बस नमक ज़्यादा हो गया

01-11-2021

बस नमक ज़्यादा हो गया

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 192, नवम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

उसके माँ-बाप कभी नहीं चाहते थे कि वह स्कूल-कॉलेज या कहीं भी खेल में हिस्सा ले। लेकिन वह हिस्सा लेती, अच्छा परफ़ॉर्म करके ट्रॉफी भी जीतती । और माँ-बाप बधाई, आशीर्वाद देने के बजाय मुँह फुला कर बैठ जाते थे। कॉलेज पहुँची तो यह धमकी भी मिली कि पढ़ना हो तो ही कॉलेज जाओ, खेलना-कूदना हो तो घर पर ही बैठो।

लेकिन वह कॉलेज में चुपचाप पढ़ती और खेलती भी रही। धमकी ज़्यादा मिली तो उसने भी माँ से कह दिया कि, "कहो तो घर में रहूँ या छोड़ दूँ। दुनिया खेल रही है। मेरे खेलने से आख़िर ऐसी कौन सी बात हो जाएगी कि, पहाड़ टूट पड़ेगा। मैं सीरियसली खेल ही रही हूँ और बहुत सी लड़कियों की तरह बॉयफ़्रेंड की लिस्ट नहीं लंबी कर रही हूँ। कॉलेज कट कर उनके साथ मौज-मस्ती तो नहीं कर रही हूँ।"

माँ को उसकी बातें ज़बानदराज़ी लगी। उन्होंने अपने को अपमानित महसूस किया और युवा बेटी पर हाथ उठाने से नहीं चूकीं। लेकिन उसने मार खाने के बाद और भी स्पष्ट शब्दों में कह दिया, "यह पहली और आख़िरी बार कह रही हूँ कि, आज के बाद अगर मुझे रोका या मारा गया तो मैं उसी समय हमेशा के लिए घर छोड़ दूँगी। आप या पापा इस कंफ्यूज़न में नहीं रहें कि, मैं मार या गाली से मान जाऊँगी।

“मैं आपके हर सपने को आपके हिसाब से पूरी करने की कोशिश कर रही हूँ। लेकिन साथ ही मेरा भी एक सपना है, जिसे मैं पूरा करूँगी, ज़रूर करूँगी। मैं उसे ही पूरा करने की कोशिश कर रही हूँ। इससे आप लोगों की इज़्ज़त बढ़ेगी ही घटेगी नहीं। पैसे भी बरस सकते हैं। मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर रही हूँ कि, आप लोगों को कहीं भी नीचा देखना पड़े। इसके बावजूद आप लोगों को मुझसे परेशानी है, आप नहीं मानते हैं तो ठीक है। मुझे लगता है कि, इस घर में रहकर मैं कुछ नहीं कर पाऊँगी। इसलिए मैं इसी समय घर छोड़कर जा रही हूँ।"

इतना कहकर उसने अपने कपड़े व ज़रूरी सामान समेटने शुरू कर दिए। उसके हाव-भाव से माँ को यह यक़ीन हो गया कि इसे यदि नहीं रोका गया तो यह निश्चित ही घर छोड़कर चली जाएगी। दुनिया में नाक कट जाएगी। और इसके हाव-भाव साफ़-साफ़ बता रहे हैं कि, यह रुकेगी तभी जब इसे खेलने से ना रोका जाए। चलो यही सही, रुकेगी तो किसी तरह। खेल रही है तो चलो बर्दाश्त करते हैं। इससे कम से कम नाक तो नहीं कटेगी। समझाऊँगी कि बस कपड़े अपने शरीर के हिसाब से पहना करो। ज़रूरी नहीं है कि खुले-खुले कपड़े पहनकर ही खेल पाओगी।

अब बड़ी हो गई हो यह अच्छा नहीं लगता। वह जितनी जल्दी-जल्दी अपने सामान इकट्ठा कर रही थी, माँ उतनी ही तेज़ी से हिसाब-किताब करके बनावटी हेकड़ी दिखाती हुई बोली, "अच्छा ज़्यादा दिमाग़ ख़राब ना कर। चल जा सामान जहाँ था वहीं रख। जो खेलना-कूदना है, स्कूल में ही खेल लिया करना। मोहल्ले की पार्क में उछल-कूद करने की ज़रूरत नहीं है।" उसको भी अम्मा की बात और उसके भाव को समझने में देर नहीं लगी। उसने सोचा चलो जब परमिशन मिल गई है तो घर छोड़ने का अब कोई कारण बचा नहीं है।

घर छोड़कर पढ़ाई, खेल के साथ-साथ खाने-पीने रहने का भी इंतज़ाम करना पड़ेगा। यह सब हो तभी पाएगा जब नौकरी करके पैसा कमाऊँगी। एक साथ यह सब कर पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसा ना हो कि नौकरी के चक्कर में मेरा जो उद्देश्य है, वही पीछे छूट जाए। मेरा सपना पाला छूने से पहले ही दम तोड़ दे। कबड्डी दम या ताक़त का खेल है तो, ज़िंदगी को चलाना भी दम का ही खेल है। और यह दम मिलता है पैसे से। आज के ज़माने में पैसा कमाना सबसे ज़्यादा दम का काम है।

यह सोचकर उसने सारा सामान जहाँ से उठाया था वहीं रख दिया, एक आज्ञाकारी छात्रा की तरह। लेकिन पापा की याद आते ही उसने कहा, "अम्मा तुमने तो परमिशन दे दी लेकिन पापा ने ना दी तो बात तो वहीं की वहीं रहेगी।" उसने सोचा था कि अब तो अम्मा असमंजस में पड़ जाएँगी, कहेंगी कि शाम को जब आएँगे तब पूछा जाएगा। लेकिन उसका अनुमान ग़लत निकला। अम्मा तड़कती हुई बोलीं, "जब मैंने बोल दिया है तो पापा-पापा क्या लगा रखा है। कह दूँगी कि खेलने के लिए मैंने कहा है।" अम्मा के रुख़ से वह समझ गई कि अब उसके लिए कोई दिक़्क़त नहीं है। पापा अगर चाहते भी और अम्मा ना चाहतीं तो यह हो ही नहीं पाता। अम्मा मान गईं तो अब कोई रुकावट आ ही नहीं सकती।

उसका अनुमान सही था। शाम को ऑफ़िस से आने के बाद चाय-नाश्ता रात का खाना-पीना सब हो गया। लेकिन अम्मा ने बात ही नहीं की तो वह बेचैन होने लगी। जब सोने का टाइम हुआ तो उसने सोचा कि, अम्मा को याद दिलाए, कहीं वह भूल तो नहीं गईं। वह याद दिलाने के लिए अम्मा के पास जाने को उठी ही थी कि, तभी उन्होंने बड़े संक्षेप में उसके पापा से इतना ही कहा, "सुनो ऑरिषा खेलने की ज़िद कर रही थी तो मैंने कह दिया ठीक है खेल लिया करो, लेकिन मोहल्ले में नहीं। अब यह कल से क्लास के बाद प्रैक्टिस करके आया करेगी। तुम ऑफ़िस से आते समय इसे जाकर देख लिया करना। हो सके तो साथ में लेकर आया करना। टेंपो-शेंपो से आने में बड़ी देर हो जाती है।"

ऑरिषा ने देखा अम्मा ने जल्दी-जल्दी अपनी बात पूरी की और किचन की ओर चली गईं। उनके हाव-भाव से यह क़तई नहीं लग रहा था कि उन्हें पापा की किसी प्रतिक्रिया की कोई परवाह है। एक तरह से उन्होंने अपने शब्दों में उन्हें अपना आदेश सुनाया, इस विश्वास के साथ कि उनके आदेश का पालन होना अटल है। ऑरिषा अम्मा से ज़्यादा पापा को देखती रही कि अम्मा के आदेश को वह किस रूप में ले रहे हैं। उनके हाव-भाव से वह आसानी से समझ गई कि पापा ना चाहते हुए भी वह सब करने को तैयार हैं जो अम्मा ने कहा है। साथ ही उसके दिमाग़ में यह बात भी आई कि पापा के आने से सबसे अच्छा यह होगा कि, कोच आए दिन कोचिंग के नाम पर जो-जो बदतमीज़ियाँ किया करता है वह बंद हो जाएँगी। बाक़ी फ़्रेंड्स से भी कहूँगी कि वह भी अपने-अपने पेरेंट्स को बुलाएँ। रोज़ आधे भी आने लगेंगे तो वह एकदम सही हो जाएगा। बेवज़ह ऐसी-ऐसी जगह टच करता है जहाँ टच करने का कोचिंग से कोई लेना-देना ही नहीं है। जानबूझकर देर तक रोकता है। आधे घंटे कोचिंग देता है तो दो घंटे बदतमीज़ी करता है।

टीचर से कहो तो सुनती ही नहीं। उल्टा ही ब्लेम करने लगती हैं, "शॉर्ट्स पहन कर कबड्डी खेलोगी तो क्या बिना टच किए ही कोचिंग हो जाएगी।" गुड-बैड टच को दिमाग़ी फ़ितूर कहती हैं। प्रिंसिपल के पास जाओ तो स्कूल से ही बाहर करने की धमकी कि, "तुम लोग अपनी बेवकूफ़ियों से कॉलेज बदनाम करती हो।" कोच की बटरिंग के आगे वह बोल ही नहीं पातीं।

अगले दिन कॉलेज ग्राउंड में पापा को देखकर उसे बड़ी ख़ुशी हुई थी। उसका ज़ोश दोगुना हो गया था। उसने कॉलेज की ही दो टीमों के बीच फ़्रेंडली मैच में बहुत ही अच्छे-अच्छे मूव किये। चलते समय उसने जानबूझकर पापा का इंट्रोडक्शन कोच से करवाया। जिससे उसे इस बात का एहसास करा सके कि उसके पेरेंट्स उसका पूरा ध्यान रखते हैं। उसके साथ हैं, पूरा समय देते हैं।

रास्ते में उसने पापा से बात करने की कोशिश की। अपनी ख़ुशी व्यक्त करनी चाही, लेकिन वह चुप रहे। उन्होंने कोई उत्साह नहीं दिखाया। ऑरिषा को दुख हुआ कि, आज के पेरेंट्स स्पोर्ट्स में अपने बच्चों की सक्सेस पर कितना ख़ुश होते हैं। और एक मेरे पेरेंट्स हैं कि, बोलते ही नहीं, दुखी होते हैं। ग़ुस्सा होते हैं। ना चाहते हुए भी खेलने सिर्फ़ इसलिए दे रहे हैं कि, मैं घर छोड़ने लगी। आज प्रोविंस लेवल के टूर्नामेंट के लिए टीम में मेरा सलेक्शन कर लिया गया। कोच ने ख़ुद बताकर बधाई दी पापा को। कितना जोश से हाथ मिलाते हुए कहा, "आपकी बेटी बहुत अच्छी प्लेयर है। यह ऐसे ही मेहनत करती रही तो मेरी कोचिंग से यह नेशनल टीम में भी सलेक्ट हो जाएगी। आप बहुत ही लकी हैं।" लेकिन पापा ने उनकी बात पर कैसे एक फीकी, ज़बरदस्ती की मुस्कान के साथ हाथ मिलाया था।

ऑरिषा ने सोचा घर पर यह बात अम्मा को पापा बताएँगे तो अच्छा होगा। देखते हैं वह ख़ुश होती हैं, बधाई देती हैं, आशीर्वाद देती हैं या फिर पापा के ही पीछे-पीछे चलती हैं। लेकिन उसे घर पर बड़ी निराशा हाथ लगी। पापा ने इस बारे में कोई बात करना तो छोड़ो, वह इस तरह विहेव करते रहे, चाय-नाश्ता, खाना-पीना, टीवी देखने में व्यस्त रहे जैसे कि वह उसे लेने गए ही नहीं थे। वह उनके साथ आई ही नहीं। उन्हें कोच ने कुछ बताया ही नहीं
उसे भी ग़ुस्सा आ गया। उसने सोचा कि अम्मा को बताऊँगी ही नहीं। बताने का क्या फ़ायदा, लेकिन यह भी तो ठीक नहीं होगा। यह सोचकर उसने कोच की, अपने सलेक्शन की सारी बातें अम्मा को बताईं। लेकिन उन्होंने भी पलट कर एक शब्द नहीं कहा। वह बहुत ही आहत हुई कि यह कैसे माँ-बाप हैं। इन्हें अपनी बेटी की किसी भी सक्सेस से कोई ख़ुशी ही नहीं मिलती। लेकिन मैं भी हर हाल में इतना आगे जाऊँगी कि इन्हें ख़ुशी हो। यह हँसे, मुझे आशीर्वाद दें, इसके लिए मुझे आगे जाना है। आगे और आगे सबसे आगे जाना ही है।

ऑरिषा खेलती रही और उसकी पढ़ाई भी चलती ही रही। उसकी कोशिशों से उसके बहुत से फ़्रेंड्स के पेरेंट्स या भाई भी लेने आने लगे। इससे कोच की आपत्तिजनक कुचेष्टाओं पर अंकुश लग गया। मगर उसके पापा एक चुप हज़ार चुप ही बने रहे। एक ज़बरदस्ती की नौकरी करने की तरह उसे लेकर आते-जाते रहे। बातचीत करने के उसके सारे प्रयासों के बावजूद उसके सामने माँ-बाप चुप ही रहते। अंततः राष्ट्रीय टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए दिल्ली जाने का समय आ गया।

उसे कुछ पैसों, कुछ और कपड़ों, सामान की ज़रूरत थी। कहने पर माँ ने मौन व्रत धारण किए-किए ही सारी चीज़ें उसको उपलब्ध करा दीं। टूर्नामेंट में उसकी टीम रनर-अप रही। सिल्वर ट्रॉफी, न्यूज़पेपर्स में निकली न्यूज़ की कटिंग्स के साथ वह घर पहुँची। इस विश्वास के साथ कि इस बार अम्मा-पापा दोनों मौन व्रत तोड़ेंगे, मुस्कुराएँगे, बधाई देंगे, लेकिन नहीं। दोनों लोगों का मौन व्रत चालू रहा। वह मायूसी के साथ अपने कमरे में चली गई। उसने सोचा ऐसा कहीं और किसी के साथ होता है क्या? करीब दस घंटे की लंबी यात्रा की थकान के बावजूद वह बहुत देर रात तक सो नहीं सकी।

बस में बैठे-बैठे यात्रा करने के चलते वह कमर में दर्द भी महसूस कर रही थी। मगर किससे कहे अपनी पीड़ा। अम्मा-पापा तो मुँह फुलाए कब का अपने कमरे में सोने चले गए थे। दर्द से ज़्यादा परेशान होने पर उसने अपनी स्पोर्ट्स किट से पेनकिलर स्प्रे निकाल कर स्प्रे किया। तभी उसे याद आया कि यह जर्नी से नहीं बल्कि खेल के समय लगी चोट के कारण है। उपेक्षा के कारण उसने खाना भी थोड़ा बहुत ज़बरदस्ती ही खाया था। भूख लगी होने के बावजूद उसे पूरा खाने का मन नहीं हुआ। अगली सुबह उसने उन सारी बातों को तिलांजलि दे दी, जिससे उसे मायूसी मिल रही थी, निराशा मिल रही थी। उसने पूरा फ़ोकस अपने सपने, अपने खेल पर कर दिया।

अम्मा-पापा के लिए यह स्पष्ट सोच लिया कि आख़िर माँ-बाप हैं। एक दिन जब बहुत बड़ी स्टार प्लेयर बन जाऊँगी, जब दुनिया सिर आँखों पर बिठाएगी। जब पैसा चारों ओर से बरसने लगेगा तो इनका मौन व्रत भंग हो जाएगा। अंततः यह ख़ुश होंगे ही। इनकी इस बेरुख़ी, उपेक्षा को ही अपनी एनर्जी बना लेती हूँ। इसी एनर्जी के सहारे मैं आगे बढ़ती रहूँगी। अगले चार साल में वह नेशनल लेवल की स्टार प्लेयर बन गई। तब उसे महसूस हुआ कि उसके माँ-बाप का मौन व्रत अब जाकर थोड़ा कमज़ोर पड़ा है।

मगर उसे इस बात का मलाल बना रहा कि यदि वह गुटबाज़ी, राजनीति का शिकार ना होती तो अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भी खेलने पहुँच गई होती। ऊँची पहुँच की कमी का परिणाम था कि, जो प्लेयर प्रोविंस लेवल पर भी खेलने के क़ाबिल नहीं थीं वह अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खेल आईं। और वह केवल अपनी अदम्य इच्छाशक्ति, अपने ज़बरदस्त खेल के कारण राष्ट्रीय टीम में बनी रह सकी बस। यदि उसके पापा भी उसके लिए ग़लत नहीं फ़ेयर फ़ेवर की कोशिश करते तो शायद वह भी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट खेलती।

कई खिलाड़ियों की तरह उसने जब इस बात को गंभीरता से महसूस किया कि अन्य कई खेलों की तरह यह खेल भी उपेक्षित है, न अपेक्षित पैसा है, न पब्लिसिटी है तो उसने नौकरी करने की ठानी। सोचा इससे कई मौक़ों पर पैसों की तंगी को महसूस करने से मुक्ति तो मिलेगी। बाक़ी रहा खेल तो जैसे चल रहा है चलता रहेगा। उसे क़रीब दो साल की जी-तोड़ कोशिश के बाद स्पोर्ट्स कोटे के चलते पुलिस विभाग में नौकरी मिल भी गई। नौकरी की बात उसने पेरेंट्स से शेयर नहीं की। सोचा कोई फ़ायदा नहीं, क्योंकि उनका मौन व्रत कुछ कमज़ोर ही हुआ है, ख़त्म नहीं। लेकिन एक बार फिर उससे रहा नहीं गया तो दो दिन बाद उसने उन्हें बता कर आशीर्वाद माँगा, तो वह उसे मिला मगर बड़े ही कमज़ोर शब्दों में। उसने महसूस किया कि नौकरी ने दोनों लोगों का मौन व्रत थोड़ा और कमज़ोर किया है। यह व्रत उसे तब बहुत कमज़ोर लगा जब प्रशिक्षण के लिए जाते समय उसने चरण-स्पर्श कर आशीर्वाद माँगा। तब माँ-बाप दोनों ही लोगों ने क़रीब सात वर्ष के बाद सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।

सबसे पहले पिता आए फिर माँ उनके पीछे-पीछे। वह ख़ुशी के आँसू लिए किसी छोटी बच्ची सी पिता के साथ चिपक गई। तब उन्होंने आशीर्वाद देते हुए उसे अपनी बाँहों में भरकर कहा, "ख़ुश रहो बेटा। बेटी नहीं तुम बेटा से बढ़कर मेरा नाम बड़ा कर रही हो। इस घर को यश-कीर्ति की ज्योति से जगमग कर तुम हमारा जीवन सफल बना रही हो। हमें अँधेरे से आख़िर तुमने निकाल ही लिया, नहीं तो हम अँधेरे में, अँधेरा ही लिए समाप्त हो जाते।" उनकी आँखें और गला दोनों ही भरे हुए थे। और माँ भी ख़ुशी के मारे सारे मौन व्रत तोड़ चुकी थी लेकिन अतिशय ख़ुशी के कारण उनके शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे। लग रहा था आँखों से जो आँसू निकल रहे थे, सारे शब्द मानो उसी में घुल कर बहे जा रहे थे।

उसने दोनों को एक साथ बाँहों में भर लिया और कहा, "मैं जो भी कर पाई आप दोनों के आशीर्वाद और सहयोग से ही कर पाई। अगर आप दोनों पैसे वग़ैरह से लेकर और सारी चीज़ें उपलब्ध नहीं कराते तो मैं शायद यह सब कर ही नहीं पाती। पापा आज आपको एक सच बता रही हूँ कि, अम्मा के कहने पर आप अगर रोज़ मुझे लेने ना पहुँच रहे होते तो, या तो मेरा खेल कॅरियर शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो चुका होता या फिर मैं कोच के द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार बनती रहती । मेरा कॅरियर इसके बावजूद बर्बाद ही होता।

“इतना ही नहीं पापा आप के चलते बाक़ी लड़कियाँ भी बच पाईं। मैं सबको आपका एग्ज़ांपल देकर उन पर प्रेशर बनाती थी कि, वह भी अपने पेरेंट्स को ज़रूर बुलाएँ। इस कोशिश के चलते सभी के पेरेंट्स आने लगे। क्योंकि सारी लड़कियाँ उससे परेशान थीं। जब हम टूर्नामेंट खेलने जाते थे तो वह वहाँ भी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आता था। लेकिन हम सब इतने अलर्ट रहते थे कि, उसकी एक भी नहीं चल पाई। इसलिए सारा क्रेडिट आप दोनों को ही जाता है।"

उसकी बातों ने माँ-बाप को और भी ज़्यादा भावुक कर दिया। उनके आँसू बह चले। पापा इतना ही बोल सके कि, "हम बातों को बड़ी देर से समझ पाए बेटा। अब तो तुम एसआई बन चुकी हो। उस बदतमीज़ को सीखचों के पीछे अवश्य पहुँचाना। ऐसे गिरे हुए इंसान को सज़ा मिलनी ही चाहिए, जो अपने बच्चों के समान बच्चियों के लिए ऐसी गंदी सोच रखता था, कोशिश करता था।"

"मैं ज़रूर कोशिश करूँगी पापा। लेकिन क़ानून की भी अपनी सीमाएँ हैं। जब-तक कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाएगा, शिकायत नहीं करेगा तब-तक हम उस पर कोई कार्यवाही नहीं कर पाएँगे।"

"तो क्या तुम ख़ुद नहीं लिखा सकती।"

"मैं भी लिखा सकती हूँ पापा। ट्रेनिंग पूरी करके एक बार जॉब में आ जाऊँ पूरी तरह से तब मैं उसे छोड़ूँगी नहीं।"

ऑरिषा को तब और बड़ा धक्का लगा जब प्रशिक्षण के दौरान भी कोच जैसे कई लोग उसे मिले। लेकिन पहले ही की तरह वह इन सबको भी उनकी सीमा में रखने में क़ामयाब रही। मगर जब कुएँ में ही भाँग गहरे घुली हुई है, तो उसे जो पहली तैनाती मिली वहाँ उसका इमीडिएट बॉस इंस्पेक्टर भी कोच के जैसा ही आदमी मिला।

थाने की हर महिला एम्प्लॉई को वह अपनी रखैल समझता था। सबको उसने कोई ना कोई नाम दे रखा था। ऑरिषा को वह उसके गोरे रंग के कारण चुनौटी कहता था। हर समय लिमिट क्रॉस करने का प्रयास करता था। एक बार फिर से वह कॉलेज और प्रशिक्षण सेंटर की तरह यहाँ भी सभी लेडीज़ स्टॉफ़ की सिक्युरिटी शील्ड बन गई। इंस्पेक्टर उससे दोस्तों की तरह बात करता था। हँसी-मज़ाक के बहाने कभी-कभी बहुत ही आगे बढ़ने का प्रयास करता था। कहता, "तू मेरी चुनौटी, मैं तेरा सुर्ती, दोनों को रगडे़ंगे तो ख़ूब मज़ा आएगा।" ऐसे समय में वह यह भूल जाती थी कि वह उसका सीनियर है।

वह बिंदास होकर गाली बकती हुई कहती, "अबे घर वाली चुनौटी सँभाल नहीं तो, कोई दूसरा सुर्ती रगड़ के मज़ा ले लेगा।" यह कहकर वह ठहाका लगाकर हँसती ज़रूर। उसके साथ बाक़ी लोग भी ख़ूब मज़ा लेते। जल्दी ही दोनों चुनौटी सुर्ती के नाम से चर्चित भी हो गए। असल में ऑरिषा प्रशिक्षण के समय ही गाली-गलौज में पारंगत हो गई थी। उसकी झन्नाटेदार गालियाँ बड़े-बड़े, गालीबाज़ों को भी झनझना कर रख देती थीं। माँ-बहन की गालियाँ उसकी तकिया-कलाम बन चुकी थीं।

उसने ख़ुद भी ऐसी तमाम गालियाँ गढ़ी थीं, जो पुरुष वर्ग को तीर सी चुभती थीं। आए दिन इसके चलते उसकी किसी ना किसी से बहस हो जाती थी। जब उसकी संगी-साथी कहतीं, "जिससे तू शादी करेगी उसके लिए तुझे खाना बनाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। उसका पेट तेरी गालियों से ही हमेशा भरा रहेगा।" तो वह हँसकर कहती, "घबराओ मत, मैं ऐसे से शादी करूँगी जिसे गाली देने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी। उसका पेट मैं देसी हार्मलेस पिज़्ज़ा, चोखा-बाटी से ही भरे रहूँगी।"

उसकी माँ ने प्रशिक्षण के समय ही उससे पूछ लिया था कि, "बेटा तू जैसा कॅरियर चाहती थी वह बना लिया है। शादी की उम्र हो गई है। तू कहे तो तेरे लिए कोई अच्छा सा लड़का देखना शुरू करूँ।" साथ ही माँ ने बहुत स्पष्ट पूछा था, "अगर तुमने कहीं देख लिया है तो वह भी बता दो। मैं उसी से ही कर दूँगी। समय से सारा काम हो जाए तो बहुत अच्छा रहता है।"

उसने कभी सोचा ही नहीं था कि, अम्मा ऐसे साफ़-साफ़, सीधे-सीधे पूछ लेंगी। इसलिए कुछ देर तो उन्हें देखती ही रह गई। फिर उसने भी अम्मा के ही अंदाज़ में साफ़-साफ़ कहा, "अम्मा सच-सच कहूँ, ना मैंने कहीं देखा है, ना ही मैं कहीं देख़ूँगी। क्योंकि मैं मानती हूँ कि ऐसे देखा-देखी के बाद होने वाली शादी का कोई चार्म ही नहीं रहता और मैं हर जगह चार्म ढूँढ़ती हूँ। इसलिए तुम ही ढूँढ़ो, जहाँ कहोगी वहीं करूँगी।"

अम्मा ने उससे थोड़े आश्चर्य के बाद कहा, "लेकिन बेटा कम से कम अपनी पसंद के बारे में तो बता ही दो। इससे मुझे ढूँढ़ने में बहुत आसानी होगी। सही मायने में वैसा लड़का ढूँढ़ पाऊँगी जैसा तुम चाहती हो। जिसमें तुम्हें तुम्हारी पसंद का चार्म मिल सके।"

उसने मुस्कुराते हुए बहुत साफ़-साफ़ फिर कहा, "अम्मा मेरी पसंद-नापसंद सब समझती हो, जानती हो फिर भी कह रही हो तो ठीक है सुनो।"

इसी के साथ उसने चंद शब्दों में अम्मा को अपनी पसंद-नापसंद सब बता दी। जिसे सुनकर वह कई बार हँसी, फिर बोलीं, "सच बेटा, तू तो बहुत ही स्मार्ट है। मैं तो इतनी एज के बाद भी यह सब सोच ही नहीं पाई। तुम हमारी उम्मीदों से भी बहुत आगे हो बेटा। मैं एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दूँगी। भगवान से प्रार्थना करूँगी कि, तेरे मन का लड़का ढूँढ़ने में मैं जल्दी से जल्दी सफल हो जाऊँ।"

सच में जब वह सफल हुईं तब-तक ऑरिषा को नौकरी करते हुए डेढ़ साल ही बीता था। उसके अम्मा-पापा के पैर सातवें आसमान पर थे कि लड़की ने जैसा चाहा था वह बिल्कुल वैसा ही लड़का ढूँढ़ने में सफल रहे। भगवान को कृपा करने के लिए वह दिन भर में सैकड़ों बार धन्यवाद देते रहे। और तैयारियाँ करते रहे। शादी से चार दिन पहले ऑरिषा कार्ड लेकर थाने पहुँची कि, लहगर इंस्पेक्टर को भी कार्ड देकर इंवाइट करे। उसे चिढ़ाएगी कि तेरी चुनौटी तो जा रही है। एक दमदार ख़ास सुर्ती के साथ शादी करके। अब तू अपनी सुर्ती के साथ चिल्ला चुनौटी-चुनौटी। लेकिन थाने पहुँचकर उसे निराशा हाथ लगी। इंस्पेक्टर छुट्टी पर था।

उसकी साथी ने उसे बताया कि, "उसके साले की शादी है, आज शाम वह ससुराल जा रहा है। तैयारियों के चलते आया ही नहीं।" यह सुनकर उसे ख़ुराफ़ात सूझी। उसने साथी से कहा, "चल उसको परेशान करते हैं। उसकी चुनौटी को देखते हैं। कार्ड देना ही है।"

साथी को लेकर वह स्कूटर से ही इंस्पेक्टर के घर पहुँची । वह तैयारियों में उलझा हुआ मिला। उसे देखते ही वह बोला, "अरे तुम यहाँ, क्या बात है? सब ठीक तो है ना?"

इंस्पेक्टर की शालीनता देखकर उसने एक बार अपनी साथी को देखा फिर पूरा प्रोटोकॉल मेंटेन करते हुए कहा, "यस सर। ठीक है। मैं आपको अपनी शादी में आने के लिए इंवाइट करने आई हूँ।"

यह कहते हुए उसने कार्ड आगे कर दिया। उसकी बात सुनते ही इंस्पेक्टर ने कहा, "शादी!" फिर ख़ुश होते हुए कार्ड लेकर उससे हाथ मिलाया, बधाई दी और कार्ड देखने लगा।

तभी ऑरिषा ने कहा, "सर चुनौटी अपने सुर्ती के साथ चार दिन बाद चली जाएगी।" उसकी बात सुनते ही वह ठहाका लगाकर हँस पड़ा। वह मौक़ा चूकना नहीं चाहती थी। इसलिए तुरंत कहा, "सर अपनी चुनौटी से मेरा मतलब कि भाभी जी से नहीं मिलवाएँगे क्या?"

यह सुनते ही उसने एक नज़र उस पर डालकर कहा, "बैठो अभी मिलवाता हूँ।"

उसके जाते ही साथी ने उससे कहा, "यार यह तो लग ही नहीं रहा है कि वही लहगर इंस्पेक्टर है, जो स्टॉफ़ की किसी भी महिला के साथ लफंगई करने से बाज़ नहीं आता। कितना जेंटलमैन बना हुआ है।"

तभी इंस्पेक्टर बीवी के साथ आ गया। दोनों ने एक साथ उनके सम्मान में उठकर उन्हें नमस्कार किया। वह भी उन दोनों को बहुत हँसमुख और मिलनसार लगीं।

ऑरिषा ने चाय-नाश्ते की फ़ॉर्मेलिटी के लिए उन्हें यह कहते हुए मना कर दिया कि, "अभी कई जगह जाना है, देर हो जाएगी। आपको भी तैयारियाँ करनी हैं, इसलिए चलती हूँ।" गेट पर चलते-चलते उसने कहा, "चलती हूँ सर, चुनौटी की शादी में भाभी जी को लेकर ज़रूर आइएगा।"

वह हँसते हुए बोला, "ज़रूर आऊँगा, लेकिन अकेले ही क्योंकि मिसेज़ एक हफ़्ते के बाद आएँगी। मैं तो दूसरे दिन ही चला आऊँगा।"

"थैंक्यू यू सर। यदि परमिशन हो तो एक बात पूछूँ।"

"पूछो, ऐसी कौन सी बात है।"

"सर ऑफ़िस में तो आप, आप नहीं रहते। यहाँ तो लग ही नहीं रहा कि आप वही हैं जो ऑफ़िस में दिनभर गाली से ही बात, काम सब करते हैं।"

इंस्पेक्टर ने गहरी साँस लेकर कहा, "देखो यही तो घर और ऑफ़िस का फ़र्क़ है। घर, घर ही बना रहे, इसलिए यह फ़र्क़ रखना मैं ज़रूरी समझता हूँ। और सभी समझदार लोग यही करते हैं। तुम भी जिस तरह ड्यूटी ऑवर्स में विहेव करती हो, क्या तुम्हारा वही विहेवियर घर पर भी रहता है, निश्चित ही नहीं। और तुम तो शादी चार्टर्ड अकाउंटेंट से कर रही हो। तुमने भी यदि यह डिफ़रेंस मेंटेन नहीं रखा तो अपने लिए प्रॉब्लम खड़ी कर लोगी।"

ऑरिषा इस मुद्दे पर उससे यह बहस करना चाहती थी कि, यही डिफ़रेंस जनता के बीच पुलिस विभाग को बदनाम किए हुए है। जो विहेवियर अपने लिए चाहते हैं, जनता के साथ उसका उल्टा करते हैं। लेकिन समय को देखते हुए वह वापस चल दी। मगर यह तय कर लिया कि इस प्वाइंट पर वह इनसे बात तो ज़रूर करेगी।

रास्ते में उसकी साथी ने उससे कहा, "बड़ा घाघ है, ऑफ़िस में ख़ासतौर से हम लोगों से बदतमीज़ी की कोई भी ऐसी हद नहीं होती, जिसे यह पार न करता हो। आए दिन मेरे हिप पर धौल जमाते हुए कहता है, ’सिक्योरिटी टाइट है।’ तुम थोड़ी ढीली पैंट पहनती हो तो कहता है, ’इसकी सिक्योरिटी कब टाइट होगी?’”

साथी की बात सुनकर ऑरिषा ने कहा, "एक बात बताऊँ, जिस दिन इसने मेरे हिप को छू लिया ना, उस दिन इसे सींखचों के पीछे पहुँचा दूँगी। सिक्योरिटी वाक़ई टाइट कर दूँगी। तुमको भी सख़्ती से पेश आना चाहिए।"

"क्या करूँ नौकरी करनी है। कब-तक किस-किस से भिड़ूँगी। हम लोग तो बहुत निचली पोस्ट पर हैं। अपने यहाँ तो आईएएस ऑफ़िसर रूपन देओल बजाज और केपीएस गिल जैसे मामले तीसों साल पहले से होते आ रहे हैं। गिल सुप्रीम कोर्ट से ही कुछ सज़ा पाए थे। रूपन देओल बजाज जैसी तेज़-तर्रार महिला ऑफ़िसर की तमाम कोशिशों के बाद यह हो पाया था। वह बंद तब भी नहीं हुए थे। किसी आम आदमी का मामला होता तो वह सालों जेल में होता। ऐसे में हम लोग क्या कर पाएँगे?"

"बात निचली और ऊपरी पोस्ट की नहीं है। बात सिर्फ़ इतनी है कि हम अपने अधिकारों, अपने सम्मान को लेकर कितने अवेयर हैं, कितनी ज़ोर से अपोज़ कर सकते हैं बस। मैं सच कहती हूँ कि, मेरे साथ हरकत हुई तो मैं उसका इतने एक्स्ट्रीम लेवल पर अपोज़ करूँगी कि दुनिया देखेगी। तुझसे भी कहती हूँ कि, तू उसकी बदतमीज़ियों का अपोज़ कर। मैं तेरे साथ हूँ, हिला कर रख दूँगी साले को।"

"ठीक है यार, पहले तुम शादी करके आओ, तब सोचती हूँ इस बारे में। अच्छा एक बात बताओ, तू घर बाहर हर जगह ऐसे ही रहेगी तो सीए हस्बैंड को कैसे हैंडल करेगी?"

"उससे हमारा कोई डिफ़रेंस होगा ही नहीं तुम यह देख लेना। मैंने बहुत सोच-समझ कर सेम प्रोफ़ेशन में शादी नहीं की। इससे हमारे बीच प्रोफ़ेशन को लेकर कोई कंपटीशन नहीं होगा। तुम देखना हम-दोनों एक परफ़ेक्ट आयडल कपल होंगे। अच्छा तुम अब अपनी ड्यूटी देखो। शादी में आना ज़रूर।"

उसने साथी को थाने पर उतारते हुए कहा और घर आ गई। शादी के चार दिन बचे थे और काम बहुत था, लेकिन ऑरिषा के दिमाग़ में रूपन देओल बजाज, केपीएस गिल और ख़ुद उसको चुनौटी नाम देने वाला बॉस घूम रहा था। वह बार-बार यही सोच रही थी कि, इसे लाइन पर लाऊँगी ज़रूर।

सादगी से शादी करने के उसके लाख आग्रह के बावजूद उसके माँ-बाप बड़े धूम-धाम से शादी कराने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाये हुए थे। एक शानदार गेस्ट हाउस में शानदार सजावट, बारातियों के स्वागत की तैयारियाँ की थीं, और उसको यह सब बेवज़ह का तमाशा लग रहा था। होने वाले हस्बैंड से उसकी एंगेजमेंट के बाद से ही बात होती रहती थी। वह भी उसी के मूड का था।

लेकिन उसका मानना था कि, पेरेंट्स को उनके मन की करने देना चाहिए। हमें बीच में रुकावट नहीं बनना चाहिए। उसी ने उसको भी समझाया था कि, अपने विचार, अपनी इच्छा किसी पर हमें थोपनी नहीं चाहिए। जब बारात आई तो ऑरिषा ने देखा कि, आजकल के तमाम दूल्हों की तरह वह कुछ ख़ास सजा-धजा नहीं है। उससे ज़्यादा तो कई बाराती ही सजे हुए हैं।

एक चीज़ ने उसे बहुत परेशान कर दिया कि बाराती तय संख्या से करीब डेढ़ गुना ज़्यादा आए हुए हैं। वह डरने लगी कि, कहीं खाना-पीना कम ना पड़ जाए। सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त ना हो जाए। जयमाल के बाद से ही उसके कानों में तनाव भरी कुछ बातें पड़ने लगी थीं।

मंडप में शादी की तैयारियाँ चल रही थीं कि, बवाल एकदम बढ़ गया। तोड़-फोड़, मार-पीट जम-कर हो गई। कई लोग हॉस्पिटल पहुँच गए। शादी रुक गई। दूल्हे के नाराज़ फ़ादर, रिश्तेदार सबने कह दिया कि, अब यह शादी नहीं होगी। बारात वापस जाने लगी तो, उसके पापा और रिश्तेदारों ने लड़के के फ़ादर, कई रिश्तेदारों को बंधक बना लिया कि, नुक़सान की भरपाई करने के बाद ही जाने दिया जाएगा अन्यथा नहीं।

वह और दूल्हा दोनों ही हर संभव कोशिश करते रहे। सारे संकोच को दरकिनार कर मोबाइल से ही अपने अपनों को समझाते रहे। लेकिन दोनों किसी को यह समझाने में सफल नहीं हो पाए कि, जो हो गया उसे भूल कर अब शादी होने दी जाए। बाक़ी रही बात नुक़सान के भरपाई की, तो वह भी बैठ-कर समझ ली जाएगी।

मगर जड़वादियों की तरह दोनों ही पक्ष जड़ बने रहे, अड़े रहे और सवेरा हो गया मगर मामला जहाँ का तहाँ बना रहा। इसी बीच किसी के फोन करने पर पुलिस आ गई। इस समय तक यह फ़ाइनल हो गया था कि, यह शादी तो अब किसी भी सूरत में नहीं होगी। बस क्षतिपूर्ति का मामला सेटल होना है। ऑरिषा को पुलिस आने की सूचना मिली तो, वह समझ गई कि, वही सुर्ती ही आया होगा। इस शादी के टूटने पर अब वह ऑफ़िस में उसे और परेशान करेगा।

वह जिस कमरे में थी वहाँ सामान वग़ैरह कुछ रिश्तेदार महिलाएँ और अम्मा थीं। कई रिश्तेदारों का बराबर आना-जाना लगा हुआ था। सब तनाव और तैश में थे। और वह स्वयं बहुत दुखी और ग़ुस्से में थी, सोच रही थी कि, अब हर जगह उसकी बेइज़्ज़ती होगी। उसके सारे सपने टूट गए।

अपने होने वाले पति के साथ ना जाने कितनी बार फोन पर, कई बार मिलने पर कितनी-कितनी, कैसी-कैसी क्या सारी ही तरह की बातें तो दोनों के बीच होती रही थीं। कब से तो पति-पत्नी जैसे ही दोनों विहेव कर रहे थे। कितने ख़ूबसूरत सपने दोनों ने बुने थे। अब उसे जीवन में ऐसा भला इंसान कहाँ मिलेगा। उनका भी तो कितना मन टूट रहा होगा। कैसे भूल पाएँगे दोनों एक दूसरे को। कम से कम मेरे दिल से तो अब वह कभी नहीं निकलेंगे। चाहे आगे कभी किसी से भी शादी हो जाए।

अवसर मिला तो इन उजड्डों को मैं छोड़ूँगी नहीं। मूर्खों ने हम-दोनों के सुनहरे सपनों पर पानी नहीं नमक फेरा है। जो हमें नमक की हांडी की तरह ही गलाता रहेगा। काश जाने से पहले यह किसी तरह मिल लेते तो आख़िरी बार ही सही मेरी तरफ़ से जो गलतियाँ हुईं, कम से कम उनके लिए सॉरी तो बोल दूँ।

बहुत व्याकुल होकर उसने फोन उठाया कि, नहीं मिल पा रहे हैं तो कोई बात नहीं। एक बार फोन ही कर लेती हूँ। उसने मोबाइल उठाया ही था कि, तभी उन्हीं का फोन आ गया और उसने घनघोर घटाओं में कौंधी बिजली की तेज़ी से कॉल रिसीव कर ली।

हेलो बोलते ही उधर से बड़े स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा, "ऑरिषा मैं अपनी तुम्हारी शादी की आधी रस्में हो जाने के बाद मूर्खों की मूर्खता के चलते शादी को ख़त्म करने के पक्ष में नहीं हूँ। इसलिए मैं इन-दोनों लोगों से अपने रिश्ते अभी के अभी ख़त्म करता हूँ, और तुम जहाँ हो, जिस हाल में हो तुरंत वैसी ही हालत में बाहर गेट पर आ जाओ। मैं कार के पास खड़ा हूँ। हम आज ही किसी मंदिर में अपनी शादी पूरी कर लेंगे। आज ही अपने पहले से तय शेड्यूल के हिसाब से चल देंगे। तुम मेरी बातों से एग्री हो तो तुरंत आ जाओ, यदि नहीं तो कोई बात नहीं। मुझे बता दो, मैं चलूँ तुम्हें भी छोड़ कर।"

ऑरिषा उनकी इन बातों को सुनकर ना सन्न हुई और ना ही घबराई। उसने छूटते ही कहा, "फोन डिसकनेक्ट नहीं करना, मैं तुरन्त आ रही हूँ। मुझे आपके पास पहुँचने में जितना टाइम लगेगा, बस उतना ही वेट करिए।"

वह अपनी बात पूरी होने से पहले ही बाहर के लिए चल चुकी थी। अपने सुर्ख़ लाल डिज़ाइनर जोड़े में ही। मगर उसने डिज़ाइनर चप्पलें नहीं पहनीं। क्योंकि जिस हाल में थी, वह उसी हाल में चल दी। सामने रखी चप्पल पहनने का भी उसके पास समय नहीं था।

परिवार की महिलाएँ, जब-तक कुछ समझें, उसे रोकें तब-तक वह उनके पास बाएँ तरफ़ उनकी बाँहों में बाँहें डाले खड़ी हो गई। कार का दरवाज़ा खुला हुआ था। वह अंदर बैठने ही वाली थी कि उसकी साथी ने उसे देखकर रुकने का इशारा किया। उसके पीछे-पीछे लहगर इंस्पेक्टर भी चला आ रहा था। उसने आते ही व्यंग्य भरे लहज़े में पूछा, "मामला क्या है?" तो ऑरिषा ने बहुत निश्चिंतता के साथ कहा, "कुछ नहीं सर। खाने में बस नमक ज़्यादा हो गया, और इसी बात पर इतना बवाल हुआ।"

उसने लहगर इंस्पेक्टर से दो टूक साफ़-साफ़ शब्दों में कहा, "सर मैं अपने पति के साथ शादी की बची हुई रस्में पूरी करने मंदिर जा रही हूँ। हम-दोनों का अब इन-दोनों पक्षों से कोई लेना-देना नहीं है। और यहाँ जो कुछ है उसे आप सँभालिए। आप मेरी शादी में आए मगर इस तरह इसके लिए भी मैं आपको धन्यवाद देती हूँ। आपसे अपना गिफ़्ट मैं हनीमून से लौटकर ले लूँगी और आपको पार्टी भी दूँगी। मुझे जल्दी से जाने की परमिशन दीजिए आशीर्वाद के साथ। देखिए सब इकट्ठा हो रहे हैं, अब मैं यहाँ एक मिनट भी रुकना नहीं चाहती। प्लीज़ सर प्लीज़ मुझे परमिशन दीजिए।"

"ठीक है जाइए आप दोनों। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। जाओ चुनौटी। इन सब से अभी बोहनी करता हूँ। दुगनी करूँगा। सालों ने नींद हराम की है।"

कहकर वह ठहाका लगाकर हँस पड़ा। अब-तक कई लोग आ चुके थे। समझाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन ऑरिषा ने किसी से आँख तक नहीं मिलाई। पति के साथ गाड़ी में बैठकर तेज़ रफ़्तार से निकल गई और लहगर इंस्पेक्टर बोहनी करने में जुट गया था।

2 टिप्पणियाँ

  • 25 Oct, 2021 06:42 AM

    वास्तव में, ल़डकियों के लिए हमारा समाज अभी तक स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं बना सका है। अच्छा लिखा है

  • शानदार अभिव्यक्ति

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