जुनून की इंतिहा थी यह: दयानन्द पांडेय
प्रदीप श्रीवास्तव
‘कथा गोरखपुर’, ‘कथा लखनऊ’ के प्रकाशन को हिंदी साहित्य जगत में एक महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में अंकित किया जाना चाहिए। इन दो शहरों के क़रीब तीन सदी के कहानीकारों की अनेक दुर्लभ कहानियों सहित वर्तमान पीढ़ी के लेखकों की कहानियों को भी वरिष्ठ साहित्यकार दयानन्द पांडेय ने सँजोया है। उनके सम्पादन में छह खण्डों में आए ‘कथा गोरखपुर’ और दस खण्डों में ‘कथा लखनऊ’ में ऐसे लेखकों, उनकी कहानियों को समाहित किया गया है जिन्हें हिंदी साहित्य जगत ने भुला ही दिया था। गुम हो गए थे वह। उनकी कहानियाँ भी। लेकिन दयानन्द पांडेय ने उन्हें भूसे के ढेर में खोई सूई की तरह हेर निकाला। उनके बरसों-बरस के पत्रकारीय अनुभव, सम्पर्क इन सबसे बढ़कर लेखन, कार्य के प्रति उनके जुनूनी स्वभाव के चलते ही यह सम्भव हो सका। उन्होंने ऐसे लेखकों उनकी कहानियों को ढूँढ़ा जिनको ब्रह्मलीन हुए बरसों हो गए थे। एक-दो कहानियाँ ही लिखी थीं बस। परिजन भी एक शहर से दूसरे शहर चले गए थे। उनके नाती-पोतों को भी देशभर में ढूँढ़ निकाला, विदेश में भी, उनसे कहानियाँ ढुँढ़वाईं, और शामिल किया। और यह सब तब प्रारम्भ किया जब वैश्विक महामारी कोविड-१९ से भयाक्रांत दुनिया लॉकडाउनके चलते घरों में दुबकी प्राणों की रक्षार्थ प्रार्थना कर रही थी। सब कुछ अस्त-व्यस्त ठप्प था। इससे बड़ी समस्या थी कुछ स्वनामधन्य लेखकों का अहम्, खेमेबाज़ों की खेमेबाज़ी, किसी भी तरह से काम को रुकवा देने का प्रयास, जिसके चलते एक प्रकाशक से बड़ा विवाद हुआ, बात पुलिस तक पहुँची, पुस्तकें छपते-छपते रह गईं।
लेकिन दयानन्द पांडेय अडिग रहे। अंततः दोनों संकलनों के समस्त खण्ड डायमंड बुक्स से पब्लिश हुए। हिंदी साहित्य को तो समृद्ध कर ही रहे हैं, शोधार्थियों के लिए भी किसी वरदान से कम नहीं हैं। हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पिचहत्तर से अधिक पुस्तकें लिख चुके, विभिन्न महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित, जीवन के छह से अधिक दशक पूरे कर चुके दयानन्द पांडेय जी से इन दोनों ही संकलनों को पूरा करते समय आई दुश्वारियों, षड्यंत्रों के साथ-साथ #“कथा-प्रयाग”#“कथा-काशी”#”कथा-कानपुर”# “कथा-दिल्ली ऐन सी आर” की योजना आदि का सच जानने के लिए उनसे बातचीत की। अपने बेबाक स्वाभाव, लेखनी की ही तरह उन्होंने बेलौस सारा सच बताया जिसमें उनकी नाराज़गी और हिंदी साहित्य जगत में व्याप्त धींगा-मुश्ती भी उभरकर सामने आई। पाठकगण यह सब विस्तार से जानसमझ सकें इस हेतु दोनों संकलनों की भूमिका भी साथ में नत्थी है।
—प्रदीप श्रीवास्तव
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लेखक थे, लेखकों के धड़े थे। चट्टान की तरह उनके अहंकार खड़े थे। सहमतियों से ज़्यादा असहमतियाँ थीं: दयानन्द पांडेय
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सारा परिश्रम, सारा जुनून किसी काँच की तरह टूट गया। टूट कर चूर-चूर हो गया। इस की किरचें अभी तक चुभती रहती हैं। रह-रह कर चुभती हैं: दयानन्द पांडेय
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यह स्त्री लेखिकाएँ कई बार रोने लगतीं। कि क्या करूँ मेरा दुर्भाग्य है कि इस संकलन में मेरी कहानी नहीं रहेगी: दयानन्द पांडेय
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इज़राइल फिलिस्तीन पर मेरी टिप्पणियों को ले कर ख़फ़ा हो गए। अपने को जनवादी लेखक बताते हैं लेकिन हैं कट्टर लीगी: दयानन्द पांडेय
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कहानी का भविष्य सर्वदा उज्जवल रहा है, रहेगा। कहानी हमारी ज़िन्दगी का अमिट और अनिवार्य हिस्सा है: दयानन्द पांडेय
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अतीत अपने आप में एक बड़ी अदालत है। कहानी हो, कविता हो, आलोचना हो अतीत के बिना व्याकुल भारत है। खंडित है। लुँज-पुँज है: दयानन्द पांडेय
प्रदीप श्रीवास्तव: 1
जब दुनिया वैश्विक महामारी कोविड-19 के आतंक से भयभीत अपने, अपनों के प्राणों की चिंता में घरों में दुबका हुआ था, लॉकडाउन एक तरह से हाउस अरेस्ट किये हुए था, उस समय आप कथा लखनऊ, कथा गोरखपुर का तानाबाना बुन रहे थे। उस समय क्या चल रहा था आपके मन में?
दयानन्द पांडेय:
यह वह समय था जब लोग ज़िन्दगी के लिए लड़ रहे थे। एक-एक साँस के लिए लड़ रहे थे। तिल-तिल कर मर रहे थे। हम ख़ुद कोरोना का शिकार हुए थे। फिर भी “कथा-लखनऊ” में हम ने जीवन खोजा। “कथा-लखनऊ” की योजना ठीक कोरोना के पहले बनी और बीच कोरोना भी हम “कथा-लखनऊ” के लिए लड़ने लगे। जीने लगे। तब के दिनों हमारी एक-एक साँस “कथा-लखनऊ” को समर्पित हो गई थी। “कथा-लखनऊ” पर जब काम कर ही रहा था तो एक दिन अचानक ख़्याल आया कि क्यों न साथ ही साथ “कथा-गोरखपुर” पर भी काम करें। प्रकाशक से “कथा-गोरखपुर “की चर्चा की।
प्रकाशक ने हामी भर दी। फिर “कथा-लखनऊ”, “कथा-गोरखपुर” पर एक साथ काम शुरू हो गया। कथाकारों से, उनके परिजनों से फोन, वाट्सअप, मेल से बात होने लगी। कहानियाँ आने लगीं। कहानियों का संपादन, क्रम और कंपोजिंग का काम शुरू हो गया। नए-पुराने सभी कथाकारों को एक साथ, एक लय में उपस्थित करना कठिन था। कठिनाइयाँ एक नहीं, अनेक थीं। लेखक थे, लेखकों के धड़े थे। चट्टान की तरह उनके अहंकार खड़े थे। सहमतियों से ज़्यादा असहमतियाँ थीं। दिलचस्प यह कि कुछ लोगों को लगा कि इस कथा संकलन को संपादित कर मैं कोई महल बनवा रहा हूँ। लाखों-करोड़ों कमाने का उपक्रम है, यह मेरा। ऐसे कुंठित और नफ़रती से लोगों से तुरंत दूरी बना ली।
प्रदीप श्रीवास्तव: 2
उस विषम स्थिति में जबकि इस महामारी ने साहित्य जगत से कई बड़े साहित्यकारों को छीन लिया, आपने इतने बड़े काम को पूरा करना सुनिश्चित किया। जब आपने कहानियों के लिए कहानीकारों से सम्पर्क किया तो उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती थी?
दयानन्द पांडेय:
ज़्यादातर लेखक सहयोगी भाव और निर्मल मन से मिले। पर वह कहते हैं न कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है। तो कुछ लोगों ने कथा के तालाब को गंदा भी क्या। पर ऐसे लोगों की मैंने रत्ती भर परवाह नहीं की।
ऐसे लोगों का लेकिन अपमान भी नहीं किया। निजी तौर पर उन्हें सिर-आँख पर बिठाया। इस लिए भी कि जानता हूँ कि रचा ही बचा रह जाता है। शायद ऐसे ही लोगों के लिए निराला ने लिखा है: जिन्हें लोग साहित्यकार समझते हैं, वे होते, तो मैं साहित्य में आता ही क्यों?
प्रदीप श्रीवास्तव: 3
कहानियों के चयन का आपका मापदंड क्या था, किस लेखक की कैसी कहानियाँ सम्मिलित करेंगे यह कैसे तय किया?
दयानन्द पांडेय:
चयन खुले मन से किया। यह नहीं देखा कि कौन किस विचारधारा का है। किस जाति, किस धर्म का है। किस ख़ेमे का है, किस ख़ेमे का नहीं। यह सारे फ़्रेम तोड़ कर ही कहानियों का चयन किया। कुछ लोगों को जब पता चला इस योजना के बाबत तो ख़ास इस संकलन के लिए कहानी लिखी। पहली कहानी। वह कहानी भी सहर्ष ले ली मैंने। शर्त बस एक ही थी सब के साथ कि कहानी में कहानी हो। कहानीपन हो। कुछ लोगों ने निबंध टाइप कहानियाँ भेजीं।
एक लेखक की कहानी तो ऐसी थी कि कहानी का एक चरित्र पटाखे की आवाज़ को बम समझ बैठा। और पूरी कहानी में वह पटाखे रूपी बम से न सिर्फ़ आतंकित रहा बल्कि घर भर को आतंक की दहशत में डाले रखा। यहाँ-वहाँ छुपता रहा। मैंने उनसे कहा, कोई दूसरी कहानी भेजें। तो वह बोले, यही एक कहानी लिखी है। मैं तो कवि हूँ। मैंने उन्हें सलाह दी कि कवि ही रहें, कहानी को बख़्श दें। बाद में कहने लगे कि आप को घमंड हो गया है। मैंने विनयवत उनके आरोप को स्वीकार लिया।
एक महोदय तो विद्यार्थी जीवन के मित्र हैं। उन्हें लेखक होने का भी भ्रम है। “कथा-गोरखपुर” छपने के बाद वह इतने कुपित हुए कि प्रकाशक को एक लंबी चौड़ी चिट्ठी लिख भेजी। लिखा कि “कथा-गोरखपुर” अधूरा है। क्योंकि इसमें उनकी कहानी नहीं है। अपनी बात को जस्टीफ़ाई करने के लिए उन्होंने कुछ और लेखकों के नाम लिखे कि फलाँ-फलाँ लेखकों की कहानियाँ भी संपादक ने नहीं ली हैं। जानबूझ कर नहीं ली हैं। उस चिट्ठी की प्रतिलिपि उन्होंने मुझे भी भेजी। और प्रकाशक ने भी पूछा कि क्या मामला है? मैंने प्रकाशक से कहा कि जिन-जिन लोगों के नाम लिए हैं चिट्ठी लेखक ने, उनसे कहिए कि उन लेखकों की कहानियाँ उपलब्ध करवा दें। आज तक उपलब्ध नहीं करवा सके वह। इसलिए कि वह लोग लेखक तो थे पर किसी ने कभी कोई कहानी नहीं लिखी थी। किसी ने एकांकी लिखा था, किसी ने ललित निबंध या लेख। पर कहानी नहीं।
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