औघड़ का दान

01-04-2022

औघड़ का दान

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 202, अप्रैल प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

सीमा अफ़नाई हुई सी बहुत जल्दी में अपनी स्कूटी भगाए जा रही थी। अमूमन वह इतनी तेज़ नहीं चलती। मन उसका घर पर लगा हुआ था, जहाँ दोनों बेटियाँ और पति कब के पहुँच चुके होंगे। दोनों बेटियों को उसने डे-बोर्डिंग में डाल रखा था, जिन्हें ऑफ़िस से आते वक़्त पति घर ले आते थे और सुबह छोड़ने भी जाते थे। क्योंकि उसके ऑफ़िस एल.डी.ए. में समय की पाबंदी को लेकर हाय-तौबा नहीं थी। 

हाँ, वह सब समय से पहले पहुँचते हैं, जिन्हें ऊपरी इनकम वाली जगह मिली हुई थी। और जो सुबह होते ही शिकार को ज़ब्‍ह करने की हसरत लिए आँखें खोलते हैं। और तब-तक अड़े रहते हैं ऑफ़िस में जब-तक कि शिकार मिलने की ज़रा भी उम्मीद रहती है। दूसरी तरफ़ जो ऊपरी इनकम वाली जगह पर नहीं होते हैं, वे अपनी कुंठा निकालते हैं देर से ऑफ़िस पहुँच कर, अपने काम को कभी समय से पूरा न करके एवं समय से पहले ही ऑफ़िस छोड़ कर या व्यक्तिगत कामों के लिए जब मन आया तब ऑफ़िस छोड़ कर। 

सीमा का पति नवीन इसी श्रेणी में आता है। इसलिए उसका ऑफ़िस आना-जाना पता ही नहीं चलता। कब आ जाए, कब चला जाए कोई ठिकाना नहीं। इसके चलते वह अपने बच्चों की देख-भाल के लिए पूरा वक़्त निकाल लेता है। पत्नी के हिस्से का भी बहुत सा काम कर डालता है, पत्नी सीमा ऑफ़िस से आने में एक मिनट भी देर कर दे तो उसका मूड ख़राब हो जाता है। 

वह लाख कारण बताए लेकिन उसे उन पर यक़ीन नहीं होता। और आज तो हद ही हो गई थी। साढ़े आठ बजने को थे। उसका कहीं पता नहीं था। मोबाइल भी नहीं उठा रही थी। उसकी बुरी आदतों में कॉल रिसीव न करना भी शामिल था। पूछने पर एक ही जवाब कि बैग में था, रिंग सुनाई ही नहीं पड़ी। मगर आज रोज़ की अपेक्षा बहुत देर हो चुकी थी। इस लिए नवीन चिंतित हो रहा था। 

सीमा पति के मूड का ही ख़याल कर अपनी स्कूटी पूरी रफ़्तार से भगाए जा रही थी। हालाँकि सड़क पर इस समय तक ऑफ़िस वालों की भीड़ कम हो चुकी होती है, लेकिन फिर भी ट्रैफ़िक बहुत था और हमेशा की तरह वायलेंट भी। 

सीमा की आँखें इस ट्रैफ़िक को लेकर बहुत सतर्क थीं, मगर सचिवालय के क़रीब पहुँचते ही वहाँ लगे जाम ने उसे रोक दिया, इस पर वह खीझ कर बुदबुदाई, “ये जाम कब पीछा छोड़ेंगे।” हेलमेट के अंदर से उसकी यह बुदबुदाहट बाहर तक आई, लेकिन बाहर गाड़ियों के शोर में खो गई। 

उसके आगे-पीछे दाएँ-बाएँ हर तरफ़ गाड़ियाँ थीं। फ़ोर व्हीलर से लेकर थ्री व्हीलर, टू व्हीलर तक सब! जाम कुछ इस क़द्र लगा था कि जो जहाँ था वहीं खड़ा था, ज़्यादा टाइम लगते देख क‍इयों ने अपनी गाड़ियाँ बंद कर दी थीं। सीमा ने भी। क़रीब पाँच मिनट के बाद ट्रैफ़िक को आगे बढ़ने के लिए सिग्नल मिला। दूसरी तरफ़ से किसी मंत्री जी का क़ाफ़िला निकलना था इसलिए ट्रैफ़िक इतनी देर तक रोका गया था। 

सिग्नल मिलते ही सारी गाड़ियाँ बेतहाशा भाग खड़ी हुईं। लेकिन सीमा की स्कूटी स्टार्ट ही नहीं हुई। उसने किक मारी लेकिन नतीजा सिफ़र। इस बीच हार्नों की चीख-पुकार एक दम बढ़ गई। इसी शोर में पीछे किसी मनचले ने चीख कर कहा, “अरे! माता जी हिलोगी-डुलोगी या यहीं खड़ी रहोगी।” 

अपने लिए माता जी सुनकर सीमा चिढ़ कर बुदबुदाई, “कमीने! अपनी माता को माता जी नहीं बुलाएँगे, हमें माता जी कह रहे हैं, साले कमीने।” इस बीच उसने और कई किक मारी जिससे स्कूटी स्टार्ट हो गई। फिर वह भी बिना एक सेकेंड देर किए फर्राटे से आगे बढ़ गई। जब घर पहुँची तो नौ बज चुके थे। 

पोर्च में एक कोने में उसने अपनी स्कूटी खड़ी की। वहीं बग़ल में पति की मोटर-साइकिल एवं मकान मालिक की कार और मोटर-साइकिल दोनों खड़ी थीं। मतलब की उसके अलावा बाक़ी सब पहले ही आ चुके थे। यह सब देखकर आज देर से आने के मुद्दे पर वह बहुत दिन बाद पति का सामना करने में भय का अहसास कर रही थी। 

पोर्च के बग़ल से ही ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं। मकान मालिक ने किराएदार का रास्ता भी अलग रखने की ग़रज़ से ऊपर जाने के लिए बग़ल से ही सीढ़ियाँ बनवा दी थीं। सीमा सीढ़ियों को एक तरह से फ्लाँगती हुई ऊपर पहुँची। अंदर कमरे की लाइट जल रही थी। टीवी की आवाज़ आ रही थी। उसके कॉलबेल बजाते ही अंदर से दोनों बेटियों की आवाज़ गूँजी, “मम्मी . . . ” और इसके कुछ ही क्षण बाद दरवाज़ा खुला, वह पूरी तरह अंदर पहुँच भी नहीं पाई थी कि, दोनों बेटियाँ उससे चिपक गईं और प्रश्न पर प्रश्न चालू, “मम्मी इतनी देर क्यों कर दी?” छोटी वाली बोली, “मम्मी मेरी चॉकलेट लाई हो?” 

सीमा दोनों को प्यार करती हुई सोफ़े की तरफ़ बढ़ी जहाँ पति नवीन मुँह फुलाए बैठे टीवी देख रहे थे। सीमा भी उसके सामने सोफ़े पर बैठ गई बेटियों को यह समझाते हुए कि, “आज चॉकलेट लेना भूल गई। तुम लोग यह टॉफ़ी ले लो।” 

उसने बैग से कुछ टॉफ़ियाँ निकाल कर दोनों को दे दीं जो उसके बैग में हमेशा रहती हैं। क्योंकि इन्हें खाने की उसे आदत सी थी। अब-तक पति द्वारा एक नज़र न देखने और कुछ न बोलने से वह समझ गई कि मामला गंभीर है। उसने धीरे से कहा, “सॉरी बहुत देर हो गई। वो असल में सोफी का हाथ टूट गया है। उसका ट्रीटमेंट कराने के बाद मुझे उसे उसके घर तक छोड़ने जाना पड़ा। इसी लिए आने में देर हो गई।” 

पति इतना कहने पर भी कुछ न बोले तो उसने कहा, “मैं मान रही हूँ तुम सब परेशान हो गए होगे। मगर मजबूर थी और कोई रास्ता ही नहीं था। पूरी बात सुनोगे तो तुम्हें लगेगा कि मैंने ग़लती नहीं की।” 

इतनी बात पर भी पति टस से मस नहीं हुए तो उसे बड़ी खीझ हुई। प्यास के मारे गला अलग सूख रहा था। इस बार अप्रैल महीने में ही गर्मी ने मई की गर्मी का अहसास करा दिया था। थकान, प्यास और पति के ग़ुस्से से पस्त हो उसने बड़ी बेटी से कहा, “रुचिका बेटे ज़रा मम्मा के लिए पानी ले आओ।” 

“हाँ बेटा, जल्दी से पानी ले आओ, साक्षात् देवी मइया अवतरित हुई हैं, चढ़ाने के लिए कुछ प्रसाद वग़ैरह भी ले आना।” 
      
रुचिका, माँ की बात सुनकर पानी के लिए उठ भी न पाई थी कि नवीन ने पत्नी सीमा पर तीखा व्यंग्य बाण चला दिया और फिर रिमोट लेकर टीवी के चैनल बदलने लगा। रुचिका कुछ न समझ के जब ठिठक गई तो सीमा ने उसे जाने का इशारा किया। देवी मइया सुन कर उसे रास्ते में मिले शोहदों का फ़िक़रा “माता जी“कहना फिर कानों में गूँज गया। रुचिका के जाते ही उसने कहा, “कमसे कम बच्चों के सामने तो ठीक से बोलिए। सोफी की मजबूरी देखते तो तुम भी वही करते जो मैंने किया। बच्चों को सो जाने दीजिए फिर बताती हूँ कि क्या हुआ। तब बताना कि मेरी ग़लती है क्या? हाँ मुझे फ़ोन कर देना चाहिए था, इतनी ग़लती ज़रूर हुई।” 

“ठीक है, सोने दो बच्चों को फिर आज तुम्हारी बजाता हूँ क़ायदे से। कई दिन से नहीं बजाई इसी लिए घर-सेवा छोड़ कर समाज-सेवा ज़्यादा करने लगी हो।” 

नवीन की बजाने वाली बात ने उसे राहत दी कि चलो मामला सुलझ गया। क्योंकि उसके बजाने शब्द के पीछे छिपे अर्थ को वह बख़ूबी समझती थी। समझ यह भी गई थी कि लाख थकी है, पर पति महोदय जल्दी सोने नहीं देंगे। वह यह सोच ही रही थी कि छोटी बेटी जो उसकी गोद में बैठी टॉफ़ी खा रही थी, उसने पूछा, “मम्मी पापा हम-लोगों के सोने के बाद क्या बजाएँगे?” 
 
उसके प्रश्न से चौंक कर सीमा बोली, “अं . . . कुछ नहीं बेटा, पापा ऐसे ही कुछ बोल रहे थे।” 

“नहीं, आप झूठ बोल रही हैं . . . बताइए न क्या बजाएँगे?” 

“ओफ़्फ़ो अपने पापा से ही पूछो क्या बजाएँगे। लीजिए अब बताइए क्या बजाएँगे। कितनी बार कहा बच्चों का थोड़ा ध्यान रखा करिए। अब चुप क्यों हैं लीजिए संभालिए।” 

कहते हुए सीमा ने बेटी को गोद से उतार कर भेज दिया नवीन के पास और बड़ी बेटी से पानी लेकर पीने लगी। रुचि ने पिता के पास पहुँच कर फिर वही प्रश्न किया तो नवीन ने उसे अपनी गोद में बैठाते हुए कहा, “हूँ . . . बेटा तब मैं मोबाइल में तुम्हारी जो पोएम रिकॉर्ड की है न, उसे बजाएँगे।” 

“क्यों?” 

“क्योंकि तुम्हारी आवाज़ बहुत-बहुत मीठी है न इसलिए।” 

“तो अभी क्यों नहीं बजाते?” 

“अभी इसलिए नहीं क्योंकि अं . . . अं . . . क्योंकि अभी टीवी चल रहा है।” 

“लेकिन पापा आपने तो मम्मी की बजाने के लिए कहा था।” 

“हूँ . . . माँ की तरह पीछे ही पड़ जाती है। तुम्हारी पोएम माँ के मोबाइल में भी है न, और उनका मोबाइल ज़्यादा बढ़िया है, इसलिए उन्हीं का बजाएँगे। अब तुम अपना कार्टून चैनल देखो ठीक है।” 

नवीन ने रुचि के प्रश्नों से बचने के लिए उसे रिमोट थमा दिया। और सोफ़े पर पसर कर बैठ गया। तब-तक पानी पीकर काफ़ी राहत महसूस कर चुकी सीमा ने खड़े होते हुए कहा, “और बोलो अंड-बंड।” 

इसके बाद उसने अंदर जाकर कपड़े चेंज किए और जल्दी से किचन में घुस गई। वहाँ यह देख कर उसे राहत मिली कि पति महोदय ने सब्ज़ी वग़ैरह पहले से ही काट कर रखी हुई है। चाय का कप, दूध लगा गिलास एवं नाश्ते की जूठी प्लेटों ने यह भी बता दिया कि पति महोदय ने नाश्ता बना कर बच्चों के साथ कर लिया है। 

इसके बाद उसने जल्दी-जल्दी खाना बनाया। सबने मिलकर खाया। फिर बच्चे पापा के साथ बिस्तर पर पहुँच गए। लेकिन सीमा अभी किचन में ही थी। सवेरे के लिए काफ़ी कुछ तैयारी कर लेना चाह रही थी। क्योंकि सुबह वक़्त बहुत कम होता है। पति, बच्चों सहित ख़ुद के लिए भी ढेर सारा काम करना होता है। 

जब काम निपटा कर पहुँची बेडरूम में तो साढे़ ग्यारह बज रहे थे। बच्चे, पति सोते मिले। एक-एक कर दोनों बच्चों को उनके कमरे में बेड पर लिटाने के बाद वह ख़ुद आकर पति के बग़ल में लेट गई। अब-तक थक कर वह चूर हो चुकी थी। पति को सोता देख कर उसने सोचा चलो कल करेंगे बात, फिर आँखें बंद कर लीं। उसे बड़ा सुकून मिला दिन-भर की हाँफती-दौड़ती हलकान होती ज़िन्दगी से। उसे अभी आँखें बंद किए चंद लम्हे ही बीते थे कि, पति की इस बात ने उसकी आँखें खोल दीं। 

“देवी-मइया को फ़ुरसत मिल गई क्या?” 

इस पर वह तिलमिला कर बोली, “क्या हो गया है आज। तभी से देवी-मइया, देवी-मइया लगा रखा है। रास्ते में वो शोहदे माता-जी बोल रहे थे और तुम हो कि तभी से . . . “

इसके बाद सीमा ने उसे जाम में फँसने और शोहदों के फ़िक़रे वाला वाक़िया बताया तो नवीन बोला, “बेवकूफ़ रहे होंगे। उनको रात में ठीक से दिखता नहीं होगा। नहीं तो तुम बीस साल की कमसिन हसीना लगती हो। कहीं से माता जी तो लगती ही नहीं।” 

“अच्छा, तो फिर क्यों तब से देवी-मइया, देवी-मइया किए जा रहे हो।” 

“नहीं, वो समाज सेवा पूरी करने के बाद तुम्हें घर का होश आया था न, इस लिए। लोग अपना घर तो देख नहीं पा रहे हैं और तुम पूरा समाज देख रही हो तो महान हुई न।” 

“पूरी बात जानने के बाद तुम्हें ग़ुस्सा होना चाहिए। तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे कि मैं रोज़ नौ-दस बजे घर आती हूँ। आज सोफी ने जो बताया सुनकर मैं दंग रह गई कि, इंसान कैसे अपनी पत्नी को इतनी बर्बरता से पीटता है। वो भी उस बात के लिए जो इंसान के हाथ में है ही नहीं और ईश्वर के आगे किसकी चली है?” 

“लेकिन वो उसे इतना क्यों मारता है। वह विरोध क्यों नहीं करती?” 

“अभी हर पत्नी विरोध करने लायक़ ताक़त कहाँ पा पाई है, सोफी भी उन्हीं में से एक है जो मार खा कर चुप-चाप आँसू बहाती रहती है।” 

“मगर तुम्हें उसको इस बात के लिए तैयार करना चाहिए। तुम तो हर बात का विरोध करती हो।” 

“अच्छा! कह तो ऐसे रहे हो जैसे कि मैं हमेशा लड़ती ही रहती हूँ और तुम चुप-चाप सुनते रहते हो।” 

“मैंने बात विरोध की, की है न कि लड़ने की। लड़ाई और विरोध में फ़र्क़ करना भी जान लो देवी-मइया, समझी, चलो आगे बताओ।” 

नवीन ने व्यंग्य करते हुए करवट ली और अपना एक हाथ सीमा के वक्ष पर रख दिया। सीमा इस पर बोली, “सीधे रहो तो आगे बोलूँ . . .” 

“बोलो न।” 

“उसका आदमी उसे इसलिए मारता है कि वह तीन लड़कियों को जन्म दे चुकी है, लड़का क्यों नहीं पैदा करती?” 

“क्या मूर्खता है, इसमें औरत का क्या दोष, वो क्या कर सकती है?” 

“ये तुम या तुम्हारे जैसे लोग समझते हैं न। उसके पति जैसे जाहिल नहीं।” 

“क्या वो इतना भी पढ़ा लिखा नहीं है। करता क्या है वो?” 

“ओफ़्फ़ो . . . पहले तुम ये जो कर रहे हो, इसे बंद करो तब तो बोलूँ। दर्द होता है यार समझते क्यों नहीं।” 

सीमा ने अपने वक्ष से नवीन के हरकत कर रहे हाथ को हटाते हुए कहा, “चलो समझ गया, अब बोलो मगर जल्दी। मुझे अभी और भी कई काम करने हैं।” 

“मैं जानती हूँ अभी तुम्हें और कौन से काम करने हैं?” 

सीमा ने नवीन का आशय समझते हुए कहा फिर आगे बोली, “असल में उसके आदमी की पढ़ाई-लिखाई, पारिवारिक बैक-ग्राऊँड कोई बहुत अच्छी नहीं है। वह नौ भाई-बहन है, उसके पिता ने मोटर-साइकिलों की रिपेयरिंग का वर्कशॉप खोल रखा था। बच्चों को ज़्यादा पढ़ाने-लिखाने के बजाए जैसे-जैसे वे बड़े हुए उन्हें वर्कशॉप में लगाते गए। इसका शौहर भाई-बहनों में छटे नंबर पर था और किसी तरह ग्रेजुएशन कर लिया। फिर लैब टेक्नीशियन का भी कोर्स कर लिया और संयोगवश अचानक ही के. जी. एम. यू. में नौकरी लग गई।” 

“और सोफी का परिवार?” 

“सोफी का परिवार पढ़ा लिखा समझदार परिवार है।” 

“तो इसके चक्कर में कैसे पड़ गए? वो इतना मारता-पीटता है तो अपने मायके में क्यों नहीं बताती?” 

“उसके साथ यह एक और बड़ी मुश्किल है।” 

“क्यों ऐसा क्या हुआ?” 

“असल में इन-दोनों ने अपने-अपने घर वालों के बहुत ज़्यादा विरोध के बावजूद लव-मैरिज की है। बाद में सोफी ने अपने घर वालों से संपर्क करना चाहा लेकिन घर वालों ने दुत्कार दिया। उसकी सारी कोशिश बेकार हो गई, तो उसने भी हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया। यही हाल पति का भी है। दोनों का अपने-अपने घरों से बरसों से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका पति तो जब पिछले साल उसके फ़ादर की डेथ हुई तो उनके अंतिम संस्कार में भी नहीं गया।” 

       “समझ में नहीं आता कि ऐसे उजड्ड, जाहिल के चक्कर में कैसे फँस गई तुम्हारी सोफी।” 

“फँस नहीं गई, धोखे से फँसा ली गई।” 

“क्या मतलब?” 

“मतलब यह कि सोफी के फ़ादर एच। ए। एल। में सर्विस करते थे। सोफी के एक भाई एक बहन है। सोफी सबसे बड़ी है। इससे छोटी एक बहन बचपन में ही किसी बीमारी की वजह से मर गई थी। सोफी पढ़ाई-लिखाई में ठीक थी। जूनियर हाई स्कूल के बाद पेरंट्स ने उसका एडमिशन एच। ए। एल। के स्कूल से निकाल कर निशातगंज के किसी स्कूल में करा दिया।” 

“क्यों?” 

“क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि सोफी को-ऐड वाले किसी स्कूल में पढ़े। वो सोचते थे लड़कों के साथ पढ़ेगी तो बिगड़ जाएगी।” 

“ये तो मूर्खतापूर्ण सोच है बिगड़ने वाले तो कहीं भी बिगड़ सकते हैं।” 

“हाँ, एक्चुअली हुआ भी यही, इंटर के बाद सोफी को महिला कॉलेज अमीनाबाद में डाल दिया गया। वहीं इसकी मुलाक़ात ज़ुल्फ़ी यानी इसके हसबैंड से हुई। लड़कियों के कॉलेज के पास जैसे तमाम शोहदे लड़के मँडराया करते हैं, वैसे ही यह भी मँडराया करता था। महीनों सोफी यानी सूफिया का पीछा करता रहा, दोस्ती करने की बात करता रहा। 

आख़िर उसकी मेहनत रंग लाई और सोफी फँस गई उसके चंगुल में। सोफी बताती है कि, तब वह सभ्य शालीन नज़र आता था। पढ़ाई के बारे में बताता कि मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा कर रहा है। फ़ादर को बैंक में मैनेजर बताया। भाइयों को अच्छी-अच्छी जगह पर बताया। झूठ यह भी बोला कि वह केवल चार भाई-बहन है। और जब भी आता तो हर बार बदल-बदल कर बाइक लाता। 

वास्तव में यह वह गाड़ियाँ होती थीं जो उसके यहाँ बनने आती थीं। वह कुछ देर के लिए उन्हें ले लेता। इन सब बातों ने सोफी को प्रभावित कर दिया। वह घर से निकलती स्कूल के लिए लेकिन पूरे समय उसके साथ घूमती, मटर-गश्ती करती।” 

“मतलब कि पेरंट्स ने जिस डर से को-ऐड से पीछा छुड़ाया वही हो गया।” 

“हाँ।” 

“एक बात बताओ हसीन और चंचल तो तुम भी बहुत थी, तुम्हारे पीछे लड़के नहीं पड़ते थे क्या?” 

“पड़ते क्यों नहीं थे। मैं दुनिया से कोई अलग थी क्या?” 

“तो तुम क्यों नहीं फँसी?” 

“माँ . . . अपनी माँ की वजह से। पापा तो ऑफ़िस से कभी फ़ुरसत ही नहीं निकाल पाते थे। जब घर पर रहते तब भी बच्चों पर कोई ध्यान नहीं देते थे। मगर मम्मी पूरा ध्यान देती थीं। हम-लोगों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर एक-एक गतिविधि पर पूरा ध्यान रखती थीं। हर विषय पर खुल कर बात करती थीं। दोस्त बन कर सारी बात सुनतीं, बतातीं जिस से हम लोग संकोच में कुछ छिपाए नहीं। 

“मुझे अच्छी तरह याद है कि कपड़े कैसे पहनना है, यह बताने से लेकर यह तक बताती थीं कि, देखो बड़ी हो गई हो। रास्ते में लड़के मिल कर बात करना चाहेंगे। दोस्ती करके तुम्हारा मिस यूज़ करेंगे। पेपर, टीवी की तमाम ऐसी घटनाओं का ब्योरा देकर बतातीं कि, 'हमारा समाज ऐसा है कि, लड़कों का तो कुछ नहीं होता, लड़कियाँ बरबाद हो जाती हैं। ये शोहदे सिर्फ़ लड़कियों से उनका शरीर खेलने, पाने के लिए दोस्ती करते हैं। ख़ुद उन्हें लूटते हैं, अपने दोस्तों के सामने भी डालते हैं। मन का नहीं हुआ तो मार डालते हैं। तेज़ाब डालते हैं।' 

“बचने का रास्ता बतातीं कि, 'घर से स्कूल से कई लड़कियों के साथ निकलो। यदि कोई लड़का मिलने की कोशिश करे तो सख़्ती से पेश आओ। कभी डरो मत।' ऐसे वह सब कुछ हम-सब को खुल कर बतातीं थीं। यही कारण था कि तमाम शोहदे पीछे पड़े लेकिन उनको जो जवाब मिलता था, उससे वह दुबारा मिलने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। और हम लोग ऐसे मूर्खतापूर्ण कामों से दूर अपनी पढ़ाई पूरी करने में सफल रहे।” 

“तो तुम यह सोफी को भी तो समझा सकती थी।” 

“उस समय तो मैं उसे जानती भी नहीं थी। हमारा परिचय तो ऑफ़िस में हुआ।” 

“उसके घर वाले क्या करते रहे। लड़की बाहर आवारागर्दी कर रही है उनको इसकी ख़बर भी नहीं थी क्या?” 

“ख़बर होती तो वो उसके हाथ-पैर तोड़ कर घर बैठा देते। लेकिन ज़ुल्फ़ी इतना शातिर था कि दोनों ने शादी कर ली उसके बाद घर वालों को पता चला। बड़ी हाय तौबा-मची, पुलिस-फाटा सब हुआ लेकिन सब व्यर्थ। क़ानूनन उनका कुछ नहीं किया जा सकता था। दोनों एडल्ट थे।” 

“ये सख़्ती पहले दिखाते तो शायद ये नौबत ही न आती।” 

“ऐसा नहीं है। सोफी जैसा बताती है उस हिसाब से उसके पेरंट्स बहुत सख़्त थे। वो तो सोफी को चौदह-पंद्रह साल की उम्र में ही बुर्क़ा पहनने के लिए कहने लगे थे। लेकिन उसकी ज़िद और जैसा बताती है कि, कॉलोनी का माहौल ऐसा था कि, वह बुर्क़ा से बची रही। और सबसे बड़ी बात यह है कि घर के चोर को रखाया नहीं जा सकता। कोई कुँए में कूदने की ज़िद किए बैठा हो तो, कब-तक बचाओगे उसे। मैं तो उस समय उससे यह सुन कर दंग रह गई, जब उसने यह बताया कि बी.ए. फ़र्स्ट ईयर में जब इन दोनों की दोस्ती हुई तो, उसके तीन महीने बाद ही दोनों के शारीरिक सम्बन्ध बन गए थे।” 

“जब तुम्हारी सोफी इतनी उतावली थी, सेक्स की इतनी भूख लगी थी उसे तो, अकेले ज़ुल्फ़ी को दोष कैसे दे सकते हैं?” 

“ये भी कह सकते हो। लेकिन मुझे लगता है कि, वह इतनी इनोसेंट थी कि, ज़ुल्फ़ी जैसे शातिर को समझ न पाई। वह कितना धूर्त और शातिर था इसका अंदाज़ा इसी एक बात से लगा सकते हो कि, पहली बार सेक्स के बाद उसने सोफी से कॉपर टी लगवाने की बात कर डाली। जब सोफी डर गई, मना कर दिया इन चीज़ों के लिए तो उसने तरह-तरह से ऐसे समझाया जैसे कोई मेच्योर आदमी हो। उसने डराते हुए कहा कि, 'ऐसे वह प्रेग्नेंट हो गई तो मुश्किल हो जाएगी।'

सोफी ने इस पर कहा, 'ठीक है, आज के बाद हम लोग शादी के बाद ही सेक्स करेंगे।' ज़ुल्फ़ी को लगा कि यह तो हाथ से निकल जाएगी। तो उसने तरह-तरह से डराया, मनाया और अंततः इसके लिए सोफी को तैयार कर लिया। इसके बाद वह उसे, जब उसका मन न होता तब भी ले जाता अपने साथ। इससे पढ़ाई पर बड़ा असर पड़ा। हमेशा फ़र्स्ट आने वाली सोफी किसी तरह बी.ए. पास कर पाई।”

“हूँ . . . तुम्हारी सोफी की ज़िन्दगी में बड़े पेचोखम हैं। मायका-ससुराल नाम की कोई चीज़ बची नहीं है। ले दे के ज़ुल्फ़ी और ज़ुल्फ़ी है। और वो इसी का फ़ायदा उठा रहा है।”

“हाँ, इसी का फ़ायदा उठा रहा है। जैसा चाहता है वैसा व्यवहार करता है। कल रात ऐसा मारा कि हाथ में फ्रैक्चर हो गया। रात-भर कराहती रही, सुबह हाथ सूजा हुआ देख कर भी एक बार न पूछा कि, कैसे ऑफ़िस जाओगी। और वह भी न जाने किस मिट्टी की बनी है कि, इस हालत में भी स्कूटी चला कर ऑफ़िस आ गई। ऑफ़िस में जब दर्द बहुत बढ़ गया तब रोने लगी। उस की हालत देख कर मुझ से रहा नहीं गया तो ले गई हॉस्पिटल। डॉक्टर ने देखते ही कह दिया फ्रैक्चर है। फिर मेरा फ़र्ज़ बन गया कि मैं उसकी मदद करूँ।” 

“हाँ, फ़र्ज़ पूरा भी किया तुमने। उसको घर छोड़ने गई तो, उसका वो जाहिल आदमी मिला था क्या?” 

“हाँ दरवाज़ा उसी ने खोला। एक नज़र सोफी के प्लास्टर चढ़े हाथ को देखा फिर अजीब सी नज़रों से मुझे देखा। उसे देख कर मुझे ग़ुस्सा आ गया। मगर कंट्रोल करते हुए कहा, 'इनके हाथ में गहरा फ्रैक्चर है। डॉक्टर ने आराम करने को कहा है। देखिए मियां-बीवी में तकरार होती रहती है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि हाथ-पैर टूट जाएँ।'

मेरे इतना कहते ही सोफी बोल पड़ी, 'सीमा, आओ अंदर बैठो मैं चाय बना कर लाती हूँ।'

सोफी का मतलब मैं समझ गई थी कि, वह अपने पति की आदतों के चलते नहीं चाहती थी कि, मैं कुछ कहूँ। मैंने भी तुरंत बात पलटी और कहा, 'नहीं सोफी, बहुत देर हो गई है। मैं तुरंत चलूँगी। अभी घर पहुँचने में घंटे भर से ज़्यादा समय लग जाएगा। मैं कल आऊँगी।'

इसके बाद मैं स्कूटी की तरफ़ चल दी। सोफी ने कई बार कहा, लेकिन मैं नहीं रुकी। उसकी तीनों बच्चियाँ भी ज़ुल्फ़ी के साथ खड़ी थीं। मैं उन सब को बॉय कर चल दी। रास्ते-भर मेरी नज़रों के सामने कभी तुम लोगों का, तो कभी सोफी की बच्चियों का चेहरा नज़र आता रहा। उनका चेहरा याद आते ही मैं उन मासूमों के बारे में सोचने लगती कि, उनका भविष्य क्या होगा। जिनकी मासूमियत कुपोषण के चलते कुम्हला गई थी।”

“तुम्हारी सोफी की हालत वाक़ई बड़ी गंभीर है, उसकी ज़िदगी में हर तरफ़ अँधेरा ही दिख रहा है। मुझे एक बात याद आ रही है। हालाँकि मुझे कभी भरोसा नहीं था। लेकिन जब छुटकी होने वाली थी तो, तुम्हारी हालत बड़ी ख़राब हो गई थी। कहने को उस समय मैटरनिटी मामलों का वह सबसे बड़ा हॉस्पिटल था। वहाँ की डॉक्टर नमिता अंचल पूरे शहर में जानी जाती हैं। तुम्हें तो उन पर अटूट विश्वास है।”

“हाँ वो हैं ही इतनी क़ाबिल। अपनी सीरियस कंडीशन से मैं बहुत डरी हुई थी, लेकिन डॉक्टर नमिता का नाम सुना तो मुझे विश्वास हो गया वह मुझे बचा लेंगी। और मेरा विश्वास टूटा नहीं।” 

“लेकिन मेरी नज़र में सच कुछ और है। सीमा नो डाउट कि डॉक्टर नमिता बहुत क़ाबिल हैं, लेकिन आज भी मेरा पूरा यक़ीन है कि उस दिन न सिर्फ़ तुम्हारी, बल्कि छुटकी की भी जान उस औघड़ बाबा जी ने बचाई जिनके पास मैं उस दिन गया था।”

“औघड़ बाबा ने!”

“हाँ, जब डॉक्टरों ने कहा कंडीशन बहुत सीरियस है तो मैं घबरा गया। समझ में नहीं आ रहा था क्या करूँ। तीन घंटे बाद ऑपरेशन होना था। इसी समय ऑफ़िस से सोम पांडे आ गए। हालत जान कर वो भी परेशान हो गए। अचानक उन्होंने मुझसे कहा, 'नवीन आदमी दवा, पूजा-पाठ सब करता है कि, न जाने कौन सी चीज़ लग जाए।'

मैंने प्रश्न-भरी दृष्टि से उसकी तरफ़ देखा तो उसने कहा, 'मोहान के पास एक औघड़ साधू बहुत दिन से आ कर रुका हुआ है। लोग उनके पास जाते हैं, तो बिना कुछ बताए ही वह मन की बात जान जाता है, और समाधान बता कर भेज देता है। आज-तक कोई उनसे निराश नहीं हुआ है। अभी तीन घंटे बाक़ी हैं। हम लोग वहाँ से होके आ सकते हैं।'

तुम्हारी हालत से मैं डरा था ही लेकिन कम समय के कारण मैंने कहा, 'यार इस हालत में मैं गाड़ी नहीं चला पाऊँगा।' तब वह बोले, 'मैं चलता हूँ।' मैं तुम को छोड़ कर जाना नहीं चाहता था। लेकिन जब अम्मा सहित बाक़ी सबने कहा तो मैं चला गया। बाबा के पास गया तो वह मेन मोहान रोड से क़रीब एक किलो-मीटर दूर जंगल में मिले। 
      
एक पेड़ के सहारे पुआल की एक छोटी सी झोपड़ी में, क़रीब बीस-पचीस मीटर दूर एक छोटा टीला था। आस-पास हर तरफ़ झाड़-झंखाड़, और टीले पर बीचों-बीच एक लकड़ियों का ढेर सुलग रहा था। उसके पास ही पुआल पर एक चिथड़ा कंबल पड़ा था। बाबा उसी पर एक दम नंगे औंधे मुँह पड़े थे। छह फ़ीट से ज़्यादा एकदम पहलवानों जैसा जिस्म था। भभूत से उनका पूरा जिस्म काला हो रहा था। 

हम-दोनों हाथ जोड़ कर उनके नज़दीक खड़े हो गए। हमारे प्रणाम बोलने का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैं उनकी इस हरकत से आतंकित हो रहा था। वापिस तुम्हारे पास आने की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। कुछ देर बाद हमने और सोम ने एक दूसरे की तरफ़ देखा और फिर जैसे ही बाबा के और क़रीब पहुँचने के लिए क़दम बढ़ाने को हुए वह एकदम से उठ कर बैठ गए। 

उन्हें देख कर कुछ क्षण को हम-दोनों सहम गए। नशे के कारण आँखें सुर्ख़ थीं। बड़ी-बड़ी जटाएँ। दाढ़ी। वीभत्स रूप था। हम कुछ बोलें इसके पहले ही वह उठे और जो लकड़ियाँ सुलग रहीं थीं, उसके किनारे पड़ी राख में से एक मुट्ठी निकाल कर मेरे में हाथ देते हुए कहा, 'ले जा इसको, लगा दे जा कर उसे। कुछ नहीं होगा।'

हम उनका पैर छूने को बढ़े तो वह चीख पड़े, 'चल भाग यहाँ से, वक़्त बहुत कम है तेरे पास, देर हुई तो जय महाकाल।' उनकी चीख और बात से हम एकदम पसीने-पसीने हो गए। मगर फिर जितनी तेज़ हो सकता था हम उतनी तेज़ भागे वहाँ से। सोम इतनी तेज़ मोटर-साइकिल चला रहा था कि कई जगह लड़ते-लड़ते बचे। मैंने पूरी ताक़त से भभूत को मुट्ठी में जकड़ रखा था। मैं जब हॉस्पिटल पहुँचा तो तुम्हें सिजेरियन ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर ले जा रहे थे। 

तुम स्ट्रेचर पर आँखें बंद किए पड़ी थी, वार्ड ब्वाय, नर्स, सब जल्दी-जल्दी अंदाज़ में थे। मुझे लगा कि तुम्हारी हालत ज़्यादा गड़बड़ है इसीलिए सब तेज़ी से जा रहे हैं। तुम्हारा भाई अम्मा को पकडे़ हुए चल रहा था। तभी सोम बोला, 'जल्दी से लगाओ।' मैं, जो उस समय बहुत नर्वस हो गया था, जल्दी से तुम्हारे माथे पर भभूत लगा दी। फिर उसके बाद जो हुआ उससे मैं क्या डॉक्टर नमिता भी चौंक गईं।”

“क्यों ऐसा क्या हो गया था।”

“हुआ यह कि भभूत लगते ही तुमने आँखें खोल दीं। मुझे देख कर हाथ मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ लिया। मगर तभी ऑपरेशन थिएटर आ गया और फिर मैंने तुम्हें अंदर जाने दिया। तभी डॉक्टर नमिता मेरे सामने आ गईं और बोलीं, 'रियली इट्स ए मिरेकल, बाद में इस बारे में बात करती हूँ।'

“फिर वह जल्दी से चली गईं ऑपरेशन थिएटर में। बाहर अम्मा, मैं तुम्हारे भाई और सोम इंतज़ार करते रहे। एक-एक पल बहुत भारी बीत रहा था। मगर यह लंबा नहीं चला, मुश्किल से चालीस-पैंतालीस मिनट बीते होंगे कि डॉक्टर बाहर निकलीं। मैं तुरंत उनके पास पहुँचा तो वह बधाई देती हुईं बोलीं, 'बधाई हो, लड़की हुई। माँ-बच्ची दोनों ही बिल्कुल ठीक हैं। मगर जिस तरह से सब कुछ हुआ, उससे मैं आश्चर्य में हूँ। मेरे इतने लंबे कॅरियर में इस तरह की यह पहली घटना है।' 

"फिर उन्होंने बताया कि अंदर जाते ही आश्चर्यजनक ढंग से तुम्हारी कंडीशन नॉर्मल होने लगी। जिस सिजेरियन के लिए उन्होंने सारी तैयारी कर रख थी वो शुरू करतीं, उसके पहले ही छुटकी का जन्म हो गया। नॉर्मल डिलीवरी हुई थी। कुछ ही देर बाद हमने तुम-दोनों को देखा, लग ही नहीं रहा था कि यह वही केस है जो कुछ देर पहले तक बेहद सीरियस था। अगले दिन डॉक्टर ने जब मुझ से भभूत के बारे में पूछा तो मैंने सारा वाक़िया बता दिया। सुन कर वह बड़ी चकित हुईं। बोलीं, 'बड़ी अजीब है यह दुनिया। न जाने कैसे-कैसे लोग पड़े हैं दुनिया में। क्या पता कौन किस रूप में मिल जाए।'"

“लेकिन आज से पहले तो तुमने यह सब कभी नहीं बताया।”

“अं . . . यह कह लो कि डर। मैंने सोचा कि अगर बताऊँगा तो तुम हँसोगी कि अच्छा पहले तो बड़ा इन सबको गरियाते थे, कि ये पाखंडी होते हैं। ढोंगी ठग होते हैं। इन को कहीं गहरी नदी में डुबो देना चाहिए। जब सिर पर आन पड़ी तो दौड़े चले गए। इसीलिए नहीं बताया फिर बाद में धीरे-धीरे बात भी दिमाग़ में धूमिल होती गई।”

“ऐसा कैसे सोच लिया तुमने। तुम मेरे, बच्चों के लिए इतना सोचते, करते हो और मैं तुम पर हँसूगी, यह मैं सोच भी नहीं सकती। फिर ऐसी बात दिमाग़ में मत लाना। मगर यह घटना तुम्हें अभी क्यों याद आई?”

“इसलिए याद आ गई कि मुझे लगा यदि सोफी वहाँ जाए तो उसकी समस्या भी शायद हल हो जाए। जिस तरह तुम उसके बारे में बता रही हो उससे मुझे उस पर बड़ा तरस आ रहा है।”

“तुम्हें उन बाबा पर इतना यक़ीन है।”

“हाँ . . . पूरा यक़ीन है। जानती हो जिस दिन तुम्हें डिस्चार्ज किया गया, उस दिन डॉक्टर नमिता ने मुझसे पूरी बात सुनने के बाद बाबा का पूरा ठिकाना नोट किया। जब मैंने कहा कि, ऐसे उन्हें ढूँढ़ पाना मुश्किल है, तो उन्होंने कहा, 'नहीं मिलेंगे तब आपको कष्ट दूँगी।' 

"बड़ा कुरेदने पर सिर्फ़ इतना ही संकेत दिया कि हॉस्पिटल में सीनियर चैन से नहीं रहने दे रहे हैं और घर पर पति और बेटी ने अपनी-अपनी हरकतों से परेशान कर रखा है। उनकी परेशानी का अंदाज़ा इसीसे लगा सकती हो कि यह बात कहते-कहते उनकी आँखें छल-छला आई थीं।”

“तो बाबा के पास वह गईं कि नहीं?”

“पता नहीं बाद में उन्होंने कोई फ़ोन नहीं किया। हालाँकि मेरा नंबर अपने सेल में फीड किया था।”

“लेकिन सोफी से यह बताना ठीक रहेगा। वह मुस्लिम है। हिंदू बाबा की बात पर नाराज़ न हो जाए।”

“कैसी बचकानी बात करती हो। ज़रूरत पड़ने पर आदमी हर जगह जाता है। ऐसे तमाम मुस्लिम लोगों को मैं जानता हूँ जो हिंदू स्थानों पर मन्नतें माँगने जाते हैं। हिंदू बाबाओं के शिष्य हैं। फिर तुम्हारा काम है उसकी समस्या के समाधान के लिए एक रास्ता बता देना। बाक़ी हिंदू-मुसलमान वह ख़ुद तय कर लेगी। उसे ज़रूरत होगी तो जाएगी, नहीं तो नहीं जाएगी। तुम्हारा काम है उसकी जो मदद कर सकती हो, वह कर देना बस। अब मुझे नींद आ रही सवेरे जल्दी उठना है।”

“हाँ . . . रोज़ वही बोरिंग लाइफ़ कुछ बचा ही नहीं है।”

“अभी बहुत कुछ बचा है डॉर्लिंग, आओ तुम्हें बताता हूँ, तुम्हारी बजानी भी तो है,” कहते हुए नवीन ने सीमा को बाँहों में जकड़ लिया। उसने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया।

अगले दिन उम्मीद के मुताबिक़ सीमा को ऑफ़िस में सोफी नहीं मिली। उसने उसे फ़ोन कर उसका हाल-चाल लिया तो सोफी ने बताया, सूजन अभी भी है। दर्द पहले से कुछ ही कम हुआ है। ऑफ़िस दो-चार दिन बाद ही आ पाएगी। उसने यह भी बताया कि, 'पहले तो पति इस बात पर चिल्लाया कि उसको क्यों नहीं बताया? सारे ऑफ़िस में उसकी मार-पीट की बात बताकर उसकी निंदा कराई होगी। लेकिन तब शांत हुआ जब उसे यह बताया कि नहीं ऐसा कुछ नहीं बताया। तुम्हारे अलावा लोगों को सिर्फ़ इतना ही मालूम है कि स्कूटी के भिड़ जाने से फ्रैक्चर हुआ।' 

सोफी इसके बाद पति की निष्ठुरता के बारे में बता कर रोने लगी कि, एक लड़का न होने के कारण वह किस तरह उसे प्रताड़ित कर रहा है। इतनी चोट के बावजूद उसने खाना बनाने में कोई मदद नहीं की। दर्द से तड़पते हुए उसने एक ही हाथ से रात ग्यारह बजे तक सारा काम निपटाया। 

दवा खाने के बाद जब उसे कुछ राहत मिली और वह सो गई तो कोई आधे घंटे बाद ही वह अपनी हवस शांत करने पर उतारू हो गया। लाख मिन्नतें कीं, चोट का, दर्द का हवाला दिया लेकिन कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। क्रूरतापूर्वक अपनी हवस शांत कर खर्राटे भरने लगा। और वह दर्द से घंटों पड़ी कराहती रही। 

सोफी की यातना, उसकी रुलाई सुन कर सीमा भी भावुक हो उठी। वह ग़ुस्से में बोली, “सोफी वो तुम्हारा आदमी है। मुझे कुछ कहने का अधिकार तो नहीं है, लेकिन यह कहे बिना अपने को रोक नहीं पा रही हूँ कि, तुम्हारा आदमी ऐसा भावनाहीन प्राणी है कि वह आदमी कहलाने लायक़ नहीं है। आख़िर तू फँस कैसे गई इसके चक्कर में?”

“अब क्या बताऊँ, मुक़द्दर में जो लिखा था वो हुआ। अब तो ऐसे ही घुट-घुट कर मरना है।” 

“नहीं सोफी ज़िन्दगी घुट-घुट कर मरने के लिए नहीं होती। फिर तू किसी पर डिपेंड नहीं है। किसी की दया पर नहीं जी रही है। तुम पहले ठीक हो जाओ। जब ऑफ़िस आओगी तब बात करेंगे।”

“ठीक है सीमा। तुम्हारी जैसी सहेली क़िस्मत से ही मिलती है। कम से कम इस मामले में तो मैं भाग्यशाली हूँ। अच्छा ऑफ़िस में ध्यान रखना। कुछ राहत मिल जाए तो ज्वाइन करती हूँ। मुझे लगता है चार-छह दिन तो लग ही जाएँगे।”

इतनी बातों के बाद सीमा ने फ़ोन काट दिया। इस बीच उसने कई बार सोचा कि बाबा के बारे में बात करे, लेकिन न जाने क्यों संकोच कर गई। नहीं बोल पाई बाबा के बारे में। बड़ी देर तक वह सोचती रही सोफी की तकलीफ़ों के बारे में कि आदमी ऐसा जाहिल और क्रूर मिला है, उसकी ज़िन्दगी कैसे कटेगी। ऐसे तो उसे जीवन में सुख का कोई एक क़तरा भी शायद ही मिल पाएगा। 

उसे इस नर्क से निकालने के लिए तो कोशिश करनी ही चाहिए। अभी इतनी बड़ी ज़िन्दगी पड़ी है। तीन-तीन बच्चियों का भी जीवन जुड़ा है उससे। यह तलाक़ लेकर किसी अच्छे इंसान से दूसरा निकाह क्यों नहीं कर लेती। इनके यहाँ तलाक़ हम हिंदुओं के यहाँ की तरह दुष्कर तो है नहीं। मगर यह सलाह मैं उसे कैसे दे सकती हूँ। वह बुरा मान गई तो। 

उस के दिमाग़ में सोफी की मदद करने की उधेड़बुन पूरे ज़ोरों पर थी, कि तभी उसके सीनियर ने चपरासी से उसे बुला भेजा। वह खिन्न होते हुए चपरासी से बोली, 'ठीक है कह दो आ रही हूँ।' फिर मन ही मन बुद-बुदाई कमीने के पास कोई काम-धाम है नहीं। बैठा कर फ़ालतू बातें करेगा, घूर-घूर कर ऊपर से नीचे देखेगा। नज़र मिल जाए तो खीसें निपोर देगा, कुत्ता कहीं का लार टपकाता घूमता रहता है। कमीने की बीवी पता नहीं क्या करती रहती है? वह कोसती, गरियाती जब उसके पास पहुँची तो उसके अनुमान के मुताबिक़ ही वह खीसें निपोरता हुआ बोला, “आइए-आइए सीमा जी, आजकल आप लिफ़्ट नहीं दे रही हैं।”

“नहीं सर ऐसी बात नहीं है,” कहते हुए सीमा सामने चेयर पर बैठ गई और काफ़ी देर तक अंदर ही अंदर कुढ़ती उसकी अनर्गल बातें सुनती रही। 

सोफी क़रीब एक हफ़्ते बाद हालत सुधरने पर ऑफ़िस पहुँची तो सीमा के बारे में सुन कर दंग रह गई। उसकी हिम्मत की वह क़ायल हो गई। हाथ में प्लास्टर लगने के बाद जब वह अगले दिन नहीं आई थी तब सीमा ने उस समय ऑफ़िस में हंगामा खड़ा कर दिया था, जब उसका सीनियर उससे कुछ ज़्यादा ही अश्लील बातें करने लगा था। 

सीमा ने न सिर्फ़ जी भर के हंगामा करा, पूरा ऑफ़िस इकट्ठा कर लिया, बल्कि उसकी लिखित कंप्लेंट की, फिर यूनियन और अन्य लोगों के साथ तब-तक दबाव बनाया जब-तक कि विभागीय जाँच के आदेश न हो गए। 

उसने यूनियन के उन लोगों की एक न सुनी जो बातचीत कर मामले को रफ़ा-दफ़ा करा देना चाहते थे। यह सब जानने के बाद सोफी ने तुरंत सीमा को फ़ोन किया। क्योंकि अभी तक वह आई नहीं थी। सीमा ने फ़ोन उठाते ही कहा, “अभी पेरंट्स मीटिंग में हूँ, एक घंटे बाद आती हूँ।”

सोफी बेसब्री से उसका इंतज़ार करती रही। क्योंकि वह उसके मुँह से ही सब सुनना चाहती थी। सीमा बताए वक़्त से जब क़रीब दो घंटे लेट पहुँची ऑफ़िस तो सोफी छूटते ही बोली, “तूने तो कमाल कर दिया यार। उस सबसे बड़े घाघ को ठीक कर दिया। सारी औरतों का जीना हराम कर रखा था। पिछले महीने तो मुझसे दो बार कहीं घूमने चलने के लिए कह चुका था। मैंने मारे डर के किसी से कुछ नहीं कहा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए।”

“यही तो ग़लती की। हम लोगों की इन्हीं ग़लतियों के चलते इन शोहदों की हिम्मत बढ़ती है। हमें तुरंत करारा जवाब देने की आदत डालनी ही पड़ेगी, तभी गुज़ारा है। अच्छा अभी कुछ काम कर लेते हैं फिर लंच में बातें करते हैं, तुम्हें अभी बहुत कुछ बताना है।”

“हाँ ठीक है, नहीं तो सब कहेंगे मिलते ही दोनों चालू हो गईं।”

लंच टाइम में सोफी-सीमा फिर मिलीं। सोफी का हाल-चाल लेने एवं सीनियर के साथ हुए बखेड़े के बारे में बताने के बाद सीमा सीधे उस मुद्दे पर आ गई जिसे वह सोफी से हफ़्ते भर से कहना चाह रही थी। फ़ोन पर बात ज़ुबाँ पर आते-आते कई बार रह गई थी। उसने सोफी से बाबा के बारे में विस्तार से बताया कि कैसे उसकी बच्ची के जन्म के समय बाबा ने मदद की। और आख़िर में जोड़ा, “देखो सोफी, मैं यह कहने की हिम्मत जुटाने में हफ़्ते भर असमंजस में रही कि, तुम एक बार उस औघड़ बाबा से मिल लो। तुम्हारी हालत देखकर मैं बहुत आहत थी। तभी बात-चीत में पति ने यह सब बताया। संकोच वह भी कर रहे थे कि, तुम मुसलमान हो, हिंदू औघड़ बाबा की बात पर नाराज़ न हो जाओ।”

“नहीं, ऐसा क्यों सोचती हो। तुम लोग मेरे लिए इतना सोच रहे हो, और मैं नाराज़ होऊँ ऐसा तो सम्भव ही नहीं है। मैं तो जीवन-भर तुम्हारी अहसानमंद रहूँगी। मगर एक आशंका है।” 

“क्या?” 

“मैंने सुना है कि औघड़ बहुत ही भयानक तरह की पूजा-पाठ करते हैं। शायद कपड़े वग़ैरह भी नहीं पहनते।”

“बिना कपड़ों के तो नागा साधू रहते हैं। हाँ औघड़ बाबाओं की पूजा में मांस-मदिरा नशा-पानी सब चलता है। बड़े क्रोधी भी होते हैं। ज़्यादातर यह श्मशान घाट पर पूजा करते हैं। ये समझ लो कि जैसे तुम्हारे यहाँ टोना, झाड़-फूँक आदि करने वाले बाबा आदि होते हैं उनसे ही मिलते जुलते।”

“मगर सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि, इनको यह बताऊँ कैसे कि फ़लाँ औघड़ बाबा के पास चलो तो मुराद पूरी होगी। बेटा ही होगा। और यदि यह नहीं गए तो जाऊँगी कैसे?” 

“क्यों क्या तुम्हारे पति को इन बातों पर यक़ीन नहीं है?” 

“थोड़ा बहुत नहीं, बहुत ज़्यादा है। न जाने कितने पीर-फकीरों से मिलते रहते हैं। तमाम भभूत, ताबीज़, गंडे आदि लाते रहते हैं। न जाने कितना पैसा इन्हीं सब पर फूँक देते हैं। अगर मुझे सच मालूम है तो यह कई हिंदू साधु-संन्यासियों के भी चक्कर लगा चुके हैं।”

“तब तो कोई दिक़्क़त ही नहीं होनी चाहिए।”

“है बहुत बड़ी दिक़्क़त है। वह ख़ुद तो पीर-फकीर, मौलवी हर के पास जाते रहते हैं। मगर मुझे इनमें से कहीं भी ले जाना उन्हें मंज़ूर नहीं। शुरू में एक दो जगह बड़े दबे मन से ले गए। मगर पिछले साल एक मौलवी के यहाँ जब गए, उसने जो भी बताया, झाड़-फूँक कर कुछ चीज़ें मुझ पर फेंकी और फिर इन्हें कुछ सामान देकर किसी चौराहे पर फेंक कर आने को कहा, वहाँ तक तो सब ठीक था। लेकिन जब यह क़रीब दस-पंद्रह मिनट बाद लौटे तो उस मौलवी में न जाने ऐसा क्या देख लिया कि तुरंत मुझे वहाँ से लेकर चल दिए। रास्ते भर उसका नाम लिए बिना ढोंगी, बेईमान और न जाने क्या-क्या गाली देते रहे। 

"घर पर मेरे साथ भी बदतमीज़ी की। इतनी बात मेरी समझ में आई कि 'कमीनी वहाँ से हट नहीं सकती थी।' मैं आज-तक नहीं समझ पाई कि आख़िर उस दिन उस मौलवी को इन्होंने ऐसा क्या करते देख लिया था कि, अचानक ही इतना आग-बबूला हो गए। फिर इस घटना के बाद मुझे कभी ऐसी किसी जगह लेकर नहीं गए। और मेरी हिम्मत भी नहीं पड़ती कि मैं कुछ कहूँ। अब तुम्हीं बताओ कि वह मुझे लेकर एक औघड़ बाबा के यहाँ जाएँगे?” 

“सही कह रही हो, मुझे भी कोई उम्मीद नहीं दिखती। अब तुम अपनी सहूलियत के हिसाब से देख लो, सोचो कोई रास्ता निकाल सकती हो तो निकालो। नहीं तो फिर वक़्त का इंतज़ार करो। हो सकता है तुम्हारे पति यह सब करते-करते थक-हार कर बैठ जाएँ और लड़के के बारे में सोचना बंद कर लड़कियों पर ही मन लगा लें।”

“नहीं सीमा मुझे ऐसा मुमकिन नहीं लगता।”

“क्यों?” 

“अब क्या बताऊँ . . . कहना तो नहीं चाहिए मियाँ-बीवी के बीच की बात है, लेकिन जब तुम हमारे लिए इस हद तक परेशान हो तो खुल कर बताती हूँ तुम्हें। बेटा हो इस बात के लिए यह इस हद तक ज़िद पकड़ चुके हैं कि, आए दिन एक और निकाह कर लेने या फिर तलाक़ दे देने की धमकी देते ही रहते हैं। 

"उनकी इस धमकी से सिहर उठती हूँ कि अगर तलाक़ दे दिया तो इन तीनों लड़कियों को लेकर जाऊँगी कहाँ। यदि दूसरा निकाह कर लिया तो ज़िन्दगी और नरक। बेटे के लिए इनकी दिवानगी का अंदाज़ा इसी एक बात से लगा सकती हो कि, दुआ तावीज ही नहीं तरह-तरह की अंड-बंड दवाएँ भी खाते हैं और ज़बरदस्ती मुझे भी खिलाते रहते हैं। 

"पिछले कई महीनों से एक झोला छाप हकीम के चक्कर में पड़े हुए हैं। उसने न जाने ऐसी कौन सी दवा दी है कि, दूध में लेने के बाद जैसे अपना आपा ही खो बैठते हैं। उसके बताए तरीक़े से ऐसे अंड-बंड रौंदते हैं मुझे कि, मेरा कचूमर ही निकल जाता है। एक ही रात में कई बार रौंदते हैं। नफ़रत इतनी कि ख़त्म होते ही धकेल देते हैं। 

"मेरी हालत का अंदाज़ा इसी बात से लगा सकती हो कि मेरा हाथ टूटा है, लेकिन इस हाल में भी नहीं छोड़ते। मेरी कितनी मदद करते हैं उसका अंदाज़ा इस बात से लगाओ कि, इस हालत में जब इन्होंने पहले दिन अपनी पहलवानी दिखा ली, उसके बाद मैंने सलवार का नाड़ा बाँधने की कोशिश की तो बाँध नहीं पाई। यह लौटे बाथरूम से तो दर्द से सिसकते हुए मैंने नाड़ा बाँधने के लिए कहा, लेकिन बदले में गाली मिली। 

"मैं लाख कोशिशों के बाद भी जब नहीं बाँध पाई तो सोचा बड़ी वाली लड़की को उठाऊँ। लेकिन फिर सोचा यह ठीक नहीं है। अंततः मैंने बैग से बड़ी वाली सेफ़्टी पिन निकाली और फिर मुँह में दबा कर उसे किसी तरह खोला और एक हाथ से ही सलवार में लगाया। किसी तरह काम चला। दिन में बच्ची की सहायता से ही नाड़ा बाँधना खोलना हो पा रहा है। मारे डर के जीने भर का ही पानी पीती हूँ कि बाथरूम जाना ही न पड़े। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ? कैसे करूँ?" 

“माफ़ करना सोफी, मगर तुम्हारे आदमी और जल्लाद में कोई बड़ा फ़र्क़ मुझे दिखता नहीं। तुम्हारी हालत देख कर समझ में नहीं आता कि क्या करूँ। बाबा के यहाँ जाने के लिए तुम पति से कुछ कह नहीं सकती। और सबसे यह बात शेय़र नहीं की जा सकती।”

“क्या वहाँ अकेले जाने वाला नहीं है? या तुम अगर थोड़ा वक़्त निकाल सको।” 

“इन्होंने जैसा बताया उस हिसाब से ऐसा कुछ नहीं है। टेम्पो भी आते-जाते हैं। जहाँ तक मेरे चलने का प्रश्न है तो . . . देखो सोफी बुरा नहीं मानना मैं भी अपने आदमी को अच्छी तरह जानती हूँ, और अपनी लिमिट भी, फिर भी कहती हूँ, जब कोई रास्ता न बचे तो बताना। कोई न कोई रास्ता निकाल ही लूँगी। नहीं होगा तो अपने हसबैंड को ही किसी तरह तैयार कर लूँगी।”

“वे मान जाएँगे?” 

“मैंने कहा न, मैं मना लूँगी। पहले तुम यह तय करो कि जाओगी कि नहीं। और टाइम कैसे निकालोगी। आदमी को बताओगी कि नहीं।”

“देखो मैंने यह तो तय कर लिया है कि जाऊँगी। और यह भी तय है कि आदमी को इसकी भनक भी नहीं लगने दूँगी। रही बात टाइम की तो एक ही रास्ता है, पहले ऑफ़िस आऊँगी फिर यहाँ कुछ देर बाद आधे दिन की छुट्टी लेकर चली जाऊँगी।” 

“लेकिन इस बीच मान लो तुम्हारा हसबैंड आ गया या फ़ोन आ गया तो कैसे मैनेज करोगी?” 

“देखा जाएगा। कहाँ तक क्या-क्या मैनेज करूँ।”

“अच्छा आओ, अब चलते हैं। लंच टाइम ख़त्म हुए आधा घंटा से ज़्यादा हो रहा है। एक मिनट तुम्हें बाथरूम जाना हो तो बताओ, इसमें संकोच की ज़रूरत नहीं है। मैं नाड़ा बाँध दूँगी। इसलिए ऑफ़िस में जितना पानी पीना हो पियो, यहाँ मैं हूँ तुम्हारे साथ। फिर कुछ दिन में तो इससे फ़ुरसत मिल ही जाएगी न।”

“देखो . . . डॉक्टर जिस तरह गोल-मोल बात करता है, उससे तो लगता है, कम से कम दो महीने और लगेंगे।”

बाथरूम में जब सीमा सोफी की सलवार बाँध रही थी, तभी उसे अपने हाथ पर गर्म-गर्म दो बूँदें टपकने का अहसास हुआ। उसने एक झटके से सोफी के चेहरे की ओर देखा और बोली, “ये क्या सोफी, इतना इमोशनल होने से ज़िन्दगी नहीं चलती। तुम तो बहादुर हो, सामना करो हर चीज़ का। ऐसे कमज़ोर होने से काम नहीं चलता। आओ चलो। लेकिन पहले मुँह धो लो नहीं पंचायती लोग मुँह देख कर जान लेंगे आँसुओं के बारे में और आ जाएँगे घड़ियाली सांत्वना देने और बाद में खिल्ली उड़ाएँगे।” 

लंच से वापस आने के बाद भी दोनों ने कुछ ही काम किया। बाक़ी समय बतियाती ही रहीं। सोफी अपने पति से जुड़ी बातों को बता-बता कर बार-बार भावुक होती रही और सीमा धैर्य रखने को बोलती रही। ज़ुल्फ़ी से मुलाक़ात के दिन को वह अपने लिए सबसे मनहूस दिन बताती रही। 
 
सीमा से यह भी कहा कि, “तलाक़ की जैसी तलवार हर क्षण हम-लोगों पर लटकती रहती है, तीन सेकेंड में तलाक़ हो जाता है, वैसी तलवार तुम लोगों पर होती ही नहीं। तुम्हारे यहाँ तो तलाक़ देना शादी करने से भी ज़्यादा बड़ा और मुश्किल काम है। इसलिए तुम लोग पतियों से बराबर बहस कर सकती हो, हम लोग नहीं। यही वजह है कि हमें तुम जैसी आज़ादी नसीब ही नहीं हो सकती।”

दोनों की अंतहीन बातें शाम तक चलती रहीं। छुट्टी होने पर विदा ली घर के लिए। घर पहुँचने तक सोफी के दिमाग़ में तमाम बातें उमड़ती-घुमड़ती रहीं। उसे अपनी ज़िन्दगी अपनी क़िस्मत पर रोना आता रहा। और अर्से बाद अचानक आज उसे बड़ी शिद्दत से अम्मी-अब्बू, भाई-बहनों की याद आ रही थी। और आख़िरी बार का वह मिलना-बिछुड़ना भी। 

जब पुलिस कस्टडी में वह ज़ुल्फ़ी के साथ थी, अब्बू ने उसे नाबालिग कहते हुए ज़ुल्फ़ी पर उसके अपहरण का आरोप लगाया था। पुलिस ने इस पर उसे गिरफ़्तार कर लिया था। लेकिन अब्बू उसके नाबालिग होने का कोई प्रमाण नहीं दे सके। 

ज़ुल्फ़ी के कहने पर वह अपना हाई-स्कूल का प्रमाण-पत्र घर छोड़ने से पहले ही उठा लाई थी। जिसे दिखा कर ज़ुल्फ़ी ने साबित कर दिया था कि वह बालिग है। और उस पर दर्ज कराया गया केस फ़र्ज़ी है अतः उसे छोड़ा जाए। क्योंकि लड़की उससे निकाह कर चुकी है। 

ज़ुल्फ़ी की तैयारियों के आगे पुलिस विवश थी। अंततः उन दोनों को छोड़ दिया गया। तब उसे ज़ुल्फ़ी के साथ जाते उसके अब्बू-अम्मी, भाई-बहन रिश्तेदार देखते रह गए थे। अम्मी रोते-रोते बोली थी, 'अब भी लौट आ कुछ नहीं बिगड़ा है।' मगर बाद में हार कर चिल्ला पड़ी थी।'तू जन्मते ही मर क्यों नहीं गई थी करमजली। जा तू जीवन भर पछताएगी। जैसे हम सब को तड़पा रही है, जीवन भर तड़पेगी। अल्लाह त आला तुझे एक पल को भी चैन न बख़्शेगा।' फिर वह दुपट्टे से अपना मुँह ढक के वहीं सड़क पर बैठ कर रोने लगी थीं। और अब्बू! वह तो ग़ुस्से से काँप रहे थे। 

अब कुछ न हो सकेगा, यह यक़ीन हो जाने के बाद उन्होंने ज़ुल्फ़ी और उसको जी-भर गाली दी थी। और बात तब मार-पीट तक पहुँच गई थी जब उन्होंने यह कहा कि, 'जीवन में दुबारा दिखाई मत देना नहीं तो बोटी-बोटी काट डालूँगा।' इस पर ज़ुल्फ़ी और उसके साथी भड़क उठे थे। लेकिन थानेदार ने आमतौर पर नज़र आने वाले सख़्त पुलिसिया रवैए से अलग दोनों पक्षों को घर जाने को कहा। ज़ुल्फ़ी का वकील तो अड़ा हुआ था कि अब्बू के ख़िलाफ़ हत्या की धमकी देने, फ़र्ज़ी केस दर्ज कराने का मामला दर्ज हो। 

इसके बाद वह अपने परिवार से कभी न मिल सकी। निकाह के क़रीब साल भर बाद उसने एक दिन ज़ुल्फ़ी से छिपा कर तीन बार फ़ोन किया था। पहली बार भाई ने फ़ोन उठाया था। और आवाज़ सुनते ही डाँट कर फ़ोन का रिसीवर पटक दिया था। कुछ देर बाद फिर किया तो माँ ने उठाया, फिर वह एक साँस में जितनी लानत मलामत भेज सकती थीं, भेज कर यह कहते हुए रिसीवर पटका कि दुबारा किया तो पुलिस में कंप्लेंट कर दूँगी। 

यह भूली बिसरी बातें सोचते-सोचते उसके आँसू निकलते रहे। और एक बार वह बुदबुदा उठी, 'अम्मी उस दिन तुम कह रही थी कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है लौट आ। मगर वहाँ तुमको कैसे बताती कि, तब यह मुमकिन ही नहीं रह गया था। क्योंकि तब-तक जैनब मेरे पेट में दो महीने की हो चुकी थी। और हमारे सामने कोई रास्ता बचा न था। क्योंकि यह किसी भी सूरत में एबॉर्शन को तैयार ही न थे।'

ऐसे ही ख़्यालों में डूबती उतराती वह घर पहुँच गई, लेकिन दिमाग़ में यह बातें चलती रहीं। तब भी जब बच्चियाँ अपनी दिन-भर की बातें बतातीं और सुनाती रहीं। और मियाँ ज़ुल्फ़ी अपनी आदत के अनुसार मन का काम न होने पर अंड-बंड बकते रहे। 

आज यह बात उसके दिमाग़ में कुछ इस क़द्र शुरू हो चुकी थी कि, तब भी चलती रहीं जब बच्चियाँ खा-पी कर सो गईं। और मियाँ जी भी अपना वहशियाना खेल, खेल कर खर्राटे ले रहे थे। और वह दर्द से आहत हो छत को निहारती निश्चल पड़ी थी। तब उसका एक हाथ सलवार का नाड़ा पकड़े हुए था। क्योंकि बाथरूम से आने के बाद वह उसे बाँध नहीं पा रही थी। और तभी से वह कमरे की लाइट ऑन किए विचारों में पहले की तरह डूबती उतराती जा रही थी। 

हाथ को लेकर सोफी की आशंका सही निकली। पूरी तरह ठीक होने में क़रीब दो महीने लग गए। यह दो महीने उसके बहुत ही कष्ट-पूर्ण दर्द भरे रहे। पति का जाहिलों भरा व्यवहार कहीं से कम न हुआ। और नाड़ा बाँधना! यह उसके लिए किसी भयानक सज़ा को भोगने का अहसास देने वाला साबित हुआ। 

इन सारी बातों के साथ जो एक बात सबसे अलग रही, और बराबर उसके दिमाग़ में चलती रही, वह थी औघड़ बाबा की। वक़्त के साथ-साथ न जाने क्यों उसे यह यक़ीन होता जा रहा था कि यह औघड़ बाबा उस पर हर क्षण लटकती तलाक़ की तलवार को हटा देगा। उसकी कृपा से उसे पुत्र ज़रूर पैदा होगा। 

उसने तय कर लिया कि स्कूटी ठीक से चलाने लायक़ होते ही वह औघड़ बाबा के पास ज़रूर जाएगी। और साथ ही यह भी तय कर लिया कि इस बात को सीमा से भी नहीं बताएगी, किसी को भी कुछ पता नहीं चलने देगी। नहीं तो लोग तरह-तरह की बातें बनाएँगे। एक से बढ़ कर एक सलाह देने लगेंगे। 

सीमा है तो बहुत मददगार, बहुत अच्छी, लेकिन कभी बात करते-करते किसी से कह दिया तो बात को फैलते और ज़ुल्फ़ी तक पहुँचते देर नहीं लगेगी। यूँ तो अपनी समस्याओं से मुक्ति के लिए सभी जाते हैं ऐसी जगहों पर लेकिन पंचायती लोग यह बात ज़्यादा उछालेंगे कि एक मुसलमान हो कर अकेली ही चली गई औघड़ के पास। 

व्यग्रता बेसब्री के चलते वह अपने को ज़्यादा समय तक न रोक पाई। एक दिन ऑफ़िस पहुँची और घंटे भर बाद ही छुट्टी लेकर चल दी कि अस्पताल जाना है। सीमा को भी सच नहीं बताया। साफ़ झूठ बोलते हुए बताया कि पेट में कई दिन से बहुत दर्द है। एक तरफ़ ही होता है। डर लग रहा है कि कहीं कुछ बड़ी समस्या न हो। आज कल तो ट्यूमर-स्यूमर जैसी न जाने कितनी बीमारियाँ होती रहती हैं। सीमा ने साथ चलने को कहा तो यह कह कर मना कर दिया कि अभी रहने दो, ज़रूरत हुई तो फ़ोन करूँगी। 

बाबा के पास जाने के लिए सोफी जब चली तो एक तरफ़ जल्दी से जल्दी पहुँचने की व्यग्रता थी तो साथ ही मन में यह डर भी कि कहीं बात खुल न जाए। ज़ुल्फ़ी जानते ही आफ़त खड़ी कर देगा। मगर सोफ़ी का यह डर बाबा तक पहुँचने की इच्छा के आगे धीरे-धीरे कमज़ोर होता गया। आधे घंटे की ड्राइविंग के बाद वह मोहान रोड पहुँची। मगर समस्या यह थी कि बाबा के बारे में पूछे किससे? यूँ तो तमाम दुकानें, आते-जाते लोगों की संख्या कम न थी। 

सोफ़ी ने अंततः यही निश्चित किया कि वह ऐसी किसी औरत से ही पता पूछेगी जो यहीं की होगी और साथ ही निचले तबक़े की होगी। इससे यह भी पता चल जाएगा कि बाबा को लोग कितना जानते हैं। लोगों की नज़र में बाबा कितने पहुँचे हुए हैं। यह सोच कर वह, फुटपाथ पर बैठी सब्ज़ी बेच रही एक ग्रामीण महिला के पास स्कूटी रोक कर उतरी। नज़दीक जाकर पूछा तो उस ग्रामीण महिला ने उसे जो कुछ बताया उससे उसको बड़ी राहत मिली, ख़ुशी भी कि वह सही जगह पहुँच रही है। 

वह महिला बाबा की महिमा का बखान करते नहीं थक रही थी। मगर इस बात ने उसे थोड़ा डरा दिया कि एक तो बाबा जल्दी मिलते नहीं, दूसरे जल्दी उनकी कृपा भी नहीं मिलती। लेकिन जिस पर कृपा हो जाती है वह उनके पास से कभी ख़ाली हाथ नहीं लौटता, उसकी मनोकामना पूरी होकर ही रहती है। उसकी बातों से उत्साहित सोफ़ी ने ऐसी ही कई अन्य महिलाओं से भी बात की। 

सभी ने बाबा का गुणगान ही किया। फ़र्क़ बस इतना था किसी ने कम किसी ने ज़्यादा किया। मगर सबसे बड़ी समस्या थी उनका ठिकाना, जो मेन रोड से क़रीब एक किलोमीटर अंदर सुनसान जगह पर था। जहाँ जाने के लिए कच्चा रास्ता था। वह जगह वास्तव में आगे स्थित जंगल का बाहरी हिस्सा था। उबड़-खाबड़, ऊँची-नीची, ज़मीन, झाड़-झंखाड़ और इधर-उधर नज़र आते पेड़। 

लोगों के बताए ठिकाने पर डरती-सहमती, सोफ़़ी किसी तरह आगे बढ़ती रही। ऐसे कच्चे रास्ते पर वह पहली बार स्कूटी चला रही थी। उसे ड्राइविंग में बड़ी मुश्किल आ रही थी। कई बार गिरते-गिरते बची लेकिन वह रुकी नहीं। इधर-उधर कई जगह उसे गाय-भैंसों के झुंड चरते नज़र आए। मात्र छह-सात मिनट का रास्ता अंततः उसने पंद्रह मिनट में पूरा किया। और एक पेड़ के सहारे पुआल की बनी एक बेहद जर्जर सी झोपड़ी के पास पहुँची। उसके सामने ही थोड़ी ऊँची जगह थी, जिसे मिट्टी डाल कर ऊँचा किया गया था। उस पर पतली मोटी कई लकड़ियाँ सुलग रही थीं। 

राख का ढेर, कोयले, यह संकेत दे रहे थे, कि आग यहाँ लंबे समय से जलाई जा रही है और राख वग़ैरह कभी हटाई नहीं जाती। जिससे ढेर ऊँचा होता जा रहा है। इस ढेर के साथ ही कुछ और ज़मीन भी ऊँची थी, जो चबूतरा सी लग रही थी। जिस पर एक तरफ़ एक चिथड़ा सा कंबल पड़ा हुआ था। यह सब देख कर सोफ़ी को पक्का यक़ीन हो गया कि यही है बाबा का ठिकाना। क्योंकि सीमा सहित आते समय सब ने बाबा के ठिकाने के बारे में ऐसा ही सब कुछ बताया था। उस सास-बहू ने भी जो अभी दस मिनट पहले ही इस कच्चे रास्ते पर आते समय मिली थीं। उन्होंने भी बड़ा गुणगान किया था बाबा का। वह बाबा का आशीर्वाद लेकर लौट रही थीं। 

बहू अपने पति के एक अन्य महिला से सम्बन्ध के कारण बहुत परेशान थी। और वह भी बाबा की महिमा सुन कर अपनी सास के साथ आई थी। उसकी सूजी हुई आँखें बता रही थीं कि वह बाबा के सामने बहुत रो-धो कर आई थी। लेकिन बाबा के पास से लौटते वक़्त दोनों के चेहरों पर सब-कुछ ठीक हो जाने के विश्वास की चमक दिखाई दे रही थी। उन दोनों ने यह भी बताया कि बाबा कुछ लेते-देते नहीं हैं। बहुत जल्दी क्रोधित हो जाते हैं। किसी बात को जानने-सुनने के लिए जल्द-बाज़ी नहीं करना। शांत भाव से हाथ जोड़े खड़ी रहना। बाबा जब एक बार शुरू होंगे तो खुदी सब-कुछ बता देंगे। 

सोफ़ी ने वहीं पास में एक पेड़ की आड़ में कुछ इस ढंग से स्कूटी खड़ी की, कि जल्दी उस पर किसी की नज़र न पड़े। स्कूटी खड़ी कर कुछ देर इधर-उधर उसने नज़र दौड़ाई। काफ़ी दूर जानवरों के साथ तीन-चार लड़के-लड़कियाँ ही नज़र आए, बाबा कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रहे थे। सोफ़ी ने दुपट्टे से अपने सिर को ढँका और कुछ सहमती सिकुड़ती सी, मन में अनजाने डर से थरथराती हुई झोपड़ी की तरफ़ क़दम बढ़ाए। मगर कुछ क़दम ही चल कर ठिठक गई और अपनी चप्पल उतारी फिर आगे बढ़ी। 

दस-बारह क़दम चल कर वह झोपड़ी के प्रवेश स्थल पर पहुँची तो उसने कुछ अजीब तरह की हल्की-हल्की गंध महसूस की। वह कंफ्यूज थी कि इसे ख़ुश्बू कहे या बदबू। डरते हुए मात्र पाँच फ़ीट ऊँचे प्रवेश द्वार से उसने अंदर झाँका तो बाबा वहाँ भी नहीं दिखे। हाँ पुआल का एक ऐसा ढेर पड़ा था जिसे देख कर लग रहा था कि इसे सोने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उसके ऊपर एक मोटी सी पुरानी दरी पड़ी थी जो कई जगह से फटी थी। एक तरफ़ एक घड़ा रखा था जो एल्युमिनियम के एक जग से ढका था। दूसरी तरफ़ भी कुछ सामान बिखरा पड़ा था जो तंत्र-मंत्र से संब़द्ध लगता था। पक्की मिट्टी का एक तसला सा बर्तन भी था, जिसमें भभूति का ढेर लगा हुआ था। 

लगभग दस गुणे पंद्रह की वह झोपड़ी, जिसमें जगह-जगह मकड़ियों ने जाले बना रखे थे, कुछ अजीब सी चीज़ों, गंध या सुगंध से भरी थी। जो पुआल का बिस्तर था, उसके एक कोने पर बाबा के कपड़े, एक मटमैले रंग का अँगोछा और एक क़रीब-क़रीब लँगोट जैसा कपड़ा पड़ा था। सारा दृश्य देख कर सोफ़ी को यक़ीन हो गया कि वह सही जगह पहुँच गई है, यही बाबा का डेरा है। उसे राहत महसूस हो रही थी। और साथ ही प्यास भी लगी थी, मगर पानी का तो यहाँ नामो-निशान नहीं था। घड़े में न जाने क्या था। फिर बाबा की इजाज़त के बिना कुछ छुआ भी नहीं जा सकता था। 

बाबा की अनुपस्थिति अब उसे खलने लगी थी। यह सोच कर वह परेशान हो उठी कि कहीं उसे ख़ाली हाथ बाबा के दर्शन के बिना ही न लौटना पड़े। झोपड़ी के सँकरे रास्ते से वह दो क़दम उल्टा ही पीछे चल कर बाहर आ गई। गर्मी, धूल उसे अब ज़्यादा तकलीफ़देह लग रही थी। पसीने को बदन पर उसने रेंगता हुआ महसूस किया। ख़ासतौर से सलवार के अंदर जाघों से घुटनों की तरफ़ जाता हुआ। 

कहने को मौसम विभाग बारिश की सम्भावना रोज़ ही बता रहा था, लेकिन बारिश छोड़ो, बादल भी नज़र नहीं आ रहे थे। सशंकित मन लिए वह स्कूटी के पास आ कर खड़ी हो गई। वहाँ की छाया उसे कुछ सुकून दे रही थी। लेकिन पंद्रह मिनट बाद भी, जब बाबा नहीं दिखे तो उसकी परेशानी बढ़ने लगी। बीतते एक-एक पल बहुत भारी हो रहे थे, और जब पौन घंटा से ज़्यादा बीत गया तो सोफ़ी ने भारी मन से वापस चलने का निर्णय ले लिया। 

प्यास से उसका गला बुरी तरह सूख रहा था। उसने स्कूटी को स्टैंड से उतारा ही था कि, क़रीब पचास मीटर की दूरी पर उसे एक आदमी अपनी तरफ़ आता दिखाई दिया। वह एकदम रुक गई और उस आदमी पर नज़र गड़ा दी। वह बिल्कुल मस्त चाल से क़रीब-क़रीब झूमता हुआ सा चला आ रहा था। जब वह क़रीब आ गया तो सोफ़ी ने बहुत राहत महसूस की और बुदबुदाई यह बाबा जी ही लग रहे हैं। 

जैसा सब ने बताया था बिल्कुल वैसा ही तो है हुलिया। कमर से नीचे झूलती जटाएँ। रंग गहरा साँवला, ऊँचाई सवा छह फ़ीट। बदन बेहद मज़बूत कसा हुआ। पहलवानों जैसा। छाती, हाथ, पैर, सब बड़े-बड़े काले बालों से भरे हुए थे। और कपड़े! कमर में एक पतली सी डोरी सी चीज़ में काले कपड़े के दो टुकड़े एक आगे और एक पीछे लटक रहे थे। जिसे न तो लँगोट कह सकते थे और न ही कोपिन। बाबा के दाहिने हाथ में लकड़ी का एक बड़ा कुंदा था, जो ज़मीन तक लंबा था। बाबा उसे खींचते हुए लिए चले आ रहे थे। 

सोफ़ी के सामने से बाबा मात्र दस क़दम की दूरी से आगे निकल गए और लकड़ी उस सुलगती आग पर डाल दी। फिर उसे जलाने की ग़रज़ से बैठ गए और कुछ पतली लकड़ियों, जलते कोयलों को लकड़ी की ऊँचाई तक कर दिया, जिससे मोटी लकड़ी आग पकड़ सके। बाबा आग में फूँक मार-मार कर कुंदे में आग पकड़ाने की कोशिश करने लगे। बाबा उकड़ूँ बैठ-कर फूँक मार रहे थे। बाबा सोफ़ी के सामने से निकलने से लेकर आग के पास बैठने तक ऐसे बिहेव कर रहे थे, मानो सोफ़ी वहाँ है ही नहीं। वहाँ अकेले वही हैं। 

इधर सोफ़ी अलग पेशोपस में थी। जब से बाबा सामने से निकले तब से वह हाथ जोड़े खड़ी उन्हें निहारे जा रही थी। जीवन में पहली बार किसी शख़्स या बाबा को वह इस रूप में इस तरह अकेले विराने में देख रही थी। डरी सहमी थी इसलिए अपने शरीर की थर-थराहट साफ़ महसूस कर रही थी। बाबा के शरीर पर उसकी नज़र ऊपर से नीचे तक सेकेण्ड भर में दौड़ गई थी, जब वह सामने से निकले थे। 

जितनी देर हो रही थी, वह उतनी ही ज़्यादा व्याकुल हो रही थी। जीवन में पहली बार वह इस अनुभव से गुज़र रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि बाबा से कैसे मुख़ातिब हो। पंद्रह मिनट से ज़्यादा बीत गए थे उसे हाथ जोड़े खड़े हुए और बाबा थे कि उन्हें होश ही नहीं था। वह उठे तो लकड़ी सुलगा कर ही उठे। मगर सोफ़़ी की हालत जस की तस ही रही। बाबा ने उसकी तरफ़ देखा ही नहीं और उठ कर एक बार मद्धम स्वर में 'जय महाकाल' बोला और चले गए झोपड़ी के अंदर। 

सोफी का असमंजस और बढ़ गया। समझ में नहीं आ रहा था, क्या करे, क्या न करे! प्यास-थकान अलग पस्त किए जा रहे थे। खीज कर उसने निर्णय लिया, जो भी हो एक बार बात कर ही लेती हूँ। जो होगा देखेंगे। उसने जल्दी से चप्पल उतारी और सीधे झोपड़ी के दरवाज़े पर जा खड़ी हुई। अंदर की कुछ आहट लेने के बाद बडे़ याचनापूर्ण स्वर में बोली, “बाबा जी . . . कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला तो उसने थोड़ा तेज़ स्वर में पुनः कहा, “बाबा जी . . . मुझ पर कृपा कीजिए मैं बहुत परेशान हूँ।”

इस बार अंदर से बाबा जी की भारी भरकम आवाज़ सुनाई दी। 

“जानता हूँ क्या परेशानी है तुझे।” 

फिर शान्ति छा गई तो सोफ़ी ने पूछा, “बाबा जी मैं अंदर आ जाऊँ?” 

अंदर से बाबा की वही भारी आवाज़, “आ जाओ।” 

यह सुनते ही सोफी चली गई अंदर और बाबा के पैरों के पास हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई। उसकी नज़रें अपने पैरों की आस-पास की ज़मीन देखती रहीं। क्योंकि बाबा अपने पुआल के बिस्तर पर निर्विकार भाव से चित्त लेटे हुए थे। उनका वह सूक्ष्म कपड़ा भी एक तरफ़ हटा हुआ था। उनके शरीर का कोई अंश ढका नहीं था। आँखें उनकी बंद थीं। 

कुछ क्षण ख़ामोशी के बाद फिर गुर्राए, “लड़का . . . लड़का . . . लड़का। महाकाल क्या अब तू यह दुनिया बिना लड़कियों के ही चलाएगा। अपनी सृष्टि का स्वरूप बदलने की मंशा बना ली है क्या? हर कोई बस लड़का माँगने आ जा रहा है, लड़की के बारे में बात ही नहीं करता कोई। क्यों तुझे भी लड़का चाहिए ना?” बाबा ने आँखें बंद किए-किए ही पूछ लिया सोफ़ी से, तो पहले तो वह आश्चर्य में पड़ी कि मन की बात कैसे जान ली बाबा ने, एकदम हकबका उठी। 

हकलाती हुई बोली, “जी . . . बाबा जी . . . यदि अब लड़का नहीं हुआ तो मेरी ज़िदगी नर्क बन जाएगी। मेरा शौहर मुझे छोड़ देगा।”

“तुझे वह नहीं छोड़ पाएगा। महाकाल से प्रार्थना करूँगा कि वह तेरी मनोकामना पूरी करे। उसके पास से कोई निराश नहीं लौटता। तू भी नहीं लौटेगी। मगर बाबा जो कहेगा वह कर सकेगी?” 

बाबा की बात सुन कर बेहद उत्साहित सोफ़ी बोली, “बाबा जी आपकी सारी बात मानूँगी . . . मुझे इस बार बेटा चाहिए बाबा जी, बेटा।”

“तुझे इस बार बेटा ही मिलेगा।”

यह कहते हुए बाबा उठ खड़े हुए। एकदम निर्वस्त्र। उनका वह सूक्ष्म वस्त्र पुआल के बिस्तर पर ही पड़ा रहा। उसने उनका साथ नहीं दिया। 

सोफी झुकी-झुकी नज़रों से देखती रही उन्हें। वह अंदर ही अंदर पहले ही की तरह सहमी तो थी ही लेकिन अब शरीर के अंदर कुछ और क्रिया के शुरू होने का अहसास भी कर रही थी। इसी बीच बाबा ने अपने पुआल के बिस्तर की तरफ़ इशारा कर कहा, “लेट जा वहाँ पर।”

सोफी को बाबा की यह बात न अनचाही लगी और न ही चौंकाने वाली। उसका दुपट्टा जो कुछ देर पहले तक उसके सिर को ढके हुए था। अब कंधों पर पड़ा था वह। बाबा की बात सुनते ही वह लेट गई। इस क्रम में उसका दुपट्टा अपनी जगह से हट गया और उसकी भारी छातियों का काफ़ी हिस्सा दिखने लगा था। 

उसने आँखें बंद कर ली थीं। भाव-भांगिमा ऐसी कि जैसे सब कुछ समर्पित कर दिया हो बाबा को। कर दिया उनके हवाले वह जो उचित समझें करें। आख़िर उसे एक बेटा चाहिए जो बदल देगा उसके जीवन का रुख़। अंत कर देगा उसके पीड़ादायी जीवन का। 

कुछ ही क्षण में उसने महसूस किया कि बाबा उसकी कमर के पास बैठ गए हैं तो उसने आँखें खोल दीं। बाबा को बैठा देख उसने उठना चाहा तो उन्होंने बाएँ हाथ से इशारा कर उसे लेटे रहने को कहा, बाबा के दाहिने हाथ की मुट्ठी बँधी हुई थी। उसमें कुछ था। बाबा कुछ बुदबुदा रहे थे। फिर उन्होंने बाएँ हाथ से ही उसका कुर्ता ऊपर तक उलट दिया, ब्रेजरी का कुछ हिस्सा दिखने लगा था। मगर वह स्थिर रही। 

अब बाबा हाथ में ली भभूत को उसकी छाती के मध्य जहाँ धड़कन होती है, वहाँ से लेकर उसकी विशाल नाभि तक लगाते एवं फिर कुछ बुदबुदाने के बाद पेट पर फूँकते। उनकी फूँक बेहद गर्म थी। इसके बाद बाबा आँखें बंद किए ही उठ खड़े हुए और सोफ़ी के शरीर के चारों तरफ़ चक्कर लगाने लगे। एकदम परिक्रमा करने की तरह। और सोफ़ी उन्हें एक-टक घूमते हुए देखती रही। 

वास्तव में सोफ़ी अब न सहम रही थी, न परेशान हो रही थी, बाबा को उत्सुकता के साथ देखे जा रही थी। बाबा उसके एकदम क़रीब होकर चक्कर काट रहे थे। और सोफ़ी उन पर से बार-बार नज़र हटाने की कोशिश करती लेकिन असफल हो जाती। वह आँखें बंद भी नहीं कर पा रही थी। अंततः बाबा कई चक्कर लगाने के बाद सोफ़ी के ठीक सिर के पीछे खड़े हो गए। 

सोफ़ी उनके पैरों को अपने सिर से छूता हुआ महसूस कर रही थी। अचानक बाबा ने ऊँचे स्वर में जय महाकाल कहा और हाथ में शेष बची भभूत को हवा में उछाल दिया। भभूत नीचे गिरने लगी तो सोफी आँखें मिच-मिचाने लगी। इसी बीच बाबा उसके बाएँ तरफ़ ठीक कमर के पास बैठ गए। सोफ़ी का कुर्ता अभी भी ऊपर को उठा हुआ था। बाबा को बैठा देख सोफी ने जैसे ही फिर उठने का प्रयत्न किया तो बाबा ने लेटे रहने का इशारा हाथ से ही करते हुए कहा, “अब मैं पुत्र की मनोकामना पूर्ण होने की प्रक्रिया को संपन्न करने जा रहा हूँ, तुझे कोई एतराज़ तो नहीं।”

प्रक्रिया के संपन्न होने की बात कहने के लहज़े और बाबा की शारीरिक भाव-भंगिमाओं का आशय सोफ़ी लगभग समझ गई थी। उसने बिना एक क्षण गँवाए, साफ़-साफ़ कहा, “आप प्रक्रिया संपन्न करें बाबा जी, मुझे बस पुत्र चाहिए, जीवन का सुकून चाहिए। इसीलिए तो आई हूँ।”

सोफी कुछ ऐसे बोल गई जल्दी से जैसे कि प्रश्न जानती थी पहले से और उत्तर तैयार रखा था। उत्तर देते ही सोफी ने अपनी आँखें बंद कर ली थीं। और प्रक्रिया के संपन्न होने की प्रतीक्षा करने लगी। उसे उम्मीद थी कि बाबा तेज़ी से पूरी करेंगे सारी क्रिया-प्रक्रिया। लेकिन बाबा तो पूरे आराम से निश्चिंत भाव से उसके बग़ल में बैठे थे। और देख रहे थे उसकी विशाल गहरी नाभि को, उनकी आँखों में इस वक़्त आने वाले भावों को देह की भाषा पढ़ने के विशेषज्ञ भी नहीं पढ़ सकते थे। 

कुछ क्षण बाद बाबा ने अपने दाहिने हाथ की तीन उँगलियाँ उसकी नाभि पर तिरछे एंगिल से ऐसे रखीं जैसे कोई चरण-स्पर्श करता है। बाबा की बीच वाली मोटी ऊँगली नाभि के बीचों-बीच गहराई में प्रविष्ट कर रही थी। सोफी को बाबा का हाथ इतना गर्म लग रहा था जैसे कि उन्हें 103, 104 डिग्री बुखार हो। बाबा का यह तपता स्पर्श सोफी में अजीब सी तड़फड़ाहट पैदा कर रहा था। ऐसी तड़फड़ाहट उसने ज़ुल्फ़ी द्वारा उस जगह न जाने कितनी बार स्पर्श या चूमने पर भी नहीं महसूस की थी। जब उसने पहली बार स्टुडेंट लाइफ़ में ही किया था तब भी नहीं। 

बाबा ने कुछ क्षण उँगलियों को उसी तरह रखने के बाद पुनः जय महाकाल का स्वर ऊँचा किया और उन तीनों उँगलियों को अपने मस्तक के मध्य स्पर्श करा दिया। इस बीच सोफी ने कई बार उन्हें आँखें खोल-खोल देखा और फिर बंद कर लिया। वह अपने शरीर में कई जगह तनाव महसूस कर रही थी। उसके मन में अब तुरत-फुरत ही यह प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ कि आख़िर बाबा जी कर क्या रहे हैं? कौन सी प्रक्रिया है, जिसे पूरी कर रहे हैं। 

यह सोच ही रही थी कि उसने बाबा का हाथ सलवार के नेफे पर महसूस किया। बाबा ने सलवार के अंदर खोंसे उसके नाड़े के सिरों को बड़ी शालीनता से बाहर निकाल लिया था। सलवार का वही नाड़ा जिसने उसे क़रीब दो महीने ख़ून के आँसू रुला दिए थे। बाबा ने नाड़ा का एक सिरा खींच कर सलवार खोल दी। मगर काम में शालीनता अभी भी क़ायम थी। 

ज़ुल्फ़ी भी तो बरसों से यही करता आ रहा है। मगर कितना फ़र्क़ है। उसके करने में। नाड़ा खोलने में ही शरीर का कचूमर निकाल देता है। मगर बाबा की प्रक्रिया वह पूरी-पूरी अब भी नहीं समझ पा रही थी। बाबा अभी भी कुछ बुदबुदा रहे थे और नाड़ा खोलने के बाद भी नाड़ा पकड़े एकदम स्थिर बैठे थे। सोफी ने फिर आँखें खोल-कर देखा कुछ समझती कि इसके पहले ही बाबा ने शालीनता क़ायम रखते हुए दोनों हाथों से उसकी सलवार उतार कर बिस्तर के एक कोने में डाल दी। 

वह बेहद शांत-भाव से यह सब कर रहे थे। जल्दबाज़ी का कहीं नामों-निशान नहीं था। जबकि सोफी गड्मड् हो रही थी। बाबा ने सलवार की ही तरह उसके बाक़ी कपड़े भी उतार कर कोने में रख दिए। वहाँ सोफी के कपड़ों का एक छोटा सा ढेर लग गया था। सोफी की आँखें अब बराबर बंद थीं। उसकी सारी क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ, साफ़-साफ़ कह रही थीं कि बाबा के समक्ष निर्वस्त्र होने में उसे रंच-मात्र को भी एतराज़ नहीं था। बल्कि उसके चेहरे पर विश्वास था कि पुत्र होगा, और उसे रोज़-रोज़ की प्रताड़ना से मुक्ति भी मिलेगी। इस प्रताड़ना से मुक्ति के लिए यह सब ठीक ही है। 

अब-तक बाबा उसकी कमर से सटकर बैठ गए थे। बाबा की मंशा उसकी कुछ समझ में आ ही नहीं रही थी। कई मिनट तक स्पर्श के बाद बाबा ने संतानोंत्पति की प्रक्रिया पूर्ण की और इस भाव से उसकी बग़ल में बैठ गए जैसे वहाँ उनके अलावा और कोई है ही नहीं। सोफी अब तुरंत उठ कर कपड़े पहन लेना चाहती लेकिन बाबा की मुद्रा देख कर स्थिर पड़ी रही। उठी तब जब बाबा ने उसके पेट पर अपनी हथेली रखते हुए कई बार जय महाकाल, जय महाकाल का स्वर उच्चारित किया और उठकर चले गए झोपड़ी से बाहर एकदम नंग-धड़ंग से। 

उनके जाते ही सोफी भी बिजली की फ़ुर्ती से उठ बैठी और एक झटके में अपने कपड़े उठा लिए। पिछले काफ़ी समय से उसे यह डर बराबर सता रहा था कि, वह निर्वस्त्र यह सब एक खुली जर्जर सी झोपड़ी में कर रही है, कहीं कोई आ ना जाए। तेज़ी से कपड़े पहन कर वह बाहर आई तो देखा बाबा आग की ढेर के पास शांत-भाव से बैठे थे। वह उनके क़रीब जाकर खड़ी हो गई। तो बाबा ने तुरंत चुटकी भर भभूत उसके हाथ में देते हुए कहा,  “ले, महाकाल तेरी मनोकामना पूरी करेंगे। इसे घर में जहाँ तेरा सामान रहता है, वहीं रख देना। अगले हफ़्ते आज ही के दिन फिर आना।”

सोफी ने बाबा से भभूत ली और बैग में से पर्स निकाल कर उसमें रखी एक छोटी सी रसीद में मोड़ कर रख लिया। चलने से पहले उसने बाबा से हिचकते हुए पूछ लिया कि, “बाबा जी अभी और कितनी बार आना है।” उसके इस प्रश्न पर बाबा ने एक उड़ती सी दृष्टि उसके चेहरे पर डाली और बोले, “पेट में संतान आ जाने तक।” उनका उत्तर सुन सोफी ने उन्हें प्रणाम किया और वापस चल दी। 

वापसी में उसे स्कूटी चलाने में उतनी असुविधा नहीं महसूस हो रही थी, जितनी की आते समय उसने महसूस की थी। हाँ दिमाग़ में ज़रूर हलचल, उथल-पुथल पहले से ज़्यादा थी। यह उतनी न होती यदि बाबा ने वापसी में यह न कहा होता कि, “पेट में संतान आ जाने तक आना है।” मन में उद्विग्नता इस वाक्य ने न सिर्फ़ पैदा की बल्कि उसे बढ़ा भी रही थी। वह सोच रही थी कि, न जाने कितने जतन कर, हज़ार बार सोचने के बाद, हिम्मत कर हार जाने और अंततः जीत कर किसी तरह एक बार आ पाई। और बाबा की बात तो न जाने और कितनी बार आने को कह रही है। 

चलो मान लें कि मुक़द्दर मेरा साथ देगा और मैं हड़बड़-तड़बड़ में प्रेग्नेंट हो जाऊँगी। लेकिन तब भी अगली माहवारी तक तो इंतज़ार करना ही पड़ेगा। उसके पहले तो प्रेग्नेंसी हुई या नहीं यह चेक करने का तो कोई तरीक़ा नज़र आता नहीं। लगता नहीं कि डेढ़ महीने से पहले कुछ मालूम हो पाएगा। इसका सीधा सा मतलब है कि कम से कम चार-पाँच बार और आना पड़ेगा। और ज़ुल्फ़ी! इतनी बार यहाँ आ कर उनसे नज़र बचा पाना तो नामुमकिन ही है। आज भी देखो क्या होता है। 

सोफ़ी के मन में इतनी उथल-पुथल उस समय बिल्कुल न थी जब बाबा ने अंदर बुलाया था, और कि तब भी नहीं जब बाबा बेटा हो इस हेतु अपनी प्रक्रिया पूरी कर रहे थे। बल्कि तब वह सब गुज़र रहे होने के बावजूद कहीं यह संतोष था कि, चलो बेटा पाने का रास्ता साफ़ हो गया। अब ज़िन्दगी की दुश्वारियाँ, गर्दन पर लटकती हर क्षण तलाक़ की तलवार हट जाएगी। वह भी मात्र कुछ घंटे सबसे छिप-छिपाकर बाहर रहने और एक बाबा के सान्निध्य में आने भर से। 

सब कितना आसान सा लग रहा था। लेकिन बाबा ने यह कह कर तो पूरी धारा ही बदल दी कि और कई बार आना पड़ेगा। सच है जिसने भी यह कहा है कि ज़िदंगी में कुछ भी पाना आसान नहीं है। छोटा सा भी सुख बड़े ऊबड़-खाबड़ रास्ते से गुज़र कर ही मिल पाता है। एक औलाद का पैदा होना कितना बड़ा सुख है। लेकिन उसके पहले पेट में नौ महीने तक रखना, फिर प्रसव की असहनीय पीड़ा को झेलना, दुनिया भर की दवा-दारू और न जाने कितने कष्ट फिर कहीं संतान मिलती है। 

मेरी अगली संतान जो बेटा हुई तो निश्चित ही बेइंतिहा ख़ुशी होगी। ज़ुल्फ़ी की ख़ुशी की तो कोई सीमा ही न होगी। लेकिन उसके पहले यह सब जो मैं कर रही हूँ कितना कष्टदायी है। बल्कि यह तो उससे भी कहीं बहुत आगे है। न जाने कितना आगे है। इस असहनीय पीड़ा से यदि बेटा मिल गया तो घर में सब निश्चित ख़ुश होंगे, ख़ुशी तो मुझे भी होगी लेकिन साथ ही बदन में चुभीं अनगिनत फांसें असहनीय पीड़ा अंतिम साँस तक देती रहेंगी। 

बच्चा सामने होगा तो उसके साथ ही हर क्षण बाबा का चेहरा भी होगा। जो हर वक़्त मुझे डराएगा। सबके सामने चेहरे पर हँसी-ख़ुशी होगी लेकिन अंदर-अंदर घुटन भी होगी। यह कहीं ऐसा भी हो सकता है जैसे कि गर्दन पर लटकी एक तलवार हटाने के लिए मैंने ख़ुद अपने ही हाथों उससे भी बड़ी दूसरी तलवार लटका ली हो। जिसे इस जीवन में तो हटाया ही नहीं जा सकता। 

सोफी मन में चल रहे इस भीषण तूफ़ान को लिए, घर जल्दी पहुँचने की कोशिश में अफ़नाती हुई कुछ ही देर में पहुँच गई मेन रोड पर। उसे बड़ा सुकून मिला था इस बात से कि बाबा के यहाँ से निकलते और यहाँ आ जाने तक उसे किसी ने नहीं देखा। कोई उसे नहीं मिला। मगर मेन रोड पर उसे एक सिरे से दूसरे सिरे तक गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ दिखाई दे रही थीं। जो जहाँ थीं, वहीं खड़ी थीं। ज़बरदस्त जाम लगा हुआ था। इस रोड पर इतना बड़ा जाम! उसे माजरा कुछ समझ में न आया। 

रोड से क़रीब पचीस-तीस क़दम पहले ही वह ठिठक गई, माजरे को समझने की कोशिश में। गाड़ियों का शोर और हर चेहरे पर जल्दी चल देने की बेचैनी उसे साफ़ दिख रही थी। मगर माजरा कुछ समझ में नहीं आ रहा था। किससे पूछे यह भी समझ में नहीं आ रहा था। इस बीच उसकी नज़र कुछ ही दूर एक पेड़ के नीचे बैठी सास-बहू पर पड़ गई, जो बाबा के यहाँ जाते वक़्त मिली थीं। वह तुरंत उनके पास पहुँची और स्कूटी खड़ी कर सास से पूछ लिया क्या हुआ है। 

सास ने बड़े ग़ुस्से से कहा, “अरे! हुआ क्या है? वही नेतागिरी है, और क्या? इन सब के पास और कोई रास्ता नहीं है अपनी बात मनवाने के लिए, जब देखो तब रास्ता जाम कर दिया। लोग मरें, जिएँ, चाहे जितना ज़रूरी काम उनका रह जाए, नुक़्सान हो जाए इससे उन्हें कोई मतलब नहीं, बस अपनी नेतागिरी से मतलब है। इस नाशपीटी नेतागिरी ने जीना मुहाल कर रखा है।” सास का ग़ुस्सा, उसका बड़बड़ाना बहू को अच्छा नहीं लगा। उसने धीरे से कहा, “अम्मा चुप हो जाओ, कहीं इन सब ने सुन लिया तो आफ़त हो जाएगी।”

“अरे सुन लेने दो, क्या आफ़त हो जाएगी। घंटों हो गए। बैठे-बैठे पैर, कमर में दर्द होने लगा है। गला सूख रहा है। और तुम कह रही हो चुप रहो।”

सास की झिड़की सुन बहू चुप हो गई। सास के तेवर बता रहे थे कि, वह तेज़ मिज़ाज़ की है, और अपने घर की तानाशाह भी। उसके सामने बहू की स्थिति शेर के सामने मेमने जैसी है। सोफी को यह जान कर बड़ी उलझन हुई कि, जाम हटे बिना पैदल भी निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्योंकि हालात ऐसे बन चुके हैं कि, किसी भी वक़्त पुलिस लाठी चार्ज कर सकती है। और तब भगदड़ में बचना आसान नहीं होगा। 

अंदर ही अंदर झल्लाई सोफी ने उन दोनों के साथ वक़्त गुजारने की सोची और बहू को बात करने के इरादे से लेकर नज़दीक ही एक दूसरे पेड़ के नीचे बैठ गई। उसके मन में बहू से यह जानने की इच्छा प्रबल हो उठी थी कि, बाबा ने उसे समस्या समाधान के लिए क्या उपाए बताए। 

पूजा के लिए क्या उसे भी निर्वस्त्र कर दिया था, और कि उसकी सास को अलग कर दिया था या उसके सामने ही। बहू ने बहुत कुरेदने के बाद भी जब इस विषय पर साफ़-साफ़ कुछ कहना शुरू नहीं किया तब सोफी ने यह सोच कर कि, यह मुझे जानती नहीं और हम-दोनों एक ही नाव पर सवार हैं, तो यह किसी को कुछ बताएगी नहीं, उसे बाबा के सामने निर्वस्त्र होने की बात बता दी। सहवास वाली बात को पूरी तरह छिपाते हुए। 

इसके बाद बहू भी कुछ खुली और बताया कि बाबा ने बड़ी कठिन पूजा की बात बताते हुए सास को साफ़ बता दिया कि, पूजा करने वाले को निर्वस्त्र होना पड़ेगा। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी, सास से वापस चलने को कह दिया। लेकिन सास लड़के को हाथ से निकलते बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं, इसलिए कुछ असमंजस के बाद तैयार हो गईं। वह इसलिए भी ज़्यादा परेशान हैं कि, लड़का दूसरे धर्म की औरत के चक्कर में पड़ा है। वह भी मन न होते हुए पहले तो अपने जीवन के अँधेरे को दूर करने की ग़रज़ से, फिर सास के दबाव एवं बाबा के विराट स्वरूप के सामने अंततः तैयार हो गई, समर्पित हो गई। 

सास तो इतना प्रभावित हैं कि, बाबा को अपने सामने साक्षात् उतर आए भगवान मान कर अटूट विश्वास कर बैठी हैं कि, बस चुटकी बजाते ही अब सब सही हो जाएगा। उसे इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं थी कि, बहू बाबा के सामने निर्वस्त्र होगी। वह झोपड़ी के बाहर हाथ जोड़े बैठी रही और उसने बाबा के कहने पर आँखों में आँसू लिए सारे कपड़े उतार दिए, और बाबा ने तरह-तरह की पूजा संबंधी प्रक्रियाएँ पूरी कीं। इसके लिए उन्होंने शरीर के विभिन्न हिस्सों को छुआ भी। भभूत भी लगाई और वही दी भी। और आते वक़्त पूरा विश्वास भी कि सब पूरी तरह ठीक हो जाएगा। बस दो तीन बार और आना पड़ेगा। 

बहू की बातों से सोफी को यक़ीन हो गया कि, उसकी पूजा में सहवास कहीं शामिल नहीं था। क्योंकि उसकी समस्या में संतान कहीं शामिल नहीं थी। घुल-मिल जाने के बाद दोनों की बातें क़रीब डेढ़ घंटे बाद जाम खुल जाने तक चलती रहीं। वहाँ से चलने के बाद बहू की बातें सोफी के मन में उथल-पुथल मचाने लगीं कि यह औरत कितने तूफ़ानों को अपने में समेटे हुए है। कितनी बड़ी-बड़ी व्यथाएँ लिए जिए जा रही है, इस दृढ़ विश्वास के साथ कि एक दिन उसका भी समय आएगा। वाक़ई बड़ी हिम्मत वाली है यह। 

मगर बड़ी बात तो यह है कि हम औरतों के सामने ही यह स्थिति क्यों आती है कि, हमें इस आस में ज़िदंगी बितानी पड़ती है कि, एक दिन हमारा भी समय आएगा। पूरा इतिहास इस बात से भरा पड़ा है कि औरतें हर समय इसी उम्मीद में जिए जा रहीं हैं कि, एक दिन उन्हें बराबरी का दर्जा मिलेगा। वह औरत नहीं एक इंसान मानी जाएगी। केवल बच्चा पैदा करने, मर्दों की शारीरिक इच्छा पूरी करने की मशीन नहीं। 

उसके मन में उठ रहे विचारों के यह झंझावात भीड़-भाड़ भरी सड़क आते ही ख़त्म हो गए। अब सारा ध्यान ट्रैफ़िक पर और उसके बाद जल्द से जल्द घर पहुँचने पर केंद्रित हो गया। क्योंकि बहुत देर हो चुकी थी। घर पहुँच कर उसने बहुत राहत महसूस की। संतोष की साँस ली कि ज़ुल्फ़ी के आने से पहले वह पहुँच गई और अभी इतना टाइम है कि, वह बाबा की दी भभूत उनके बताए स्थान पर इतमीनान से रख देगी। फिर नहा-धोकर शरीर में कई जगह लगी भभूत और साथ ही शरीर से चिपकी बाबा की ख़ास तरह की गंध को भी धो डालेगी। 

मन मुताबिक़ यह सारे काम उसने पूरे भी कर लिए। नहाने में उसे ज़रूर आज रोज़ की अपेक्षा दो गुना टाइम लगा। साथ ही आज यह पहली बार था कि नहाते वक़्त ऐसी बातों के द्वंद्व में उलझी, घुटन से बेचैन होती रही कि, जो किया और आगे करेगी वह सही है कि, नहीं। और इस बात पर आश्चर्य कि कैसे यह सब कर ले गई। कहाँ से इतनी हिम्मत और ताक़त आ गई उसमें। 

पता नहीं मुराद पूरी भी होगी कि नहीं, यदि न हुई तब तो वह कहीं की न रह जाएगी। और कहीं बात खुल गई तो! तब तो अंजाम बड़ा भयानक होगा। विचारों के इस द्वंद्व में उलझी उसने ख़ूब साबुन-शैंपू का इस्तेमाल करते हुए स्नान किया और बाथरूम से बाहर आ गई। ऐसा कोई निशान तो नहीं रह गया जिससे राज़ खुल जाने का कोई रास्ता बने, यह जानने के लिए वह बाथरूम से सीधे ड्रेसिंग टेबुल के सामने पहुँची और हर सम्भव तरीक़े से शीशे में अपने बदन के एक-एक हिस्से को देखा। हड़बड़ाहट में होने के बावजूद वह पूरी सावधानी बरत रही थी। 

पूरा इतमीनान हो जाने के बाद उसने चैन की साँस ली। फिर अचानक ही उसका ध्यान अपने शरीर की स्थिति पर चला गया। तीन-तीन बच्चों, तरह-तरह की चिंताओं ने किस तरह उसके नपे-तुले, अच्छे-ख़ासे बदन को बदतरीन कर दिया था। उम्र से पाँच-छह साल बड़ी ही लग रही थी। और यह संयोग ही था कि, आज शीशे में वह स्वयं अपने निर्वस्त्र बदन को निहार रही थी। और तुलना कर रही थी अपने कई बरस पहले के बदन से जो अब कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा था। उसका अंश भी नहीं। 

मिलता भी कहाँ से, ज़ुल्फ़ी से जुड़ने के बाद कुछ समय छोड़ दे तो बाक़ी में उसे मिला क्या? सिवाय गाली, मार-डाँट के। अपने मन से साँस लेने तक की आज़ादी नहीं। नौकरी करती है, लेकिन अपनी मर्ज़ी से एक रुमाल ख़रीदने की, किसी को कुछ देने की हिम्मत उसमें नहीं है। तनख़्वाह तो सब ज़ुल्फ़ी के पास ही रहती है। एक-एक पैसे का हिसाब लेता है। 

वह ख़यालों में खोई देखती ही जा रही थी ख़ुद को। और तब-तक खोई रही जब-तक कि, आँखों में भर आए आँसू छलक कर उसके स्तनों पर टपक नहीं गए। आँसुओं की गर्माहट ने उसे हिला-डुला दिया। वह चैतन्य हो उठी। और हथेलियों से आँखों को पोंछती पहन लिए जल्दी से अपने सारे कपड़़े। अभी उसे बच्चों को लेने अपनी दूर की रिश्ते की उस ननद के यहाँ भी जाना था, जहाँ रिक्शा वाला रोज़ छुट्टी के बाद स्कूल से उन्हें लाकर, वहाँ छोड़ जाता है। 

बच्चों को लाने के बाद वह खाना-पीना, घर के बाक़ी कामों को पूरा करने में लगी रही। और साथ ही उसके लगा रहा बाबा के साथ बीता वक़्त, बाबा की बातें, उनका विशाल स्वरूप। बिल्कुल इस तरह जैसे कि यह सब उसके बदन की छाया हों। इस बेचैनी घबराहट से बचने के लिए उसने बाबा के पास से आने के बाद आदत के एकदम विपरीत छह-सात बार चाय पी। मगर बात जहाँ की तहाँ रही। बल्कि जैसे-जैसे ज़ुल्फ़ी के आने का वक़्त नज़दीक आ रहा था वैसे-वैसे उसकी घबराहट और बढ़ती जा रही थी। कैसे करेगी उसका सामना, कहीं कोई बात बिगड़ गई तो, बड़ी मुश्किलों में बीतते गए एक-एक पल, और सात बजते-बजते ज़ुल्फ़ी आ गया। 

डरी-सहमी, अंदर ही अंदर थर-थराती और ऊपर ही ऊपर सामान्य दिखने की पूरी कोशिश करते हुए उसने चाय-नाश्ता दिया और बच्चों को बड़ी होशियारी से उसके साथ लगा दिया। ख़ुद किचन में लग गई। मगर आधे-पौन घंटे बाद उसकी बेचैनी एकदम बढ़ गई। उसने पूरे बदन में पसीना चुह-चुहाना स्पष्ट महसूस किया। जब ज़ुल्फ़ी ने किचन में आकर उसे जड़ी-बूटियों का एक पैकेट थमा दिया और कहा इसे उबाल कर उसका पानी उसे खाना खाने के बाद पीने को दे। 

यह वही दवाएँ थीं जिसे वह किसी हकीम से ले आता है, इस विश्वास के साथ कि इन्हें खाने के बाद संभोग करने से शर्तिया बेटा ही होगा। यह सब सोफी पहले भी न जाने कितनी बार झेल चुकी थी। लेकिन आज पसीने-पसीने इसलिए हुई क्यों कि बाबा से मिलने के बाद आज वह किसी भी सूरत में बिस्तर पर ज़ुल्फ़ी से नहीं मिलना चाहती थी। 

वह इस कोशिश में लग गई कि किसी तरह ज़ुल्फ़ी सो जाए। इस जुगत में उसने जान-बूझ कर लाख थके होने के बावजूद ज़ुल्फ़ी की पसंद की कई चीज़ें बना-बना कर उसे खाने को दीं, जिससे वह ज़्यादा खा ले और आलस्य में जल्दी सो जाए सवेरे तक। और भी कई जतन किए। उसने जान-बूझ कर बच्चों को देर तक जगाए रखा, उन्हीं के साथ लगी रही कि ज़ुल्फ़ी सो जाए। संयोग से वह क़ामयाब भी हो गई। ज़ुल्फ़ी सो गया। तब वह रोज़ की तरह उठ कर बच्चों के पास से नहीं गई ज़ुल्फ़ी और अपने बिस्तर पर। 

वह सोई रही बच्चों के पास और सुबह भी एकदम भोर में ही उठ कर काम-धाम में लग गई, जिससे अक़्सर एकदम भोर में ज़ुल्फ़ी द्वारा किए जाने वाले हमले से भी बची रहे। अंततः ज़ुल्फ़ी से ख़ुद को उस रात बचा ले जाने में वह सफल रही। इसके चलते वह सुबह राहत महसूस कर रही थी। और ताज़गीपूर्ण भी। जबकि ज़ुल्फ़ी सोए रहने के कारण दवा के बेकार हो जाने से तिलमिला उठा था और ऑफ़िस जाने तक उसे गरियाता रहा कि उसने उसे उठाया क्यों नहीं। 

सुबह ऑफ़िस के लिए निकली तो एक नई उलझन दिमाग़ पर तारी हो गई कि सीमा को बताए कि नहीं। वह ठहरी बड़ी तेज़-तर्रार। झूठ बड़ी जल्दी पकड़ लेती है। उलझन का भारी बोझ वह दोपहर तक लिए रही। फिर यह सोच कर लंच में बताना शुरू किया कि अभी कई बार जाना है, न जाने किन-किन परिस्थितियों से गुज़रना पड़े। इसलिए किसी को तो बताना ही चाहिए। सीमा से ज़्यादा मददगार और विश्वासपात्र कोई नहीं है। सबसे बड़ी बात कि आख़िर सूत्र-धार भी तो वही है। 

यह सोच कर सोफी ने विस्तार से उसे सब-कुछ बता दिया। लेकिन बाबा के साथ प्रचंड मिलन की क्रिया के दौर से गुजरने की बात बड़ी सफ़ाई से पूरी तरह छिपा ले गई। सीमा को संतोष था कि सोफी ने उस पर यक़ीन किया और वहाँ गई। उसकी मनोकामना पूरी हो जाएगी तो उसका जीवन बढ़िया हो जाएगा और वह उसे हमेशा याद रखेगी। 

दूसरी तरफ़ सोफी को इस बात का संतोष कि, सीमा से वह जो नहीं बताना चाहती थी, उसे वह आसानी से छिपा ले गई। इसके बाद सोफी का एक हफ़्ता बहुत बेचैनी कसमकस में बीता। जैसे-जैसे बाबा के पास जाने का समय पास आ रहा था, वैसे-वैसे उसका असमंजस बढ़ता जा रहा था। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। रात में ज़ुल्फ़ी के साथ वह ख़ास क्षण और भी ज़्यादा बेचैनी भरे होते जब दवा के जोश में वह लड़का पैदा करने के लिए पूरे प्रयास करता हाँफता-हाँफता लुढ़क जाता। उस समय न चाहते हुए भी सोफी को बाबा की याद आ जाती। 

उसने महसूस किया कि, बाबा के पास से आने के बाद से उसे ज़ुल्फ़ी का शरीर फूल सा लगने लगा है। अब वह पहले सा बलिष्ठ और पीड़ादायी नहीं लगता। जबकि ज़ुल्फ़ी पहले की ही तरह पूरे जोर-शोर से शुरू हो कर अपनी सारी ताक़त उसके भीतर उड़ेलने के बाद ही कहीं दम लेता है। फिर हाँफता हुआ किनारे लुढ़कता और सो जाता है। 

अंततः दूसरी बार बाबा के पास जाने का दिन आ गया तो सोफी ऑफ़िस पहुँची, अटेंडेंस लगाई, दवा लेने के बहाने चल दी। सही बात सिर्फ़ सीमा को पता थी। स्कूटी स्टार्ट करते वक़्त उसके दिमाग़ में यह बात एक झटके में आ कर चली गई कि, सरकारी नौकरी का यही तो बड़ा फ़ायदा है। 

इस बार जब बाबा के पास पहुँची तो सोफी ने देखा बाबा उसी आग के ढेर के पास पालथी मार कर बैठे हैं। उसने बिना आवाज़ किए उनके हाथ जोड़े और एक तरफ़ खड़ी हो गई। कुछ देर में ही बाबा भी उठ खड़े हुए पूर्व की तरह जय महाकाल कहते हुए। और फिर सुर्ख़ आँखों से देखा सोफी की ओर। उसने फिर हाथ जोड़ लिए थे। 

“आ गई तू . . . तेरा यह समर्पण, तेरी हर चाह पूरा करेगा।" यह कहते हुए बाबा चले गए झोपड़ी के भीतर। कुछ देर बाद सोफी भी चली गई अंदर। उसने देखा सब कुछ वैसा ही था। सिर्फ़ एक चीज़ नई थी। झोपड़ी के दरवाज़े को बंद करने के लिए फूस बाँस की खपच्चियों से बना फाटकनुमा एक टुकड़ा जो दरवाज़े के पास ही किनारे रखा था। बाबा अपने स्थान पर बैठे कुछ खा रहे थे, उन्होंने उसे अंदर आया देख कर कहा, “आ, इधर आ, ले ये खा।”

सोफी ने तेज़ी से आगे बढ़ कर केला ले लिया और बाबा के कहने पर बैठ कर उसे खा लिया। इस बीच बाबा ने उठकर उस फाटकनुमा चीज़ से झोपड़ी बंद कर ली। और पालथी मार कर बैठ गए अपने आसन पर। पहली बार की तरह बाबा आज भी निर्वस्त्र थे। बैठने के साथ ही उन्होंने कुछ मंत्र वग़ैरह बुदबुदाए और फिर सोफी को भी निर्वस्त्र कर ठीक अपने सामने पद्मासन में बैठने को कहा। लेकिन सोफी नहीं बैठ पा रही थी। मोटी जाँघें बड़ी बाधा बन बैठी थीं। अंततः वह जैसे बैठ पा रही थी, बाबा ने उसे उसी तरह बैठने दिया और अपनी प्रक्रिया तेज़ी से पूरी करने लगे। 

आधे घंटे बाद बाबा उसी पुआल के बिस्तर पर उसे लेकर लेट गए। मन में तमाम उथल-पुथल लिए सोफी यंत्रवत सी उनके साथ थी। आज उसमें पहली बार जैसा डर नहीं था। लेटे-लेटे जब कई मिनट बीत गए और बाबा निश्चल ही पड़े रहे तो सोफी बेचैन हो उठी। उसके मन में जल्दी से जल्दी ऑफ़िस पहुँचने की बात भी कहीं कोने में उमड़-घुमड़ रही थी। साथ ही बाबा का सख़्त बालों, जटाओं से भरा शरीर उसके शरीर से चिपका हुआ था, वह भी बेचैन किए जा रहा था। जब उससे न रहा गया तो वह बाबा से अगला आदेश क्या है यह पूछने की सोचने लगी। लेकिन तभी बाबा ने हल्की हुंकार सी भरी, उसी तरह हल्के से जय महाकाल कहा और पुत्र उत्पन्न करने की शेष प्रक्रिया पूरी करने में जुट गए। 
 सोफी पहली बार जितना इस बार आने में, बाबा से बतियाने में, प्रक्रिया को पूरा करने में नहीं डरी थी, प्रक्रिया के पूरी होने में जो भी वक़्त लगा उसके बाद सोफी ने सुकून महसूस किया कि अब जल्दी ही यहाँ से फ़ुर्सत मिलेगी और वह लंच होते-होते ऑफ़िस पहुँच जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

बाबा फिर पहले की तरह उसे लिए लेट गए। अब उसकी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। जब उससे न रहा गया तो उसने बाबा से ऑफ़िस पहुँचने और किसी के आ जाने के डर की बात कह कर चलने की इजाज़त चाही। तो बाबा ने साफ़ कहा, “तू मेरी शरण में है, तुझे कुछ नहीं होगा।”

बाबा पर पहले से विश्वास किए बैठी सोफी निश्चिन्त हो गई, लेकिन जल्दी निकलने की इच्छा फिर भी मन में कुलबुलाती रही। और यह कुलबुलाहट तब ख़त्म हुई जब बाबा ने दो और बार अपनी प्रक्रिया पूरी कर उसे जाने की इजाज़त दे दी। 

वापसी में उसने एक नज़र घड़ी पर डाली और बुदबुदाई, चलो लंच के पहले न सही कुछ देर बाद तो पहुँच ही जाऊँगी। मगर शरीर का वह हिस्सा अब भी उसे परेशान किए जा रहा था, जहाँ गीलापन अभी भी उसका पीछा नहीं छोड़े था। और इतना ही नहीं इस गीलेपन ने न जाने कितने बरसों से भूले बिसरे किशोरावस्था के साथियों में से एक चेहरे हिमांशु को ला खड़ा किया। 

उसने झट इस चेहरे को फिर हमेशा के लिए बिसराने की कोशिश की, लेकिन वह जितना कोशिश कर रही थी, वह उतना ही ज़्यादा स्पष्ट और साथ ही तब की बातें समेटे और भी क़रीब आता जा रहा था। कुछ ही क्षणों में इतना क़रीब आ गया कि, जिस गीलेपन ने इतने बरसों के बाद उसकी याद दिलाई थी, वह और बाबा भी विलुप्त हो गए। ऑफ़िस पहुँचने, सीमा से बातें शुरू करने पर भी हिमांशु से जुड़ी यादों को परे नहीं ढकेल पाई। ज़्यादा देर होने की स्वतः ही सफ़ाई देते हुए उसने सीमा से बाबा के देर से आने की बात कही। 

ऑफ़िस का शेष समय भी ऐसी ही तमाम बातों के कहने-सुनने में बीत गया। छुट्टी होते ही वह चल दी घर को। बड़ी जल्दी में थी। इस बार भी उसके द्वारा पिछली बार का इतिहास दोहराया गया। मगर तमाम कोशिशों के बाद इस बार वह पहले की तरह ज़ुल्फ़ी को चैन से सुबह तक सुला न सकी। तमाम नानुकुर की, लेकिन ज़ुल्फ़ी पुत्रोत्पत्ति के लिए अपने हिस्से की सारी मेहनत करके ही माना। मेहनत करने के बाद कुछ ही देर में सो गया। 

सोफी की आँखों में नींद थी, वह सोना भी चाहती थी, मगर हिमाँशु का चेहरा उसे जबरिया जगाए जा रहा था। और नींद आँखों में जलन कड़वाहट पैदा किए जा रही थी। मानो हिमाँशु और नींद में जीतने की जंग छिड़ गई थी। नींद उसे सुला देना चाहती थी, हिमाँशु की यादें उसे अपने में समेट लेना चाहती थी। 

आख़िर हिमाँशु की यादें जीत गईं और सोफी उतर गई यादों के सरोवर में। पैठती गई, गहरे गहरे और गहरे। वहाँ उसे बचपन की वह दुनिया हर तरफ़ नज़र आई, जहाँ उसने जीवन के क़रीब उन्नीस वर्ष बिताए थे। एच. ए. एल. विभाग की उस कॉलोनी के विशाल परिसर में फैक्ट्री के अलावा बड़ी संख्या में बहू मंज़िलें आवास बने हुए थे। कुछ छोटे, कुछ बड़े, जिन में से क़रीब हर पाँचवाँ मकान ख़ाली ही रहता था। क्योंकि कुछ लोगों को बाहर किराए पर रहना ज़्यादा फ़ायदेमंद लगता था। 

कॉलोनी के अन्य बच्चों की तरह वह भी कैंपस में ही बने स्कूल में पढ़ती थी। और उन्हीं के साथ शाम को खेलती भी थी। हिमाँशु भी उसके साथ खेलता था। बेहद दुबला-पतला लेकिन कुछ ज़्यादा ही आकर्षक नैन-नक्श वाला था। मगर न जाने क्यों वह अन्य लड़कों की अपेक्षा स्कूल से लेकर कॉलोनी में खेलने तक उसके साथ ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब रहने की कोशिश करता था। 

कैसे स्पर्श कर सके, इसका मौक़ा ढूढ़ता रहता था। नज़रें मिलने पर बस देखता रह जाता और हौले से मुस्कुरा देता। इस पर वह भी नज़रें चुराती हुई मुस्कुरा पड़ती थी। क्योंकि उसके मन में भी उसको देखते ही न जाने क्या कुछ चल पड़ता था, उसे वह बहुत अच्छा लगता था, उसके क़रीब ज़्यादा रहने का उसका भी मन करता था। 

जल्दी ही वह बेहिचक उसका हाथ पकड़ने लगा। उसे अपने से चिपका लेता, उसके गालों को चूम लेता, हाथ बदन के कई हिस्सों तक पहुँचा देता। तब वह जल्दी ही अपने को छुड़ा कर चल देती थी, लेकिन मन में और देर तक यह होते रहने देना चाहती थी। मगर डर और संकोच उसे तुरंत भगा ले जाते। 

यह चंद दिनों तक ही रहा, उसकी भी हिम्मत बढ़ गई। इस बढ़ी हिम्मत के चलते गर्मी की छुट्टियों में वह और क़रीब आ गए। हर बार की तरह कॉलोनी के काफ़ी बच्चे अपने-अपने गाँवों या पैतृक घरों को चले गए थे। लेकिन फिर भी बहुत से रह गए थे। इन दोनों का भी परिवार किसी वजह से नहीं गया था। 

मई-जून की तेज़ गर्मियों के चलते बच्चों के माँ-बाप देर शाम सूर्यास्त होने के बाद ही उन्हें निकलने देते थे। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। कुछ दिन पहले ही दोनों का रिज़ल्ट आया था। जिसमें दोनों ने ही आठवीं कक्षा अच्छी पोजिशन में पास की थी। जिससे घर में कुछ ज़्यादा ही लाड़-प्यार मिल रहा था। और खेलने कूदने का ज़्यादा मौक़ा। 

इसी के चलते दोनों काफ़ी देर खेल-कूद में लगे थे। और भी दर्जनों बच्चे थे जो कई गुट में बँटे अलग-अलग खेलों में व्यस्त थे। इनका गुट छिपने-ढूँढ़ने के खेल में व्यस्त था। सब छिप जाते थे, कोई एक सबको ढूँढ़ता था, इस क्रम में कोई छिपा हुआ यदि ढूँढ़ने वाले के टीप मार देता तो वह फिर ढूँढ़ने लगता। छिपने के लिए तीन मंज़िलें ब्लॉक अच्छी जगह थे, बच्चे वहीं छिपते थे जो ख़ाली पड़े थे। कहीं सीढ़ियों के नीचे ख़ाली पड़ी जगह में, तो कहीं एकदम ऊपर छत पर। 

उस दिन वह भी छिपी थी सीढ़ियों के नीचे ख़ाली पड़ी जगह में कि, तभी हिमाँशु भी आ पहुँचा छिपने के लिए। उसी समय ढूँढ़ने वाले लड़के की आहट मिली तो वह एकदम सटकर छिप गया। वह लड़का आया इधर-उधर देखा, ऊपर भी गया और किसी को न पाकर चला गया वापस, तो उसने भी उस जगह से उठ कर जाना चाहा, लेकिन हिमाँशु ने कसकर पकड़ लिया और चूम लिया उसके गालों पर कई जगह। 

वह रोमांचित हो उठी और छूट-कर जाने की कोशिश भी इस रोमांच में विलीन हो गई। उसने भी उसे पकड़ लिया। उसका सहयोग मिलते ही हिमाँशु निश्चिंत हो गया और एक मासूम बादल सा अपनी सोफी पर बरस गया। एक आश्चर्यजनक अनुभव से गुज़रने के बाद दोनों चल दिए अपने-अपने घरों को क्योंकि शाम ढल चुकी थी, धरा पर उतरने ही वाला था अँधियारा और लोगों ने शुरू कर दिया था लाइट्स जलाना। 

घर जाते वक़्त सोफी को गीलापन बहुत लिजलिजा अहसास दे रहा था। देर से घर पहुँचने पर माँ से झिड़की भी मिल गई। इसके बाद तो दोनों एक-आध हफ़्ते में अक़्सर मौक़ा निकाल ही लेते थे मिलने का। फिर बारिश का वह दिन भी आया जो उनके मिलन का आख़िरी दिन साबित हुआ। मानसूनी बारिश को शुरू हुए हफ़्ते भर हो गए थे। उस दिन भी शाम होने से कुछ पहले तक बारिश होती रही। मौसम अच्छा ख़ासा ख़ुशगवार हो गया था। लोग घरों से बाहर थे, बच्चे भी खेलने-कूदने निकल चुके थे। 

कई दिन बाद उस दिन फिर दोनों ने मिलने का मौक़ा निकाल लिया था। हिमाँशु तब फिर बरसा था लेकिन पहले की तरह सोफी के तन पर नहीं बरस गया था, उसके भीतर ठीक बाबा और ज़ुल्फ़ी की तरह। दोनों इस अहसास से ऐसे खिल उठे थे जैसे दिन भर बारिश के बाद गर्मी से राहत मिलते ही खिल उठे थे लोगों के चेहरे और फैक्ट्री परिसर में भारी संख्या में लगे पेड़-पौधे, फूल-पत्ते। 

सोफी जब घर को चली तो उसे लग रहा था कि जैसे क़दम ज़मीन पर नहीं हवा में ही पड़ रहे हैं। उस अहसास से वह बाहर ही नहीं आ पा रही थी, जो कुछ देर पहले तन के भीतर हिमाँशु का कुछ रेंग जाने के कारण हुआ था। इस अहसास ने उसे बहुत देर रात तक सोने नहीं दिया था। इस बीच उसे दर्द की एक लहर के गुज़र जाने का भी अहसास बराबर हो रहा था। 

सुबह उसे आँखों में तेज़ जलन महसूस हुई, जब उसे अम्मी ने झकझोर कर उठा दिया था। कमर के आस-पास के हिस्सों में दर्द का भी अहसास हुआ। तभी अम्मी दबी अवाज़ में बोली थीं, “यह सब हो गया और तू घोड़े बेच कर सोती रही . . .। चल जा बाथरूम जा कर नहा।” अम्मी की इस बात से उसका ध्यान धब्बों भरे अपने कपड़े और बेड-शीट पर गया। वह डर से थरथरा उठी कि हिमाँशु और उसके मिलन का तो यह परिणाम नहीं जिसका भेद अम्मी के सामने खुल गया। वह आँखों में आँसू लिए गिड़गिड़ाई, “अम्मी मैंने कुछ नहीं किया।” 

“हाँ मुझे मालूम है क्या हुआ है। एक दिन सारी लड़कियों को इस रास्ते से गुज़रना होता है। जा पहले, इसको भी ले जा, ठीक से नहा धोकर, वह सब साफ़ कर के आ और हाँ यह भी ले जा।” कुछ और भी भीतरी कपड़ों के साथ प्रयोग करने के लिए देते हुए उसने कान में भी कुछ कहा। अम्मी की बातों से उसे यक़ीन हो गया कि उसकी और हिमाँशु की बात खुली नहीं है। बात तो कुछ और है जिसके बारे में अस्पष्ट सी बातें कभी-कभी सुन लिया करती थी। जब वह लौटी तो अम्मी ने विस्तार से सब बता कर हिदायत दी कि, अब हर महीने चार-पाँच दिन ऐसा रहेगा। अब कहीं भी बाहर अकेले नहीं जाना। 

सचमुच कितनी ख़ुश थी वह कि कई तकलीफ़ों के बावजूद उसकी चोरी पकड़ी ही नहीं गई। मगर यह ख़ुशी एक-दो दिन बाद ही ख़त्म हो गई थी, क्योंकि हिमाँशु से मिलने के सारे रास्ते बंद हो गए थे। यहाँ तक कि स्कूल भी बंद था। इस बीच उसने कई बार उसे अपने घर के पास मँडराते देखा। फिर दस दिन बाद वह ख़राब दिन भी आ गया जब वह उसके घर आ गया सबसे मिलने के बहाने। 

उससे मिलने और यह बताने कि उसके फ़ादर का ट्रांसफ़र बंगलौर हो गया है और सभी लोग लखनऊ छोड़ कर बंगलौर जा रहे हैं। उस समय उसने कुछ क्षण अलग मिलने की तड़प उसकी आँखों में देखी थी। मगर परिवार के सब लोग आगे थे। वह पीछे थी और हाथ मलती रह गई थी। उसके जाने के बाद उसने सबसे छिप-छिपाकर छत पर बड़ी देर तक आँसू बहाए थे। यह सिलसिला फिर कई रातों तक चला था। हिमाँशु से बिछुड़ने का असर उसके व्यवहार और फिर पढ़ाई पर भी पड़ा था। 

बचपन का अध्याय पूरा करते-करते सोफी की आँखें भर आई थीं। आख़िर में उसके दिमाग़ में आया कि यदि हिमाँशु न बिछुड़ता तो निश्चित ही वह आज उसके साथ होती। यह बात दिमाग़ में आते ही उसकी नज़र घूम कर बग़ल में पड़े खर्राटे भर रहे, ज़ुल्फ़ी पर जा पड़ी। अचानक ही वह बुदबुदा उठी . . . और यहाँ ज़ुल्फ़ी नहीं हिमाँशु सो रहा होता। कितना मासूम, कितना नेक था। न जाने अब कहाँ होगा? कैसा होगा? सोफी ने फिर आँखें बंद कर लीं कि शायद नींद आ जाए और कुछ राहत मिले। मगर उसे राहत मिली क़रीब डेढ़ महीने बाद। 

जब एक सुबह उसे उबकाई आने लगी, और बाद में चेक कराने पर उसकी प्रेग्नेंसी कंफ़र्म हो गई। उसने मन ही मन धन्यवाद दिया बाबा को, सीमा को। उसे पूरा यक़ीन था कि यह छह बार बाबा के पास जाने का परिणाम है। ज़ुल्फ़ी को जब उसने बताया कि वह प्रेग्नेंट हो गई है तो उम्मीद के अनूकूल यही जवाब मिला, 'इस बार बेटा ही होना चाहिए।' 

सोफी की नींद, चैन, आराम उसकी इस बात ने अगले चार महीने तक हराम कर दिया। घबराहट, चिंता ने उसका बी.पी. बढ़ा दिया। पहले की तरह उसने यह सारी बातें फिर शेयर कीं सीमा से तो उसने कहा, “एक ही रास्ता बचा है कि, बच्चे का लिंग पहले ही पता कर लिया जाए कि वह लड़का है या लड़की। जैसा होगा उसके हिसाब से आगे किया जाएगा।” 

“लेकिन सीमा जिस भी नर्सिंग होम में यह सब होता है, वहाँ तो बाहर ही बोर्ड लगा रहता है कि भ्रूण का लिंग परीक्षण दंडनीय अपराध है।”

“सोफी वास्तव में यह सब एक तरह से यह बताते हैं कि, यह यहाँ आसानी से हो जाएगा। बस इसके लिए दो गुनी फ़ीस देनी होगी।” 

बात सोफी की समझ में आ गई। और फिर वह एक नामचीन नर्सिंग होम में इसके लिए चेक-अप के बहाने पहुँची। सही बात सामने रखने पर पहले तो उसने ना नुकुर की लेकिन मनचाही रक़म मिलते ही चेक कर बता दिया कि बेटा है। बेहद स्वस्थ है। लेकिन चेक-अप की कोई लिखित रिपोर्ट नहीं दी। सोफी को इसकी परवाह ही कहाँ थी। वह तो मन चाही मुराद मिल जाने से सातवें आसमान पर थी। 

उसका मन बल्लियों उछले जा रहा था। सीमा को, बाबा को उसने लाख-लाख धन्यवाद दिया। घर पहुँच कर उसने बहुत असमंजस के बाद उस वक़्त ज़ुल्फ़ी को भी सच बता दिया, जब वह रात में उसकी बग़ल में ही बैठा था। और पुत्र की आस लिए, अब-तक अच्छे ख़ासे उभर आए उसके पेट को, हौले-हौले स्पर्श कर, कई बार चूमने के बाद कहा था कि, “हक़ीम साहब की दवा काम कर गई तो अब की बार बेटा ही होगा।”

तब उसने कहा, “अगर नाराज़ न हो तो एक बात कहूँ।”

“बोलो।”

“हम-दोनों की मुराद पूरी हो गई है। इस बार मैं आपका वारिस आपका बेटा ही पैदा करूँगी।”

सोफी से इतना सुनते ही ज़ुल्फ़ी एकदम सीधा बैठ गया और पूछा, “मगर तुम इतना यक़ीन से कैसे कह सकती हो?” 

ज़ुल्फ़ी के इस प्रश्न पर सोफी ने उसे चेकअप वाली पूरी बात बता दी। सिर्फ़ यह छिपाते हुए कि सीमा सूत्र-धार थी और आख़िर तक साथ थी। 

उसकी बात पर ज़ुल्फ़ी सिर्फ़ इतना ही बोला, “इससे कुछ नुक़्सान तो नहीं होगा।”

“नहीं, डॉक्टर ने कहा है कि, स्कूटी वग़ैरह चलाना बंद कर दें। वह बता रही थीं कि इस बात की सम्भावना ज़्यादा है कि, बच्चा ओवर-वेट, ओवर-साइज़ हो। इसलिए बड़े सिजेरियन की ज़रूरत पड़ेगी। मतलब की उस वक़्त काफ़ी पैसा लग सकता है।”

सोफी की बात सुन कर ज़ुल्फ़ी कुछ गंभीर हो कर बोला, “एक ऑटो-रिक्शा लगवा देता हूँ। ऑफ़िस उसी से जाओ-आओ। फिर जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी मैटरनिटी लीव ले लो। एक नौकरानी भी लगवा देता हूँ, काम-धाम कम करो।” 

यह बातें ज़ुल्फ़ी की सोच, उसकी प्रकृति, आदत से एकदम विपरीत थीं। जिसे सुन कर सोफी को जितनी ख़ुशी हुई, उससे कहीं ज़्यादा आश्चर्य। अब-तक लेट चुके ज़ुल्फ़ी को उसने अपनी बाँहों में ले लिया। बहुत दिनों बाद वह बेहद सुकून भरा क्षण जी रही थी। जब कि बाबा का चेहरा उसकी आँखों के सामने बराबर नाच रहा था। 

साथ यह बात भी नत्थी थी कि कहीं बेटा बाबा की सूरत-सीरत पा गया तो क्या होगा? ज़ुल्फ़ी को क्या बताएगी? इसी कशमकश-उलझन में डूबते-उतराते गर्भावस्था के बाक़ी के पाँच माह भी बीत गए और तय समय पर डॉक्टर की आशंकाओं के अनुरूप सिजेरियन से सोफी ने ख़ूबसूरत चेहरे-मोहरे वाले बेटे को जन्म दिया। उसका चेहरा माँ से इतना मेल खा रहा था कि देखते ही बेसाख़्ता ही मुँह से निकल जाता, 'अरे! यह तो माँ पर गया है।' 

कई घंटे बाद होश में आने पर सोफी बेटे को छाती से लगा कर ख़ुशी से रो पड़ी थी। उसी छाती से जिसमें किन-किन रास्तों से गुज़र कर उसने बेटा पाया, यह राज उसने हमेशा के लिए दफ़न कर लिया था। यह जानते हुए कि, यह एक टीस भरी पीड़ा अंतिम क्षण तक देता रहेगा। उसे यह देख कर बड़ा सुकून मिला था कि, बेटे का चेहरा बाबा पर नहीं पूरी तरह उस पर गया था। लेकिन शरीर की बाक़ी बनावट पर बाबा का अक़्स साफ़ झलक रहा था। रंग तो पूरी तरह उन्हीं का था। 

उसने सोचा, मगर जो भी हो बेटा न होने के कारण उस पर तलाक़ की जो तलवार लटका करती थी वह तो हट गई। उसने आस-पास देखा सिवाय नर्स और उसके सिर पर स्नेह-भरा हाथ रखे सीमा के अलावा कोई नहीं था। नर्स ने बच्चा उससे लेकर बेड के बग़ल में पड़े पालने में लिटा दिया और चली गई। तब सोफी ने सीमा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा, “मैं तुम्हारा एहसान कभी न चुका पाऊँगी।”

“ओफ़्फ़ . . . सोफी अब ख़ुश रहो। इसमें एहसान वाली कोई बात नहीं है। दुनिया में सभी एक दूसरे के लिए करते हैं।”

“पता नहीं . . . पर मेरा साथ कभी न छोड़ना।” 

“मैं छोड़ने के लिए किसी को अपना नहीं बनाती सोफी।” 

इसी बीच पूरे नर्सिंग होम में मिठाई बाँट कर ज़ुल्फ़ी भी आ गया तो सीमा ने कहा, “सोफी मैं थोड़ी देर में आती हूँ।” वह ज़ुल्फ़ी से पहले ही मिल चुकी थी। उसके जाते ही सोफी ने एकटक बच्चे को निहार रहे ज़ुल्फ़ी से कहा, “अब तो ख़ुश हैं?” 

“हाँ, बहुत।”

“सब कह रहे हैं कि बिल्कुल मुझ पर गया है।”

“सही ही कह रहे हैं सब, तुम्हारी स्कैन कॉपी लग रहा है। सिवाय रंग के।”

ज़ुल्फ़ी के चेहरे को पढ़ने के इरादे से उसे ग़ौर से देखते हुए सोफी ने आगे कहा, “शायद तुम्हारे हकीम साहब की दवा काम कर गई। साँवलापन उनकी दवाओं के कारण ही तो नहीं हो गया।”

“शायद नहीं, बेटा निश्चित ही हकीम साहब की दवाओं के चलते ही हुआ। और रंग . . . रंग का क्या करेंगे? बेटा बेटा है। मैं हकीम साहब के पास जाऊँगा उनसे और दवाओं के लिए कहूँगा जिससे तुम मुझे अगले साल एक और बेटा दे सको।”

“क्या?” 

“अरे! इसमें इतना चौंकने वाली क्या बात है? एक बेटा यानी कानी आँख। कम से कम दो तो चाहिए ही चाहिए।”

तभी नर्स ने आ कर ज़ुल्फ़ी को एक पर्चा थमाते हुए कुछ दवाएँ तुरंत लाने को कहा। ज़ुल्फ़ी को कमरे से बाहर जाता देखती रही सोफी। वह एकदम परेशान हो उठी। उसके दिमाग़ में एक दम से यह कौंधा कि, “बच्चा पैदा करने की मशीन के अलावा भी कभी कुछ समझोगे। जो तकलीफ़ झेलती हूँ, उसका अंश भी पल-भर को न झेल पाओगे। कितनी आसानी से कह दिया और बेटा चाहिए।" 

मन का सब हो गया पर प्यार के दो लफ़्ज़ न बोल पाए। मौत के मुँह से निकल कर आई हूँ पर एक बार न पूछा कैसी हो? बस आँखों, दिलो-दिमाग़ पर अपना ही स्वार्थ छाया हुआ है और बेटा चाहिए। बस बहुत हो गया। देते हो तलाक़ तो दे दो। तुम न सही बेटे को ही सहारा बना लूँगी, पर अब बच्चा पैदा करने की मशीन बिल्कुल नहीं बनूँगी। भाड़ में गईं तुम्हारी दवाएँ। अब भूल कर बाबा के पास भी जाने वाली नहीं। तुम्हारे पास आने से पहले ऐसा इंतज़ाम करके आऊँगी कि चाहे तुम जितनी दवाएँ खा लोगे, जितना भी ज़ोर लगा लोगे, मैं प्रेग्नेंट ही नहीं होऊँगी।” 

सोफी की आँखों में आँसू भर आए और एकदम से अम्मी की याद आ गई। 

उनसे वह आख़िरी बार मिलना एवं फिर हमेशा के लिए बिछुड़ना और साथ ही उनकी दी वह बद्दुआ कि, “तुझे अल्लाह त आला जीवन में कभी सुकून नहीं बख़्शेगा।” उसने मन ही मन कहा अम्मी तू तो कहती थी कि “माँ-बाप के दिल से बच्चों के लिए बद्दुआ निकलती ही नहीं। वह तो ग़ुस्से में ऊपरी तौर पर निकल जाती है।” पर अम्मी लगता है कि, मेरे लिए तेरी बद्दुआ दिल से निकली थी, तभी तो तब से आज तक एक पल को सुकून नहीं मिला। हालात ऐसे बन गए हैं कि, अंतिम क्षण तक सुकून का एक पल मिलेगा यह सोचना भी मूर्खता है। मगर अम्मी इसमें ग़लती तो मेरी ही है। न तेरे दिल को मैंने इतना दुखाया होता, न ही तेरे दिल से मेरे लिए बद्दुआ निकलती। 

"तड़प तो तू भी रही होगी अम्मी, आख़िर हो तो माँ ही ना। औलाद से बिछुड़ कर कहाँ चैन होगा तुझे भी। औलाद वाली बनकर ही समझ पाई हूँ, तेरे उन आँसुओं की क़ीमत, जो उस दिन झर रहे थे तेरी आँखों से।” यह सोचते-सोचते सोफी के भी आँसू बह चले थे। 

शायद दवाओं का असर कम हो गया था, इसलिए दर्द भी बढ़ रहा था। उसने अपनी जगह से ही बच्चे पर नज़र डाली और देखती रही उसे। उसके मन में उद्विग्नता की लहरें ऊँची और ऊँची होती जा रही थीं। उन लहरों पर बाबा का अक़्स भी बड़ा और स्पष्ट होता जा रहा था। 

1 टिप्पणियाँ

  • 2 Apr, 2022 02:28 AM

    बहुत सुन्दर सत्य

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