उसकी आख़िरी छलाँग

01-10-2022

उसकी आख़िरी छलाँग

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

वह मराठी फ़िल्मों की एक अभिनेत्री, मॉडल से इस तरह प्रभावित थी कि वैसा ही बनने के लिए किसी भी सीमा को तोड़ कर, नई सीमा गढ़ने के लिए हमेशा तैयार रहती थी। उसे अभिनेत्री का यह सच बार-बार प्रेरित करता, जोश से भर देता कि वह एक छोटे से गाँव में झोपड़ी में रहा करती थी। पिता किसी कार्य-शाला में मिस्त्री थे। 

पढ़ाई के समय ही मॉडलिंग की दुनिया से परिचित हुई थी, किसी फोटोग्रॉफर के कहने पर न्यूड चित्रों की एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका तक पहुँच कर छा गई। मॉडलिंग, एक्टिंग की दुनिया का बड़ा नाम बन गई। जब कि एक समय वह चार सौ रुपए की नौकरी किया करती थी। 

रंग-रूप की दृष्टि से शारीरिक गठन तो ठीक था, लेकिन रंग एकदम काला आबनूसी, मगर पूर्व सुपर मॉडल नॉओमी कैम्पबेल से काफ़ी कम। फिर भी उसकी न्यूड क्लासिक तस्वीरों ने उसे रातों-रात स्टार बना दिया। वह बँगले, कारों की मालकिन बन गई। 

फ़ैशन के तमाम अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों में बतौर सेलिब्रिटी आमंत्रित की जाती है। पश्चिमी देशों में नस्लीय टिप्पणियों का मुँह-तोड़ उत्तर देती रहती है, दुनिया घूम रही है। हॉलैंड के एक बड़े अमीर आदमी से शादी करके वहीं की नागरिकता भी ले ली है। 

वह तर्क देती थी कि ‘जब वह एक पिछड़े गाँव की, इतनी काली होते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छप कर स्टार बन सकती है, तो मैं क्यों नहीं बन सकती। मैं तो उसके सामने बहुत गोरी हूँ। मेरा फ़िगर उससे बहुत ज़्यादा सेक्सी है, कर्वी है।’

उसकी अफनाहट, उतावलेपन को देखकर मैं सोचता कि यह कहीं ग़लत रास्ते पर निकल कर धोखा न खा जाए। किसी मुसीबत में न पड़ जाए। व्याकुलता इतनी थी कि समझाने पर यदि उसके मन की बात न होती, तो वह उसे सुनना ही नहीं चाहती थी। मैं फिर भी समझाने की कोशिश करता तो मुँह फुला लेती थी। 

वह अभिनेत्री से अपनी तुलना करती हुई कहती थी, “मैं तो सरकारी नौकरी में हूँ। वह नौकरी में चार सौ रुपए पाती थी, मैं पचपन हज़ार पाती हूँ।” मॉडलिंग के विषय में इंटरनेट से मिली तमाम जानकारियों को लेकर वह कभी ख़ुश होती, तो कभी मन का न होने पर ग़ुस्सा करती, आपा खो बैठती। इस व्याकुलता, जल्दबाज़ी के चलते वह कई बार ठगी गई, सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार होते-होते बची थी। 

मॉडलिंग के सम्बन्ध में जब उसने पहली बार मुझसे बात की, तो उसका उतावलापन देखकर मैंने सोचा यह इसके लिए अच्छा नहीं है। लेकिन मैं उसकी इस बात से पूरी तरह सहमत था कि उसमें एक अच्छी मॉडल बनने के पूरे गुण हैं। वह अभिनय भी अच्छा कर सकती है। 

वह पूजा-पाठ में भी बड़ा यक़ीन करती थी। बहुत गर्व से कहती थी कि “मैं जब अपने गाँव भोजपुर, सहारनपुर में थी तो महीने में एक बार शाकंभरी देवी मंदिर उनकी पूजा करने ज़रूर जाती थी। वहाँ देवी पार्वती साक्षात्‌ विराजमान हैं। मेरा शहर सहारनपुर उनके नाम पर ही है। इसे राजा शाह रणवीर ने सन तेरह सौ में बसाया था।”

उसे टोकते हुए मैंने पूछा था, “तुम्हारे अब्बू-अम्मी तुम्हें रोकते नहीं थे?” तो वह तपाक से बोली थी, “नहीं। उन सब की भी आस्था थी। अब्बू कहते थे कि उनके पड़-बाबा ब्राह्मण ही थे।”

वह जब भी मिलती, मैं उसकी हर बात को ध्यान से सुनता, उसके मनोभावों को समझने का प्रयास करता। जब मैंने उससे पूछा कि “क्या आपने अपनी कोई प्रोफ़ाइल बनवाई है?” 

उसने बड़े उत्साह के साथ कहा था, “जी हाँ, बनवाई है।”

मैंने कहा, “दिखाइए।”

तो उसने एक मोटा सा एल्बम मेरे सामने कर दिया। उसे देखते ही मैंने सोचा कि आज डिजिटल प्रोफ़ाइल के ज़माने में ये प्रोफ़ाइल के नाम पर यह मोटा सा एल्बम लिए घूम रही है। लेकिन मैं यह सब कहने से स्वयं को पूरी तरह बचाए रहा। जिससे उसे निराशा न हो। अपनी समझ से उसने एल्बम को ही शानदार प्रोफ़ाइल माना हुआ था। 

वह हतोत्साहित न हो, इसलिए मैंने उसे ध्यान से देखने का स्वाँग किया। उसके बाद कहा कि “देखिये प्रोफ़ाइल में मॉडल का पूरा परिचय, फ़िगर की पूरी डिटेल्स लिखी होती है। उसकी लंबाई, त्वचा का रंग, बाल, आँखों का रंग, ब्रेस्ट, वेस्ट, हिप्स के साइज़, शूज़ के नंबर, मॉडलिंग की किस फ़ील्ड को पसंद करती है, मतलब कि साड़ी, बिकिनी आदि। न्यूड शूट करेगी या नहीं, आउटडोर शूट पर जाएगी कि नहीं। फिर इसी के हिसाब से अलग-अलग ड्रेस में और न्यूड मॉडलिंग भी करनी है, तो उसी के अनुसार फोटो लगानी होती है। 

“और अब ब्रोमाइड एल्बम नहीं, डिजिटल प्रोफ़ाइल का ज़माना है, टेबलेट में यह सब होता है। वीडियो प्रोफ़ाइल भी उसी में रहती है। उसी में अलग-अलग भाव-भंगिमाओं को व्यक्त करती हुई पाँच-पाँच, दस-दस सेकेण्ड की वीडियो क्लिपिंग्स होती हैं। जिससे कि मिनटों में ही किसी के सामने विस्तार से अपने बारे में बताया जा सके। ऐसे ही यदि कोई एक्सपीरियंस है, तो उसकी डिटेल्स भी उसमें होती हैं।” 

यह सुनकर वह बड़ी चिंता में पड़ गई थी कि पचीस हज़ार रुपये ख़र्च करके इतने ढेर सारे कपड़े ले आई थी। इससे भी कहीं ज़्यादा पैसे फोटोग्रॉफर ले गया था। इतना सारा पैसा, समय, मेहनत सब कुछ बेकार हुआ। उसे परेशान देखकर मैंने कहा, “आप चिंता न करिए, अब तो आपको मालूम हो गया है कि कैसे क्या करना है, उसी हिसाब से आगे बढ़िए।”

उसके कहने पर मैंने यह काम करने वाली कुछ कंपनियों के कॉन्टेक्ट नंबर दे दिए। लेकिन अगले ही दिन वह फिर आ धमकी। आते ही बड़े अधिकार के साथ बोली, “मैं अब कहीं नहीं जाऊँगी। जो करना है, आप ही करिए।”

मैंने पूछा, “क्यों, क्या हुआ?” 

उसने थोड़ा शिकायती लहले में कहा, “आपने जिन कंपनियों के कॉन्टेक्ट नंबर दिए थे, मैंने सभी को कॉल किया। वे कम्प्लीट प्रोफ़ाइल के लिए पाँच-से छह लाख रुपए माँग रहे हैं। एक से बारगेनिंग करने की कोशिश की तो उसने बड़ी बदतमीज़ी से कहा, ‘आप प्रोफ़ाइल बनवाने चली हैं या सब्ज़ी ख़रीदने।’”

यह कहते हुए उसने बैग से मोबाइल निकाल कर किसी को कॉल कर दिया, उधर कॉल रिसीव होते ही मोबाइल मुझे देते हुए कहा, “लीजिए बात कीजिए।”

मोबाइल लेते हुए मैंने सोचा कि अब यह नया तमाशा क्या है। लाइन पर मेरे परम मित्र वीर थे। ऐसे मित्र जिनसे तीस बरसों से दाँत-काटी रोटी वाली मित्रता है। हम-दोनों मित्र एक दूसरे के लिए जो कुछ सम्भव हो सकता है, वह सब-कुछ करने को सदैव तत्पर रहते हैं। मित्र ने कहा, “यार गुलनिशां की प्रॉब्लम तुम्हीं सॉल्व करो। कैसे करोगे, क्या करोगे यह तुम जानों, प्रॉब्लम सॉल्व होनी है, यह मैं जानता हूँ।”

मैंने मित्र से कहा, “तुम निश्चिंत रहो, मैं देख लूँगा।” 

मैंने बात पूरी कर मोबाइल उसे देते हुए कहा, “आपने पहले क्यों नहीं बताया कि वीर ने ही भेजा है। आप इतने बरसों से वीर के साथ आ जा रही हैं, लेकिन उसके सामने एक बार भी बात नहीं की तो मैंने सोचा कि आप उसको बताए बिना इस फ़ील्ड में जा रही हैं, इसलिए मैंने कोई पहल नहीं की।”

“सॉरी, असल में उन्होंने आपके बारे में बताते हुए कहा था कि अगर मेरा नाम ले लोगी तो वह पैसे नहीं लेंगे। और क्योंकि यह उनका प्रोफ़ेशन है, इसलिए उन्हें पूरा पेमेंट न सही, मार्केट रेट से कुछ कम भले ही, पेमेंट ज़रूर करना है।”

मुझे वीर की नादानी पर हँसी आ गई। मैंने कहा, “बाद में तो पता चलता ही कि वीर ने भेजा है। पता चलते ही मैं पैसे वापस कर देता। क्योंकि हमारे और वीर के बीच दो बातें हैं जो हमें तीस साल से मित्र बनाए हुए हैं, पहली परस्पर सहयोग और दूसरी परस्पर विश्वास। हमारे बीच जिस दिन तीसरी कोई चीज़ आएगी, मित्रता ख़त्म हो जाएगी। इतने समय से बनी हमारी मित्रता अमूल्य है, जिसे मैं किसी भी मूल्य पर खोना नहीं चाहूँगा।”

यह सुनकर उसने कहा, “फिर भी आपको फ़ीस के रूप में न सही, एक गिफ़्ट के रूप में ही सही, एक हैंडसम अमाउंट लेना ही होगा, इससे मुझे बहुत ख़ुशी होगी।”

एज में मुझसे क़रीब पंद्रह साल छोटी होकर, उसने ऐसी बात कही तो मुझे अच्छा नहीं लगा। लेकिन मैंने बात को सँभालते हुए कहा, “इसका भी प्रश्न ही नहीं उठता। उससे बात करवा कर आपने फ़ीस पहले ही उड़ा दी, अब हैंडसम अमाउंट देकर हमारी अमूल्य दोस्ती क्यों उड़ा देना चाहती हैं,” इतना कहकर मैं हल्के से हँस दिया था। 

तो वह थोड़ा झेंपती हुई बोली थी, “ठीक है, मैं सब आपके ऊपर छोड़ती हूँ। आप जो ठीक समझियेगा, करियेगा। मैं बस काम जल्दी पूरा करना चाहती हूँ।”

क्योंकि यह सब करना मेरा प्रोफेशन है, इसलिए यह मेरे लिए ‘एक और काम’ भर था और कुछ नहीं। मगर कुछ दूसरी तरह की समस्याएँ मेरे सामने थीं। पहली यह कि मार्केट में बहुत से नए खिलाड़ियों के आ जाने के कारण काफ़ी टफ कॉम्पिटिशन फ़ेस कर रहा था। बिज़नेस में साल भर में काफ़ी कमी आ गई थी। 

मार्केट में बने रहने के लिए ऑफ़िस, स्टुडियो को रेनोवेट करवाने, लेटेस्ट इंस्ट्रूमेंट आदि पर काफ़ी ख़र्च कर चुका था। कई महीने से बस किसी तरह ख़र्च निकल रहा था। स्टॉफ़ को किसी तरह पेमेंट दे पा रहा था। इनकी प्रोफ़ाइल मुझे अच्छी से अच्छी बनानी थी, अपना सारा ज्ञान, सारी क्षमता उड़ेल देनी थी। 

क्योंकि वास्तव में काम तो मेरे मित्र का था। काम कई दिन में पूरा होना था। मेकअप, ड्रेस, कैमरा टीम को तो पेमेंट करनी ही करनी थी। यह सारे लंबे-चौड़े ख़र्चे थे। समस्या यह भी थी कि इस बीच कोई दूसरा काम आया तो वह नहीं कर पाऊँगा, क्योंकि हम सबके सब तो इनके साथ बिज़ी रहेंगे। 

मेरी हालत बिल्कुल वह क्या कहते हैं कि साँप-छछूँदर की हो रही थी। वह सामने बैठी कोल्ड-ड्रिंक पी रही थी। उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वह अब बिल्कुल निश्चिंत हो गई है कि अब वह सही जगह पहुँची है। उसके काम पर फ़ोकस होगा। 

लेकिन मैं यही सोचता रहा कि रास्ता क्या निकाल सकता हूँ। कोल्ड ड्रिंक ख़त्म होते-होते मुझे यह भी बताना था कि काम कब से शुरू करूँगा। वह सब-कुछ जल्दी से जल्दी पूरा करना चाहती थी। 

उसे मैंने तैयार तीन-चार प्रोफ़ाइल की टेबलेट दे दी थी। वह वही देखने में व्यस्त थी। जिस भी एंगल से मैं सोचता, मुझे हर एंगिल से यही जवाब मिलता कि एक ही रास्ता है कि ए-टू-ज़ेड सारा काम मैं ख़ुद ही करूँ, इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। आख़िर मैंने इसी रास्ते पर चलना फ़ाइनल किया। 

साथ ही वीर के प्रश्न-प्रतिप्रश्न करने पर क्या उत्तर दूँगा वह भी ढूँढ़ लिया था, कि देखो भाई, घर का मामला है। नेकेड फोटो-शूट भी होना है। ऐसे में मैं यह नहीं चाहता कि कोई थर्ड-पर्सन भी वहाँ रहे। तुम रहना चाहो तो रहो। 

उसके लिए मैंने ऐसा इसलिए सोचा, क्योंकि वीर के साथ उसका जो रिलेशन बीते कई वर्षों से चला आ रहा था, उसे कुल मिलाकर लिव-इन-रिलेशन कह सकते हैं। अपने इस रिश्ते को वह छुपाए रखना चाहते थे, लेकिन दुनिया है कि कहीं ना कहीं से ताक-झाँक कर ही लेती है। दुनिया ने जब झाँक लिया तो उन्होंने छिपने का प्रयास बिलकुल बंद कर दिया था। बिंदास हो दुनिया के सामने आ गए थे। उनकी आँखों में आँखें डाल कर अपने रिश्ते की चर्चा करते थे। 

एक और बात कि हैश-टैग मी टू मूवमेंट के चलते जिस तरह पूरी दुनिया सहित भारत में भी बहुतों की हालत ख़राब हुई है, उससे मैं और भी ज़्यादा सतर्क रहता हूँ। क्योंकि मामला आख़िर महिलाओं के फोटो-शूट का होता है। यह नेकेड हो तो और भी संवेदनशील है। 

सतर्कता मेरी तब और बढ़ गई, जब ऐसे भी कई मामले सामने आये कि व्यक्तिगत लाभ उठाने या कोई खुन्नस निकालने के लिए झूठे आरोप जड़ दिए गए। वह भी दसियों साल बाद। सोने पे सुहागा एक क़ानून कि महिला की शिकायत पर ही गिरफ़्तारी। 

उसकी बातचीत, व्यवहार से मैं उसे बहुत स्थिर स्वभाव का नहीं हो पा रहा था। मन के किसी कोने में यह भय अंकुरित हो गया कि इसका यह अस्थिर स्वभाव, इसके मन का काम न होने पर, इसे मेरे ख़िलाफ़ भी खड़ा कर सकता है। ज़रा सा मन का न होने पर यह क्षण-भर में आवेश में आ जाती है। 

 कोई आश्चर्य नहीं कि मूड बिगड़ने पर यह वीर की बात को भी ठुकरा कर मुझे कटघरे में खड़ा कर दे। ऐसे तो इतने बरसों में मेरी जो इमेज बनी है लोगों के बीच, लोग आँख मूँदकर विश्वास करते हैं मुझ पर, उसे यह अपने एक झूठे आरोप से ही मिट्टी में मिला देगी, इसमें ज़रा भी देर नहीं लगेगी। मेरा पारिवारिक जीवन चुटकियों में मिट्टी में मिल जाएगा। बच्चे बड़े हो चुके हैं, कहेंगे फ़ादर इस उम्र में इतनी लफंगई कर रहे हैं। 

आख़िर मैंने रास्ता निकाला कि यह पूरे शूट के दौरान परिवार के किसी एक सदस्य को अपने साथ ज़रूर रखेंगी। यही सोच कर मैंने कई और बातें करते हुए पूछा कि “आपके परिवार के लोगों को यह मालूम है कि आप मॉडलिंग के लिए भी एफ़र्ट कर रही हैं। 

“वह भी पूरा फ़ोकस न्यूड फोटोज़ के ज़रिए इंटरनेशनल मैग्ज़ींस तक पहुँच कर, दुनिया में फ़ेमस होने पर है। ढेर सारा पैसा कमाना चाहती हैं। फ़र्स्ट स्टेप में प्रोफ़ाइल के लिए ही नेकेड शूट होना है। आपको सभी लोग सपोर्ट कर रहे हैं?”

मेरी इन बातों का उसने बहुत ही स्पष्टता के साथ जवाब दिया। अपने परिवार के प्रति पूरी लापरवाही दिखाती हुई बोली थी, “मुझे किसी भी काम में, किसी का भी सपोर्ट कभी नहीं मिलता, सभी विरोध करते हैं बस। वैसे भी मुझे किसी के सपोर्ट की आवश्यकता भी नहीं है। मैं बड़ी हूँ, अपनी लाइफ़ के लिए सेल्फ़ डिसीज़न लेने का राइट रखती हूँ।” 

यह कहते हुए उसकी आवाज़, तेवर में जैसा आरोह-अवरोह था, उसने मुझे इस प्रकरण के चलते परिवार के प्रति उसके मन में एक तीखी तपिश का एहसास करा दिया था। 

फ़ादर के अचानक एक्सपायर होने की वजह से वह उनकी जगह नौकरी कर रही थी। क्योंकि माँ, छोटे भाई-बहन इस योग्य नहीं थे कि सरकारी नियमों को पूरा करते हुए नौकरी कर पाते। उसने ईमानदारी से नौकरी करते हुए पिता की ही तरह पूरे परिवार को सँभाला हुआ था। 

समाज में दुनियादारी आदि निभाने में भी बड़ी व्यवहार-कुशल थी। फ़ादर की प्रतिष्ठा को पहले की ही तरह बनाए हुए थी। लेकिन माँ इस बेटी से सख़्त नाराज़ रहती, क्योंकि सारा वेतन मनमर्ज़ी से ख़र्च कर पाने की स्वतंत्रता उसे बेटी ने नहीं दी थी। 

इसे वह बेटी द्वारा उनके अधिकारों में अनुचित हस्तक्षेप मानती थीं। बेटी पूरी सैलरी माँ के हाथों में इसलिए नहीं देती थी, क्योंकि वह स्वभाव से बेहद ख़र्चीली, बच्चों के भविष्य के प्रति पूरी तरह से लापरवाह, बस घूमना-फिरना ही पसंद करती थीं। 

नाराज़गी के चलते कभी-कभार कुछ दिन बच्चों के साथ रहने के अलावा बाक़ी समय गाँव में ही व्यतीत करती थीं। अपने बच्चों को एक तरह से लावारिस छोड़ दिया था। लेकिन इसने अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए, अकेले अपने ही दम पर सारी व्यवस्था करके, अपनी छोटी बहन की शादी भी कर दी थी। फिर भी माँ की भृकुटि पूर्ववत तनी ही रहती थी। 

बड़े होने पर भाई-बहन, पिता की नौकरी है, इस बिना पर वेतन में बराबर का हिस्सा माँगने लगे। सभी की अनुचित माँगों, व्यर्थ के व्यय पर उसने अंकुश लगाने का प्रयास किया, तो पूरे परिवार ने उसे बहिष्कृत की श्रेणी में डाल दिया था। 

मैंने ध्यान दिया कि उसने यह सारी बातें बिना संकोच के कहकर, जल्दी ही समाप्त भी कर दी। साफ़-साफ़ यह संकेत देती हुई कि वह पूर्णतः स्वतंत्र है, कुछ भी कर सकती है, किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं है, और न ही परिवार में कोई भी सदस्य उसे रोक सकता है। अव्वल तो कोई भी उससे वास्ता ही नहीं रखता। 

उसने अपनी बातों से मुझे ऐसी अनिर्णय की स्थिति में डाल दिया था कि मेरा सिर भन्नाने लगा था। काम करूँगा या नहीं, करूँगा, तो कब करूँगा यह भी उसी समय बताना था। ज़्यादा क्या थोड़ा भी टालने पर वीर नाराज़ हो सकता था।

मामला बेहद गंभीर था, क्योंकि आख़िर वह उसकी . . . अंततः मैंने उससे दो दिन बाद काम शुरू करने के लिए कह दिया। उससे यह भी कह दिया कि काम संडे या छुट्टी के दिन ही करूँगा। 

“आप दिन-भर ऑफ़िस के बाद जो काम करना चाह रही हैं, वह नहीं हो पाएगा। क्योंकि दिन-भर ऑफ़िस में काम करने के बाद, आपके चेहरे पर फ़्रेशनेस नहीं रहेगी। सारी फोटो ख़राब हो जाएँगी।” बता यह भी दिया कि “मैं ही वन-मैन-आर्मी की तरह सब कुछ अकेले ही करूँगा। आप पूरी कोशिश करिएगा कि आपके साथ कोई हो तो अच्छा है।”

काम के लिए हाँ करने पर उसके चेहरे पर ख़ुशी चमकने लगी, लेकिन दो दिन बाद संडे को शुरू होगा, इससे उसके चेहरे पर थोड़ी मायूसी भी आ गई। संडे से पहले मैंने वीर से भी बात की। उस पर प्रेशर डालते हुए कहा कि “शूट के समय तुम ज़रूर रहो।”

वीर ने कहा, “तुमने तो बहुत मुश्किल में डाल दिया। देखो शूट शुरू होने पर मैं एक-दो घंटे रहूँगा बस, क्योंकि मकान बन रहा है, वह भी देखना है।”

संडे को वह मेरे बताए टाइम पर ठीक ग्यारह बजे आ गई थी। मैंने उससे कहा था कि शूट के पर्पज़ से जितनी भी ड्रेस, अन्य जो भी चीज़ें ख़रीदी हैं, वह भी साथ लेती आइयेगा। वह नए सिरे से कपड़ों, सामान की लिस्ट नोट करना चाहती थी, जिससे कि आने से पहले सारा सामान ख़रीद ले। 

लेकिन मैंने यह सोचकर मना कर दिया था कि पहले जो ले चुकी है उसे देख लूँ, अगर काम चल जाए तो यह क्यों बेवजह पैसे बर्बाद करे। उसकी बातों से मेरा यही अनुमान था कि वह बहुत सारे कपड़े ख़रीद चुकी है। 

मेरा अनुमान सही था। वह दो बैग भरकर ड्रेस ले आई थी। ड्रेस के अलावा ढेर सारी आर्टिफ़िशियल ज्वेलरी थी। उन्हें देखकर साफ़ पता चल रहा था कि अनजान होने के कारण उसने बहुत सा पैसा बेवजह ही बर्बाद किया है। सारा सामान बता रहा था कि लफाड़ियों ने उसे लूटने, बेवक़ूफ़ बनाने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं छोड़ी थी। 

शूट शुरू होने से पहले उसका मेकअप करना था। मैंने पहले जितना बताया था, उस हिसाब से वह फुल बॉडी वैक्सिंग, फ़ेशियल वग़ैरह करवा कर आई थी। मगर बॉडी लोशन ट्रीटमेंट नहीं लिया था। जिससे वैक्सिंग के कारण पूरे शरीर में सफ़ेदी चमक रही थी। 

मैंने यह भी जान लेना उचित समझा कि पहले इसने जो शूट करवाए थे, उसमें बॉडी लोशन यूज़ हुआ था या नहीं, किसने और कैसे लगाया था। उसने कहा, “हर बार मेकअप मैन ने किया। एक बार स्वयं किया तो उसने कहा, ‘लगता है जैसे तेल से नहा लिया है।’ 

“फिर गीले कपड़े से उसने पूरे बदन को रगड़-रगड़ कर साफ़ किया। जिससे फोटो में जगह-जगह अजीब से रेड स्पॉट से नज़र आने लगे थे। उसके बाद मैंने कभी अपने आप कुछ नहीं किया।”

सारी बातें एकदम क्लियर थीं, लेकिन मैं कोई रिस्क लेना नहीं चाह रहा था। इसलिए बिहाइंड-द-शूट यानी पूरे कामों की रिकॉर्डिंग के लिए कैमरा ऑन कर दिया था। यह बात वह दोनों नहीं जान सके। 

पूरा मेकअप करने के दौरान मुझे कुछ और चीज़ें भी दिखीं तो मैंने उससे उन कमियों के बारे में बताते हुए कहा, “इसे आप अगले संडे को करके आइयेगा। इसकी वजह से आज टू-पीस या किसी ड्रेस में ही वीडियो बनाएँगे या फोटो खीचेंगे। आज नेकेड शूट नहीं हो सकेगा।”

यह कहते हुए मैंने सोचा था कि देखूँ, यह इस एकदम पर्सनल बात पर क्या फ़ील करती है। इसके चेहरे पर कोई शर्म-संकोच के भाव आते हैं कि नहीं। लेकिन अपने उद्देश्य, काम के प्रति उसके समर्पण, हिम्मत, उसकी बड़ी, बोल्ड एक्ट्रेसेस की बोल्डनेस को भी पीछे छोड़ने वाली बोल्डनेस ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया था। 

उसके चेहरे पर उतनी पर्सनल बात के बावजूद भी कोई भाव आए गए ही नहीं। ऐसे एकदम सामान्य बनी रही जैसे कि मैंने कोई पर्सनल न कहकर, यूँ ही कुछ बेहद सामान्य सी बात कह दी है। उसके इस व्यवहार से मुझ पर बहुत बड़ा प्रेशर पड़ गया कि मुझे उसके शूट के लिए अपना सारा अनुभव, अपनी सारी प्रतिभा उड़ेल देनी पड़ेगी, तभी मैं इसके साथ न्याय कर पाऊँगा। 

उसका हर बिंदु पर बेलौस बेबाकी से बोलना, अपनी बात कह देना, मुझे उसका यह व्यवहार बहुत अच्छा लगा था। मुझे यह विश्वास हो गया कि यह बहुत साफ़ हृदय की स्ट्रेट-फ़ॉरवर्ड बोल देने वाली लड़की है, इसके मन में कोई छल-प्रपंच नहीं है। हालाँकि इससे पहले वह मुझसे बात-चीत में इतनी ओपन नहीं थी। 

जब मैं मेकअप के समय उसे हर जगह टच कर रहा था, सबसे कोमल, अहम हिस्सों को भी तो वहीं बैठे मित्र वीर ने एक अश्लील मज़ाक कर दिया। मैं कुछ बोलूँ उसके पहले ही वहाँ बिजली सी कौंध गई। 

उसने कहा, “ऐसा है, छबीस-सत्ताईस की हो रही हूँ। बहुत दुनिया देख ली है। आदमी की आँखों, उसके टच से ही जान जाती हूँ, कि उसके मन में क्या चल रहा है।”

इतना कहकर वह खिलखिला कर हँस दी थी। वीर पानी-पानी हो गया था। अपनी खिसियाहट को छिपाने का प्रयास करते हुए उसने उससे पूछा, “अच्छा बताओ, हम-दोनों के मन में क्या चल रहा है?” 

उसने बिना एक सेकेण्ड गँवाए छूटते ही कहा था, “तुम्हारे मन में वही चल रहा है, जो मिलते ही हमेशा करते हो। और इस समय सर को लेकर भयंकर ईर्ष्यालु हो रहे हो।” एक बार फिर हँसी गूँज गई। वीर एक बार फिर खिसियाई हँसी हँसकर रह गए। कुछ और बोलने की हिम्मत नहीं कर सके। 

लेकिन वह अपनी बात पूरी किए बिना चुप होने को तैयार नहीं हुई थी। उसने मेरे लिए कहा, “और सर के दिमाग़ में केवल काम चल रहा है। पहले के कई शूट में बहुत कुछ समझ चुकी हूँ, समझे। चाहो तो पूछ लो सर से।” 

यह कहकर वह मेरी तरफ़ देखने लगी तो मैंने कहा, “मित्रवर ये ठीक कह रही हैं। मुझे काम के समय मॉडल इंसान नहीं, सिर्फ़ एक ऑब्जेक्ट के रूप में दिखता है। उस ऑब्जेक्ट को तराश कर, उसे सुंदरतम रूप में कैसे कैमरे में क़ैद कर सकूँ, इसके अलावा मेरे दिमाग़ में कुछ नहीं रहता, मेरी आँखों को इसके अलावा कुछ और नहीं दिखता। मैं अपने काम को ईमानदारी की अंतिम सीमा तक ईमानदार होकर करता हूँ। इसीलिए मेरी कंपनी की मार्केट में एक अलग इमेज है।”

यह सुनकर वीर ने कहा, “हाँ, तुम्हारी यह बात तो मैं हमेशा से सही मानता रहा हूँ। इसीलिए पहले की तरह ही फिर कहूँगा कि तुम्हारे काम के लिए यह शहर ठीक नहीं है। इस प्रोफ़ेशन में आगे बढ़ने के लिए तुम्हें दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु आदि जैसे शहरों में जाना चाहिए।”

वीर मज़ाक के मूड से बाहर आते हुए बोला, तो मैंने कहा, “तुम्हारी बात बिल्कुल ठीक है भाई, लेकिन मैं अपनी आदत भी जानता हूँ, उसके हिसाब से मुझे प्रभु लक्ष्मण की नगरी लखनऊ के सिवा दूसरा शहर अपने लिए ठीक नहीं दिखाई देता।”

वीर क़रीब एक घंटे बाद चला गया था। जाते-जाते बोला, “तुम दोनों लोग अपना-अपना काम कर रहे हो, मैं बेवक़ूफ़ों की तरह बैठा हूँ, चाय-नाश्ते का भी कुछ पता नहीं, ऊपर से कभी लाइट तो कभी एयर-गन हैंडिल करो। इसलिए भैया मैं तो चला।”

यह कहते हुए वह चलने लगा तो मैंने कहा, “रुको, मैं कुछ मँगवाता हूँ।” लेकिन वो रुकने को तैयार नहीं हुआ। असल में उड़ते हुए कपड़े, बाल दिखाने के लिए कई बार एयर गन मैंने उसे ही पकड़ा दी थी। लाइट भी कई बार ऑन ऑफ़ करने को कहा था। वीर बार-बार यह सब कर-कर के ऊब गया था। दूसरे वह बातूनी आदमी और हम-दोनों चुपचाप अपने काम की बातें कर रहे थे, काम कर रहे थे। 

मैं यह जानता था कि वह बात ही नहीं, खाने-पीने के लिए भी उतावला रहता है। मुझे यह ध्यान रखते हुए, पहले ही उसके पसंद की कोई चीज़ ढेर सी मँगवानी चाहिए थी, लेकिन हम अपने काम में ही जुटे हुए थे। मुझे विश्वास था कि वह कुछ ही देर में लौटेगा, खाने-पीने की चीज़ें लेकर। वह सच में डेढ़ घंटे के बाद कुलचे-आलू, चाय, फ्रूट जूस की एक बोतल लिए हुए आया था। 

सारा सामान एक टेबल पर रखता हुआ बोला था, “देखो यार मुझे लगी थी भूख, इसलिए मैं तो खा-पी कर आया हूँ। ध्यान मैंने तुम दोनों का भी रखा है, तो पहले गरमा-गरम लंच कर लो, फिर काम करना। खाने के बाद आलस्य नहीं आए, इसलिए ख़ाली दूध में बनी चाय भी ले आया हूँ। बाद में जब मन हो तो जूस लेते रहना।”

भूख हम-दोनों को भी लगी थी। गुलनिशां को मैंने खाना खाकर आने से मना किया था। क्योंकि मेरे हिसाब से उसकी टमी ज़्यादा थी, खाने के बाद वो और ज़्यादा दिखती। तो उसे भूख मुझसे ज़्यादा लगी थी। मैंने कुछ देर और काम करने के बाद थोड़ा-सा ही खाया, उसे भी थोड़ा-सा ही खाने दिया। 

खाना देखते ही वह वीर से चहकती हुई बोली थी, “अरे वाह, तुमने यह बहुत अच्छा किया।”

उसका वश चलता तो वह भरपेट खा लेती। लेकिन उसने मेरी बात का पूरा ध्यान रखा, एक कुलचा खाकर थोड़ा-सा पानी पिया और जल्दी से थोड़ी-सी चाय भी, जिससे कि फ़्रेश बनी रहे। वीर हमारे साथ चाय पीने के बाद तुरंत चला गया था। 

उस दिन हमने शाम को सात बजे तक काम किया था। मैंने देखा लगातार आठ घंटे काम करने के बाद, गुल के चेहरे पर थकान साफ़ दिख रही थी। मैं कुछ और घंटे काम करना चाहता था, लेकिन उसके चेहरे की थकान से सारी फोटो ख़राब होती, इसलिए मैंने पैकअप किया। 

इस दौरान मैंने महसूस किया कि नौकरी करते-करते वह काफ़ी प्रोफ़ेशनल स्वभाव की हो गई थी। आलस्य आते ही वह मुँह-हाथ धो कर आ जाती थी। आधा कप फ्रूट जूस मुझे देती और ख़ुद भी लेती। हालाँकि इससे मेरा काम थोड़ा बढ़ जाता था। चेहरे, हाथों के मेकअप को फिर से ठीक करना पड़ता था। 

सात बजे उसे लेने के लिए वीर आ गया था। जाते-जाते गुलनिशां ने कई बार धन्यवाद कहा। साथ ही बहुत ज़ोर देकर यह भी कि “काश आपसे शुरू में ही मिलती तो अब-तक अपना टारगेट अचीव कर लेती। आपसे पहले जो लोग भी मिले, उन्हें तो कुछ मालूम ही नहीं था। मुझे बस एक्सप्लॉएट करते रहे।”

उसने वीर की तरफ़ संकेत करते हुए यह भी कहा कि “एक बार तो मैं बिल्कुल तबाही के कगार पर पहुँच गई थी, मगर इन्होंने किसी फ़रिश्ते की तरह आकर बचा लिया था।”

उसकी बात पर वीर ने संकुचाते हुए एक हाथ से उसे अपने और क़रीब खींच लिया, और कहा, “बस-बस, अब चलो भी। ग़लती मेरी ही थी कि बेवजह के संकोच में तुम्हें शुरू में ही लेकर यहाँ नहीं आया।”

उन दोनों के जाने के बाद, मैं उनकी म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग और अपने ऊपर उनके अटूट विश्वास के बारे में बहुत देर तक सोचता हुआ घर पहुँचा। कई बार मन ही मन कहा, जो भी हो जाए मुझे इनके विश्वास को और सुदृढ़ करना ही होगा। 

उस रात मैंने पूरा एक प्लान डायरी में नोट किया। मैंने तय कि इसे मॉडलिंग के कई फ़ील्ड में एक-साथ आगे बढ़ाऊँगा, केवल एक-दो मैग्ज़ींस के सहारे आगे बढ़ना ठीक नहीं। 

अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाएँ हैं। यह सोच कर बैठना बड़ी ग़लती होगी कि जैसा गुलनिशां सोच रही है, वैसा हो ही जाएगा। मैंने सबसे पहली योजना न्यूड फोटो के लिए तय की, कि उसके सारे पोज़ भारतीय शास्त्रीय एवं लोक-नृत्यों की विभिन्न भाव-भंगिमाओं पर आधारित होंगे। 

वह जिस मैग्ज़ीन की बात कर रही है, उसमें या वैसी किसी अन्य मैग्ज़ींस में जैसे पोज़, फोटुओं का चलन है, उस पैटर्न पर चलने का मतलब है कि फोटो में कुछ भी नयापन लाना बहुत ही मुश्किल है। वह भी ऐसा कि इन मैग्ज़ींस के एडिटर प्रभावित हो सकें। यह बहुत ही कठिन काम होगा। 

मैंने प्रोफ़ाइल के लिए भी अलग-अलग थीम आधारित फोटो लेना, वीडियो क्लिपिंग्स बनाना तय किया। इसके अलावा यह भी कि मॉडलिंग की चुनिंदा वेब-साइट्स पर भी इसे रजिस्टर करके, इसकी प्रोफ़ाइल अपलोड कर दूँगा। इसके अलावा इसका सोशल मीडिया फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, टि्वटर अकाउंट भी होगा, जिससे इसको ज़्यादा से ज़्यादा पब्लिसिटी मिल सके, इसका आगे बढ़ना सुनिश्चित हो सके। 

योजना को अंतिम रूप देने के बाद मन में दो प्रश्न एकदम से उठ खड़े हुए, पहला यह कि क्या गुलनिशां मेरी योजना के हिसाब से काम करने को तैयार होगी? दूसरा प्रश्न मानवीय स्वभाव स्वार्थ के कारण यह पैदा हुआ कि भाई पहले भी कई मॉडल काम करा कर गई हैं, क‍इयों ने पूरी फ़ीस भी नहीं दी। 

कुछ को काफ़ी सक्सेस भी मिल गई, लेकिन उन्होंने पलट कर देखा तक नहीं। और फिर भी आप इतने महान हैं कि इनसे एक भी पैसा नहीं लेने का प्रण किए हुए हैं। वह क्या है कि मित्रता निभा रहे हैं। 

अपना समय, मशीनरी सब यूज़ कर रहे हैं। उसके लिए पहली बार मेकअप, ड्रेस-मैन से लेकर लाइट-मैन, हेल्पर तक बन गए हैं। दुनिया का जो ट्रेंड चल रहा है, उसे देखते हुए यह आश्चर्य नहीं कि काम निकलने के बाद गुलनिशां भी पलट कर न देखे। फिर आप क्या करेंगे? 

इन प्रश्नों का क्या उत्तर दूँ, यह भी हो सकता है, वह भी सकता है, इस उलझन में पड़ने के बजाय मैं यह सोच कर सो गया कि जो भी होगा अगले संडे को देखा जाएगा। 

संडे को फ़िक्स टाइम दस बजे दोनों लोग आ गए थे। गुलनिशां चाय-नाश्ते का काफ़ी सामान लेकर आई थी। जिसकी मैं कोई ज़रूरत नहीं समझ रहा था। मैंने कहा तो वह बोली, “देर तक काम करना है, इसलिए मैंने सोचा कि लेती चलूँ।”

बिना समय बर्बाद किए मैंने दोनों के सामने अपनी योजना रखी तो वह उन्हें बहुत पसंद आई। गुलनिशां तो ख़ुशी के मारे उछल ही पड़ी थी। उसने वीर से शिकायती लहजे में कहा, “तुमने सर की इस एक्सपर्टीज़ के बारे में पहले क्यों नहीं बताया था कि सर केवल प्रोफ़ाइल ही नहीं बनाते, बल्कि मॉडल्स को आगे बढ़ने के लिए हेल्प भी करते हैं, उसके लिए रास्ते भी बनाते हैं। सोचो अब-तक कितना काम हो गया होता।”

वीर ने कहा, “मैं क्या बताता, पहले तुम खुलकर कुछ बताती नहीं थी। कभी कुछ, तो कभी कुछ कहती रहती थी। कभी समाज सेवा, पेट्स, पर्यावरण के लिए काम करना है, तो कभी राजनीति करनी है। जब तुमने मॉडलिंग के लिए पूछा, तो मैंने सोचा कि पहले कुछ फ़ाइनल हो जाए तो देखूँ।”

“ठीक है, अब फ़ाइनल हो गया है, अब देखिए,” यह कहते हुए उसने वीर की बाँह पर एक मुक्का जड़ दिया। 

वीर की बातों ने गुलनिशां के बारे में, मन में एक बार फिर संशय पैदा कर दिया कि यदि यह इतनी जल्दी-जल्दी ट्रैक बदलती है, एक बात पर दृढ़ नहीं रहती है, तो इस बात से कैसे निश्चिंत हुआ जाए कि यह अपनी आदत के विपरीत मॉडलिंग के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ रहेगी। 

ऐसा न हो कि अचानक ही यह ट्रैक बदलकर चार क़दम आगे, दो क़दम पीछे करके मेरे समय, मेहनत पर पानी फेर दे। मैं कोई फ़ीस तो ले नहीं रहा हूँ, कि मुझे फ़ीस मिल गई, बाक़ी उसका काम जाने, मॉडलिंग करें या सोशल-वर्क। मुझे क्या लेना-देना। 

पिछली बार की तरह वीर उसे छोड़कर फिर चला गया। मन में चल रहे संशय के अंधड़ के साथ मैं कैमरा, बैक-ड्रॉप, लाइट्स आदि अरेंज करने लगा। गुलनिशां भी बिना कहे मेरी हेल्प कर रही थी। आज नेकेड फोटो-शूट होना है, उसे यह मालूम ही था। 

अपनी योजनानुसार मैंने भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैली भरत-नाट्यम, कुचिपुड़ी, कथकली, के साथ-साथ कोली, पनिहारी, घूमर, कालबेलिया, तेरहताली सहित कई लोक-नृत्यों की भी विभिन्न मुद्राओं में सैकड़ों फोटो अपलोड कर लीं थीं। 

लैप-टॉप में उसे कुछ फोटो दिखा कर मैंने कहा, “तुम्हें ऐसे ही पोज़ देने हैं। जितनी जल्दी-जल्दी पोज़ देती जाओगी, काम उतना ही ज़्यादा होगा। पोज़ के साथ इनमें चेहरे पर जो भाव हैं, वह भी तुम्हें ध्यान में रखना है। यही भाव तुम्हें अपने चेहरे पर लाने हैं। 

एक तरह से तुम्हें अपनी एक्टिंग प्रतिभा का भी शत-प्रतिशत प्रदर्शन करना है। यह सारा काम तुम्हें पूरे कॉन्फ़िडेंस के साथ करना है। मैं सच कह रहा हूँ, तुममें बहुत टैलेंट है, यह सब आसानी से कर लोगी।”
मैं उसके कॉन्फ़िडेंस लेवल, उसके मूड, सभी-कुछ को अच्छे से अच्छा बनाए रखना चाहता था। मैं अपनी भी शत-प्रतिशत क्षमता का प्रयोग कर सकूँ, इसके लिए संशय के अंधड़ को भी एक झटके में निकाल कर उसी तरह बाहर किया, जैसे कोई जादूगर जादू से जिन्न को बोतल में बंद कर, उसे अपनी संदूकची में बंद कर देता है। सोचा मैं अपना काम अच्छे से अच्छा कर सकूँ, जो होगा देखा जाएगा। 

पहले भी कई जगह मन का काम नहीं हुआ, अगर यहाँ भी नहीं हुआ तो कोई बात नहीं। नेकेड फोटो-शूट न फोटोग्रॉफर के लिए आसान होता है, और न ही मॉडल के लिए। वेस्टर्न कंट्रीज़ में भी नहीं। एक पूरा माहौल, पूरा मूड दोनों को ही बनाना पड़ता है। अपने देश में, वह भी हिंदी बेल्ट के लखनऊ जैसे शहर में और भी ज़्यादा मुश्किल काम है। 

तो माहौल बनाने के लिए मैंने उससे थोड़ा सा मज़ाकिया लहजे में कहा, “हाँ, तो सुपर-मॉडल गुलनिशां जी, काम शुरू करने से पहले एक-एक कप चाय पी कर थोड़ा सा मूड बनाते हैं। वैसे इस दुनिया के सारे फोटोग्रॉफर और मॉडल मूड बनाने के लिए व्हिस्की लेते हैं, लेकिन हमारे लिए यह चाय भी किसी भी व्हिस्की से कम नहीं है।”
 
सच हो जाए। मैं सुपर-मॉडल बनकर जब चलूँ तो मेरा ऑटोग्रॉफ लेने वालों की भीड़ लग जाए, और मैं अपनी फोटो खींचने के लिए दौड़ रहे मीडिया वालों से कहूँ कि सारा क्रेडिट हमारे सर को है। आप लोग उनकी भी फोटो खींचिए।”

गुलनिशां मारे ख़ुशी के चहकती-बोलती हुई घर से लाई चाय डिस्पोज़ल कप में डालने लगी तो मैंने आधा कप ही निकालने को कहा। बिस्कुट भी एक ही लिया। उसने भी मुझे ही फ़ॉलो किया। सुपर-मॉडल सुनते ही वह एकदम जोश-उमंग से भर उठी थी। मैं उसमें वही चाहता था। 

मैं उसके कॉन्फ़िडेंस लेवल, उसके जोश को उस समय विशेष रूप से चेक करना चाहता था। किसी भी मॉडल के कॉन्फ़िडेंस डगमगाने का समय वह होता है, जब उसे अपने कपड़े निकालने होते हैं। 
 लेकिन गुलनिशां ने मुझे पहली बार की तरह ही थोड़ा आश्चर्य में डाल दिया था। उसमें कपड़े अलग करते समय मुझे पहले से भी कहीं ज़्यादा कॉन्फ़िडेंस दिखाई दिया। उसने पूरी सहजता, निश्चिंतता के साथ कपड़े अलग किए थे, बिल्कुल एक प्रोफ़ेशनल एक्सपीरिएंस्ड मॉडल की तरह। 

जब मैं उसके निर्वस्त्र शरीर पर आवश्यक मेकअप कर रहा था, तब यह भी समझने का प्रयास कर रहा था कि इसके अंग-प्रत्यंग को स्पर्श कर रहा हूँ, इससे कहीं यह असहज तो नहीं हो रही है। 

लेकिन उसने मेरे विश्वास को और मज़बूत किया। उसकी हर गतिविधि ऐसी लग रही थी, जैसे कि वह अपने निजी कक्ष में एकदम अकेली है, कोई उसे देख-सुन नहीं रहा है। जबकि पिछली बार की तरह इस बार वीर भी नहीं था। 

सारी तैयारी के बाद मैंने पहली फोटो नटराज की मुद्रा में ली थी। उसे यह पोज़ बनाने में थोड़ी मुश्किल हुई थी। उसे स्थिर खड़ा कर अलग-अलग कई कोणों से फोटो ली। इस पोज़ का काम ख़त्म होने के बाद जब मैंने उसे कैमरे में फोटो दिखाईं, तो वह देखती ही रह गई। बहुत ख़ुश होती हुई बोली थी, “रियली सर, आपने जादू कर दिया। यक़ीन ही नहीं हो रहा है कि यह मैं हूँ।”

वह फ़्रंट और थोड़ा सा साइड से लिए गए पोज़ पर फ़िदा थी। अगला पोज़ मैंने भरत-नाट्यम नृत्य से लिया। जिसमें वह दोनों हथेलियों को ठुड्डी की ऊँचाई तक लाकर अंगुलियों से कमल का फूल बनाने की भाव-भंगिमा प्रस्तुत कर रही थी। अपने नेत्रों को ख़ूब बड़ा करती हुई, भौंहों को ऊपर खींचती हुई। 

इस पोज़ में नख से लेकर शिख तक उसका अंग-प्रत्यंग खिल उठा था। बिल्कुल सुबह-सुबह खिले कमल ही की तरह। यह पोज़ भी दर्जनों एंगिल से कैमरे में क़ैद किया। लेकिन इसके बाद उसके पैर के पंजों में पेन किलर स्प्रे करना पड़ा, क्योंकि पोज़ देते समय उसे रशियन बैले नर्तकियों की तरह पंजों के एकदम अगले हिस्से के बल पर ही पर खड़ा होना पड़ा था। 

मैंने उसे बैठने के लिए कहकर अगले पोज़ की तैयारी शुरू की। इसमें कमर में झालर जैसी एक करधनी पहनाई। नेकलेस, झुमका, काजल, पायल, माँग बिंदी भी। नाभि के ऊपरी हिस्से में एडहेसिव से कान का एक बूँदा चिपका दिया था। 

इस मेकअप में मैंने कॉल-बेलिया नृत्य के पोज़ लिए। इसमें उस पोज़ में उसे बहुत परेशानी हुई थी, जिसमें हाथों को नृत्य के भाव बनाते हुए सिर से ऊपर कर, कमर के पास से पीछे झुकते जाते हैं। इतना पीछे जाते हैं कि पीछे सब देखा जा सके। वह बहुत मुश्किल से कई बार के प्रयास के बाद यह कर पाई थी। मैंने तमाम कोणों से बहुत सी तस्वीरें ली थीं। 
लेकिन इसी मेकअप में उसने एक बेहद सामान्य से पोज़ के लिए दस मिनट बर्बाद किए। इसमें उसे कैमरे की तरफ़ पीठ करके खड़ा होना था और मेरे यस कहते ही, पूरी तेज़ी से अपनी ही जगह पर घूम कर कैमरे की तरफ़ देखना था। 
ऐसा करने से उसके बदन पर पड़े सारे गहने हवा में उड़ते, उसी समय आधे सेकेण्ड से भी कम समय में मुझे क्लिक करना था। लेकिन जैसे ही गहने हवा उठते, वह करधनी को दोनों हाथों से पकड़ती हुई, हाथ सामने लगाकर, हँसती हुई बैठ जाती थी। 

उसकी इस हरकत ने मुझे मर्लिन मुनरो की याद दिला दी। ऐसे ही एक फोटो-शूट में वह हँसती खिलखिलाती हुई दोहरी हो जाती थीं। लेकिन उनकी बात कुछ और थी। वह विश्व-प्रसिद्ध स्टार थीं, और उससे बढ़कर उस समय कुछ नशे में भी थीं, और ख़ुद फोटोग्रॉफर भी। कहते हैं कि फिर दोनों बिस्तर में घुस गए। फोटो-शूट बाद में पूरा किया। लेकिन तब जो हुआ, वह लाजवाब था। मगर गुलनिशां, मैं ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकते थे। 

उस दिन हमने क़रीब नौ घंटे काम किया। वह थक कर चूर हो चुकी थी। मेरी तो ख़ैर बारह-चौदह घंटे काम करने की आदत ही थी। वीर जब उसे लेने आया तो वह भी थोड़ी देर बैठा था। 

उसने कैमरे में कुछ फोटो देखने के बाद कहा, “वाकई कमाल कर दिया तुम दोनों ने। इस तरह के पोज़, ऐसी फोटो तो वह मैग्ज़ींस वाले सोच ही नहीं पाएँगे। अब यह पक्का स्टार बन जाएगी। तुम इसे सुपर-स्टार बना कर ही मानोगे।” 

तीन-चार संडे के बाद काम दिखने लगा था। जो फोटो खींचता, बाद में उनमें से अच्छी-अच्छी अलग करता। उन्हें एडिट कर फ़िनिशिंग टच देता। काम काफ़ी टिपिकल था, और समय बहुत कम था। क्योंकि गुलनिशां को बहुत जल्दी थी। वह हथेली पर ही सरसों उगाना चाह रही थी। 

वह यह समझने को तैयार ही नहीं थी, कि वह इस तरह का फोटो-शूट पहली बार पेश कर रही है, उसकी अनुभवहीनता, और सब-कुछ मेरे अकेले ही करने से समय ज़्यादा लग रहा है। इन सबसे बड़ी बात यह कि आउटडोर शूटिंग अभी पूरी की पूरी बाक़ी थी। 

गुलनिशां के नैन-नक़्श, फ़िगर को पहली बार देखकर ही मेरे मन में यह बात आई थी कि इसका सौंदर्य प्रकृति सौंदर्य के साथ मिल कर ही अपनी पूर्णता प्राप्त कर पाएगा। यह आउट-डोर शूटिंग के बिना सम्भव नहीं है। केवल इन-डोर शूट से इसके सौंदर्य के साथ न्याय नहीं हो पाएगा। 

मगर यह और भी ज़्यादा कठिन था। क्योंकि एकदम बाहर खुले में फोटो खींचना, ऊपर से नेकेड! यह बिलकुल भी आसान नहीं था। अकेले यह काम करना ज़्यादा ख़तरनाक समझकर मैंने वीर को भी साथ लेना ज़रूरी समझा। मगर उसे दिन-भर के लिए साथ लेना, वह भी रविवार के दिन बेहद टेढ़ी खीर थी। 

मेरी आशंका के अनुरूप बात करने पर उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि “देखो, संडे को मेरे पास टाइम बिलकुल नहीं रहता है। गाँव, खेत-बाग़ सब देखने जाना पड़ता है। दूसरे मेरे लिए यह बड़ा बोरिंग काम है।”

मैंने कहा, “सुनो-सुनो पहले स्थिति को समझने की कोशिश करो। ड्रेस में फोटो खींचनी होती तो कोई बात ही नहीं थी। एक तो लेडी का मामला है, ऊपर से बिना ड्रेस, बहुत ही रिस्की है। फोटो भी ऐसी लेनी हैं, जिनमें समय लगेगा। 

“जैसे जब दूर क्षितिज पर सूरज उगने का संकेत देने लगेगा, तब हल्की-हल्की लालिमा से लेकर, उसके पूरा निकल आने तक, अलग-अलग लोकेशन पर। इसके अलावा ऐसे ही फिर दिन की दुपहरी और सूर्यास्त के समय भी फोटो लेनी हैं। यह सब मैं तुम्हारे ही गाँव में करूँगा, जिससे तुम्हें कहीं और न जाना पड़े।”

शूट उसके ही गाँव में होना है यह सुनकर वह और भी ज़्यादा पसोपेश में पड़ गया। आशंका व्यक्त करने लगा कि “तुम बात तो सही कह रहे हो, लेकिन भूल से भी किसी की नज़र पड़ गई, तो बड़ी फ़ज़ीहत हो जाएगी। बात फ़ादर तक पहुँची तो वह बड़ा बवाल कर देंगे।”

मैंने उसे समझाते हुए कहा, “यही तो मैं कह रहा हूँ तुमसे कि जब तुम्हारे गाँव में, तुम्हारे रहते तुम इतना रिस्क महसूस कर रहे हो, तो किसी अनजान जगह, अकेले ले जाने में कितना रिस्क है। मैं कोशिश करूँगा कि एक ही दिन में यह सारा काम पूरा कर लूँ। 

“फिर तुम्हारे घर में तो गुलनिशां और तुम्हारे रिश्ते के बारे में सब जानते हैं। बच्चे भी। पहली बात तो ऐसी कोई बात होने की सम्भावना न के बराबर है। अगर कहीं कोई सूचना उन तक पहुँची भी, तो कोई समस्या जैसी बात होगी, मुझे ऐसा नहीं लगता।” 

मुझे बड़ी राहत महसूस हुई जब वह बहुत संकोच के साथ ही सही मान गए। वह नवंबर महीने का पहला सप्ताह था। मैं निश्चित समय पर अपने सबसे शानदार कैमरों के साथ घर से तीन बजे रात को ही, वीर के घर के लिए निकल दिया। 

गाड़ी का शीशा मैंने खोल रखा था। हवा में अच्छी-ख़ासी ठंड महसूस कर रहा था। पंद्रह मिनट में मैं वीर के घर पहुँच गया। मैं जब ढाई बजे सोकर उठा था, तभी गुलनिशां और वीर को भी फोन कर दिया था कि वह दोनों भी तैयार रहें। 

वीर गेट पर ही मिला, वह चुपचाप आकर गाड़ी में बैठ गया। उसका नौकर भी उतनी ही शान्ति से गेट बंद करके अंदर चला गया। गुलनिशां भी इतनी ही आसानी से चल देगी, मुझे इस बात पर गंभीर संदेह था। 

मैंने वीर से अपना संदेह व्यक्त किया, तो उसने कहा, “ऐसी कोई समस्या होनी तो नहीं चाहिए। उसकी माँ इस समय गाँव में है, और भाई की नाइट शिफ़्ट है, वह दोपहर तक आएगा। छोटी बहन से उसका छत्तीस नहीं बहत्तर का आंकड़ा रहता है। एक घर में रहकर भी दोनों एक दूसरे से अनजान रहती हैं।”

वीर की बात बिलकुल सही निकली, मगर एक समस्या फिर भी आ ही गई थी कि घर का दरवाज़ा कौन बंद करे, छोटी हिलने को भी तैयार नहीं थी। आख़िर झल्ला कर वीर अंदर गया, साथ में गुलनिशां भी, तब वह ग़ुस्से से भुनभुनाती हुई आई दरवाज़ा बंद करने। 

मुझे गुलनिशां बिल्कुल तरोताज़ा दिख रही थी। उसको मैंने एक दिन पहले ही कह दिया था कि कम से कम आठ-नौ घंटे की अच्छी नींद ले लेना। गाड़ी में बैठते हुए उसने मुझे थैंक्यू कहने के साथ ही बहन के व्यवहार के लिए सॉरी भी बोला। उसने कहा कि “सर आप मेरे लिए इतना पेन ले रहे हैं। मैं जीवन भर आपकी एहसानमंद रहूँगी। कभी भी भूल नहीं सकती।”

मैंने कहा, “इसमें एहसान वाली कोई बात नहीं है। यह तो मेरा प्रोफ़ेशन है। अच्छे से अच्छा रिज़ल्ट देना ही मेरी सक्सेस का मूल मंत्र है।” 

“सही कह रहे हैं आप। अच्छी क्लासिक फोटोग्रॉफी कितनी टफ़ है, यह मैं अब समझ पा रही हूँ। यूँ ही क्लिक कर देना तो कोई भी कर सकता है। आजकल तो बच्चे भी कर लेते हैं, लेकिन आर्टिस्टिक, क्लासिक फोटोग्रॉफी तो कोई-कोई ही कर सकता है।”

अब-तक चुप बैठे वीर ने उसे टोकते हुए कहा, “भाई यह कोई बात नहीं हुई, मेरी कोई बात ही नहीं कर रहा है। मुझे कोई क्रेडिट ही नहीं। जबकि इस काम का सूत्रधार मैं ही हूँ। मतलब कि अच्छा काम करने का समय ही नहीं रहा। इतना ख़राब समय आ गया है कि मेरे साथ कोई विहेव नहीं, मिस-विहेव हो रहा है। वो अँग्रेज़ी में क्या कहते हैं आई फ़ील रियली इंसल्टेड।” 

यह कहते हुए वह हँस पड़ा था। गुलनिशां और मैं भी हँस दिए तो वह फिर बोला, “नहीं-नहीं अब मैं बिल्कुल और सहन नहीं कर सकता। ऐसा है तुम गाड़ी रोको, मुझे यहीं उतारो, मैं वापस जा रहा हूँ।”

उसने बहुत ही गंभीरता के साथ यह बात कहने का ड्रामा किया, तो गुलनिशां ने उसे और भी ज़्यादा छेड़ते हुए कहा था, “अरे यार क्यों सर और मेरा टाइम वेस्ट करवाओगे। खिड़की से ही बाहर कूद जाओ न।” 

उसका इतना कहना था कि वीर ने उसके सिर को खिड़की के बाहर निकालते हुए कहा, “पहले तो मैं तुमको खिड़की से बाहर कुदा कर देखूँगा कि कूदा जा सकता है या नहीं।”

उनकी इस हँसी-मजाक छीना-झपटी को मैं गाड़ी के मिरर में देख रहा था। उसमें मुझे उन दोनों के बीच आपसी रिश्तों की गहराई बहुत ज़्यादा दिखी। और साथ ही प्रश्न भी मन में उठा कि एक तरफ़ तो यह दोनों अपने रिश्ते को पति-पत्नी के रिश्ते की ही तरह जी रहे हैं, दूसरी तरफ़ एक ऐसे काम को कर रहे हैं, आगे निकल जाने को उतावले हैं, जिसमें दोनों की सोच एकदम विपरीत है। 

एक पूरब को मुँह किए हुए है, तो दूसरा पश्चिम को। सबसे बड़ी बात यह है कि वीर ऐसे रिश्ते को जीते हुए कैसे यह बर्दाश्त कर रहा है कि उसकी गुलनिशां को कोई दोस्त या थर्ड पर्सन निर्वस्त्र देखे, उसके शरीर को हर जगह स्पर्श भी करे, उसकी फोटो भी खींचे। 

इतना ही नहीं आगे चलकर पूरी दुनिया देखे, यह भी कोशिश हो रही है। बल्कि इसी के लिए ही यह सब किया जा रहा है। इन दोनों के बीच आपसी समझ, प्यार, विश्वास क्या इतना गहरा हो गया है कि ये इन बातों से ऊपर उठ चुके हैं। या कि गुलनिशां की ज़िद के आगे वीर ने समर्पण कर दिया है या कि दोनों के बीच एक ऐसी अनकही समझ विकसित हो चुकी है कि हमारे रिश्ते अपनी जगह और काम अपनी जगह। न तुम मेरे काम के बारे में पूछोगे, रुकावट बनोगे और न मैं तुम्हारे। 

हमारी अपनी-अपनी, अलग भी एक दुनिया अपनी इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं की होगी। जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ हम ख़ुद के मालिक होंगे। यदि इन दोनों के बीच ऐसा है, तो ऐसा रिश्ता कितने दिन चलेगा। 

इस रिश्ते की लंबी लाइफ़ तो मुझे दिखती नहीं। कोई भी आदमी कहाँ तक और कब तक यह सहन करेगा कि उसकी लाइफ़ पार्टनर दुनिया के सामने ऐसे निर्वस्त्र हो, कम से कम मैं तो एक सेकेण्ड भी सहन नहीं कर सकता। 

वीर के गाँव पुलेस्वां पहुँचने तक मेरे मन में यही सारी बातें चलती रहीं। और पीछे उन दोनों की हँसी-ठिठोली चलती रही। शूट के लोकेशन को मैं दो दिन पहले ही देख आया था। इसलिए मैं सीधे वहीं पहुँचा। भोर होने ही वाली थी। आसमान नीला हो चला था। दूर-दूर कहीं एकाध तारे चमक रहे थे। लोकेशन वीर की आम की बाग़ थी। 

बाग़ के पास उसका ट्यूबवेल है, जिसके ऊपर चार बल्लियों पर छप्पर पड़ा हुआ था। छप्पर चार दिन पहले ही बदला गया था। उसकी पीली-पीली शरपत भोर होने की चमक के कारण मख़मली हो रही थी। 

मैंने गुलनिशां को समझाया कि उसे इसी छप्पर के ठीक ऊपर, बीचों-बीच दक्षिण की तरफ़ मुँह करके खड़ा होना है। जिससे उसका बायाँ हिस्सा सूरज की तरफ़ रहे। उसे छप्पर पर खड़े होने में डर महसूस हो रहा था। वह चढ़ेगी कैसे यह भी एक मुश्किल थी। 

वीर ने उससे कहा, “चढ़ने की समस्या तुम भूल जाओ। तुम्हें तो मैं ऐसे ही उठा कर ऊपर फेंक दूँगा।”

हम-दोनों को हँसी आ गई थी। उसके खड़े होने पर मुझे एस.यू.वी. की छत पर खड़े होकर फोटो खींचनी थी। जिससे कि सही एंगल से फोटो ले सकूँ। 

उसे किस-किस पोज़ में खड़ा होना है यह भी बताया। इसके बाद बैग से बादामी कलर का चौड़ा वाला सेलोटेप निकाला। उसे देखते ही गुलनिशां समझ गई कि अब मैं क्या करने वाला हूँ। उसने गाड़ी से तौलिया निकाल कर कंधे पर डाला और कपड़े उतार कर गाड़ी में रख दिए। 

वीर बच्चों सी उत्सुकता से यह सब देख रहा था। मैं समझ गया कि गुलनिशां ने इसे अभी तक टेप फ़ैक्टर नहीं बताया है। मैंने क़रीब तीन इंच का एक टुकड़ा निकालकर, उसके ब्रेस्ट के स्याह घेरे के पास पहला सिरा चिपकाया। और दूसरा सिरा ब्रेस्ट ऊपर उठा कर कंधे के पास चिपका दिया। दूसरी तरफ़ भी ऐसा ही किया। इससे दोनों बिल्कुल सीधी रेखा में सामने उठ से गए। 
असल में वो काफ़ी बड़े तो थे ही, उनकी बनावट भी ऐसी थी कि नीचे झुके से रहते थे। इससे बड़े होने के बावजूद उनका सही इंपैक्ट फोटो में नहीं आता था। स्टुडियो में भी ऐसे ही किया था। हालाँकि इससे मेरा काम बढ़ जाता था। सिस्टम पर फोटो से टेप को रिमूव करना पड़ता था, जिसमें अच्छा-ख़ासा टाइम लगता था। 

यह देखकर वीर बोला, “बड़ा दिमाग़ लगाते हो यार। लेकिन इनका क्या करोगे।”

उसने उसके ब्रेस्ट के, स्याह घेरे के, सबसे अहम् हिस्से की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा, तो मैंने बाम की एक छोटी सी डिबिया गुलनिशां को देते हुए कहा, “निश्चिंत रहो, बाक़ी काम यह बाम करेगा।” 

वीर कुछ समझे उसके पहले ही गुलनिशां ने उँगली में थोड़ा सा बाम लेकर उस सबसे अहम् हिस्से पर कसकर रगड़ दिया। इससे कुछ ही देर में वह हिस्से भी सिकुड़न रहित हो एकदम तनाव में आ गए। बात को समझते ही वीर ने कहा, “बाप रे बाप, कौन से स्कूल में पढ़े थे यह सब।” 

मैंने हँसते हुए उत्तर दिया था, “अपने ही खोले स्कूल, अपनी ही लिखी किताब में पढ़े थे यह सब, ऐसी पढ़ाई कहीं और नहीं होती।” वह दोनों भी हँसने लगे थे। 

वीर ने कहा, “बहुत ख़ूब, मगर यह पढ़ाई तुम्हारे जैसे गुरु से ही समझी जा सकती है।” 

इसके कुछ ही मिनट बाद मैंने वीर के साथ मिलकर गुलनिशां को छप्पर पर चढ़ा दिया था। क्योंकि सूर्य-देवता के आगमन का संकेत देती किरणों ने लालिमा बिखेरनी शुरू कर दी थी। गुलनिशां शुरू में थोड़ी डरी, लेकिन छप्पर की ढाल पर चढ़कर एकदम ऊपर पहुँचते ही सँभल गई। 
मैं भी कैमरा लेकर एस.यू.वी. की छत पर चढ़ गया। वीर ने गाड़ी की स्टेयरिंग सँभाली। तस्वीरें चारों ओर से अलग-अलग एंगल से लेनी थीं। वह गाड़ी को चारों ओर धीरे-धीरे आगे बढ़ा रहा था। केसरिया किरणें पेड़-पौधों, गुलनिशां सब पर पड़ने लगी थीं। 

छप्पर की मटमैली पीली सरपत पर जैसे कोई केसरिया रंग बिखेरता जा रहा था। पोज़ बनाकर गुलनिशां खड़ी थी। उसने दोनों हाथों को कंधे की ऊँचाई से थोड़ा ऊपर करके बाएँ-दाएँ दोनों तरफ़ पूरा फैलाया हुआ था। दोनों हथेलियाँ खुली हुई थीं। 

मैंने जल्दी-जल्दी कई फोटो खींची। इन फोटो में जहाँ उसकी पीठ की तरफ़ का हिस्सा सामान्य रंग का था वहीं किनारे-किनारे केसरिया आभा सी बन रही थी। मैंने हर तरफ़ से उसकी तमाम एंगिल से ढेरों तस्वीरें खींची। इसके बाद गुलनिशां ने अन्य बहुत से पोज़ बड़ी बहादुरी से दिए। 

अगले स्टेप में मैं गाड़ी से, वह छप्पर के ढाल वाले हिस्से पर नीचे आ गई। किनारे से मात्र छह फ़ीट की ऊँचाई पर, जहाँ कभी लेटे, तो कभी बैठे, वह तरह-तरह के पोज़ बनाती जा रही थी, मैं क्लिक करता जा रहा था। 

एक बार मैं क्लिक कर ही रहा था कि वह अचानक ही फिसल गई। मैं पकड़ने के लिए लपका ही था कि मुझसे पहले वीर ने उसे ज़मीन से थोड़ा पहले ही थाम लिया। उसे जैसे अंदाज़ा हो गया था कि गुलनिशां फिसल सकती है। 

मैं सशंकित हुआ कि अब यह ऊपर नहीं चढ़ेगी। मगर वह अगले ही क्षण वीर के सहारे फिर चढ़ गई छप्पर पर। मैंने भी तुरंत अपना काम शुरू कर दिया था। मैं दो-तीन शॉट ही ले पाया था कि वह अचानक ही छप्पर पर बैठ कर उतरने के लिए नीचे सरकने लगी। वीर फिर से आगे आया था। 

मैंने जल्दी से गाड़ी से तौलिया निकाल कर, उस पर डालते हुए, उसे गाड़ी के अंदर कर दिया था। इसी समय एक मोटर-साइकिल पर दो लोग छप्पर से क़रीब पैंतीस-चालीस मीटर आगे चकरोड से कहीं चले जा रहे थे। 

मोटर-साइकिल की आवाज़ सुनकर ही वह नीचे आ गई थी। अब सूर्य देव केसरिया की जगह सुनहरा रंग छोड़ चुके थे। जो धीरे-धीरे और ज़्यादा चमकीला होता जा रहा था। मैं जल्दी से जल्दी काम पूरा कर लेना चाहता था, क्योंकि मैं यह अच्छी तरह समझ रहा था कि वीर अब ज़्यादा समय नहीं दे पाएगा। 

मैंने गुलनिशां से पूछा कि “चलें या थोड़ा काम और है, उसे भी पूरा करके चलें।” 

उसने जो जवाब दिया उसे सुनकर मैं उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सका था। उसने कहा, “मैं तो काम पूरा करके ही चलना चाहती हूँ, किसी के आने-जाने से रुकने वाली नहीं। इस बार तो उतर आई, अगली बार कोई भी आ जाए मैं उतरने वाली।”

उसकी बात पर मैं हँस दिया। तभी वीर ने उसके गाल पर प्यार से दो-तीन हल्की चपत लगाते हुए कहा, “मेरी शेरनी है, शेरनी। तुम बेशक अपना कैमरा चालू रखो।”

अब मैंने उसको गाड़ी की छत पर चढ़ा दिया, और ख़ुद छप्पर पर चढ़ गया। वहाँ ख़ुद को सँभालने में मुझे काफ़ी प्रयास करना पड़ रहा था। सरपत के छप्पर पर पैर स्थिर रखना मुश्किल हो रहा था। 

तभी मेरे मन में आया कि गुलनिशां ने कितना मुश्किल काम, कितनी आसानी, कुशलता से कर दिया। उसे देख कर लग रहा था कि बहुत आसान है। अगले आधे घंटे में मैंने वहाँ काम पूरा किया, गाड़ी की छत पर से उसे उतार कर अंदर बैठाया। 

फिर मैंने वीर से ट्यूब-वेल ऑन करवाया। मोटे पाइप से पानी की मोटी धार पक्के बने चैंबर में गिरने लगी थी। उसमें काफ़ी पानी पहले से भरा हुआ था, लेकिन मैं ज़्यादा से ज़्यादा ताज़ा पानी चाहता था। 

कुछ ही देर में साफ़ पानी देखकर मैंने गुलनिशां को पानी में उतार दिया। उतरते ही पाइप से निकलती मोटी धार के साथ वो ऐसे अठखेलियाँ करने लगी थी, मानों कोई स्कूली छात्रा पानी से खेल रही हो। सुनहरी किरणें उसके पीछे से उस पर पड़ रही थीं। कभी उसका चेहरा किरणों की ओर होता, कभी पीठ। 

उसके इस खेल-कूद से मुझे तरह-तरह के अद्भुत पोज़ मिलते जा रहे थे, और मैं क्लिक करता जा रहा था। मेरा संकेत मिलते ही उसने चैंबर की मोटी दीवार पर खड़ी होकर, बैठ और लेट कर भी, एक के बाद एक पोज़ जल्दी-जल्दी दिए थे। 

पंद्रह मिनट में यहाँ पर भी काम पूरा करके मैंने चलने के लिए कह दिया। हालाँकि मन में बीच दुपहरी में आम के पेड़ों के बीच से छनकर आने वाली तेज़ सनबीम में भी तमाम फोटो लेने की मेरी बड़ी इच्छा थी। लेकिन इससे ज़्यादा मुझे वीर की चिंता थी। मैं अच्छी तरह जानता था कि उसके पास समय की बहुत बड़ी कमी रहती है। इसलिए मैंने अपनी इच्छा उसी समय पूरी कर ली। 

कई फोटो उसे पेड़ की झुकती डालों पर भी बैठा कर लिया था। डाल पर चढ़ने-उतरने के फेर में उसे कुछ खरोंचें भी लग गईं थीं। इसके पहले एक गगरा मिल गया तो उसके साथ भी कुछ फोटो ली थीं। जिसमें वह किसी में नहाने के बाद पानी भर कर गगरा सिर पर रख रही है, तो किसी में कमर पर रखे हुए चल रही है। और लटों से पानी की बूँदें टपक रहीं हैं। 

बदन पर पानी की असंख्य बूँदें सुनहरी किरणों के पड़ने से सुनहरी मोतियों सी चमक रही हैं। बान की एक खटिया पड़ी थी, उस पर भी बहुत सी फोटो ली थीं। लेकिन कुल मिला कर शूट के इस हिस्से से मैं संतुष्ट नहीं था। 

चिंता गुलनिशां की भी थी, कि गाँव-देहात का मामला है, दिन निकल चुका है। कहीं दो-चार लोग अचानक ही आ गए तो बड़ी ऑड पोज़ीशन बन जाएगी। ख़ासतौर से गुलनिशां के लिए। क्योंकि गाँव, क़स्बा, शहर हर जगह वीर के सभी मित्र, परिचित, रिश्तेदार उसे बरसों से वीर की लिव-इन पार्टनर के रूप जानते-मानते चले आ रहे हैं। 

अगर किसी ने देख लिया तो वीर के घर पहुँचने से पहले यह सारी बातें पहुँच जाएँगी। इसलिए मैंने दोपहर की योजना का ज़िक्र ही नहीं किया। क्योंकि मैं गुलनिशां की दीवानगी देख रहा था। वह सुन भी लेती तो वीर पर रुकने के लिए पूरा प्रेशर डालती। 

जुनून उसका इस हद तक बढ़ चुका था कि उसे किसी के आने-जाने, देख लेने का डर बिल्कुल नहीं रह गया था। योजना के मुताबिक़ मैं शूट कम्प्लीट कर वहाँ से वीर, गुलनिशां को उनके घर छोड़ कर अपने यहाँ चला आना चाहता था। 

लेकिन वीर अपने गाँव वाले घर ले गया। जहाँ कोई रहता नहीं। अनाज को वहाँ रखने, वहाँ से मंडी भेजने के केंद्र के रूप में ही उसका प्रयोग होता था। पहुँचने से पहले ही उसने अपने किसी आदमी को फोन कर दिया था। हमारे पहुँचने के कुछ ही देर बाद वह दही, जलेबी, ख़स्ता, चाय लेकर आ गया था। हम खा-पीकर कर चले ही थे कि वीर के घर से फोन आ गया। 

जो भी बात हुई वह तो मैं नहीं सुन पाया, लेकिन वीर ज़बरदस्त तनाव में आ गया था। मैंने पूछा, “सब ठीक तो है न?” 

तो उसने कहा, “हाँ, ठीक ही समझो। बस दिमाग़ ख़राब कर देते हैं कि मैं उनकी उँगली पकड़ कर चलता चलूँ। साली अपनी कोई ज़िन्दगी ही नहीं है जैसे।”

उसकी बातों से मैं समझ गया कि उसके फ़ादर ने रात तीन बजे ही घर से निकलने की बात जानकर कुछ अंड-बंड बोल दिया है। अभी तक हँस-बोल रही गुलनिशां भी शांत हो गई। वह वीर के घर के बारे में मुझ से ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं जानती थी। 

मुझे बड़ी आत्म-ग्लानि हुई कि मेरी वजह से उसके घर में बेवजह तनाव पैदा हो गया। मुझे अपने काम के लिए कोई और रास्ता निकालना चाहिए था। या शूट के इस हिस्से को ही ड्रॉप कर देना चाहिए था। मैंने खेद प्रकट किया तो वीर ने कहा, “कैसी बात करते हो यार, यह सब तो यहाँ रोज़ का तमाशा है।”

तनाव का यह डोज़ हमारे लिए जैसे काफ़ी नहीं था। गुलनिशां के यहाँ पहुँचते ही उसकी छोटी बहन उससे भिड़ गई। 

उसे गेट पर छोड़ कर मैं गाड़ी बैक कर ही रहा था कि तभी दोनों बहनों के झगड़ने की आवाज़ तेज़-तेज़ आने लगी। आवाज़ सुनते ही वीर उतर कर घर के अंदर गया और मामले को शांत कराकर दस मिनट के बाद लौटा। 

छोटी बहन की बदतमीज़ी पर वह नाराज़ था। मैंने उससे पूछा, “गुलनिशां कैसे फ़ेस करती है यह सब।” 

“फ़ेस क्या करती है, बर्बाद कर लिया है इन सब के चक्कर में ख़ुद को। एक तो फ़ादर की जगह नौकरी करके पूरे परिवार को पाल-पोस रही है। इन सबको को इतना बड़ा किया। जब फ़ादर की डेथ हुई थी, तब सब बहुत छोटे-छोटे थे। यह न सँभालती तो सब इधर-उधर भटक रहे होते। 

“सब अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं। फिर भी इसकी जान की आफ़त बने हुए हैं। यह कहती तो है बार-बार कि अलग किराए का मकान लेकर रहूँगी। लेकिन फिर यह कह कर रुक जाती है, कि यह सब बर्बाद हो जाएँगे। माँ गाँव से आने को तैयार ही नहीं होती। 

“इन सभी को इसकी सैलरी कब मिली बस इसका इंतज़ार रहता है। कहीं किसी रिश्तेदार के यहाँ जाना हो, कोई भी, किसी भी तरह का काम हो, वह सब इसी को ही करना है। माँ इस एज में भी अपनी लाइफ़ को ख़ूब एंजॉय कर रही है। 

“उन्हें जो फ़ैमिली पेंशन मिलती है, उसे वह अकेले ही ख़र्च करती हैं। ख़ूब खाना-पीना, घूमना-फिरना उनके पास बस यही काम है। और यह लड़की होकर माँ-बाप दोनों की ज़िम्मेदारी निभा रही है। इसके बावजूद माँ से लेकर सारे भाई-बहन तक इसके साथ बदतमीज़ी करते हैं। 

“ऐसी कौन सी सख़्त बात, गाली है, जो इसे नहीं कहते। ये जितना बर्दाश्त करती है, उतना शायद ही आज की डेट में कोई लड़की, ऐसी स्थिति में बर्दाश्त करेगी। कहना नहीं चाहिए, यदि मैं नहीं होता तो इसका भाई नौकरी के लिए इसको अब-तक मार ही डालता। इसकी हिम्मत साहस ही इसको अभी तक बचाए हुए है। 

“ऑफ़िस में भी जिसको देखो वही पीछे पड़ा हुआ है कि बाप है नहीं, माँ, भाई-बहन का होना न होना बराबर है। सीनियर हो या जूनियर सभी सीधे बेड पर गिरा लेना चाहते हैं। प्रमोशन, इंक्रीमेंट रोक कर, कभी ट्रांसफ़र करके टॉर्चर करते हैं कि यह किसी तरह से सरेंडर कर दे। यह अपना तमाम नुक़्सान सह-सह कर जिस तरह से अपने को बचाई हुई है। वह अपने आप में बहुत बड़ी बात है।” 

मैंने कहा, “तुम सही कह रहे हो, जिस व्यक्ति का घर ही उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन गया हो, उसकी समस्याएँ पहाड़ से भी बड़ी होती हैं।” 

वीर को उसके घर छोड़ कर मैं भी वापस घर आ गया। स्टुडियो के लिए तैयार होना था। गुलनिशां की वास्तविक स्थिति जानकर मेरा मन कुछ उदास, निराश हो गया था कि दुनिया में क्या हो गया है, इंसान ही इंसान को नोच रहा है। ऐसे लोगों और जंगली जानवरों के बीच कोई अंतर है क्या? 

आख़िर यह लड़की अपने आप को कब-तक बचाए रख सकेगी। किसी भी दिन हार कर कुछ भी कर सकती है या तो सेरेंडर कर देगी या फिर . . .  इसके सपने, इसकी मॉडलिंग ऐसे में कितनी दूर तक जाएँगे भगवान ही जाने। पता नहीं मेरी मेहनत, समय का कोई परिणाम निकलेगा भी या सब पानी हो जाएगा। 

मैं दिन-भर उसके बारे में सोचता रहा कि इसके टैलेंट के हिसाब से यदि कोई हाई-क्लास, ऊँची पहुँच वाला, वर्ल्ड फ़ेमस फोटोग्रॉफर इसे मिल जाए, तो यह निश्चित ही वर्ल्ड फ़ेम मॉडल बन जाएगी। मेरी कैपेबिलिटी इसके टैलेंट के हिसाब से इसे उचित प्लैटफ़ॉर्म नहीं दे पाएगी। फिर भी इसके लिए जितना कर पाऊँगा वह ज़रूर करता रहूँगा। 

मैंने जल्दी ही गुलनिशां की प्रोफ़ाइल कई अच्छी मॉडलिंग साइट पर अपलोड कर दी। सोशल-मीडिया पर उसके अकाउंट ओपन कर दिए थे। मैंने सोचा कि जब-तक इसकी पसंदीदा वर्ल्ड-फ़ेम मैग्ज़ींस में इसे अवसर मिले, तब-तक कुछ बात अगर देश में ही बन जाए, इसे कुछ काम मिल जाए, मॉडलिंग की दुनिया में अपनी जगह बना ले, तो यह इसके लिए प्लस-पॉइंट रहेगा। पैसे भी आ जाएँगे तो यही घर-वाले इसके पीछे-पीछे नाचेंगे। 

मेरे और उसके प्रयासों का कुछ रिज़ल्ट भी सामने आया था। कुछ छोटे-मोटे लोकल ऑफ़र उसे मिले, जिसे करने की हिम्मत वह ऑफ़िस और घर वालों के डर से नहीं कर पाई। इस बीच कई संडे वह, कुछ अन्य इंग्लिश मैग्ज़ींस के लिए होने वाले शूट के लिए भी नहीं आ पाई। 

मैं अपना काम करता रहा, इसी बीच उसे एक बड़ा ऑफ़र मिला। उसके लिए उसे एक हफ़्ते के लिए चंडीगढ़ जाना था। उसको फ़ीस भी काफ़ी अच्छी मिल रही थी। मैंने उसकी सहमति माँगी, तो उसने बड़े उत्साह के साथ अपनी सहमति दी। जल्दी ही जाने के लिए उसने सारी तैयारियाँ पूरी कर लीं। 

लेकिन ऐन टाइम पर उसके सामने ऐसी स्थितियाँ बनीं कि वह नहीं जा पाई। जिसके माध्यम से मैंने यह सब-कुछ मैनेज किया था, उनके सामने मुझे बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ी। मुझे स्थिति को सँभालने के लिए कई झूठ बोलने पड़े। गुलनिशां पर बहुत ग़ुस्सा आया, लेकिन उससे भी ज़्यादा निराशा हुई। 

सोचा अब इस मामले में कुछ नहीं करूँगा। इस तरह तो मार्केट में मेरी जो इमेज है, वह दो दिन में ही ख़त्म हो जाएगी। लेकिन जब उसकी कठिन स्थिति का ध्यान आया तो फिर से उसके लिए प्रयास करने लगा, आगे बढ़ाने के लिए रास्ते तलाशने लगा। 

मैंने कुछ ही दिन बाद महसूस किया कि उसकी सहायता करने के प्रयास में जाने-अनजाने मैं उसका मैनेजर बन गया हूँ। उसका सोशल-मीडिया, ई-मेल अकाउंट हैंडल करने से लेकर कंपनियों से संपर्क करने तक के काम देखने लगा था। इन सारे कामों में मेरा अच्छा-ख़ासा टाइम लग रहा था। 

इसके लिए वह सदैव मुझे धन्यवाद देती, प्रसंशा करती रहती। सौभाग्य से जल्दी ही उसे चेन्नई में चंडीगढ़ से भी बड़ा ऑफ़र मिल गया, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात, चंडीगढ़ वाले इतिहास ने अपने को दोहरा दिया। 

इस बार मुझे बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था कि गुलनिशां मुझे सही बात पहले ही क्यों नहीं बताती, वो समझती क्यों नहीं कि मुझे लोगों के सामने कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है। मैं लोगों के बीच अपनी कही बात पर शत प्रतिशत खरा उतरने के लिए जाना जाता हूँ। 

वह इतनी नादान नहीं है कि इस बात को नहीं समझती कि इससे मार्केट में बरसों में बनी मेरी यह साख मिट्टी में मिल जाएगी, मैं बर्बाद हो जाऊँगा। उससे मैं स्पष्ट बात करने की सोचता लेकिन उसकी स्थिति पर ध्यान जाते ही ग़ुस्सा शांत हो जाता। 

मैं इस असमंजस में पड़ जाता कि दोस्ती, मानवीय पक्ष को प्राथमिकता दूँ या अपने व्यवसाय पर। जल्दी ही अपने बेहद मिलनसार व्यवहार के चलते गुलनिशां ने भी मेरे क़रीबी मित्रों की श्रेणी में अपनी जगह बना ली थी। देखते-देखते नवंबर के बाद दिसंबर, जनवरी, फरवरी बीत गया, मैं उससे जो कुछ कहता वह उसे करने की पूरी कोशिश करती। 

कपड़े टाइट बाँधने के कारण उसकी कमर पर रिंग जैसे गहरे, स्याह निशान पड़ गए थे। मैंने कहा, “तुम्हें इस फ़ील्ड में आगे बढ़ने के लिए ऐसे हर निशान से छुट्टी पानी ही होगी। आठ घंटे सोते समय कपड़ों को ख़ुद से दूर रखो, जब घर में अकेली रहो, तब भी। ऐसा करने पर ही यह निशान तीन-चार महीने में ख़त्म हो पाएँगे। 

उसे हिप्स को राउंडेड शेप के साथ-साथ ब्रेस्ट, थाई को सही शेप देने के लिए कुछ एक्सरसाइज़ बताईं, जिन्हें वह कड़ी मेहनत के साथ कर रही थी। अपने घर के कठिन माहौल के बावजूद वह कैसे यह सब करती थी, यह वही जानती थी। 

क़रीब चार महीना बीतते-बीतते उसने अपने फ़िगर को बहुत इंप्रूव कर लिया था। मगर सारी बातों की एक बात यह कि काम की गाड़ी कभी भागती, कभी धीमी हो जाती, कभी एकदम ठहर जाती। लेकिन अनवरत प्रयास अंततः परिणाम दे ही देता है। 

मार्च का तीसरा सप्ताह शुरू होते-होते मैंने उसकी बताई पुरुषों की मैग्ज़ींस सहित तीन अन्य फ़ैशन, मॉडलिंग की अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं को भी उसकी फोटोज मेल कर दीं। मेल करते समय वह दोनों भी साथ बैठे थे। मेल का ऑटोमेटिक रिप्लाई भी तुरंत आ गया था। 

यह देखकर वह ऐसे ख़ुश हुई जैसे कि उसका सपना पूरा हो गया। मुझे भी ख़ुशी हुई, संतोष हुआ कि चलो एक बड़ा काम पूरा हुआ। वीर ने उसी समय एक अच्छे होटल से खाना मँगवाया। मैं नहीं चाहता था लेकिन वह नहीं माना। 

असल में जनवरी में जब से कोरोना वायरस ने देश का दरवाज़ा खटखटाया था, उसके बाद से मैं बाहर निकलने, भीड़-भाड़ से बचने लगा था। बाहर का सामान, खाने-पीने से भी दूरी बना ली थी। 

लेकिन दो दिन बाद ही वीर का फोन आया कि आज फ़लाँ होटल में मेरे साथ डिनर करोगे। मैंने मना करना चाहा, लेकिन उसने मेरी कोई बात सुनी ही नहीं। मैं रात दस बजे उस होटल पहुँचा तो गुलनिशां के साथ वह बाहर ही मेरी प्रतीक्षा करता हुआ मिला। गुलनिशां को देखते ही मैं समझ गया कि यह आयोजन उसी ने किया है। डिनर के समय ही यह बात कन्फ़र्म भी हो गई थी। 

डिनर के बाद घर चलते समय मैं गुलनिशां को थैंक्यू बोल कर, अपनी गाड़ी की तरफ़ बढ़ने ही वाला था कि वीर ने बात शुरू कर दी। पैसों की। गुलनिशां की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “यार तुम्हारी यह इंटरनेशनल मॉडल कई दिन से कह रही है कि ‘सर ने इतने दिनों तक इतना लंबा टाइम दिया। ऐसा हाई-क्लास काम किया, किया क्या, आज भी करते ही चले आ रहे हैं। 
‘सबसे बड़ी बात कि एक फ़ैमिली मेंबर की तरह मेरे साथ व्यवहार कर रहे हैं। तो मैं फ़ीस की बात नहीं करूँगी। यह करने से सर नाराज़ हो जाएँगे, मैं उन्हें नाराज़ करने की बात सोच भी नहीं सकती। उन्होंने पैसे के लिए पहले ही मना कर दिया है, लेकिन मैं एक गिफ़्ट तो दे ही सकती हूँ।’

“यह चाहती है कि तुम इसे मनचाहा गिफ़्ट देने की परमिशन दे ही दो। जिससे यह तुम्हारे प्रति थैंकफुल होने के भाव तो प्रकट कर ही सके। इससे इसे बहुत ख़ुशी होगी।”

वीर की बात पूरी होने से पहले ही मैं गुलनिशां को देखने लगा था। वह अपने निचले होंठ, दाँतों के बीच दबाए हुए, हल्की मुस्कान लिए नीचे देख रही थी। 

मैंने बड़े स्नेह के साथ उसके गाल पर हल्की सी चपत लगाते हुए कहा, “एक तरफ़ फ़ैमिली मेंबर बता रही हो, दूसरी तरफ़ बाहरियों सा व्यवहार कर रही हो। तुम वीर के साथ आई, क्या इन्होंने यह नहीं बताया कि हमारे इनके यहाँ से तीस-बत्तीस वर्षों से पारिवारिक सम्बन्ध किस स्तर के हैं। और जो तुम इनके साथ आई तो तुम भी मेरे परिवार की सदस्य बन गई। 

“तुम से पैसे लेने का मतलब हुआ कि मैं वीर से पैसे ले रहा हूँ। और तुम्हें मैंने पहले ही बताया था कि जिस दिन हमने एक दूसरे से पैसे ले लिए, उस दिन हमारे रिश्ते से पारिवारिक शब्द हट जाएगा। और हम-दोनों सोचते भी नहीं कि हमारे बीच से पारिवारिक शब्द हटे। 

“देखो हम-दोनों के लिए पैसा बहुत कुछ है, लेकिन सब-कुछ बिलकुल नहीं। मुझसे बहुत छोटी हो, अब ऐसा कभी मत सोचना, अगर पारिवारिक कहती ही नहीं, मानती भी हो तो, नहीं तो जैसी तुम्हारी इच्छा।”

मेरी बात पूरी होते ही, वीर ने कहा, “देखा, मैं तुमसे जो बात कह रहा था, वही बात हुई कि नहीं। इसी से तुम समझ लो कि हम एक-दूसरे को कितना जानते-समझते हैं।”

इसके बाद मैं उसे उसकी सक्सेस के लिए शुभ-कामनाएँ देकर चला आया। अब गुलनिशां मुझे गुड-मॉर्निंग, गुड-नाइट मैसेज रोज़ भेजती। लंच टाइम में फोन करके हाल-चाल पूछती, कुछ बातें इधर-उधर की भी करती। हम तीनों ही बहुत व्याकुलता के साथ मैग्ज़ींस से आने वाले रिस्पॉन्स की प्रतीक्षा कर रहे थे। 

मगर बिना कारण मिलना-जुलना, कहीं भी जाने-आने से बचने की पूरी कोशिश कर रहे थे। हमेशा चलाएमान रहने वाले वीर ने भी अपनी घुमक्कड़ी पर रोक लगानी शुरू कर दी, क्योंकि कुटिल चीन के षड्यंत्र से दुनिया में फैले कोरोना वायरस ने देश में भी पकड़ मज़बूत करनी शुरू कर दी थी। 

जल्दी ही लॉक-डाउन की सुगबुगाहट से मन में अजीब सा तनाव पैदा होने लगा कि जान को तो ख़तरा है ही, यदि लॉक-डाउन हो गया तो बिज़नेस का क्या होगा। वैसे भी दो-तीन सालों से कोई ग्रोथ नहीं है। जमा पूँजी भी कुछ ज़्यादा नहीं है। 

जैसे-जैसे प्रकोप बढ़ रहा था, वैसे-वैसे मेरा तनाव भी बढ़ता जा रहा था। आख़िर लॉक-डाउन हो गया। घोषणा के घंटे भर के अंदर ही गुलनिशां का फोन आया, “सर यह तो बहुत बुरा हुआ, अब दूसरी वाली मैग्ज़ींन के लिए शूट कैसे होगा?” 

मैंने कहा, “घबराओ नहीं, जल्दी ही हट जाएगा। तब-तक हो सकता है जिन मैग्ज़ींस में भेजा गया है, वहाँ से कोई रिस्पॉन्स मिल जाए, कोई नई बात मालूम हो जाए, तो आगे के कामों में चेंज कर लेंगे।”

मैंने मन-ही मन कहा, तुमने शुरूआत ग़लत समय पर की है। इस समय पूरी दुनिया में हड़कंप मचा हुआ। घबराई, सहमीं दुनिया फ़ैशन, मॉडलिंग नहीं, जान बचाने की चिंता में पड़ी हुई है। किसी तरह उसे तो समझा-बुझा कर मैंने शांत किया, लेकिन ख़ुद गहरी चिंता में डूबता जा रहा था। 

दस मिनट भी नहीं बीते होंगे कि वीर का फोन आ गया। फुल वॉल्यूम में बोला, “भाई एकदम निश्चिन्त मस्त रहना, कोई काम, ज़रूरत हो तो तुरंत फोन करना, संकोच करना छोड़ो, इसके बारे में सोचना भी नहीं।”

हर तरफ़ ऐसा गहन सन्नाटा, भय, मायूसी लगता जैसे कोई शहर नहीं, बल्कि पृथ्वी का कोई निर्जन टापू है। जहाँ इंसान तो क्या, कोई जानवर पशु-पक्षी भी नहीं है। 

जैसे किसी जैविक हथियार से दुश्मन देश ने समग्र जीवन ही ख़त्म कर दिया है। कंक्रीट का जंगल, अब कंक्रीट की ही तरह निर्जीव है। स्वयं ही स्वयं को हिम्मत बँधाते हुए मैंने सोचा कि चलो कोई बात नहीं, दो-तीन हफ़्ते में ख़त्म हो जाएगा। लॉक-डाउन से इस वायरस के संक्रमण की चेन टूट जाएगी। 

एकाध महीने में भारत में हालात सामान्य हो जाएँगे। क्योंकि समय रहते ही लॉक-डाउन कर दिया गया है। लेकिन धोखा, आख़िर धोखा होता है। मैंने तो ख़ुद को ही ग़लत समझाया, सच से मुँह मोड़ा था, इससे यथार्थ नहीं बदला। धूर्त चीन की तरह उसका वायरस भी धूर्त निकला, अपनी प्रकृति बदलता रहा, धता बताते हुए आगे बढ़ता रहा। उसके साथ-साथ लॉक-डाउन भी। 

लॉक-डाउन के दो स्टेज ही निकले थे कि एक दिन सवेरे-सवेरे वीर का फोन आया। उसने कुछ घबराते कहा, “गुलनिशां कोरोना सस्पेक्ट है। दो-तीन दिन से तबीयत ख़राब थी। लॉक डाउन के कारण किसी हॉस्पिटल में जा नहीं पाई। मुझे पता चला तो गवर्नमेंट के हेल्पलाइन नंबर पर फोन किया, तो हॉस्पिटल स्टॉफ़ ने घर पहुँच कर चेक किया। प्रथम दृष्टया पॉज़िटिव पाते ही उसे कोरोना रिज़र्व हॉस्पिटल में एडमिट कर दिया है। वह हॉस्पिटल नहीं जाना चाहती थी। 

“जाचें चल रही हैं, एक-दो दिन में रिपोर्ट आ जाएगी। वह बहुत ही ज़्यादा डरी हुई है। बहुत रो रही है, बार-बार बुला रही है। घर से बाहर नहीं निकल सकता, कोरोना रिज़र्व्ड हॉस्पिटल में किसी और को जाने ही नहीं दे रहे हैं। समझ में नहीं आ रहा है क्या करूँ। वह तुमसे बात करना चाह रही है।” 

मैंने कहा, “परेशान नहीं हो, उसे भी समझाओ, मैं भी बात करता रहूँगा। उसके परिवार से बोलो वह लोग भी उससे बात करते रहें। इस समय उसका कॉन्फ़िडेंस लेवल जितना हाई रहेगा उतनी ही जल्दी रिकवरी होगी।”

वीर ने कहा, “उसका यही तो दुर्भाग्य है। घर में भाई-बहन दोनों हैं, वो तीन दिन से बीमार थी। लेकिन वह दोनों इसके पास जाने को कौन कहे, दूर से भी उससे नहीं पूछा कि क्या हुआ तीन दिन से कमरे से निकल क्यों नहीं रही हो।” 

“बड़ी अजीब हालत है। यह वाक़ई भाई-बहन हैं या . . . अच्छा इसकी मदर को फोन किया?” 

“हाँ, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं। वह तो इससे और भी ज़्यादा चिढ़ती है। गुलनिशां ने उन्हें बताया ही नहीं। लेकिन मैंने यह सोचकर कि माँ हैं, यह सुनकर हो सकता है कर लें बात। इससे गुलनिशां को बहुत मॉरल सपोर्ट मिलेगा, मैंने गुलनिशां के मना करने के बावजूद उन्हें फोन किया, लेकिन उनका जवाब सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया।” 

“क्यों, ऐसा क्या कहा उन्होंने?” 

“वह बड़ी लापरवाही से बोलीं, ‘अरे हद हो गई है, वो कोई नन्हीं-मुन्नी बिटिया है क्या, जो हम आकर गोद में लेकर चुप कराएँगे। उसको इतना समझ में नहीं आता कि ऊपर वाले का क़हर है ये, उसी ने भेजी है ये बीमारी। वो जैसा चाहेगा वैसा ही होगा। 

‘इसमें मैं या डॉक्टर-वॉक्टर कोई कुछ नहीं कर पाएगा। बेमतलब हाथ-पैर मारने का कोई मतलब नहीं है। जो लोग ग़लत हैं, ख़तरा उन्हीं को है, जो सही हैं उनको नहीं।’ उसका ऐसा परम गँवारू ज्ञान और सुनने की क्षमता मुझ में नहीं थी, तो मैंने फोन काट दिया।” 

वीर बड़े ग़ुस्से में था। मैंने कहा, “यह कैसी माँ है यार। आज के ज़माने भी ऐसी क़िबाइली सोच है इसकी। अच्छा सुनो यह सारी बातें गुलनिशां को नहीं बताना, नहीं तो वह और ज़्यादा डिप्रेश होगी।” 

“यार उसकी बातों से बड़ा ग़ुस्सा आ गया था, तो मैंने उसी ग़ुस्से में उसे बता दिया, हालाँकि ज़्यादा कठोर बातें फिर भी नहीं बताईं। उसने दो-चार बातें सुनकर ही कहा, ‘मैं जानती थी वह यही बोलेंगी, वो तो इंतज़ार ही कर रही हैं, कि कब मैं मरूँ और वह मेरी जगह अपने बेटे को नौकरी दिलाएँ। आख़िर अब बेटा बड़ा हो गया है न। अब उन्हें, मेरे भाई-बहनों को मेरी ज़रूरत कहाँ रह गई है। अब तो यह भी डर लगता है कि कहीं तुम भी मुझे छोड़ न दो।’” 
“वाक़ई बड़े अचरज की बात है। किसी लड़की की अपने ही घर में ऐसी हालत मैं पहली बार सुन रहा हूँ। देखना भाई, जो भी हो सके, जितनी हो सके, उसकी हेल्प करते रहना। मैं भी जो हो सकता है, वह करता रहूँगा। यह बात विशेष रूप से ध्यान रखना, कि अब तुम्हीं उसकी एकमात्र आशा हो।” 

गुलनिशां की हालत ने मुझे बहुत परेशान कर दिया था। समय निकाल कर मैं उससे बात करता रहता, उसे समझाता रहता कि कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसी न्यूज़ भी आ रही है कि सौ साल से ऊपर के एकदम बूढ़े लोग भी ठीक हो गए हैं। 

लेकिन उसकी बातों से एक बात एकदम साफ़ थी कि वह कोरोना वायरस के भय से तो कुछ ज़्यादा नहीं, लेकिन भावनात्मक रूप से पूरी तरह टूट चुकी है। परिवार के सदस्यों की बात कर-कर के वह बार-बार रोती थी। 

एक ही बात बार-बार कहती कि “घर में सब मुझे रास्ते का पत्थर समझते हैं। दिन-रात मेरी मौत की दुआ करते हैं। सभी ख़ुश हैं कि उनकी दुआ क़ुबूल होने वाली।”

उसकी बातों से मुझे लगा कि आदमी कितना भी मज़बूत और दृढ़ निश्चयी हो, लेकिन अगर उसे अपनों से भावनात्मक सहारा नहीं मिलता, भावनात्मक ऊर्जा नहीं मिलती, तो उसे बिखरने से रोका नहीं जा सकता। 

यह सब सोचकर मुझे उसकी हालत बहुत ही चिंतनीय लगी थी, तो दो-तीन दिन में मैंने उससे दर्जनों बार बात की। लेकिन उसने अपनी मॉडलिंग के बारे में भूलकर भी एक शब्द नहीं कहा। यह बात मुझे उसके अत्यधिक हताश-निराश होने का संकेत लगी थी। 

मेरी चिंता बढ़ गई कि उसकी यह निराशा उसे तबाह कर देगी। मैंने वीर से यह बात कही तो उसने भी कहा, “मैं भी यही सोच रहा हूँ, वह मुझ से कई बार बोल चुकी है कि ‘अब तुम भी फोन मत किया करो, मैं अकेली आई हूँ, मुझे अकेली ही रहना है, यही मेरी क़िस्मत है। अब तुम भी मुझे छोड़ दो।’

“तुम्हारे लिए भी यही कहा कि ‘भैया से कह दो कि अब वो भी मुझे भूल जाएँ।’ उसने मुझसे भी एक बार भी मॉडलिंग के बारे में कोई बात नहीं की। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि कोई किसी भी तरह से उससे मिल भी नहीं सकता। मिलने का दूसरा प्रभाव पड़ता है।” 

अगले ही दिन वीर ने सवेरे चार बजे फोन करके बताया कि “कल दिन में उसकी तबियत में कुछ सुधार हुआ था, लेकिन देर रात में बिगड़ गई, वह बोलते समय हाँफने लगती है। मुझे लगता है उसके ट्रीटमेंट कहीं कुछ गड़बड़ी हुई है।”

उसकी इस हालत पर वीर बहुत परेशान हो गया था। इतना कि स्वयं को रोक नहीं सका। न जाने कैसे हॉस्पिटल एम्प्लॉई का फ़र्ज़ी पास बनवा लिया और पी.पी.ई. किट, फेस-मास्क, ग्लव्स, जो कुछ भी मेडिकल स्टॉफ़ उस समय यूज़ करते थे, उन्हें पहन कर बिजली मेंटिनेंस कर्मचारी बन कर गुलनिशां से मिल आया। 

घर पहुँच कर तुरंत मुझे फोन किया। कहा, “वह बीमारी से ज़्यादा मानसिक रूप से परेशान है। मैं आठ फ़ीट की दूरी से जैसे ही बोला, ‘गुल’ तो वह तुरंत आवाज़ पहचान गई। एकदम झटके से उठी मेरे पास आने के लिए। लेकिन अगले ही पल अपनी कमज़ोर स्थिति, मुझ तक इन्फ़ेक्शन फैलने की बात ध्यान आते ही वह ग़ुस्से से पागल हो गई। 

“तुरंत दाँत किटकिटाती हुई बोली, ‘तुम पागल हो गए हो क्या? मेरे लिए अपनी जान देकर, बीवी, बच्चों, माँ-बाप को बर्बाद करने पर क्यों तुले हुए हो। तुरंत चले जाओ, नहीं तो मैं अभी यहीं से नीचे कूद जाऊँगी।’

“यह कहती हुई, वह खिड़की के पास पहुँच गई। कमज़ोरी के कारण उसके पैर, ज़ुबान दोनों लड़खड़ा रहे थी। हताशा-निराशा में वह कुछ भी कर सकती है, यह सोच कर मैंने हाथ जोड़कर शांत रहने का इशारा किया और तुरंत वापस चल दिया। 

अब-तक कई पेशेंट को मुझ पर डाउट होने लगा था कि मैं स्टॉफ़ नहीं हूँ। इसलिए मैं वहाँ से तुरंत चला आया। उसकी हालत बहुत सीरियस हो चुकी है। समझ में नहीं आ रहा है क्या करूँ, किस ज़्यादा इक्सपीरिएंस्ड डॉक्टर को ढूँढ़ूँ।”

मैंने कहा, “इस बीमारी के आगे दुनिया के सभी डॉक्टर्स अनइक्सपीरिएंस्ड हैं। सभी के लिए यह नई है, पहला अनुभव है।”

उसकी बातें सुनकर मैं हैरान रह गया कि वह गुलनिशां के लिए अपनी जान भी ख़तरे में डाल आया। कहीं बीच में ही पुलिस के हत्थे चढ़ जाता, तो अब-तक जेल में होता। इसने तो अपने पूरे परिवार को ही ख़तरे में डाल दिया है। अगले कम से कम पंद्रह-बीस दिन तो संक्रमण की आशंका बनी ही रहेगी। 

उसकी इस बात से भी मेरी आशंका दूर नहीं हुई कि हॉस्पिटल से निकलते ही उसने पूरे शरीर पर सैनिटाइज़र स्प्रे किया था। घर का गेट खोलने से पहले दुबारा किया था, जूतों के तलवे तक में। गेट सहित मकान को जहाँ-जहाँ टच किया, वहाँ भी ख़ूब स्प्रे किया। लेकिन मेरे मन से संक्रमण का डर नहीं गया। 

मैं गुलनिशां को प्रोत्साहित करने वाले मैसेज भेजता, उसे समझाता। उसे वाक़ई बात करने में बहुत समस्या हो रही थी। उसकी साँस फूल रही थी। मैं बार-बार उसकी मेल चेक करता कि किसी मैग्ज़ींन से कोई अच्छा समाचार मिले तो उसे बताऊँ कि तुम इंटरनेशनल मॉडल बन गई हो। फ़लाँ मैग्ज़ींस से तुम्हें ऑफ़र मिला है। यह जानकर उसका उत्साह ज़रूर बढ़ेगा। वीर से यही सब विचार-विमर्श किया करता था। 

लेकिन गुलनिशां अपने परिवार से, विशेष रूप से माँ से अति की सीमा तक निरादर, घृणा मिलते रहने के कारण ऐसा डिप्रेस हुई कि हॉस्पिटल की खिड़की का शीशा तोड़कर, चौथी मंज़िल से नीचे कूद गई। माँ, भाई-बहनों के निरादर, घृणा, सहित सारी समस्याओं से हमेशा के लिए मुक्ति पा ली। दुनिया की उन नज़रों, लोगों से भी जो उसे नोच खाना चाहती थीं। 

गुलनिशां ने बहुत सोच-समझ कर ऐसे समय में यह क़दम उठाया था, जब लॉक-डाउन के कारण माँ चाह कर भी नहीं आ सकती थी, भाई-बहन पहले ही से आइसोलेशन में थे। लेकिन वीर नहीं रुका। 

तमाम बाधाओं, ख़तरों के बावजूद उसने अंतिम संस्कार का पूरा इंतज़ाम कराया। सबसे पहले उसकी माँ, भाई-बहन को वीडियो कॉल कर के अंतिम दर्शन कराए। मुझे भी। साथ ही मेरी तरफ़ से भी उस पर ख़ाक डाली। 

इसके बाद वीर को बीस दिन आइसोलेशन में रहना पड़ा। वह बहुत दुखी था। लेकिन उसके पूरे परिवार ने उसके दुख को अपने साथ इतनी गहराई से जोड़ लिया कि उसकी आँखों के आँसू पलकों के बाहर नहीं आ पाए थे। 

इस बीच मैं एक बड़ी दुविधा में पड़ गया कि यदि किसी मैग्ज़ीन से ऑफ़र आया तब मैं क्या करूँगा। मेल के ज़रिए मैं उन्हें जो भी कहूँगा, वह उसे गुलनिशां की बात समझ कर ही आगे बढ़ेंगे। 

क्या उन्हें यह सूचना दे दूँ कि अब वह अनिंद्य सुंदरी दुनिया में नहीं रही। इसलिए उसकी फोटो न छापें। वह फोटो जिसे उसने तमाम ख़तरे मोल लेकर खिंचवाई थीं, कई महीने कड़ी मेहनत की थी। 

उसी समय मुझे याद आया कि कुछ ऐसे साहित्यकार भी हुए हैं, जिनकी रचनाएँ उनके न रहने पर छपीं, और उन रचनाओं ने ही उन्हें अमर कर दिया। गुलनिशां भी तो नाम कमाना चाहती थी। 

कुछ निर्णय लेने से पहले मैंने वीर से बात करना ज़रूरी समझा। गुलनिशां की तीसरी रिपोर्ट पॉज़िटिव नहीं, निगेटिव थी। जिसे सुनकर मेरे मन में आया कि गुलनिशां काश तुम में जल्दबाज़ी की आदत नहीं होती। 

4 टिप्पणियाँ

  • 14 Oct, 2022 12:35 AM

    कहानी में मॉडलिंग के प्रोफ़ैशन की बारीकियों को पढ़ते हुए यह तो निश्चित हो गया कि कहानी लिखने से पहले बहुत गहन रिसर्च की गई होगी। लेखक इसके लिए बधाई के पात्र हैं।

  • 1 Oct, 2022 12:17 PM

    मॉडलिंग ,फोटोग्राफी और उलझे हुए मानवीय, पारिवारिक संबंधों को बताती रोचक, मार्मिक कहानी | अच्छी रचना के लिए बधाई और आभार.

  • 27 Sep, 2022 03:37 PM

    Respected, Pradeep sir ,ग़जब की अभिव्यक्ति, दिल को छु देने वाली कहानी.gulnisha काश! आप जल्द बाजी ना करती.लेकिन अपनो के द्वारा दी हुई पीड़ा सारे सपनो को चकना चूर कर देता है, दर्द नाक अंत.उफ़ किसी के साथ ना हो.! God bless you sir

  • हमेशा की तरह शानदार और जबरदस्त अभिव्यक्तियां

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