भगवान की भूल

15-03-2022

भगवान की भूल

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 201, मार्च द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

माँ ने बताया था कि, जब मैं गर्भ में तीन माह की थी तभी पापा की क़रीब पाँच वर्ष पुरानी नौकरी चली गई थी। वे एक सरकारी विभाग में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी थे। लखनऊ में किराए का एक कमरा लेकर रहते थे। घर में माँ-बाप, भाई-बहन सभी थे लेकिन उन्होंने सभी से रिश्ते ख़त्म कर लिए थे। ससुराल से भी। 

माँ ने इसके पीछे जो कारण बताया था, देखा जाए तो उसका कोई मतलब ही नहीं था। बिल्कुल निराधार था। माँ अंतिम साँस तक यही मानती रहीं कि उनकी अतिशय सुंदरता उनकी सारी ख़ुशियों की जीवन-भर दुश्मन बनी रही। वह आज होतीं तो मैंने अब तक जितनी भी कठिनाइयाँ, मान-अपमान झेले वह सारी बातें खोलकर उन्हें बताती और समझाती कि तुम अपने मन से यह भ्रम निकाल दो कि तुम अतिशय सुंदर थीं। तुम पर नज़र पड़ते ही देखने वाला ठगा सा ठहर जाता था। और यह ख़ूबसूरती तुम्हारी दुश्मन थी। 

मुझे देखो मैं तो तुम्हारे विपरीत अतिशय बदसूरत हूँ। मुझे बस तुम्हारा दुधिया गोरापन ही मिला है। बाक़ी रही बदसूरती तो वह तो दुनिया-भर की मिल गई। फिर मुझे होश सँभालने से लेकर प्रौढ़ावस्था क़रीब-क़रीब पूरा करने के बाद भी अब तक ख़ुशी नाम की चीज़ मिली ही नहीं। तुम नाहक़ ही अपनी सुंदरता को जीवन-भर कोसती रही। 

असल में कई बार हम हालात के आगे विवश हो जाते हैं। या तो हम समझौता कर उसके आगे समर्पण कर देते हैं, जहाँ वह ले जाए वहाँ चलते चले जाते हैं। या फिर एकदम अड़ जाते हैं। अपनी क्षमताओं से कहीं ज़्यादा बड़ा मोहड़ा (चुनौती) मोल ले लेते हैं। जिससे अंततः टूट कर बिखर जाते हैं। 

मैं माँ की हर बात को बार-बार याद करती हूँ। तमाम बातों को डायरी में भी ख़ूब लिखती रही। बहुत बाद में मन में यह योजना आई कि अपने परिवार की पूरी कथा सिलसिलेवार लिखूँगी। चित्रा आंटी, मिनिषा मेरे इस निर्णय के पीछे एक मात्र कारण हैं। 

दोनों चित्रकार माँ-बेटी बरसों-बरस से मेरी ज़िन्दगी में कई मोड़ पर अहम रोल अदा करती आ रही हैं। वो मुझे सेलिब्रेटी बनाने की कोशिश बहुत बरसों से करती आ रहीं हैं। उन्हीं की सलाह है कि मैं परिवार के बारे में लिख डालूँ। यह और उन माँ-बेटी द्वारा बनाई गई मेरी न्यूड पेंटिंग्स लोगों के बीच तहलका मचा देंगी। 

असल में उन दोनों ने मुझे बहुत पहले इस बात का बड़ी गहराई से अहसास कराया था कि मैं इस दुनिया में एक अजूबा हूँ। एक ऐसी अजूबा जो जिधर निकल जाए उस पर लोगों की नज़र पड़े और ठहरे बिना नहीं रह पाएगी। देखा जाए तो सच यही है कि मैं एक अजूबा प्राणी ही तो हूँ। इसमें कोई दो राय नहीं कि अजूबों पर दुनिया का ध्यान बड़ी जल्दी जाता है। नज़र उस पर ठहर ही जाती है। इसलिए मुझे आज भी यक़ीन है कि चित्रा आंटी और मिनिषा की बात एक दिन वाक़ई सच होगी। 

मेरी आप बीती तहलका मचा सकती है। लेखन की बारीक़ियों से अनजान मैं यही समझ पाई हूँ कि मेरे अब-तक के जीवन में जो घटा है सब लिख डालूँ। मैं जैसी अजूबा हूँ, मेरे साथ अब-तक जीवन में वैसा अजूबा ही तो घटता आ रहा है। मेरी इस जीवन-गाथा के मुख्य पात्र माँ-बाप के बाद चित्रा आंटी, मिनिषा, डिंपू, ननकई मौसी, सिन्हा आंटी, उप्रेती एवं दयाल अंकल आदि होंगे। 

माँ-बाप होते तो निश्चित ही डिंपू को न शामिल करने देते। तब मैं उनको यही समझाती कि माँ ऐसा कैसे कर सकती हूँ। आख़िर अपने ड्राइवर देवेंद्र को कैसे छोड़ सकती हूँ। वही देवेंद्र माँ जिसे तुम डिंपू-डिंपू कहती हो। मैं यह भी मानती हूँ कि डिंपू मेरे बीच जो हुआ आगे चलकर, उसे जानते ही माँ और पापा दोनों ही निश्चित ही मुझे मारते-पीटते घर से निकाल देते। 

जिस डिंपू को हम लोग कभी नौकर से ज़्यादा कोई तवज्जोह नहीं देते थे, वही डिंपू उनका दामाद बन जाता यदि उसने मुझे धोखा नहीं दिया होता। और मैं उसे ग़ुस्से में दुत्कार न देती और फिर कभी शादी न करने का प्रण न करती। मैं पूरे यक़ीन के साथ कहती हूँ कि यह जानते ही माँ मुझे ठीक उसी तरह घर से धक्के देकर सड़क पर फेंक देती, जैसे उन्हें और पापा को उन के सास-ससुर ने निकाल दिया था। जबकि उन्होंने, पापा ने तो ऐसा कोई काम किया ही नहीं था। 

मुझे अच्छी तरह याद है कि माँ मौक़ा मिलते ही बार-बार सास-ससुर द्वारा घर से निकाले जाने और मेरे जन्म की घटना बताती थीं। माँ की याददाश्त बड़ी अच्छी थी। माँ हर बार एक सी ही बात बताती थीं। कभी उसमें कोई परिवर्तन नहीं रहता था। 

उन्होंने यही बताया था कि शादी की बात चली तो पापा और उनके परिवार ने उन्हें एक नज़र देखते ही हाँ कर दी थी। यहाँ तक कह दिया था माँ के माता-पिता से कि यदि आप एक पैसा भी नहीं ख़र्चा करेंगे तो भी रिश्ता यही करेंगे। कोई दिक़्क़त है तो पैसा हम लगाने को तैयार हैं। 

पापा की तरफ़ के इस उतावलेपन का माँ के परिवार ने ख़ूब फ़ायदा उठाया। इसमें उनके चाचा भी शामिल थे। सबने एक राय होकर जो कुछ माँ की शादी में करने, देने के लिए पहले से तय था उसका भी अधिकांश हिस्सा रोक लिया, नहीं दिया। 

मगर माँ की ससुराल वालों ने इस पर भी क्षण-भर को ध्यान नहीं दिया। माँ ससुराल पहुँचीं तो उनकी सुंदरता केवल अपने गाँव ही नहीं आस-पास के गाँवों में भी चर्चा का विषय बन गई। दादी उनकी सुंदरता, सुघड़ता उनकी बातों, व्यवहार, शिष्टाचार की चर्चा कर-कर के, सुन-सुन के ख़ुशी के मारे फूली न समाती थीं। रोज़ ही शाम को वह माँ की नज़र उतारती थीं कि किसी की नज़र न लगे। पापा सहित घर के सारे लोगों का यही हाल था। 

माँ कहती थीं कि पापा पहली रात को और बाद में भी कई दिनों तक रात में जब उनके पास पहुँचते तो लालटेन उनके क़रीब करके देर तक उनको अपलक ही निहारा करते। माँ लजा कर सिर नीचे कर लेतीं, तो अपने दोनों हाथों में उनका चेहरा लेकर यूँ धीरे-धीरे ऊपर उठाते कि मानो पानी का कोई बुलबुला हाथों में लिए हैं और वह इतना नाज़ुक है कि हल्की जुंबिश तो क्या साँस लेने की आवाज़ से भी फूट जाएगा। 

वह चेहरा ऊपर करके एकदम अपलक एकदम निःश्वास माँ को देखते। पापा को इस बात की बड़ी कोफ़्त थी कि घर में क्या गाँव में ही बिजली नहीं है। जब कि माँ सीतापुर शहर में पली-बढ़ी थीं। हालाँकि लाइट का टोटा वहाँ भी था। लेकिन माँ के घर में सुख-सुविधा का हर सामान था। 

मगर उनकी शादी एक गाँव में की गई, जहाँ माटी, गोबर लीपना-पोतना, कंडा, उपला, खेती किसानी यही सब था। बाबा भी गाँव के बहुत बडे़ तो नहीं मगर फिर भी अच्छे-खासे खाते-पीते संपन्न किसान माने जाते थे। कच्चा-पक्का मिला कर बड़ा मकान था। 

कच्चे ही सही मगर क़रीब-क़रीब पचीस बीघे खेती थी। घर में गाय, भैंस, बैल मिला कर क़रीब आठ-नौ जानवर थे, ट्रैक्टर था। माँ बड़ा दुखी होकर बताती थीं कि मानो परिवार की इन सारी ख़ुशियों को किसी बाहरी की तो नहीं हाँ परिवार की ही नज़र लग गई थी। 

जिन पापा को पहले यह खेती-किसानी, घर-द्वार अच्छा लगता था, वही शादी के चार-छः दिन बाद ही यह सब देखकर चिढ़ने लगे थे। उनको बहुत बुरा लगता था कि दादी किसी के आने पर माँ को बुलातीं और उन्हें खड़ा ही रखतीं, जब कि बाक़ी लोग तख़्त, चारपाई, स्टूल आदि पर बैठते। 

आने वाला मेहमान यदि माँ को बैठने को कहता तो उन्हें कोने में लंबा घूँघट काढ़ कर पीढे़ पर ही बैठने की इजाज़त थी। इन सबसे चिढ़े पापा तब अपना विरोध दर्ज कराना रोक न पाए, जब चौथी की रस्म के हफ़्ते भर बाद ही माँ से रसोई घर गोबर से लीपने के लिए कह दिया गया। पहले यह काम दादी ख़ुद करती थीं क्योंकि रसोई घर में काम वाली जा नहीं सकती थी। 

उस दिन जब पापा ने देखा कि दादी, माँ से गोबर से रसोई लिपवा रही हैं, और माँ ने क्योंकि पहले कभी यह सब नहीं किया था, तो ठीक से लीप नहीं पा रही थीं। हाँफ अलग रही थीं, पसीने से तरबरतर थीं और दादी पीढ़े पर थोड़ी दूर बैठी माँ को लीपना बता रही थीं। जहाँ ठीक से नहीं हुआ था वहाँ दुबारा करवा रही थीं। 

पापा उस समय तो कुछ नहीं बोले थे। रात में माँ की हथेलियों पर उभर आए सुर्ख़ निशानों को कई बार चूमा था और नाराज़ होकर कहा था कि, “मुझसे यह सब देखा नहीं जाएगा।” माँ ने तब उन्हें मना किया था कि, “ससुराल है। घर में तो यह सब होता ही है। अम्मा जी भी तो करती हैं।” तब पापा बोले थे कि, “यह तो उनकी आदत है।” इस पर माँ ने कहा कि, “मेरी भी आदत पड़ जाएगी।” 

लेकिन पापा बहस करते रहे। बोले, “तुम मेरी बीवी हो घर की नौकरानी नहीं। मज़दूर नहीं कि तुम्हें मेहमानों के सामने ज़मीन पर बैठाया जाए या खड़ा रखा जाए। गोबर लिपवाया जाए, सुबह भोर से लेकर रात तक काम में पीसा जाए। मुझसे यह सहन नहीं होगा।” 

माँ के लाख कहने पर भी पापा नहीं माने थे, और जब अगले दिन माँ फिर चौका लीप रही थीं, दादी पहले की तरह बता रहीं थीं तो पापा ठीक उसी वक़्त आ गए। मानो वह पहले ही से ताक लगाए बैठे थे। वो कुछ बोलते कि उसके पहले ही दादी बोल पड़ीं, “का रे तू मेहरिया के काम का देखा करत है। अरे! घरवे का काम कय रही है। कौउनो बाहर के नाहीं।” 

दादी का इतना बोलना था कि पापा फट पड़े थे कि, “वो तो मैं भी देख रहा हूँ कि घर का ही काम कर रही है। लेकिन एकदम मजूरिन बना दिया है। दस दिन भी नहीं हुआ है और कोल्हू के बैल की तरह काम ले रही हो। गोबर लिपवा रही हो।” 

दादी अपने सबसे बड़े बेटे से यह अप्रत्याशित बात सुनते ही एकदम सकते में आ गईं थीं। उनके सारे सपने, सारी ख़ुशी सुंदर बहू पाने का सारा उछाह, ऊपर से गिरे शीशे की तरह छन्न से टूटकर चूर-चूर हो गए थे। माँ यह बताते-बताते ख़ुद भी रो पड़ती थीं कि पल-भर में दादी के अविरल आँसू बहने लगे थे। 

वह रोती हुई बोली थीं, “वाह बेटा चार दिन भः मेहरिया के आए, ओके लिए इतना दर्द और ई माँ जो बरसों बरस से गोबर, माटी, पानी, लिपाई करती आई, बनाती खिलाती आई, इस लायक बनाया कि ऐसी मेहरिया मिल सके, उसका कोई ख्याल नहीं। इतनी बड़ी तोहमत, इतना बड़ा कलंक लगा दिया। अरे! मेरे दूध में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि यह ताना मारते तोहार जुबान न काँपी।” 

माँ ने जब-जब यह बताया तब-तब आख़िर में यह जोड़ना ना भूलतीं कि सास के यह आँसू ही पापा और उनके लिए श्राप बन गए। और उन दोनों को संतान सुख नहीं मिला। अब मैं यह भी इसमें आगे जोड़ना चाहूँगी कि माँ मुझसे कहती भले ही न थीं, लेकिन मन में यह ज़रूर कहती रही होगी कि संतान दी थी तो मेरी जैसी। ऐसी अजूबा जो उन दोनों के लिए असहनीय बोझ ही रही। माँ बहुत भावुक होकर बताती थीं कि, “सास के आँसू देखकर वह तड़प उठी थीं।” 

उन्होंने जल्दी से गोबर सने अपने हाथ धोए और सास को समझाने लगीं, पापा को वहाँ से तुरंत हट जाने को भी कहा लेकिन तब-तक बातें सुनकर बाबा भी आ धमके। दादी से सारी बातें सुनते ही वह आग बबूला हो उठे। उन्होंने पापा को नमक-हराम से लेकर जितना जद्‌बद्‌-बद्‌द हो सकता था, कहना शुरू कर दिया। पापा ने भी ज़बानदराज़ी शुरू कर दी थी। जिसने आग में घी का काम किया। 

माँ, बाबा-दादी सब के रो-रोकर हाथ जोड़-जोड़ कर विनती करती रहीं कि, “शांत हो जाइए। ऐसी कोई बात नहीं है। न जाने ऐसा क्या हुआ कि यह ऐसी ग़लती कर बैठे।” माँ इतना ही बोल पाई थी कि पापा फिर बिदक उठे, “मैंने कोई ग़लती नहीं की है।” फिर तो बाबा का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्होंने तुरंत अपना आदेश सुनाते हुए कहा, “आज से तुम अपना चूल्हा अलग करो। तुम्हें परिवार के बाक़ी लोगों से कोई लेना-देना नहीं। कोई सम्बन्ध नहीं रहा अब तुम्हारा बाक़ी लोगों से।” 

घर के बाक़ी सारे सदस्य, माँ की नंदें, देवर आदि सब आ चुके थे। जिन पापा को कभी किसी ने बाबा से तेज़ आवाज़ में बात करते भी नहीं सुना था, आज उन्हीं को उनसे इस तरह बिना हिचक लड़ते देख कर सभी सकते में थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। दादी भी कुछ-कुछ बुदबुदाती अपनी क़िस्मत को कोसती रोए जा रही थीं। 

माँ बड़ी गहरी साँस लेकर कहतीं कि बाबा का आदेश सुनने के बाद पापा नम्र पड़ने के बजाय और बहक गए। उन्होंने छूटते ही कह दिया कि, “जिस घर में परिवार के सदस्य और मज़दूर के बीच कोई फ़र्क़ ही नहीं, वहाँ मुझे रहना ही नहीं है।” फिर तो बाबा ने अपना आख़िरी महाविस्फोट किया था। 

साफ़ कहा था कि, “ठीक है . . . ठीक है बेटा इतनी ही शान है तो देहरी से अगर क़दम निकालना तो जीवन में कभी मुँह मत दिखाना। हम भी देखेंगे कि कितनी शान, कितनी ऐंठ है तुममें।”

माँ जब-जब अपनी यह बात पूरी करती थीं तो आख़िर में कभी मेरा हाथ पकड़ कर या कभी कंधे पर हल्के से थपथपा कर कहतीं, “बस तनु यही वह क्षण थे जब हमारी सारी ख़ुशियों को हमेशा के लिए ग्रहण लग गया।” माँ सच ही कहती थीं। जीवन भर मैंने उन्हें कभी हँसते खिलखिलाते नहीं देखा था। गाहे-बगाहे कभी हँसीं भी तो उनकी वह हँसी हमेशा खोखली एवं नक़ली ही दिखी। हर हँसी के पीछे मैं आँसू देखती थी। और पापा का भी यही हाल था। 

मैं पापा-अम्मा के जीवन के उस दिन को उनके जीवन का सबसे मनहूस दिन मानती हूँ। जिसकी काली छाया ने मेरे जीवन को भी अंधकारमय बनाया है। वह इतना काला दिन था कि एक बाप की डाँट को बेटा बर्दाश्त नहीं कर सका। वह अपने आवेश पर क़ाबू न कर सका और त्याग दिया सभी को। 

कुछ ही दिन पहले आई पत्नी के लिए इतना बड़ा फ़ैसला ले लिया। वह पत्नी भी हाथ जोड़ती रही लेकिन नहीं माने। माँ कहती थीं कि तुम्हारे पापा से मैंने लाख मिन्नत की, हाथ पैर जोड़े लेकिन वह ऐसा मनहूस क्षण था कि वह नहीं माने। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि, “तुम्हें ज़्यादा वो हो तो तुम रहो यहीं। मुझसे सम्बन्ध ख़त्म। मैं नहीं रहूँगा यहाँ। किसी भी सूरत में नहीं।”

फिर शाम होते-होते वह माँ और दो सूटकेस में कपड़े वग़ैरह लेकर लखनऊ चले आए थे। नाना-नानी के घर भी कोई सूचना नहीं दी थी। दो दिन बाद जब नाना को पता चला तो वो नानी, मामा को लेकर दौड़े-भागे लखनऊ आए थे। मगर उनकी भी सारी कोशिश नाकाम रही। 

वो यहाँ अपने एक रिश्तेदार के यहाँ रुक कर कई दिन पापा को समझाते रहे लेकिन वो टस से मस नहीं हुए थे। जिस किराए के कमरे में पापा माँ को लेकर रहने आए थे, वह इतना बड़ा था ही नहीं कि उसमें मियाँ-बीवी के अलावा तीसरा कोई रह पाता। आख़िर थके-हारे नाना जाते-जाते माँ को कुछ रुपए दे गए थे। 

उन्हें जल्दी ही सब-कुछ ठीक हो जाने की उम्मीद थी। उनको और बाक़ी सबको भी यह पक्का यक़ीन था कि जब ग़ुस्सा कम होगा तो बाप-बेटे एक हो जाएँगे। ऐसा न होने पर नाना के सपनों पर भी तो पानी पड़ रहा था। उन्होंने अपनी लड़की एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी को नहीं बल्कि एक अच्छे-खासे संपन्न ख़ुशहाल परिवार, किसान परिवार के सदस्य को ब्याही थी। 

माँ इस घटना के लिए सारा दोष केवल अपनी सुंदरता को हमेशा देती रहीं। बार-बार यही कहती थीं कि, “न मैं इतनी सुन्दर होती और न ही तुम्हारे पापा मेरी सुंदरता के दिवाने हो ऐसा ग़लत क़दम उठाते कि माँ-बाप, भाई-बहन, ससुराल सब से हमेशा के लिए नाता ख़त्म कर लेते। और न ही पापा के भाई इसका ग़लत फ़ायदा उठाते। दोनों नंदों की शादी हो गई लेकिन पापा को भनक तक न लगने दी गई। साज़िशन नाना के यहाँ से तो दुश्मनी जैसी स्थिति पैदा कर दी गई। और आगे चलकर बाबा के कान भर-भर कर सारी चल-अचल सम्पत्ति से ही पापा को बेदख़ल कर दिया गया।”

माँ फिर भी इसके लिए जीवन भर अपनी सुंदरता को ही दोषी ठहराती रहीं। उन्होंने यह भी बताया था कि, “आने के बाद यदि पापा शांत हो जाते, बाबा-दादी सबसे माफ़ी माँग लेते तो चुटकी में सब ठीक हो जाता। बाबा-दादी मन के बड़े खरे और दिल के सच्चे थे। वह पापा की इस हरकत को क्षणिक उत्तेजना में उठाया गया क़दम मान कर पल-भर में माफ़ कर देते।” 

लेकिन पापा तो उनके सौंदर्य के आगे कुछ ऐेसे चुँधियाए हुए थे कि जीवन यापन का एक मात्र सहारा अपनी टेम्परेरी नौकरी के साथ भी खिलवाड़ कर बैठे थे। और तब माँ भी बिफर पड़ी थीं। और आत्महत्या की धमकी दे दी थी। उस धमकी का असर यह हुआ कि उसके बाद पापा कुछ भी करते लेकिन नौकरी के साथ चांस नहीं लेते। 

मगर उनके अगले और फ़ैसलों ने, काम ने उन्हें और परेशान ही किया। माँ इन बातों को बताते-बताते कई बार भावुक भी होतीं और कई बार जैसे रोमांचित भी। 

यह बात माँ ने न जाने कितनी बार बताई कि लखनऊ आए दस दिन भी न बीता था कि एक रात वह उनके सौंदर्य में खोए हुए बोले कि, “जब-तक नौकरी स्थायी नहीं होगी तब-तक बच्चे नहीं पैदा करेंगे।” उस समय तो वह कुछ नहीं बोलीं, लेकिन जब एक दिन बाद ही वह उन्हें फ़ैमिली प्लानिंग के लिए एक हॉस्पिटल लेकर जाने लगे तब उन्होंने मना किया। 

“देखो इतनी जल्दबाज़ी मत करो। लोग कहते हैं कि शुरू में ही यह सब करने से फिर आगे कई बार ऐसा भी होता है कि बच्चे नहीं भी होते।” लेकिन तब पिता जी ने उन्हें सड़क पर ऐसा तरेरा, इस तरह इतना तेज़ घुड़का कि माँ सहम कर रह गईं। और पिता जी अपने मन की करवा कर लौटे। हालाँकि हॉस्पिटल से लौटने के बाद कई दिन माँ को जो पीड़ा, तकलीफ़ रही उससे पिता जी बहुत परेशान और आतंकित से रहे। इसके बाद फिर नौकरी के नियमित होने के इंतज़ार में दो साल बीत गए। 

दो साल बाद पापा माँ की यह बात मान गए कि, “बच्चा होने दो शायद उसकी क़िस्मत से ही हमारे दिन बहुरें।” इस बीच पापा ने तीन मकान बदले। क्योंकि उन्हें हर बार यही शक सताए रहता था कि मकान मालिक माँ को देखते हैं। गंदी नज़र डालते हैं। और माँ इस सबसे होने वाली परेशानियों, अनावश्यक ख़र्चों के लिए अपनी सुंदरता को कोसती रहतीं। भगवान से मिले एक तरह से अनुपम वरदान को कोसती थीं। 

अब मेरी बड़ी इच्छा होती है कि मैं यह सारी बातें अब माँ के सामने बैठ कर करती, कहती कि तुम्हारी और पापा की यह जो सोच थी ग़लत थी। जिस के चलते तुम दोनों एक निरर्थक, अतिरिक्त तनाव लिए जीवनभर परेशान रहे। लेकिन मुझे अफ़सोस है कि जब दोनों थे तब इतनी समझ नहीं थी। इतना ही नहीं तब तो माँ की बातों से बोर हो जाती थी। अब जब इन विषयों के लिए सोच के स्तर पर परिपक्व हुई तो वह दोनों नहीं हैं। 

कहाँ पाऊँ उन्हें। इतनी जल्दी छोड़ कर चल दिए ईश्वर के पास। मेरी छब्बीस-सत्ताईस की उम्र थी जब पापा एवं मात्र नौ महीने बाद ही माँ भी चली गईं। मेरे आगे पीछे कोई नहीं। मगर मैं फिर भी यह नहीं कहूँगी कि मेरी शारीरिक स्थिति मेरे लिए एक समस्या थी और है। मैं यही कहूँगी कि मेरा शरीर जैसा भी है, वही मेरे काम आता चला आ रहा है। 

चित्रा आंटी, मिनिषा मेरे इसी शरीर को देखकर ही तो मुझे बरसों से सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश करती आ रही हैं। इन्हीं सब के चलते मैं माँ की तरह यह नहीं कहूँगी कि मेरा शरीर मेरी सारी समस्याओं की जड़ है। जब थीं तब मैंने यह सब माँ से कुछ-कुछ कहना शुरू ही किया था। 

पापा ने मुझसे कभी सीधे मुँह बात की हो यह मुझे ध्यान नहीं आता। पता नहीं यह सच है कि नहीं कि मैंने उनकी आँखों में अपने लिए हमेशा एक अजीब तरह की घृणा, उदासी ही देखी। मानो मैं ही उनके सारे दुखों की एक मात्र कारण थी। मुझे पापा को समझने का मौक़ा नहीं मिला। 

माँ जैसा बताती थीं, उस हिसाब से तो मेरा जन्म ही उन दोनों के लिए एक पीड़ादायी घटना थी। जब माँ बताती थीं तब दुनियावी बातों की इतनी समझ नहीं थी। उस वक़्त सारी बातें मेरे लिए किसी कहानी से ज़्यादा नहीं थीं। मगर जब यह समझ बन पाई है तो उनकी बातें याद कर मन रोता है। 

माँ-पिता होते तो शायद मेरी हालत का अंदाज़ा लगा सकते। मैं ख़ुद रोती हूँ, ख़ुद ही अपने को चुप भी कराती हूँ। ख़ुद ही अपने आँसू बहाती हूँ और अपने हाथों ख़ुद ही पोंछती भी हूँ। मेरे जन्म की कहानी जो माँ ने बताई थी वह मुझे बहुत रुलाती है। 

माँ ने बताया था कि मेरे गर्भ में आने के तीसरे ही महीने बाद जब नौकरी चली गई थी तो पापा उस दिन उनका एबॉर्शन कराने की ज़िद कर बैठे थे। उनसे ख़ूब झगड़ा तक किया था। प्रेग्नेंसी के बावजूद माँ दो दिन तक इस झगड़े के कारण भूखी तड़पती रही थीं, तब मैं मासूम निरीह जान माँ के पेट में इन सबसे अनजान थी। 

महाभारत के अभिमन्यु जैसी क्षमता नहीं थी कि यह सब गर्भ में ही समझती और जन्म के बाद याद भी रखती। टेम्परेरी नौकरी भी चली जाने से पापा एकदम असहाय, विवश हो अपना आपा खो बैठे थे। घर, ससुराल दोनों जगह से सारे सम्बन्ध ख़त्म होने के चलते वह अपनी असहाय स्थिति के कारण भयभीत हो उठे थे। मगर इस हाल में भी उनका ग़ुस्सा नफ़रत कम न हुई थी। अतः माँ को इस हालत में भी मायके भेजने को तैयार नहीं हुए। 

इतने ज़िद्दी थे कि बोल दिया, “मज़दूरी कर लेंगे, कुछ नहीं बन पड़ेगा तो दोनों आत्महत्या कर लेंगे। मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएँगे।” फिर वह आए दिन माँ को ताना मारते कि, “बच्चा होने दो शायद उसी की क़िस्मत से दिन बहुरें। कितने अच्छे दिन बहुरे। दो जून की रोटी चलाने लायक़ जो नौकरी थी वह भी चली गई। अभी पेट में है तब यह क़िस्मत है, पैदा होगा तो न जाने क्या कराएगा।” 

फिर यह किचकिच जब-तक वह घर में रहते तब-तक होती थी। नौकरी छूटने के बाद मकान मालकिन ने किसी तरह महीने भर खाना-पीना चलाया था। माँ बताती थीं कि वह बड़ी भली महिला थीं। माँ पेट से हैं यह देखकर वह अपने पति से छिपा कर माँ की मदद करती थीं। 

खाने-पीने की तमाम चीज़ें माँ को किसी न किसी बहाने देती रहती थीं। कि बच्चे को नुक़्सान न हो। पापा ने मकान मालिक की मदद से गणेशगंज में किसी दुकान में नौकरी कर ली। मगर पापा के अक्खड़ स्वभाव ने उन्हें वहाँ भी एक हफ़्ते से ज़्यादा नहीं रुकने दिया। तब माँ घबरा उठी थीं। 

इस बीच मकान का किराया देने की बात सामने आ गई। मकान मालिक इसमें कोई रियायत नहीं करना चाहते थे। उनकी ज़िद, बातचीत के तरीक़े का पापा ने दूसरा ही अर्थ निकाला। और अपने ऑफ़िस के समय के एक मित्र जो कि पैतृक सम्पत्ति के चलते बड़े धनाढ्य थे, उनके मकान में रहने लखनऊ शहर छोड़ कर मोहनलालगंज क़स्बे में चले गए। 

जिन पापा ने अपने माँ-बाप से घूँघट, काम-धाम के चलते लड़-भिड़ कर सब से सारे सम्बन्ध ही ख़त्म कर लिए थे उन्होंने ही माँ से अपने इस मित्र के सामने घूँघट में ही रहने, सामने न पड़ने की सख़्त हिदायत दे दी थी। जब कि वह दोस्त पापा से मात्र सात-आठ साल ही बड़े थे। माँ पापा के इस फ़ैसले से अचंभित थीं। 

हालाँकि माँ पापा के इस निर्णय के लिए यही कहती थीं कि अपने मित्र को सम्मान की दृष्टि से देखने के कारण उन्होंने ऐसा किया था। माँ होतीं तो अब मैं उनसे साफ़ कहती कि नहीं ऐसा नहीं था माँ। उन्होंने अपनी मनोवृत्ति के चलते ऐसा किया। वो नहीं चाहते थे कि उनके वह मित्र तुम को देख पाएँ। पापा एक अजीब तरह के भय का शिकार थे माँ। 

माँ कई बार उस क़स्बे मोहनलालगंज के बस स्टेशन के क़रीब की वह दुकान भी मुझे दिखा लाई थीं जहाँ पापा ने उन्हीं मित्र के सहयोग से दुकान चलाई थी। जिससे गुज़र बसर हो रहा था। माँ से उनकी चर्चा बराबर बड़ी होने पर भी सुनती रही थी। यह बात तो जस की तस आज भी याद है कि जब मेरे जन्म का वक़्त आया, माँ को लेबरपेन शुरू हुआ तो उनकी ही जीप से उन्हें ज़िला अस्पताल तक पहुँचाया गया था। 

रात दस बजे सोते से उन्हें उठाया गया था। उनकी पत्नी भी साथ हो ली थीं। पैसे की ज़बरदस्त तंगी के चलते किसी बढ़िया प्राइवेट नर्सिंग होम का कार्ड पापा नहीं बनवा पाए थे। ज़िला हॉस्पिटल में माँ की हालत बिगड़ रही थी और रात होने के कारण स्टॉफ़ लापरवाही में सुस्त पड़ा था। तब पापा के उन्हीं मित्र ने अपने स्थानीय होने के प्रभाव का प्रयोग कर सबको झिंझोड़ कर रख दिया था। लेकिन हॉस्पिटल पहुँचने के समय जो लेबरपेन हो रहा था वह डॉक्टर के आने के पहले ही अचानक ठीक हो गया। 

डॉक्टर ने कहा कुछ ख़ास बात नहीं है, चाहें तो घर ले जा सकते हैं। सब घर आ गए। अगले दिन दोपहर तक फिर जाना पड़ा। फिर उन्हीं मित्र की जीप और ड्राइवर काम आए। जो इसी अंदेशे से गाड़ी छोड़ गए थे। ऑफ़िस बस से चले गए थे। शाम चार बजे नॉर्मल डिलीवरी से मेरा जन्म हुआ। 

माँ की यह बात आज भी मुझे पीड़ा देती है कि मेरे लड़की होने पर माँ का भी मन खट्टा हो गया था। और पापा ने मेरी एकदम कमज़ोर नाज़ुक हालत के बावजूद एकदम उत्साहहीन होकर कहा था कि, “बहुत कह रही थी न, लो बहुर गए दिन।” और बेहद उदास चेहरा लिए बाहर चले गए थे। 

मगर दो मिनट बाद ही वह एकदम ख़ुशी से उछलते-कूदते अंदर आए। माँ का हाथ चूमते हुए बोले, “हमारी बिटिया वाक़ई भाग्यशाली है शुभांगी, हमारे दिन बहुर आए। हमें दुबारा नौकरी मिल गई है वह भी स्थायी।” और फिर दोनों ख़ुशी के मारे रो पड़े थे। 

पापा के वही मित्र यह सूचना देने के लिए समय से पहले ही ऑफ़िस से चले आए थे। उन्होंने ही बताया कि लंबे समय से टेम्परेरी कार्य करने वाले कुछ लोगों को स्थायी नौकरी दी गई है। उनमें पापा भी हैं। वह ऑर्डर की फोटो कापी भी ले आए थे। 

माँ कहती थीं कि इस अप्रत्याशित ख़ुशी से वह दोनों इतने ख़ुश थे कि मानो पूरी दुनिया की ख़ुशी उन्हें मिल गई हो। और पापा ने आनन-फ़ानन में उन्हीं मित्र से एक बड़ी रक़म उधार ले ली। पहले जो लोग उन्हें तब सौ-दो सौ रुपए भी देने से कतराते थे कि वापस कहाँ से करेंगे, अब उन लोगों की हिचक ख़त्म हो गई और उन्हें उधार मिलते देर न लगी। पापा ने दुकान का सारा सामान एक दूसरे दुकान वाले को औने-पौने दाम में बेचकर कुछ और पैसा इकट्ठा किया। फिर आठ-दस दिन में ही लखनऊ आ गए। 

एक अच्छा मकान किराए पर लेकर रहने लगे। महानगर का वह एरिया आज भी पॉश एरिया में गिना जाता है। इस बदली स्थिति में पापा माँ की ऐसे देखभाल कर रहे थे कि मानों वह छुई-मुई का पौधा हैं, जो हल्के स्पर्श से ही मुरझा जाएगा। माँ को काम न करना पड़े, मेरी देखभाल में कमी न हो इसके लिए नौकरानी लगा दी। खाने-पीने, सुख-सुविधा की ज़्यादा से ज़्यादा व्यवस्था की। 

कुछ ही दिन में माँ और मैं सेब जैसे लाल गोल-मटोल हो गए। मगर साथ ही यह भी हुआ कि पापा रिश्वतखोरी में आकंठ डूब गए। साहबों को साधकर ख़ूब खाते और खिलाते। घर में ख़ुशी हर कोने में मानो बरस रही थी। पापा मुझे माँ को इतना लाड़।-प्यार देते कि देखने वाले दंग रह जाते। 

देखते-देखते मैं छह-सात महीने की हो गई और यहीं से घर की ख़ुशियों पर फिर काली छाया मँडराने लगी। मैं सात महीने की गोल-मटोल हो गई थी लेकिन मेरी लंबाई तीन महीने के बच्चे से ज़्यादा नहीं थी। 

आठवें महीने में भी जब मैं बैठ भी नहीं पाई तो मुझे डॉक्टरों को दिखाया गया। मगर संतोषजनक जवाब नहीं मिला। चिंता की लकीरें अब माँ-पापा के माथे पर उभरने लगी थीं। पापा ने एक से एक डॉक्टरों को दिखाया, दवाएँ चलीं और मैं डेढ़ साल की उम्र में कहीं बैठना शुरू कर पाई। 

डॉक्टर कुछ साफ़ नहीं बता पा रहे थे। कुछ बच्चे देर से शुरू करते हैं, यही जवाब मिलता था। मगर लंबाई नहीं बढ़ रही इस पर कोई कुछ नहीं बता पा रहा था। अब पापा खीझने लगे थे। बहुत जल्दी हत्थे से उखड़ जाना उनकी आदत बनती जा रही थी। अब दोनों के बीच एक और बच्चा पैदा करने की बात पर टुन्न-भुन्न होने लगी। माँ चाहती थीं जल्दी से जल्दी एक और बच्चा पैदा हो। मगर पापा का जवाब की अभी दो चार साल नहीं। 

फिर मैं अपनी कच्छप चाल से होती ग्रोथ और घर में अगले बच्चे को लेकर पापा-माँ में होने वाली टुन्न-भुन्न के साथ चार साल की हो गई। मैं ढाई साल की उम्र में खड़े-खड़े चलने में समर्थ हुई थी। मगर लंबाई मेरी दो साल के बच्चे से ज़्यादा नहीं थी। इस बीच डॉक्टरों के पास भटकते-भटकते यह साफ़ हो गया कि किसी अज्ञात कारणवश मैं बौनी बनने के लिए अभिशप्त हो चुकी हूँ। 

दिल्ली के एक बड़े हॉस्पिटल से जब कई जाँचों के बाद यह कंफ़र्म हो गया तो माँ-पापा एकदम टूट गए। माँ कहती थीं कि, “इसके बाद तो घर में हर तरफ़ ख़ुशियाँ नहीं एक घुटन-भरा, चिड़चिड़ा माहौल पैर पसार चुका था।” 

लेकर झाड़-फूँक, पूजा-पाठ मंदिर तीर्थ जहाँ भी आशा की किरण नज़र आई वहाँ गए। जो कहा गया, किया। मगर ग्रोथ के मामले में मैं कच्छप गति को शर्मिंदा करती ही रही। 

निराश हो माँ ने अगले बच्चे के लिए अपना आग्रह बढ़ाया, लेकिन पापा किसी डॉक्टर की इस आशंका से भयभीत हो उठे थे कि जींस में कुछ गड़बड़ी है, जिससे यह सम्भावना पूरी है कि अगली संतान भी ऐसी ही कुछ समस्या के साथ पैदा हो। 

मंगोल चाइल्ड की सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। तब माँ पापा के अगला कोई बच्चा न पैदा करने के अंतिम निर्णय को मान गईं। मगर अब दोनों मेरे भविष्य, अपने बुढ़ापे की लाठी की चिंता में भी घुलने लगे। मेरे जन्म के समय जो ख़ुशियाँ बरस रही थीं उसमें छह सात माह के अंदर जो ग्रहण लगा था वह धीरे-धीरे गहराता गया। 

जब छह वर्ष की उम्र में, स्कूल में मेरा एडमिशन कराया गया तब-तक घर की सारी ख़ुशियाँ समाप्त हो चुकी थीं। परिवार घिसटती हुई ज़िन्दगी जीने लगा था। मैं इन चीज़ों के लिए इतनी समझदार नहीं थी सो हँसती, खेलती, उछलती, कूदती रही। मगर माँ-बाप दोनों हँसना बोलना भूल गए थे। किसी रिश्तेदार दोस्त या कहीं घूमने-फिरने जाना बंद हो गया था। 

घर में कोई आता तो कोशिश होती कि मैं किसी के सामने न पड़ूँ। क्योंकि लोगों के तरह-तरह के प्रश्नों से माँ-बाप खीझ उठते थे। अंततः लोगों ने भी आना बंद कर दिया। अब घूमने-फिरने के नाम पर यही होता था कि स्कूटर पर किसी पार्क या किसी बाज़ार वग़ैरह आधे एक घंटे यूँ ही घूम-घाम चले आते थे। कुछ खा-पीकर या कोई खिलौना-सिलोना लेकर। 

पापा का चिड़चिड़ापन उनका स्थायी स्वभाव बन चुका था। मैं उनके साथ खेलना-कूदना चाहती तो वह अब मुझे किसी न किसी बहाने दूसरे कमरे में भेज देते। मगर माँ मेरा साथ देती थीं। बड़ी होने पर जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि माँ भी सिर्फ़ साथ ही देती थीं। अंदर ही अंदर उनका भी मन टूटता दरकता रहता था। 

स्कूल में बच्चे मुझे मेरे क़द को लेकर चिढ़ाते थे। एक बार तो एक बच्चे ने जब मुझे मेरा नाम तनु बुलाने के बजाय गोली कहना शुरू किया तो मैं रो पड़ी थी। उससे झगड़ा किया तो लंबा होने का फ़ायदा उठाकर उसने मुझे पीट भी दिया। पापा को शाम को पता चला कि मुझे गोली कहकर चिढ़ाया गया और पिटाई भी हुई तो अगले दिन स्कूल में उन्होंने हंगामा खड़ा कर दिया। 

किसी तरह प्रिंसिपल और उस बच्चे के पैरेंट्स ने बात सँभाली। इस तरह की घटनाएँ अब मेरे जीवन की हिस्सा बनती जा रही थीं। पापा कहीं झगड़ा न करें, इसका रास्ता माँ ने यह निकाला कि मैं पापा से यह बातें बताऊँ ही न। 

धीरे-धीरे माँ अपने इस मक़सद में क़ामयाब रहीं। मैं भी माँ की बात समझ गई और ऐसा कुछ होने पर माँ को ही बताती और उन्हीं के आँचल में मुँह छिपाकर रो लेती। कई बार माँ समझातीं तो कभी मुझे सीने से चिपका कर ख़ुद ही फफक कर रो पड़ती थीं। माँ की कठिनाई यहीं तक नहीं थी। तनाव बर्दाश्त न कर पाने के चलते पापा ने शराब को अपना लिया। पहले कभी-कभी फिर रोज़ पीना उनकी आदत बन गई। 

जब-तक मैं जान समझ पाई कि वह शराब जैसी कोई चीज़ पीते हैं, तब तक मैं ग्यारह-बारह बरस की हो चुकी थी। माँ जहाँ मेरे बौनेपन और दूसरा कोई बच्चा न पैदा करने के पापा के निर्णय से परेशान और हमेशा दुखी रहती थीं, वहीं पापा के दुखों के कारण में इसके साथ-साथ माँ की सुंदरता अब भी बराबर बनी रही। अंतिम साँस तक बनी रही। साथ में मैं तो नत्थी थी ही। उन्हें लगा कि माँ का रंग-रूप मुझे जन्म देने के बाद और भी निखर आया है। लोग उन्हें और भी ज़्यादा देखते हैं। उन्हें सारे मकान मालिक चरित्रहीन नज़र आते थे। 

मेरे आठ साल का होने तक उन्होंने छह मकान बदले थे। उन्हें बराबर यह भय सताए रहता था कि कहीं उनकी पत्नी को कोई नुक़्सान न पहुँचा दे। वह तो ऑफ़िस में रहते हैं, मकान मालिक कहीं अकेले पाकर उनकी पत्नी पर हमला न कर दे। 

उन्हें मकान मालिकों और उनके परिवार के सारे पुरुष सदस्यों यहाँ तक कि किशोरवय लड़कों तक की आँखों में अपनी पत्नी के लिए वासना ही नज़र आती थी। अंततः अपनी इस समस्या को दूर करने का रास्ता उन्होंने एल। डी.ए. का एक एम.आई.जी. मकान लेकर निकाल लिया। 

इसके लिए बैंक से क़र्ज़ वग़ैरह से लेकर जहाँ से जैसे बन सका हर तरह से जुगाड़ किया। मगर शक की उनकी यह बीमारी उनका यह वहम अपने मकान में भी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ। पड़ोसी वग़ैरह कहीं किसी से उन्होंने कोई सम्बन्ध नहीं रखे। 

किसी के यहाँ कभी भी यहाँ तक कि शादी ब्याह या ऐसे किसी भी फ़ंक्शन में भी नहीं जाते। या फिर अकेले हो आते। हाँ उनके चेहरे पर मैं तब कुछ देर को हँसी, मुस्कान पाती थी जब मेरा रिज़ल्ट आता और मैं क्लास में टॉप करती। 

माँ तो ख़ैर माँ थीं। मुझे वह ऐसे अवसर पर दुध-मुँहे बच्चे की तरह छाती से चिपका लेती थीं। वह चाहती थीं कि और लोगों की तरह वह भी अपने बच्चे की लोगों से बात करें। उन्हें उसकी पढ़ाई के बारे में बताएँ, लोगों से तारीफ़ सुनें, लेकिन पापा के कारण यह सम्भव ही नहीं था। 

बस घर में ही जितना जश्न हम तीनों मिलकर मना सकते थे, मनाते थे। उस दिन खाना-पीना पापा किसी बढ़िया होटल से ले आते थे। मेरे लिए अच्छी-अच्छी कई ड्रेस ले आते। हम-सब का मन बाहर खुली हवा में और लोगों के साथ ख़ुशी मनाने को तरस जाता। हम उन लोगों में थे जो अपनी सफलता पर ख़ुद ही ताली बजाते, शाबाशी देते, अपने हाथ अपनी पीठ ठोंकते और खा-पी कर सो जाते। 

जब मैंने यू.पी. जो कि सबसे टफ़ बोर्ड माना जाता है, के हाई-स्कूल इग्ज़ाम में अपने स्कूल में टॉप किया तो स्कूल में ख़ैर हर बार की तरह मेरा सम्मान किया ही गया, क्योंकि मैं हर क्लास में फ़र्स्ट आती थी। घर पर भी उस दिन अपने होश सँभालने के बाद पहली बार पापा को ख़ुशी के मारे खिलखिलाते देखा। 

मैं सोलह बरस पार कर चुकी थी लेकिन मारे ख़ुशी के पापा उस दिन इतने भाव-विह्वल हो उठे थे कि मुझे छोटे बच्चे की तरह उठा लिया, मेरा माथा चूम लिया। जैसे पिता अपने साल-डेढ़ साल के बच्चे को गोद में चेहरे तक उठाए एक ही जगह खड़े-खड़े घूम जाता है, वैसे ही वह भी घूम गए थे। और देखा जाए तो मैं किसी पाँच-छह साल के बच्चे से ज़्यादा थी ही कहाँ। 

तब मेरी हाइट कुल चालीस इंच ही तो थी। मात्र तीन फ़िट चार इंच की। हाँ भरपूर खाने-पीने के चलते वज़न ज़रूर कुछ ज़्यादा था। शरीर के उभार ज़रूर रफ़्तार में थे, कच्छप चाल से नहीं। स्तनों ने अच्छा-ख़ासा भरा-पूरा आकार ले लिया था। पापा ने जोश में उठा तो लिया था मुझे दोनों हाथों से पकड़ कर चेहरे तक लेकिन एक चक्कर लगा कर ही उतार दिया नीचे। तीन-चार सेकेंड से ज़्यादा सँभाल न सके मुझे। 

उस दिन पापा शाम को मुझे, माँ को लेकर साल भर पहले ही किश्तों पर ली गई अल्टो कार में घुमाने ले गए। महानगर के एक नामचीन चाइनीज़ रेस्त्रां में डिनर किया। मेरे लिए कई सारी ड्रेस, कई स्टोरी बुक ख़रीदीं और देर तक शहर में इधर-उधर गाड़ी ड्राइव करते रात क़रीब ग्यारह बजे घर लौटे। अब-तक मैं थक चुकी थी। इसलिए मुँह-हाथ धोकर चेंज कर अपने कमरे में सोने चली गई। जो सामान हम ले आए थे, वह ड्रॉइंग-रूम में सोफ़े और टेबिल पर ही पड़ा था। बेड पर लेटते ही मुझे नींद आ गई। 

अभी दो-ढाई घंटे ही बीते होंगे कि मुझे नींद में ही लगा कि जैसे माँ कराह रही हैं। उनकी तकलीफ़ भरी आवाजे़ं मेरी नींद तोड़ने लगीं। मैं कुनमुना कर करवट ले लेती। लगता जैसे सपना देख रही हूँ। मगर यह एक ऐसा सपना था जिसमें सिर्फ़ आवाज़ थी कोई दृश्य नहीं था। 

कानों में पड़ती उनकी तकलीफ़ भरी आवाज़ों ने आख़िर मेरी नींद पूरी तरह तोड़ दी। मैं उठ बैठी बेड पर। आवाज़ अब भी आ रही थी। अब मैं घबरा कर पसीने-पसीने हो गई। आवाज़ माँ-पापा के कमरे से आ रही थी। सो लॉबी क्रॉस कर मैं वहाँ गई। माँ की कराहने की आवाज़ और गाढ़ी हो रही थी। 

मैं अजीब सी आशंका से घबराती खिड़की तक पहुँची कि देखूँ क्या बात है। मगर उसकी ऊँचाई ज़्यादा थी सो मैंने दरवाज़े की झिरी से अंदर देखा। और फिर शर्म से पानी-पानी हो गई। पापा की हरकतों को देख कर ग़ुस्सा आया कि उन्हें माँ को ऐसी तकलीफ़ नहीं देनी चाहिए। अंदर से आती शराब की बदबू से मुझे उबकाई आने लगी थी। इस बदबू का मैं पहले ही न जाने कितनी बार सामना कर चुकी थी। मैं जैसे गई थी फिर वैसे ही आकर अपने बिस्तर पर लेट गई। 

अगला दिन छुट्टी का था। पापा को देखते ही मेरे मन में उन को लेकर अजीब सी नफ़रत उमड़ पड़ी। माँ की सूजी हुई आँखें, एक तरफ़ कुछ ज़्यादा ही सूजे होंठ रात का दृश्य क्षण-भर में सामने खड़ा कर देते। माँ पर मुझे बड़ी दया आ रही थी। 

उनकी आए दिन की ऐसी चोटों का मर्म मैं उसी दिन समझ पाई थी। उसी दिन स्त्री-पुरुष के उन अंतरंग क्षणों को मैं जान पाई थी। जिसकी तब-तक उथली सी ही जानकारी थी। जो सहेलियों और माँ द्वारा अपनी बेटी को जागरूक करने के दृष्टि से दी गई जानकारियों तक ही सीमित थी। उस एक घटना ने ही मुझे कुछ ही घंटों में एकदम से कई साल बड़ा कर बिल्कुल युवा बना दिया था। 

वक़्त के साथ पापा की बढ़ती शराब, चिड़चिड़ेपन और माँ के साथ अब आए दिन बेवजह ही उनकी गाली-गलौज मुझे बहुत तकलीफ़ देती। मेरा मन करता कि सारी तकलीफ़ों की जड़ मैं हूँ तो आख़िर मैं मर ही क्यों नहीं जाती। कई बार मन में आत्म-हत्या करने की भी बात आती। मगर माँ का ममता से लबालब भरा चेहरा क़दम उठने ही न देता। 

मेरे लिए उनकी चिंता और साथ ही उनका हमेशा यह प्रदर्शन करना कि मुझसे उन्हें कोई तकलीफ़, चिंता नहीं है। एकांत मिलते ही उनकी आँसुओं से भरी आँखें वह सब देखकर मैं अकेले में रोती थी। माँ की तकलीफ़ों का अंदाज़ा सही मायनों में मैं अब कर पा रही हूँ। कि अपने माँ-बाप, भाई-बहन, सास-ससुर आदि सभी के होते हुए भी निपट अकेला होना माँ के लिए कितना यंत्रणा-पूर्ण रहा होगा। किस तरह वह पल-पल रोती थीं। जबकि कारण कुछ भी नहीं था। पर डाँटते हुए अपने गले का पत्थर कह दिया था। नशे के कारण और भी कई भद्दी बातें कह दी थीं। तब मैं बी.एससी. फ़ाइनल इयर में थी। उस दिन पापा से माँ ने कड़ा प्रतिवाद किया था। बदले में मार खाई और जब मैं बीच में आई तो पापा ने धकेल दिया मुझे। 

मैं किसी छोटे बच्चे की तरह लड़खड़ाते हुए दूर दरवाज़े से टकरा कर गिरी थी। दरवाज़े की कुंडी सीधे नाक से टकराई और मेरा चेहरा और सामने के कपड़े ख़ून से लाल होने लगे थे। चोट कुछ ज़्यादा ही थी तो मैं तुरंत उठ न पाई। माँ दौड़ कर आई थी, मुझे उठा कर अपनी बाँहों में भर लिया था। 

माँ के कपड़े भी लाल होने लगे। तब माँ ने घबरा कर पापा से तुरंत डॉक्टर के पास चलने की प्रार्थना की। लेकिन पापा निस्तब्ध चुपचाप खड़े रहे। तो वह एकदम गिड़गिड़ा उठीं पर वह फिर भी खड़े रहे। तब माँ बिफर पड़ीं कि, “ठीक है, खड़े रहो तुम यहीं। मैं अकेले ही लेकर जाऊँगी अपनी बच्ची को।” 

मैं इक्कीस साल की हो गई थी लेकिन माँ की नज़र में तब भी बच्ची ही थी। माँ की करुणा प्यार और पापा का वैसे ही उन्हें घूरते हुए देखना मुझमें न जाने पलक झपकते कैसी आग भर गई कि मैं माँ से अलग होती हुई ग़ुस्से से क़रीब-क़रीब चीखती हुई बोली, “माँ मुझे कहीं नहीं जाना। रोज़-रोज़ मरने से अच्छा है कि आज ही मर जाऊँ। जिससे पापा की, तुम्हारी तकलीफ़ें दूर हो जाएँ। तुम दोनों को लोगों के सामने अपमानित न होना पड़े। मैं भी अब और अपमानित जीवन नहीं जीना चाहती।” 

मैं झटके से उठी और दौड़ती हुई अपने कमरे में बेड पर लेट कर रोने लगी। मेरे पीछे माँ भी, “सुन-सुन बेटा . . .” कहती दौड़ी आईं। मुझे फिर बाँहों में भर कर रोती हुई बोली थीं, “ऐसा मत कह बेटा, तेरे बिना मैं नहीं जी पाऊँगी। चल बेटा डॉक्टर के पास चल।” मगर मैंने न जाने की ज़िद कर ली और रोती रही। मैं तब आश्चर्य में पड़ गई और माँ भी जब पापा भी आकर मुझे उठाने लगे। मैं न मानी तो वह भी हम दोनों को पकड़ कर रोने लगे। 

मैंने पहली एवं आख़िरी बार उन्हें इस प्रकार भावुक और रोते हुए पाया था। वह भी बार-बार डॉक्टर के यहाँ चलने को कह रहे थे। माफ़ी माँग रहे थे। उनकी यह बात मुझे और दुखी कर गई कि, “मेरी तकलीफ़ भी समझा करो तुम लोग।” 

मैं तब भी किसी सूरत में न गई तो वह एक डॉक्टर को लेकर आए, मेरी मरहम-पट्टी कराई। फिर रात का खाना भी होटल से लाए। अपने हाथों से हम-दोनों के लिए खाना निकाल कर मेरे कमरे में ले आए। क्योंकि हम-दोनों अपने कमरे से बाहर नहीं आए। माँ ने किचन का रुख़ ही नहीं किया। उस दिन के बाद मैं अपने जीवन से और भी खीझ गई। 

कॉलेज जाने का मन न करता। अपनी किसी भी तकलीफ़ को अब मैंने माँ को भी बताना बंद कर दिया। उन बहुत सी बातों को कहना बंद कर दिया था जिन्हें पहले बताती थी कि कैसे मुझे सहेलियाँ चिढ़ाती हैं। पापा को तो ख़ैर पहले भी नहीं बताती थी। सोचती कि आख़िर क्या बताऊँ, मेरी ऐसी कौन सी समस्या है जो वह दोनों नहीं जानते। 

बी.एससी. में पहुँचने के बाद बीमारियों के चलते मुझे रोज़-रोज़ छोड़ने जाना जब पापा-अम्मा दोनों के लिए मुश्किल हो गया था तो आख़िर में मेरे लिए एक रिक्शा लगा दिया था। वह मुझे कॉलेज से लेकर मैं जहाँ-जहाँ जाती ले जाता। फिर जाना-आना था भी कितना। कभी-कभी आकाशवाड़ी या फिर शौक़िया पेंटिंग सीखने के लिए अपनी सहेली मिनिषा के घर। जिसकी माँ जो आगे मेरे लिए चित्रा आंटी बनीं तब-तक बतौर पेंटर अपना स्थान बनाने के लिए संघर्षरत थीं। 

मुंबई के सबसे नामचीन कॉलेज से उन्होंने डिग्री ली थी। घर पर ही सिखाती भी थीं। उनकी पेंटिंग ठीक-ठाक बिकती भी थीं। मगर इन सब जगहों पर मैंने कई बार जो तकलीफ़ें जो अपमान, ताना झेला, पापा से मार खाने के बाद उनको भी कभी नहीं बताया। 

यह सब मेरी शारीरिक स्थिति का ही तो तक़ाज़ा था कि इक्कीस की उम्र में पापा ने मारा और हर जगह अपमानित होती रही। मैं समझती हूँ कि यदि मैं भी सामान्य लड़कियों की तरह लंबी-चौड़ी होती तो शायद उस दिन पापा से मार न खाती और माँ को भी बचा लेती। और बाद में मेरे साथ बार-बार जो हुआ वह भी न होता। 

जैसे कॉलेज के दिनों की ही बातें लूँ। अपनी मित्र गीता यादव को मैं तब फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करती थी। क्योंकि वह लंबी-चौड़ी पहलवान सी थी। मुझे बच्चों कि तरह गोद में उठा लेती थी। सारे मिलकर खिलखिला कर हँसते थे। 

इतना ही नहीं तब मैं उसे मन ही मन ख़ूब गाली देती थी जब वह मेरे अंगों से खिलवाड़ कर बैठती थी। मगर एक बात उस में यह भी थी कि और किसी को वह मुझे एक सेकेंड भी परेशान नहीं करने देती थी। मेरे लिए सबसे भिड़ जाती थी। 

आज वह गीता यादव पुलिस इंस्पेक्टर है। और पहले की तरह आज भी वो मेरी तरफ़ किसी को आँख उठाकर देखने नहीं देती। एक बार जब डिंपू अपनी हद से बाहर जाने लगा था तो इसी गीता से कहकर उसे फिर उसी की हद में पहुँचा दिया था। मेरी समस्याएँ मेरा अपमान यहीं तक नहीं था। 

वह दिन वह क्षण आज भी जस का तस याद है जब चित्रा आंटी ने मेरी अपंगता मेरे बौनेपन को बेचने की कोशिश की थी। हालाँकि बाद में यह बात मुझे सेलिब्रिटी बनाने तक पहुँच गई। इसमें उनकी बेटी मिनिषा ने भी ख़ूब साथ दिया था अपनी माँ का। वह वैसे तो ऑब्स्ट्रेक्ट, सेमी ऑब्सट्रेक्ट पेंटिंग ही ज़्यादा बनाती थीं। रियलिस्टक पेंटिंग तब-तक गिनी-चुनी ही बनाई थीं। 

वह अचानक ही एक दिन मुझे रियलिस्टिक न्यूड पेंटिंग के बारे में बताने लगीं। बोलीं कि, “न्यूड पेंटिंग के लिए ही नहीं पेंटिंग सीखने के लिए ही न्यूड मॉडल्स बहुत ज़रूरी हैं। बिना इनके पेंटिंग की पढ़ाई पूरी ही नहीं हो सकती।” 

मैं उनसे यह सुन कर ही दंग रह गई कि ऑर्ट की पढ़ाई के दौरान डिग्री कोर्स में तीसरे वर्ष में अर्धनग्न एवं चौथे वर्ष में पूर्ण नग्न मॉडलों को सामने कर पढ़ाई पूरी की जाती है। क्योंकि शारीरिक संरचना को पूरी गहराई तक जाने समझे बिना पढ़ाई अधूरी है। 

वह बड़ा ज़ोर देकर समझातीं कि, “देखो तनु ऑर्ट्स स्टुडेंट के लिए मॉडल का नग्न शरीर एक ऑब्जेक्ट के सिवा और कुछ नहीं होता। ऑर्टिस्ट के लिए मॉडल की देह एक निर्जीव वस्तु के सिवा और कोई मायने नहीं रखती। मॉडल और ऑर्टिस्ट अपना काम करते वक़्त सारी भावनाओं से रहित हो कर काम करते हैं। दुनिया के सारे बड़े ऑर्ट्स कॉलेज में न्यूड मॉडल यूज़ किए जाते हैं।”

इन बातों से अनजान जब मैंने आश्चर्य व्यक्त किया तो उन्होंने यह कह कर और आश्चर्य में डाल दिया कि उन्होंने तो यह भी सुना है कि मुंबई के जे.जे. ऑर्ट्स कॉलेज में तो डेढ़ सौ वर्ष पहले 1857 से ही पढ़ाई के दौरान छात्रों के लिए न्यूड मॉडल प्रयोग किए जाते रहे हैं। 

इसके आगे मैं उनकी यह बात भी सुन कर हैरान रह गई कि उन्होंने तो यह भी सुना है कि जे.जे. ऑर्ट्स कॉलेज में तो न्यूड मॉडल्स की, कॉलेज की ज़रूरत बिना बाधा के पूरी हो सके, इसके लिए कॉलेज कैंपस में ही एक परिवार बसाया गया था। जिसके सदस्य पढ़ाई के दौरान छात्रों के लिए मॉडलिंग करते थे। 

मैंने तब उनसे यह जानकर दाँतों तले उँगली दबा ली थी कि, परिवार के सारे सदस्य एक ही कॉलेज के तमाम स्टुडेंट्स के सामने नग्न होते रहे होंगे। अलग-अलग उम्र के महिला-पुरुष सारे सदस्य। वाक़ई यह एक असाधारण काम था। उन सबका यह काम किसी निर्विकार साधु-संत की साधना से कम महत्त्वपूर्ण काम तो नहीं है। 

नग्न अवस्था में घंटों रहने के बाद भी सिर्फ़ ऑर्ट ही ऑर्ट हो। काम भावना की ज्वाला ही न हो। क्योंकि इस ज़्वाला के रहते तो ऑर्ट हो ही नहीं सकती। तब मैंने आंटी से मज़ाक में ही कहा था कि आंटी मैं इन लोगों से मिलना चाहूँगी। 

इस पर वह गहरी साँस लेकर बोली थीं। “तनु असल में हुआ क्या कि समय, बाज़ारवाद, महँगाई ने सब कुछ बदल दिया। इस परिवार ने ज़्यादा पैसे कमाने के लिए दूसरे धंधे अपना लिए हैं। क्योंकि मॉडलिंग से उन्हें कुछ ख़ास पैसा नहीं मिलता था। दुनिया के सारे कॉलेजों का यही हाल है। सभी के पास अब न्यूड मॉडलों का टोटा पहले से ज़्यादा हो गया है। कॉल गर्ल्स का सहारा लिया जा रहा है। लेकिन यह बहुत महँगा है। इससे न्यूड ऑर्ट या मूर्ति शिल्प के सारे कलाकार दुनिया भर में परेशान हैं।”

इसके बाद आंटी ने दुनिया के कई बड़े कलाकारों के भी नाम लिए। उन्होंने राजा रवि वर्मा, जतिन दास, मंजीत बावा, अमृता शेरगिल और चीन के ऑर्टिस्ट ली झिआंग पिंग की पेंटिंग के बारे में भी बताया। यह भी कि अमृता ने तो अपनी बहन को भी मॉडल बनाया। छोटी बहन इंदिरा सुंदरम की नींद नाम से न्यूड पेंटिंग बनाई। जो बहुत प्रसिद्ध हुई। बड़ा तहलका मचा दिया था उन्होंने। वह न्यूड पेंटिंग तो नेट पर दुनिया आज भी देख रही है। यूरोप, चीन आदि के बारे में भी ख़ूब बातें बताईं। कहा कि, “चीन में ली झिआंग पिंग ने कुछ बरस पहले ही अपनी युवा होती पुत्री की न्यूड पेंटिंग बना डाली।”

चित्रा आंटी मुझे यह सब बता कर, दिखा कर इस बात के लिए कंविंस करने में लगी हुई थीं कि मैं न्यूड पेंटिंग के लिए उनकी मॉडल बनूँ। उनके हिसाब से यूँ तो न्यूड पेंटिंग अनगिनत मॉडल्स ने बनवाई हैं। लेकिन मेरी पेंटिंग तहलका मचा देगी। करोड़ों रुपए में बिक जाए तो आश्चर्य नहीं। क्यों कि मेरा बौना शरीर तमाम बौनी लड़कियों के शरीर से भिन्न है। टेढ़े-मेढ़े न होकर सीधे सुडौल हैं। भरे पूरे स्तन, नितंब, जाँघें यह सब मेरी न्यूड पेंटिंग्स को ऐसी आश्चर्यजनक पेंटिंग बना देंगी कि यह न सिर्फ़ करोड़ों में बिकेंगी बल्कि मैं दुनिया में प्रसिद्ध हो जाऊँगी। 

उनको जैसे ही लगता कि मैं उनकी बात पर यक़ीन नहीं कर पा रही हूँ तो वह फट से एक नई सनसनीखेज़ जानकारी देतीं। पहाड़ के संसार चंद्र बरू के बारे में बताया कि, “वह एक जनजाति की महिलाओं की न्यूड पेंटिंग बनाते थे। उस जनजाति की महिलाएँ उनके लिए ख़ुशी-ख़ुशी न्यूड मॉडलिंग करती थीं।” 

उनकी इस बात पर मैंने जब यह तर्क दिया कि जब पुराने ज़माने से ही लोग कलाकारों के सामने बिना शर्म-संकोच के आर्ट के लिए नग्न होते आ रहे हैं तो, आज न्यूड मॉडलों की कमी क्यों हो गई। अब तो लोगों को कपड़े उतारने में पहले के मुक़ाबले ज़रा भी संकोच नहीं है। तो आंटी क़रीब-क़रीब झल्ला कर बोलीं, “तनु पैसा, पैसे के कारण यह हो रहा है। मॉडल सोचते हैं कि कलाकारों के सामने नग्न होने पर नाम मात्र को पैसा मिलता है। वहीं किसी प्रोडक्ट, फ़िल्म आदि के लिए कपड़े उतारते हैं तो ज़्यादा पैसा मिलता है। आज भी जो कलाकार मॉडलों को मुँह माँगी रक़म देने या दिलाने में सक्षम हैं, उन्हें न्यूड मॉडलों की कमी नहीं है।” 

मेरे यह कहने पर कि, “आंटी आप के पास भी तो पैसे की कमी नहीं है। फिर आप को मॉडलों की कमी क्यों है?” इस पर खिसियानी हँसी हँसती हुई बोलीं, “तनु-तनु मेरे बच्चे मैंने भी बहुत पैसे खर्चं किए हैं।” फिर उन्होंने दो न्यूड पेंटिंग दिखाईं। कहा, “इन मॉडलों को मैंने मोटी रक़में दीं। तब इन्होंने यह काम किया वह भी इस शर्त के साथ कि चेहरा इतना चेंज कर दूँ कि वह पहचान में न आएँ। इससे पेंटिंग्स में वह बात नहीं आई जो आनी चाहिए थी। इसकी वजह से पेंटिंग अच्छे दामों में नहीं बिक सकी। इसके बावजूद इन दोनों ने आगे के लिए इतनी रक़म माँगी जो मैं नहीं दे सकती थी।”

इस पर मैंने मज़ाक में ही कह दिया कि, “आंटी मुझे तो आप एक भी पैसा नहीं दे रहीं हैं।” मेरी हँसी रुकी भी नहीं थी कि आंटी बोलीं, “तनु मेरे लिए तुम मॉडल नहीं हो। मेरे लिए एक और मिनिषा हो। मेरी बेटी हो। असाधारण हो, मैं तुम्हें पैसे नहीं दूँगी। सेलिब्रिटी बनाऊँगी। दुनिया तुम पर पैसे बरसाएगी। 

“सारे बड़े-बड़े ऑर्टिस्ट तुम्हें अपना मॉडल बनाने के लिए करोड़ों देंगे। तुम अपनी तरह की अकेली पहली मॉडल बन जाओगी। जैसे विश्व प्रसिद्ध मॉडल नॉओमी कैंपबेल। वह निग्रो है। ज़बरदस्त काली है। लेकिन मॉडलों की मॉडल रही है। न जाने कितने प्रोडक्ट्स के लिए मॉडलिंग की है। तुम भी उसी तरह एक सेलिब्रेटी मॉडल बन जाओगी।”

सच कहूँ तो मुझ पर उनकी बातों का जादुई असर भी हुआ। कई दिन टुकड़ों में अपनी बातें कहने के बाद मुझे जब उन्होंने अपने प्रभाव में आया हुआ मान लिया तो, एक बात और की, कि जब वह यह बातें करतीं तो ख़ुद भी बेहद कम कपड़ों में रहतीं और मिनिषा भी। 

एक बार जब मैं उनके घर में पहुँची तो शाम के चार बज रहे थे। मेरे पहुँचते ही बड़े प्यार से मेरा स्वागत किया। जल्दी से मुझे पेंटिंग रूम में ले गईं। उनका पेंटिंग रूम बहुत बड़ा और शानदार था। मुझे बहुत अच्छा लगता था। तरह-तरह की पेंटिंग्स लगी थीं। 

उस दिन उन्होंने ईज़ल पर नया कैनवस लगा रखा था। चित्रा आंटी ने स्यान कलर की ढीली-ढाली घुटनों से ऊपर बरमुडा पहन रखी थी। और स्लीवलेस छोटी सी बनियान, मिनिषा ने छोटी सी पीले रंग की बेहद चुस्त नेकर और माँ ही की तरह स्लीवलेस सिल्क की छोटी सी बनियान पहन रखी थी। माँ की तरह मिनिषा भी तब-तक अच्छी ऑर्टिस्ट बन चुकी थी। 

लाइन स्केच बहुत अच्छा बनाने लगी थी। एक तरफ़ उसने भी अपना ईज़ल लगा रखा था। उस पर मैट फ़िनिश पेपर लगा था। माँ-बेटी दोनों ही मेरी न्यूड पेंटिंग बना लेने के लिए जी-जान से तैयार थीं। उनकी बातों से यह पहले ही मालूम था कि, यह काम वे कई दिन में पूरा करेंगी। और मुझे उस पोज़ में रोज़ आकर उनके लिए मॉडलिंग करनी थी। 

मुझ पर अपनी अपंगता, बौनेपन की कुंठा पर सेलिब्रेटी बनकर विजय पाने का भूत सवार हो चुका था। मेरी नज़रों के सामने सिंडी क्रॉफर्ड, नॉओमी कैंपबेल घूमती थीं। माँ-बेटी ने मुझे ऐसा समझा दिया था कि मैं यह सपना देखने लगी थी कि मैं उन सब के मुँह पर सेलिब्रेटी बनकर करोड़ों रुपए कमाकर मारूंगी जो मुझे चिढ़ाते अपमानित करते हैं। 

उन सब को बताऊँगी कि देखो तुम अपनी और मेरी हैसियत। कहाँ तुम और कहाँ मैं। मेरी यह मनःस्थिति उन माँ-बेटी ने ही बना दी थी। इस जुनून के चलते जब उस दिन उन्होंने न्यूड पोज़ के लिए मुझे कपड़े उतारने को कहा तो मैं शुरू में थोड़ा बहुत ही संकुचाई। 

इस संकोच को भी माँ बेटी ने एक झटके में ख़त्म कर दिया था। माँ बोली, “देखो संकोच करोगी तो शरीर तनाव में रहेगा। शरीर की स्वाभाविक रेखाएँ नहीं मिलेंगी। पेंटिंग ख़राब हो जाएगी। तुम्हारी हमारी सब की मेहनत पर पानी फिर जाएगा।” उनकी यह बात भी जब मेरी हिचक दूर न कर पायी। चेहरे पर सहजता न आ पाई। तो माँ ने अचानक जो किया उससे मेरी आँखों के सामने एक के बाद एक मानो कई-कई बार बिजलियां कौंध गईं थीं। 

चित्रा आंटी एकदम मेरे सामने खड़ी होकर मुझे समझा रहीं थीं। अचानक ही क्षण भर में अपनी टी-शर्ट उतार कर कुछ दूर पड़ी एक कुर्सी पर फेंकती हुई बोलीं, “लो देखो, क्या फ़र्क़ है हममें तुममें। जैसा शरीर तुम्हारा वैसा मेरा। इसमें कैसी शर्म, हम कोई ग़लत काम नहीं कर रहे हैं बेटा, हम एक ऑर्टिस्ट हैं। तुम एक मॉडल हो। आर्ट की दुनिया को हम तीनों मिलकर एक महान कृति देंगे। जब-तक यह आर्ट की दुनिया रहेगी, तब तक हम तीनों का नाम रहेगा। हम अमर हो जाएँगे। तुम्हारे पैरेंट्स को भी तुम पर गर्व होगा।” 

इस बीच मिनिषा भी मेरे सामने आ गई। मैंने देखा उस पर जैसे कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ा था। माँ की बात पूरी होते ही वह भी बोली, “तनु इसमें कोई शर्म की बात नहीं है। ये एक महान काम है। कोई ग़लत काम नहीं, कोई साधारण काम नहीं है, जिसे हर कोई कर सके।” फिर माँ से भी आगे निकलते हुए एकदम निर्लिप्त भाव से उसने भी मेरे ही सामने अपने कपड़े उतार दिए। मैं हक्का-बक्का थी। मेरी कल्पना से परे था यह सब-कुछ। यह कैसा महान काम था? 

मैं बड़े असमंजस में थी कि, ली झिआंग पिंग ने तो अपनी बेटी को ही न्यूड मॉडल बनाया था। यहाँ तो माँ-बेटी मॉडल बनाने के लिए उसके सामने ख़ुद ही न्यूड हो गई हैं। मैं हक्का-बक्का दोनों को देख ही रही थी कि तभी आंटी मेरी बग़ल में बैठ गईं थीं। समझाने लगी थीं मुझे। और मिनिषा तीन कप कॉफ़ी लेकर आ गई थी। वह भी एक छोटी सी चेयर पर सामने बैठ गई। 

माँ-बेटी कॉफ़ी पीती रहीं और मेरी संकोच की आख़िरी रेखा भी मिटा देने के लिए अपने तर्क देती रहीं। बग़ल में बैठी माँ मेरे कपड़ों, बदन पर भी बराबर हाथ चला रही थी। कॉफ़ी ख़त्म होते-होते आख़िर दोनों सफल रहीं और मेरे संकोच की आख़िरी रेखा भी मिटा दी। 

अब मैं भी मिनिषा की तरह बिना कपड़ों के थी। मुझे एक स्टूल के बग़ल में खड़ा कर दिया, मेरा एक हाथ स्टूल पर था। पोज़ इस तरह का था कि मेरे शरीर का एक-एक अंग ज़्यादा से ज़्यादा उन्मुक्त रहे। माँ-बेटी एकदम यंत्रवत सी अपने काम में लगी रहीं। मैं उनकी यह लगन मेहनत देख कर बहुत प्रभावित हुई। बिना हिले-डुले मूर्ति बने खड़ा रहना बड़ा मुश्किल काम था। मैं थक जाती तो मुझे कुछ देर आराम दे दिया जाता। फिर उसी तरह काम शुरू हो जाता। 

पहले दिन दो घंटे में ही थक कर मैंने कह दिया अब आज और नहीं कर पाऊँगी। इस पर माँ-बेटी ने ख़ुशी-ख़ुशी पैकअप कर दिया। मैंने जल्दी से अपने कपड़े पहने, माँ ने पेंटिंग शुरू करने से पहले ही कपड़े पहन लिए थे और बेटी ने भी। काम को विराम देते ही माँ ने आकर मुझे बड़े प्यार से न सिर्फ़ चूमा था बल्कि कपड़े पहनने में भी मदद की। मिनिषा का प्यार से गले लगा लेना भी मुझे बहुत भाया। मैंने कैनवस पर देखा कि कुछ बड़ी अस्पष्ट सी आकृति बनी हैं। मिनिषा का पेंसिल स्केच ज़्यादा स्पष्ट था। 

उस रात मैं जागते और सोते दोनों ही हालत में एक ही सपना देख रही थी कि मेरे पास ढेरों पैसा आ गया है। लोग मेरी पेंटिंग्स ख़रीद रहे हैं। मैं सेलिब्रेटी बन गई हूँ। आंटी-मिनिषा ने जो सपने दिखाए उसमें मैं कई दिन मस्त हो डूबती-तैरती रही। मुझे बाक़ी लड़कियाँ अपने सामने बदसूरत गंदी नज़र आ रही थीं। 

मैं समझ रही थी कि चार-छह दिन में पेंटिंग तैयार हो जाएगी। इसलिए वह जब बुलातीं मैं टाइम से पहले ही पहुँच जाती। मैं माँ-बेटी में ज़बरदस्त उत्साह देख रही थी, वह जल्दी से जल्दी काम पूरा करने की कोशिश में थीं। मैं तो उत्साह में थी ही। पहली बार के बाद मुझे फिर कभी कपड़े उतारने और उसी पोज़ में खड़ा होने में कोई हिचक नहीं होती थी। 

मगर आठ-दस दिन बाद ही मेरा उत्साह कुछ-कुछ कम होने लगा था। मेरा मन ऊबने लगा और घबराहट भी होने लगी थी। मैंने देखा आंटी पेंट सूखने के इंतज़ार में समय ख़ूब ले रही हैं। मिनिषा ने ज़रूर पेंसिल स्केच पूरा कर लिया। बहुत बढ़िया स्केच बनाया था। उसने मैटफिनिश पेपर पर मुझे पूरी तरह उतार दिया था। 

अपने को नग्न देखकर मैं उस दिन एकदम शर्म से गड़ गई। अपने हुनर से मिनिषा ने मेरे एक-एक अंग, एक-एक उभार को साकार कर दिया था, जीवंत कर दिया था। लगता मानो मैं पेपर से बस बाहर निकल ही रही हूँ। मैं क़ायल हो गई थी उसकी आर्ट की। लेकिन उस दिन मेरे शर्म की जो लकीर गाढ़ी होनी शुरू हुई थी वह हर क्षण बढ़ती जा रही थी। उस रात पहली बार मैंने गंभीरता से यह सोचा कि मैंने यह क्या कर डाला। मेरी यह पेंटिंग कौन सा करिश्मा कर डालेगी। 

न्यूड पेंटिंग्स की भीड़ में एक और पेंटिंग ही साबित होगी इसकी सम्भावना ही ज़्यादा है। यह बात मेरी समझ में पहले क्यों नहीं आई। पापा का सारा डर-ख़ौफ़ कहाँ चला गया कि मैंने यह सब कर डाला। मेरे दिमाग़ में ज़रा सी यह बात क्यों नहीं आई कि जब पापा-माँ को यह बात पता चलेगी तो क्या होगा, उन पर क्या बीतेगी? कितना बड़ा विस्फोट होगा? फिर उस रात चिंतन-मनन कर मैंने यह तय कर लिया कि अगले दिन जाकर कह दूँगी कि मुझे नहीं बनना सेलिब्रिटी। 

चित्रा आंटी की ऑयल पेंटिंग अभी इतनी बनी ही नहीं है कि मुझे कोई पहचान सके। मिनिषा वाली माँग लूँगी। फाड़ दूँगी उसे। लेकिन अगले दिन मेरा निर्णय धरा का धरा रह गया। अगले दिन माँ-बेटी ने मुझे समझा-बुझाकर फिर स्टूल के सहारे नग्न खड़ा कर दिया। और मैंने भी यह तय कर लिया कि यह काम पूरा करूँगी। चाहे जितना बड़ा पहाड़ टूट पड़े। 

मिनिषा ने उस दिन दूसरे एंगिल से मेरा दूसरा स्केच बनाना शुरू कर दिया था। जिस दिन ऑयल पेंटिंग पूरी हुई उस दिन उसे देखकर मैं चित्रा आंटी की ऑर्ट के लिए उनसे यह कहे बिना न रह सकी कि “रियली आंटी आप ग्रेटेस्ट ऑर्टटिस्ट हैं।” उनका हाथ चूम लिया था मैंने। 

मगर मेरी सारी उम्मीदों, सपनों पर अगले कुछ ही महीनों में पानी फिर गया। नेट पर पेंटिंग्स डाली गईं। एक एग्ज़ीबिशन में भी गईं। लेकिन छुट-पुट सराहना के सिवा कुछ न मिला। संतोष करने भर को एक पेंटिंग बिकी। यानी न नाम न दाम। फिर आंटी ने मेरी न्यूड पेंटिंग की पूरी एक सीरीज़ बनाने को बोला, जिसे मैंने मना कर दिया। और सीखना भी बंद कर दिया। 

घर पर ही जो प्रैक्टिस हो पाती वह करती। इस बीच माँ-पापा मेरी शादी को लेकर परेशान हो उठे। मेरे जैसा कोई बौना ढूढ़ने लगे। मैं यह जानकर सोच कर ही परेशान हो उठी कि क्या फ़ायदा ऐसी शादी का, लोगों के बीच जोकर, हँसी का पात्र बनने का, बौनों की एक और पीढ़ी पैदा करने का। 

मैं जब-जब अपनी शादी के लिए मना करती माँ-पापा दोनों नाराज़ हो जाते। जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया वैसे-वैसे दोनों की चिंताएँ बढ़ती गईं। पापा की शराब भी बढ़ती जा रही थी। और साथ ही सेहत भी बिगड़ती जा रही थी। घर की कलह भी। 

इस बीच मैं अपनी योजनानुसार अपने पैरों पर खड़े होने की पुरज़ोर कोशिश करती रही। मन में यह भी था कि, जिस दिन नौकरी मिल जाएगी। माँ-बाप से साफ़ कह दूँगी कि शादी करनी ही नहीं। इस बीच मैं जहाँ कहीं जाती और जब लौटती घर तो कई तरह के ताने अपमानजनक बातें, लोगों की हँसी-ठिठोली लेकर लौटती। दुख तब और होता जब यह सब करने वाली महिलाएँ, लड़कियाँ ही ज़्यादा होतीं। 

मैं अपने कपड़ों को लेकर हमेशा तकलीफ़ में रहती। नाप का कुछ मिलता नहीं। बुटीक ढूढ़ती कि महिलाएँ ही मिलें। मगर वहाँ भी उन महिलाओं की दबी हँसी मुझसे छिपी न रहती। क्रोध से भर उठती। मन करता सबकी टाँगें काट-काट कर अपने से छोटा कर दूँ। सब को महा बौना-बौनी बना दूँ। मगर घर आते-आते मन रो पड़ता। माँ-बाप परेशान न हों इसलिए अकेले ही रो लेती, आँसू बहा लेती। 

माँ-पापा की हताशा-निराशा देखकर मैं और टूटती। पापा तो एकदम बदल गए। पहले जहाँ मुझे एक सेकेंड भी अकेले बाहर नहीं छोड़ना चाहते थे। वही अब घंटों देर हो जाने के बाद भी कुछ न कहते। फिर वह दौर भी शुरू हुआ जब माँ-पापा दोनों ही ज़्यादा बीमार रहने लगे। पहले पापा को माँ साथ लेकर जाती थीं हॉस्पिटल। लेकिन उनकी भी तबियत ज़्यादा ख़राब रहने लगी तो डिंपू को ड्राइवर रख लिया गया। फिर देखते-देखते ही वह ड्राइवर से घर का सहयोगी भी बन गया। 

जल्दी ही पापा इतने गंभीर हो गए कि चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया। डिंपू ही उन्हें लेकर जाता। अंततः डॉक्टरों ने एक दिन यह कह दिया कि, पापा अब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। लीवर पूरी तरह से डैमेज हो चुका है। पापा उस दिन अपनी निश्चित मौत क़रीब देख कर रो पड़े थे। 

उन्होंने तमाम बातों के साथ-साथ माँ से यह बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि, “देखो मेरे बाद जब तुम्हें नौकरी मिल जाए तो तुम ऑफ़िस में मेरी इज़्जत बनाए रखना। किसी साले से बात नहीं करना। सब साले बस औरत को नोचने में लगे रहते हैं। जो सबसे ज़्यादा हितैषी बनने लगे समझ लेना वह तुम्हारे शरीर को भोगने के लिए पगलाया है।” 

माँ ने जब कहा कि, “क्यों ऐसा कुभाख रहे हैं। अरे पचास की हो रही हूँ, इस उमर में कोई क्यों मेरे पीछे पडे़गा?” तब पापा की बात सुनकर मैं सहम गई कि, “तुम नहीं जानती, साले उम्र नहीं देखते, उनको केवल औरत का बदन दिखता है, साले औरत को माल कहते हैं। बोलते हैं जब-तक हर तरह के माल का टेस्ट न करो तब तक मज़ा नहीं आता।” 

पापा इसके बाद बमुश्किल डेढ़ माह ही ज़िन्दा रहे। लेकिन इस डेढ़ माह में भी वह उठना-बैठना मुश्किल होने के बावजूद अपने भरसक ऑफ़िस के एक-एक आदमी की करतूत बता-बता कर कहते, “इस हरामी से दूर रहना।” 

कई औरतों की हरकतें बताते हुए कहते कि, “उनसे भी दूर रहना। साली कई मर्दों को फाँसे रहती हैं। बाक़ी औरतों को भी फँसाती हैं, जिससे उन पर कोई उँगली न उठाए।” फिर वह दिन भी आया जब उन्होंने यह भी कह दिया कि उन्हें मुखाग्नि भी माँ ही देंगी। इसके अड़तालीस घंटे बाद ही चल बसे। 

मैंने डिंपू की मदद से आरंभ से लेकर श्मशान तक की तैयारी की। दो-तीन पड़ोसियों ने भी मदद की। माँ की बदहवासी ऐसी थी, बार-बार इतना बेहोश हो रही थीं कि, कुछ कर ही नहीं सकती थीं। पापा की इच्छा के चलते उन्हें श्मशान ले गए और माँ ने उनकी अंतिम इच्छा पूरी की। हालाँकि तब भी पूरी तरह होश में न थीं। 

पापा के जाते ही माँ की डायबिटीज़, ब्लड-प्रेशर ने जो एक बार बढ़ना शुरू किया तो फिर रुकने का नाम ही नहीं लिया। मैं अकेली या ये कहें कि घर में अकेली मात्र तीन साल की बच्ची। माँ को चाय-पानी, खाना आदि देना मेरे लिए उतना ही कठिन था जितना तीन चार साल के बच्चे के लिए हो सकता था। 

किचन में मेरी ऊपर तक पहुँच नहीं थी तो, मैं कुर्सी लगाकर ऊपर प्लैटफ़ॉर्म पर बैठकर ही सब तैयार करती। लेकिन उसे लेकर उतरना मुश्किल था तो एक थोड़े छोटे स्टूल पर चीज़ें नीचे रखती, फिर कुर्सी पर रखती और तब माँ तक पहुँचती। 

यह मेरे लिए बिना सीढ़ी के छत पर चढ़ने-उतरने जैसा था। सो दो दिन बाद ही मैंने गैस चूल्हा और सारा सामान डिंपू की मदद से नीचे ज़मीन पर रख लिया। बेड सहित और कई स्थानों पर आसानी से पहुँचने के लिए एक फुट और दो फुट ऊँची चौकियाँ बनवा लीं। यहाँ तक की बाथरूम के लिए भी। 

मैं जितना स्थितियों को सँभालने की कोशिश करती, माँ की तबियत उतनी ही ख़राब होकर सब पर पानी फेर देती थी। और पापा की जगह माँ की नौकरी की बात रोज़ जहाँ से शुरू होती वहीं पर ख़त्म होती। ऑफ़िस के लोगों का आना-जाना बना हुआ था। 

मैं सब की आँखों में पापा की कही बातों को ही ढूँढ़ती और क‍इयों की आँखों में पापा की बातों को पाती भी। नतीजा यह हुआ कि मैं सिन्हा आंटी, उप्रेती अंकल और ननकई इन सब को छोड़ कर सब से नफ़रत करने लगी। माँ की जर्जर शारीरिक हालत और मानसिक हालत को देखकर ही सिन्हा आंटी ने माँ की जगह मुझे नौकरी करने की सलाह दी। 

अपनी बातों से उन्होंने क्षण-भर में ही मुझे कंविंस कर लिया। फिर ख़ुद ही सारी दौड़-धूप कर कर के मुझे नौकरी दिला दी और ऑफ़िस में मेरी सुरक्षा घेरा बन गईं। उनके तेज़ तर्रार रुख़। शेरनी सी दहाड़ से ऑफ़िस में हर कोई उनसे डरता था। उनसे कतरा कर चलता था। 

ननकई भी उनके संरक्षण में थी। वह बेचारी क़िस्मत की मारी अपने क्लर्क पति की दुर्घटना में मौत के बाद चपरासी की जगह नौकरी करती थी। उप्रेती अंकल और दयाल अंकल भी इन्हीं लोगों की तरह अच्छे इंसान थे। लफ़ंगों को दबाए रहते थे। नौकरी से एक फ़ायदा ज़रूर हुआ कि आर्थिक स्थित जो कमज़ोर होती जा रही थी वह सँभल गई। 

ऑफ़िस जाने के साथ-साथ नई-नई समस्याएँ भी सामने आती गईं। डिंपू जो अब घर पर ही एक कमरे में रहने लगा था। उस पर मुझे पैसे रुपए सामान को लेकर शक हुआ। तो एक दिन सारा ज़रूरी सामान एक कमरे में बंद कर ताला लगाकर ऑफ़िस जाना शुरू किया। माँ की देख भाल भी होती रहे इसके लिए डिंपू मुझे ऑफ़िस छोड़ कर चला आता था। दिन भर फ़ोन कर-कर के माँ का हाल-चाल लेती रहती। 

मगर मेरी हर कोशिश पर भगवान जैसे पानी फेरने पर तुले हुए थे। सारी दवा-दारू, डॉक्टरों की सारी कोशिश सब बेकार रही। माँ की तबियत तेज़ी से गुज़रते वक़्त की तरह बिगड़ती रही। फिर एक दिन माँ भी पापा की तरह मुझे अकेली छोड़कर चल दीं। 

डिंपू तीन बजे ऑफ़िस आकर बोला था, “तुरंत चलिए, अम्मा जी की तबीयत बहुत ख़राब है।” उसके उड़े हुए चेहरे से भी मैं अंदाज़ा न लगा पाई थी कि माँ भी छोड़कर जा चुकी हैं। मैं घर पहुँची तो तीन-चार पड़ोसियों को देखकर सकते में आ गई। इतना ही नहीं, उप्रेती अंकल, सिन्हा आंटी, ननकई सहित कई और लोग भी मेरे पीछे-पीछे घर आ गए थे। तय था कि डिंपू ने ऑफ़िस वालों को मुझसे छिपा कर बता दिया था। मुझे बुलाने जाने से पहले पास पड़ोसियों को बुला कर छोड़ गया था। 

अपने बौनेपन का सबसे ज़्यादा अहसास मुझे उसी दिन हुआ। माँ बेड पर पड़ी हुई थीं, डिंपू उन्हें चादर ओढ़ा कर गया था। मैं ठीक से उन्हें अपनी बाँहों में भर कर रो भी न पा रही थी। आश्चर्यजनक रूप से ऑफ़िस और पड़ोसियों से घर भर गया था। सिन्हा आंटी, ननकई, पड़ोसी, उप्रेती अंकल सबने मुझे सँभाला। और कहा कि यदि बाहर से किसी को आना है तब तो इंतज़ार किया जाए नहीं तो आज ही संस्कार कर दिया जाए। 

मैं किसी को क्या बताती कि दुनिया में दो ही थे अपने और अब दोनों ही छोड़कर चले गए ऊपर। यूँ तो दर्जनों का परिवार है, लेकिन बिना बात की बात पर ही सारे रिश्ते बरसों बरस पहले, मेरे जन्म से पहले ही ख़त्म हो गए। 

उन रिश्तेदारों में नाना-नानी, बाबा-दादी को छोड़ कर मामा, मौसी, चाचा-चाची, चचेरे ममेरे, भाई-बहन सभी तो हैं मेरे, इस दुनिया में, लेकिन न उन सब ने और न ही मैंने किसी को देखा है। तो आख़िर किसका इंतज़ार। पापा ने ऐसा कुछ छोड़ा ही नहीं था जो किसी का इंतज़ार किया जाता। तो दिल पर पत्थर रख कर लोगों से कह दिया कि, संतान, नाते-रिश्तेदार जो कुछ हूँ मैं ही हूँ, और मैं उपस्थित हूँ, इसलिए संस्कार आज ही होना है। 

मैं सारे पड़ोसियों, ऑफ़िस के सारे लोगों और खासतौर से डिंपू की उस दिन के लिए आज भी आभारी हूँ। देखते-देखते सारी तैयारियाँ हो गईं। सबके बीच खुस-फुसाहट मैंने साफ़ सुनी थी कि अग्नि कौन देगा। मैं स्वयं सारा काम करूँगी यह जान कर कई लोगों के चेहरे पर आश्चर्य भी देखा था। 

यही हाल श्मशान पर भी था। जहाँ पर मेरे साथ डिंपू, पड़ोसी, ऑफ़िस के मिलाकर यही कोई नौ-दस लोग थे। शवदाह के लिए वहाँ आठ या नौ प्लैटफ़ॉर्म बने थे। वहीं पर माँ की चिता तैयार हुई। पूरे रस्मों रिवाज़ के साथ माँ को अंतिम विदाई दी। वापस आ कर देखा तो घर पर सिन्हा आंटी, उनके पति, उप्रेती अंकल के अलावा सभी जा चुके थे। मैं यह सब देख कर संज्ञा शून्य सी, मशीन सी बन गई थी। घर का कोना-कोना मुझे काटने को दौड़ रहा था। 

डिंपू बिना कुछ कहे ही काम-धाम में ऐसे लगा हुआ था कि मानो यह उसी का घर हो। कुछ ही देर में पड़ोसी जायसवाल आंटी चाय, पूड़ी-सब्ज़ी आदि लेकर आ गईं। सबने कोशिश की कि मैं कुछ खा लूँ लेकिन मेरी हलक़ से नीचे आधी कप चाय के सिवा कुछ नहीं उतरा। रात दस बजे तक सब समझा-बुझा कर ढाढ़स बँधाकर कर चले गए। ज़रूरत पड़ने पर तुरंत फ़ोन करने की बात कहना कोई न भूला। पूरी रात मुझे नींद न आई। 

घर का कोना-कोना मुझे चीत्कार करता नज़र आ रहा था। मुझे छोटा सा अपना घर अचानक बहुत बड़ा भूतहा महल सा नज़र आने लगा। किसके कंधे पर सिर रखकर माँ के दुख में आँसू बहाऊँ। कहीं कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन उस दिन पहली बार एकदम तड़प उठा, छटपटा उठा कि काश परिवार में और सदस्य होते। 

काश माँ-पापा ने और बच्चे पैदा किए होते। मेरे भी भाई-बहन होते। सब एक दूसरे का सहारा बनते। काश मैं भी किसी को जीवन साथी बना लेती। या कोई मुझे साथ ले लेता। कोई अपंग अपाहिज भी होता तो कम से कम एक कंधा तो होता। 

मेरी तड़फड़ाहट रात तीन बजे एकदम बेक़ाबू हो गई। मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी। न जाने कितनी देर रोती रही। कि तभी दरवाज़े पर दस्तक और डिंपू की आवाज़ एक साथ सुनाई दी। उसने दरवाज़े पर खड़े-खड़े ही ढाढ़स बँधाते हुए कहा, “चुप हो जाइए। भगवान की मर्ज़ी के आगे क्या करा जा सकता है। अम्मा जी की जितनी आयु थी उतना दिन रहीं साथ। आप ऐसे रोएँगी तो उनकी आत्मा को बड़ा कष्ट होगा। शांत होकर आराम कर लीजिए, सवेरे आपको बहुत काम करना है।” 

डिंपू ने उस समय मुझे बड़ी हिम्मत बँधाई। बहुत काम करना है यह बात मेरे कान में गरम-गरम शीशे सी पहुँची। मेरा रोना बंद हो गया। दिमाग़ सवेरे काम पर चला गया। डिंपू के एक वाक्य ने धारा ही बदल दी। तभी मेरा ध्यान इस बात पर भी गया कि, रात के तीन बज रहे थे और मैंने घर का दरवाज़ा तक बंद नहीं किया था। फिर देखते-देखते सवेरा हो गया। 

सात बजते-बजते पहले सिन्हा आंटी पति के साथ आईं। उनके कुछ देर बाद ही उप्रेती अंकल, ननकई और जायसवाल जी पत्नी संग आ गए। ढाढ़स बंधाने का एक दौर और चला, फिर बाक़ी क्रिया कर्म को लेकर बातें हुईं, पापा का सब काम-धाम कर ही चुकी थी सो मुझे सारी बातें मालूम ही थीं। मैंने सनातन परंपरानुसार सारा काम किया। 

ऑफ़िस महीने भर बाद गई। जब ऑफ़िस के लोगों का यह ज़ोर पड़ा कि घर पर अकेली पड़ी रहोगी तो परेशान रहोगी। ऑफ़िस में मन थोड़ा सा बहला रहेगा। ऐसे अकेली तबियत ख़राब कर लोगी। इस बीच मैंने डिंपू को भी एक महीने की छुट्टी दे दी थी। उसको यह कह दिया था कि जाओ तुम्हें तुम्हारी तनख़्वाह मिलेगी। 

इस एक महीने में मैं घर से बाहर नहीं निकली। कोई आया तभी दरवाज़ा खुला। उम्मीदों से एकदम विपरीत मिनिषा, चित्रा आंटी दो बार आईं। और पड़ोसी जायसवाल परिवार तीन बार। सिन्हा आंटी, उप्रेती अंकल का फ़ोन सुबह-शाम रोज़ आता। बड़े स्नेह से यह लोग समझाते-बुझाते। इन्हीं लोगों ने ज़ोर दिया कि मैं ऑफ़िस आऊँ। 

एक महीने बाद मैंने ऑफ़िस जाना शुरू कर दिया। मुझे अब सारी दुनिया और भी बेगानी, पराई अजीब सी लगने लगी। बाहर निकलते ही सबको अपनी तरफ़ घूरते पाती। कुछ आँखों में मेरे लिए बेचारी साफ़ नज़र आता। कुछ में दयाभाव तो और सब में न जाने कैसे-कैसे भाव। 

माँ-पिता में ध्यान कुछ ऐसा लगा हुआ था कि मैं अपना काम-धाम भूलने लगी। ऑफ़िस के काम में सिलसिलेवार ग़लतियों पर दया की जाने लगी। यही हाल घर के कामों का था। हफ़्तों हो जाता झाड़ू-पोंछा, साफ़-सफ़ाई कुछ नहीं। पॉलिथीन में भरा कूड़ा जब बदबू के मारे जीना हराम कर देता तो अगले दिन जमादार के आने पर फेंकती। 

डिंपू जब था तब उस ने एक-दो बार हिम्मत करके मुझे ख़ुद को सँभालने और साफ़-सफ़ाई, बाक़ी के कामों में हाथ बँटाने को कहा था लेकिन तब मैंने मना कर दिया था। मेरा व्यवहार शायद काफ़ी रूखा था तो उसने आगे कुछ कहना एकदम बंद कर दिया। उसी के बाद मैंने उसे घर भेज दिया था। मैं घर में जहाँ इधर-उधर घूमती, कुछ करने लगती, तो ऐसा लगता मानो माँ-पिता मुझे मना कर रहे हैं, “तू रहने दे, नहीं कर पाएगी। तेरे वश का नहीं है यह सब।” 

मुझे पूरा घर साँय-साँय करता नज़र आता। दिल को दहला देने वाले इस सन्नाटे के बीच मैं नन्हीं-मुन्नी साढ़े तीन साल की बच्ची सी डरी-सहमी कहीं इस कोने तो कहीं उस कोने में दुबक जाती। डर से अपने को बचाने के लिए टीवी बराबर तेज़ आवाज़ में चलाती रहती। म्यूज़िक सिस्टम को दूसरे कमरे में चलने देती। 

तीन महीने ही बीते होंगे कि, आख़िर मैंने एक दिन तय किया कि सारा सामान बेच डालूँगी। माँ-पिता से जुड़ी सारी चीज़ें बेच डालूँगी। आख़िर जब वे ही नहीं रहे तो उनसे जुड़ी चीज़ों को रखने का क्या मतलब? एक दिन मैंने ननकई को बुला कर उसकी मदद से माँ के सारे कपड़े निकाले और उसे ही दे दिए। पहले उसने मना किया लेकिन मेरे आँसुओं के आगे मान गई। उसकी बेटी तेरह-चौदह की हो रही थी। लंबी भी थी। मेरे किसी काम का कुछ भी नहीं था। 

पापा के भी सारे कपड़े उसी को थमा दिए कि जो तुम्हारे समझ में आए करना। उसका एक लड़का भी था जो हाई स्कूल में पढ़ रहा था। जब ननकई जाने लगी तो मैंने ऑटो के किराए के भी दो सौ रुपए दिए। कपड़े काफ़ी थे। पाँच एयर बैग, चार सूटकेस भरे थे। मैंने सूटकेस, एयर बैग सहित दे दिया था। यह भी कह दिया था कि किसी को यह सब बताएगी नहीं। 

उसी दिन रात को मैंने अलमारी के लॉकर्स में से सारे गहने निकाले, जिन्हें पापा समय-समय पर बड़े प्यार से माँ के लिए लाते रहे थे। और माँ बड़े प्यार से उन्हें पहनती थीं। मगर अब सब यहीं धरे रह गए थे। जितना था सब यहीं था। मेरे लिए भी कई गहने ख़रीदे गए थे वह भी थे। पापा की अँगूठियाँ, चेन आदि भी। 

बड़ी देर तक मैं सब देखती रही। गहने उम्मीद से कहीं बहुत ज़्यादा थे। अचानक ही एक बात मन में आई कि पापा रिश्वत की कमाई से यह सब जो इकट्ठा कर गए, वह किस काम आ रहा है। कभी इन्हें पहन कर उनको बाहर जाते नहीं देखा। बस लॉकर्स में धरे रहे।

ननकई के साथ इन गहनों को दो दिन में अलग-अलग दुकानों पर बेच आई। जो कई लाख रुपए इक्ट्ठा हुए वो बैंक में जमा कर दिए। लौटते वक़्त एक बात और मन में आई कि गहने किसी काम न आए, इन रुपयों का भी क्या करूँगी? 

ननकई को मैं गहनों में से एक चेन निकाल कर पहले ही दे चुकी थी। मन में आया यह लड़की की शादी की बात करती रहती है कि चार-छह साल में शादी करनी है, पैसा जोड़ ही नहीं पा रही हूँ। क्या करूँ समझ में नहीं आ रहा? मन में आया, चलो अभी तो टाइम है, शादी का मौक़ा आएगा तो देखेंगे। 

इस तरह मैंने घर का बहुत सारा सामान या तो ननकई को दे दिया या बेच दिया। कमरों में, अलमारियों में अब जगह ख़ाली-ख़ाली नज़र आने लगी। एक अलमारी अभी भी ऐसी थी जिसे खोलना बाक़ी था। मुझे याद नहीं आता कि पापा या माँ ने कभी उसे मेरे सामने खोला हो। गहने वाली अलमारी के लॉकर में मुझे जो चाभियाँ मिली थीं, उन्हीं में से एक उस अलमारी में लग गई। 

उसमें मुझे आठ-दस फ़ाइलें मिलीं। जिसमें से एक में मकान के पेपर्स थे। इसके अलावा दो अन्य फ़ाइलों से मुझे पहली बार यह मालूम हुआ कि पापा ने दो प्लॉट भी ले रखे हैं। और आज की मार्केट प्राइस के हिसाब से उनकी क़ीमत करोड़ के क़रीब हो रही है। क्योंकि शहर के जिस एरिया में हैं वह अब शहर के सबसे पॉश एरिया में गिना जाता है। 

मुझे लगा कि मेरे लिए तो यह एक बड़ा सिर दर्द सामने आ गया। बाक़ी फ़ाइलों में ऑफ़िस के ही तमाम पेपर्स थे। इन आठ-दस फ़ाइलों के अलावा बाक़ी अलमारी फोटो अलबमों से भरी पड़ी थी। जिन्हें मैं टुकड़ों में कई दिनों में देख पाई। जिसमें सैकड़ों फोटो ऐसी थीं जिन्हें पोलोराईड कैमरा से खींचकर ख़ुद ही तुरंत प्रिंट लिया गया था। 

इन फोटुओं के लिए अच्छा यही था कि पापा या माँ इन सब को अपने रहते ही जला देते। इन सारी फोटो में माँ के सौंदर्य के प्रति पापा की दिवानगी चरम पर दिख रही थी। उसे किसी और के सामने नहीं पड़ना चाहिए था। यह काम फिर मैंने किया। ननकई को मैंने ख़ाली हो जाने पर दो अलमारियाँ भी दे दीं। 

साल बीतते-बीतते मैं काफ़ी हद तक ख़ुद को सँभाल चुकी थी। अब घर में नाम-मात्र को ज़रूरत भर का सामान था। पूरा घर ख़ाली-ख़ाली था। उससे कहीं ज़्यादा ख़ाली मेरा मन था। क्षण-भर को भी अब चैन नहीं था। अकेलेपन, बेचैनी में घर में टहलते रातें बीतती थीं। 

ऐसे टहलते-टहलते ही एक दिन दिमाग़ डिंपू की ओर चला गया। कुछ ही देर में मुझे लगा कि डिंपू पिछले कुछ महीनों से जिस तरह से काम कर रहा है, बल्कि यह कहें कि सेवा कर रहा है, वह एक ड्राइवर या घर के नौकर की सीमा से कहीं ज़्यादा था। 

उसकी भाव-भंगिमा भी नि:स्वार्थ से कहीं कुछ और लगी। यह उधेड़बुन जो मन में उस दिन शुरू हुई तो फिर वह बंद नहीं हुई। रोज़ ही बार-बार शुरू हो जाती। और अब मैं उसकी हर गतिविधि को बड़ी बारीक़ी से समझने का प्रयास करती। अंततः मुझे लगा कि लंबे समय तक ऐसे साथ-साथ, रोज़-रोज़, काम करते-करते कहीं कोई ऐसा-वैसा सम्बन्ध बन जाए इससे इंकार नहीं किया जा सकता। मेरा मन भी तो इसे देखकर जाने कैसे अजीब सा उछल-कूद करने लगता है। 

अंततः मैंने तय किया कि इससे जल्दी ही छुटकरा पा लूँ। दूसरे किसी बुज़ुर्ग ड्राइवर की तलाश में लग गई। इसी बीच एक दिन चित्रा आंटी मिनिषा के साथ आईं और बोलीं, “तनु मेरी और मिनिषा की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी है। मैं चाहती हूँ तुम भी एक बार चलो।” 

मैंने हँसते हुए कहा, “मुझे क्यों ले चल रही हैं आंटी, मैं चलूँगी तो लोग आप दोनों की आर्ट नहीं मुझे देखने लगेंगे।” 

मिनिषा ने फट से कहा, “सही ही तो है, लोग सेलिब्रिटी ही को देखेंगे।” 

मैंने कहा, “मेरा मज़ाक उड़ाने में तुम्हें बड़ा मज़ा आता है।” तो उसने बड़े प्यार से गले से लगा लिया। 

वह घुटनों के बल ज़मीन पर बैठी, अपने चेहरे को मेरे चेहरे तक लाते हुए बोली, “मेरी प्यारी तनु ऐसा भूल कर भी न सोचा करो। मेरी नज़र में तुम क्या हो हम कह नहीं सकते। तुम अपने को किसी से कम, कमज़ोर, हीन क्यों समझती हो। तुम जीवन में जिस तरह बढ़ रही हो यह आसान काम नहीं है। सबके वश का नहीं है। मैं तुम्हें अपनी सबसे ख़ास फ़्रेंड मानती हूँ।” 

इस बीच चित्रा आंटी भी बोलीं, “बेटा हम तुम्हें अपनी दूसरी मिनिषा मानते हैं।” इसके बाद माँ-बेटी दोनों ने ऐसी आत्मीयता भरी बातें कहीं कि मैं इंकार न कर सकी और अगले दिन प्रदर्शनी देखने पहुँची। 

वहाँ प्रदर्शनी देखने वालों की अच्छी-ख़ासी भीड़ थी। जिसमें यंग जेनरेशन ज़्यादा थी। वहाँ मैं पहुँची तो सबको अपनी तरफ़ घूरता ज़रूर पाया। ऑर्ट प्रदर्शनी में माँ-बेटी की ही पेंटिंग्स लगी थीं। यह प्रदर्शनी एक बड़े अधिकारी की ऑर्टिस्ट पत्नी की अपने पैसों, पति के प्रभाव से आयोजित प्रदर्शनी थी। 

ज़्यादातर पेंटिंग न्यूड थीं। शायद यंग जेनरेशन इसीलिए ज़्यादा आकर्षित थी। दो दिन से इसको लेकर मीडिया में चर्चा थी। मैं कुछ आगे बढ़ी ही थी कि, देखा एक पेंटिंग के आगे सबसे ज़्यादा भीड़ है। लोग मोबाइल से उसकी फोटो भी खींच रहे थे। 

मुझे हर पेंटिंग जिराफ़ की तरह सिर ऊपर कर के देखनी पड़ रही थी। उत्सुकतावश मैं भी उस तरफ़ चल दी। ननकई भी मेरे साथ थी। क्योंकि वही अब मेरी सबसे क़रीबी बन चुकी थी। डिंपू बाहर कार लिए खड़ा था। पेंटिंग के पास पहुँच कर मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। 

वहाँ अगल-बग़ल मेरी ही दोनों पेंटिंग लगी थीं, पहली मिनिषा द्वारा बनाया गया मेरा न्यूड स्केच था। दूसरी चित्रा आंटी द्वारा बनाई गई मेरी एक अधूरी ऑयल पेंटिंग थी। मिनिषा ने अपने स्केच को नाम दिया था, “गॉड वंडर्स“और चित्रा आंटी ने अपनी पेंटिंग जिसका चेहरा अधूरा था। उसे नाम दिया था “मिसटेक ऑफ़ गॉड।” दुनिया के सामने अपनी नंगी तस्वीर देखकर मैं पानी-पानी हो गई। 

शरीर में पसीने का गीलापन जगह-जगह महसूस कर रही थी। ननकई को भी ग़ौर से देखते मैं सहम गई। उसे किसी तरह का शक न हो। यह सोच कर मैं सामान्य सी बनी आगे चलने लगी। फिर कई और पेंटिंग देखने की ऐक्टिंग करती हुई बाहर आ गई। 

कार के पास पहुँची ही थी कि चित्रा आंटी और मिनिषा दोनों आ गईं। मुझे रोकना चाह रही थीं लेकिन मैंने उनकी एक सुने बिना ही डिंपू से चलने को कह दिया। रास्ते में ननकई को घर छोड़ते हुए अपने घर पहुँची। कमरे का टीवी ऑन कर बेड पर बैठी सोचती रही। माँ-बेटी के बहकावे में आकर मैं यह क्या कर बैठी। यह दोनों मुझे शहर में निकलने लायक़ नहीं छोड़ेंगी। मेरे मन में उनके लिए कई गालियाँ निकलती रहीं। 

शाम को काम वाली आई तो उसे और डिंपू जो इस बीच कई बार आया तो उन्हें पढ़ने की कोशिश करती रही कि कहीं इन सब को मालूम तो नहीं हो गया। यह सोच कर और परेशान हो गई कि ननकई और ऑफ़िस का यदि कोई और भी वहाँ देख कर आया होगा और पहचान गया मुझे तो क्या होगा। ननकई तो निश्चित ही पहचान गई होगी। पेंसिल स्केच तो वह ग़ौर से देख ही रही थी। 

वह इतनी सजीव है कि कोई भी मुझे एक नज़र में ही पहचान लेगा। रास्ते भर ननकई जैसे कुछ कहने, पूछने को व्याकुल लग ही रही थी। हो सकता है आज डिंपू के साथ होने के कारण नहीं पूछा। लेकिन वह चुप रहने वाली नहीं, कल पूछेगी ज़रूर। हो सकता है ऑफ़िस में ही पूछ ले। मैं ऑफ़िस वालों के सामने भी नग्न ही नज़र आऊँगी। कैसे फ़ेस करूँगी उन सबको। आने के बाद कई बार चित्रा आंटी और मिनिषा का फ़ोन आया लेकिन मैंने काट दिया। 

अगले दिन रविवार था, छुट्टी थी और वह दोनों आ धमकीं। दोनों मेरे लिए मिठाई-फल लेकर आई थीं। रौब झाड़ने के लिए पति की नीली बत्ती लगी गाड़ी से आईं थीं। जो पड़ोसियों के लिए कौतुहल का विषय बन गई। 

माँ-बेटी में न जाने कैसा जादू था कि सामने आते ही पल में मेरा ग़ुस्सा छूमंतर हो गया। आधे घंटे में दोनों मुझे अपने वश में करके चल दीं। दोनों मेरी सौ पेंटिंग्स की सीरीज़ की बात कहना नहीं भूलीं। मेरे लाख मना करने पर अंततः यह हामी भरवा ही ली कि सोचने दीजिए। 

उनके जाने के बाद जैसे मैं उनके प्रभाव से मुक्त हुई। सोत-सोते यह निर्णय ले लिया कि कभी नहीं। मगर अब दोनों पेंटिंग के शीर्षक मुझे बेचैन कर रहे थे कि एक मुझे ईश्वर की भूल तो दूसरी ईश्वर का आश्चर्य बता रही है। तो क्या मैं वाक़ई ईश्वर की ग़लती की सजा भुगत रही हूँ। और यदि आश्चर्य हूँ तो भी साफ़ ही तो है। सामान्य जीवन कहाँ जी रही हूँ। 

आख़िर सबके जैसा एक सामान्य आरामदायक जीवन हमें भी क्यों नहीं दिया। माँ को सुंदरता दी तो ऐसी कि वह उनके लिए अभिशाप बन गई। वह भी तो सामान्य जीवन न जी सकीं। पापा और वह सारा जीवन इस सुंदरता के कारण उत्पन्न बातों के चलते ही तो सारे परिवार, समाज से कटकर अभिशप्त जीवन जीते, आधे-अधूरे ही चल दिए। 

हालाँकि इसे उनका वहम भी कह सकते हैं। हाँ मेरा वहम नहीं है। मुझे तो दुनिया में भगवान ने एक मज़ाक ही बना कर भेजा है। दुनिया की हर चीज़, सारी इच्छाएँ, सारी संवेदनाएँ सब कुछ तन-मन में ठूँसकर भेजा, मगर उन्हें पूरा करने पाने का जो रास्ता हो सकता है वह सब बंद कर दिया है। बस कुछ है जो बिना माँगे ही मिल जाता है। लोगों की हँसी, अपनी खिल्ली उड़ाते लोगों के चेहरे। 

मैं उस रात बिल्कुल न सो सकी। रात के आख़िरी पहर आते-आते सोचने लगी कि आख़िर कब-तक चलेगी ऐसे यह ज़िन्दगी। शादी-ब्याह का कोई मतलब ही नहीं। माँ-बाप विचारे ढूँढ़-ढूँढ़ कर स्वर्ग सिधार गए। मैंने भी मना किया था कि और बड़ा कार्टून नहीं बनना। कार्टून का एक और पूरा परिवार नहीं बनाना। 

पता नहीं लोग कैसे यह कहते हैं कि भारत ऐसी जगह है, जहाँ कुछ हो ना हो शादी ज़रूर हो जाती है। पता नहीं . . . किसी बच्चे को अपना सकूँ, इसके भी सारे रास्ते बंद हैं। और इस भूख का क्या करूँ जो खाने-पीने के आलावा तन की भूख है। जो इस अकेले घर में रोज़-रोज़ बढ़ती जा रही है। और जब रात को यह भूख बढ़ती है तो तन-मन मचल-मचल कर चला जाता है डिंपू के पास। 

कई दिन, कई हफ़्ते, फिर कई महीने इसी उधेड़बुन में निकल गए कि आख़िर ज़िन्दगी जियूँ तो जियूँ कैसे? ऐसे तो वह दिन दूर नहीं जब माँ-बाप की तरह डायबिटीज़, बी। पी।, हॉर्ट की पेशेंट बनकर फिर कई साल दवा-दारू के सहारे घिसटते-घिसटते जीकर मर जाऊँगी। 

यदि मैं गॉड के मिस्टेक में ही अपने लिए कोई अवसर निकालूँ? उस मिस्टेक को अवसर में तब्दील कर दूँ? 

ऐसे ही मन में होते तर्क-वितर्क प्रश्न प्रति प्रश्न के बीच कई और महीने बीत गए। रोज़ कुछ अच्छा होता तो कुछ बड़ा तकलीफ़देह भी। लोगों की हँसी उड़ाती नज़रें जो पहले तीखी बर्छी सी लगती थीं, अब वह हवा के झोंकों सी आकर मानों मुझे सहलाकर चली जातीं। 

नौकरी करते-करते चार साल पूरे होने को आ गए थे। पितृ-पक्ष आया तो लगा कि कैसे वक़्त बीत गया पता नहीं चला। माँ को भी गुज़रे तीन साल हो गए। सारे विधि-विधान के अनुसार पंडित को बुला कर माँ-पिता दोनों को पितृ-पक्ष में पिंडदान किया। कई लोगों के लिए यह आश्चर्य भरा रहा। 

ब्राह्मणों को इस अवसर पर भोजन कराने, वस्त्र आदि देने की परंपरा से अलग हटकर मैंने केवल जो ब्राह्मण सारी क्रियाओं को संपादित कराने आए थे उन्हें एक सेट कपड़ा, खाने-पीने की चीज़ें देकर विदा किया। 

इसके अलावा चार-चार पूड़ियों और सब्ज़ी की दो सौ पैकेट एक हलवाई से बनवा कर डिंपू, ननकई के बेटे को लेकर शहर के अंदर मंदिर आदि पर जो भी भिखारी मिला उसे बाँट दिया। भिखारियों छोटे-छोटे बच्चों को खाने के लिए एकदम टूट पड़ने, मचल उठने को देखकर मेरा मन भीतर ही भीतर रो पड़ा। 

उस दिन फिर तमाम रातों की तरह मैं सो न सकी लेकिन वह रात जीवन की सबसे अहम रात बन गई। मुझे आगे क्या करना है इन सारी बातों को मैंने अंतिम रूप दे दिया। पहला यह तय किया कि दो में से एक प्लाट बेचकर एक पर अनाथालय कम स्कूल के लायक़ बिल्डिंग बनवाऊँगी। 

उसमें सड़क पर पेट की आग बुझाने के लिए दर-दर भटक रहे बच्चों को रखूँगी। जहाँ उनके लिखने-पढ़ने खाने-पीने का इंतज़ाम होगा। ऐनजी ओ जैसा कुछ बनाऊँगी। जो सरकारी मदद मिल सकेगी, लूँगी। अब-तक मैं पहले जो कर चुकी थी वो भी इसमें मददगार साबित होगा। मैंने चित्रा आंटी से ख़ूब संपर्क बढ़ा लिया। उन्हें महीने में एक बार घर ज़रूर बुलाती। 

वह भी रौब झाड़ने के लिए नीली बत्ती गाड़ी लाना न भूलतीं। मगर मैं इसका प्रयोग अपना दब-दबा बनाने के लिए करती रही। मुहल्ले के छुट्-भैए लफ़ंगों और डिंपू को भी राइट टाइम रखने में यह रौब काम आ रहा था। रही सही कसर गीता को बुला कर पूरी कर लेती थी। 

पुलिसवर्दी में कुछ कांस्टेबिलों के साथ जब वह आती जीप लेकर तो और दब-दबा क़ायम होता। नाली, सड़क के एक विवाद को गीता को बुलवा कर चुटकी में सही करवा दिया था। इससे भी मेरी इमेज बहुत पहुँच वाली बन चुकी थी। 

अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के चलते मैंने एक और काम यह किया था कि माँ की मृत्यु के डेढ़ साल बाद ही ननकई को सपरिवार घर पर बुला लिया था रहने के लिए। उसे ऊपर एक कमरा दे दिया था। पहले वह आने को तैयार न हुई लेकिन मैंने जब समझाया कि कब तक किराए पर धक्के खाती रहोगी। तुम मुझे एक पैसा किराया नहीं देना। अभी तक जो किराया दे रही हो वह बचाती रहना। इस बीच कोई मकान एलाट करवा लेना और फिर बनवाकर चली जाना। 

उसे मैंने अपना किचन भी दे दिया कि वहीं बनाओ खाओ। मैं सारा सामान दे दिया करूँगी। मेरा भी खाना-पीना, चाय-नाश्ता सब तुम्हारे हवाले। तुम्हें जो लाना हो लाओ, नहीं तो कोई बात नहीं। शुरू में वह बहुत हिचकी, मगर फिर मान गई। मैं इतना सामान मँगवाती थी कि उसके परिवार के हिस्से का भी क़रीब आधे महीने का हो जाता था। 

ऑफ़िस वह मेरे साथ ही आती-जाती थी। तो आने-जाने का किराया भी उसका बचता था। कार जैसी सुविधा अलग थी। मुझे फ़ायदा यह हुआ कि चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब बना बनाया मिलने लगा। काम वाली को छुड़वा दिया। सबसे बड़ी बात कि घर में तीन सदस्य और आ गए तो सुरक्षा का एक माहौल बना। 

अब घर साँय-साँय कर काटने को नहीं दौड़ता था। अपना रास्ता तय करते ही मैंने माता-पिता के नाम से एक संस्था रजिस्टर कराई। दो में से एक प्लाट पर जो इस काम के लिए ज़्यादा मुफ़ीद था, जिस पर एक कमरा बना था, उसी पर बोर्ड लगवा दिया। बाऊंड्री पापा ने ही बनवायी थी। चित्रा आंटी की ख़ूब मदद ली। उनकी नीली बत्ती हर जगह काम आसान कर देती। 

गीता यादव का भी सहयोग मिलता। लोगों से सुनती थी कि पुलिस वालों से दूर रहो लेकिन वह मेरा एक हाथ बन गई थी। और बदले में कुछ नहीं ले रही थी। बीच-बीच में दूसरे ज़िलों में भी उसकी तैनाती हुई लेकिन उसने संपर्क नहीं तोड़ा। जाते-जाते अपनी महिला सहयोगियों से आज भी मिलवाकर जाती है। फिर जाते ही वापस ट्रांसफ़र की कोशिश में जुट जाती है, और जल्दी ही लौट भी आती है। 

गीता के विपरीत चित्रा आंटी बदले में सौ पेंटिंग्स की सीरीज़ के लिए कहना नहीं भूलतीं। सच यह था कि मैं इसके लिए पूरे मन से कभी मना नहीं कर पाती थी। बस टालती थी। एक बार मैंने हँसी में ही उनसे यहाँ तक कह दिया कि आंटी शुरूआत मेरी, मिनिषा की न्यूड पेंटिंग से करिये। 

एक लंबी एक बौनी वास्तव में यह न्यूड पेंटिंग ली झुआंग पिंग की बेटी की बनाई गई न्यूड पेंटिंग की तरह तहलका मचा देगी। इस पर मिनिषा मुझे बाँहों में भर कर ठहाका लगा कर हँस पड़ी थी। माँ से बोली थी, “मॉम दिस इज ए ग्रेट चैलेन्ज फॉर यू।” माँ बोली थी, “या आई एक्सेप्टेड, लेकिन तुम दोनों तो तैयार हो।” उस क्षण मैं फिर सिहर उठी थी भीतर तक कि, यह आंटी तो पीछा ही नहीं छोड़ती। और अब तो अपनी भविष्य की योजनाओं को लेकर मैं ख़ुद उनका पीछा नहीं छोड़ना चाहती थी। 

वे मिस्टेक ऑफ़ गॉड का फ़ायदा उठाना चाह रही थीं। और अब मैं उनकी नीली बत्ती का फ़ायदा उठाने में लग गई। अंततः एक दिन न्यूड पेंटिंग्स की सीरीज़ के लिए अपनी सहमति देते हुए मैंने एक प्रस्ताव भी रखा कि, “आंटी उस दिन जो मज़ाक में कहा था, आज पूरी गंभीरता के साथ कह रही हूँ कि इस सीरीज़ को बजाय सिर्फ़ मेरी सीरीज़ के मिनिषा और मेरी सीरीज़ बनाएँ तो सही मायने में आर्ट की दुनिया में तहलका मचेगा, आप कुछ असाधारण कर पाएँगी। और प्रदर्शनी यहाँ के बजाय मुंबई या दिल्ली में रखें जिससे सही एक्सपोज़र मिल सके।” 

मेरी बात सुनकर वह बोलीं, “तनु सच यह है कि इसके डैडी इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए तुम यदि ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो तो ठीक है। हाँ प्रदर्शनी की जहाँ तक बात है तो यदि तुम तैयार होती हो तो इस सीरीज़ की प्रदर्शनी अमेरिका में होगी। मिनिषा के डैडी वहाँ सब कुछ अरेंज करा देंगे। तुम तैयार होगी तो तुम्हें भी ले चलेंगे। इससे यहाँ किसी को तुम्हारे बारे में पता चलने का ख़तरा नहीं रहेगा। दूसरे जो इंकम होगी उसमें भी तुम्हारा शेयर होगा।” 

उस दिन जब आंटी गईं तो मुझे लगा कि वो भारी मन से गई हैं। मुझे अपनी भविष्य की योजना मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह निकलती लगी तो अगले दिन मैंने प्रदर्शनी अमेरिका में ही हो इस शर्त पर आंटी की किसी भी पेंटिंग के लिए मॉडलिंग करने की सहमति दे दी। 

सोचा जब पेंटिंग के लिए पहले ही न जाने कितनी बार माँ-बेटी के सामने निर्वस्त्र हो चुकी हूँ तो और बार करने से क्या फ़र्क़ पड़ेगा। माँ-बेटी भी तो मेरे सामने निर्वस्त्र हो चुकी हैं। भले ही यह उनका एक हथियार था मुझे कंविंस करने के लिए। 

आख़िर भगवान की भूल का परिणाम इस शरीर का कुछ तो प्रयोग हो। इसे एक ठूँठ सा छोड़ देने का क्या फ़ायदा। फिर मैं अपनी योजनानुसार जुट गई अपना मिशन पूरा करने में। संस्था के काम में सरकारी नौकरी के कारण कोई विघ्न बाधा न आए इसका तरीक़ा आंटी के पति महोदय बताते रहे। 

अनाथालय की बिल्डिंग कछुआ चाल से बनवाती रही। जब-तक वह कुछ काम लायक़ बन पाई तब-तक छह साल निकल गए। आंटी के काम की भी यही गति रही और वह अलग-अलग पोज़ में मेरी बमुश्किल सैंतीस पेंटिंग्स बना पाईं। 

मुझे पहली दो-चार पेंटिंग के अलावा किसी में कुछ नयापन नज़र नहीं आया। हाँ इस बीच मिनिषा ने अलग-अलग पोज़ में मेरी पचास से ऊपर पेंसिल स्केच बना डाले जो वाक़ई शानदार थे। मिनिषा मुझसे ज़्यादा देर मेहनत नहीं करवाती थी। वक़्त ज़्यादा लगने का कारण यह भी था कि मैं ज़्यादा वक़्त नहीं दे पाती थी। 

शुरू में मैं डरी थी कि माँ-बेटी उत्साह में यह सब कहीं किसी को दिखा न दें। लेकिन फिर उन्हें हिफ़ाज़त से इन पेंटिंग्स के लिए ही विशेष रूप से बनवाए गए बक्सों में बंद करते देख कर डर ख़त्म हुआ था। आंटी के हसबैंड भी आर्ट और ऑर्टिस्ट के बड़े क़द्रदान थे। तो काम सारा अच्छा चलता रहा। काम के प्रति माँ-बेटी का समर्पण देख कर मुझे भी अपने उद्देश्य को पूरा करने की प्रेरणा मिलती रही। 

समय या लापरवाही के कारण मेरे शरीर में कोई बड़ा परिवर्तन, मोटापा न आ जाए इसके लिए मुझे योग करने, संतुलित आहार लेने का एक तरह से आदी बना दिया था। मैं इसे किए बिना रह ही नहीं सकती थी। इसका मुझे रिज़ल्ट दिख रहा था कि इन छह वर्षों में भी मेरे शरीर, कार्य क्षमता में कोई बड़ा फ़र्क़ नहीं आया था। माँ-बेटी भी यह सब करके अपने को मेनटेन किए हुए थीं। 

ऐसे ही देखते-देखते एक और वर्ष बीत गया। एक दिन एक और पेंटिंग पूरी कर माँ-बेटी और मैं ऑर्ट रूम में ही बैठी कॉफ़ी की चुस्कियाँ ले रहीं थीं कि तभी आंटी अचानक ही बोलीं, “तनु तुम्हारा पास-पोर्ट बनवाना है, सम्भव है कि इस साल के अंत तक अमेरिका चलना पड़े। हम लोग वहाँ प्रदर्शनी की तैयारी में लगे हुए हैं। मेरे कुछ रिलेटिव्स हैं जो वहाँ हमारी मदद कर रहे हैं।” 

मैंने कहा, “लेकिन आंटी आपकी पचास पेंटिंग भी नहीं हुई हैं। इतनी जल्दी कैसे हो जाएगा?” तो वह बोलीं, “मेरी और मिनिषा की मिलाकर सौ हो रही हैं। इतने से ही काम आगे बढ़ाएँगे। सौ के चक्कर में अभी न जाने कितने और साल लग जाएँ।” 

मैंने कहा, “ठीक है। लेकिन मैं कभी बाहर गई नहीं . . .” तो वह बोलीं, “तुम चिंता क्यों करती हो। तुम तो हमारे साथ रहोगी। सब कुछ हम अरेंज करेंगे, तुम्हें बस साथ चलना है।” मैं अपनी सहमति देकर चली आई। 

आंटी ने अपने कहे अनुसार जल्दी ही पासपोर्ट भी बनवा दिया। फिर एक दिन बोलीं कि, “तनु इस दिवाली के अगले ही दिन हम लोगों को अमेरिका चलना है। मैं, तुम, मिनिषा और उसके डैडी साथ चल रहे हैं, दो लोग और भी हैं, बाक़ी लोग वहीं हैं। अब कुछ ही महीने हैं जब तुम ऑर्ट की दुनिया में छा जाओगी।” 

मैंने कहा, “आंटी आप दोनों भी . . . 

तो वह बोलीं, “हाँ, हम तीनों।” 

उस दिन मैं बहुत ख़ुश थी कि मिस्टेक ऑफ़ गॉड अमेरिका जाएगी। 

मगर यह सोच-सोच कर बार-बार शर्म महसूस कर रही थी कि, मिनिषा के फ़ादर, उनके सामने कैसे फ़ेस करूँगी। पेंटिंग्स के ज़रिए तो मैं एक तरह से उन सबके सामने नग्न ही रहूँगी। इस सारी उधेड़-बुन के बीच सारी तैयारियाँ चलती रहीं। वहाँ के मौसम के हिसाब से मेरे लिए कपड़े भी आंटी ही अरेंज कर रही थीं। 

इस बीच आर्ट के बारे में जो भी लिटरेचर, जानकारी मुझे मिली उसके बारे में जानने-समझने की पूरी कोशिश की। एक चीज़ यह भी समझी कि ऑर्टिस्ट अपने मॉडलों को तो लोगों के सामने इस तरह लाते नहीं। आंटी क्यों ला रही हैं? फिर सोचा हो सकता है कि ऐसा होता ही हो। किताबों में सब-कुछ तो नहीं मिल जाता। 

एक बार फिर भाद्रपद महीना पितृ-पक्ष ले कर आ गया। माता-पिता को श्राद्ध देने, पिंडदान देने का वक़्त। मैं हर साल यह सब पहली बार की तरह करती आ रही थी। हर बार वही रस्म निभाती थी। लेकिन मैं यह सब रस्म समझ कर नहीं, इस यक़ीन के साथ करती थी कि भगवान की भूल को इस पृथ्वी पर लाने वाले मेरे पूज्य माता-पिता को यह सब मिलता होगा। वह ऊपर से देख रहे होंगे कि उनकी तनु किसी की मोहताज नहीं है। 

बौनी है, मगर उसके इरादे और काम बहुत ऊँचे हैं। और ऊँचे होते जाएँगे। वह किसी के बताए रास्ते पर नहीं, अपने बनाए रास्ते पर ही चल रही है, चलती ही रहेगी। भले ही पौराणिक आख्यान श्राद्ध के लिए पुत्र का होना अनिवार्य मानते हों लेकिन यह ज़रूरी तो नहीं। आख़िर पुत्री भी तो उसी माँ-बाप की संतान है। 

अगर पुत्र के लिए पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण हैं, तो यह पुत्री के लिए क्यों नहीं हो सकते। माँ-बाप उसे भी तो जन्म देते हैं। वह भी तो माता-पिता की संतान है। वह भी तो इसी ब्रह्मांड में है। उसी ब्रह्मांड रचयिता की व्यवस्था का हिस्सा है जिसमें पुत्र है। और यह पौराणिक धर्म ग्रन्थ भी तो माँ-बाप की पूजा को सबसे बड़ी पूजा मानते हैं। यह सबसे बड़ी पूजा पुत्री क्यों नहीं कर सकती। 

मैं यह पूजा करके अपने माँ-बाप के ऋण से उऋण होने का अधिकार ठीक वैसे ही रखती हूँ जैसे पुत्र रखते हैं। इसलिए मैं किसी सूरत में यह करती रहूँगी। मेरे काम को हर साल पास-पड़ोस के लोग आश्चर्य से देखते थे। 

मैं माँ-बाप के इस कष्ट का भी निवारण पूरी तरह करूँगी कि उनके पुत्र नहीं हैं। कौन उन्हें पिंडदान करेगा? कौन ’गया’ जाएगा? पहला काम पिंडदान तो मैं करती आ रही अब ’गया’ जाऊँगी इस बार। वहीं अपने माँ-बाप का पिंड-दान करूँगी, ’गया’ कर के आऊँगी। कहते हैं कि लड़कियाँ नहीं जातीं, मगर मैं जाऊँगी। वहाँ पंडे-पुरोहितों ने अड़चन पैदा की तो ख़ुद ही सब-कुछ कर के आऊँगी। किताबें ला लाकर रट डालूँगी। वहाँ पिंड-दान करने की सारी विधि जानकर और सारा सामान लेकर जाऊँगी। 

बहुत सी जानकारी करने जानने-समझने के बाद जब मैंने यह बात ननकई से शेयर की, जिन्हें अब मैं मौसी कहती थी, तो उनका मुँह आश्चर्य से कुछ देर खुला रहा फिर बोलीं, “अरे! लड़की जात इतनी दूर कैसे जाओगी।” फिर उन्होंने वहाँ के पंडों, तमाम तरह की दुश्वारियों के वृत्तांत ऐसे बताया मानों सब उनका आँखों देखा हो। 

इस पर मैंने उन्हें समझाया, “देखो मौसी यूँ तो कहीं भी पितृ-पक्ष में श्राद्ध करा जा सकता है। पौराणिक आख्यान इसकी महत्ता के वर्णन से भरे पड़े हैं। ’गया’ में श्राद्ध की अहमियत का अंदाज़ा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि यहाँ पितृ-पक्ष ही नहीं किसी भी समय श्राद्ध कर सकते हैं। कहते हैं कि, भगवान राम ने भी अपने पिता राजा दशरथ का यहाँ पिंड-दान किया था।” फिर मैंने उन्हें यह सुना कर चकित कर दिया कि, “गया सर्वकालेशु पिंडं दधाद्विपक्षणं।” 

मगर मौसी तो मौसी, अड़ी रहीं तो मैंने कहा, “देखो मौसी मैंने अब-तक बहुत सी ग़लतियाँ की हैं, बहुत से पाप किए हैं, मैं तर्पण करके उनसे मुक्ति पाना चाहती हूँ।” इसके लिए भी मैंने उन्हें यह श्लोक सुनाया कि, ’एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन दद्याज्जलाज्जलीना। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।’ मौसी को इसका अर्थ भी बता दिया कि जो भी अपने पितरों को तिल मिला कर जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं उनके जन्म से लेकर तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। अतः मौसी मैं यह सब अवश्य करूँगी। 

सोचा कि मौसी बहुत परंपरावादी है। वेद-पुराणों की बातों को ब्रह्म-वाक्य मानती हैं। उनको अगर इन ग्रंथों की बातें ही बताऊँ, तभी मानेंगी। इसलिए मैंने जो कुछ पढ़ा, सुना था, वह मौसी को बताने लगी। 

कहा, “देखो मौसी, मैं नहीं कहती कि तुम मेरी किसी बात पर यक़ीन करो लेकिन तुम वेद-पुराणों की बात तो मानोगी।” 

इस पर मौसी दोनों हाथ जोड़ती हुई बोलीं, “अरे! मेरी बिटिया कैसी बात करती हो। भगवान की कहीं बातों पर संदेह करके नरक में जाना है क्या? अरे! न जाने कौन सा अधर्म पाप किए थे कि इस जन्म मैं इतना दुख झेल रही हूँ। अब जीवन में कभी चैन की, सुख की एक साँस न मिलेगी।” 

मैंने कहा, “ऐसा क्यों कह रही हो मौसी?” 

तो मौसी रो पड़ीं। आँचल के कोर से आँसू पोंछते हुए बोलीं, “अरे! बिटिया विधवा को जीवन में आँसू के सिवा कुछ नहीं दिया है प्रभु ने।” 

मैं उनका दुख देख कर ख़ुद भी भावुक हो गई। लेकिन जल्दी ही अपने को सँभालते हुए कहा, “मौसी प्रभु ने ऐसा नहीं किया है। बहुत सी परम्पराएँ और दुख तो हम अनजाने में ख़ुद ही ढोते रहते हैं। किसी वेद-पुराण में नहीं लिखा है कि विधवा जीवन भर आँसू बहाए। यह तो समय-परिस्थितियों के साथ चीज़ें बदलती रहती हैं, और रीति परम्पराएँ बनती बिगड़ती हैं। 

“अब श्राद्ध को ही ले लो। आज कितने तरह के आडंबर किए जाते हैं। लेकिन जानती हो वेद-पुराणों, पुराने ज़माने में ऐसा नहीं था। पुराणों के ज़माने में नियम यह था कि, उचित समय में शास्त्रों में दिए विधि-विधान के अनुसार इसके लिए जो भी मंत्र हैं, उनको बोलते हुए दान-दक्षिणा अपनी सामर्थ्य अनुसार दी जाए यही श्राद्ध है। लेकिन आजकल तो देख ही रही हो। 

“मौसी यह जानकर भी आश्चर्य करोगी कि, आज यही समझा जाता है कि पितृ-पक्ष में ही श्राद्ध किया जाता है लेकिन ऐसा नहीं है। श्राद्ध तीन तरह से, तीन अवसरों पर किया जाता है। पहला तो पितृ-पक्ष में है ही, जिसे नित्य श्राद्ध कहते हैं। यह उसी तिथि को करते हैं जिस तिथि को व्यक्ति इस लोक को छोड़ परलोकवासी होता है। इसके अलावा मौसी किसी मनौती के पूरा होने के लिए भी श्राद्ध किया जाता है। इसको काम्य श्राद्ध कहते हैं। यह केवल रोहिणी नक्षत्र में ही किया जाता है। अब तुम्हीं बताओ पहले तुमने कभी सुना था कि मनौती पूरा करने के लिए भी श्राद्ध किया जाता है।” 

मौसी मेरी इस बात पर आश्चर्य मिश्रित भाव में बोली, “मैं तो यह पहली बार सुन रही हूँ।” 

अपनी बात का अनूकुल प्रभाव पड़ते देख, मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “मौसी इतना ही नहीं, जब घर में, ख़ानदान में कोई शुभ काम होता है या पुत्र का जन्म होता है तो भी श्राद्ध करते हैं। इस तीसरे श्राद्ध को नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। मगर आजकल इस तरह का श्राद्ध करते पाया है किसी को? असल में मौसी, इंसान अपनी सुविधानुसार चीज़ों को बनाता बिगाड़ता है।” 

मेरी बात पूरी होते ही मौसी अपने गाँव के पंडित पर नाराज़गी ज़ाहिर करती हुई बोलीं, “लेकिन बिटिया गाँव मा पंडित जी ई सब कबहूँ नाहीं बताईंन।” 

उनके संशय को और दूर करते हुए मैंने कहा, “मौसी मैं यही तो बता रही हूँ कि सब अपनी सुविधा, अपना फ़ायदा देखते हैं। श्राद्ध की सबसे बड़ी बात तुम यही समझ लो कि यह केवल तीन पीढ़ियों पिता, बाबा और परबाबा के लिए ही होता है। बाक़ी हमारे जितने भी पूर्वज उसके पहले के हैं, उन सभी का प्रतिनिधित्व हमारे ये तीनों पूर्वज ही करते हैं। इसी कारण इन तीनों को ही पुराणों में बहुत महत्त्व दिया गया है। पिता को वसु, बाबा को रुद्र और परबाबा को आदित्य कहा गया है। यही तीनों हमारे श्राद्ध को बाक़ी सभी पितरों तक ले जाते हैं।”

मैं यह सब कहने के साथ ही सोच रही थी कि, मौसी अब-तक मेरी बात से सहमत हो गई होगीं। लेकिन अगले ही पल उन्होंने एक और यक्ष प्रश्न सामने रखा कि, “बिटिया तुम कह तो सब ठीक रही हो लेकिन तुम ठहरी कुँवारी कन्या, तुम, ’गया’ करो यह ठीक नहीं लग रहा है। कुँवारी कन्या श्राद्ध करे यह कभी सुनाई नहीं दिया। वह भी ’गया’ में।” 

मैंने मौसी की इस बात से उत्पन्न अपनी खीझ को पहले अंदर जज़्ब किया। बल्कि यह भी सोचा कि मौसी को कंविंस करना आसान नहीं है। पढ़ी भले ही कम हों लेकिन क बहुत ज़्यादा हैं। मुझे शांत देख कर मौसी तुरंत बोलीं, “बिटिया ग़ुस्सा हो गई क्या?” 

माहौल गड़बड़ाए न यह सोच कर मैंने फट से कहा, “मौसी तुम कैसी बात कर रही हो? मैं तुमसे नाराज़ कैसे हो सकती हूँ। मैं तो यह बताने जा रही थी कि, श्राद्ध केवल पिता अपने पुत्र के लिए नहीं करता, बड़ा भाई छोटे भाई के लिए नहीं कर सकता और पत्नी यदि नि:संतान मरी है तो पति उसके लिए श्राद्ध नहीं कर सकता। लेकिन बाक़ी सभी कर सकते हैं। कुँवारी कन्या भी कर सकती है। ’गया’ भी जा सकती है। केवल दूसरे की ज़मीन, दूसरे के मकान में श्राद्ध कभी नहीं करना चाहिए। ’गया’ सार्वजनिक स्थल है। ऐसी हर जगह श्राद्ध किया जा सकता है।”

यह बात पूरी करते हुए, मेरे मन में यह बात भी पल-भर को कौंधी कि अब मैं कुँवारी कहाँ? अपना कुँवारापन तो कब का डिंपू को सौंप चुकी हूँ। मौसी के चेहरे को देखकर मुझे लगा कि वह अभी असमंजस में है तो मैंने वह किताब खोल कर मौसी को उन पन्नों को पढ़ाया जिनमें मातामाह श्राद्ध का विस्तार से वर्णन किया गया था कि पुत्री अपने पिता और नाती अपने नाना का तर्पण कर सकती है। 

किताब में लिखा देख कर मौसी का असमंजस काफ़ी हद तक दूर हो गया। लगे हाथ मैंने वह लाइन भी पढ़ दी, जिसमें अग्नि पुराण का उल्लेख करते हुए कहा गया था कि, ”गया’ में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है। मौसी अंततः सहमत हो गईं कि मैं ’गया’ जा सकती हूँ। इतनी बात कर मैं यह अच्छी तरह समझ गई थी कि, मौसी उतनी नासमझ हैं नहीं, जितना मैं उसे समझती हूँ। बल्कि सही मायने में उसके सामने नासमझ तो मैं हूँ। जो यह आज समझ पा रही हूँ। 

जबकि यह उसी दिन समझ लेना चाहिए था जिस दिन प्रदर्शनी में मेरा पेंसिल स्केच देखने के दो दिन बाद उसने यह प्रश्न पूछा था कि, “बिटिया इन लोगों ने तुम्हारा ऐसा फोटू क्यों बनाया? इनको शर्म नहीं आई तुम्हारी नंगी फोटू बनाते और तुमने मना क्यों नहीं किया?” 

मेरी इस बात पर भी तब उसने बहस की थी कि, फोटो में केवल चेहरा मेरा है। बाक़ी तो उसने ऐसे ही कल्पना से बना दिया है। तब मौसी बड़ा साफ़ बोलीं थी कि, “लेकिन बिटिया दुनिया तो उसे तुम्हारा ही बदन मानेगी न। तुमको मना करना चाहिए।” 

मौसी की इन बातों से मुझे तभी उसकी समझ का लोहा मान लेना चाहिए था। जितनी तेज़ी से मेरे मन में यह बातें आईं, उतनी तेज़ी से उन्हें किनारे करते हुए मैंने कहा, “मौसी एक बढ़िया एसयूवी टाइप टैक्सी किराए पर लेते हैं। तुम भी अपने बच्चों के साथ चलो। लगे हाथ तुम्हारा बेटा अपने पिता का, ”गया’ कर आएगा। ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता। डिंपू को भी साथ ले चलेंगे।” 

यह सब सुनने के काफ़ी देर बाद आख़िर वह तैयार हुईं तो पैसे की दिक़्क़त आन पड़ी। मैंने क्योंकि कि यह तय कर लिया था कि हर हाल में जाऊँगी तो कहा कि, “पैसा मैं उधार दूँगी। क्योंकि यह तुम्हें अपने पैसों से करना है। इतना ही नहीं तुम सिर्फ़ इतना ही करोगी, जितना वहाँ पंडों वग़ैरह को देना है। बाक़ी आना-जाना, खाना-पीना, ठहरना यह सब मेरे ख़र्चे पर।” इसके बाद मौसी के पास कोई रास्ता नहीं बचा तो वह तैयार हो गईं। 

अब मैंने गाड़ी के लिए चित्रा आंटी से मदद माँगी। अंकल ने अपने प्रभाव से एक बड़ी गाड़ी नाम मात्र के किराए पर दिलवा दी। उनके सहयोग से ख़र्च आधा से भी ज़्यादा कम हो गया। मेरे इस निर्णय से वह भी आश्चर्य में थीं और उनका भी मन यही था कि न जाऊँ। मगर मेरा निर्णय अटल था। 

मैंने डायरी में एक पूरा प्लान बनाया। ऑफ़िस में जानते हुए भी केवल हफ़्ते भर की छुट्टी की एपलीकेशन दी। मौसी से भी यही कराया। मैंने सोचा आगे जैसा होगा फ़ोन पर बता देंगे। सारी तैयारियों के साथ पितृ-पक्ष के तीसरे ही दिन मौसी के परिवार, डिंपू के साथ ’गया’ के लिए चल दी। चित्रा आंटी ने बड़ी आरामदायक नई एसयूवी भेजी थी। ड्राइवर भी सीधा लग रहा था। निकलने से पहले मैंने उन्हें गाड़ी भेजने के लिए धन्यवाद दिया। 

तब उन्होंने कहा, “जहाँ भी रुकना फ़ोन करके बताती रहना।” उनके इस व्यवहार से हम सभी बड़ा अच्छा महसूस कर रहे थे। लखनऊ से निकलने के बाद मैं वाराणसी पहुँची और रात सबने वहीं एक होटल में गुज़ारी। 

आंटी को जब बताया तो उन्होंने होटल के मैनेजर से अपने पति की बात करा दी। उसके बाद तो उसने हम-सब का बहुत बढ़िया आदर-सत्कार किया। और चलते वक़्त बिल में दस परसेंट छूट भी दी। बनारस की महिमा पापा से बहुत सुनी थी, इसलिए एक दिन वहाँ रुकी और जितना घूम सकती थी घूमा। तभी यह भी मालूम हुआ कि, यहीं वह पिशाच मोचन है, जहाँ त्रिपिंडी श्राद्ध होता है। ख़ासतौर से उन लोगों के लिए जिनकी अकाल मृत्यु हुई होती है। 

यहीं मैंने पितरों की प्रेत बाधाओं के बारे में जाना। यह भी कि यह प्रेत बाधाएँ सात्विक, राजस, तामस तीन प्रकार की होती हैं। बनारस में और रुकने का तो मन था लेकिन मंज़िल मेरी ’गया’ थी तो अगले दिन ’गया’ पहुँच गए। बनारस तक ठीक-ठाक पहुँची मौसी वहाँ से ’गया’पहुँचने तक रास्ते भर उल्टी करती गईं। 

’गया’ पहुँच कर सबने होटल में रात और अगला पूरा दिन आराम करके रास्ते की थकान उतारी। हालाँकि मेरा मन दिन भर आराम करने का नहीं था। इस बीच मेरा ध्यान पैसे पर भी था जो मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा तेज़ी से ख़त्म हो रहे थे। दूसरे दिन मैं ’गया’ नगरी में अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए होटल से सबको लेकर सुबह ही चल दी। मुझे लग रहा था जैसे मैंने कुछ बहुत बड़ा काम कर लिया है। लेकिन कुछ ही घंटों में यह भाव तब तिरोहित गया जब पवित्र ’फल्गू’ नदी के तट पर लोगों को असीम श्रद्धा, सादगी के साथ श्राद्ध करते देखा। 

मन ठहर सा गया उस नदी के तट पर कि, यही तो वह तट है जहाँ भगवान राम ने भी श्राद्ध किया था। और भगवान विष्णु ने गयासुर राक्षस को मार कर इस धरती को उसके पापों से मुक्ति दिलाई थी। तभी से इसका नाम ’गया’ पड़ गया। 

मैं हर बाधा पार कर पहुँच गई ’गया’ और मुझे वहाँ के दृश्य एक अलग ही अनुभव दे रहे थे। साथ ही यथार्थ से सही मायने में सामना भी शुरू हो गया। वहाँ एक के बाद एक दिक़्क़तें आनी शुरू हुईं। मेरी दिक़्क़तें हर इंसान से कई गुना ज़्यादा थीं। क्योंकि एक तो लड़की, ऊपर से मिस्टेक ऑफ़ गॉड। मगर मैं अडिग थी। 

मैंने हर बाधा का रास्ता निकाला और सारी रस्में पूरी कीं। सिर भी मुँड़वा दिया। मैं वहाँ हर किसी के लिए एक अजूबा थी और अजूबा कर रही थी। मौसी का लड़का, सिर नहीं मुँड़वाना चाहता था। उसे अपनी प्यारी हेयर-स्टाइल से बिछुड़ना सहन नहीं हो रहा था। माँ और मेरे दबाव से माना। 

वह मुझे दीदी कहता था। मगर सिर तभी मुँड़वाया जब मैंने यह कह दिया कि, “यदि तुम अपने फ़ादर से प्यार नहीं करते हो तो मत मुँड़वाओ।” मेरी इस बात का उस पर बिजली सा असर हुआ। इसके बाद मैं तीस मीटर ऊँचे विष्णु पद मंदिर गई। जो भगवान विष्णु के पद चिह्नों पर बना है और उनके पाँव के चालीस सेंटीमीटर लंबे निशान हैं। 

इस के बाद पहाड़ पर ही मंगला गौरी मंदिर भी गई। मगर बराबर गुफा के लिए हिम्मत न कर सकी। क्योंकि यहाँ कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता। इन सब जगहों पर जाने, रस्मों को निभाने में पैसा तो ख़ूब लगा ही, समय भी चार दिन लगा। चार सौ चालीस सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने के बाद हमने पूरा एक दिन आराम किया था। 

दान-पुण्य करने, किसी अन्य तरह के ख़र्च में मैंने कहने भर को भी कंजूसी नहीं की। जी खोल कर किया कि किसी को यह न लगे कि साथ ले आई, लेकिन हाथ समेट लिया। लेकिन इससे आख़िरी दिन एक समस्या खड़ी हो गई। वापसी में रास्ते भर के लिए और आख़िर में जिस होटल में रुके थे, उसका बिल देने के लिए जितना पैसा चाहिए था, मेरे पास उसका आधा भी नहीं था और ए टी एम कॉर्ड तीन दिन पहले ही ग़लती से ब्लॉक हो गया था। सोचा मौसी से कहूँ, उसके पास इतना है कि, अगर दे देंगी तो किसी तरह काम चल जाएगा। मगर डर गई कि मौसी कहीं कुछ और न सोच ले। 

होटल के अपने कमरे में इसी उधेड़-बुन में परेशान थी कि, अब क्या करूँ मगर भगवान ने ज़्यादा देर परेशान नहीं किया, रास्ता सुझा दिया। मेरा हाथ अचानक ही अपनी कमर में सोने की पहनी करधनी पर चला गया। जो मैं बचपन से पहनती आ रही थी। 

मैंने जल्दी से कपड़े बदले, करधनी रूमाल में लपेट कर पर्स में रखी और मौसी को लिया, गाड़ी निकलवाई और शहर में जौहरी की दुकान ढूँढ़-ढ़ाँढ़कर बेच आई। अब मेरे पास ज़रूरत से ज़्यादा पैसा था। मौसी को बेचने की बात दुकान में काउंटर पर ही पता चली। दुकानदार की सशंकित नज़रें भी मैं देख रही थीं। 

मौसी होटल पहुँचने तक बड़बड़ाती रही, “यह तुमने अच्छा नहीं किया। मुझे पता होता तो कभी न करने देती।” 

मैं उन्हें चुपचाप सुनती रही। बस मन में इतना ही आया कि, मेरे लिए उस करधनी का मतलब भी क्या था। जब घर के सारे गहने पहले ही बेच डाले थे तो एक इसी को क्यों रखती। डिंपू गाड़ी में आगे बैठा था, उस पर नज़र जाते ही मन में यह भी आया कि, माँ-बाप के अलावा एक यही जानता था उस करधनी के बारे में। उन अंतरंग क्षणों में बदन पर तरह-तरह से उलटता-पलटता खेलता था उससे। चलो फ़ुरसत मिली उससे भी। अब यह मेरे बदन पर किसी चीज़ से खेलकूद नहीं कर पाएगा। मैं एकदम निश्चिंत थी। होटल के सारे पेमेंट वग़ैरह कर चल दी वापसी के सफ़र पर। 

मैंने वहाँ जितना दान-पुण्य, स्नान हो सकता था, वह सब किया, कुछ भी बचाया नहीं। डिंपू और उससे ज़्यादा गाड़ी के ड्राइवर को मैंने अपनी ओर बार-बार कनखियों से देखते पाया तो मैंने कह दिया, “मैंने कोई आश्चर्यजनक काम नहीं किया है। मैं भी तो आख़िर अपने माँ-बाप की ही संतान हूँ। लड़की हूँ तो क्या आख़िर हूँ तो उन्हीं की औलाद।” ड्राइवर मेरी इस बात पर हाथ जोड़ कर बोला, “नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। भाग्यशाली हैं आप के माँ-बाप जो उन्हें ऐसी संतान मिली।”

वह वास्तव में अब मुझ से डर गया था कि मैं कहीं लौटकर उसकी शिकायत न कर दूँ। लेकिन उसकी भाग्यशाली वाली बात मुझे पिंचकर गई। काहे का भाग्य, भगवान की भूल या उनकी दी कोई सज़ा जिसका परिणाम थी मैं। मेरे माँ-बाप इसके कारण हर पल घुट-घुट कर मरते रहे। मेरे सामने ही देखते-देखते बीमारी से लड़ते-जूझते तड़पते उम्र से बहुत पहले ही मर गए। आख़िर तक एक पल भी उन्हें चैन, संतोष की एक साँस नसीब नहीं हुई। 

इसके बाद बाणासुर के बनवाए शिव मंदिर, मोरहर नदी के किनारे शिव मंदिर कोटेश्वरनाथ, सोन नदी के किनारे सूर्य मंदिर और फिर ब्रह्मयोनि पहाड़ी पर बने शिव मंदिर जाकर भी पिंडदान किया। वहीं पर पता चला कि इसका वर्णन रामायण में भी है। यहाँ तक पहुँचने के लिए चार सौ चालीस सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ीं। 

मैं आख़िर यह सब जो कर रही हूँ, यह उनके कुछ काम आएगा भी, यह भला कौन जानता है। यह तो बस मन का एक विश्वास है। श्रद्धा है। और क्या? एक उस बात ने मेरा मन बड़ी देर तक कसैला कर दिया। लेकिन लखनऊ वापस घर पहुँच कर एक संतोष था कि मैंने जो चाहा पूरा कर दिया। 

मौसी रास्ते से लेकर घर तक न जाने कितनी बार आशीर्वाद देती रही, आभार जताती रही कि, “बिटिया तुम्हारी वजह से हम अपने आदमी का तर्पण ’गया’ में करवा पाए। हमने तो कभी सोचा भी नहीं था। आने के बाद सब ने दो-तीन दिन यात्रा की थकान उतारी। 

छुट्टियाँ पहले ही काफ़ी ख़त्म हो चुकी थीं इसलिए चौथे दिन ऑफ़िस पहुँच गई। वहाँ वह पूरा दिन लोगों के तरह-तरह के प्रश्नों के उत्तर देते ही बीता। किसी ने हिम्मत की दाद दी, किसी ने सराहा। किसी ने कहा “औलाद हो तो ऐसी।” तो सुनने में यह भी आया कि ज़्यादातर ने कहा “अरे! पगलिया है पगलिया।” किसी ने कहा, “अपने बौनेपन की कुंठा मिटाने का उसका तरीक़ा है।” पलभर में ही यह बातें दिल को चीरती चली गईं। लेकिन ऐसी और न जाने कैसी-कैसी बातों की आदी तो मैं बचपन से ही हो गयी थी। सो पल-भर के दर्द के बाद सब सामान्य हो गया। 

आने के हफ़्ते भर बाद ही चित्रा आंटी, मिनिषा अमरीका यात्रा की तैयारियों को लेकर कुछ बात करने घर आ गईं। माँ-बेटी मुझे देखते ही एकदम आवाक् सी रह गईं। आंटी बोलीं, “तनु तुमने ये क्या किया?” मैंने पहले उन्हें बैठने को कहा फिर सारी बात बता दी तो उन्होंने अफ़सोस करते हुए कहा, “ओह! मुझसे ग़लती हुई, तुमसे उसी समय बात करनी चाहिए थी। अब अमरीका जाने के लिए वक़्त ही कितना बचा है।” 

फिर आंटी ने तमाम बातें कहीं जिनमें अफ़सोस ग़ुस्सा दोनों झलक रहा था। जिनसे मुझे भी थोड़ी झुँझलाहट हो रही थी। फिर भी माहौल को हल्का करने की ग़रज़ से मैंने कहा, “आंटी कुछ पेंटिंग्स इस लुक में भी बना डालिए।” वह इस बात पर एक उड़ती नज़र मुझ पर डालकर बोलीं, “तुम समझ पा रही हो तनु तुमने क्या कर डाला। ख़ैर देखते हैं कैसे मैनेज किया जाए।”

दोनों के जाने के बाद मैंने सोचा कि दोनों इतना पैसा ख़र्च कर रही हैं। मेहनत कर रही हैं। मुझे ध्यान रखना चाहिए। लेकिन अब तो कुछ नहीं हो सकता। वैसे प्रदर्शनी में मेरे जाने का कोई मतलब है। पता नहीं आंटी मुझे क्यों ले जाना चाहती हैं। यह सनसनी पैदा करने का उनका एक तरीक़ा भी हो सकता है। कुल मिलाकर मैं बड़े तनाव में आ गई। 

मौसी ’गया’ से आने के पाँच-छह दिन बाद ही अपने बच्चों के संग कुछ दिन के लिए गाँव चली गई थीं। उन के जाने के बाद खाना-पीना सब होटल से मँगवाती थी। डिंपू ले आता था। मौसी के आने के बाद किचन में जाने का मन ही नहीं करता था। 

उस दिन आंटी की बातों से मन बहुत ख़राब हो गया था। मौसी ने शाम को अगले दिन आने की सूचना दी थी। उस रात को डिंपू को मैंने साथ सोने के लिए फिर अपने कमरे में बुला लिया था। वह इस रिश्ते ही के कारण तो उस करधनी के बारे में जानता था। उसके साथ यह रिश्ता माँ की मौत के डेढ़ दो बरस बाद ही बन गया था। 

जब यह रिश्ता बना था तो उसके कुछ महीने पहले ही, मैं इसी डर से उसे निकालकर बुज़ुर्ग ड्राइवर रखने की सोच रही थी कि घर में अकेले उसके साथ रहते ऐसा कुछ न हो जाए। लेकिन जो डर था आख़िर वह हो ही गया और मौसी भी यहाँ आने के कुछ समय बाद ही यह जान गई थीं। 

डिंपू से पहली बार जब रिश्ता बनाया था, वह समय आज भी ज्यों का त्यों याद है। हर तरह से हैरान परेशान मैं, काटने को दौड़ता घर और भावनाओं के ज्वार के चरम पर पहुँचने पर उसे बुला लिया था कमरे में। कई बार कहने पर भी उसे हिचकते देख कर मैंने उसका हाथ पकड़ कर बैठाया था बेड पर। फिर दो मिनट भी ख़ुद को रोकना मुश्किल हुआ था। 

मुझे ऐसा लगा था कि डिंपू को सहारा बनाने में कोई ख़तरा नहीं है। मैंने वैसे ही अपने में समा लिया था उसे। उसने मुझे नाज़ुक फूल सा ऐसा सँभाला था कि, मैं सुध-बुध खो बैठी थी। पहली बार की आक्रमता, उतावलापन, कहीं कुछ नहीं था। वह इतना मैच्योर, इतना समझदार होगा इसकी मुझे कल्पना भी न थी। 

उस पूरी रात मैंने उसे अपने साथ रखा था। फिर यह सिलसिला चल निकला था। उसके साथ ने मुझे इतना प्रभावित किया कि, मैंने बीच-बीच में कई बार सोचा कि बना लूँ इसे अपना जीवन साथी। कब-तक छिपती-छिपाती रहूँगी। मगर यह सारा सपना पलक झपकते टूट कर बिखर जाता। ज्यों ही अपनी हालत का ख़याल आता। 

फिर एक दिन तयकर लिया कि, जब-तक चल रहा है ऐसे, तब-तक चलाऊँगी, नहीं तो जो होगा देखा जाएगा। फिर मैंने एक सीमा बना ली कि, जब मैं चाहूँगी तभी डिंपू मेरे कमरे में आ सकेगा। मुझे पा सकेगा नहीं तो नहीं। उसने एक दो बार जब मुझे मेरी इच्छा के ख़िलाफ़ भी पा लिया तो, अगले दिन उसके साथ किसी और बहाने से बड़ी सख़्ती से पेश आई। 

गीता का सहारा ले कर उसे इतना टाइट किया कि उसकी आत्मा भी काँप उठी। फिर तो वह उस मशीन की तरह हो गया जो सिर्फ़ मेरे इशारे पर सक्रिय होती। ऐसी मशीन जिसे मैं अपनी सुविधानुसार प्रयोग करती। मौसी भी उससे बराबर सतर्क रहने और इसका ध्यान रखने की सलाह देना न भूलती कि बच्चे-वच्चे का ध्यान रखना। वह भी धोखे से उस रात आ पहुँची थीं कमरे में, जब मैं डिंपू के साथ थी। उस रात सालों बाद घर में मैं और डिंपू ही थे। तो मुझे मशीन की ज़रूरत पड़ी और मैंने बुला लिया था रात-भर के लिए कमरे में। 

अगली सुबह ऑफ़िस जाने के लिए बेमन से तैयार हो रही थी। मौसी के दोपहर तक आने की सूचना थी। कमरे में कपड़े पहन रही थी कि तभी फ़ोन की घंटी बजी। मन खिन्न था सो फ़ोन रिसीव नहीं किया। कपड़े पहन चुकी थी कि तभी घंटी फिर बजी, यह सोचते हुए मैंने फ़ोन उठा लिया कि कहीं मौसी का फ़ोन तो नहीं है, उसका प्रोग्राम चेंज हुआ हो। घर जाने के बाद वह अक़्सर यही करती हैं। 

फ़ोन उठाते ही उधर से पांच-छः वर्ष के बच्चे की आवाज़ आई, “पापा कहाँ हो?” 

मैंने कहा, “पापा . . .? यहाँ कोई पापा नहीं हैं।” उसके पीछे भी कोई बच्ची बोल रही थी, वह फिर बोला, “पापा से बात करनी है। मम्मी को चोट लग गई है। रो रही हैं।” तो मैंने कहा, “पापा का नाम क्या है?” तो उसने कहा, “देवेंद्र . . .” सुनते ही मुझे एक झटका सा लगा। देवेंद्र . . . उसकी तो शादी ही नहीं हुई है। उससे बार-बार पूछा तो उसने यही बताया। कंफ़र्म हो जाने पर कि देवेंद्र शादी-शुदा है, कई बच्चों का पिता है, मेरा ख़ून खौल उठा। 

मैं चीख पड़ी डिंपू. पू . . . वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया। मेरे तमतमाए चेहरे को देख सहमता हुआ बोला, “जी . . .” मैंने कहा, “लो . . .अपने बेटे से बात करो। तुम्हारी बीवी को चोट लगी है।” मेरी बात सुनते ही उसे काटो तो जैसे ख़ून नहीं। बीवी के घायल होने की सूचना और झूठ पकड़े जाने की एक साथ दोहरी मार से वह पस्त हो गया। रिसीवर लेकर हाँ हूँ में कुछ बात की और फ़ोन रख दिया। उसके फ़ोन रखते ही मैं दाँत पीसते हुए चीखी। “कमीने, धोखेबाज़, नीच इतने सालों से ठगता रहा है मुझे, लूटता रहा है मुझे। झूठ बोलता रहा कि मेरी शादी नहीं हुई।”

मेरा ग़ुस्सा देखकर वह हाथ जोड़कर माफ़ी माँगने लगा। मगर मैं आपे से बाहर हुई तो हो गई। कहा, “इसके पहले कि मैं पुलिस बुलाकर चोरी, रेप आदि के केस में तुझे अंदर करा कर, तेरी ज़िन्दगी जेल में सड़ा दूँ। तू अपना टंडीला बटोर कर चला जा यहाँ से। दोबारा मेरी नज़रों के सामने मत पड़ना।” वह डर के मारे काँप रहा था। गीता से उसकी आत्मा पहले ही काँपती थी। जब वह चला गया तो मैं अपने कमरे में पड़ी रोती रही। 

मैं इस तरह ठगी जाऊँगी इसकी कल्पना भी न की थी। ऑफ़िस नहीं गई और कुछ खाया-पिया भी नहीं। दोपहर होने तक मौसी आ गई। उसने मेरी सूजी आँखें, चेहरा देखा तो बच्चों को ऊपर भेज चिपका लिया अपनी छाती से। जैसे कभी माँ चिपका लिया करती थी। मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। सब बता दिया उन्हें, जिसे सुनकर वो भी अचंभे में पड़ गईं। ग़ुस्सा होती हुई बोलीं, “अच्छा किया निकाल दिया। कमीने की नज़र मुझे कभी अच्छी नहीं लगी।” क़रीब तीन बजे शाम को उन्होंने खाना बनाया तब उनकी बड़ी ज़िद के बाद थोड़ा सा खाया। 

मैं अगले तीन-चार दिन ऑफ़िस नहीं गई। मौसी जाती रहीं। तबियत ख़राब होने की सूचना भेज दी थी। दो दिन बाद मुझे एक और दिल दुखा देने वाली ख़बर अख़बार में मिली कि, मिनिषा के फ़ादर सहित कई और आला अफ़सर अनियमितताओं के चलते निलंबित कर दिए गए हैं। मतलब साफ़ था कि अमरीका यात्रा कैंसिल। मेरे अनाथालय वाले प्रोजेक्ट पर भी असर पड़ना था। जल्दी-जल्दी इन दो आघातों ने मुझे हिला कर रख दिया। मैं एकदम अपने खोल में सिमटकर रह गई। मगर अनाथालय के काम पर रेंगती ही सही बढ़ती ही रही। 

एक-एक कर बाधाएँ पार करती गई। और जीवन के छह साल और पार कर गई। इस बीच मौसी का बेटा ग्रेजुएशन के दौरान ही संयोग से सिपाही भर्ती में सफल हो गया। फिर उसकी शादी हो गई और वह अपनी तैनाती वाले ज़िले में रहने लगा। 

लड़की पढ़ने-लिखने में तो तेज़ नहीं थी, लेकिन इश्क़बाज़ी के चक्कर में पड़ गई तो मौसी ने गाँव में ही खाता-पीता घर देखकर उसकी शादी कर छुट्टी पा ली। मतलब सब अपनी-अपनी राह लग गए थे लेकिन मैं अधर में थी। मौसी भी अब बार-बार रिटायरमेंट के बाद लड़के के पास जा कर रहने की बात करने लगी थी। 

दुनिया भर की कोशिशें करके मैंने घर के सन्नाटे, जीवन के सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश में जो सब को इकट्ठा किया था, सब एक-एक कर मुझे उसी हाल में छोड़ कर चले गए। 

अब बची थी तो सिर्फ़ मौसी। जिसके रिटायरमेंट के दो साल रह गए थे। जिसका बेटा बार-बार नौकरी से मुक्ति पा लेने के लिए दबाव डाल रहा था। मौसी बड़ी भाग्यशाली थी। अपने बेटे का गुण बता-बता का निहाल हो जाती थी। मगर अब तक किसी हालत में हार न मानने की मेरी आदत पड़ चुकी थी। सो अनाथालय खोलने का एक समयबद्ध कार्यक्रम बना डाला कि, जिस दिन मौसी रिटायर होगी, उसी दिन अनाथालय खुलेगा। मौसी ही उसका उद्घाटन करेंगी। फिर बेचने के लिए जो प्लाट था उसे बेचकर फ़ंड इकट्ठा किया। जी-जान से समय रहते अनाथालय तैयार कर लिया। इस बीच गीता ने जिस ड्राइवर को डिंपू के बाद भेजा था उसने वाक़ई निःस्वार्थ बड़ी सेवा की। 

मौसी ने, उसके बेटे ने जो मदद की वह तो ख़ैर असाधारण थी। एक बार गिरने से हाथ टूटने पर उसने जो सेवा की उसे भुला नहीं सकती। आख़िर वह दिन भी आया जब मौसी रिटायर हुईं और मैं स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की एपलीकेशन दे आई। 

मौसी ने उद्घाटन किया। उसके बेटे-बेटी भी अपने बच्चों संग आए थे। उनके बच्चे मुझे बुवा-मौसी कहते थे। भविष्य में कोई परेशान न करे इसलिए गीता, चित्रा आंटी आदि की मदद से पुलिस, ऑर्टिस्ट, मीडिया का मैंने बड़ा जमावड़ा किया था। ठीक उसी समय मैंने मौसी को अनाथालय का संरक्षक और उसकी बहू को अनाथालय से संबद्ध करने की घोषणा कर सबको अचंभित कर दिया। 

मैंने अपना सपना पूरा करने के साथ-साथ इस बात की भी पुख़्ता स्थायी व्यवस्था कर ली थी कि सन्नाटा अकेलापन मुझे फिर डराने न आए। अनाथालय के बच्चे, मौसी, उसके बच्चे, उन बच्चों के बच्चे सबको जोड़ दिया था। मैं ख़ुश थी कि मैं अपने माँ-बाप के नाम पर एक ऐसी संस्था खोल सकी जहाँ तमाम, अनाथ, अपाहिज, वंचित बच्चों को आसरा मिल सकेगा। उनको अच्छा भविष्य देने की नींव पड़ सकेगी। 

हाँ एक सपना अभी अधूरा रह गया था। जिसे पूरा होने की उम्मीद अब कम थी। मगर मन में आशा का दीया टिम-टिमाता ही सही अब भी जल रहा था। पेंटिंग प्रदर्शनी का। मेरा, चित्रा आंटी और मिनिषा का संयुक्त सपना। अमरीका में मेरी न्यूड पेंटिंग्स की प्रदर्शनी का। 

अंकल रिटायर हो चुके थे। रिटायरमेंट से साल-भर पहले ही उनका निलंबन ख़त्म हुआ था। मिनिषा शादी कर दो बच्चों की मगर फिर भी बेहद ख़ूबसूरत माँ बन चुकी थी। मगर आंटी उस दिन, “बोलीं तनु कोशिश में हूँ जल्दी ही प्रदर्शनी भी आयोजित होगी।” मैंने कहा, “ज़रूर आंटी।” सच कहूँ तो मुझे भी अब इस प्रदर्शनी को लेकर कुछ ज़्यादा ही उत्सुकता बन पड़ी है। देखें कब पूरी होती है, यह आख़िरी इच्छा। 

2 टिप्पणियाँ

  • 15 Mar, 2022 01:23 PM

    बाप रे. बाप !

  • ओह! अद्भुत, संवेदनशील कहानी पढ़ कर मन भावुक हो गया।

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