अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 7 

 

खालियापाली में महिला अनुयायियों को अनुमति देने की वजह से न केवल आस-पास के लोग, वरन् जोरन्दा आश्रम के दीक्षित साधु भी मुझे लंपट, भाँड़, दुराचारी और दुश्चरित्र आदि नामों से संबोधित करते थे। 

देखते-देखते हमारे साधुओं में भी दो वर्ग बन गए। एक, वल्कलधारी—जो कुंभी पेड़ों की छाल से अपनी नग्नता ढकते थे, उन्हें हम साधारण भाषा में कुंभीपटुआ कहते हैं। और दूसरे साधु-कपड़े की कौपीन पहनते थे, वे कौपीनधारी कहलाते हैं। महिमा धर्म में भी यह वर्गीकरण बौद्ध धर्म की तरह ही था, बुद्ध की मृत्यु के बाद उस धर्म में भी महायान और हीनयान दो सम्प्रदाय पैदा हो गए थे। महिमा स्वामी की मृत्यु के पश्चात वल्कल धारी और कौपीन धारियों के दो संप्रदाय बन गए। वल्कलधारी अपने आप को कौपीनधारियों से श्रेष्ठ समझने लगे, क्योंकि महिमा स्वामी स्वयं वल्कलधारण करते थे, मगर पहले तो वे भी कपड़े की कौपीन ही पहनते थे। वल्कलधारियों का मानना था नारी नरक की खान है। अगर नारियों को इस धर्म में दीक्षित किया गया तो शीघ्र ही यह धर्म दूषित हो जाएगा। भगवान बुद्ध ने भी तो कहा था कि बौद्ध धर्म में भिक्षुणियों के आगमन से यह धर्म अधिक से अधिक चार सौ साल ही चल पाएगा। हुआ भी कुछ ऐसा ही। जबकि कौपीनधारियों का मानना कुछ और ही था। उनके अनुसार नारी नरक की नहीं, नर की खान है। उन्हें भी यह जीवन-शैली अपनाने का अधिकार है। 

मुझे मालूम नहीं, मुझ पर बुद्ध का प्रभाव ज़्यादा था महिमा स्वामी का। जो भी हो मैं अपनी आत्मा की आवाज़ सुनता था। दुनिया चाहे जो कुछ कहे, करता वही था—जो मन कहता था। बुद्ध के अनुरूप मेरा मन भी निश्छल और निर्मल था। मैंने खालियापाली में महिलाओं को दीक्षित होने की अनुमति दे दी। उनके लिए अलग से ‘माता मठ’ की शाखा खोलने का प्रस्ताव रखा, जो जोरन्दा वालों को पसंद नहीं आया। वे मेरी तीखी आलोचना करने लगे, भद्दी-भद्दी गालियाँ देने लगे, फिर भी मैं टस से मस नहीं हुआ। महिला भी पुरुष की तरह ही भगवान की देन है, जब महिमा-धर्म हर जीव को समान दृष्टि से देखता है तो इस आध्यात्मिक पथ पर औरतों को अनुमति देना कहीं से भी अनुचित प्रतीत नहीं हो रहा था। 

मुझे पता है, मैंने सुना है, जब शैव धर्म में अति-वैराग्य प्रवृत्ति के कारण पुरुष घर-संसार त्यागकर नागा बाबा बन जाते हैं तो क्या महिला नागी बाबी नहीं बन सकती? क्या नागी बाबी होने से भ्रष्टाचार व्याप्त होगा? जब महिमा-धर्म इंद्रियों पर नियंत्रण करना सीखाता है तो अवैध सम्बन्ध पनपने की कोई गुंजाइश नहीं है। खालियापाली में तो मेरे भक्त महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से देखते थे। वे अन्नपूर्णा को माँ अन्नपूर्णा और आदिशक्ति के नाम से संबोधित करते थे। लावण्यवती, सुमेधा, रोहिणी, सरस्वती, क्षमावती सभी महिला उपासकों को देवी का दर्जा देते थे। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवाः’ मगर अभी से ही मुझे इस बात का अहसास होने लगा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे ही भक्त मेरे उपदेशों की अवहेलना और अवमानना करेंगे। 

मठ में साधारण महिलाओं को भी प्रवेश की अनुमति नहीं देंगे। जैन धर्म में साध्वियाँ होती हैं, बुद्ध धर्म में भिक्षुणियाँ होती हैं तो महिमा धर्म में महिला उपासक क्यों नहीं हो सकती हैं? महिलाओं की वकालत और समर्थन करने की वजह से तत्कालीन साधु-समाज मुझे हेय दृष्टि से देखने लगा। मैं अपने गुरु भाइयों के आँखों की भी किरकिरी बन गया। 

उस समय ओड़िशा में अँग्रेज़ों की सरकार थी। देश की कई रियासतों पर अँग्रेज़ों का शासन चल रहा था, तो कुछ रजवाड़ों में मुस्लिम शासकों का दबदबा था। दोनों ही एकेश्वरवाद के समर्थक थे और हमारा धर्म भी इस विचारधारा को मान्यता देता था। यही समानता देखकर पादरी और अन्य ईसाई मिशनरियाँ भी हमारी ओर आकृष्ट हुई। ईसाई सोच रहे थे, मैं उनके लिए ईसाई धर्म का प्रचार में आने वाली बाधाओं को दूर करता जा रहा हूँ, उसी तरह मुस्लिमों की धारणा थी कि उनके धर्मांतरण का काम सहज होता जा रहा है। मगर ऐसा नहीं था। 

मेरे धर्म में महिमा धर्म का ख़ून दौड़ रहा था। जब लोग मुझे अलेख निरंजन के प्रचारक के रूप में देखते थे तो ‘ईसाई’ कहकर मेरी घोर भर्त्सना करते थे। जिसके मन में जो आए, वह गाली दे देता था। कोई मुल्ला मौलवी भी कहता था। मैं किसी के विचारों पर प्रतिबंध तो नहीं लगा सकता था कि कौन मुझे किस नाम से संबोधित करें? 

मुझे राजा, ब्राह्मण और वेश्या से सख़्त नफ़रत थी। मेरे अनुयायी उनके घर की अन्न-भिक्षा तक ग्रहण नहीं करते थे, क्योंकि उनकी कमाई में मुझे साधारण जनता का शोषण नज़र आता था। ये लोग साधारण जनता की आस्था और भावना के साथ खिलवाड़ करते थे, उनके भोलेपन का भरपूर फ़ायदा उठाते थे। 

मैं सदैव जातिवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करता रहा हूँ, इस वजह से तत्कालीन शूद्र जातियों वाले जैसे हाडी, पाण, चमार, कौल, बाऊरी, तेली तथा अंत्यज वर्ग के लोग मेरी तरफ़ आकृष्ट हो रहे थे। हमारे यहाँ सभी जातियाँ बराबर थीं। क्या ब्राह्मण, क्या चमार और क्या तेली! 

समाज में औरतों के स्तर को ऊपर उठाने जातिविहीन समाज की रूपरेखा तैयार करने तथा ज़मींदारी सामंतवादी प्रथाओं का खुलकर विरोध करने की वजह से समाज का आभिजात्य संभ्रात वर्ग मेरा घोर दुश्मन बनता जा रहा था। मुझे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता था। जगह-जगह गालियों की बरसात तो जगह-जगह तरह-तरह के ताने सुनने पड़ रहे थे। कई बार तो मुझे काल-कोठरी में बंद कर दिया जाता था तो कई बार धक्का-मुक्की, लात-घूंसे और लाठियों से पीटा जाता था। 

सब-कुछ सहन कर रहा था। शून्य की आराधना से मुझे इतनी शक्ति मिल चुकी थी कि अगर चाहता तो सारी दुनिया में हाहाकार मचा देता, मगर इस हेतु गुरु की आज्ञा नहीं थी। 

ब्राह्मणिक परंपराओं के पाखंड का खंडन करने के लिए मैं वेदों के ख़िलाफ़ काव्य-रचना करता था। 

उनके द्वारा बताई गई पूजा-पद्धतियों को सरासर झूठ बताता था, तिलक-चंदन, तुलसी-पत्र के सेवन को व्यर्थ कहता था। महँगी शादी की आलोचना करता था। शुद्ध जीवन पद्धति, ईमानदारी की कमाई, अलेख के प्रति श्रद्धा, सादा शाकाहारी भोजन और जैव-मेत्री पर विशेष बल देता था। किसी भी प्रकार की हिंसा मुझे पसंद नहीं थी। मैं जीव-हत्या के सर्वथा ख़िलाफ़ था। मेरी नज़रों में संस्कृत भाषा का कोई आदर नहीं था, क्योंकि इस भाषा के माध्यम से आम-जनता को अगडम-बगडम, अनर्गल साँप-बिच्छू भगाने जैसे मंत्रों का उच्चारण कर ब्राह्मणों द्वारा साधारण जनता को मूर्ख बनाकर लूटा जा रहा था। आम-जनता इस भाषा से अनभिज्ञ थी। भगवान और साधारण मनुष्य के बीच ब्राह्मणों की मध्यस्थता मुझे स्वीकार्य नहीं थी। लाचार अंधा होकर भी मैं अकेले महिमा धर्म के संवाहक के रूप में कार्य कर रहा था। समाज के कमज़ोर तबक़े वाले लोग ही अधिकांश मेरे शिष्य बने हुए थे। कोई भी उन्हें तरह-तरह के भय दिखाकर उन पर आसानी से अत्याचार कर सकते थे। मेरी भाषा साधारण लोगों की भाषा थी, गाँवों की भाषा थी, गँवारों की भाषा थी, इस वजह से लोग बहुत जल्दी समझ जाते थे। 

जिस तरह बुद्ध ने त्रिपिटक का संस्कृत में अनुवाद करने से मना कर दिया और तत्कालीन पाली भाषा में ही अपने उपदेश और व्याख्यान दिए। अपने धर्म में सभी जातियों के लिए द्वार खोल दिए और महिलाओं को भी अपने धर्म में प्रविष्ट किया। उन्हें आध्यात्मिक पथ पर चलने हेतु उच्चकोटि का दर्जा दिया। 

वेद-पुराणों का खंडन-मंडन किया और अपने दर्शन-शास्त्र अपने अनुभवों के आधार पर तैयार किए। महिमा स्वामी भी तो बुद्ध की तरह ही थे। विष्णु-भक्त अर्थात् वैष्णव से शून्य पूजक होने की उनकी बहुत लंबी कहानी है। पहले वे पूरी में विष्णु की पूजा करते थे, बाद में कपिलास में शैव भक्त बने और जब उन्हें भीतर ही भीतर लगा कि ये सब पूजा-पद्धतियाँ सही नहीं होकर मिथ्या हैं, छल है, पाखंड है, दिखावा है तो उनका मन वैष्णव और बौद्ध धर्म से उचट गया। उनकी प्रवृत्ति निराकार की ओर मुड़ गई। यह उनके जीवन का प्रमुख मोड़ था। निराकार शून्य पुरुष को अपने भीतर अनुभव कर उनके दर्शन किए। यही सारा ईश्वरीय ज्ञान उन्होंने शक्तिपात के माध्यम से मेरे भीतर स्थानांतरित कर दिया। यह वैसा ही परिवर्तन था, जब अद्धैत वेदांती गुरु रामकृष्ण परमहंस ने अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा का अपने शिष्य विवेकानंद में शक्तिपात किया था। 

धीरे-धीरे लोग मुझे केवल भक्त, कवि, उपदेशक या चमत्कारी बाबा ही नहीं समझते थे, बल्कि समाज सुधारक भी मानते थे। आर्थिक असमानता, जातिगत भेदभाव, धार्मिक और मानसिक ग़ुलामी, नारियों पर अत्याचार मुझे क़तई पसंद नहीं थे। मुझे राजाओं और ब्राह्मणों से तो घोर नफ़रत थी, इसके बावजूद कुछ धार्मिक, परोपकारी और सहिष्णु राजाओं और ब्राह्मणों ने मेरी बहुत सहायता की, जिसे मैं कभी भी भूल नहीं सकता। 

सोनपुर के राजा नीलाधर सिंहदेव ने खालियापाली में मेरा मठ बनवाया तो कुछ सच्चे ब्राह्मणों ने मेरी वाणी को क़लम बद्ध किया। मुझे इस धरती पर जो कुछ मिला, वह शून्य पुरुष की ही देन है। 

जो कुछ मैं मानव समाज और सभ्यता को देख सका, वह मेरे गुरु के आशीर्वाद के सिवाय कुछ भी नहीं था। 

मेरी रचनाओं में मेरे गुरु की वाणी है, न कि मेरी। जो वे कहते थे, वही मैं कहता था। ज्ञान का सारा भंडार उन्हीं का था, मेरा शरीर तो केवल निमित्त मात्र प्रयोजन सिद्ध करने के लिए बना हुआ था। आज भी मुझे इस बात का गर्व है कि मेरी यह विकारी देह गुरु के महान उद्धेश्य पूर्ति में काम आ रही थी, अन्यथा इस विशाल धरती पर मेरे जैसे लावारिस, असहारा, परित्यक्त, अरक्षित और अंधे युवक बहुत घूम रहे होंगे। यह मेरा अभागा प्रारब्ध ही था कि मैं नीच जाति में पैदा हुआ और वह भी लाचार। पढ़ना-लिखना तो दूर की बात, एक वक़्त का खाना मिल जाए—यही मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी। मेरे जैसे काँच के भंगुर टुकड़े को सँवार कर कोहिनूर हीरे में बदलने का कार्य तो अलेख गुरु ने किया है। मैं अपना सारा जीवन उनकी चरणों में अर्पित करने का संकल्प लेता हूँ। 

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