुख-चैन खोया है, न ही कुछ और। बल्कि लियो के लिए जी कर मुझे अच्छा लगता है। सुख मिलता है।”

मैंने जितनी गंभीरता से अपनी बात कही, तृषा ने उतनी ही गंभीरता से जवाब दिया कि “चलो जो भी हो, इतना तो ज़रूर कहूँगी कि तुम अद्भुत महिला हो।”

मैंने एक हल्की मुस्कान के साथ उसे देखा, और लियो को उसके पास छोड़कर ड्यूटी पर चली गई। 

लियो जैसे-जैसे बढ़ रहा था, मैं उसको स्वावलंबी बनाने के लिए उससे भी कहीं ज़्यादा मेहनत कर रही थी। उतनी ही ज़्यादा मेरी चिंता भी बढ़ती जा रही थी। 

वह जब क़रीब बारह साल का हुआ, तो मुझे अमेरिका के एक हॉस्पिटल से मिले जवाब से आशा की कुछ किरणें दिखाई दीं। 

वहाँ से आई मेल में लियो और पेरेंट्स की कुछ जाँचें इंडिया में ही करवा कर, उसकी रिपोर्ट्स भेजने के लिए कहा गया था। साथ ही पेरेंट्स के बारे में और कई बातें भी पूछी गई थीं। 

मैं समझ नहीं पा रही थी कि पेरेंट्स के बारे में क्या डिटेल्स भेजूँ। अंततः जो जाँचें लियो की करवानी थीं, उसको करवा कर रिपोर्ट्स, साथ ही पेरेंट्स, लियो और अपने बारे में सारी सही बातें लिख कर मेल कर दीं। 
लियो की तमाम गतिविधियों की भी मैंने कई वीडियो, स्टिल फोटोग्राफी आदि जो इसी उद्देश्य से तैयार की थी, उनको भी भेज दिया। हॉस्पिटल्स से आई जवाबी मेल में मेरी इन तैयारियों आदि की बड़ी प्रसंशा की गई, प्रोत्साहित भी किया गया। 

यह भी कहा गया कि यदि रिपोर्ट में उन्हें कोई पॉज़िटिव फ़ैक्टर मिल गया तो मुझे बुलाएँगे। कम से कम दस दिन रुकना पड़ सकता है। इसके साथ ही ट्रीटमेंट की अनुमानित फ़ीस भी बता दी गई। जो मेरे लिए बहुत ही ज़्यादा थी। 

लेकिन फिर भी मैंने हार नहीं मानी और पी. एफ़. में जितना कुछ था, वह सब निकाल लिया। इसके बावजूद फ़ीस की आधी रक़म भी इकट्ठा नहीं हो पाई थी। कोई रास्ता न देखकर मैंने मकान के पेपर्स तैयार किए। 

उस समय मैंने अपने नाना-नानी को ख़ूब धन्यवाद दिया कि उन्होंने अपने रहते ही मकान मेरे नाम ट्रांसफ़र कर दिया था। मैंने मकान बैंक को गिरवी रख कर, काम-भर से थोड़ा ज़्यादा लोन लेने की तैयारी कर ली। दौड़-भाग कर बैंक से लोन अप्रूव भी करवा लिया। 

मैं यह बात किसी को नहीं बताना चाहती थी। अपनी दो-तीन क्लोज़ फ़्रेंड को भी नहीं। लेकिन जब बैंक ने काग़ज़ी कार्रवाई पूरी करने के क्रम में हॉस्पिटल फ़ोन करके इंक्वायरी की, तो बात लोगों को पता चल गई। 

सब ने यही कहा कि मकान पर रिस्क नहीं लो। ऐसे इमोशनल होकर कोई डिसीज़न नहीं लिए जाते। आगे-पीछे सब ध्यान से सोच लो। तभी कोई क़दम बढ़ाओ। 

मैंने सभी को एक ही जवाब दिया, “मैं अपने बेटे के लिए कुछ भी कर सकती हूँ। मैं जो कुछ भी करने की कोशिश कर रही हूँ, यह सब तो मुझे कम ही लगता है।” मैं लोगों को संक्षिप्त सा जवाब देकर चैप्टर तुरंत ही क्लोज़ कर देती थी। 

इस विषय पर लोगों की ऐसी बातें मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आ रही थीं। लोगों ने भी मेरी भावना को समझते हुए चुप्पी साध ली। मैंने अपना, लियो का पास-पोर्ट भी बनवा लिया। कोई क़ानूनी अड़चन न आए, इसके लिए लियो को अपना अडॉप्टेड सन लिखा। स्वयं को सिंगल पेरेंट। 

कई शपथ-पत्रों की आवश्यकता पड़ी, मैंने वह भी कचहरी में नोटरी से बनवा कर रख लिए। अपने और पुलिस विभाग से भी कई सपोर्टिंग डॉक्यूमेंट तैयार करवाए। अमेरिकन हॉस्पिटल की इमेज भी लगानी पड़ी। जी-जान से लगकर मैंने सारे काम पूरे कर लिए। और बड़ी व्यग्रता से अमरीका से बुलावे का इंतज़ार करने लगी। 

हफ़्ते दो हफ़्ते के अंदर एक रिमाइंडर भी ज़रूर भेज देती थी। लेकिन दो महीने की प्रतीक्षा के बाद वहाँ से आई एक मेल ने सेकेण्ड-भर में मेरी सारी मेहनत, आशाओं पर पानी फेर दिया। हॉस्पिटल ने साफ़-साफ़ मना कर दिया कि अब कोई सम्भावना नहीं दिखती। नेत्र प्रत्यारोपण की भी नहीं। 

अपनी शुरूआती मेल में ही मैंने यह भी लिखा था कि नेत्र प्रत्यारोपण की स्थिति में मैं अपना नेत्र डोनेट करूँगी। संयोग से मेरा, लियो का ब्लड-ग्रुप भी एक था। मगर सब-कुछ सेकेण्ड-भर में समाप्त हो गया। मैं कई दिन बहुत रोई। हॉस्पिटल में भी मेरे आँसू निकल ही आते थे। 

मैं बीते दो महीनों से लियो को लेकर हर रविवार को चर्च भी जाती थी। ईसा मसीह, मरियम से प्रार्थना करती थी कि मेरे लियो को ठीक कर दें। 

निराशाजनक मेल से मैं इतनी दुखी हुई कि अगले कई रविवार घर से बाहर ही नहीं निकली। मैं लियो के लिए तरह-तरह के ऐसे खिलौने ले आती, जिनसे वह कुछ जान-समझ सके, सीख सके। उसके लिए एक छड़ी भी ले आई, जिससे वह ज़रूरत पड़ने पर बिना मेरी उँगली पकड़े भी घर में इधर उधर मूव कर सके। 

अमेरिका से निराशा हाथ लगने के बाद भी मैं नेट पर रूस, स्वीडेन, फ़्रांस, जापान, जर्मनी आदि तमाम देशों के डॉक्टर्स, हॉस्पिटल्स खंगालती रहती। लैंग्वेज की समस्या आती तो अपनी डिटेल्स को गूगल के ज़रिए वहाँ की भाषा में ट्रांसलेट कर लेती। साथ में अँग्रेज़ी वर्जन ज़रूर भेजती। 

यह खोज-बीन करते-करते एक बार जापान की, एक हाई-टेक कम्पनी की इलेट्रॉनिक छड़ी के बारे में पता चला तो वह भी मँगाई। जिसको लेकर चलने पर यदि कोई अवरोध सामने होता, तो वह वाइब्रेट करने के साथ-साथ बीप-बीप की तेज़ आवाज़ भी करती, जिससे सामने यदि कोई लापरवाह व्यक्ति है, तो उसका ध्यान नेत्रहीन व्यक्ति की तरफ़ चला जाए। 

लियो के लिए यह छड़ी बड़ी मददगार साबित हो रही थी। उसके लिए वह एक खिलौना भी बन गई थी। उसे लेकर चलता, और बार-बार मुझसे उसके सामने आ जाने को कहता। मेरे सामने पड़ने से वह वाइब्रेट करती, तो उसे मज़ा आता। बीप-बीप की आवाज़ सिर्फ़ मैं ही सुन पाती थी। 

लियो हर चीज़ को बड़ी जल्दी सीख लेता था। जब वह घर में छड़ी लेकर इधर-उधर टहलता, चलता तो मेरे आँसू निकल आते। मैंने उसकी बड़े स्टाइलिश हेयर स्टाइल बनवाया था। गोरा रंग, स्वस्थ शरीर, वह बहुत सुंदर लगता था। 

मैं उसे हर तरीक़े से, ज़्यादा से ज़्यादा सब-कुछ सिखा देना चाहती थी। जिससे वह किसी पर डिपेंड न रहे। देखते-देखते वह चौदह साल का हो गया। लंबाई में वह मुझसे ऊपर दिखने लगा था। अपने साथ हॉस्पिटल ले जाने के लिए जब उसे तैयार करती, तो उस पर इतना प्यार आता कि बार-बार उसको चूम लेती। 

मुझे बड़ी तकलीफ़ होती, जब वह हॉस्पिटल में बैठे-बैठे ऊबने लगता। थक जाता तो बेंच पर ही टटोल-टटोल कर लेट जाता था। एक दिन वह बेंच भी कोई और उठा ले गया। मैं उसे अपने साथ लंच कराती थी। 

उस दिन जब मैं लंच के लिए लौटी तो वह ज़मीन पर ही पेपर बिछा कर उसी पर सो रहा था। मैं उसको ऐसी हालत में देखती रह गई। मेरे आँसू निकल आए। तभी वृंदा आ गई। उसने मुझे देखते ही कहा, “फ़्रेशिया तुम लंच कर लो। मैंने देखा तुम्हें देर हो रही है और लियो भूखा है, मुझे भी भूख लग रही थी, तो हम-दोनों ने लंच कर लिया है। 

“लंच के बाद इसे बड़ी तेज़ नींद आने लगी। कुर्सी पर बैठे-बैठे कभी बाएँ, कभी दाएँ हो रहा था। कुछ न देखकर मैंने सोचा चलो पेपर ही सही। इसे आराम तो मिलेगा। बेंच पता नहीं कौन कमीना उठा ले गया, नहीं तो इसे कुछ तो आराम मिलता।”

तभी उसका ध्यान मेरे आँसुओं की तरफ़ गया तो वह बोली, “ओह फ़्रेशिया ये क्या, ऐसे परेशान नहीं हो। क्या करोगी, दुनिया में तमाम तरह के लोग हैं। तुम जैसे अच्छे लोग हैं तो, जान-बूझ कर बेंच उठा ले जाने वाले पर-पीड़क भी हैं। इसलिए परेशान नहीं हो। निश्चिन्त होकर लंच करो।”

“पता नहीं यार वह कैसा आदमी है, दूसरों को कष्ट में देख कर ही ख़ुश होता है। तुम्हारे रहते मैं निश्चिंत रहती हूँ। सोच रही हूँ कि कुछ ऐसा इंतज़ाम करूँ कि यह घर पर ही आराम से रह सके। अब यह काफ़ी कुछ सीख चुका है।”

तभी वृंदा ने कहा, “लेकिन फ़्रेशिया एक मैड तो रखनी ही पड़ेगी, अभी इसे अकेला नहीं छोड़ा जा सकता।”

“हाँ, मैं भी यही सोच रही हूँ। अच्छा आओ, थोड़ा सा लंच मेरे साथ भी कर लो।”

मैं लियो के लिए कुछ भी करने से पहले सौ बार सोचने-विचारने के बाद ही आगे बढ़ती थी। बहुत माथा-पच्ची करने के बाद मैंने तय किया कि जो भी हो जाए, भले ही इसे थोड़ी तकलीफ़ होती रहे, लेकिन इसे अपनी आँखों से दूर नहीं करूँगी। नौकरानी, नौकरानी होती है। न जाने इस मासूम के साथ क्या करे? 

उसी दौरान मेरे चार संडे ऐसे भी बीते कि मुझे छुट्टी नहीं मिली। मैं स्वयं से ज़्यादा लियो की तकलीफ़ को लेकर परेशान रहती थी कि बेचारा हफ़्ते में एक दिन भी आराम नहीं कर पा रहा है। थोड़ा घूम-फिर लेता था, वह भी नहीं हो पा रहा है। 

मैं उसे हर हफ़्ते कहीं ना कहीं घुमाने, किसी अच्छे रेस्त्रां में खिलाने ज़रूर ले जाती थी। हर महीने सैलरी मिलने पर उसके लिए नई ड्रेस, खिलौने ज़रूर लेती थी। जब से ट्रीटमेंट को लेकर हर जगह से न हुई थी, निराशा मिली थी, तब से मैं बचत की जगह खुलकर उस पर पैसे ख़र्च करने लगी थी। कपड़े भी वह स्पर्श करके अपने हिसाब से पसंद करने लगा था। जब वह मॉल में अपनी पसंद बताता तो मुझे बड़ी ख़ुशी होती थी। 

एक दिन सुबह वह नहा-धोकर आया तो बड़ा घबराया हुआ था। उसने एक बार फिर मुझे वैसी ही स्थिति में डाल दिया, जैसी मेल-फीमेल के अंतर को समझने के समय डाली थी। छुट्टी का दिन था, मैं लैप-टॉप पर अपने पुराने मिशन में जुटी हुई थी कि कहीं से कोई उम्मीद की किरण दिखाई दे। 

लियो अपनी दोनों हथेलियाँ सामने कर बार-बार ऊपर इस तरह कर रहा था, जैसे उनमें रखी छोटी-छोटी गेंदें उछाल रहा हो। मुँह से खुरखुर करती आवाज़ आ रही थी। उसे इतना घबराया हुआ मैंने पहले कभी नहीं देखा था। 
जल्दी से लैप-टॉप को किनारे रखा। लपक कर उसके पास पहुँची। दोनों हाथ पकड़ कर पूछा क्या हुआ? फिर लियो ने जो कुछ बताया उससे मेरे चेहरे पर एक संकोच भरी मुस्कान फैलती चली गई। 

मैंने दोनों हाथों से उसके दोनों गालों को सहलाते हुए समझाया कि कुछ नहीं हुआ। अपने हाथ के अंगूठे और आख़िरी ऊँगली से उसके होंठों के दोनों सिरों को फैलाते हुए समझाया कि कुछ भी नहीं हुआ तुम हँसो। 

उस समय मैंने बड़ा गर्व महसूस किया कि लियो की नाक अब मेरे माथे को छूने लगी है। मेरे समझाने से उसकी घबराहट तो कम हो गई, लेकिन अपने संशय को क्लियर करने की ज़िद करने लगा। 

उसने तौलिया हटा कर, वहाँ उसके किशोरावस्था की घोषणा करते हुए उग आए कई सुनहरे बालों को खींच कर दिखाया। और पूछा यह क्या है? वह उन्हें कोई बड़ी समस्या समझ कर घबरा उठा था। 

मैंने उसे बेड पर बैठाया। कई दिन बाद प्यार से उसका पूरा बदन पोंछा। अब-तक वह सारा काम ख़ुद कर लेता था। मैंने उसकी बाँहों की बग़ल में भी बढ़ आए रोओं को उसे पकड़ा कर समझाया कि बड़े होने पर ऐसे चेंज होते हैं। यह समझाने के लिए मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ी। उम्र के साथ-साथ उसकी उत्सुकता भी ख़ूब बढ़ रही थी। 

जब मैंने समझा कि उसकी उत्सुकता का समाधान हो गया है, तभी अपने अगले प्रश्न से उसने मुझे फिर से प्रस्थान बिंदु पर खड़ा कर दिया। उसने पूछा कि क्या मेल की तरह फी-मेल को भी यह होता है? और उसे भी है? 

उसके इस प्रश्न ने मेरे सामने फिर बड़ी कठिन स्थिति पैदा कर दी। लेकिन उसकी हर उत्सुकता का समाधान करना मैं बहुत ज़रूरी समझने के चलते, इसके समाधान में भी लग गई। 

क्योंकि मैं उसे हर तरह से एक नॉर्मल बच्चे की तरह सक्षम बनाना चाहती थी। इसके लिए मैं कुछ भी करने के लिए हर क्षण तैयार रहती थी। नैतिकता-अनैतिकता की किसी सीमा का विचार किए बिना, मैंने बिना शर्म-संकोच के उसके सारे प्रश्नों के उत्तर उसे समझाए। 

उसके साथ बैठ कर नाश्ता करती हुई, उसे प्यार से देखती रही, सोचती रही कि अभी तो मुझे ऐसी कई जटिल स्थितियों का सामना करना होगा। लेकिन इसके सारे प्रश्नों के उत्तर देकर ही, इसे ज़्यादा समझदार और सक्षम बना पाऊँगी। 

उस दिन भी रात को सोते समय वह, छोटे बच्चे सा मुझसे चिपक कर लेटा हुआ था। मेरे स्तनों से खेलता हुआ, जैसे कोई नन्हा बच्चा। पहले बहुत बार की ही तरह, वह बीच-बीच में निपल मुँह में लेकर चूस भी रहा था। मैं गुदगुदी महसूस कर रही थी। मुझे एक माँ होने जैसी अनुभूति का आनंद मिल रहा था। 

मैं उसके घने रेशम से बालों में उँगलियाँ फिराती हुई सोच रही थी कि यदि इसके रियल पेरेंट्स होते, तो क्या वह इसकी हर उत्सुकता, प्रश्न का ऐसे ही उत्तर देते। ऐसे ही समझाते, या कोई और तरीक़ा निकालते। कहीं मेरा तरीक़ा ग़लत तो नहीं है। 

मैं मातृत्व आनंद के बीच उठती अपनी इन उलझनों को भी सुलझाने में लगी हुई थी, मन उठती नई-नई उलझनों, प्रश्नों से संघर्षरत था। और लियो पहले ही की तरह अपने में मगन था। उसे नींद आने लगी थी। 

मेरे मन बार-बार यह बात आ रही थी कि अब समय आ गया है, बल्कि कई साल पहले ही आ गया था, इसे यह समझाने का कि अब तुम बहुत बड़े हो गए हो गए हो, इसलिए अलग बेड पर सोया करो। बड़े बच्चे अलग ही सोते हैं। 

जब वह पाँच-छह साल का हुआ था, उसके बाद से ही मैंने कई बार उसे अलग सुलाने का प्रयास किया था, लेकिन वह सोया ही नहीं। रोता रहा। मैंने सोचा इसे दूध पिलाते-पिलाते यह समस्या भी आ सकती है, मुझे यह भी सोचना चाहिए था। 

समस्या तो अब हॉस्पिटल में भी बढ़ने लगी थी। कई लोग नहीं चाहते थे कि लियो दिन-भर हॉस्पिटल में बना रहे। समय के साथ बढ़ती हर समस्या को, मैं अपनी मेहनत, काम से मैनेजमेंट को ख़ुश रख कर दूर किए रहती थी। 

मगर समस्याएँ तो बचपन से ही मेरी छाया की तरह, सदैव मेरे साथ-साथ रहती थीं, तो मैं निश्चिन्त कैसे रह सकती थी। एक दिन लियो हॉस्पिटल में गिर गया था। उसके माथे, नाक पर अच्छी-ख़ासी चोट लग गई थी। नाक से ख़ून आ गया था। 

मरहम-पट्टी के समय मासूम लियो के जितने आँसू बह रहे थे, उससे कहीं ज़्यादा मेरे निकल रहे थे। उसकी मरहम पट्टी कर रही नर्स को हटा कर मैं स्वयं कर रही थी। मेरे आँसू देख कर वृंदा ने कहा, “चुप हो जाओ फ़्रेशिया। नर्स की आँखों में कभी आँसू नहीं आते। क्या किया जा सकता है, दुनिया में क्रूर गंदे लोगों की कमी नहीं है। सब तुम्हारे जैसे नहीं हो सकते न।”

कुछ लोगों और लियो ने मुझको जो बताया, उससे साफ़ पता चल रहा था कि उसे किसी ने जानबूझकर पीछे से धक्का दिया था। उसकी जापानी हाई-टेक पतली सी फ़ोल्डिंग छड़ी भी मुड़ कर टूट गई थी। जो फिर कभी नहीं बन पायी। 

मुझे वह महँगी छड़ी दूसरी मँगानी पड़ी। उसे आने में महीना भर लग गया था। इस बीच लियो बहुत परेशान रहा। उसकी परेशानी को देख कर मैं, उससे ज़्यादा परेशान हो रही थी। 

रात में सोते समय भी लियो दर्द के कारण कराह रहा था। उसके कराहने की आवाज़ मेरे कानों में गर्म सूईयों की तरह चुभ-चुभ कर असह्य पीड़ा दे रही थीं। क्या करूँ कि उसका दर्द उड़न-छू हो जाए यह सोच-सोच कर मैं व्याकुल हो रही थी, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रही थी। पेन-किलर ज़्यादा नहीं देना चाहती थी। 

मन के एक कोने में अब यह बात दृढ़ होती जा रही थी कि अपने प्यारे लियो को अब हॉस्पिटल नहीं ले जाऊँगी। लेकिन घर पर अकेला छोड़ने की बात सोचते ही हमेशा की तरह काँप उठती थी। और हॉस्पिटल में अब मुझ पर हँसने और कटाक्ष करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी। 

कई अश्लील बातें भी मेरे लिए निःसंकोच कही जाती थीं। जो मुझे बहुत पीड़ा देती थीं। लेकिन फिर वृंदा की बात याद आते ही कि ‘क्या करोगी, दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं।’ थोड़ी ही देर में सारी बातों को भूल कर अपने काम में लग जाती थी। 

लेकिन लियो को चोट लगने के बाद मन में यह बात ज़्यादा तेज़ आवाज़ में उठने लगी थी कि फ़्रेशिया अब एक न एक दिन तुझे इसका समाधान ढूँढ़ना ही पड़ेगा। इससे पहले कि हायर मैनेजमेंट कुछ कहे, तुम्हें उसके पहले ही कुछ समाधान ढूँढ़ लेना चाहिए। 

मगर लियो के मोह में मैं इतने गहरे डूबी रही कि समय तेज़ी से निकलता रहा, लेकिन मैं कोई समाधान नहीं निकाल पाई। लियो के प्रति मेरा अतिशय प्यार, मेरे हर समाधान में बाधा बन रहा था। और धीरे-धीरे लियो सत्रह साल का हो गया, मगर बात जहाँ की तहाँ बनी रही। 

हॉस्पिटल में अपने को बचाए रखने के लिए मैं ज़्यादा से ज़्यादा काम करती, छुट्टियों में भी न रुकती। और लोगों की आपत्तियाँ, मेरे लिए समस्याएँ खड़ी करना, अश्लील बातें कहना भी दिनों-दिन बढ़ता रहा। 

इसी बीच मैं एक नई उलझन, समस्या में गहरी डूबती जा रही थी। इसका भी कोई समाधान मुझे नहीं सूझ रहा था। बस यही दिमाग़ में गूँजता रहता, लियो बड़ा हो रहा है, वह बड़ा हो गया है। उसे अब मुझे वह सब भी बताना होगा, जो एक फ़ादर को बताना होता है, उसका काम होता है। यह नॉर्मल होता तो ख़ुद ही सब कुछ सीख लेता। 

मेरी कोई ज़रूरत ही नहीं थी, लेकिन इसकी हालत ऐसी है कि न सिर्फ़ मुझे ही सब बताना, करना होगा, बल्कि इसे सब-कुछ समझाने के लिए बहुत सी नई सीमाएँ बनानी होगी। ऐसे बच्चों के लिए गुड पेरेंटिंग का नया अध्याय नहीं, मुझे पूरी किताब लिखनी पड़ेगी। 

मैं सोचती कि क्या सिंगल पेरेंटिंग इन्हीं सब कारणों से दहकते अंगारों पर चलने जैसी है। इस किताब का पहला अध्याय कहाँ से, कैसे शुरू करूँ, मैं यह समझ नहीं पा रही थी। कभी एक सिरा पकड़ में आता, तो दूसरा छूट जाता। दूसरा पकड़ती तो पहला छूट जाता। 

मेरा ध्यान अब बराबर इस तरफ़ भी जा रहा था, मैं देख रही थी, महसूस कर रही थी, कि लियो अब यौन आनंद की अनुभूति करता है। अब जब भी वह मेरे साथ खेलता-कूदता है, जब उसे गले लगाती हूँ, लेटे-लेटे बालों में तेल लगाती, सहलाती हूँ, तो अक़्सर उसके शरीर में, अंग विशेष में साफ़-साफ़ तनाव दिखता है। अक़्सर उसके हाथ अंग के इर्द-गिर्द ही मँडराते रहते हैं। 

हालाँकि उसने बहुत समझने-बुझाने के बाद मेरे स्तनों से खेलना कई साल पहले ही बंद कर दिया था। वह उसे एक नर्म खिलौना समझता था। जिससे खेलना उसे बहुत अच्छा लगता था। 

लेकिन एक बड़ी समस्या अभी भी बनी हुई थी, कि वह बिना मेरे सोता नहीं था। जब-जब मैंने उसे अलग सुलाने की कोशिश की, वह छोटे बच्चों सा बिलख-बिलख कर रोने लगता था। 

एक रात क़रीब तीन, साढ़े तीन बजे उसने मुझे काफ़ी तेज़-तेज़ हिला कर उठा दिया। मैं उससे दूसरी तरफ़ करवट लिए गहरी नींद में सो रही थी। चौदह-पंद्रह घंटे की कठिन ड्यूटी, तरह-तरह के मरीज़ों को देखना, ऑपरेशन के दौरान घंटों डॉक्टर्स के साथ लगे रहना, फिर घर और लियो का काम-धाम मुझे थका कर चूर कर देते थे, इसलिए मैं गहरी नींद में बेसुध सोती थी। लेकिन लियो के हाथों के स्पर्श से मेरी सारी बेसुधी, गहरी नींद पलक झपकते ही उड़न छू हो जाती थी। वही तब भी हुआ। 

मैं झटके से उठ बैठी। नाईट लैम्प के धीमें प्रकाश में देखा कि लियो मेरी ही तरफ़ मुँह किए बैठा है। जल्दी से लाइट ऑन की। देखा उसके आँसू निकल रहे हैं। मैंने स्पर्श-लिपि अपनाते हुए ही पूछा, “क्या हुआ बेटा?” तो उसने नीचे अपने कपड़े धीरे से उठाए। 

उसके एक तरफ़ का काफ़ी हिस्सा गीला था। उसकी स्थिति देखकर मुझे समझते देर नहीं लगी कि लियो ने फ़र्स्ट नाईट-फॉल को फ़ेस किया है। और यह इसे कोई अनहोनी समझकर डरा सहमा हुआ है। एक बार फिर इसे तमाम बातें समझानी होगी। 

सबसे पहले मैंने उसे समझाया कि परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। उसके होंठों के दोनों सिरों को पहले की तरह फैलाया कि हँसो। उसके कपड़े, बेड-शीट वग़ैरह चेंज करा कर कहा सो जाओ, सुबह बात करेंगे। लेकिन उसने ज़िद कर ली कि नहीं अभी बताओ क्या हुआ। 

मेरी आँखें नींद से बुरी तरह कड़वा रही थीं, झपीं जा रही थीं, बैठा नहीं जा रहा था। मगर लियो की इच्छा के आगे मैंने इन सारी समस्याओं को किनारे कर, उसे समझाना शुरू किया। ईश्वर को धन्यवाद कि वह जल्दी ही समझ भी गया। लेकिन हमेशा ही प्रश्नानुकूल बने रहने वाले प्यारे लियो ने तुरंत ही फिर उलझन में डाल दिया। 
उसने पूछा कि क्या यह फ़ीमेल को भी होता है? तुम्हें भी होता है? उसके इन प्रश्नों का उत्तर देना मेरे लिए चौथी-पाँचवीं के बच्चे को बौधायन की फ़र्स्ट प्रमेय समझाने जैसा था। लेकिन उसे समझाना ही पड़ा। 

बड़ी मुश्किल से बता पाई कि हाँ यह फ़ीमेल को भी होता है। लेकिन मेल से बहुत कम। मैं जब तुम्हारी जितनी थी, तब कभी-कभी मुझे भी हुआ था। नींद के झोंके में मेरे मुँह से यह भी निकल गया कि फ़ीमेल को हर महीने पीरियड होते हैं। 

वास्तव में यह कह कर मैंने स्वयं ही लगे हाथ, अपने लिए नई समस्या खड़ी कर ली थी। इसी समय बताओ इस ज़िद के साथ लियो का नया प्रश्न था कि पीरियड कैसे होते हैं? अंततः यह भी मुझे उसी समय खुल कर समझाना पड़ा। 

उसी समय मैंने यह भी सोचा कि यदि कोई पुरुष होता मेरी जगह, तो क्या वह भी इसी तरह, इतने ही प्यार से इसे पालता। हर बात बताता। मैंने मन ही मन कहा, निश्चित ही वह नहीं कर पाता। 

इसीलिए कहते हैं कि माँ तो अकेले ही कई बच्चों को पाल लेती है, लेकिन मर्द को तो ख़ुद को भी पालने के लिए एक औरत का सहारा चाहिए होता है। अकेले वह या तो बेवड़ा बन जाता है, या फिर विक्षिप्त। 

अगले दिन मैं दिन भर यही सोचती रही कि लियो अब इतना बड़ा हो गया है कि इसे अब किसी न किसी तरह, किसी काम में बिज़ी रखने का रास्ता ढूँढ़ना ही पड़ेगा। नहीं तो ख़ाली बैठे-बैठे यह न जाने क्या-क्या सोचता रहेगा। न जाने किन-किन प्रश्नों में उलझता और मुझे उलझाता रहेगा। 

इसकी कई बातें, प्रश्न, काम, स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि यह न सिर्फ़ गहराई से बातों को महसूस करता है, बल्कि उसको लेकर कुछ न कुछ सोचता भी रहता है। हॉस्पिटल में वृंदा भी कई बार मज़ाक में ऐसी कई बातें बोल चुकी है। 

लेकिन यह क्या करेगा? कैसे करेगा? कोई ऐसा भी काम है, जो इसके लायक़ हो, जिसे यह सात-आठ घंटे या जितने समय तक इसकी इच्छा हो, उतने समय तक करे। ऐसा कोई रास्ता दिखे, तो इसे अब घर पर ही रखूँ, साथ ही एक नौकरानी भी रख दूँ, वह बराबर इसके साथ ही रहे। 

इन सब बातों से ज़्यादा मैं उसकी सेक्सुअल एक्टिविटीज़, उसके मनोभावों को समझने, देखने के प्रयास में रहती। क्योंकि मुझे महसूस होता कि उसकी यह भावना ज़्यादा प्रबल है। जिसे ज़्यादा गहराई से समझना बहुत ज़रूरी है। जिससे इसे ज़रूरी बातें सही ढंग से बताई समझाई जा सकें। 

एक दिन नहाने के समय मैं उसे साफ़-सफ़ाई के बारे में कुछ बातें समझा रही थी। तभी लियो से जो कुछ हुआ, उसे देख कर मुझे हँसी तो आई ही, संकोच के भाव भी पैदा हुए थे। उसी समय मैंने यह भी सोचा कि जो कुछ हो रहा है, जो कुछ मुझसे, लियो से जाने-अनजाने हो जाता है, वह सब-कुछ वास्तव में नेचर के सिस्टम का ही एक हिस्सा है। नेचर ही की एक प्रक्रिया है, जो इस तरह पूरी हो रही है। 

इसके बाद मैंने इस विषय में ज़्यादा सोचना, ध्यान देना बंद कर दिया। एक दिन मैं बाथ-रूम में थी, तभी लियो को व्यस्त रखने, उसे किसी उत्पादक काम को करने लायक़ बनाने की एक योजना दिमाग़ में आई। 

मैंने कई बार महसूस किया कि बाथ-रूम में बीतने वाले कुछ समय में ही, मेरे दिमाग़ में बड़े ही अनोखे-अनोखे विचार आते हैं। बाथरूम में सोची योजना पर कई दिन चिंतन-मनन करने के बाद मैंने योजना में कई संशोधन किए। फिर उसी हिसाब से काम करना शुरू किया। 

सबसे पहले लियो की सुरक्षा की दृष्टि से घर में कुछ काम करवाए। उसकी सुरक्षा पुख़्ता की। सीसीटीवी कैमरे लगवाए। घर का कोना-कोना कैमरे की रेंज में कर दिया। फिर एक बढ़िया स्मार्ट-फ़ोन लियो के लिए लेकर उसमें केवल अपना नंबर फीड किया। उसमें इमरजेंसी कॉल के लिए जितने नंबर थे, वह सब डिलीट कर दिए। 

अब लियो मोबाइल से कैसे संवाद करेगा, इसका एक यूनीक तरीक़ा भी निकाला। मोबाइल को फुल वाइब्रेटर पर सेट किया। फिर कॉल आने पर जिस जगह टच करने पर कॉल रिसीव होती थी, उस जगह को छोड़ कर बाक़ी हिस्से को पतली फोम शीट, उसके ऊपर पॉलिथीन लगाकर सेलो टेप से ख़ूब अच्छी तरह सील कर दिया। जिससे लियो केवल कॉल रिसीव कर सके। कॉल रिजेक्ट करने वाली जगह उससे टच न हो। 

इसके बाद मोबाइल एक ख़ास तरह के केस में रखा। जिसमें बेल्ट लगी थी। जिससे उसे लियो की कमर में बाँधा जा सकता था। ऑफ़िस या कहीं बाहर रहते हुए लियो से सम्पर्क बनाए रखने की, अपनी इस तकनीक को चेक करने के लिए उसे लियो की कमर में बाँधा। फिर कॉल की। वाइब्रेट होने पर लियो चौंका। 

तब मैंने मोबाइल उसी के हाथ से निकलवाया। उसने अपनी ही भाषा में पूछा यह क्या है? तब मैंने उसे समझाया, बताया कि जब तुम अकेले रहोगे तो मैं फ़ोन करूँगी। तब तुम निकाल कर रिसीव करना। सब ठीक हो तो एक बार ताली बजा देना। अगर मुझे बुलाना चाहते हो तो दो बार। कुछ प्रॉब्लम होने पर तुरंत बुलाना चाहते हो तो तीन बार ताली बजाना। 

मैंने उससे कई दिन, बार-बार प्रैक्टिस करवाकर, उसे बिल्कुल ट्रेंड कर दिया। लेकिन यह सब क्यों किया जा रहा है, लियो यह जानते ही ग़ुस्सा हो गया। अकेले रहने से मना कर दिया। मोबाइल निकाल कर फेंक दिया। 
पहली बार वह इतना ज़्यादा ग़ुस्सा हुआ था। मैं समझ गई कि इसे अकेला छोड़ना आसान नहीं होगा। लेकिन मैं यह भी अच्छी तरह जान-समझ रही थी कि वह समय अब आ गया है कि इसे सेल्फ़ डिपेंडेट बनाने के लिए कठोर क़दम उठाने ही पड़ेंगे। 

इसलिए मैं क़दम दर क़दम अपनी योजनानुसार आगे बढ़ती रही। मैंने एक ख़ास तरह की चाय बनाई। चाय में लौंग, इलायची, मुलेठी, दाल-चीनी, काली-मिर्च को एक निश्चित अनुपात में मिक्स किया। इसे सुबह-शाम स्पाइसी टी की तरह पीने के लिए। 

मैंने अपने इस प्रॉडक्ट का नाम ‘लियो स्पाइसी टी’ रखा। सेल के लिए ऑन-लाइन माध्यम चुना। इसके लिए सारी क़ानूनी प्रक्रियाएँ पूरी कीं। बिल्कुल नपा-तुला सौ ग्राम का डिब्बा तैयार करवाया। 

लियो इस काम में कैसे इन्वॉल्व होगा इसका रास्ता निकाला। उसका काम इतना था कि वह प्लास्टिक के डिब्बे में अंगुल भर छोड़ कर पूरा भरेगा। ढक्कन टाइट करेगा। फिर उसके नाम का प्लास्टिक कोटेड स्टिकर बड़ी सीट से निकालकर, ढक्कन पर थोड़ा सा नीचे की तरफ़ मोड़ते हुए अच्छे से चिपकाएगा। जिससे वह डिब्बा एयर-टाइट हो जाए। बहुत मुश्किल से यह सब भी उसे सिखाया। 

चाय की मिक्सिंग, रॉ मटेरियल लाना, डिलीवरी मैन के आने पर माल देना यह सब मेरा काम था। मैंने अपना काम और बढ़ा लिया था। मेरे आराम के घंटे और कम हो गए थे। लेकिन मुझे इसमें भी संतोष का आनंद मिल रहा था। 

मैं उसे अकेले रहने के लिए मेंटली तौर पर भी बराबर तैयार करती रही। जल्दी ही लियो तैयार भी हो गया। लेकिन ग़ज़ब की बात यह हुई कि लाख कोशिश करके भी मैं स्वयं को तैयार नहीं कर पाई। 

हार कर मैंने एक ऐसी नौकरानी ढूँढ़नी शुरू की, जो सुबह से लेकर शाम को मेरे आने तक रहे, खाना-पीना, साफ़-सफ़ाई तो करे ही, लेकिन इन सब से पहले लियो का पूरा ध्यान रखे। हालाँकि अब वह अपना सारा काम कर लेता था। 

नौकरानी ढूँढ़ते समय मैंने इस बात का ख़ास ध्यान रखा कि वह कम उम्र युवती न हो। बाल-बच्चे वाली हो। लेकिन ऐसी कोई नौकरानी दिन-भर के लिए नहीं मिल पा रही थी। बड़ी मुश्किल से एक साथी नर्स ने एक दिन पैंतीस-छत्तीस साल की एक महिला मेरे पास भेजी। 

उसने बताया कि उसके शौहर ने उसे छोड़ दिया है। तलाक़ के बाद से दो बच्चों को लेकर वह अकेली ही रह रही है। बच्चे पढ़ रहे हैं। बड़ा चौदह और छोटा बारह साल का है। उसने अपना नाम फ़हमीना बताया। 

उससे बात कर के मुझे लगा कि कुल मिलाकर मैं जैसी ढूँढ़ रही थी, यह वैसी ही है। इसलिए इसे ही रख लेते हैं। इसे वाक़ई नौकरी की आवश्यकता भी है। शरीर से हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ औरत है। इसलिए काम-धाम आसानी से करेगी। 

सारे काम-धाम समझ कर फ़हमीना ने हाँ कर दी। काम ज़्यादा है, उसकी यह बात मानते हुए मैंने उसे, उसके मन-मुताबिक वेतन देना स्वीकार कर लिया। कोई मोल-भाव नहीं किया। बात पक्की होने के बाद फ़हमीना ने अगले दिन से आना शुरू कर दिया। 

अगले दिन मैं फ़हमीना, कैमरों, मोबाइल के सहारे लियो को छोड़कर ड्यूटी चली गई। मगर मेरा मन लियो पर ही लगा रहा। हर आधे-पौन घंटे पर समय मिलते ही कॉल करती। और पूर्णतः ट्रेंड लियो कॉल रिसीव कर, एक बार ताली बजाता कि सब ठीक है। 

यह कर-कर के वह बड़ा ख़ुश होता था। उसे बड़ा मज़ा आ रहा था। अपनी ख़ुशी व्यक्त करने के लिए वह अपनी ख़ास तरह की खीयाँ-खीयाँ की आवाज़ भी निकलता था। उम्र के साथ अब उसकी आवाज़ ज़्यादा भारी और कर्कश भी हो चुकी थी। 

मैं फ़हमीना के मोबाइल पर भी कई बार फ़ोन कर-कर के हाल-चाल लेती रही। खाने-पीने के लिए कहती रही। 
मैं उस पूरे दिन ऑफ़िस में बड़ी अजीब दोहरी स्थिति में रही। एक तरफ़ घबराती रही कि एक अनजान महिला के सहारे लियो जैसे बालक को अकेला छोड़ आई हूँ। दूसरी तरफ़ ख़ुश हो रही थी कि मेरा बेटा न सिर्फ़ अकेले रहने लगा है, बल्कि बिज़नेस भी करने लगा है। यह सोचते ही मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता। मुझे लग रहा था जैसे मैं हवा में उड़ रही हूँ। 

मैंने यह सारी बातें अपनी ख़ास सहेलियों वृंदा, तृषा को भी बताई। ख़ुशी में घर से जो लंच ले गई थी, उसे नहीं किया, बल्कि उनको लेकर एक अच्छे से रेस्तरां में लंच किया। 

दिन भर मेरे मन में अजीब सी अफनाहट, व्याकुलता, जल्दबाज़ी बनी रही कि कितनी जल्दी छुट्टी मिले और मैं अपने प्यारे लियो के पास पहुँचूँ। 

ड्यूटी के जो घंटे पहले मुझे कुछ ज़्यादा नहीं लगते थे, उस दिन वह मुझे हिमालय सरीखे पहाड़ से लग रहे थे। सरपट स्कूटर भगाती जब आठ बजे घर पहुँची तो फ़हमीना ने दरवाज़ा खोला, लियो कहाँ है? उससे यह पूछती हुई तेज़ी से अंदर भागी। वह ड्राइंग-रूम, बेड-रूम में नहीं मिला। उस कमरे में भी नहीं मिला, जिसमें उसे अपने बिज़नेस का काम करना था। 

मैंने इस कमरे के दरवाज़े पर ‘लियो इंटरप्राइज़ेज’ लिखा, कंप्यूटर से निकाला कलर प्रिंट चिपका रखा था। उसे वहाँ भी न देख कर मैं घबरा गई। झटके से मुड़ी बाथ-रूम की ओर कि वहाँ तो नहीं गया है। 

तभी उसकी छड़ी की आवाज़ सुनाई दी। वह बाथ-रूम से ही चला आ रहा था। मैंने लपक कर उसे बाँहों में जकड़ लिया। वह भी मुझसे ऐसे चिपक गया, जैसे कोई छोटा बच्चा दिन-भर के बाद अपनी माँ को देखते ही लपक कर उससे चिपक जाता। 

हम-दोनों ही ऐसे मिल रहे थे, जैसे कि कभी भी मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं थी, और संयोगवश ही न जाने कितने बरसों बाद अचानक ही मिल गए। फ़हमीना बड़े आश्चर्य से हम-दोनों को देख रही थी। 

मेरी ही तरह ख़ुशी से हवा में उड़ते लियो ने मुझे जल्दी-जल्दी अपने बिज़नेस रूम में ले जाकर अपना दिन-भर का काम दिखाया। मैं यह देख कर ख़ुशी से पागल हो गई कि लियो ने तख़्त पर तीस-पैंतीस पैक किए हुए डिब्बे रखे हुए थे। 

दो-चार को छोड़ कर बाक़ी की पैकिंग भी कुल मिलाकर उसने ठीक ही की थी। मैं बड़ी देर तक आश्चर्य से कभी डिब्बों को, तो कभी लियो को देखती ही रह गई। सारा काम बड़ी सफ़ाई से किया गया था। रॉ मटेरियल भी ठीक से ही बंद करके जहाँ-जहाँ था, वहीं रखा था। 

काम की साफ़-सफ़ाई देखकर मैंने पीछे खड़ी फ़हमीना से पूछा, “तुमने हेल्प की थी क्या?” 

उसने कहा, “हमने सामान एक बार छुवाया और रखवाया, उसके बाद यह सब-कुछ ख़ुद ही करते रहे।”

यह सुनकर मेरी आँखें आँसुओं से भर गईं। इसी बीच फ़हमीना ने हम-दोनों के लिए नाश्ता रखा और छुट्टी लेकर चली गई। खाना, नाश्ता उसने पहले ही तैयार कर दिया था। अब उसे घर पर भी देखना था। 

इस जोश, अति उत्साह में मेरी हड़बड़ी इतनी थी कि हमेशा की तरह पहले हाथ वग़ैरह भी नहीं धोए। नाश्ता देख कर मेरा ध्यान इस तरफ़ गया और जल्दी से हाथ-मुँह धोकर, बहुत दिनों बाद अपने हाथों से लियो को नाश्ता कराया। उसने भी अपने हाथों से मुझे खिलाया। खाने-पीने के बाद मैंने लियो की रेगुलर ली जाने वाली स्पर्श और वायु लिपि की क्लास ली। 

मैंने उससे यह भी पूछा कि फ़हमीना ने उसे हेल्प की, कोई परेशानी तो नहीं हुई उसके साथ, उसने परेशान तो नहीं किया? उसने जो कुछ बताया उस हिसाब से कुल मिलाकर फ़हमीना के साथ उसका पहला दिन अच्छा बीता था। 

मुझे भी फ़हमीना का खाना-पीना, साफ़-सफ़ाई आदि सारे काम अच्छे लगे। अपने काम-धाम से उसने मेरा और लियो, दोनों का ही दिल पहले हफ़्ते में ही जीत लिया था। 

मेरी उम्मीदों से भी ज़्यादा सब-कुछ अच्छा होने लगा था। लियो ने हफ़्ते भर में ढाई सौ से अधिक डिब्बे पैक करके फ़हमीना की मदद से कमरे में क़रीने से लगा दिये थे। मैंने डिलीवरी मैन को केवल संडे के ही दिन आने को कहा था। ऑन-लाइन मिले ऑर्डर चेक किए तो डेढ़ सौ से अधिक डिब्बों का ऑर्डर आ चुका था। 

एक ही हफ़्ते में इतने ऑर्डर देख कर मैंने सोचा, लियो तो खेल-खेल में ही बिज़नेस-मैन बन गया। इस बिक्री से उसने दो हज़ार रुपए का नेट मुनाफ़ा कमाया। रेट मैंने ब्रांडेड कंपनियों से ही रखे थे। 

महीने भर में ही एक हज़ार डिब्बों की बिक्री हो गई। इतना बिज़नेस होते ही मैंने लियो को लेकर नए-नए सपने देखने शुरू कर दिए। उसे बड़ा व्यवसायी बनाने के साथ ही साथ किसी ऐसी लड़की के बारे में भी सोचने लगी, जिससे उसकी शादी कर दूँ, बच्चे हो जाएँ, जल्दी बड़े होकर लियो का सहारा बन जाएँ। 

मैं पूरे विश्वास के साथ सोचती कि कोई न कोई ऐसी लड़की मिल ही जाएगी, जो लियो से शादी कर लेगी। वो देख, बोल, सुन ही तो नहीं सकता। बाक़ी वह किसी हैंडसम मर्द से कम नहीं है। 

इसके साथ ही मेरे दिमाग़ में सोशल-मीडिया पर देखे गए दो वीडियो घूम गए। एक राजस्थान का था। जहाँ एक अच्छा हैंडसम आदमी, दोनों पैरों से लाचार अपनी पत्नी को पीठ पर एक ख़ास तरह की बनाई गई डोलची में बैठा कर शॉपिंग कर रहा है। 

दूसरा चीन का था, जिसमें एक महिला इसी तरह अपने आदमी को लेकर सारे काम करती है। उसके आदमी के जाँघों के पास से दोनों पैर नहीं थे। उसके दो बच्चे भी थे। 

मैंने सोचा, मेरा लियो तो तीन बातों को छोड़कर बाक़ी शरीर से एक स्ट्रॉन्ग मैन है। ऐसा आदमी जिसके साथ कोई भी लड़की बहुत ख़ुश रह सकती है। मैं बड़ी गंभीरता से ऐसी लड़की की तलाश में सक्रिय रहने लगी। 
दृढ़ निश्चय कर लिया कि इक्कीस साल पूरा होते-होते लियो की शादी कर दूँगी। यह सब सोचते हुए मैं बिज़नेस को बढ़ाने के लिए जितना ज़ोर लगा सकती थी, वह लगा दिया। डिलीवरी मैन को पहले जहाँ छुट्टी के ही दिन बुलाती थी, अब उसे हर दिन आने को कह दिया। मेरी अनुपस्थिति में फ़हमीना माल देने लगी। 

क़रीब चार महीने अच्छे नहीं, बहुत ही शानदार निकले। फ़हमीना भी हाथ नहीं बँटाती तो पैकिंग का काम समय से पूरा नहीं हो पाता। वह इसलिए जी-जान से सहयोग कर रही थी क्योंकि पर पैक उसे भी एक निश्चित अमाउंट शुरू से ही देने लगी थी। 

लेकिन पाँचवें महीने के आख़िर में एक दिन मेरे सारे किए-धरे, सपनों पर पानी ही पानी फैल गया। फ़हमीना फ़ोन पर तबियत ख़राब होने की बात कह कर कई दिन तक नहीं आई। लियो को अकेले छोड़ कर हॉस्पिटल जाने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई। ऑफ़िस से छुट्टी ले ली। 

फ़हमीना हफ़्ते भर बाद आई, लेकिन चार दिन बाद ही फिर सुबह-सुबह ही फ़ोन किया कि ‘दीदी तबियत ख़राब है, नहीं आ पाऊँगी।’ और मेरी कोई बात सुने बिना ही फ़ोन काट दिया। मैं उससे पूछना चाह रही थी कि इन दिनों तुम्हें ऐसा क्या हो गया है, जो एवरेज चौथे पाँचवें दिन तुम्हारी तबियत ख़राब हो रही है। 

मैंने महसूस किया कि उसे कोई तकलीफ़ है, उसकी आवाज़ से तो ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा है। मैं यह भी अच्छी तरह समझ रही थी कि हॉस्पिटल से बार-बार इस तरह छुट्टी लेना, मेरे लिए बड़ी मुसीबत पैदा कर देगा। 

फ़हमीना की हरकत, बदले रूप ने मुझे वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए विवश कर दिया। मैंने सबसे पहले मेन दरवाज़े पर एक इंटरलॉक लगवाया। उसके बारे में लियो को ख़ूब समझाया कि जब वह बाहर लॉक करके जाएगी, तो एमरजेंसी में वह अंदर से कैसे खोलकर बाहर निकल सकता है। 

इसके बाद शाम को लियो के साथ नाश्ता करते हुए टीवी देख रही थी। लियो को स्पर्श, वायु-लिपि की प्रैक्टिस करवा रही थी। तभी मेरे दिमाग़ में आया कि व्यस्तता के चलते मैंने सीसीटीवी की फुटेज तो आज-तक देखी ही नहीं, चलो आज इन्हें देख लेती हूँ। 

जब देखना शुरू किया, तो कुछ ही देर के बाद कुछ ऐसा दिखा कि मेरे होश फ़ाख़्ता हो गए। उस फुटेज को रिवाइंड कर-कर के मैंने कई बार देखा। जो कुछ दिख रहा था, उस पर मेरी आँखें विश्वास नहीं कर पा रही थीं . . . मैं कभी फुटेज, तो कभी लियो को देखती। और बीच-बीच में बुदबुदाती जा रही थी बास्टर्ड फ़हमीना . . . 
एक-एक करके मैंने सभी फुटेज देखीं। एक-एक सीन देख-देख कर मेरा ख़ून खौल रहा था। लियो पर भी बहुत ग़ुस्सा आ रहा था। मेरे मन में आया कि इन दोनों की ही छड़ी से ख़ूब कसके पिटाई करूँ। लियो को देख कर मैं दाँत पीसती कि सारी बातें बताता था, तो यह क्यों नहीं बताई। 

मैंने ग़ुस्से में कई बार फ़हमीना को कॉल की, लेकिन उसने कॉल रिसीव नहीं की और बाद में स्विच ऑफ़ कर दिया। इससे मेरा ग़ुस्सा सातवें आसमान को भी पार गया। मैं उठ खड़ी हुई कि इसके घर पर ही चल कर इसको ठीक करती हूँ। 

लेकिन यह सोच कर रुक गई कि वह बास्टर्ड अपने घर पर न जाने कौन सा तमाशा खड़ा कर दे। ऐसे में लियो को देखूँगी, हॉस्पिटल देखूँगी कि उसका तमाशा। एक साथ इतनी मुश्किलों को फ़ेस करना आसान नहीं होगा। अच्छा यही होगा कि इसका हिसाब-किताब करके काम से ही निकाल देती दूँ। 

यह सब करने से पहले मैंने सारी फुटेज कई जगह सेव की। लैप-टॉप, और छोटी-छोटी फ़ाइल बनाकर मेल पर भी डाल दी, कि यदि उसने कभी बदतमीज़ी की, तो प्रमाण रहेगा कि कैसे उसने कितने गंदे, कितनी क्रूरता-पूर्वक एक ऐसे जुवेनाइल का लगातार यौन शोषण किया, जो ना सिर्फ़ ब्लाइंड है, बल्कि देख-सुन भी नहीं सकता। 

मन में उसे अपशब्द कहती रही कि बदतमीज़ बेशर्म उसका टॉयलेट तक चोरी से पीछा करती रही। कितनी धूर्तता-पूर्वक उसे खेल-खेल में, अपने गंदे खेल में इंवॉल्व करती चली गई। क्या-क्या घिनौनी हरकतें करती, करवाती रही। लिबर्टीन लेडी तू मुझे मिल गई तो तुझे छोड़ूँगी नहीं। 

इतनी क्रूरता, इतनी चालाकी से सेक्स करती रही, इनोसेंट लियो को चाकू टच करा-करा कर डराया भी कि तेरी गंदगी को वह मेरे सामने ओपन न करे। मैंने उससे बात करने का तरीक़ा बताया, तो उसका ऐसा मिस-यूज़ किया। तेरे शौहर ने भी तुझे इसीलिए धक्के देकर भगाया होगा कि न जाने कहाँ-कहाँ मुँह मारती फिरने वाली औरत है तू। 

मैं भी कितनी मूर्ख लेडी हूँ, एक नर्स होकर भी तेरी कमीनगी पहचान नहीं पाई। दिन-भर खाती-पीती रहती थी। चार-पाँच महीने में ही डेढ़ गुनी हो गई थी। और कुछ दिन रुकती तो डेढ़ क्या दस गुनी हो जाती। 

दिन-भर जितना मन हुआ, जो मन हुआ वो खाती ही रहती थी। मेरी आँखों को भी न जाने क्या हो गया था कि तेरे मोटे होते जा रहे पेट की तरफ़ ध्यान ही नहीं दे पाई। तेरी कामुक आँखों को भी नहीं समझ पाई, जिनमें तू मेरे लियो को अपनी सेक्स-मशीन बनाने का सपना लिए आगे बढ़ती रही। 

ओह रॉस्कल लेडी तेरा क्या करूँ? तुझे पुलिस में ही दे दूँ तो अच्छा है। जहाँ दसियों साल तू जेल में ही सड़े, वहाँ स्टॉफ़ से लेकर क़ैदी तक, तेरे लिए ढेरों सेक्स-मशीन के रूप में हमेशा उपलब्ध रहेंगे। 

लेकिन तेरी कमीनगी की सज़ा मैं तेरे बच्चों को कैसे दे सकती हूँ। मैं नहीं चाहती कि कोई बच्चा मेरे लियो जैसे दौर से गुज़रे। इस पीड़ा को लियो और मैं ही समझ सकती हूँ। 

लेकिन तेरी प्रेगनेंसी! उसका क्या करूँ? पता नहीं यह लियो से है या और भी कोई है? तू क्या करेगी इस बच्चे का? पैदा करके ब्लैक-मेल करेगी या किसी . . . 

इसी के साथ मुझे फिर से सोशल मीडिया पर वायरल एक और वीडियो याद आया। जिसमें रात के अँधेरे में मुँह ढक कर, एक महिला पॉलिथीन में एक नवजात शिशु को मरने के लिए अच्छी ख़ासी गहरी नाली में फेंक कर भाग जाती है। पलट कर देखती तक नहीं। और तभी एक कुत्ता दौड़ा-दौड़ा आता है, नाली से पॉलिथीन निकाल कर उसे बचा लेता है। 

अपनी हमलावर प्रकृति के अनुसार उस नवजात शिशु पर हमलावर नहीं हुआ था। जानवर ने इंसानों को मानवता का संदेश दिया था। ग़नीमत रही कि संदेश समय से सुन लिया गया, बच्चे को समय से ट्रीटमेंट मिल गया। लेकिन वह स्वस्थ हुआ कि नहीं, यदि स्वस्थ हुआ तो अब कहाँ है? 

रॉस्कल फ़हमीना कहीं तू भी तो पॉलिथीन का यूज़ नहीं करेगी। तुम्हारी हालत, तुम्हारे बच्चों को तो देखते हुए नहीं लगता कि तुम बच्चे को जन्म दोगी। 

उस अजन्में बच्चे के लिए, तेरे लिए अच्छा यही होगा कि उसे इस दुनिया के कष्टों के एहसास से पहले ही मुक्ति दे दी जाए। 

मैंने सोचने-विचारने में ज़्यादा समय न लगा कर जल्दी ही तय कर लिया कि दुनिया में एक और लियो अपनी जानकारी में तो नहीं आने दूँगी। 

मैं बार-बार लियो को देख रही थी, जो मेरी ही बग़ल में, मुझसे सटा हुआ लेटा था। करवट लेकर। मुँह मेरी कमर के पास जाँघों से सटा हुआ था। और एक हाथ सामने पेट से होता हुआ, अगली छोर तक लपेटे हुए था। 
मैंने प्यार से उसके सिर को सहलाते हुए मन ही मन कहा, मेरे प्यारे लियो तुझे तो इस फ़हमीना की बच्ची ने समय से बहुत पहले ही पूरा मर्द बना दिया है। तू इतना कैसे डर गया कि पहली बार, फिर बार-बार की गई उसकी ग़लत हरकत के बारे में, मुझे बताया तक नहीं। 

तुझे कितना तो सब कुछ बताती, सिखाती, समझाती रहती हूँ। एक स्ट्रोंग बॉय बनाने की हर कोशिश की, लेकिन तुम इतने कमज़ोर निकले। या यह कहूँ कि तुम एक दो बच्चों की माँ के लिए भी एक स्ट्रॉन्ग मैन बन गए। 

उस के फ़ेवरेट मर्द बन गए। तुम इतनी छोटी उम्र में ही इतनी तेज़ी से, इतने मैच्योर हो गए कि एक मैच्योर लेडी को एंजॉय करने लगे। फुटेज में तो पहली बार के बाद से तुम्हारे चेहरे पर भी, कुछ ऐसा दिख रहा है, जो साफ़-साफ़ बता रहा है कि तुम उसके साथ एंजॉय करते थे। 

सिर्फ़ उसे ग़लत कहूँ या कि तुझे भी, या दोनों को ही ग़लत कहूँ। या अकेले ख़ुद को ही दोषी कहूँ कि एक जवान ख़ूबसूरत मर्द को, एक जवान महिला के हवाले कर गई, ऐसी महिला जिसके आदमी ने उसे दुत्कार दिया है। 

लेकिन उसको भी ग़लत कैसे कहूँ, वह भी तो इंसान है। उसमें भी तो इच्छा होगी ही। उसे भी तो अधिकार है, अपनी इच्छाओं को पूरा करने का। मुझे यह सब करने से पहले सोचना चाहिए था कि हर कोई फ़्रेशिया नहीं हो सकती, जिसमें किसी से सेक्स रिलेशन बनाने की बात सोच कर ही घृणा भर जाती है। 

दरअसल मैं भी निश्चित ही एक सामान्य युवती होती, यदि मेरे एक अंकल ने मुझे मारिया के रास्ते चलकर प्रभु यीशू की कृपा मिलने, कृपा होने पर मुझे मेरे पेरेंट्स के मिल जाने का लालच देकर, अपने वश में न किया होता। 

और मैं पेरेंट्स मिल जाएँगे इस लालच में उनके जाल में उलझी, उन्हें अपना शोषण न करने देती। और उनके शोषण ने मुझ में सेक्स शब्द से ही घृणा न भर दी होती। ओह सोचते ही उबकाई आने लगती है। 

कितने शातिर और लोमड़ी से भी हज़ारों गुना ज़्यादा चालाक थे वो कि बिना किसी सुरक्षात्मक उपाय के मेरे साथ कुछ नहीं करते थे। जिससे मेरे प्रेग्नेंट होने का कोई रिस्क न रहे, और उनके घिनौने काम की जानकारी मेरे नाना-नानी या दुनिया को कभी न हो, उनका यह काम हमेशा चलता ही रहे। उनके उन उपायों का मतलब मैं बहुत बाद में समझ पाई थी। 

इन कटु अनुभवों से गुजरने के बाद तो मेरे लिए और भी ज़्यादा ज़रूरी था कि फ़हमीना को लाने से पहले ऐसे हर बिंदुओं पर मुझे बहुत गहराई से बार-बार सोचना चाहिए था। यह हर हाल में सोचना ही चाहिए था कि हर कोई वह नहीं सोचता, उसकी वह भावना नहीं होती, जो मैं सोचती हूँ। मेरी जो भावना होती है। हर कोई उन कामों को एंजॉय नहीं करता, जिसे मैं करती हूँ। 

मैं मन में ही संघर्षरत थी कि क्या सारा दोष अकेले मेरा ही है। बिना ठीक से सोचे-समझे मैं क्यों दोनों को एक जगह, इस तरह रखती आ रही हूँ? क्या मुझे समय-समय पर लियो के शारीरिक तनाव और उसके फ़र्स्ट नाईट-फॉल को भी ध्यान में नहीं रखना चाहिए था। 

सारी ग़लती मेरी ही है? यदि हाँ, तो मेरी सज़ा क्या है? कौन है जो मुझे सज़ा देगा? एक निरीह जान, जो अभी ठीक से जान भी नहीं बन पाई होगी, उसे आने से पहले ही मार देने की सोच कर, क्या मैं एक महापाप कर रही हूँ। 

पता नहीं वह तैयार भी होगी या नहीं। लेकिन इन सबसे ऊपर, सबसे पहली बात यह है कि एक और लियो को जन्म लेने दिया जाए या नहीं? एक को तो फ़्रेशिया मिल गई, लेकिन दूसरे को भी मिलेगी? फ़हमीना पॉलिथीन यूज़ नहीं करेगी इस बात की क्या गारंटी? 

मैं दिमाग़ में ऐसे अनगिनत प्रश्नों का उत्तर रात-भर ढूँढ़ती रही। लेकिन मुझे कभी उत्तर मिलते, तो कभी वह ग़लत लगने लगते। लेकिन नींद भी आख़िर कोई चीज़ है। बहुत ताक़तवर है। उसे नेचर ने इतनी ताक़त दी है कि पार्थिव शरीर के बग़ल में भी लोगों को सुला देती है। 

मुझको भी भोर यानी अर्ली मॉर्निंग में नींद आ गई। जब नींद खुली तो मोबाइल की रिंग बज रही थी। फ़हमीना का फ़ोन था। कॉल रिसीव करते ही उसने कहा, “दीदी मैं थोड़ा देर से आऊँगी।” यह कह कर उसने तुरंत फ़ोन काट दिया। 

सवेरे-सवेरे उसकी आवाज़ सुनकर मुझे बहुत ग़ुस्सा आया। आग में घी का काम किया उसकी देर से आने की बात ने। लेकिन बहुत कुछ सोच कर, मैंने अपने ग़ुस्से पर नियंत्रण करके तुरंत कॉल-बैक कर कहा, “ठीक है, लेकिन फिर भी जल्दी करना। मुझे ऑफ़िस जल्दी निकलना है।” 

मैंने टाइम देखा तो आठ बज रहे थे। और दिन होता तो अब-तक मैं तैयार हो चुकी होती। लेकिन तब मैं हर हाल में लियो, फ़हमीना चैप्टर का समापन करना चाहती थी। तो ऑफ़िस से आधे दिन की छुट्टी ले ली। जल्दी-जल्दी ख़ुद तैयार होकर लियो को भी उठा दिया। 

फ़हमीना जब दस बजे आई, तब-तक मैंने चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब बना लिया था। पहले मैंने सोचा कि अपने दो ही लोगों के लिए बनाऊँ। लेकिन फिर न जाने क्या सोचकर फ़हमीना का भी नाश्ता बना लिया। सुबह, शाम का नाश्ता, खाना-पीना वह यहीं करती थी। 

फ़हमीना के आते ही मेरी पहली नज़र उसके पेट पर ही गई। मैंने देखा कि पेट पर उसके कपड़े पहले से काफ़ी टाइट हो रहे हैं। मन ही मन कहा कि प्रेग्नेंसी कम से कम तीन महीने की तो हो ही गई है। 

भीतर ही भीतर ग़ुस्से से भरी होने के बावजूद भी, मैंने अपने भाव को ज़ाहिर नहीं होने दिया। उसे किचन में जाकर नाश्ता करने के लिए कह दिया। उसकी इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि दीदी आप अभी तक तैयार क्यों नहीं हुईं। 

वह दस मिनट में नाश्ता करके आई और बोली, “दीदी आपने तो खाना, नाश्ता सब बना लिया। मैंने तो कहा था कि आ रही हूँ।”

मैंने उसकी तरफ़ देखे बिना बड़ी नम्रता से कहा, “बैठो फ़हमीना, मैंने सोचा आज तुमसे दूसरी तरह का काम करवाऊँगी, बात करने का काम।”

मेरी इस बात से वह कुछ भ्रमित हुई, कुछ सोचती हुई, प्रश्न-भरी दृष्टि से मुझे देखती रही तो उसे सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। उसके बैठते ही तुरंत पूछा, “फ़हमीना तुम फिर माँ बनने वाली हो, यह अच्छी ख़बर तो तुमने बताई ही नहीं। हस्बैंड से तुम्हारी सुलह कब हो गई।”

यह सुनते ही वह कुछ सहम सी गई। लेकिन तुरंत ही सँभलती हुई बोली, “नहीं दीदी ऐसी कोई बात नहीं है। शौहर कहाँ है, कैसा है, सालों से कुछ पता ही नहीं है। और फिर मैं तो उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती, ख़्वाबों में भी नहीं। जिसने मुझे, बच्चों को लातों, घूँसों, चमड़े की बेल्ट से मार-मार कर, अधमरा करके सड़क पर फेंक दिया बच्चों सहित मरने, भीख माँगने के लिए, उससे मैं आख़िरी साँस तक नफ़रत ही करूँगी। 

“आप ही बताइए एक और निकाह कर सौतन लाने के लिए मना करके मैंने कोई गुनाह किया था क्या? मैं इतना ही तो कहती थी कि जितनी तुम्हारी कमाई है, उससे परिवार का गुजर-बसर नहीं हो पा रहा है, एक और को कहाँ से खिलाओगे? 

“एक और औरत लाकर तीन चार बच्चे पैदा कर दोगे, फिर तो भूखों ही मरना पड़ेगा। तो मुझे मारते हुए कहता, ‘उपरवाले ने मुँह दिया है तो खाना भी वही देगा। हमें चिंता करने, ज़्यादा दिमाग़ लगाने की कोई ज़रूरत नहीं है, समझी।‘

“मैंने कहा नहीं, ‘उपरवाले ने कहा है कि उतनी ही ज़िम्मेदारी लो जितनी पूरी कर पाओ।’  बस इतनी सी बात पर मुझे बच्चों को मार-मार घर से निकाल दिया। बताइए मैंने कौन सी ग़लत बात कह दी थी।”

वह अपनी बात कहते-कहते बड़े तनाव में आ गई थी। मैं उसे ग़ौर से देखती रही, और मन ही मन कहा, जब बरसों से पति का कोई ठिकाना नहीं है, तो तेरी प्रेग्नेंसी निश्चित ही लियो से है। कैमरे झूठ थोड़े ही बोल रहे हैं, झूठ तो तुम बोलती जा रही हो कि तुम प्रेग्नेंट नहीं हो। 

मैंने उसे शांत करते हुए कहा, “नहीं तुम कहीं से भी ग़लत नहीं हो। बच्चे उतने ही पैदा करने चाहिए, जितने को अच्छी परवरिश दे सकें। सोचे-समझे बिना पैदा करते जाना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं है, यह तो पूरी तरह से गँवारपन है। लेकिन तुम्हारा पेट तो काफ़ी बढ़ रहा है, ऐसा लग रहा है कि तुम दो-तीन महीने की प्रेग्नेंट हो। 

“देखो मुझे इतने साल हो गए हैं नौकरी करते हुए, न जाने कितनी औरतों को देख चुकी हूँ। डॉक्टर तो नहीं हूँ, नर्स ज़रूर हूँ। फिर यह तो ऐसी बात है, जिसे गाँव-देहात की कोई मिडवाइफ़ भी बता देगी। इसमें छिपाने वाली कोई बात नहीं है। मैं अपने हॉस्पिटल में डिलीवरी कार्ड बनवा दूँगी। इलाज का पूरा ख़र्च मैं उठाऊँगी।”

मैंने जानबूझ कर किसका बच्चा है, इस बिंदु पर एक शब्द नहीं कहा। लेकिन फ़हमीना बहस पर उतर आई। बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी। वह इतने विश्वास के साथ बोल रही थी कि यदि कैमरे में उसे लियो से सम्बन्ध बनाते हुए नहीं देखा होता, तो अंततः मैं उसकी बात पर विश्वास कर ही लेती। उसकी इस ढिठाई पर आख़िर मैंने सख़्त रुख़ अपनाया। 

मैंने उससे साफ़ शब्दों में कहा, “देखो मैं तुमसे यह नहीं पूछ रही कि जब तुम्हारा शौहर है ही नहीं, तो फिर इस बच्चे का पिता कौन है? मुझे सिर्फ़ तुम्हारी जान की फ़िक्र है। तुमने अपनी जो स्थिति बताई है, उससे यह तो तय है कि तुम इस बच्चे को पैदा बिल्कुल नहीं करोगी। 

“समाज के डर से बच्चे को तुम गिरवा दोगी। अनसेफ़ एबॉरशन कराने की कोशिशों में कहीं तुम अपनी जान न ले लो। तुम्हारे बच्चे अनाथ हो जाएँगे। बात की गंभीरता को समझने की कोशिश करो।”

थोड़ी सख़्ती करने और बहुत समझाने-बुझाने के बाद आख़िर फ़हमीना ने सच स्वीकार कर लिया। मैंने उसे अपने ही बेड पर लिटा कर थारोली चेक किया और उससे साफ़-साफ़ कहा, “मैं शत-प्रतिशत विश्वास से कह रही हूँ कि तुम्हारे पेट में कम से कम तीन महीने का बच्चा है। इसे जितनी जल्दी एबॉर्ट करवा दोगी, उतना ही अच्छा रहेगा। मैं तो कहूँगी कि मेरे साथ इसी समय चलो। मैं तैयार होती हूँ।”

इतना कहकर मैं बाथरूम की तरफ़ चली, तो फ़हमीना हॉस्पिटल चलने से इंकार करती हुई फिर बहस करने लगी। उसकी इस हरकत से मैं अपने ग़ुस्से पर क़ाबू नहीं रख पाई। मैंने तेज़ आवाज़ में दाँत पीसते हुए कहा, “अब मैं जो कहूँगी, तुम बिना एक शब्द बोले वह करोगी, समझी। तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आई लियो जैसे एक अपाहिज बालक का रेप करते हुए।”

मेरा इतना कहना था कि फ़हमीना एकदम से भड़क उठी। मुझको आँखें तरेरती हुई बोली, “देखो मैडम हम पे उलटा-सीधा इल्जाम न लगाओ बता दे रहे हैं। हम काहे को तुम्हारे लड़का से रेप करेंगे। दुनिया में और आदमी नहीं हैं का . . . ”

फ़हमीना एकदम से ज़बरदस्त उजड्ड लड़ाकू महिला की तरह तन कर खड़ी हो गई। मैं क्षण-भर को अचंभित रह गई। मुझे बिलकुल अहसास नहीं था कि वह पलक झपकते ही ऐसे गिरगिट से भी तेज़ रंग बदलेगी। 

मैंने भी उसकी आँखों में आँखें डाल कर, उसे कमरे में लगे कैमरे को दिखाते हुए कहा, “घर के कोने-कोने में लगे इन कैमरों ने बाथरूम, किचन तक में तुम्हारे कुकर्मों की पिक्चर बनाई है। तुम अपनी उजड्डता से अपने घिनौने काम को झुठला नहीं सकती। अब तुम्हारी भलाई इसी में है, कि मैं जो कह रही हूँ, उसे चुपचाप मान लो, नहीं तो मैं अभी पुलिस बुलाती हूँ। तुम्हें तुम्हारे कुकर्मों के लिए कम से कम दस साल जेल की सज़ा होगी ही होगी।”

इतना सुनते ही फ़हमीना का चेहरा लटक गया। ऐसे जैसे कि ख़ूब हवा भरे गुब्बारे में अचानक ही सूई चुभ गई हो। यह देख कर मैंने भी अपना रुख़ थोड़ा नरम करते हुए कहा, “तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आई, तुम्हारी आत्मा नहीं काँपी अपने बच्चे से मात्र दो-तीन साल बड़े बच्चे की अपंगता का लाभ उठाकर, उसके साथ इतनी निर्लज्जता से कुकर्म करते हुए? 

“अपनी शारीरिक ज़रूरत पूरी करने को मैं ग़लत नहीं कहती। तुम भी अपनी इच्छा ख़ूब पूरी करो, ख़ूब सेक्स करो। मगर रिश्ते का भी ध्यान रखो। जानवर भी अपनी सीमा के बाहर नहीं जाते। अपने लिए नि:संकोच किसी जीवन-साथी को तलाश लो। रहो उसके साथ निश्चिंत होकर आराम से। यह क्या कि कहीं भी, कुछ भी कर लो।”

अभी तक अपराध-बोध से थोड़ा शर्मिंदा दिख रही फ़हमीना मेरे थोड़ा नरम पड़ते ही अचानक ही फिर भड़कती हुई बहस पर उतर आई। वह सीधे-सीधे लियो को ही कटघरे में खड़ा करती हुई बोली कि “वह अपनी बात कहने के बहाने से पकड़ लेता था। मैं हटना चाहती थी लेकिन हटने ही नहीं देता था। मेरे पीछे-पीछे चल देता था। उसे कहीं चोट-चपेट न लग जाए तो . . . बस एक दो बार ही . . .”

उसने जैसे ही लियो को दोषी ठहराने की कोशिश की, मेरा जैसे ख़ून ही खौल उठा। मैं लपक कर आठ-दस क़दम दूर खड़ी फ़हमीना के एकदम चेहरे के क़रीब पहुँच कर चीखी, “चुउऽऽउऽऽप, एकदम चुप रहो। एक तो चोरी, ऊपर से सीना जोरी। अभी तुम्हें तुम्हारे कुकर्म, तुम्हारी बेशर्मी, निर्दयता, का असली चेहरा दिखाती हूँ। हद होती है झूठ बोलने, निर्लज्जता की।”

अपनी बात पूरी करते-करते मैंने लैपटॉप ऑन कर दिया। सबसे पहले वह फुटेज दिखाई जिसमें वह चाकू लियो को टच करा कर डरा धमका रही है। तमाम और फुटेज दिखाती हुई मैं बोली, “एक-एक फुटेज कह रहा है कि तुम चाकू की नोक पर कितनी ढिठाई, निर्दयता, कितनी बदतमीज़ी के साथ कुकर्म कर रही हो। 

“इसके बावजूद तुम्हें फिर समझा रही हूँ कि मैं जो कह रही हूँ उसे करो, नहीं तो अब मैं तुम्हें पुलिस को हैंड-ओवर करने जा रही हूँ। जब पुलिस की लाठियाँ, गालियाँ खाओगी, कम से कम दस साल जेल में चक्की पीसोगी, दड़बे जैसी कोठरी में सड़ोगी, तब तुम्हारी समझ में आएगा ऐसे नहीं।”

यह कहते हुए मैंने कॉल करने के लिए अपना मोबाइल उठा लिया। बचने का कोई रास्ता न देख, पुलिस का नाम सुनते ही फ़हमीना, मेरे क़दमों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगी। “दीदी माफ़ कर दीजिये, ग़लती हो गई। मैं बहक गई थी। अब फिर कभी नहीं होगी।”

वह रोने लगी। मैंने उससे कुछ नहीं कहा। जब उसका रोना-धोना कुछ कम हुआ तो उसको मुँह-हाथ धोकर आने को कहा। मुझे कभी उस पर दया आती, तो कभी ग़ुस्सा। मैंने उसके उठते ही, उसके कुछ उभरे हुए पेट की ओर इशारा करते हुए पूछा, “क्या सोचा है? क्या करोगी इसका?” 

वह सिर झुकाए हुई धीरे से बोली, “जी दवाई तो खा रही हूँ दो दिन से, लेकिन गिरा ही नहीं।”

मैंने पूछा, “कौन सी दवा खा रही हो?” तो उसने किसी नीम-हकीम टाइप दवा का नाम लेते हुए बताया कि “मेरी एक सहेली ने लाकर दिया है।”

उसकी इस लापरवाही पर मैं बहुत ग़ुस्सा हुई। मैंने उसे तुरंत हॉस्पिटल चल कर एबॉर्ट कराने के लिए कहा। 

वह कोई न-नुकुर न करे, इसलिए सारा ख़र्च भी स्वयं उठाने को तैयार हो गई। लेकिन उसने घर की एक ऐसी समस्या बताई कि अगले दिन सुबह चलना तय हुआ। 

उसके जाते ही मैंने सोचा कि हॉस्पिटल में हो सकता है इसे एक-दो दिन रुकना पड़ जाए। ऐसे में इसके बच्चे अकेले कैसे रहेंगे। कहीं यही बहाना लेकर यह कल भी मना न कर दे। इसके अबॉर्शन के लिए पहले मेडिसिन ही ट्राई करूँ क्या? 

वैसे भी मेरा हॉस्पिटल इसे ग़ैर-क़ानूनी अबॉर्शन कह कर मना कर देगा। डॉक्टर निकिता वैसे तो बहुत अच्छी हैं, लेकिन नियम-क़ानून के मामले में कहने को भी एक क़दम इधर से उधर नहीं होतीं। 

अनुज्ञा हॉस्पिटल में ही नर्स है, फिर भी बेचारी को कितनी तेज़ डाँटा था कि “तुम्हें पता नहीं है कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी क़ानून केवल रेप आदि स्पेशल केसेज़ या महिला की क्रिटिकल कंडीशन होने पर ही अबॉर्शन की परमिशन देता है। 

“ख़ुद तो पनिश होगी ही मुझे भी करवाओगी। हॉस्पिटल पर जुर्माना लगेगा वो अलग। मैनेजमेंट हम-दोनों को निकाल देगा। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि तुमने मूर्ख औरतों की तरह ऐसी बेवक़ूफ़ी क्यों की। जब तीसरा बच्चा नहीं चाहिए था तो तुम दोनों हस्बेंड-वाइफ को सावधानी बरतनी चाहिए थी . . .।” 

उसे इतना लम्बा-चौड़ा लेक्चर दिया कि वो ग़ुस्सा होकर पैर पटकती हुई चली आई। मैंने समझाना चाहा तो बिफरती हुई बोली थी, ‘ये क्या बात हुई यार, शरीर मेरा, पेट मेरा, प्रेग्नेंसी मेरी, मैं चाहे कैरी करूँ या अबॉर्ट करवाऊँ, ये साला क़ानून, डॉक्टर बीच में टाँग अड़ाने वाले कौन होते हैं। 

‘ये सबके सामने मेरी प्राइवेसी को एक्सपोज़ करके, मुझे लेक्चर देने वाली कौन होती हैं। क़ानून की बड़ी संरक्षक हैं, तो जो देश भर में हर साल, अबॉर्शन के लिए अनरजिस्टर्ड हॉस्पिटल में क़रीब डेढ़ करोड़ से ज़्यादा ग़ैर-क़ानूनी ढंग से अबॉर्शन होते हैं, उन्हें क्यों नहीं रोक लेतीं . . .’ 

मुझे लगा अनुज्ञा सही कह रही है, तो मैंने उसे पूरा सपोर्ट किया। और उसने अगले दिन किसी छोटे-मोटे हॉस्पिटल में रिस्क लेकर अबॉर्शन करवाया। अनुज्ञा की यह बातें याद आते ही मैं फ़हमीना को लेकर असमंजस में पड़ गई कि इस झूठी औरत का कोई ठिकाना नहीं। कहीं कोई ऐसा तमाशा न खड़ा कर दे कि ग़ैर क़ानूनी ढंग से इसका अबॉर्शन करवाने के आरोप में मुझे ही जेल में डाल दिया जाए। 

इस असमंजस के चलते मैंने सोचा कि किसी हॉस्पिटल में जाने का रिस्क लेने से पहले उससे अबॉर्शन पिल मिफप्रिस्टोन और मीसोप्रोस्टोल प्रयोग करवाती हूँ। देश भर में अस्सी परसेंट से ज़्यादा अबॉर्शन मामलों में इन्हीं पिल को यूज़ किया जा रहा है। 

मगर समस्या यह आ गई कि यह पिल बिना डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के मिल ही नहीं सकती थी। मैंने किसी तरह एक डॉक्टर से लिखवाया। लेकिन किसी भी केमिस्ट के यहाँ पिल नहीं मिली। मैंने हॉस्पिटल जाना कैंसिल कर पूरा शहर छान मारा लेकिन हर जगह न न न . . .  इस पिल में कोई मुनाफ़ा नहीं, तो कोई बेचता नहीं। 

आख़िर परेशान होकर मैंने अगले दिन अबॉर्शन के लिए अनरजिस्टर्ड हॉस्पिटल में सब-कुछ करवा कर, देर शाम को एक महीने की एडवांस सैलरी देकर, ऑटो से उसे घर तक छोड़ आई। जाते समय उसके लिए पैक फ्रूट जूस के अलावा काफ़ी फ़्रेश फ्रूट, ड्राई फ्रूट और ढेर सारी दवाइयाँ भी ले लीं थीं। 

वह एक लेबर कॉलोनी जैसी बस्ती में टिन शेड पड़े एक कमरे में रहती थी। उसके दोनों बच्चे भी मुझे माँ का इंतज़ार करते मिले। घर की हालत बता रही थी, कि किसी तरह खाना-पीना चल रहा है। 

बच्चों की कॉपी-किताबें भी दिखीं। दोनों शायद किसी सरकारी स्कूल में पढ़ रहे थे। घर की साफ़-सफ़ाई भी कुछ ख़ास नहीं थी। मैंने जब उसे बिस्तर पर बिठाया तो बच्चे माँ की पस्त हालत देख कर कुछ घबराए कि माँ को क्या हुआ? 

मैंने उन्हें प्यार से समझाया कि “तुम लोग परेशान नहीं हो, कोई ख़ास बात नहीं है। माँ को परेशान नहीं करना। पेट में दर्द था। दवा दे दी गई है, सब ठीक हो जाएगा।”

मैंने देखा कि बच्चे काफ़ी भूखे लग रहे हैं, और फ़हमीना अभी कुछ काम करने लायक़ नहीं है, तो मैंने उससे कहा, “मैं थोड़ी देर में बच्चों और तुम्हारे लिए खाना लेकर आती हूँ। बच्चों को भूख लगी होगी।”

फ़हमीना बोली, “अरे नहीं, आप रहने दीजिए। मैं थोड़ी देर में कुछ बना लूँगी।”

मैंने सोचा इसकी हालत अभी ऐसी नहीं है कि ये काम-धाम करे। इसे अभी एक-दो दिन आराम करना ही चाहिए। तो मैंने कहा, “नहीं तुम अभी कम से कम दो दिन आराम करो। मैं दोनों दिन खाने-पीने की व्यवस्था कर दूँगी।”

फ़हमीना कुछ नहीं बोली, चुप रही। वास्तव में अपनी पस्त हालत के कारण वह ऐसा ही कुछ चाहती भी थी। बाज़ार से सबके लिए खाना लाकर जब मैं घर वापस चलने लगी तो फ़हमीना ने हाथ जोड़ कर मुझसे माफ़ी माँगी। बच्चों के सामने वह कुछ बोलना नहीं चाहती थी। 

अगले दिन भी मैंने दोनों टाइम खाना पहुँचाया। उस दिन जब शाम को खाना देकर चलने लगी, तो उसने फिर हाथ जोड़ लिए। उसका चेहरा भावहीन हो रहा था, यह समझ पाना मुश्किल था कि उसके मन में क्या चल रहा है। 

उससे ज़्यादा कुछ बात करने का मेरा बिलकुल मन नहीं हो रहा था, तो मैंने उसके हाथों को पकड़ते हुए धीरे से कहा, “चलती हूँ, अपना ध्यान रखना। दो-चार दिन और आराम करने के बाद कोई नया काम-धाम ढूँढ़ना।”

फ़हमीना चाहती थी कि मैं उसे काम से बाहर नहीं करूँ। लेकिन मैंने उसे एक महीने का वेतन देते समय ही काम पर आगे रखने से साफ़-साफ़ मना कर दिया था। वेतन के नाम पर मैंने यह पैसा इसलिए दे दिया था कि जब-तक उसे एकाध महीने में काम मिलेगा, तब-तक उसके घर का खाना-पीना चलता रहे। 

उस दिन मैं रात-भर सोचती रही कि अब लियो को किसके सहारे छोड़ूँ? जेंट्स रखूँ तो उसकी जान को और ज़्यादा ख़तरा है। बुज़ुर्ग महिला को रखूँ तो, वह ख़ुद अपने से परेशान रहेगी। इसकी देखभाल क्या करेगी। 
जब मुझे कोई रास्ता नहीं सूझा, तो अगले दिन मैंने स्वयं को बहुत मज़बूत किया और लियो को हर तरह से सब-कुछ समझा-बुझाकर, घर में बंद करके हॉस्पिटल चली गई। इंटरलॉक की एक चाबी पड़ोस में देकर रिक्वेस्ट की, कि ध्यान रखिएगा। 

हालाँकि उन्होंने अनमने ढंग से ही चाबी ली। लियो के लिए मैं कहीं भी, किसी से भी रिक्वेस्ट करने से भी नहीं हिचकती थी। पहले दिन पूरा समय बहुत परेशान, व्याकुल रही कि पता नहीं कहाँ है? कैसा है? बार-बार उसे फ़ोन करके उसी से अपनी विशेष तकनीक में उसका हाल-चाल पता करती रही। 

पूरे दिन मैं इतना बेचैन थी कि किसी काम में मेरा मन नहीं लग रहा था। बस यही मन करता कि कितनी जल्दी छुट्टी मिले और मैं तुरंत उड़ कर अपने लियो के पास पहुँच जाऊँ। 

और देर शाम को छुट्टी मिलते ही सच में मैंने इतनी तेज़ स्कूटर चलाई कि देखने वालों को यही लगा होगा कि मैं उड़कर पहुँचना चाहती हूँ अपने गंतव्य तक। 

घर में लियो मिलते ही किसी छोटे बच्चे की तरह मुझसे लिपट गया। मैंने भी उसे बाँहों में ख़ूब भींच कर भरा हुआ था। मेरा सिर उसकी ठुड्डी को छू रहा था। 

बड़ी देर तक हम-दोनों एक ही जगह खड़े रहे। मेरी आँखों से आँसू निकल कर लियो की टी-शर्ट भिगोने लगे। गीलापन महसूस होते ही उसने तुरंत मेरे चेहरे को दोनों हाथों से पकड़ कर आँखों को छुआ। 

मैं रो रही हूँ, यह समझते ही वह व्याकुल हो उठा। मेरे चेहरे को अपने दोनों हाथों में भरकर अपने ही तरीक़े से जल्दी-जल्दी पूछने लगा क्या हुआ? क्या हुआ? मैंने उसे समझाया कुछ नहीं, बस ऐसे ही आँसू आ गए। लेकिन वो मानने को तैयार नहीं हुआ। 

मैं समझ गई कि अब इसे विस्तार से समझाए बिना बात बनने वाली नहीं। ये किसी भी सूरत में नहीं मानेगा। मैं उसे लेकर सोफ़े पर बैठ गई। उसे काफ़ी मुश्किल से समझाया कि तुम दिन-भर अकेले रहे, फ़ोन पर मुझसे ख़ूब बात की, इससे मैं बहुत ख़ुश हूँ, इसी से आँखों में आँसू आ गए। 

इसी के साथ उसने पूछ लिया, आँसू तो रोने पर आते हैं। ख़ुश होने पर कैसे आ गए? उसके इस प्रश्न का उत्तर उसे समझाना, मुझे वैशाखी लेकर हिमालय पार करने जैसा दुष्कर्य लगा। मैंने कई बार कोशिश की, लेकिन हर बार उसका यही तर्क कि रोने पर आँसू, तो ख़ुश होने पर कैसे? बात मैं जहाँ ख़त्म करती, लियो वापस फिर प्रारम्भ बिंदु पर पहुँचा देता। 

दिन-भर की थकी-हारी मैं लियो के इस तर्क से जहाँ एकतरफ़ एकदम पस्त हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ़ मन के एक कोने में ख़ुशी के फव्वारे छूट रहे थे कि लियो अब इतना समझदार हो गया है कि तर्क करने लगा है। 
किसी बात को मासूम बच्चे की तरह आँख मूँद कर मानने को अब बिलकुल तैयार नहीं होता। इसके दिमाग़ में हर बात पर प्रश्न ही प्रश्न खड़े होना यह बताता है कि यह दिमाग़ी तौर पर बहुत तेज़-तर्रार और पूर्णतः स्वस्थ है। 

मैंने उससे जब यह कहा कि मुझे बहुत भूख लगी है, तुम्हें भी लगी होगी। पहले चाय-नाश्ता, खाना-पीना कर लूँ, फिर सोने से पहले तुम्हें सारी बातें बताती हूँ। मुझे भूख लगी है, मेरी यह बात जानते ही वह तुरंत तैयार हो गया। उसके प्रश्न का उत्तर उसे पूरी तरह समझाने, संतुष्ट करने में मुझे तीन दिन लगे। 

उस दिन सोने से पहले मैंने सीसीटीवी फुटेज चेक किए, तो मेरे कान खड़े हो गए। फ़हमीना ने उसे जो-जो पाठ पढ़ाया था। उसे वह बार-बार पढ़ना चाहता था। इसके लिए वह दिन-भर व्याकुल रहा। 

पूरे घर में जैसे इधर-उधर भागता रहा। कई बार तो ग़ुस्से में तकियों को ज़मीन पर फेंका। फिर कुछ देर बाद ही उठाकर रखा भी। पूरे घर के रास्ते उसने ऐसे रटे हुए थे कि बिना छड़ी के ही आसानी से हर तरफ़ आ, जा रहा था। 

कोई अच्छी बात थी तो सिर्फ़ यह कि उसका ध्यान अपने काम की तरफ़ भी था। दिन-भर में कई बार पैकिंग भी की। हालाँकि रोज़ से आठ-दस डिब्बे कम ही किए। 

दिन-भर की उसकी गतिविधियों को देख कर मेरी नींद उड़ गई थी। मैं बार-बार यही सोचती कि इसके दिमाग़ से फ़हमीना के पढ़ाए पाठ को मिटाना ही होगा। नहीं तो यह ख़ुद को नुक़्सान पहुँचा सकता है। 

लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है . . . मगर कठिन कितना भी हो, करना तो हर हाल में है। क्योंकि यह किए बिना इसका जीवन सुरक्षित नहीं रहेगा। 

यही सब सोचते-सोचते आधी से ज़्यादा रात बीत गई, दो बज गए लेकिन सो नहीं पाई। आँखें बंद करके लेटती कि सो जाऊँ, सुबह हॉस्पिटल भी जाना है, दिन-भर काम करना है। लेकिन मन में यही बात बार-बार उमड़ती-घुमड़ती रही कि जो भी हो, जैसे भी हो, इसे समझाऊँगी कि अभी इसके लिए तुम्हारी उम्र बहुत छोटी है। तुम्हें नुक़्सान होगा। 

और बड़े हो जाओ तो तुम्हारी शादी कर दूँगी, तब मिसेज़ के साथ ख़ूब एन्जॉय करना। आख़िर हार कर मैंने नींद की एक टेबलेट खाई तब कहीं जा कर थोड़ी देर बाद सो पाई। 

अगले तीन-चार हफ़्ते मैंने उससे इस बारे में ख़ूब खुलकर सारी बातें कीं। उसे सब समझाने का प्रयास किया। लेकिन हॉस्पिटल से लौटकर वीडियो फुटेज देखते ही अपना माथा पीट लेती। ग़ुस्से में फ़हमीना को तमाम अपशब्द कहती। क्योंकि लियो को समझाने का मेरा हर प्रयास उल्टा पड़ रहा था। 

हफ़्ता बीतते-बीतते लियो अपने काम से बिल्कुल विरक्त हो गया था। बड़ी मुश्किल से आठ-दस डिब्बे ही पैक करता। इतने ही दिनों में एक और भी परिवर्तन तेज़ी हो रहा था। अब वह दिन-भर भटकने के बजाय गुम-सुम इधर-उधर बैठा रहता। बीच-बीच में एक दो बार चिम्पैंजियों की तरह पूरा मुँह खोल कर चीखता हुआ, अपने दोनों हाथों से अपनी छाती पीटता। 

इतना ही नहीं अब वह हॉस्पिटल से मेरे आने पर, पहले की तरह उत्साह से नहीं मिलता था। अपनी शैली में न कुछ हँसता, न ही कुछ कहता। मेरी बात पर ग़ुस्सा भी होता। 

मैं उसे पहले की तरह प्यार से अपनी बाँहों में लेने का प्रयास करती, तो वह कई बार मेरे हाथ को झटक देता। मुझ पर ख़ूब ग़ुस्सा होता कि मैंने फ़हमीना को भगा दिया। उसकी तबियत वग़ैरह कुछ ख़राब नहीं हुई है। 
चाय-नाश्ता, खाना-पीना भी ठीक से नहीं करता। कई बार तो फेंक देता। मैं एकदम खीझ उठती। मेरे आँसू निकल आते। सबसे बड़ी समस्या तो मेरे सामने तब आ खड़ी हुई, जब एक दिन सुबह-सुबह उसने फ़हमीना को बुलाने की ज़िद पकड़ ली, इतनी ज़्यादा कि कई झूठी बातें उसे बताई, समझाई तब वह माना। मैं एक घंटा देर से ऑफ़िस जा पाई। 

मेरा मन सारे समय उसके ऊपर ही लगा रहा है। इसके चलते एक जगह रेड-लाइट क्रॉस करने के कारण चालान हो गया। ड्यूटी में रोज़-रोज़ की डिस्टरबेंस के चलते अब आए दिन मुझे इंचार्ज की बातें सुननी पड़ रही थीं। 

घर हो या बाहर मुझे एक क्षण भी आराम से बैठने को नहीं मिल रहा था। दूसरी तरफ़ लियो हफ़्ते, दूसरे हफ़्ते फ़हमीना को बुलाने की ज़िद करके मुझे नाकों चनें चबवाता रहा। 

एक दिन मैंने सोचा कि एक बार फ़हमीना को बुला लाऊँ। उसी कहूँ कि वो स्वयं लियो से कहे कि उसकी तबियत ठीक नहीं रहती। इसलिए वह अब अपने घर पर ही रहती है। कहीं और नहीं जाती। और उसको जो छुएगा, वह भी बीमार हो जाएगा। इससे लियो फ़हमीना को बुलाने की ज़िद करना छोड़ देगा। इसके दिमाग़ में जो फ़हमीना का फ़ितूर भरा है, वह भी निकल जाएगा। 

मैं अगले दिन शाम को ऑफ़िस से निकलने के बाद सीधे उसके घर पहुँची। टिन का दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। मैंने फ़हमीना को दो-तीन आवाज़ दी, तो उसका बड़ा बेटा बाहर आकर बोला, “अम्मी नहीं हैं।”

“कितनी देर में आएँगी?” 

“पता नहीं,” लड़का बहुत बेरुख़ी से बोला। मैंने सोचा इसे क्या हो गया है। उससे फिर पूछा, “कहीं काम पर गई हैं या बाज़ार?” 

उसने फिर वैसी ही बेरुख़ी से जवाब दिया, “हमें नहीं मालूम।”

इसी बीच अंदर कुछ हलचल हुई। मुझे लगा कि फ़हमीना अंदर ही है। लड़का झूठ बोल रहा है। मैंने सोचा कि इंतज़ार करने के बहाने इससे कहूँ क्या कि मुझे अंदर बैठने दे। एक ही कमरा है। पता चल जाएगा कि ये झूठ बोल रहा है या सच। लेकिन कहीं इसने मना कर दिया तो बड़ी इंसल्ट होगी। चलो फ़ोन करके पूछ लेती हूँ कहाँ है, कितनी देर में आएगी। 
मैंने बैग से मोबाइल निकाला ही था कि लड़का एकदम से बोल पड़ा, “अम्मी मोबाइल घर पर ही छोड़ गई हैं।”

मैं चौंक गई। ठहर गई एकदम। कुछ क्षण मूर्तिवत उसे देखने के बाद मोबाइल वापस बैग में रखते हुए सोचा, यह तो माँ से भी हज़ारों गुना ज़्यादा शातिर है। बारह-तेरह की उम्र में ही इतना शातिर है, आगे न जाने क्या करेगा! मैंने उससे और कुछ भी कहना-सुनना मूर्खता समझी और स्कूटर स्टार्ट कर घर आ गई। 

घर पर लियो की हालत ने मुझे और परेशान किया। वह एकदम सुस्त चारों खाने चित्त बेड पर लेटा हुआ था। आँखें ऐसी लग रही थीं, जैसे वह एकटक छत को देख रहा हो। मैंने जल्दी से उसके पास पहुँच कर, दोनों हाथों से उसके गालों को प्यार से सहलाया कि उठो मैं आ गई हूँ। लेकिन उसने ग़ुस्सा दिखाते हुए करवट लेकर मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया। 

मैंने उसे मनाने के कई प्रयास किए, लेकिन वह हर बार मेरा हाथ झटक देता। मुझे बहुत दुःख हुआ यह देखकर कि उसके खाने-पीने के लिए जितनी भी चीज़ें जहाँ, जैसे रख गई थी, सब वैसी ही पड़ी हुई थीं। 

मैंने जल्दी से कपड़े वग़ैरह चेंज करके नाश्ता बनाया, बड़ी मुश्किल से उसे खिलाया। जिस तरह से उसने खाया, उससे लग रहा था कि वह बहुत देर से भूखा था। 

खाना बनाते समय क़रीब साढ़े नौ बजे फ़हमीना को फ़ोन किया। उसने दूसरी बार कॉल करने पर रिसीव की। मैंने उससे सीधे कहा कि “तुमसे कुछ काम है, मैं कल शाम को साढ़े सात बजे तक घर आ जाऊँगी। उसके बाद तुम किसी भी समय आ जाओ। तुम्हारे आने-जाने का जो भी ख़र्च होगा, मैं दे दूँगी।”

“क्या काम है?” उसने अपने बेटे की ही तरह बेरुख़ी से ही पूछा। मैंने कहा, “बस दो मिनट का काम है, आओगी तो सब बता दूँगी।”

बड़ी ना-नुकुर के बाद फ़हमीना आने के लिए तब तैयार हुई, जब मैंने उसे अलग से दो हज़ार रुपए और देने के लिए कहा। 

अगले दिन देर शाम को आकर उसने लियो को वह सारी बातें बताईं, समझाईं जो उसे मैंने बताई थी। लियो को जब फ़हमीना सारी बातें समझा रही थी, तब मैं लियो की छोटी सी छोटी प्रतिक्रिया का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन कर रही थी। 

मैंने देखा जब फ़हमीना उसे समझा रही थी, तो उसका व्यवहार ऐसा रहा, जैसे कह रहा हो, चलो दूर हटो मुझसे। उसका चेहरा ऐसा भावहीन हो गया था, जैसे उससे कोई संवाद नहीं किया जा रहा। वहाँ उसके पास कोई है ही नहीं। हाँ फ़हमीना के जाने के बाद जैसे वह किसी गहन चिंता में डूब गया, खाना भी पूरा नहीं खाया। 

उस रात मुझे सोए हुए दो घंटे भी नहीं हुए थे कि मेरी नींद खुल गई। मैंने महसूस किया जैसे कि बेड हिल रहा है। लाइट ऑन करके देखा तो एकदम पसीने-पसीने हो गई। लियो का शरीर अजीब तरह से हिल रहा था। जैसे ख़ूब तेज़ काँप रहा हो। 

मैंने बहुत ध्यान से उसकी हालत को समझने की कोशिश की। उसे पसीना भी हो रहा था, और बदन भी कुछ गर्म लग रहा था। उसका टेंपरेचर देखा तो वह क़रीब-क़रीब नॉर्मल निकला। 

मैंने तौलिया गीला करके, उसके चेहरे को कई बार पोंछा। क़रीब दो-तीन मिनट के बाद उसका काँपना बंद हुआ। लेकिन उसकी नींद नहीं टूटी। वह सोता रहा। 

मुझे शक हुआ कि कहीं मस्तिष्क में तनाव का स्तर अत्यधिक हो जाने के कारण तो ऐसा नहीं हो रहा है। मैं ध्यान से उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयास करती रही। कुछ मिनट के बाद लगा, जैसे वह कुछ बेचैन हो रहा है, फिर अचानक ही उसने आँखें खोल दीं। 

मैंने उसे यह अहसास नहीं होने दिया कि मैं बैठी उसे देख रही हूँ। जिस तरह उसने अचानक आँखें खोलीं थीं, उसी तरह उठ कर बैठ भी गया। मेरा अध्ययन अब भी जारी था। मैंने देखा कि हमेशा की तरह उठते ही उसने मुझे नहीं टटोला कि मैं कहाँ हूँ। 

उसने कुछ ही क्षण में अपने चेहरे को ऐसे छुआ, जैसे वहाँ कुछ लगा हो। मैंने गीले तौलिए से उसका चेहरा पोंछा था, शायद उसे गीलेपन का अहसास हो रहा था। इसी समय मैंने उसे प्यार से पकड़ कर पूछा, “क्या हुआ बेटा?” 

लेकिन वह एकदम शांत रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। आख़िर उसको परेशानी क्या है? यह जानने का बहुत प्रयास किया, लेकिन लियो कुछ भी बता नहीं सका। उसकी हालत कुछ ऐसी हो रही थी, जैसे कि मस्तिष्क में चल रहे किसी बड़े कन्फ्यूजन को समझने प्रयास कर रहा हो। 

उसकी यह हालत देख कर मुझको बहुत दुःख हो रहा था। मेरी आँखें डबडबाई हुई थीं। उसे एक गिलास में चार-पाँच चम्मच ग्लूकोज़ पाउडर घोल कर पिलाया। फिर लिटा कर धीरे-धीरे उसके सिर को सहलाती रही। कुछ ही देर में वह फिर सो गया। लेकिन मैं बैठी उसे बड़ी देर तक देखती रही। 

अगले दिन उसे हॉस्पिटल ले गई। वह जाने को तैयार ही नहीं हो रहा था। मैंने डॉक्टर से फ़हमीना प्रकरण छुपाते हुए सारी बातें बताईं। डॉक्टर ने वही कहा जिसका मुझे शक था। यह सोचकर कि उसका दिमाग़ दूसरी तरफ़ डायवर्ट हो सके, उसे पूरा दिन हॉस्पिटल में ही रखा। 

दवा के असर के चलते उस दिन वह पूरी रात आराम से सोया। मगर आगे चल कर चार-पाँच दिन के अंतराल पर यह समस्या बार-बार होने लगी तो उसे एक नामचीन डॉक्टर को दिखाया; फ़हमीना प्रकरण को विस्तार से बताते हुए। क्योंकि मुझे लगा कि समस्या का मूल कारण जाने बिना डॉक्टर लियो को सही ट्रीटमेंट नहीं दे पाएँगे। 

फ़हमीना चैप्टर सुनकर डॉक्टर आश्चर्य पड़ गए। उन्होंने कुछ दवाएँ लिख दीं। साथ ही दो-चार दिन में सिर का एमआरआई टेस्ट करवा कर, रिपोर्ट लेकर आने को कहा। 

मैं जब टेस्ट करवा कर फिर पहुँची, तो उन्होंने लियो को एक मनोचिकित्सक के पास ले जाने के लिए कहा। मनोचिकित्सक पहले वाले डॉक्टर के मित्र थे। मैंने उनसे फ़ोन भी करवा दिया था। इससे जब मैं लियो के साथ उनके पास पहुँची, तो उन्होंने बड़े ध्यान से केस स्टडी की, सारी बातें सुनीं। 

लियो की स्थिति को देख कर उन्होंने कहा, “मेरे अब-तक के तीस साल के करिअर में यह अपनी तरह का अकेला केस है। अमूमन यही होता है कि जिनकी आई-साइट नहीं होती, वो बोल-सुन लेते हैं। जो बोल-सुन नहीं पाते, उनकी आई-साइट ठीक होती है।”

डॉक्टर ने लियो किसी बात पर कैसे प्रतिक्रिया करता है, किन बातों से कैसे भाव चेहरे पर आते हैं, यह जानने के लिए तरह-तरह के प्रश्न किए। उनके और लियो के बीच संवाद का माध्यम मैं थी। 

मैंने जिस तरह संवाद क़ायम किया, उससे डॉक्टर आश्चर्य में पड़ गए। क़रीब दो घंटे की मैराथन जाँच के बाद उनका निष्कर्ष वही निकला जो मेरा था। फ़हमीना के साथ बिताए गए पल उसके दिमाग़ में एक ग्रंथि की तरह बैठ गए थे। इस ग्रंथि को समाप्त करना, लियो के स्वस्थ होने की पहली और आख़िरी शर्त थी। 

डॉक्टर ने इसकी पूरी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही यह कहते हुए डाली कि “देखिये यह काम आपको ही करना होगा, क्योंकि और कोई इनके साथ संवाद कर नहीं सकता। और ट्रीटमेंट में बड़ा निर्णायक रोल इनसे संवाद का ही है।”

इसके साथ ही डॉक्टर ने मेरी इस बात के लिए बहुत प्रशंसा की कि मैंने लियो से संवाद का ऐसा अनूठा तरीक़ा विकसित किया। यह सलाह भी दी कि इसे और बेहतर करके एक पुस्तक के रूप में मार्केट में ले आइये। जिससे आपकी इस खोज का दुनिया के और लोग भी फ़ायदा उठा सकें। 

लेकिन इस बात के लिए डॉक्टर ने एक तरह से मुझ को बहुत डाँटा, आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि “आपने फ़हमीना के इतने घिनौने अपराध के बावजूद उसके ख़िलाफ़ पुलिस में केस दर्ज नहीं कराया। जबकि उसका अपराध तो दोगुना ज़्यादा है। 

“उस गन्दी औरत ने लियो जैसे एक एक्सट्रीम हैंडीकैप्ड के साथ एक नहीं बार-बार रेप किया। चाकू की नोक पर किया। ऐसी भयानक दुर्दांत औरत को आपने बजाय पुलिस को देने के, उसकी पूरी हेल्प की। उसका अबॉर्शन कराया, उसने बार-बार आपके साथ मिसविहेब किया, इसके बावजूद। 

आपने तो उसे एक तरह से अपना गंदा काम आगे जारी रखने के लिए पूरी शह दे दी। अब-तक वह न जाने और कितने लोगों को अपना शिकार बना चुकी होगी। वेस्टर्न कंट्रीस में तो ऐसी गन्दी औरत को हमेशा के लिए जेल में डाल दिया जाता। आपके पास वीडियो फुटेज तो हैं ही, अब भी आप उसे जेल भिजवा सकती हैं।”

मैं उनकी बात चुपचाप सुनने के बाद बोली, “सर आप सही कह रहे हैं, वह सब जानने के बाद मैं पुलिस स्टेशन जाने के लिए घर के दरवाज़े पर पहुँच कर रुक गई। लौट आई लियो के पास। 

क्योंकि तभी मेरे दिमाग़ में यह बात आई कि इसका हस्बेंड बहुत पहले ही इसे बच्चों सहित मार-पीट कर भगा चुका है, ये भी जेल चली गई, तो इसके दोनों बच्चे तो अनाथ हो कर सड़क पर भीख माँगने लगेंगे। भूख-प्यास से तड़पते हुए दर-दर भटकेंगे। उन्हें अपना जीवन बचाना मुश्किल हो जाएगा। उसका जीवन तो जेल में सुरक्षित रहेगा। 

मैं नहीं चाहती थी कि उसके अपराध की सज़ा उसके बच्चे भुगतें। लियो को तो मैंने अपना लिया। लेकिन हर अनाथ को फ़्रेशिया मिल जाए, यह तो मुमकिन नहीं। मुझे लगा कि उसे सज़ा दिलाने से ज़्यादा ज़रूरी है, दो बच्चों को अनाथ होने से बचाना। इसलिए मुझे अपने निर्णय पर कोई पछतावा या दुःख नहीं है।”
अपनी बात पूरी करते-करते मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई थी। मुझे ध्यान से सुन रहे डॉक्टर ने कहा, “अच्छी बात है, लेकिन दो बच्चों के अनाथ होने की सम्भावना के दृष्टिगत एक स्पेशल यूथ के साथ हुए घोर अन्याय को भुला देना, उसके साथ एक और अन्याय करने जैसा है। 

“मैं समझता हूँ कि दुनिया के किसी भी न्याय-शास्त्र में इसे अन्याय ही कहा जाएगा। उस गंदी औरत के जेल जाने पर उसके बच्चों को प्रशासन एडल्ट होने तक सरकारी अनाथालय में भेज देती। ऐसे तो आपने उसे गंदे काम को और आगे भी करते रहने के लिए प्रोत्साहित ही किया है। वैसे आप अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। धन्यवाद।”

डॉक्टर ने यह कह कर एक झटके में अपनी बात समाप्त कर दी, क्योंकि अगला पेशेंट अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहा था। 

लियो की दवाएँ लेने के बाद, मैं उसका मूड चेंज करने के लिए, उसे एक मॉल, रेस्ट्रां ले गई। टैक्सी बुक करके लॉन्ग ड्राइव पर भी ले गई। इसमें उसे मज़ा भी आया। इन सारे समय मैं लियो के चेहरे, उसकी हर गतिविधि का अध्ययन करती रही कि उसके मूड में कोई अंतर आ रहा है कि नहीं। 

रात में लियो के सो जाने के बाद भी, डॉक्टर की यह बात मुझे परेशान करती रही कि लियो के दिमाग़ से फ़हमीना चैप्टर को निकाला नहीं गया, तो इसके ब्रेन को बड़ा नुक़्सान पहुँच सकता है। यह किसी गंभीर न्यूरो संबंधित बीमारी से पीड़ित हो सकता है। 

मैं सोचती रही कि आख़िर इसे कैसे समझाऊँ? कैसे इसका ब्रेनवाश करूँ। सुन सकता तो भी कुछ उम्मीद करती। और सबसे बड़ी बात कि वाश किस बात को करना है? एक औरत को? किसी मर्द के दिमाग़ में यदि कोई औरत बस जाए, तो उसे वाश करना तो दुनिया में इससे ज़्यादा मुश्किल काम और कोई हो ही नहीं सकता। यह एक असंभव सा काम है। वो भी लियो जैसे यूथ के दिमाग़ से। समस्या का हल ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मुझे नींद आ गई। 

लियो पहले दिन दवाओं के असर या फिर बहुत देर तक चलते-फिरते रहने के कारण हुई थकान के चलते रात-भर सोता रहा। 

लेकिन अगले दिन फिर वही पुरानी बात। अब मेरी चिंता बहुत ज़्यादा बढ़ गई। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। एक तो हर जगह से निराशा, दूसरे किसी गंभीर दिमाग़ी बीमारी होने का आसन्न संकट। 

मैं सोचती कि गंभीर दिमाग़ी बीमारी ही क्यों? यह ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़, ओबेसिटी, आदि चिंता-जनित बीमारियों का भी शिकार हो सकता है। यह सारी बातें मुझे हर साँस में भयभीत कर रही थीं। 

मेरे लिए जैसे इतनी ही समस्याएँ बहुत नहीं थीं। शहर में चीनी ब्रेन-चाइल्ड कोरोना-वायरस ने भी अपनी उपस्थिति रजिस्टर करवा दी। हॉस्पिटल में तमाम तरह के सुरक्षा नियमों के पालन और कड़े कर दिए गए। 

अब मैं लियो को मिनट भर के लिए भी हॉस्पिटल लेकर नहीं जा सकती थी। और जिस तरह उसे दौरे पड़ रहे थे, उसे देखते हुए उसे घर में अकेले बंद करके छोड़ना, उसकी जान को गंभीर ख़तरे में डालना था। वैसे इस वायरस के चलते लियो के लिए घर से हज़ार गुना ज़्यादा ख़तरा बाहर था। 

कोई रास्ता न देख, आख़िर थक-हार कर, विवश होकर मैं लियो को घर में ही बंद करके जाने लगी। जब-तक हॉस्पिटल में रहती भीतर ही भीतर डरती, थरथराती रहती कि कहीं बेटे को कोई परेशानी न हो गई हो। हॉस्पिटल में मोबाइल भी यूज़ नहीं कर पा रही थी। 

दिन-भर जहाँ घर पहुँचने के लिए व्याकुल होती रहती, वहीं निकलने के समय दूसरा डर मेरे प्राण सुखाने लगता। कोरोना संक्रमण का डर। भय से काँपती हुई घर पहुँचती। 

हॉस्पिटल में सारा समय पीपीई किट, एडल्ट डायपर पहनकर काम करती, लेकिन बार-बार मेरे दिमाग़ में यही बात घूमती रहती कि कहीं मैं संक्रमित हो गई, मुझे कुछ हो गया, तो फिर लियो का क्या होगा? कौन उसे देखेगा। इस कोरोना के भय से तो लोग दूसरे की छाया से भी दूर भाग रहे हैं, किसी की देख-भाल क्या करेंगे। मेरा प्यारा लियो कैसे जिएगा। 

घर पहुँचने पर मैं सबसे पहले दरवाज़े की कुण्डियों, अपनी सैंडल पर ऊपर से नीचे तक, सोल पर भी बहुत सारा सेनिटाइज़र स्प्रे करती। उसके बाद ही दरवाज़ा खोल कर अंदर जाती। दरवाज़ा बंद करने के बाद उलटा चलती हुई बाथरूम की तरफ़ जाती। जिससे पीछे दरवाज़े पर, मेरे क़दम जहाँ-जहाँ पड़े, वहाँ भी सेनिटाइज़र स्प्रे कर सकूँ। 
सीधे बाथ-रूम में पहुँच कर, सबसे पहले सारे कपड़े निकाल कर वाशिंग मशीन में डालती। दोगुना डिटर्जेंट पाउडर डालकर, फिर कई बार स्पिन कराती। इसके बाद कई बार साबुन से हाथ धोने के बाद डिटर्जेंट पाउडर का ही घोल बनाकर, उससे शरीर के रोम-रोम को पंद्रह-बीस मिनट तक ख़ूब रगड़-रगड़ कर गर्म पानी से नहाती। 

इसके बाद कमरे में आकर अलमारी से कपड़े निकाल कर पहनती। आते ही अलमारी या कोई भी चीज़ मैं किसी भी स्थिति में हरगिज नहीं छूना चाहती थी। इसलिए बाथरूम से बिना कपड़ों के ही अंदर कमरे में रखी अलमारी तक जाना पड़ता था। मैं अपने से ज़्यादा लियो को लेकर परेशान रहती। 

कपड़े वग़ैरह पहनकर जब लियो को छूती, तब भी मन में डर समाया रहता। ऐसे में मैं चीन को बहुत सारे अपशब्द कहती, कि यह गंदा देश न जाने क्या-क्या करता रहता है। पहले उन्नीस सौ अठारह में स्पेनिश फ़्लू से पाँच करोड़ लोगों को मरवाया। बदनाम स्पेन को किया। यहाँ तक कि बीमारी का नाम ही स्पेनिश फ़्लू के नाम से इतिहास के पन्नों में रजिस्टर हो गया। 

अब बीस साल के अंदर ही सॉर्स, स्वाइन फ़्लू के बाद कोरोना वायरस जनित यह कोविड-१९ महामारी भी दुनिया को दे दी। चार महीने में ही दुनिया भर में लाखों लोगों को मरवा दिया। न किसी दवा का पता, न ही किसी वैक्सीन का। पूरी दुनिया इतने ही दिनों त्रस्त हो गई है। हे प्रभु रक्षा करना। मुझे लियो के लिए ही सही, सुरक्षित रखना। 

खाने-पीने के बाद मैं टीवी न्यूज़ में दुनिया भर में कोविड-१९ का स्टेटस ज़रूर देखती, देख-देख कर पसीने-पसीने होती रहती, लेकिन स्टेटस जाने बिना रह भी न पाती। जैसे ही किसी देश का हाल सुनती कि आज वहाँ पर इतने नए पेशेंट मिले, इतने लोगों की डेथ हुई, तो मेरी आत्मा काँप उठती। हाथ अनायास ही बग़ल में लेटे लियो पर चला जाता। उसे ऐसे पकड़ लेती, जैसे कोई उसको मुझसे छीन रहा है। मन ही मन, बार-बार कहती, हे प्रभु रक्षा करना। 

ऐसी ही स्थिति में एक दिन अचानक ही मुझे वृंदा की कुछ बातें, उसके भेजे हुए कुछ मेसेज की याद आई। उसने कुछ वीडियो मुझे यह कहते हुए भेज थे कि “यार बहुत डर लगता है। तीन-तीन बच्चे, हस्बेंड, कहीं किसी को कुछ हो गया तो यह सोचकर ही मेरी जान निकलने लगती है। हस्बेंड की लापरवाही मुझे और डराती है। 

“कोई सावधानी नहीं बरत रहे हैं। मॉस्क, सेनिटाइज़र कुछ भी यूज़ नहीं कर रहे। जब मैं टोकती हूँ तो मेरा मज़ाक उड़ाते हैं। कहते हैं, ‘तुम तो हॉस्पिटल में पीपीई किट पहने रहती हो न, बस बहुत है इतना।’ बताओ ऐसी बेतुकी बात का कोई मतलब है। 

“अरे तुम ऑफ़िस जाते हो, दिन-भर सैकड़ों लोगों के बीच से होकर आते हो, जब तुम फ़र्म के मालिक होकर इतने लापरवाह हो, तो तुम्हारे वर्कर तो और भी ज़्यादा बेपरवाह होंगे। लेकिन कुछ सुनते ही नहीं। 

“मैं कहती हूँ कि दुनिया में हाहाकार मचा हुआ है, तुम्हें यह सब दिखता नहीं, तो राम चरित मानस की एक चौपाई गाते हुए मुझे चिढ़ाएँगे कि ‘होइहे वही जो राम रचि राखा।’ जो होना होगा, वह होगा। क्यों सबको डराती रहती हो।‘ मैं कहती हूँ कि ठीक है, जो ईश्वर चाहेगा, वही होगा। लेकिन भगवान कृष्ण तो गीता में यह कहते है न कि अपना कर्म करते रहिए। 

“इस बीमारी से हर तरह से हारी दुनिया आख़िर ईश्वर की शरण में ही पहुँच रही है। लोग अपने-अपने धर्म की सीमा से ऊपर उठ कर, जिस भी धर्म में उनका विश्वास बन पा रहा है, उसी की शरण में जा रहे हैं। 

“मगर फ़्रेशिया ढाक के तीन पात, ये चिकने घड़े से भी ज़्यादा चिकने बन जाते हैं। वो मेरी ऐसी किसी बात पर ध्यान ही नहीं देते। निश्चित ही इसीलिए कहा गया होगा कि घर की मुर्गी दाल बराबर। 

“मेरी दादी एक और बात कहती थीं कि घर का मनई पसंघा बराबर। सच फ़्रेशिया हस्बेंड पर मेरी किसी बात का कहने भर को भी कोई असर नहीं होता। लेकिन तुम पूरा ध्यान रखो फ़्रेशिया। 

“इन वीडियोज को ध्यान से देखना। स्पेन, इटली में डॉक्टर, स्टॉफ़ सुबह-शाम हॉस्पिटल की गैलरी में इकट्ठा होकर मरीज़ों और अपनी रक्षा के लिए रोज़ दस-बारह मिनट तक वैदिक मंत्रों का जाप कर रहे हैं। 

“रूस, फ्रांस, जर्मनी हर जगह यह हो रहा है। दुनिया में सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका अपनी संसद में वैदिक मंत्रोचार से रक्षा की कामना कर रहा है। हमें भी बचाव के जो भी रास्ते हैं, उसे अपनाना ही चाहिए। 

“यह मंत्र एक वैज्ञानिक आधार लिए हुए हैं। इनके उच्चारण से उत्पन्न होने वाली ध्वनि तरंगें, बहुत बड़ी पॉज़िटिव एनर्जी जनरेट करती हैं। जिनसे आदमी स्वस्थ भी हो रहा है। देखो तुम्हें ये इसलिए भेज रही हूँ कि इन्हें पहले ध्यान से देखना। 

यदि इन्हें सही समझना तभी इनका उच्चारण करना। तुम्हें बोलने में कठिनाई हो सकती है। इसलिए एकाक्षरी मंत्र ‘ॐ’ से ही शुरूआत करना। 

“जानती हो मैंने ऑनलाइन चरक और सुश्रुत संहिता मँगवाई है। ये आयुर्वेदिक चिकित्सा के तीन-साढ़े तीन हज़ार वर्ष पुराने ग्रन्थ हैं। इनमें हर रोगों के उपचार के लिए औषधियों के बारे में बताया गया है। मैं इन ग्रथों में से कोविड-१९ के सटीक उपचार को ढूँढ़ निकालूँगी। 

“कहा जा रहा है कि कोविड-१९ गले और फेफड़ों को ख़राब कर रहा है, इसी से लोग मर रहे हैं। और तुम तो जानती ही हो कि यक्ष्मा यानी टीबी बीमारी भी फेफड़ों को ख़राब करती है। हर साल लाखों लोग टीबी से मरते हैं। 

“आयुर्वेद में टीबी का उपचार है, तो मैंने सोचा कि टीबी बैक्टीरिया से होता है। जो वायरस से बड़ा होता है। इसकी कोशिका भित्ति पेप्टिडोग्लाईकन की होती है। दूसरी तरफ़ वायरस में कोशिका भित्ति तो नहीं होती लेकिन वह प्रोटीन कोट से कवर रहता है। 

“दोनों की बनावट में भले ही अंतर हो, बीमारियाँ भी कई तरह से भिन्न पैदा करते हों, लेकिन एक समानता यह है कि बैक्टीरिया टीबी से और वायरस कोविड-१९ से फेफड़ों को बर्बाद करके ही आदमी की जान ले रहा है। 

“ऐसे में मेरे मन में यह आ रहा है कि आयुर्वेद में तो बैक्टीरिया, वायरस जनित बीमारियों के उपचार हैं ही। ढूँढ़ने पर कुछ न कुछ समाधान ज़रूर मिलेगा। दोनों ग्रन्थ आ जाएँ तो यदि तुम्हारा मन हो तो तुम भी पढ़ना।”

वृंदा की बातों को सुनकर मैंने सोचा कि इसके दिमाग़ की उड़ान कितनी ऊँची चली जाए, इसकी कोई लिमिट ही नहीं हैं। हॉस्पिटल में भी थोड़ा सा समय मिला नहीं, कि कुछ न कुछ पढ़ने लगती है। तभी सब इससे कहते हैं कि तुम लेखिका क्यों नहीं बन जाती। 

लेकिन मेरी हालत ऐसी थी कि लियो, ख़ुद की सुरक्षा के लिए जिधर भी आशा की किरणें दिखाई देतीं, मैं उधर ही मुड़ जाती। मुझे मंत्रों की शक्ति पर जो विश्वास था, वह वेस्टर्न कंट्रीस के डॉक्टर्स के वीडियोस देख कर और मज़बूत हो गया। 

मैंने सोचा जब अति आधुनिकता में डूबे इन देशों के वैज्ञानिकों, डॉक्टर्स को मंत्रों पर इतना विश्वास है तो कुछ तो बात ज़रूर होगी। यू-ट्यूब पर एकाक्षरी मंत्र ‘ॐ’ और ‘गायत्री’ मंत्र के वीडियो देखे। सबसे पहले मैंने गायत्री मंत्र को सुना। कई बार उसे ध्यान से सुनने के बाद उसका उच्चारण करने का भी प्रयास शुरू किया। 
वृंदा की यह बात मुझे बहुत गहराई तक प्रभावित कर रही थी कि अमरीकी वैज्ञानिक होवर्ड स्टिएनगेरिल ने लैब में जाँच करके बताया था कि गायत्री मंत्र के उच्चारण से एक सेकेण्ड में एक लाख दस हज़ार ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं। 

कई बार प्रयास करके भी जब मैं गायत्री मंत्र का उच्चारण ठीक से नहीं कर सकी तो मैंने एकाक्षरी मंत्र ‘ॐ’ का वीडियो फिर से देख कर उसका इक्कीस बार उच्चारण किया। उसके बाद गायत्री मंत्र के एक वीडियो को दस मिनट तक चलने दिया। 

जिसमें काशी में, गंगा की मणिकर्णिका घाट पर, नदी के जल के क़रीब पहुँची एक सीढ़ी पर, केसरिया वस्त्र पहने, सूर्योदय से केसरिया हो रहे क्षितिज, आसमान के नीचे पद्मासन में बैठी एक रूसी नव-युवती गायत्री मंत्र का सस्वर जाप कर रही थी। 

वीडियो पूरा होने के बाद मैंने मोबाइल को बेड साइड टेबल पर रख कर, अपना गाउन भी निकाल कर उसी पर रख दिया। 

दिन-भर पीपीई किट, एडल्ट डायपर पहने रहने से लगातार पसीना, गीलेपन के कारण कई जगह मेरी स्किन सिकुड़न भरी सफ़ेद और नर्म सी हो रही थी। मैं, वृंदा, तृषा रात-भर बदन को खुला रख कर उसे नॉर्मल कर लेने का प्रयास करती थी। 

मैंने ही उन दोनों से कहा था कि ऐसा नहीं किया तो जैसे बर्फ़ से ढँकी चोटियों पर ठंड से सैनिकों के पैरों की स्किन इतनी ख़राब हो जाती है, कि कई बार उनके पैर काटने भी पड़ जाते हैं। लगातार नमीं से हमारी स्किन भी गल कर ख़राब हो सकती है। 

जब-जब मैं पीपीई किट पहनती, मुझे चीन के उस डॉक्टर की याद आती, जिसकी स्किन लगातार किट पहने के कारण सफ़ेद होकर बदन से छूट रही थी, नाख़ून काले पड़ गए थे। ऐसी तमाम बातें मुझे चैन की एक साँस नहीं लेने दे रहे थे। 

चैन की साँस मिल सके, इसके लिए मंत्रों की प्रैक्टिस कर लेने के बाद मैं सुबह काम-धाम से समय निकालकर पंद्रह मिनट तक उनका जाप करती थी। इससे मैं बहुत रिलैक्स महसूस करती थी। एक और बात से भी इधर बीच काफ़ी राहत महसूस कर रही थी कि अब मैं लियो को अकेले छोड़कर जाने की अभ्यस्त हो गई थी। और लियो अकेले रहने का। 

हालाँकि सीसीटीवी फुटेज में इन्हीं दिनों में मेरी अनुपस्थिति में उसे दो बार पड़े दौरे को देख कर मुझे बहुत ज़्यादा तकलीफ़ हुई थी। अमूमन दौरे उसे रात में सोते समय ही पड़ते थे। लेकिन परिस्थितियों के आगे विवश थी। इस बीच हर तरफ़ लॉक-डाउन की होती चर्चा और सता रही थी। 

लॉक-डाउन क्या है? इसे मैं चीन के कोरोना सम्बन्धी समाचारों में बराबर देख रही थी। लॉक-डाउन में घरों में क़ैद जीवन की भयावहता भी समझ रही थी। मैं यह सोच कर ही सिहर उठती कि लियो के दौरे बंद नहीं हो रहे हैं, इस हाल में इसका ट्रीटमेंट कैसे जारी रखूँगी। इसकी तबियत ज़्यादा बिगड़ी तो कैसे क्या करूँगी? बाहर से खाने-पीने का सामान कैसे आएगा। 

इस उलझन ने मेरी कुछ घंटों की संक्षिप्त नींद भी छीन ली थी। सुख-चैन का तो ख़ैर मेरे जीवन में प्रवेश ही नहीं था, इसलिए उसके छिनने न छिनने का कोई प्रश्न ही नहीं था। 

लॉक-डाउन की आहट मिलते ही, वृंदा की हर सामान स्टॉक कर लेने की बात मुझे, वृंदा के पति की ही तरह समझ में नहीं आ रही थी। लेकिन वृंदा यह कह कर मुझे समझाती रही कि “फ़्रेशिया तुम समझने की कोशिश करो। चीन की तरह यहाँ भी जैसे ही ज़्यादा लोग संक्रमित होने लगेंगे, वैसे ही गवर्नमेंट यहाँ भी लॉक-डाउन करेगी। 

“जिस तेज़ी से लोग संक्रमित हो रहे हैं, उससे लॉक-डाउन मुझे एकदम सामने ही दिखने लगा है। सोचो जब बाहर ही नहीं निकल पाओगी, दुकानें वग़ैरह सब बंद रहेंगी, तो खाना-पीना कैसे चलेगा। 

“इसलिए मेरे हस्बेंड की तरह लापरवाही नहीं करो। किचन के सामान के साथ-साथ लियो की ज़रूरी दवाएँ, कम्प्लीट फ़र्स्ट एड बॉक्स भी ज़रूर रख लो। सोचो लियो को दवा न मिल पाई तो? 

“मेरे यहाँ ज़रूरत पड़ने पर हस्बेंड कहीं न कहीं से कुछ मैनेज कर लेंगे, लेकिन तुम उस कठिन स्थिति में लियो को सम्हालोगी, ख़ुद को देखोगी या बाहर निकल कर श्मशान सी सूनी पड़ी सड़कों, हर दुकानों, ऑफ़िसों पर लटके तालों, हर घर की बंद पड़ी खिड़कियों, दरवाज़ों को गिनोगी।”

चीन की स्थिति को ध्यान में रख कर जब मैंने उसकी बातों पर ध्यान दिया तो लगा कि वृंदा का पति नहीं, वृंदा सही है। इसके बाद मैंने कई महीने के लिए सारा सामान, दवाएँ स्टोर कर लीं। लियो की दवाओं, उसकी ज़रूरत की हर चीज़ों पर मेरा विशेष ध्यान था। 

मगर कोरोना से ज़्यादा मेरा तनाव लियो के कारण बढ़ता जा रहा था। क्योंकि लियो के दौरों के बीच का समयांतराल कम होता जा रहा था। वह अब जल्दी-जल्दी पड़ने लगे थे। 

चिंता, भय के बीच में बीतते इन्हीं दिनों जब एक दिन हॉस्पिटल पहुँची तो पता चला कि वहाँ अन्य बीमारियों से पीड़ित जो पेशेंट एडमिट थे, उनमें से न जाने कैसे चार कोविड-१९ से संक्रमित हो गए हैं। उनकी हालत गंभीर थी, उन्हें विशेष रूप से कोविड-१९ मरीज़ों के लिए रिज़र्व हॉस्पिटल में शिफ़्ट कर दिया गया था। 

लेकिन गवर्मेंट की सख़्त गाइड-लाइन के हिसाब से इतना ही काफ़ी नहीं था, इसलिए मेरे सहित पूरे स्टॉफ़ की कोविड-१९ जाँच की गई। रिपोर्ट आने तक मैं लियो के समीप भी नहीं जाना चाहती थी, लेकिन मेरे पास कोई रास्ता नहीं था कि मैं उससे दूर रह पाती। 

मेरी घबराहट, पसीना, आँखों में आँसू देख कर वृंदा ने समझाया, “ऐसे परेशान न हो फ़्रेशिया। सकारात्मक सोच के साथ सब-कुछ करती रहो, सब अच्छा ही अच्छा होगा। यह भी एक स्थिति है, जैसे आई है, वैसे ही गुज़र भी जाएगी।”

उसकी बातें मुझे हमेशा मज़बूत बनाती थीं, मेरी हताशा-निराशा को दूर कर मुझमें नई एनर्जी भरती थीं। जब हॉस्पिटल में बचे पेशेंट्स के लिए कुछ ज़रूरी स्टॉफ़ को छोड़ कर शेष को होम आइसोलेशन में भेजा गया, तो वह अपनी स्कूटर से, मेरी स्कूटर के पीछे-पीछे मुझे घर तक छोड़ कर गई। मैंने बहुत मना किया, लेकिन उसने मेरी एक नहीं सुनी, कहा, “तुम बहुत घबराई हुई हो, तुम्हें अकेले नहीं जाना है।”

सच यही था कि मैं बहुत घबराई हुई थी। मेरी हर साँस कोरोना के डर से थरथरा रही थी। इस डर को लिए-लिए मैं लियो के साथ अपने ही घर में क़ैद होकर रह गई। 

मैं हर साँस में यही प्रार्थना करती कि अगले बीस-पचीस दिन सुरक्षित निकल जाएँ, जिससे यह और सुनिश्चित हो जाए कि मैं संक्रमित नहीं हुई हूँ। लियो भी सुरक्षित है। 

हालाँकि होम-आइसोलेसन के चार दिन बाद जब स्टाफ़ की जाँच रिपोर्ट आई तो दो डॉक्टर, पाँच नर्सें संक्रमित पाई गई थीं, मेरे सहित बाक़ी सभी की रिपोर्ट निगेटिव थी। 

मैं दिन भर में कई-कई बार मंत्र जपती, यूट्यूब पर ऑन करके उसे सुनती रहती। गॉड से प्रेयर करती। और योग, प्राणायाम, ध्यान भी। योग के कुछ आसन लियो को भी बार-बार प्रैक्टिस करवा कर सिखाए। उसे सिखाते हुए ही कई बार मेरे दिमाग़ में आया कि इस बीमारी का डर लोगों से न जाने क्या-क्या करवाएगा। 

मैं स्वयं से ज़्यादा लियो को लेकर चिंतित रहती, लेकिन लियो को ऐसी किसी बात का अहसास नहीं था। वह सब-कुछ अपनी ही तरह से चाहता था। पहले जहाँ कहीं बाहर जाने के लिए जल्दी तैयार नहीं होता था, ज़िद नहीं करता था, वहीं आइसोलेशन के दूसरे दिन से ही बाहर जाने की ज़िद करने लगा। बड़ी मुश्किल से उसे समझा-बुझाकर शांत कर पाती थी। 

किसी तरह बीस दिन मैंने डरते, काँपते, काटे। इतने दिन सुरक्षित बीत जाने के बाद मैंने राहत महसूस की, कि चलो आवश्यक चौदह दिन से ज़्यादा निकल गए। संदेह की सीमा धीरे-धीरे मिट रही है। बीस-पचीस दिन होते-होते, हो सकता है हॉस्पिटल पूरे स्टॉफ़ को बुला ले। ऐसा ही होता तो अच्छा था। क्योंकि अगर लम्बे समय तक यह स्थिति रही तो सैलरी भी फँस जाएगी। 

लेकिन हॉस्पिटल पूरे स्टॉफ़ को बुलाता, उससे पहले ही देश-भर में संक्रमण के बेतहाशा बढ़ते जाने के कारण गवर्नमेंट ने लॉक-डाउन घोषित कर दिया। इसके साथ ही सैलरी को लेकर मेरी चिंता घबराहट भी बढ़ गई। 

मैंने सोचा कि जब केस बढ़ने पर लॉक-डाउन हुआ है, तो यह जल्दी तो हटने वाला नहीं। अभी तो इसका पीक आएगा, फिर स्थिर होगा, उसके बाद यह कम होना शुरू होगा, तब कहीं अन-लॉक होने की बात शुरू होगी। और सुरक्षित संख्या तक घट जाने पर ही अन-लॉक होगा . . . ओह गॉड अब क्या होगा? 

दुनिया के अन्य देशों में यह वायरस जो रंग दिखा रहा है, उसको देखते हुए तो यह निश्चित है कि यह और ज़्यादा बढ़ेगा। कम्युनिटी ट्रांसमिशन का डर अलग है। जिस भी देश में यह शुरू हुआ, वहाँ पीक पर यह चार-पाँच महीने में ही पहुँचा है। तो क्या एक साल तक घर में ही बंद रहना पड़ेगा? 

यदि ऐसा हुआ तो कोविड-१९ से पहले तो यह लॉक-डाउन ही मेरी जान ले लेगा। मेरे लियो की भी। हमें ही क्यों, और न जाने कितनों को यह लॉक-डाउन ही मार डालेगा। ओह गॉड कुछ ऐसा करो कि गवर्नमेंट के दिमाग़ में यह बात आ जाए और कोविड-१९ को कंट्रोल करने के लिए लॉक-डाउन की बजाय कोई और रास्ता निकाले। 

यह ज़रूरी तो नहीं कि दुनिया इसे जिस रास्ते चल कर कंट्रोल करे, उसी रास्ते पर हम भी चलें। रास्ते तो निश्चित ही और भी बहुत से होंगे, खोजें तो पहले। यही सब सोचते-सोचते मेरे दिमाग़ की नसें फटने सी लगीं। 
अपने माथे को पीटती हुई मैं चेहरा ऊपर कर बड़ी तेज़ आवाज़ में क़रीब-क़रीब चीखी, ओह गॉड, क्या होगा मेरी नौकरी का? कहाँ से पैसा लाऊँगी लियो के ट्रीटमेंट के लिए। इस बंदी के चलते इसका ट्रीटमेंट तो बंद ही हो जाएगा। हे प्रभु मैं कैसे बचाऊँ अपने लियो को . . . 

मेरी उस स्थिति को देखने वाला मुझे पागल ही कहता। मेरे दिमाग़ में लॉक-डाउन को लेकर ग़ुस्से का ज्वालामुखी फूटता था। मैं बार-बार वृंदा को फ़ोन करती। उससे कहती कि इस बंदी को लॉक-डाउन कहना पूरे देश को धोखा देना है। यह तो लोगों को सरकारी शक्ति, सख़्ती से हॉउस-अरेस्ट करना हुआ। 

लॉक-डाउन में लोग क्या करें, क्या न करें, आप ऐसी एक गाइड-लाइन जारी कर दीजिए और लोगों के विवेक पर छोड़ दीजिए कि वो उसका पालन करें या न करें, या कितना करें। 

मैं कहती हूँ कि सभी अपने आप बचने की पूरी कोशिश करेंगे। हाँ जो आत्म-हत्या करने पर ही तुला होगा वो ज़रूर लापरवाही करेगा . . . मैं धारा-प्रवाह न जाने क्या-क्या बोले चली जा रही थी, तो वृंदा ने मुझे समझाते हुए कहा, “फ़्रेशिया, फ़्रेशिया, ये क्या हो गया है तुम्हें, सम्भालो अपने आपको, ऐसे परेशान थोड़ी न हुआ जाता है। 

“दुनिया में समय-समय पर महामारियाँ आती रहीं हैं। लोगों ने उनका बहादुरी से सामना किया और हर बार जीते भी। इस बार भी ऐसा ही होगा। गवर्नमेंट जो कुछ कर रही है, हम-सब के भले के लिए कर रही है। एक्सपर्ट्स की बड़ी-बड़ी टीमों से बात करके ही यह सब किया जाता है। 

“इसलिए लॉक-डाउन को हॉउस अरेस्ट कहना स्वयं को और ज़्यादा तनाव में डालने के सिवाय और कुछ नहीं है। तुम्हें ऐसा कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। तुम लियो अपना ध्यान रखो, सब ठीक हो जाएगा। किसी चीज़ की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मैं हर हाल में तुम्हारे साथ हूँ।”

वृंदा ने मुझे बहुत समझाया। सब-कुछ समझी भी। समझी क्या, जानती ही थी सब-कुछ। लेकिन लियो और लॉक-डाउन से मिली क़ैद, नौकरी को लेकर असुरक्षा की भावना ने मुझे इतना भ्रमित और चिड़चिड़ा बना दिया था कि मैं सही ग़लत का अंतर ही नहीं कर पा रही थी। 

जैसे ही खाने-पीने की मनचाही चीज़ों को लेकर समस्या होती, लियो को उसके मन का कुछ न दे पाती, वैसे ही मेरी खीझ, मेरा ग़ुस्सा सारी सीमाएँ तोड़ देता। 

मैं गवर्नमेंट को अपशब्द कहती हुई बड़बड़ाती, ‘कब-तक पाउडर दूध से काम चलाऊँ। सब्ज़ी के नाम पर वही आलू, प्याज़, छोला, राजमा, खाऊँ। वृंदा की बात न मानती तो यह सब-कुछ भी नहीं होता। ओह गॉड, ओह गॉड किस हाल में छोड़ दिया है हमें। यह क्या कर दिया है, किसी एक की ग़लती की सज़ा सबको क्यों?

‘इससे ज़्यादा डरावनी बात और क्या होगी कि संक्रमण का ख़तरा न्यूज़ पेपर तक से बना हुआ है। पढ़ने को तो सारे पेपर मोबाइल पर ही पढ़ या देख लूँ, लेकिन पेपर का मज़ा तो प्रिंट में ही है।’

एक महीना बीतते-बीतते मैं बहुत ही ज़्यादा ऊबने लगी। लियो के साथ कितना लगी रहती। फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम भी चला-चला कर थक जाती। लेकिन उस समय तो मेरी आत्मा ही काँप उठती जब लियो को दौरा पड़ता और मैं कुछ न कर पाती, उसके पास विवश बैठी रोती रहती। 

एक-एक करके पहाड़ से क़रीब पचास दिन बीत गए। नौकरी, लियो की बिगड़ती हालत, न्यूज़ में दुनिया भर में कोविड से भयावह होती स्थिति को देखकर मुझे लगता कि कहीं मैं ख़ुद ही अवसाद की शिकार न हो जाऊँ। 

अपनी जिस भी साथी को फ़ोन करती सब का हाल एक ही था, बस वृंदा को छोड़ कर। रोज़ ही उससे कई-कई बार बात होती, मगर वह हर बार मुझे हिम्मत बँधाती, प्रोत्साहित करती, यह कहना बिलकुल न भूलती कि “किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो निःसंकोच तुरंत बताओ। मेरे हस्बेंड सब मैनेज कर देंगे।”

हस्बेंड से भी बात कराती, वह भी उसी की तरह हर मदद को एक पैर से खड़े मिलते। एक साथी नर्स की तो उन्होंने अपनी, परिवार की ज़िन्दगी ख़तरे में डाल कर मदद की। 

उस साथी का परिवार बड़ा था, खाने-पीने की चीज़ें ख़त्म हो गईं, तो वह पता नहीं कैसे पुलिस की अनुमति लेकर महीने भर का सामान पहुँचा आए। 

मगर इस साथी के सामने बड़ी समस्या तो तब आई, जब दो दिन बाद ही उसकी माँ का देहांत हो गया। तब उन्होंने इस साथी की कैश की समस्या हल की और वह लॉक-डाउन की परवाह किए बिना पति बच्चों के साथ अपनी गाड़ी से मायके के लिए चल दी। लेकिन मेन-रोड पर पहुँचते ही पुलिस ने उसे रोक लिया। लॉक-डाउन तोड़ने के अपराध में चालान कर दिया। 

उसने, उसके हस्बेंड ने बहुत रिक्वेस्ट की, पैसा भी देने की कोशिश की, वह बहुत रोई-धोई लेकिन पुलिस टस से मस नहीं हुई। बल्कि हमेशा के विपरीत उन्हें बड़े अपनत्व के साथ समझाया कि ‘देखिये जो नहीं रहे, उन्हें तो कोई नहीं ला सकता। लेकिन जो सुरक्षित हैं, उन्हें किसी भी हालत में मौत के मुँह में नहीं जाने दे सकते। 
इस दुःख की घड़ी में हमारी पूरी सहानुभूति आपके साथ है, लेकिन आप-लोग बात को गंभीरता से समझिये, वहाँ जाकर आप लोग अपना, अपने बच्चों के साथ-साथ और बहुत से लोगों का भी जीवन ख़तरे में डालेंगे . . . ’

अंततः उसे बीच रास्ते से घर वापस आना पड़ा। माँ की अंतिम यात्रा को वीडियो कॉल पर ही देख कर संतोष करना पड़ा। ऐसी हालत में वह, उसकी बराबर हर तरह से मदद करते रहे। 

उनकी बातों, कामों को देख कर मैंने अपने चिड़चिड़ेपन पर बहुत हद तक नियंत्रण पा लिया। मगर इन्हीं दिनों में मुझे एक और समस्या परेशान करने लगी। आतंकित भी। मेरे दाहिने स्तन के एक हिस्से में रह-रहकर तेज़ दर्द, हर दूसरे तीसरे दिन महसूस हो रहा था। 

यह दर्द होता तो कुछ ही देर को था, लेकिन मैं बुरी आशंका से सिहर उठती। मैंने शीशे के सामने स्वयं ही जांचने, समझने की कोशिश की, कि स्तन के किसी हिस्से में कोई गाँठ वग़ैरह तो नहीं बन रही। 

कभी मुझे निचले हिस्से में दो जगह लगता कि जैसे वह जगह कुछ सख़्त हो रही है। कभी लगता नहीं, ऐसा नहीं है। अपने इस भ्रम के चलते मैं खीझ उठती। मन ही मन कहती, कितना आसान होता है डॉक्टर्स का महिलाओं को यह सलाह देना कि अपने ब्रेस्ट को घर पर ही समय-समय पर चेक करती रहिए। कोई गाँठ महसूस हो तो तुरंत डॉक्टर से मिलिए। जब एक नर्स होकर मेरी समझ में नहीं आ रहा, तो बाक़ी कहा से समझ लेंगी। 

इस उलझन, डर से जब मैं बहुत परेशान होने लगी तो सोचा कि वृंदा से बात करूँ, देखूँ वह क्या कहती है। वृंदा को फ़ोन किया, लेकिन एक अजीब से संकोच के चलते इधर-उधर की बातें करने लगी। मुद्दे की बात ज़ुबान पर आ-आ कर ठहर जाती। वृंदा ने एक बार पूछा भी कि “क्या बात है फ़्रेशिया? कुछ परेशान लग रही हो? लियो तो ठीक है न?” 

यह सुनते ही मेरे चेहरे, आवाज़, दोनों पर उदासी ज़्यादा गहरी हो गई। मैंने कहा, “क्या बताऊँ, लियो की स्थिति बड़ी तेज़ी से बिगड़ती जा रही है। दवाओं से कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है। डॉक्टर से फ़ोन पर बात की, तो उन्होंने कहा फिर से चेकअप करने के बाद ही कुछ कह पाऊँगा। 

“अब तुम्हीं बताओ, घर से निकल नहीं सकते, तो चेकअप कैसे कराऊँ। दूसरे उनके परिवार में सभी संक्रमित हो गए हैं। उनकी मदर डायलिसिस पर हैं। हॉस्पिटल जा नहीं सके तो किसी को घर पर ही बुला कर करवा रहे थे। उन्हीं में से किसी को था। तो पहले मदर, फिर पूरे परिवार को हो गया। पूरा घर क्वारेंटाइन है। मदर सीरियस हैं। उनकी पूरी कॉलोनी रेड ज़ोन में है। 

“अंदर बाहर हर जगह स्थितियाँ ऐसी बनी हुई हैं, कि लगता है अगले कई महीनों तक मैं लियो का न चेकअप करवा पाऊँगी, न ही उसका ट्रीटमेंट हो पाएगा। क्या करूँ कुछ समझ नहीं पा रही हूँ।”

मैंने ऐसी ही और तमाम बातें कीं, लेकिन अपनी जिस समस्या पर डिस्कस करने के लिए फ़ोन किया था उस बारे में एक शब्द न बोल पाई। तभी वृंदा ने पूछा, “तुम्हारी कॉलोनी रेड, ऑरेंज, ग्रीन, किस ज़ोन में है?” 

मैंने कहा, “न्यूज़ देख-देख कर जी घबराने लगता है, इसलिए मैंने ऐसी न्यूज़ कई दिन से देखनी बंद कर दी है। पता नहीं किस ज़ोन में है।” 

वृंदा फिर समझाने लगी, “देखो फ़्रेशिया, ऐसे घबराने से काम नहीं चलेगा। जो भी प्रॉब्लम है उसे फ़ेस करने, सॉल्यूशन निकालने से काम चलेगा। इसलिए जानकारियाँ रखो, जिससे उसी हिसाब काम कर सको, सावधानियाँ बरत सको। मैं तुम्हें कॉल करने ही जा रही थी, अभी न्यूज़ में देखा, तुम्हारी कॉलोनी रेड ज़ोन में आ गई है। 

आज वहाँ दो और लोग पॉज़िटिव पाए गए हैं। उन्हें मेडिकल स्टॉफ़ ने हॉस्पिटल में एडमिट करा दिया है। पूरी कॉलोनी सैनिटाइज़ की जाएगी। तुम भी अपना ध्यान रखना। परेशान होने की ज़रूरत बिलकुल नहीं है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। बातें करती रहना, ठीक है।”

“ठीक है वृंदा, तुम्हारी बातों से बड़ा सपोर्ट मिलता है।”

मोबाइल रखते ही मैंने दो गिलास पानी पिया। रेड ज़ोन की बात सुनते ही मेरा जी घबराने लगा था। काफ़ी पसीना हो रहा था। मैंने टीवी पर न्यूज़ चैनल लगाने की बजाय म्यूज़िक चैनल ऑन कर दिया। 

आवाज़ इतनी तेज़ कर दी कि पूरे घर में सुनाई दे। इसके बाद मैंने पूरे घर को सैनिटाइज़ किया। अपने और लियो के हाथ भी साबुन से ख़ूब देर-तक धोए। मैंने अपने भरसक लियो को ख़ूब समझाया था, ट्रेंड किया था कि वह हर घंटे के बाद स्वयं ही साबुन से हाथ धो लिया करे। 

यह सब करते हुए मुझे यह नहीं मालूम था कि रेड ज़ोन घोषित होने के बाद की पहली रात हम-दोनों के लिए बहुत हाहाकारी रात होने जा रही है। 

भविष्य की चिंता में भीतर ही भीतर डूबती-उतराती मैं टीवी पर एक हॉलीवुड मूवी देख रही थी। वह भी फ़्यूचर को लेकर एक क्लासिक फ़िल्म थी। परमाणु युद्ध से तबाह हुई दुनिया के, फिर से उठ खड़े होने की कोशिश की कहानी थी। 

रात के बारह बज रहे थे, लियो सो रहा था कि अचानक ही दौरा पड़ गया। जो पहले के सभी दौरों से न सिर्फ़ बहुत तेज़ था, बल्कि ज़्यादा समय तक भी रहा। 

मैं उस पर किसी तरह से नियंत्रण नहीं कर पाई। विवश आँसू बहाती रही, उसे पकड़े रही कि वह बेड से नीचे न गिर जाए। बहुत ही मुश्किल से उसको सँभाल सकी। दौरा ख़त्म होने के बाद लियो बिल्कुल पस्त हो गया था। 

मैंने उसे एक गिलास पानी में काफ़ी सारा एनरजाल पाउडर घोलकर पिलाया। उसके बाद वह सोने लगा। अपने लिए एक कप ब्लैक कॉफ़ी बनाई। टीवी देखती हुई धीरे-धीरे पी रही थी। मुझे अब भी इस बात का बिलकुल अनुमान नहीं था कि यह रात मेरे लिए कैसी होने जा रही है। 

एक घंटा भी नहीं हुआ था कि लियो पर फिर से दौरा पड़ गया। इस बार मैंने घबराने की बजाय उसकी स्थिति का बहुत ही बारीक़ी से निरीक्षण किया। मुझे जिस चीज़ का बार-बार संदेह होता था, वह बात कंफ़र्म हो गई। कि लियो का शरीर जब यौनिक क्रिया की अनुभूति के लिए अपने चरम तनाव में आता है, दौरा ठीक उसी समय पड़ता है। 

मेरे दिमाग़ में डॉक्टर की यह बात बार-बार गूँजने लगी कि दवाइयाँ इस पर तब-तक असर नहीं करेंगी, जब-तक कि फ़हमीना इसके दिमाग़ से बाहर नहीं निकलेगी। मैंने मन ही मन कहा सॉरी डॉक्टर, आप पूरी तरह ग़लत हैं। 

आपका ऑब्जर्वेशन, फाइंडिंग्स पूरी तरह ग़लत हैं। लियो के दिमाग़ में तो फ़हमीना है ही नहीं। इसलिए उसे निकालने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसकी प्रॉब्लम का सॉल्यूशन तो इसे वह एक्सपीरियंस देने से होगा, जो इसे फ़हमीना ने दिया। 

वह सेक्सुअल प्ले ही इसके दिमाग़ में जब घूमता है, शरीर में तनाव उत्पन्न होता है, और उस समय जब वह प्ले इसे नहीं मिल पाता, तब इसका दिमाग़ ज़बरदस्त टेंशन महसूस करता है। इससे इसके दिमाग़ में अत्यधिक प्रेशर के कारण कुछ ख़ास एनर्जी करंट जेनरेट हो जाती होगी। 

करंट जब-तक रहती है, तब-तक वह इसके शरीर को डिस्टर्ब किए रहती है। मैं कहती हूँ कि इसका एक-मात्र ट्रीटमेंट यही है कि यह जिस सेक्सुअल प्ले को फ़ील करना चाहता है, वह इसे फ़ील कराया जाए। फिर धीरे-धीरे इसे उस स्थिति से बाहर निकाला जाए। 

अभी तो यह दोहरे दबाव में रहता है। पहला यह कि इसे वो एक्सपीरियंस नहीं मिल पा रहा है, इसकी दूसरी विवशता यह है कि अपनी इस स्थिति को किसी से शेयर भी नहीं कर पा रहा है। इस भयानक अंतर्द्वंद्व में यह अंदर ही अंदर घुट रहा है। 

इन सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि मेरे अलावा इसका है कौन? मेरे अलावा दूसरा कोई समझेगा भी कहाँ? यह टेंशन इसका सबसे बड़ा टेंशन है। इतना बड़ा, इतना गंभीर, जटिल कि बड़े से बड़ा सामान्य मज़बूत व्यक्ति भी झेल नहीं पाएगा। 

इससे भी ज़्यादा जटिल है इसकी मनःस्थिति का सटीक अनुमान लगाना। लेकिन लियो मेरा है। मुझे तो हर बात का सटीक अनुमान लगाने के साथ-साथ उसका समाधान भी देना ही होगा। यह मेरी ज़िम्मेदारी है, मेरा कर्तव्य है। 

मुझे तो यह कहने का भी क्या, सोचने का भी अधिकार नहीं है, कि मैं क्या कर सकती हूँ। मुझे करना ही होगा। सब-कुछ करना ही होगा। हर तरह से कोशिश करके, कोई ना कोई रास्ता निकालना ही होगा। 

मेरी प्यारी वृंदा कितना सही कहती है कि ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसका कोई समाधान ना हो। जब समाधान है, तो निकाल कर ही रहूँगी। लियो मैं तुम्हारे लिए वह सब करूँगी, जिससे तुम्हें आराम मिल सके, तुम ख़ुश रहो। 

मैं उसके माथे पर हाथ फेरती हुई पूरी आवाज़ में ऐसे बोली, जैसे कि वह सुन सकता है। मैं बोलती ही गई कि तुम कहीं से ग़लत नहीं हो प्यारे लियो, तुम मासूम हो। तुमने वही किया जो एक मासूम कर सकता है। 

लियो मैं तुम्हें बताऊँगी कि मैं सब जानती हूँ। तुम्हें शर्मिंदा होने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि मुझे इस बात की ख़ुशी है कि तुम अपनी पत्नी को बहुत ख़ुश रख सकोगे। तुम थोड़ा और बड़े हो जाओ, तो मैं तुम्हारे लिए ख़ूबसूरत सी जीवन-साथी तलाश करके ले आऊँगी। ऐसी जीवन साथी, जो तुम्हें हर तरह से ख़ुश रखेगी। 

जल्दी-जल्दी तुम कई बच्चों के पिता बन जाना। वह सारे बच्चे बड़े होकर तुम्हारी आँखें, ज़ुबान, कान-नाक बनकर, हर तरह का सहारा बन जाएँगे। मेरे लियो, मेरी ज़िन्दगी का वह सबसे बड़ा, सबसे ज़्यादा ख़ुशी, संतुष्टि वाला क्षण होगा। 

फिर तुम सब मिल कर बुढ़ापे में मेरा सहारा बनना। अकेलेपन की पीड़ा से मुझे दूर रखना। हालाँकि मैं ऐसी कोई अपेक्षा, कोई इच्छा प्रकट नहीं करूँगी। ऐसा कुछ होगा तो अच्छा है, नहीं होगा तो भी अच्छा है। 

मैं लियो सी गंभीर अंतर्द्वंद्व से गुज़रती, कभी उसके सिर को सहलाती, कभी उसका माथा चूम लेती, कभी बेड से उतर कर उसके आस-पास चलती रहती। टीवी भी चल रहा था, लेकिन उस तरफ़ मेरा ध्यान ही नहीं था। 

क़रीब साढ़े तीन बजे के आसपास मुझे नींद आने लगी, तो एक नज़र लियो पर डाली और लेट गई। मेरी आँख लगी ही थी कि लियो . . . 

मैं झटके से उठ कर बैठ गई। लियो पर तीसरी बार दौरा पड़ा था। पहले ही की तरह काफ़ी तेज़ था। पूरा शरीर तनाव से अकड़ा जा रहा था। उसे सँभालते-सँभालते मैं रोने लगी। ‘लियो, मेरे प्यारे लियो, ऐसा मत करो। 

‘मैं तुझे कहाँ ले चलूँ, किस हॉस्पिटल में ले चलूँ, कौन से डॉक्टर के पास ले चलूँ? कोविड-१९ ने सारे हॉस्पिटल, डॉक्टर्स केवल अपने शिकार लोगों के लिए रिज़र्व करवा दिए हैं। तुम्हारे लिए सारी दुनिया, हॉस्पिटल, डॉक्टर, नर्स सब-कुछ यही घर है। मैं हूँ। कहीं और कुछ नहीं है। मुझे और परेशान मत करो लियो . . . ’

लियो की हालत मुझे बहुत ज़्यादा गंभीर संकेत देती से लगी। मुझे स्पष्ट लग रहा था कि इसकी स्थिति बहुत गंभीर हो चुकी है। इतने तनाव से यह ब्रेन हेमरेज, पैरालिसिस का भी शिकार हो सकता है। इसकी जान भी जा सकती है। 

यह सोच कर मैं घबरा उठी, मैं सिसकती हुई बुदबुदाई, ‘नहीं लियो नहीं . . . तुम्हारे बिना मैं भी ज़िंदा नहीं रह पाऊँगी। मैं बड़ी देर तक सिसकती रही। मुझे लगा कि जैसे मेरे दिमाग़ में भीषण बवंडर चल रहा है। 

सारी दुनिया उस बवंडर में समाती जा रही है। मैं भयानक गति से गोल-गोल घूम रहे उस बवंडर से दूर खड़ी, उसमें समाते लोगों को देख रही हूँ। उसके भयानक शोर में मुझे लोगों की चीखें नहीं सुनाई दे रही थीं। 

अचानक मेरे हाथ से लियो भी छूट कर उस शंकुनुमा बवंडर में ग़ुम हो गया। जिसका नुकीला ऊपरी हिस्सा ऊपर बादलों को छू रहा था। मैं उसे पकड़ने के लिए चीखती हुई आगे बढ़ी ही थी कि बवंडर ने पलक झपकते ही मुझे भी खींच लिया। 

अचानक ही मैंने मन में कुछ तय कर लिया। मेरे आँसू एकदम सूख गए। चेहरा कठोर भावों से भर गया। मैं लियो को फिर से आधा गिलास एनरजॉल पिला चुकी थी। वह सामान्य हो चुका था। मैंने कुछ देर तक लियो के चेहरे को ध्यान से देखने के बाद अपना गाउन निकाल कर फेंक दिया। लियो का भी। 

उसे अपनी बाँहों में समेट लिया। बहुत देर तक अपने साथ लिए रही। उसे उस अनुभूति की पूरी डोज़ दी, जिसके अभाव में उसकी जीवन-रेखा धुँधली होती चली जा रही थी। फिर उससे अलग होकर बग़ल में ही किनारे लेट गई। 

लियो अपनी टिमटिमाती आँखें खोले चित लेटा हुआ था। उसके चेहरे पर आश्चर्य था। कुछ मिनट में जब मैं स्वयं को समेट सकी तो, जल्दी से उठकर उसके चेहरे को समझने की कोशिश करने लगी। 

इसके साथ ही अब मेरे दिमाग़ में यह संघर्ष भी शुरू हो गया कि आख़िर मैं किस अदृश्य ताक़त से प्रेरित होकर यह हाहाकारी क़दम उठा बैठी। लियो पर इसका कैसा प्रभाव पड़ रहा होगा। कहीं इसको उस ख़ास अनुभूति की डोज़ देते-देते मैं स्वयं तो नहीं ले बैठी। 

मैंने स्पष्ट देखा कि लियो के चेहरे पर हतप्रभ होने की रेखाएँ साफ़ दिख रही हैं। वह एकदम सन्नाटे में दिख रहा था। 

उसकी यह हालत देखकर सोचा कि यह कहीं किसी और टेंशन में न पड़ जाए, इसलिए हमेशा की तरह उसके होंठों के दोनों कोनों को अंगूठे, उँगली से फैला दिया कि अब हँसो। इसका प्रभाव भी दिखा। कुछ ही सेकेण्ड में वह करवट लेकर मुझसे लिपट गया। 

हम-दोनों ने एक दूसरे को अपनी पूरी शक्ति से जकड़ लिया और बड़ी जल्दी ही गहरी नींद में सो गए। लेकिन मुझे सुबह जल्दी ही जाग जाना पड़ा। मोबाइल में अर्ली मॉर्निंग एलार्म बराबर बजे जा रहा था। मैंने हाथ बढ़ाकर मोबाइल एलार्म रिंग ऑफ़ की। 

तभी मेरा ध्यान अपनी और लियो की तरफ़ गया। कुछ घंटे पहले अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो, लियो को दिए गए ट्रीटमेंट के जैसे तरह-तरह के स्कल्पचर उसके आसपास ही पड़े थे। लियो बेसुध चैन की नींद सो रहा था। 

मैंने सोचा क्या इसे सही ट्रीटमेंट मिल गया है? अब यह ठीक हो जाएगा? इसे अब किसी डॉक्टर या मनोचिकित्सक के पास नहीं ले जाना पड़ेगा? क्या इसकी जीवन-रेखा अब पहले की तरह स्पष्ट ख़ूब चमकदार हो गई है? सवेरे-सवेरे मैं इन्हीं बातों को समझने में लग गई। 

मेरी आँखों में जो नींद थी, उसकी जो कड़वाहट थी, वह सब ख़त्म हो गई। पहले आस-पास के सारे स्कल्पचर को ख़त्म किया। लियो पर चादर डाली। फ़्रेश होकर ब्लैक कॉफ़ी बनाई, टेबलेट पर ई-पेपर देखती हुई पीने लगी। 

मैं उन न्यूज़ पेपर रीडर्स में से हूँ जो पेपर्स देखते हैं, पढ़ते नहीं। मैं पेपर देख ज़रूर रही थी, लेकिन दिमाग़ में ख़ुद से संघर्ष भी चल रहा था कि लियो को जो ट्रीटमेंट दिया वह सही था या ग़लत? 

कहीं लियो इस ट्रीटमेंट की बार-बार डिमांड न करने लगे, ऐसा हुआ तब-तो एक बहुत बड़ी, असहनीय समस्या खड़ी हो जाएगी। कहीं मैंने एक समस्या को ख़त्म करने के लिए उससे बड़ी समस्या तो नहीं पैदा कर दी है। ऐसी समस्या जो पैदा ही हुई है अपने समाधान के सारे रास्ते बंद करती हुई। 

इस ट्रीटमेंट को काम-क्रिया कहूँ या इस दृष्टि से देखूँ कि एक क्रूर माँ-बाप द्वारा मासूम, विवश, मरने के लिए फेंके गए बच्चे, पेशेंट की जान बचाने के लिए, अंतिम प्रयास के रूप में किया गया एक ट्रीटमेंट। इस ट्रीटमेंट को पाप कहूँ या पुण्य। या एक महान काम? 

यदि दुनिया इसे जानेगी तो मुझ पर फूल बरसाएगी या थूकेगी कि एक पेशेंट की जान बचाने के लिए तुमने वह घोर अनैतिक काम किया, जिसके बारे में सोचा ही नहीं जा सकता, करने की तो बात ही नहीं है। या मुझे भी फ़हमीना की कैटेगरी में रखकर रेपिस्ट ही कहा जाएगा। 

एक विवश बालक का रेप करने के अपराध में फाँसी दे दी जाएगी। या इस महामारी के कठिन, जानलेवा दौर में अपनी मान मर्यादा, आत्म-सम्मान का बलिदान कर, किसी का जीवन बचाने का, महान कार्य करने का श्रेय देते हुए सम्मानित किया जाएगा। फ़्लोरेंस नाइटिंगेल से भी बड़ी और महान कहा जाएगा। 

ऐसे अंतर्द्वंद्व से गुज़रती हुई मैं पेपर का आख़िरी पन्ना देखने के बाद एक फ़ैशन मैग्ज़ीन देखने लगी। तरह-तरह की ड्रेस, पोज़ में मॉडलों को देखकर मेरा पुराना सपना एक सक्सेसफुल मॉडल, सेलिब्रिटी बनने का आँखों में फिर तैर गया। 

मुझे वह पल भी याद आये, जब नर्सिंग की पढ़ाई के दौरान हर वर्ष होने वाले वार्षिक समारोह के फ़ैशन शो में मैं लगातार दो बार विनर रही। दूसरी बार के फ़ैशन शो में दुनिया की जो नामचीन हस्तियाँ जज बन कर आईं थीं, उनमें से एक ने पहले तो कई बार ग़लत ढंग से टच किया, जिसे मैंने अवॉइड कर दिया। 

आख़िरी क्षणों में उसने एक इंटरनेशनल लेवल की मैग्ज़ीन में काम दिलाने का लालच देकर अकेले में एक रात बिताने का दबाव भी बनाया। मुझे बड़ी निराशा, आश्चर्य तब हुई, जब मैंने मैनेजमेंट को यह सब बताया। लेकिन उसने उलटा मुझे ही डाँट कर चुप रहने के लिए कहा। 

इससे मैं इतनी दुखी हुई कि फिर कभी मॉडलिंग के बारे में सोचा ही नहीं। इसी के साथ मेरा यह ग्लैमरस सपना हमेशा के लिए टूट गया, बिखर गया, खो गया। कई साल लग गए थे इस सदमे उबरने में। मुझे लियो को दिया ट्रीटमेंट इस सदमें से भी बड़ा सदमा लगने लगा। सोचा इस सदमें से जीवन में कभी उबर भी पाऊँगी? 

इसी समय पेपर में देखा एक हेडिंग रह-रह कर मुझे डराने-सताने लगा कि चीन और पाकिस्तान बॉर्डर पर जिस तरह की हरकतें कर रहे हैं, उससे कहीं युद्ध न शुरू हो जाए। अमेरिका भी हिंद महासागर, ताइवान मामले पर चीन से भिड़े जा रहा है। 

विश्लेषक की यह बात दिमाग़ में हथौड़े सी पड़ रही थी कि ‘हालत बिगड़ी तो दुनिया महामारी और युद्ध दोनों में पिस कर रह जाएगी।’ परेशान होकर मैं बुदबुदाई, ‘ओह गॉड, हम सब का क्या होगा?’ सोचा कि वृंदा को फ़ोन करूँ कि यार इसी लिए मैं न्यूज़ की ओर ध्यान ही नहीं देना चाहती। 

सवेरे-सवेरे इन सब बातों से अजीब सी उलझन होने लगी, तो इससे बचने के लिए मैं पूरे घर की सफ़ाई में लग गई। उसके बाद नाश्ता वग़ैरह बना कर नौ बजे लियो को उठाया। मैं उसकी एक-एक गतिविधि पर बड़ी तीक्ष्ण दृष्टि डाल रही थी कि उसको दिए ट्रीटमेंट का कितना, कैसा प्रभाव पड़ा है। 

उसके नहाने-धोने, कपड़े पहनने से लेकर नाश्ता करने तक की गतिविधियों को देख कर मैं जो निष्कर्ष निकाल पाई, उससे मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि स्थितियाँ एकदम बदली हुई हैं। 

उसकी हर गतिविधि में बिल्कुल वैसी ही तेज़ी, खुलापन दिख रहा था, जैसा फ़हमीना के साथ दिन बिताने वाले समय में था। मैंने दोपहर के खाने तक उसकी हर गतिविधि पर पूरी दृष्टि बनाए रखी। यहाँ तक कि वह मुझे किस तरह छू रहा है, पकड़ रहा है, इस पर भी। 

मुझे क्रांतिकारी परिवर्तन स्पष्ट महसूस हो रहा था। लियो घर में फ़हमीना के आने से पहले जैसा बिल्कुल नहीं था। उसके स्पर्श में रात को मिले ट्रीटमेंट को पाने की लालसा का संकेत स्पष्ट मिल रहा था। यह संकेत मुझे गहरी चिंता में डुबोता जा रहा था। 

सारे काम-धाम करके, मैं तीन बजे आराम करने की गरज से, ‘गहरी चिंता’ में ही डूबी हुई लेट गई। बाक़ी बातों की उलझन बहुत हद तक कम हो गई थी। रात में नींद भी पूरी नहीं हुई थी, थकान भी बहुत थी, अब लियो के दौरों की तरफ़ से थोड़ी निश्चिन्त भी हो गई थी, इसलिए आँखें बंद करते ही सो गई। 

लेकिन कुछ ही देर में एक चिर-परिचित स्पर्श ने मुझे जगा दिया। मैंने लियो को अपनी ही बग़ल में सटा लेटा देखा। उस समय भी लियो का स्पर्श मुझे अपने लियो जैसा बिलकुल भी नहीं महसूस हुआ। जो फ़हमीना के आने से पहले हुआ करता था। 

उसके स्पर्श का आशय समझते ही मैं हैरान-परेशान, पसीना-पसीना हो गई कि यह इतना मैच्योर हो चुका है। मेरा मासूम प्यारा लियो तो बिल्कुल ग़ायब हो गया है। मुझे जहाँ इस बात का संतोष था कि रात के बाद उसे दौरा नहीं पड़ा, तो उसकी इस चाहत ने मुझे बड़ी मुसीबत में डाल दिया। 

बहुत ही मुश्किल से उसे समझा-बुझाकर सुला पाई कि ‘रात में खेलेंगे, अभी थोड़ा आराम कर लो, उसके बाद तुम्हारे बिज़नेस का काम करेंगे। ‘ बिज़नेस का काम तो क्या करना था। वह सब पहले ही बंद हो चुका था। 

मेरी समस्या यह थी कि आख़िर उसे किस काम में, किस तरह व्यस्त रखूँ। ब्लॉक से बिल्डिंग बनाने, थरथराहट पैदा करने वाले खिलौनों आदि, इन सब से वह बहुत पहले ही ऊपर उठ चुका था। अब वह इन्हें हाथ भी नहीं लगाता था। 

अब उसे व्यस्त रखने का उपाय ढूँढ़ना, मुझे कोविड-१९ की वैक्सीन ढूँढ़ने जितना जटिल और अँधेरे में भूसे से भरे कमरे में सूई ढूँढ़ना उससे कहीं हज़ार गुना ज़्यादा आसान लग रहा था। 

लियो को मैं दिन की तरह रात में समझा-बुझाकर सुला नहीं पाई। वह अपनी ज़िद पूरी करके ही माना। उसकी ज़िद के आगे मेरे इस डर ने मुझे टिकने नहीं दिया कि मना करने पर कहीं इस पर दौरों का अटैक फिर न शुरू हो जाए। दुबारा शुरू होना पहले से कहीं ज़्यादा घातक हो सकता है। 

मैं बड़ी देर तक निश्चेष्ट सी बेड पर सीधी लेटी रही। पथराई आँखों से एकटक छत को देखती रही। मेरी आँखों की कोरों से आँसू निकल-निकल कर कान तक पहुँचने लगे थे। मैं सोच रही थी कि मैंने यह सब क्या कर डाला। 

कहीं अतिशय भावुकता, भावना में बहकर मैं जीवन की सबसे बड़ी ग़लती तो नहीं कर बैठी, कहीं मैं फ़हमीना की श्रेणी में ही तो नहीं शामिल हो गई हूँ। एक समस्या को ख़ुद ही पहाड़ जैसी तो नहीं बना बैठी हूँ। 

यह जो कुछ हो रहा है, यह सही है या कि ग़लत, यह सब आख़िर हो ही क्यों रहा है। एक समस्या सुलझी तो उससे बड़ी यह दूसरी समस्या खड़ी हो गई। क्या यह सब मेरी महा-मूर्खता का ही परिणाम है। 

इसी कारण सब-कुछ सही हो जाने की तरफ़ नहीं, बल्कि बिगड़ते जाने की ओर बढ़ता दिख रहा है। कहीं यह हम-दोनों के सामने किसी बहुत बड़ी समस्या के आने की शुरूआत तो नहीं है। जीवन में यह सब होने, करने की तो मैंने कल्पना तक नहीं की थी। 

मैंने तो जीवन-भर लोगों की सेवा करने का सपना तब देखा था, जब फ़ैशन शो प्रतियोगिता में उस जज ने एक रात होटल में साथ बिताने का दबाव डाला था। उसी समय से मर्दों से घृणा और गाढ़ी हो गई थी। 

शादी या किसी को लाइफ़ पार्टनर बनाने की सोच कर ही ग़ुस्सा आ जाता है। मर्दों की जिस नज़र और नज़रिए के कारण मैंने जीवन की राह ही बदल दी कि कभी उनके सामने सरेंडर नहीं करूँगी, कभी किसी मर्द के साथ शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाऊँगी। 

जीवन में यह जो प्रतिज्ञा करके बढ़ी थी, इसको पूरी करने के लिए सेक्स शब्द से घृणा की, कितनी अफ़ीम खा ली थी, क्या हुआ उन सब का? 

मुझसे यह क्या हो गया? हुआ ही नहीं, होता ही जा रहा है। एक समस्या का समाधान करने के लिए जिसे साधन बनाया, वह साधन ही जीवन की सबसे बड़ी समस्या बन गया है। इतनी बदतर है मेरी क़िस्मत कि एक किशोर मेरे साथ . . . 

मेरे आँसू कानों के बग़ल से होते हुए नीचे बेड-शीट को भी भिगोना शुरू कर चुके थे। लियो करवट लेकर फिर मेरे साथ लिपट गया था। प्यार जताने लगा था। उसकी मासूमियत की पराकाष्ठा यह थी कि छोटे बच्चे की तरह उसकी उँगुलियाँ मेरे निपल, नाभि से खेल रही थीं। 

लेकिन मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर वह सशंकित हुआ कि मैं ग़ुस्सा हो गई हूँ क्या? उसने दोनों हाथों से मेरे चेहरे को टटोलना शुरू किया। 

उसकी बड़ी-बड़ी हथेलियों में मेरा पूरा चेहरा आ गया। मैं अब भी निश्चेष्ट पड़ी रही। उसे मेरे कानों के पास जैसे ही गीलापन महसूस हुआ, वैसे ही जल्दी-जल्दी मेरा पूरा चेहरा टटोलना शुरू कर दिया। 

आँखों को विशेष रूप से टटोला। मैं रो रही हूँ, यह समझते ही वह अपनी ख़ास आवाज़ में जैसे पूछने लगा कि क्या हुआ? हाथों से जल्दी-जल्दी चेहरा हिला-हिला कर अपनी टच लिपि में ही बार-बार पूछने लगा। 

वह इतना व्याकुल हो गया कि काँपने लगा। उसकी व्याकुलता से मैं एकदम भाव-विह्वल हो उठी। जैसे कोई माँ अपने छोटे से बच्चे को चिपका लेती है, मैंने वैसे ही उसे अपने से फिर चिपका लिया। लियो की आँखों से उस समय मुझसे भी ज़्यादा आँसू निकल रहे थे। 

मैं इतनी भावुक हो उठी कि ख़ुद को रोक नहीं पाई और हिचकियाँ ले लेकर रोने लगी। हम दोनों ही काफ़ी देर तक रोते रहे। वह इसलिए रो रहा था, कि मैं क्यों रो रही थी। और मैं इसलिए रो रही थी, कि मैं यह सब क्या कर बैठी, लियो मेरे कारण रो रहा है। 

लियो के लिए यह पहला अनुभव था कि मैं रो रही थी। मैं भी रोती हूँ यह उसके लिए आश्चर्यजनक था। उसे इतना घबराया हुआ मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैं बहुत देर बाद स्वयं को सँभाल पाई। 

लियो को चुप कराने लगी, लेकिन वह चुप होने का नाम नहीं ले रहा था। किसी छोटे बच्चे की तरह लगातार रोता ही जा रहा था। बड़ी मुश्किल से कुछ सोचकर उसे लेकर बेड से नीचे उतरी। और बड़े प्यार से उसे किचन में ले गई। 

रेफ्रिज़रेटर से निकाल कर उसे एक चॉकलेट दी। पानी पिलाया। फिर उसका हाथ पकड़ कर पूरे घर में ऐसे टहलने लगी, जैसे कि किसी पार्क में टहल रही हूँ। लियो अभी भी मुझसे जानना चाह रहा था कि मैं क्यों रो रही थी। 

मैं उसे उसके प्रश्न के जवाब के सहारे यह समझाने की सोच रही थी कि हम-दोनों जो कर रहे हैं, वह अच्छा नहीं है। गॉड नाराज़ होंगे। 

लेकिन साथ ही यह बात भी दिमाग़ में आई कि यह इस बात को लेकर इतना अधिक संवेदनशील है कि कहीं बात को ठीक से समझ न पाया, या उलटा समझ-सोच लिया, तो यह बात फ़हमीना से सम्बन्ध की बात की तरह, किसी ग्रंथि के रूप में इसके दिमाग़ में बैठ सकती है। भविष्य में इसके लिए कोई नई समस्या न बन सकती। यह सोचते ही मैं फिर ठहर जाती। सोचती इसे कैसे क्या समझाऊं। 

वह एक सेकेण्ड को भी मानने को तैयार नहीं हो रहा था। अपने लिए उसके मन में इतने प्यार को देखकर मैं अभिभूत थी। मैंने सोचा अब इसे कुछ भी समझाने से पहले, उस बात की हर एंगल से, सारे प्रभावों को पहले ख़ुद समझना बहुत ज़रूरी है। 

इस बेचारे को क्या मालूम कि जिसे यह केवल एक खेल समझ रहा है, वह सिर्फ़ एक खेल नहीं, दो आत्माओं के बीच का भावनात्मक तंतुओं से जुड़ा अति संवेदनशील रिश्ता होता है। 

इस रिश्ते की भी, दुनिया की बाक़ी बातों की तरह एक मर्यादा है। उस मर्यादा के पालन से ही जीवन में ख़ुशियाँ मिलती हैं। उनको तोड़ने से अंततः परेशानियाँ ही मिलती हैं। जैसे इस समय हम-दोनों परेशान हैं। 

मगर हम-दोनों की परेशानी अलग-अलग है। मैं परेशान हूँ कि मर्यादा छिन्न-भिन्न हो रही है। तुम परेशान हो कि मैं रोई क्यों? तुम अपना पसंदीदा खेल जब चाहे, तब मेरे साथ क्यों नहीं खेल पा रहे हो, जीवन में मर्यादा जैसा भी कुछ है, तुम यह जानते ही नहीं। 

मैं मर्यादा पर ही टिकी टहल रही थी कि लियो अचानक ही रुक गया। उसने मुझे मज़बूती से पकड़ा हुआ था, इसलिए मुझे झटका लगा, और मैं झटके से पीछे की तरफ़ मुड़ गई। लियो रुका हुआ मुझे खींच रहा था अपनी तरफ़। 

मैं उसके क़रीब पहुँची ही थी यह सोचती हुई कि फिर वही मैया, मैं तो चंद्र-खिलौना लैहों . . . वही डिमांड . . . मैंने महसूस किया कि लियो की बाजुओं में हृष्ट-पुष्ट युवकों सी शक्ति है। उससे पूछा, “क्या हुआ?” तो लियो ने मेरी आशंकाओं से एकदम उलट फिर वही पूछा, क्यों रोई? 

मुझे अपनी सोच पर बड़ा पछतावा हुआ कि मैंने अपने प्यारे लियो के बारे में इतना ग़लत क्यों सोचा। मैं उसके चेहरे तक तो पहुँच नहीं सकती थी, इसलिए प्यार से उसके हाथों को चूमते हुए कहा, बाद में बताएँगे। 

असल में जितने झटके से मैं पलटी थी, उतनी ही तेज़ लियो के क़रीब पहुँचते ही मेरे दिमाग़ में एक विचार कौंध गया था, लियो को व्यस्त रखने का ही नहीं, बल्कि उसे कुछ ख़ास बना देने का भी। 

जिस ढंग से मैं पलटी थी, उससे मेरे मन में एकदम से ‘सालसा’ नृत्य घूम गया। लियो के चलते मेरा दिमाग़ कब, कहाँ पहुँच जाएगा, यह मुझे भी पता नहीं होता था। सेकेण्ड भर में मेरे दिमाग़ में पूरी योजना बन गई कि इसे एक डांसर बनाऊँगी। ‘सालसा’ नृत्य ऐसा है, जिसे इसको सिखाना ज़्यादा मुश्किल नहीं होगा। 

यदि यह सुनता होता, तो किसी म्यूज़िकल इंस्ट्रूमेंट का आर्टिस्ट बना कर, ढेरों लोगों के बीच इसे सेलिब्रिटी बना देती। लेकिन डांसर भी तो कम नहीं है। इसे सोलो ‘सालसा’ डांसर बनाऊँगी। 

सुएल्टा या रुएडा दे कैसिनो के रूप में। या फिर ख़ुद ही इसकी डांस पार्टनर बन जाऊँगी। इसके साथ-साथ सीखूँगी, सिखाऊँगी। दोनों यदि मन से मेहनत करते रहेंगे तो ज़रूर एक दिन अपना बड़ा स्थान बना लेंगे। छोड़ दूँगी हॉस्पिटल, अलविदा कह दूँगी नर्सिंग के प्रोफेशन को। 

अपना एक डांस स्कूल खोल कर लियो को उसका मालिक बनाऊँगी। दोनों मिलकर स्टूडेंट्स को सिखाएँगे। फिर धूम-धाम से इसकी शादी करके, इसकी मिसेज़ को भी सिखाएँगे। आगे यह दोनों मिलकर अपना एक बहुत बड़ा संसार बनाएँगे। और इनके बड़े से संसार में इनके, इनके बच्चों संग मैं मज़े से जीवन बिताऊँगी। 

इस लॉक-डाउन में मिले अथाह समय को यूँ ही व्यर्थ नहीं जाने दूँगी। यू-ट्यूब पर ढेरों वीडियो होंगे, उन्हें देख कर लियो के साथ प्रैक्टिस करूँगी। लॉक-डाउन के बाद किसी प्रोफ़ेशनल को यहीं बुला कर अपने डांस को और पॉलिश करूँगी। 

ये क्यूबा, प्योर्टिकोरिको ने भी क्या डांस बनाया है। ‘सालसा।’ आया और पूरी दुनिया में छा गया। टीवी पर इसके कितने प्रोग्राम आ चुके हैं। 

मेरी बचपन से यह आदत रही है कि मेरी किसी सोच को कुलाँचें भरने में देर नहीं लगती। जितनी जल्दी सोचती हूँ, उतनी ही जल्दी निर्णय लेती हूँ, उससे भी ज़्यादा तेज़ी से उस पर क़दम भी बढ़ा देती हूँ। मैंने तुरंत ही टीवी में देखे ‘सालसा’ डांस के एक-दो स्टेप लियो के साथ करने की कोशिश की। 

उसे पकड़ कर, उसकी ही जगह पर तीन सौ साठ डिग्री पर घूमीं। फिर एक हाथ उसकी कमर पर, एक कंधे पर रखकर, ऐसे ही उसके हाथों को अपने पर रखवा कर, कई बार क्लॉक, एंटी क्लाक वाइज़ उसे लेकर घूमीं। 
कभी पैर खोलती, कभी वापस ले आती। लियो से भी वैसे ही करवाती। कई बार ऐसा करने पर उसे हँसी आने लगी। कमर में उसे मेरी उँगलियों के कारण गुदगुदी भी लग रही थी। 

वह ख़ुश था, मैं भी ख़ुश थी, कि कोरोना वायरस की वैक्सीन पूरी दुनिया अभी भी नहीं ढूँढ़ पाई है, लेकिन लियो को व्यस्त रखने की, उसे और ख़ुद को भी कुछ ख़ास बनाने का रास्ता मैंने ढूँढ़ लिया है। 

कुछ देर बाद लियो को लेकर मैं लेट गई। लेकिन नींद हम-दोनों को नहीं आ रही थी। इसलिए स्पर्श लिपि में वार्ता शुरू हो गई। मैंने उसे रिश्तों की मर्यादा समझाने का प्रयास शुरू कर दिया। 

मेरा यह प्रयास लगातार कई दिन तक चलता रहा। लॉक-डाउन का चौथा चरण चालू हो गया तब भी। अनवरत। साथ-साथ मर्यादा और ‘सालसा’ की शिक्षा देने के लिए मुझे अनथक मेहनत करनी पड़ रही थी। 
क्योंकि मेरा शिष्य कोई सामान्य शिष्य नहीं था, विशिष्ट था। और यह भी कि सिर्फ़ शिष्य ही नहीं था। और भी बहुत कुछ था। यूँ तो वह मेरा कुछ भी नहीं था। जो कुछ था, वह मेरा गढ़ा, या यह कहें कि परिस्थितयों द्वारा गढ़ा हुआ था। 

ऐसा रिश्ता, जिसे दुनिया में अभी तक कोई नाम नहीं दिया गया है। वैसे मैं बहुत अच्छी तरह यह जानती, मानती हूँ कि दुनिया बहुत ही तेज़, बड़ी कुशाग्र बुद्धि है, वह सब-कुछ जानते ही सेकेण्ड भर में कोई नाम दे ही देगी। 

लेकिन रिश्ते को कोई नाम मिले, इसके लिए मैं अपने, लियो के रिश्ते के बारे में एक शब्द क्या, एक अक्षर भी दुनिया को बताने वाली नहीं थी। क्योंकि मैं पलक झपकने भर को भी यह बर्दाश्त करने को तैयार नहीं कि दुनिया हम-दोनों के रिश्ते को लेकर कोई तमाशा खड़ा करे, हम पर ऊँगली उठाए। 

मेरी कठिन मेहनत रंग लाने लगी थी। लियो ने धीरे-धीरे मर्यादा की रेखाओं का सम्मान करना शुरू कर दिया था। हालाँकि अलग सोने के लिए लाख समझाने के बाद भी वह तैयार नहीं हुआ था। उसका वश चलता तो वह कंगारू के बच्चे की तरह हमेशा मुझसे चिपका ही रहता। 

सोते समय तो चिपका ही रहता था। मेरी छातियाँ, नाभि उसके लिए खिलौने बनी ही रहती थीं। वह अपनी ही तरह से उन्हीं से खेलते-खेलते सो जाता था। तब कहीं मैं अपनी नाइट ड्रेस ठीक कर सोती थी। 

कभी-कभी तो उससे पहले मैं ही सो जाती थी। जब देर रात नींद खुलती, तब ठीक करती थी। बड़ा होने से पहले जहाँ वह मेरी बाँहों में खो जाता था, वहीं अब उसकी विशाल बाँहों में मैं समा जाती थी। 

हफ़्तों हम-दोनों ने, ‘सालसा’ के कई स्टेप किए, दिन-भर में कई-कई बार इतनी प्रैक्टिस की, कि उसे ठीक से करने लगे। मैं इस बात के लिए भी ख़ुश होती कि इसी बहाने हम-दोनों की एक्सरसाइज़ भी हो जाती है। हमारी फ़िगर भी ठीक बन जाएगी। 

इतना ही नहीं, लियो को बराबर बिज़ी रखने के लिए मैं चाय की पैकिंग भी रोज़ करवाती रही। और रोज़ ही बाद में उन डिब्बों को ख़ुद ही ख़ाली कर देती। अर्थात्‌ जैसे नेपोलियन बोनापार्ट ख़ाली समय में अपने सैनिकों को पानी में उतर कर पानी बटने के लिए कहता था, वैसे ही मैं भी लियो को बिज़ी रखने के लिए उससे पानी बटवा रही थी। 

अब मैं बहुत ख़ुश थी। क्योंकि लियो को जिस दिन मैंने ट्रीटमेंट दिया, उसके बाद से दौरे पड़ने बंद हो गए थे। मैं जब रोज़ वृंदा को फ़ोन करती, तो अन्य सारी बातों के साथ डांस की बात ज़रूर करती। जिसे सुनकर वृंदा ख़ूब हँसती। 

एक दिन उसने कहा, “अब हॉस्पिटल आने की भी तैयारी करो। अपने एरिया में पिछले पचीस दिनों से एक भी कोविड-१९ पेशेंट नहीं मिला है। दो-तीन दिन और नहीं मिला तो अपना एरिया ग्रीन ज़ोन में आ जाएगा। हॉस्पिटल खुल जाएगा।”

मैंने कहा, “मैं हॉस्पिटल खुलने ही की प्रतीक्षा कर रही हूँ वृंदा। हॉस्पिटल खुलने में जितना ज़्यादा टाइम लगेगा, नौकरी उतनी ही ज़्यादा ख़तरे में पड़ती जाएगी। और मेरी तो चिंता दोहरी है, नौकरी की और दूसरी लियो की। अब फ़हमीना है नहीं। इसे किसके सहारे छोड़ कर आऊँगी। माहौल ऐसा है कि किसी पर भरोसा ही नहीं रह गया।”

यह सुनते ही वृंदा ने कहा, “कैमरे तो तुमने घर-भर में लगवा रखे हैं। मोबाइल से उसे दिन-भर देखती रहना।”

“मोबाइल से कहाँ, शाम को घर पहुँच कर ही दिन-भर की फुटेज देख पाऊँगी।”

“अरे नहीं-नहीं, लाइव देख सकती हो।”

वृंदा ने मुझे सारी डिटेल्स बताई तो मैंने अपना माथा पीट लिया कि सब-कुछ लगवा कर, जानकारी न रखने के कारण इतनी बड़ी मूर्खता की। कैमरे लगाने वाले ने भी सारी बात नहीं बतायी। न ही मैंने ठीक से ध्यान दिया कि उससे सारी जानकारी लेती। 

जानकारी होती तो इतनी बड़ी समस्या कभी न खड़ी होती। मैं दिन-भर पूरे घर पर नज़र रखती। यह फ़हमीना को भी बता देती। इससे वह कोई बदतमीज़ी करने से पहले सौ बार सोचती। उसके पेट में न लियो की संतान आती। और न वह मासूम जान दुनिया में आने से पहले ही मारी जाती। 

मेरे मन पर एक मासूम की हत्या का जो एक बोझ, मुझे दिन-रात तोड़ता रहता है, अंतिम साँस तक इस अपराध बोध से मैं दुखी रहूँगी, यह कभी नहीं होता। 

न लियो बीमार पड़ता, न ही मुझे उसके साथ वह सब-कुछ करना पड़ता, जो हर दृष्टि से ग़लत ही ग़लत है। अपनी नज़रों में स्वयं कभी इतना न गिरना पड़ता। कई बार जो ग़लत सोच लियो को लेकर मन में आ जाती थी, वह कभी न आती। फ़हमीना को क़दम बहकने से पहले ही बाहर कर देती। 

वृंदा से भी यदि कभी बताऊँगी यह सब, तो इतनी भली, सीधी-सरल होने के बावजूद इसे सबसे गंदा काम ही कहेगी। सामने भले ही कोई सख़्त बात नहीं कहेगी, लेकिन उसके मन में यह बात भी आ सकती है कि लॉक-डाउन के भीषण अकेलेपन को मैं कहीं लियो के साथ इस तरह एन्जॉय तो नहीं कर रही थी। 

मैं सोचती इन सबसे बड़ा सिर-दर्द तो मेरे लिए यह बना हुआ है कि इतनी बार सम्बन्ध बनाए हैं, कहीं फ़हमीना की तरह प्रेग्नेंसी रह गई तो . . . ओह गॉड . . . मैंने तो उसकी हेल्प करके सब ठीक कर दिया। लेकिन मेरी कौन करेगा। 

सब जानते हैं कि मेरा कोई पार्टनर नहीं है। मैं सिंगल हूँ। ऐसे में सबकी ज़ुबान पर एक ही बात तुरंत ही आएगी कि इतने दिनों से एक जवान लड़के के साथ घर में बंद रही। ख़ूब ऐश की। उसी का रिज़ल्ट है यह प्रेग्नेंसी, सब मुझ पर ही टूट पड़ेंगे। 

मुझे पापी ही कहेंगे। कोई मेरी इस थ्योरी को सुनेगा ही नहीं कि मैंने महामारी के सबसे भयानक दौर मैं, अत्यंत कठिन स्थितियों का अकेले ही सामना करते हुए, एक स्पेशल यंग बॉय की जान बचाने के लिए यह सब किया था। 

यह दुनिया के सबसे बड़े सैक्रिफ़ाइस में गिना जाना चाहिए। मैंने उसकी जान बचाने के लिए न सिर्फ़ अपनी शर्म, अपना शरीर उसे बार-बार सौंपा, बल्कि आज भी वह मासूम मेरे शरीर से खेलते-खेलते ही सोता है। मैं लाख न चाहते हुए भी, उसे अब भी यह सब रोज़ करने दे रही हूँ, न कि मैं उसके साथ एंजॉय कर रही हूँ। ओह गॉड, ओह गॉड सेव मी। 

मैंने तनाव में यह सब बुदबुदाते हुए दो-तीन बार अपना माथा पीट लिया था। तनाव में मुझे हमेशा कॉफ़ी ही याद आती है। मैं ब्लैक कॉफ़ी बनाकर पीती रही, सोचती रही, क्या करूँगी यदि ऐसा कुछ हुआ तो। सामने सोफ़े पर ही लियो लेटे-लेटे सो गया था। 

उसे देखते हुए मैंने मन ही मन कहा, “लियो तुम्हें परेशान होने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। मैं तुम्हारे लिए सब-कुछ करूँगी। मैं तुम्हारे लिए क्या कर गुज़रूँगी ख़ुद मुझे कोई अंदाज़ा नहीं है। 

“अब हम-दोनों जल्दी ही ग्रेट डांसर बनेंगे। दुनिया हमारे डांस पर तालियाँ बजाएगी। यदि प्रेग्नेंसी हुई तो मैं उसे ख़त्म कर दूँगी। अभी होगी भी तो एक डेढ़ महीने की ही होगी। अकेले किसी हॉस्पिटल में एक दिन बिता लूँगी। देखती रहूँगी तुझे मोबाइल में। इतने दिनों में तो तुम और भी ज़्यादा स्मार्ट हो गए हो। अब तुम्हें अकेले छोड़ने में ज़्यादा टेंशन नहीं होगी।” 

वृंदा की बात सही निकली। तीन दिन बाद ही ग्रीन ज़ोन घोषित हो गया। इसके साथ ही हॉस्पिटल खुल गया। पहले दिन हॉस्पिटल में ड्यूटी के बाद लौटते समय मैंने कई घरेलू सामान के साथ-साथ एक-दो नहीं, पूरी दस प्रेग्नेंसी चेक किट भी ले ली। 

लेते समय मुझे मोबाइल में पढ़े दो समाचार याद आ रहे थे। डब्ल्यू.एच.ओ. की एक रिपोर्ट बहुत वायरल हुई थी कि लॉक-डाउन से उत्पन्न स्थितियों के कारण दुनिया में क़रीब पचहत्तर लाख अनचाहे गर्भ होंगे। पढ़ते समय मैंने सोचा था कि इससे ज़्यादा अजीब समाचार और क्या होगा! 

लॉक-डाउन के दौरान दुनिया में सब सेक्स, सेक्स और सिर्फ़ सेक्स ही करते रहेंगे क्या? और सब इतने मूर्ख हैं कि बिना कॉन्ट्रासेप्टिव के ही। पता नहीं दुनिया में कभी इसके पहले, ऐसी न्यूज़ आई थी कि नहीं। 

दूसरी बात यह याद आ रही थी कि इन अनचाहे गर्भ में से लाखों को आने से पहले ही मार दिया जाएगा। घर पहुँच कर स्कूटर खड़ी करते समय मैंने सोचा कि मैं उस समय कितनी ग़लत थी। तब यह दोनों बातें मुझे कितनी बेवक़ूफ़ी भरी लग रही थीं, लेकिन सच में उस समय दोनों बातें कितनी सटीक कही गई थीं। 

मैं भी तो इसी की तैयारी में लगी हूँ। परिस्थितियों ने अनचाहे सेक्स के लिए विवश किया, वह भी बिना कॉन्ट्रासेप्टिव के ही। और अनचाहे गर्भ की सम्भावना के चलते उसे ख़त्म करने की तैयारी में लगी हुई हूँ। ऐसे ही न जाने कितने लोग परिस्थितियों के आगे विवश हुए होंगे। 

मगर यह बात भी तो सामने आनी ही चाहिए न कि इस लॉक-डाउन से अनचाहे ही नहीं, चाहते हुए जो प्रेग्नेंसी हुईं, वह भी तो लॉक-डाउन, लगभग सभी हॉस्पिटल्स को कोविड हॉस्पिटल्स बना दिए जाने कारण, कोई भी ट्रीटमेंट नहीं मिलने के चलते माँ, बच्चे दोनों ही बेमौत मारी जा रहीं हैं। 

देश ही नहीं दुनिया के सभी देशों को बाक़ी लोगों की चिकित्सीय ज़रूरतों को भी हर हाल में देखना ही चाहिए, नहीं तो कोविड से ज़्यादा तो लोग ऐसे ही मर जाएँगे। कोविड से मरने वालों की तो गिनती भी की जा रही है। इन लोगों पर ध्यान क्यों नहीं दिया जा रहा है? क्या इनके प्राणों का कोई मूल्य नहीं है? 

क्या बीती होगी उस बेचारी माँ पर? प्रेग्नेंट होने के बावजूद परिवार, सैकड़ों अन्य लोगों के साथ सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर औद्योगिक शहर से अपने गाँव चली जा रही थी। रास्ते में ही डिलीवरी हो गई। 
लेकिन समूह और परिवार के दबाव में आकर उस बेचारी ने अपने हृदय पर पत्थर रख कर, अपने नवजात शिशु को सड़क के किनारे ही छोड़ दिया और अपनी यात्रा जारी रखी। कितनी हृदय-विदारक, महाकष्टदायी थी उसकी स्थिति। डिलीवरी के बाद महिलाएँ हफ़्तों काम-धाम नहीं करतीं, आराम करती हैं। और वह बेचारी तुरंत ही फिर चल दी। 

दुनिया में न जाने कितनी महिलाओं के साथ ऐसा हो रहा होगा। उसके पति के मन में भले ही न आया हो, लेकिन वह माँ थी, उसके मन में तो यह ज़रूर ही आया होगा कि उसके हृदय का टुकड़ा किसी हिंसक जानवर का निवाला ज़रूर बन जाएगा। 

क्योंकि जबसे कोरोना वायरस ने, इंसान की सारी हेकड़ी ठिकाने लगा कर, उसे उसके ही घर में, गृह-कैद में डाल दिया है, तबसे इंसानों के डर से, जंगलों में दुबके जानवर, इंसानों की बनाई सड़कों, ठिकानों पर भय-मुक्त विचरण करते हुए, दुनिया भर में दिख रहे हैं। 

यह कहो कि उस बच्चे की क़िस्मत अच्छी थी कि उसे मेरी ही सोच वाला एक दंपती मिल गया। जिसने उसे चाइल्ड लाइन पहुँचा दिया। कोरोना तो कोरोना, यह लॉक-डाउन भी न जाने क्या-क्या कराएगा? 

दिन-भर अकेले ही रहे लियो के साथ चाय-नाश्ता करने के बाद, मैंने अगला काम प्रेग्नेंसी चेक करने का ही किया। रिपोर्ट नेगेटिव आते ही मैं बहुत ख़ुश हुई। लेकिन मैं हर तरह से निश्चिंत होना चाहती थी, इसलिए दो-तीन दिन के अंदर कई बार चेक किया। हर बार नेगेटिव रिपोर्ट आने पर ही मैं पूरी तरह से निश्चिंत हुई। 

मगर एक और तकलीफ़ जिसे मैं बीते कुछ महीनों से, हर सप्ताह में दो-तीन दिन बर्दाश्त कर रही थी, अब उसका भी चेकअप करवा लेना चाहती थी, सो उसे भी करवाया। सप्ताह-भर बाद आई जाँच की रिपोर्ट देखकर, डॉक्टर ने मुझे जो कुछ बताया, उससे मैं ख़ुद को सँभाल नहीं पाई। सदमें से बेहोश हो गई। सारा स्टॉफ़ सकते में आ गया। छुट्टी लेकर वृंदा टैक्सी से मुझे घर ले आई। 

वह भी बहुत सदमें में थी। हँसमुख, बातूनी स्वभाव के बावजूद वह रास्ते-भर में मुझसे दो-तीन बार सिर्फ़ इतना ही कह सकी कि “हिम्मत रखो फ्रेशिया, तुम बहुत बहुत बहुत बहादुर हो। हम सब तुम्हारे साथ है ना। प्रॉब्लम समय से पता चल गई है। ट्रीटमेंट होगा, सब-कुछ ठीक हो जाएगा।”

सच यह था कि वृंदा स्वयं बहुत डर गई थी, ख़ुद उसकी ज़ुबान पर कोई शब्द नहीं आ रहे थे। बुरी तरह लड़खड़ा रही थी। उसकी बात सुनकर मेरे होंठ फड़क उठते। मैं बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई रोक पा रही थी। 

वृंदा ने घर पहुँच कर कहा, “तुम आराम करो, मैं तुम्हारे लिए नाश्ता तैयार करती हूँ।”

मैंने कहा, “नहीं-नहीं वृंदा, तुम बैठो। अभी ऐसी कोई बात नहीं है। मैं बनाती हूँ।”

असल में मैं जिस तरह से सब-कुछ सैनिटाइज़ करके किचन में जाती थी, उस तरह से सब करने के लिए उससे तो नहीं कह सकती थी। मुझे संकोच था कि इससे उसके हृदय को चोट पहुँचेगी। 

लेकिन मैं किसी तरह का कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। हालाँकि उसकी कॉलोनी भी ग्रीन ज़ोन में ही थी, लेकिन कोरोना का भय मुझे रेड ज़ोन से बाहर नहीं निकलने दे रहा था। मेरा मन भी किचन में जाने का बिलकुल नहीं था। लेकिन यह अच्छी तरह समझ रही थी कि यदि मैं तुरंत नहीं उठी तो वृंदा लियो, मेरे लिए नाश्ता तैयार किए बिना नहीं जाएगी। 

इसलिए मैं सामान्य दिखने का प्रयास करती हुई तुरंत उठी, वृंदा का ध्यान दूसरी ओर मोड़ने के लिए सबसे पहले उसे कमरे के दरवाज़े से ही दूर बैठे लियो को दिखाया। जो अभी भी मेरी प्रतीक्षा में बैठा था। 

उसे इस बात का अहसास नहीं था कि मैं, वृंदा मात्र नौ फ़ीट की दूरी से उसे देख रही हैं। उसे नाक अजीब तरह से सिकोड़ते देख कर वृंदा ने पूछा, “यह नाक ऐसे क्यों सिकोड़ रहा है?” 

मैंने कहा, “असल में इसे डाउट हो रहा कि मैं आ गई हूँ। सेनिटाइज़र और हमारे कपड़ों से जो हॉस्पिटल की दवाओं आदि की स्मेल आती रहती है, उसे यह फ़ील कर रहा है। अब-तक यह उठ कर मुझे ढूँढ़ते हुए दरवाज़े तक आ जाता। 

“पहले दिन ख़ुद को सेनिटाइज़ कर ही रही थी कि तभी यह एकदम से आकर मुझसे चिपक गया था, तो उस दिन मैंने इसे समझाया कि आने के बाद मैं हैंड-वाश करके जब ख़ुद तुम्हारे पास आऊँगी तभी मुझे छूना। उसके पहले अपनी जगह बैठे रहना। इसकी स्मेल पॉवर बहुत स्ट्रॉन्ग है।”

“ओह, मैं तो समझ ही नहीं पाई थी। कितना प्यारा मासूम लग रहा है।”

थोड़ी देर में नाश्ता टेबल पर था। मैंने लियो को देकर बताया कि वृंदा आंटी भी आई हैं, तो उसने ताली बजा कर अपने तरीक़े से ख़ुशी प्रकट की और नाश्ता करने लगा। मुझसे गले नहीं मिला, न ही हमेशा की तरह अपने हाथों से मुझे कुछ खिलाया। 

नाश्ता सामने था, लेकिन हम-दोनों का मन उसे छूने का नहीं हो रहा था। मेरी आँखों में रह-रह कर आँसू आ जा रहे थे। मुझे बिलकुल शांत और आँखों में आँसू देखकर, वृंदा ने मुझे कॉफ़ी पकड़ाते हुए कहा, “तुम जैसी मज़बूत हो, वैसी ही बनी रहो फ़्रेशिया। तुम्हारी विल पॉवर ही इस बीमारी से तुम्हें बाहर निकाल सकती है।”

उस समय मेरे दिमाग़ में जो कुछ चल रहा था, उसे वहीं छिपाए हुए मैंने कहा, “वृंदा न मेरी विल पॉवर कमज़ोर हुई है, न मैं। लेकिन मैं उस लड़ाई को लड़ने में बिल्कुल यक़ीन नहीं करती, जिसका निर्णय पहले ही लिख दिया गया हो। 

“मेरा कैंसर जिस स्टेज में है, और जितनी जगह में फैला हुआ है, उसे देखते हुए यह बात एकदम साफ़ है कि इस लड़ाई का निर्णय लिखा जा चुका है। तो ऐसे में तुम ही बताओ कि ऐसी लड़ाई को लड़ने में कौन सी बुद्धिमानी है।”

यह सुनते ही वृंदा चौंकती हुई सी बोली, “अरे नहीं-नहीं, ऐसा क्यों बोल रही हो। बीमारी की तरफ़ से आँखें कभी भी बंद नहीं करनी चाहिए। ट्रीटमेंट तो हर हाल में कराना ही है। बहुत सी नई-नई दवाइयाँ, मशीनें हैं। कितने ही पेशेंट ठीक हो रहे हैं। थर्ड स्टेज के भी। अभी तो तुम्हारा थर्ड स्टेज में नहीं है।”

“हाँ, ठीक हो रहे हैं। लेकिन ऐसा अभी रेअर ही हो रहा है। जिस स्टेज में मैं हूँ, उस स्टेज को थर्ड ही समझो। बाक़ी स्टेज वाले भी वही ठीक हो रहे हैं, जिनके साथ उनका परिवार है, लोग हैं, और ख़ूब पैसा है। मेरे पास न पैसा है, न ही मेरा कोई परिवार है। 

“परिवार क्या होता है, यह तो मैं भूल ही गई हूँ। किसी परिवार में होने का एहसास क्या होता है, मैं यह भी नहीं जानती। जो भी थोड़ा बहुत एहसास है, नाना-नानी के द्वारा ही दिया हुआ है। मुझे अपनी चिंता नहीं है। जीवन जीने को लेकर मेरी कोई लालसा नहीं है। मुझे चिंता है, तो सिर्फ़ अपने लियो की। 

“मैं अपनी ज़िम्मेदारी को कैसे निभाऊँ? मैं अपनी ज़िम्मेदारी किसी को सौंप तो नहीं सकती न। उसे किसके सहारे छोड़ूँगी। मेरा ट्रीटमेंट कोई एक-दो दिन तो चलना नहीं है। यह लंबा समय लेगा। कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी न जाने क्या-क्या करवाना होगा? जानती तो तुम भी हो सब-कुछ। कितनी असहनीय तकलीफ़, दुर्दशा होती है शरीर की। 

“तुमने भी बहुत से पेशेंट देखे होंगे। बाल, भौंहे सब गिर जाते हैं। कितनी भयानक पीड़ादायी हो जाती है ज़िन्दगी। इतना सब-कुछ कराने, सारे ट्रीटमेंट के बाद भी अंततः कैंसर ही जीत जाता है। गिने-चुने लोग ही इससे जीत पाते हैं। फिर भी देखा जाए तो दवाएँ जीवन-भर चलती ही रहती हैं। हमेशा फिर से हो जाने का डर सताता ही रहता है।”

मैंने बहुत स्पष्ट सपाट लहजे में कहा, तो वृंदा ने मेरी भरी हुई आँखों को, अपनी भरी हुई आँखों से कुछ देर देखने के बाद कहा, “देखो फ़्रेशिया, इतना निगेटिव नहीं सोचो। किसी भी समस्या से हारने की बात दिमाग़ में आनी ही नहीं चाहिए। जीतना ही है, हम ही जीतेंगे, दिमाग़ में बस इतना ही होना चाहिए। 

“ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम हमेशा से, हर स्थिति में जीतती आई हो, अब भी जीतोगी। तुम जीतने के लिए ही बनी हो। तुम्हें जीतना ही है। तुम अकेली नहीं हो। मैं हमेशा की तरह तुम्हारे साथ हूँ। 

“ट्रीटमेंट के समय किसी भीड़ की नहीं, एक दो ज़िम्मेदार आदमी की ही ज़रूरत होती है। जब-तक तुम ठीक नहीं हो जाओगी, तब-तक मैं छुट्टी ले लूँगी। छुट्टी ख़त्म होने पर लीव विदाउट पे ले लूँगी। यह भी नहीं मिली तो रिज़ाइन कर दूँगी। नर्स हूँ। तुम ठीक हो जाओगी तो नौकरी फिर किसी और हॉस्पिटल में ढूँढ़ लूँगी। रही बात पैसों की, तो मुझे गर्व है अपने पति पर। 

“मैं आज ही उनसे बात करूँगी। ट्रीटमेंट का सारा ख़र्च मैं देखूँगी। तुम्हें किसी बात की चिंता नहीं करनी है। लियो और तुम्हें, दोनों को मैं सँभाल लूँगी। मैं जो कह रही हूँ, इस पर आँख मूँद कर विश्वास करो, समझी। इतने बरसों में मुझे इतना तो समझ ही गई होगी कि मैं जो कर सकती हूँ, वही कहती हूँ।”

नाश्ता अब भी जस का तस रखा था। हम-दोनों ने एक-दो घूँट कॉफ़ी ही पी थी बस। वृंदा की बातें सुनकर मैं बहुत भावुक हो गई। मैंने कहा, “सच वृंदा तुम जैसे लोग ही इस पृथ्वी पर साक्षात्‌ देव-दूत हैं। लेकिन मेरी प्यारी वृंदा, यह क्यों भूल रही हो कि इसके ट्रीटमेंट में कोई दस-बीस हज़ार नहीं, दस-बीस लाख रुपए लगना एक मामूली बात है . . .”

वृंदा ने मुझे यहीं रोकते हुए कहा, “जानती हूँ। ईश्वर की कृपा से हस्बैंड बिज़नेसमैन हैं। और बिज़नेस इतना बड़ा है कि यह रक़म उनके लिए कुछ भी नहीं है। जितना बड़ा उनका बिज़नेस है, पैसा है, उससे भी कहीं बहुत ज़्यादा बड़ा उनका दिल है। 

“जानती हो, लॉक-डाउन में पूरा बिज़नेस, पूरी तरह से ठप था। लेकिन उन्होंने अपने स्टॉफ़ से कहा कि ‘परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। सब लोग मिलकर इस समस्या से निपट लेंगे।’ सुप्रीम-कोर्ट ने लॉक-डाउन पीरियड में प्राइवेट कंपनियों को यह छूट देकर सारे कर्मचारियों को एक तरह से मौत के रास्ते पर धकेल दिया था कि कंपनियों को सैलरी देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। 

“उसके इस निर्णय के बावजूद उन्होंने कर्मचारियों को पूरी सैलरी दी। आज तुमसे पहली बार यह बता रही हूँ कि यह नौकरी मैं केवल अपने शौक़ के लिए कर रही हूँ। मेरी सैलरी का एक भी पैसा आज-तक अकाउंट से निकला ही नहीं। 

“वह हर महीने शुरू से ही मुझे लगातार इतनी पॉकेट मनी देते हैं आ रहे हैं, जो मेरी सैलरी से ज़्यादा है। पिछले पंद्रह साल में यह सारा पैसा मिल कर इतना इकट्ठा हो गया है कि बीस क्या चालीस लाख भी मैं ख़र्च कर सकती हूँ। 

“अब तुम्हें कुछ भी इफ़-बट करने की आवश्यकता नहीं है। कल से ही तुम्हारा ट्रीटमेंट शुरू करवाते हैं। मेरी बातों पर तुम्हें यक़ीन हो जाए, इसलिए घर पहुँच कर मैं अपने हस्बैंड से तुम्हारी बात करवाऊँगी। 

“तुम देखना, मेरा हस्बैंड मदद के लिए मुझसे भी दस क़दम आगे न निकले तो कहना। देखो तुम मेरी मित्र ही नहीं, बहन भी हो। मैं तुमसे बड़ी भी हूँ। इसलिए इतने अधिकार के साथ कहती हूँ कि अब मैं जो कहूँगी, वह तुम्हें मानना ही होगा। पहले ही तुम थोड़ी बहुत नहीं, बड़ी आत्मघाती लापरवाही कर चुकी हो।”

वृंदा की बातें सुनकर मेरी आँखों से आँसू, मोतियों की लड़ी बन कर मेरे गालों को स्पर्श करते हुए नीचे को गिरने लगे, तो वृंदा ने उन्हें पोंछते हुए कहा, “फ़्रेशिया यह क्या? ऐसे हिम्मत नहीं हारते। आँसू नहीं बहाते।”

मैंने उसके हाथों को पकड़ते हुए कहा, “मेरी प्यारी बड़ी बहन यह आँसू इसलिए नहीं आए कि मैं परेशान हूँ। यह ख़ुशी के आँसू हैं कि तुम जैसी बड़ी बहन मेरे साथ है। लेकिन बहन मेरी बात भी तुम समझने की कोशिश करो। जब यह पूरी दुनिया ही नहीं चाहती कि हम जैसे लोग ठीक हों, तो मैं कैसे ठीक हो जाऊँगी। 

“पूरी दुनिया से तुम और मैं अकेले कहाँ लड़ पाएँगे। हमें जिन हथियारों से लड़ना है, वो सब इन्हीं के बनाए हुए हैं। यह हथियार इन्होंने कैंसर जैसे दुश्मन से जीतने के लिए बनाए ही नहीं हैं। इसीलिए हर रोज़ कैंसर से क़रीब सत्ताईस हज़ार लोग मरते हैं, लेकिन कहीं तुम्हें कोई हाहाकार, दुनिया, सरकार के माथे पर शिकन नज़र आती है। 

“कोरोना! यह तो पूरी दुनिया में फैल चुका है। अपने पीक पर है, तब भी एक दिन में औसतन क़रीब आठ से नौ हज़ार लोग ही मर रहे हैं। इससे ज़्यादा भयानक स्थिति तो कार्डियोवैस्कुलर डिज़ीज़ से मरने वालों की है। इससे रोज़ क़रीब उनचास हज़ार मौतें हो रही हैं। 

अस्थमा से हर रोज़ ग्यारह हज़ार लोग मर रहे हैं। लोअर रेस्पिरेट्री इन्फ़ेक्शन हर दिन सात हज़ार से ज़्यादा लोगों की जान ले रहा है। लेकिन कभी भी रोज़ मरने वाले इन लाखों लोगों के प्रति तुमने कहीं कोई चिंता, कोई हैरानी-परेशानी देखी है? 

“निश्चित ही नहीं देखी होगी, क्योंकि दवा कंपनियाँ, सरकारें यही तो चाहती हैं, समझती हैं कि इन बिमारियों से लोग तुरंत नहीं, कई सालों में तिल-तिल करके मरेंगे। और मरने से पहले अपनी, अपने शुभ-चिंतकों की सारी कमाई, दवा खरीद-खरीद कर इन्हीं दवा कंपनियों को सौंप जाएँगे। 

“इनका प्रॉफ़िट आसमान को छुएगा, और इन दवाओं पर भारी-भरक़म टैक्स वसूल कर सरकारें अपना ख़ज़ाना भरेंगी। इसिलए दवाएँ ऐसी बनाई जाती हैं कि मरीज़ लंबा खिंचे, दवा बिके, दवा उद्योग फूले-फले। 

“कोरोना वैक्सीन बनाने को लेकर दुनिया-भर में कंपनियों, सरकारों के बीच जिस तरह की अंधी होड़ मची हुई है, परस्पर बयानबाज़ी हो रही है, उससे मुझे लग रहा है कि आनन-फ़ानन में कोई वैक्सीन लांच कर दी जाएगी। 

“स्थितियाँ जितनी डरावनी हैं, उससे यह भी साफ़ है, जो भी कम्पनी पहले बना लेगी, वह वैक्सीन मार्केट में लाते ही इतना मुनाफ़ा कमा लेगी, जितना उसने बीते दस वर्षों में भी नहीं कमाया होगा। और उस देश की सरकार उस पर टैक्स लगा कर कमाएगी। 

“पैसा कमाने की यह होड़ उन्हें यह भी सोचने से रोक देगी कि वैक्सीन वाक़ई कितनी कारगर है, उसके साइड एफ़ेक्ट कितने और कैसे होंगे? यह वैक्सीन इन कंपनियों का ऐसा प्रॉडक्ट होगा, जो मार्केट में आने से पहले ही एडवांस बिक चुका होगा। 

“अरब दो अरब नहीं, खरबों डोज़ बिकेंगी। कहीं वैक्सीन चार-पाँच डोज़ देने वाली हुई, तब तो सब कल्पना से परे होगा। सोचो इन कंपनियों पर पैसा आसमान से होती बारिश की तरह बरस रहा होगा। और वैक्सीन लोगों को कोरोना से बचा पा रही है या नहीं, यह सब बाद की बात होगी। 

“इसलिए मेरा विश्वास अटल है कि सदैव की तरह मार्केट में वही दवाइयाँ आएँगी, जो मरीज़ के मर्ज़ को लंबा खींचने वाली होगी। आख़िर कई ट्रिलियन डॉलर का दवा उद्योग बीमारियों से ही तो आगे बढ़ेगा न। जितनी ज़्यादा बीमारियाँ, बीमार होंगे, उतने ही ज़्यादा दवा कंपनियों, देशों के ख़जाने मोटे होंगे। 

“कितने दशक बीत गए, आज-तक एड्स की वैक्सीन या कोई कारगर दवा आई क्या? देखना कभी नहीं आएगी। जो भी वैज्ञानिक लाने की कोशिश करेगा, देख लेना वही मार दिया जाएगा। 

“जैसे चीन में उस डॉक्टर को मार दिया गया, जिसने कोरोना वायरस के बारे में बताया था। उसने जब बताया था, तभी सही क़दम उठाए जाते तो यह इतना फैलता ही नहीं। इसीलिए कहती हूँ कि सॉर्स, स्वाइन फ़्लू के बाद बहुत सालों से जो दवा इंडस्ट्री ठहरी-ठहरी हुई सी लग रही थी, उसे कोरोना वायरस अकल्पनीय ऊँची उड़ान भरने के लिए बड़े विशाल, मज़बूत पंख देने जा रहा है। इसका पूरा श्रेय सबसे लालची देश चीन को ही मिलेगा। उसी ने साज़िशन यह वायरस फैलाया। 

“साज़िश इसलिए कहती हूँ कि दुनिया भर में इसने अपनी एयरलाइन की आवाजाही बंद नहीं की। जबकि अपने यहाँ इसके केंद्र वुहान से, अपने देश में सारी आवाजाही बंद किए रहा। 

“ऐसी बहुत सी बातें हैं वृंदा, इसीलिए मैं कह रही हूँ कि हमारी लड़ाई का निर्णय पहले से ही लिखा हुआ रखा है। ऐसी लड़ाई लड़ कर अपना और तुम्हारा पैसा, तुम्हारी ऊर्जा, समय बर्बाद करने की मूर्खता नहीं करना चाहती। न ही ट्रीटमेंट की पत्थर को भी पिघला देने वाली पीड़ा से गुज़रना से चाहती हूँ। प्लीज़ मेरी प्यारी बड़ी बहन वृंदा, मुझसे ट्रीटमेंट के लिए नहीं कहो।”

अब-तक मेरी बातों को ग़ौर से सुन रही प्यारी वृंदा ने कहा, “फ़्रेशिया, फ़्रेशिया तुम यह सब क्या कहे जा रही हो। मैं नहीं जानती थी कि तुम्हारे दिमाग़ में ऐसी-ऐसी जटिल बातों का अम्बार लगा हुआ है। 

“बड़ी होने के नाते तुमसे कह रही हूँ कि तुम्हारे दिमाग़ को शांत रखने के लिए सबसे पहले यह ज़रूरी है कि तुम टीवी पर न्यूज़ देखना, पेपर्स पढ़ना एकदम बंद करो। 

“तुमसे तुम्हारे और तुम्हारे लियो के लिए कह रही हूँ कि इन पॉलिटिकल बातों के पीछे स्वयं को छुपाओ नहीं। माना तुम्हारी सारी बातें सही हैं। लेकिन यह भी तो सही है कि इन्हीं दवाओं से बहुत से लोग ठीक भी तो हो रहे हैं। 

“हमें इसी विश्वास के साथ आगे बढ़ना है कि इन ठीक होने वाले बहुत से लोगों में से तुम भी होगी। इसलिए मेरी बात को बिल्कुल मना नहीं करो। कल से ही तुम्हारा ट्रीटमेंट शुरू होगा। मैंने तुमसे पहले जितनी बातें कही हैं, उन पर तुमको पूरा विश्वास हो जाए, इसलिए मैं घर पहुँच कर हस्बैंड से तुम्हारी दस बजे तक बात ज़रूर करवाऊँगी। 

“तब-तक तुम आराम से लियो के साथ खाना-पीना कर लेना। कल से तुम जहाँ भी जाओगी, मेरे साथ ही जाओगी। कल मैं टाइम से लेने आ जाऊँगी। अब चलती हूँ। अपना ध्यान रखना मेरी प्यारी बहादुर बहन।”

मेरी प्यारी बहन वृंदा जाने लगी तो मेरा मन हुआ कि उसे गले से लगाकर धन्यवाद दूँ। लेकिन कोरोना वायरस के चलते फिज़िकल डिस्टेंसिंग को मेंटेन किया, दूर से ही हाथ हिलाती रही। हम-दोनों की आँखें भरी हुई थीं। 
मुझे अटूट विश्वास था कि मेरा ट्रीटमेंट कैसे सही ढंग से शुरू हो जाए, यही सोचती हुई वृंदा कैब से घर जा रही थी। लेकिन मेरे दिमाग़ में बड़ी कठोर बातें चलनी शुरू हो गई थीं। जिससे मेरा चेहरा भी कठोर होता चला जा रहा था। 

प्यारी वृंदा के जाने के आधे घंटे के बाद ही मैंने खाना बनाना शुरू किया। उसके पहले लियो के साथ खेलती रही। उसे नाश्ता भी कराया। खाने में मैंने लियो और अपनी फेवरेट चीज़ें ही बनाईं। ख़ूब प्यार से उसे खिलाया और खाया भी। 

रात दस बजे प्यारी वृंदा और उसके प्यारे पति से बात की। उसके पति की बातों से भी मेरे आँसू निकलने लगे थे। क्योंकि वह भी बहुत ज़ोर देकर कह रहे थे कि “आप पैसों सहित किसी भी बात की चिंता न करिए। वृंदा और मैं आपके साथ हमेशा खड़े रहेंगे। आप अकेले नहीं हैं।”

बात ख़त्म होने के बाद मैंने मन ही मन कहा, ‘वृंदा तुम्हारा पति और तुम, तुम-दोनों के रूप में मैं देव-दूतों से मिली और बात की। इतनी भाग्यशाली हूँ कि मैं देव-दूतों से मिली। यह सौभाग्य तो बड़े-बड़े संतों को भी नहीं मिलता।’

मैं बड़ी देर तक कभी लियो के पास बैठती, कभी टहलती, कभी डॉक्टर की दी दवा को देखती, कभी वृंदा से छिपाकर जो तमाम दवाएँ स्टोर से निकाल लाई थी, उन्हें भी देखती। क़रीब बारह बजे मुझे लगा कि लियो को नींद आ रही है, तो मैं दो गिलास पानी ले आई। 

न जाने क्यों मैं अचानक ही हर काम को बहुत जल्दी-जल्दी करती जा रही थी। मेरे कानों में अभी भी वृंदा और उसके हस्बैंड की बातें गूँज रही थीं। सारे काम पूरे करके मैं बड़े प्यार से लियो को समेटे-समेटे सो गई।”

यह दोनों विशिष्ट जन कुछ ही देर में इतनी गहरी चैन की नींद सोने लगे कि उन्हें देख कर अनिंद्रा से परेशान लोगों में घोर ईर्ष्या उत्पन्न हो सकती थी। अगले दिन सुबह वृंदा जल्दी से तैयार हुई उसके पास पहुँचने के लिए। उसको फ़ोन किया, लेकिन उसने कॉल रिसीव नहीं की। वह उसके घर पहुँची तो बार-बार कॉल-बेल बजाने, गेट को पीटने के बाद भी वह नहीं खुला। 

उसने मोबाइल पर कॉल की, उसे रिंग बाहर भी बराबर सुनाई दे रही थी। उसने सोचा कहीं टॉयलेट में तो नहीं है। लेकिन ज़्यादा टाइम होने पर उसने फिर से दरवाज़ा पीटना शुरू किया तो पड़ोसी भी आ गए। और फिर पुलिस भी। दरवाज़ा तोड़ने के बाद पुलिस के साथ जब वह अंदर पहुँची तो देखा, फ़्रेशिया और लियो एक दूसरे को बाँहों में भरे स्थिर पड़े हुए हैं। 

उनकी हालत देखते ही वृंदा को यह समझते देर नहीं लगी कि फ़्रेशिया ने वो काम कर दिया है, जिसके बारे में उसे सोचना भी नहीं चाहिए था। वह पत्थर बनी फटी-फटी आँखों से उन्हें देखती रही। आँखों से आँसुओं की धारा ऐसे बहने लगी जैसे कि पत्थर की आँखों से पानी का सोता फूट पड़ा हो। 

पुलिस ने फ़्रेशिया के सिर के पास पड़े एक काग़ज़ को पढ़ने के बाद वृंदा से पूछा कि “आप ही वृंदा हैं?” उसके हाँ कहने पर उसने लेटर पढ़कर सुना दिया। फ़्रेशिया ने आख़िर में लिखा था, “मेरी बहुत-बहुत प्यारी बहन वृंदा, मैं निर्णय पहले से ही लिख दिए जाने वाली लड़ाई लड़कर, हारना बिल्कुल नहीं चाहती थी। अपने प्यारे लियो को भी नहीं छोड़ सकती। इसलिए उसे भी साथ ले जा रही हूँ। मुझे माफ़ करना मेरी प्यारी वृंदा। 

“अपने पति से भी मेरी तरफ़ से क्षमा माँग लेना, मेरा आख़िरी नमस्कार कहना। हे मेरी प्यारी देव-दूत मेरा यह आख़िरी नमस्कार स्वीकार कर, मुझे भुला दो हमेशा के लिए। नहीं तो याद कर करके तुम रोओगी। मेरी आत्मा भी तुम्हारे आँसुओं पर आँसू बहाने लगेगी। अब आँसू पोंछ लो मेरी प्यारी-प्यारी बड़ी बहन वृंदा . . .।” 

लेकिन वृंदा के आँसू बरसते रहे . . .

5 टिप्पणियाँ

  • बहुत संवेदनशील कथा जिसका सिरा एक बार पकड़ में आ गया तो उसके साथ यात्रा करना इतना ज़रूरी लगता है जैसे आगे कदम न बढ़ाया तो न जाने कहाँ भटक जाएंगे। इतनी लंबी कथा को बिना गाँठ या पैच लगाए विभिन्न सतहों पर लेकर सरलता से आगे बढ़ाने के लिए आपको साधुवाद!

  • 15 Aug, 2022 09:28 AM

    साहित्य को एक नई दिशा देने वाली एक मार्मिक कहानी

  • 14 Aug, 2022 08:29 PM

    इस तरह की कहानी लिखना अपने आप में एक बहुत बड़ा और सार्थक प्रयास है l इतनी लंबी कहानी की बनावट और बुनावट बहुत ही मुश्किल काम है l भावों की अभिव्यक्ति, वैचारिक धरातल, अवचेतन मन में चलने वाली तरंगें, इस कहानी को अत्यंत ही रोचक बनाती हैं l प्रदीप श्रीवास्तव एक ऐसे साहित्यकार हैं जो अभिव्यक्ति के जादूगर की तरह लिखते हैं l इस प्रकार की साहित्यिक रचना को विश्व पटल पर स्थान मिलना ही चाहिए l मैं प्रदीप श्रीवास्तव जी की रचना धर्मिता का हृदय से प्रशंसा करता हूं l

  • 7 Aug, 2022 12:29 AM

    कहानी पढ़ी, ज्वलंत समस्या को उठाया है। हेलेन केलर की याद के साथ एक हिन्दी फिल्म जिसमें अमिताभ बच्चन ने ट्रेनर की भूमिका निभायी थी, याद आ गयीं। मर्मस्पर्शी कथा.

  • 4 Aug, 2022 03:07 PM

    दिल को झंझोड़ देने वाली यह रोचक कहानी पढ़कर दिमाग कह रहा है कि यह काल्पनिक है, परंतु दिल कह रहा है कि यह किसी नर्स की सच्ची लेकिन अद्भुत जीवनी है...केवल अंत को छोड़कर। पूरी रिसर्च सहित किसी रचना को प्रस्तुत करना लेखक का कड़ा परिश्रम दर्शता है। साधुवाद।

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