अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 3

यद्यपि हलधर नाग का ‘भीम भोई’ खंड काव्य संबलपुरी भाषा में लिखा गया है, मगर उनके द्वारा टूटी-फूटी हिन्दी भाषा में की गई अभिव्यक्ति आनंद के मानस पटल पर हमेशा के लिए छा गई। संबलपुरी और हिन्दी भाषा में कोई ख़ास अंतर नहीं है। ऐसे भी हलधर नाग की शैली श्रोताओं को बाँधकर रखती है। 

आनंद सोच रहा था कि कोशलांचल के लोगों में भीम भोई के प्रति असीम श्रद्धा है और उन्हें दिव्य पुरुष मानकर आराधना करते हैं। 

हलधर नाग की भीम भोई के पूर्व जन्म पर आधारित मिथकीय सृष्टि ने आनंद के मन में जाटेसिंहा गाँव के प्रधानाचार्य के घर से प्राप्त पांडुलिपि के बारे में विशेष रुचि पैदा कर दी। वह यह मानने के लिए तैयार हो गया कि भीम भोई में भले ही राधा की आत्मा हो न हो, मगर किसी महान संत की आत्मा अवश्य अवतरित हुई होगी। ईश्वर की अनुकंपा और गुरु की महिमा से ही उनके भीतर कवित्व का अजस्र स्रोत फूटा होगा। उनके जीवन पर लिखी गई पांडुलिपि किसी विशेष युग का अवश्य प्रतिनिधित्व करेगी। 

घेंस गाँव से हलधर नाग से विदा लेने के बाद डॉ. हरिशचंद्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार सिंह को संबलपुर में उतारकर आनंद और अरुण रेढ़ाखोल पहुँचे। वहाँ फिर भीम भोई की मूर्ति के पास रुककर सामने वाली होटल में चाय-नाश्ता कर तालचेर की ओर प्रस्थान किया। 

तालचेर पहुँचकर आनंद ने लिंगराज कॉलोनी में स्थित अपने क्वार्टर के अध्ययन कक्ष में पांडुलिपि की पोटली रख दी। 

सवा सौ साल पुरानी पांडुलिपि। 

काग़ज़ों की नहीं, बल्कि ताल-पत्रों पर उत्कीर्ण। लोहे की लेखनी से गोल-गोल शब्द उकेरे गए थे। जर्जर अवस्था में दिख रही थी वह पांडुलिपि। ताल-पत्र जहाँ-तहाँ भंगुर हो चुके थे, उन पर उकेरे अक्षर भी कहीं-कहीं टूट गए थे। कुछ अक्षरों को पढ़ने के लिए अनुमान लगाना पड़ रहा था। कहीं-कहीं अस्पष्ट अक्षरों को पढ़ने के लिए मोटे उत्तल लेंस की सहायता लेनी पड़ रही थी। आध्यात्मिकता से परिपूर्ण सधुक्कड़ी भाषा में जहाँ-तहाँ उलटबाँसी, उपमा-अलंकार, लक्षणा और व्यंजना शक्ति के प्रयोगों से युक्त कई भजन, स्तुति, आराधना वाली काव्य-कविताएँ थीं तो कहीं-कहीं गद्य शैली में भीम भोई के आत्मचरित का भी वर्णन था। अद्भुत समन्वय था गद्य और पद्य का। 

आनंद ने अनुमान लगा लिया था कि इस पांडुलिपि को पढ़ने में उसे कम से कम एक साल लगेगा। अर्थ अस्पष्ट होने पर आनंद की अपनी शंकाओं का समाधान करने के लिए शोधार्थियों का सहयोग लेना पड़ेगा। उनके आलेख, पाद-टिप्पणी, विवेचना, समीक्षा, संदर्भ-ग्रंथों और आलोचनात्मक पुस्तकों का गहन अध्ययन करना पड़ेगा। हो सकता है, उसे भुवनेश्वर जाकर पद्म-विभूषण, ज्ञानपीठ और अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित वयोवृद्ध ओड़िया कवि डॉ. सीताकांत महापात्र की शरण में भी जाना पड़ेगा, अपनी शंकाओं के निवारण हेतु। 

भीम भोई की पांडुलिपि पढ़ना आनंद के लिए आकाश से तारे तोड़ने जैसा कार्य था, सवा सौ साल पूर्व समाज में झाँकने का प्रयास करना और तत्कालीन मनुष्यों के मन-मस्तिष्क में ईश्वर संबंधित धारणाओं की विवेचना करना निस्संदेह दुष्कर कार्य था और वह भी उस भाषा में, जो उसकी अपनी मातृभाषा नहीं है, नौकरी की अवधि के दौरान अर्जित की हुई भाषा है। भाषा भी तो बहते पानी की तरह है। समय के साथ शब्द भी गिरगिट की तरह रंग बदल देते हैं। सवा सौ साल पुराने शब्दों के अर्थ इस समय तक काफ़ी बदल चुके होंगे। आनंद के लिए पांडुलिपि का अध्ययन करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। जातिविहीन समाज की सृष्टि में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले एक अंधे क्रांतिकारी संत की कहानी। वह क्रांति भी गोले-बारूदों और तलवारों से नहीं, बल्कि कविता के माध्यम से। जाति से आदिवासी, आँखों से दृष्टिहीन, पढ़ाई-लिखाई में शून्य—क्या वह मनुष्य समाज को नया मार्ग दिखा सकता है? मान लेते हैं, कुछ रास्ता दिखा भी दिया तो सवर्ण लोग क्या सहजता से मान जाएँगे? तत्कालीन समाज सामंतवादी परंपराओं और अनेकानेक कुरीतियों से भरा हुआ था। जातिप्रथा का तो कहना ही क्या! ठूँस-ठूँसकर भरी हुई थी समाज के हर कोने में। चारों तरफ़ बंधन ही बंधन, प्रतिबंध ही प्रतिबंध। अटूट बेड़ियों से जकड़े उस युग में एक अंधे कवि ने जातिविहीन समाज की कल्पना की मूर्तिपूजा का घोर विरोध किया, निराकार-निर्गुण-निरंजन शून्य में परमसत्ता को खोजने का आह्वान किया-केवल अपने भजनों और अपनी कविताओं के माध्यम से। लाखों लोगों के भीतर एक नई आध्यात्मिक चेतना को जगाया। 

आनंद ने मन ही मन भीम भोई को प्रणाम किया और सोचने लगा काश! शून्य से भीम भोई की आत्मा उसके शरीर में प्रवेश कर जाए और उसके पास रखी हुई पांडुलिपि के काव्य-कविताओं, भजनों के गूढ़ार्थ व यथार्थ व्याख्या करने में मदद करें। 

यह सोचने हुए पांडुलिपि की पोटली खोलकर पहला तालपत्र अपने मेज़ पर रखा और पढ़ना शुरू किया। 

पांडुलिपि का पहला अध्याय। 

मैं भीम भोई अपनी आत्मकथा लिखने जा रहा हूँ, जो सदियों तक रहस्यमयी बनकर रहेगी। मेरे पिता अनादि ठाकुर हैं और मेरी माता आदि शक्ति नारी। काव्य-कला के साथ उनकी कोख से मेरा जन्म हुआ। सर्वप्रथम माता-पिता के चरणों में मेरा शत्-शत् नमन। मेरे पास उनके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए कोई शब्द नहीं हैं। हे गुरु देव स्वामी! तुम तो सब-कुछ जानते हो, मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है। मुझ पर आप दया करो। 

मेरी सारी कामनाएँ-कल्पनाएँ आपके चरणों में समर्पित हैं। वे सारगर्भित हो या नहीं, मेरे वाक्यों में आपका वात्सल्य झलकना चाहिए। 

जिस तरह मानसून में महानदी में ऊफान आता है, वैसे ही समय आने पर मेरी कविताओं में भी लय और अर्थ का ऊफान आने लगेगा। अपने प्राणों के ख़ातिर मैं आपके शरणागत हूँ। मुझ पर आप क्रोध मत करना। आपके चरणों की छत्र-छाया में मेरा जीवन सदैव सुरक्षित रहेगा। 

मैं रात-दिन अपने माता-पिता के चरणों की वंदना करता हूँ, उसके सुधा मधुरस का नित्य पान करता हूँ। अब मैं द्रुम से दूब बन गया, समय के थपेड़े खाकर। माता-पिता की करुणा के बिना इस जगत में मुझे कहीं पर ठाँव नहीं मिलेगा। गुरु से मज़ाक करने के कारण आज मैं दृष्टिहीन हो गया हूँ। मैंने वेद-शास्त्र बिल्कुल नहीं पढे़ हैं। शून्य से प्राप्त बुद्धि-तरंगों के अनुरूप मैंने अभी तक अपने काव्य लिखे हैं। 

लोग मुझे चमत्कारिक पुरुष बनाने के लिए मुझे अंधा कवि कहते हैं, जबकि आँखों से मैं अंधा नहीं हूँ। अवश्य, कभी-कभी अंधा होने का स्वाँग करता था। कुछ लोग तो मुझे जन्मांध कहने लगे तो कुछ लोग किशोरावस्था में चेचक की बीमारी के करण मेरे नेत्रों की रोशनी चली गई—कहकर प्रचार करने लगे। जबकि सच्चाई कुछ और थी। मैं अपनी आँखें अधिकांश समय बंद रखता था, अपनी भीतरी दुनिया में सैर करने के लिए। यह बात सही है जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई, मेरे नेत्रों की ज्योति क्षीणतर होती गई। मेरे गुरु ने मुझे अलेख ब्रह्म की दीक्षा दी तो मुझे कहाँ से ईश्वर के दर्शन हो पाते, इन भौतिक आँखों से आध्यात्मिक तौर पर इसलिए मैंने अपने आपको अंधा कहना शुरू कर दिया, जबकि दुनिया की विद्रूपताओं और कुरूपताओं को देखने से बेहतर मेरे लिए अंधा बने रहना ही था। 

जहाँ तक मेरी स्मृति जाती है, मुझे अच्छी तरह याद है, सन् 1850 के आस-पास का समय होगा, मंगल पांडे ने अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सैनिक विद्रोह किया था। उस समय भारत छोटी-छोटी रियासतों में बँटा हुआ था। धार्मिक तौर पर भी समाज कई हिस्सों में विभाजित था, देवी-देवताओं के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह अलग-अलग सम्प्रदाय पैदा हो गए थे। कोई शैव मत मानने वाला था, तो कोई शाक्त-धर्म का अनुयायी। कोई वैष्णव धर्म का अनुसरण कर रहा था तो कोई वैदिक परंपराओं को मान्यता दे रहा था। बौद्ध धर्म और जैन धर्म भी समाज में अपना परचम फैलाने लगे थे। विदेशी धर्मों में मुस्लिम और ईसाई धर्म नए-नए रूपों में पल्लवित हो रहे थे। ऐसे दुर्दिन में हमारा देश तो क्या ओड़िशा राज्य भी छोटे-छोटे रजवाड़ों में वर्गीकृत था। 

मेरा गाँव-जटासिंहा-रेढाखोल राजा के अधीन था। मनु संहिता के अनुरूप रेढाखोल का समाज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्णों में विभाजित था। मेरे जैविक माँ-बाप कौन थे, मुझे आज तक मालूम नहीं। लावारिस पड़ा हुआ था मैं। शायद मैं किसी कंध आदिवासी पुरुष और ब्राह्मण स्त्री की अवैध संतान था या फिर बौद्ध धर्म में दीक्षित भिक्षु-भिक्षुणी की। बौद्ध विहारों के कठोर नियमों की वजह से शायद उन्होंने मुझे त्याग दिया होगा, मालूम नहीं। कोई-कोई उनका नाम सनातन और सुमति बताते थे। जीवन भर में अपने जैविक माता-पिता की तलाश करता रहा, मगर मुझे कोई सफलता नहीं मिली। इसलिए जब भी कोई मुझे अपने माता-पिता के बारें में पूछता था तो मैं उन्हें अमूर्त्त उत्तर देता था कि अनादि पुरुष मेरे पिता हैं और आदि-शक्ति मेरी माता। और क्या कहता? मैं अपने भजनों में भी यही बात दोहराता था। सच में, देखा जाए तो सभी प्राणियों के माता-पिता परमपिता परमेश्वर ही तो हैं, जिसे मेरे गुरु ‘महिमा अलेख’ कहते थे। मेरे जैविक माता-पिता ने मुझे एक तालाब के किनारे कमल के पत्ते पर लपेट कर भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था, मगर कहते हैं—‘जाको राखे साईंयां, मार सके न कोई’। अच्छा हुआ, एक कंध दंपती ने मुझे वहाँ से उठाकर संतान की तरह पालने लगे। वह दंपती थी, गुरु बारी और दनार की। आदिवासी सीधे-सादे लोग। दनार मेरे पिता बने और बाँझ गुरु बारी मेरा भरण-पोषण करने वाली माँ। 

जब मैं पाँच साल का हुआ था तो मेरी माँ गुरु बारी मेरे पिता से कह रही थी, “भीम के आने से हमारी क़िस्मत बदल गई। निस्संतान होने के कारण मेरा कोई मुँह तक नहीं देखता था, सगुन देखना तो दूर की बात। 

“एक बार गाँव का जमींदार कोर्ट-कचहरी के चक्कर में जटासिंहा से कटक जा रहा था, तो मैं सामने से आ रही थी। दुर्भाग्यवश वह मुकदमा हार गया और उसने मेरे मुँह पर कालिख पोतकर पूरे गाँव में घुमाया था। अपनी हार का सारा ठीकरा मेरे ऊपर फोड़ दिया था। कितने भयंकर दुर्दिन थे वे हमारे लिए!” 

अपने अतीत को याद कर मेरी माँ रोने लगी। उसे सांत्वना देते हुए मेरे पिता दनार कहने लगे, “हाँ, गुरु बारी! हमें अपनी झोंपड़ी और खेत जटासिंहा में छोड़कर कंधरा आना पड़ा था। हमारे पूर्वजों की सारी सम्पत्ति वहीं छूट गई फिर भी भगवान ने हमारी लाज रख ली। असहनीय कष्ट दिए, तब भी बहुत कुछ दिया। गोल-मटोल चेहरे वाला मासूम हृष्ट-पुष्ट बच्चा उस धरती की ही देन है। मानती हो न?” 

मेरी माँ गुरु बारी ने दीर्घ-श्वास लेते हुए हामी भरी। कहने लगी, “यह तो सत्य है। इतना सुंदर-सलौना प्यारा बच्चा भीम की तरह बलिष्ठ और हृष्ट-पुष्ट दिख रहा था, इसलिए तो आपने उसका नाम भीम रख था। है न? आज हमारा भीम सबकी आँखों का तारा बन गया है। कंधार के सारे लोग उसे बहुत प्यार करते हैं।” 

जिस तरह कृष्ण के लिए यशोदा और नंद बाबा थे, वैसे ही मेरे लिए गुरु बारी और दनार बाबा थे। वात्सल्य भाव तो उनमें कूट-कूटकर भरा था, मगर मेरी क़िस्मत तो दुखों से भरी पड़ी थी। क्या कोई किसी के दुख मिटा सकता है? खेतों में लगातार बहुत काम करने के कारण मेरे पिता की असामयिक मृत्यु हो गई मेरी माँ गुरु बारी ने क़बीले के रीति-रिवाज़ के अनुसार ‘देवर दूसरा वर होता है’—मानकर उनके छोटे भाई अर्थात् मेरे चाचा धनेश्वर से अपना घर-संसार बसा लिया। मेरे सौतेले पिता की पहली पत्नी थी और तीन-चार बच्चे भी। अब न तो मुझे मेरी माँ प्यार करती थी और न ही मेरे सौतेले पिता। बात-बात पर दोनों मुझे ख़ूब डाँटते थे। मुझे रोना आता था। 

घर का सारा काम काज कर खेतों में गाय-भैंस चराने जाता था। एक दिन मैं खेत की मेड़ पर बैठकर आकाश की तरफ़ देखते हुए कुछ सोच रहा था कि अचानक मेरे मन में कविता की कुछ पंक्तियाँ जन्म लेने लगीं। मेरे भीतर क्या चल रहा था, मैं समझ नहीं पा रहा था। अपनी धुन में खो गया था। उसी दौरान हमारे जानवर पड़ोसी के खेत में घुस गए तो उसने मेरे पिता से मेरी शिकायत की। “धनेश्वर अपने जानवरों को सँभालो नहीं तो अगली बार अगर हमारे खेत में घुस गए तो उन्हें काट डालूँगा। फिर मत कहना कि मैंने तुम्हें चेताया नहीं था।” 

मेरी इस अन्यमनस्कता के कारण मेरे सौतेले पिता ने मेरी माँ के सामने लात-घूँसों से मारा और ग़ुस्से में आकर ज़ोर से चिल्लाते हुए कहने लगे, “कमीने! भाग यहाँ से। तेरी यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है। जा, भीख माँगकर खा। तुरंत मेरी नज़रों से दूर हो जा, वरना तुझे कच्चा खा जाऊँगा।” 

रोते-रोते मैं घर से बाहर निकल गया। जन्म से ही मेरे माँ-बाप नहीं, जो मिले तो पालक पिता का देहांत हो गया और सौतेले पिता ने तो अपने सौतेलेपन का रूप दिख दिया था, तरह-तरह की प्रताड़ना देकर। विचारों की उधेड़-बुन में, मैं चलता जा रहा था कि अचानक एक पुराने जर्जर सूखे कुएँ में गिर पड़ा। आँखों के आगे तारे नज़र आने लगे। मेरी आत्मा दर्द व्यथा से कराह उठी, “जिसने मुझ अभागे को जन्म दिया है, अगर वही बाहर निकालेगा तो ही निकलूँगा, अन्यथा यहीं बैठकर अपने प्राणों की आहूति दे दूँगा। और ऐसी भी मेरे जीवन में बचा ही क्या है?” 

कुएँ में गिरे हुए काफ़ी समय हो गया था। आकाश में अँधेरा छाने लगा था। लग रहा था शाम होने वाली है। मेरा आर्त क्रंदन सुनकर वहाँ से गुज़रने वाले पथिक उस कुएँ में झाँककर रस्सी फेंककर ऊपर आने के लिए कहते थे, मगर मैं तो ठहरा ज़िद्दी। जिसने मुझ अभागे को जन्म दिया है, उसी का कर्त्तव्य है मुझे बचाने का। मैं अपनी हठ धर्मिता पर क़ायम था, जिसने मुझे इस अंधे कुएँ में गिराया है, वही मुझे बाहर निकाले। कहते हैं, सच्चे मन से की गई कोई भी आर्त-पुकार व्यर्थ नहीं जाती। मुझे मेरे बाबा का कथन याद आ गया—जिसका कोई नहीं उसका तो भगवान होता है। ‘भागवत टुंगी’ पर उन्होंने भक्त सूरदास की कथा सुनी थी। सूरदास जन्म से अंधे थे, अचानक किसी गहरे गड्ढे में गिर गए, शायद मेरी ही तरह। बाहर नहीं निकलने की ज़िद देखकर कृष्ण भगवान को आकर ख़ुद उन्हें बाहर निकालना पड़ा था। जब सूरदास के लिए कृष्ण आ सकते है, तो मुझ जैसे असहाय भीम भोई के लिए क्या कोई भगवान नहीं आएगा? मेरा भी तो कोई भगवान होगा? अगर है तो वह मेरी सुध-बुध अवश्य लेगा। सोच-सोचकर मैं भाव-प्रवण हो जाता था, मेरा मन भारी होने लगा था। भूख से पेट में चूहे कूदने लगे। प्यास के कारण होंठ सूख गए थे। आख़िरकार पेट-दर्द इतना ज़्यादा बढ़ गया कि मुझे मेरा अंतिम समय नज़र आने लगा था। सोच रहा था, मर जाऊँगा तो अच्छा ही होगा मेरे लिए। बचपन से ही अनेक दुख सहे थे। दुनिया की निर्मम निष्ठुरता को बालमन की कोमलता क्या बर्दाश्त कर पाती? 

सोच रहा था बचपन से ही मैं प्रतिदिन जंगल में भटक रहा हूँ, मवेशियों को चराता हूँ। क्या जंगल में भटकने की मेरी उम्र थी? जब भी मुझे भयंकर भूख-प्यास लगती थी तो मैं अपने प्राण बचाने के लिए झरनों का पानी पीता था। शाम को आकाश की तरफ़ देखता था और सोचता था, घर जाने के लिए अभी समय नहीं हुआ है। घर पर न मुझे पीने को पानी मिलेगा और न ही खाने के लिए रोटी का एक कोर। इससे अच्छा तो मैं मर जाता, तो ये दिन देखने को नहीं मिलते। इतना संघर्ष, तनाव और गाली-गलौच सुनने के बाद भी मैं अपने आपको तसल्ली देता था। मेरी आँखों से ख़ून के आँसू बहते थे, जिसे पोंछने वाला कोई नहीं था। कौन मेरे दुख-दर्द में भागी होता? कहते हैं—‘जाके पाँव न फटी विवाई वह क्या जाने पीर पराई’। मेरे दुख-दर्द भगवान को छोड़कर और कोई नहीं जानता था। जब भी मैं उन दिनों को याद करता हूँ तो मेरा हृदय वेदना से छलनी-छलनी हो जाता है। मेरे हृदय में काँटे चुभने लगते हैं और क्रोध से मैं जल उठता हूँ। 

मैं बारह से चौदह साल का हो गया था। केवल मेरा मन जानता है कि कैसे-कैसे संघर्षां की ज्वाला में जला हूँ? जब मैं तनाव के समय आहें भरता था तो मेरी आँखें आँसुओं से लबालब भर जाती थीं, ललाट पर चिंता की रेखाएँ उभरने लगती थीं। अवसादग्रस्त होकर मैं अपने भाग्य को कोसने लगता था। भगवान, तुम ही मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे तो दूसरों से मुझे क्या उम्मीद होगी? 

मैं शून्य की ओर देखता और सोचता पता नहीं मैं कैसे अपना जीवन गुज़ारूँगा? दुख की नदी पार करने के लिए कौन सी डालीं पकड़ूँ? मेरे माता-पिता ने मुझे इस धरती पर लाए हैं तो मेरा लालन-पालन करने की उनकी ज़िम्मेदारी है। मैंने ऐसे क्या पाप किए, जिसके कारण आज न मेरा घर है, न कोई दोस्त और न ही परिवार। मैं जीऊँ तो कैसे जीऊँ? मन ही मन प्रार्थना करता था, “हे भगवान! मुझे अपने पाप-तापों से मुक्त कर दो। मुझे उलटाकर आप क्यों पीट रहे हो?” 

आज जब मैं अपनी आत्म-कथा लिख रहा हूँ तो बचपन के सारे दृश्य आँखों के सामने तरो-ताज़ा हो रहे हैं। मेरी जीवन-गाथा अभी भी समाप्त नहीं हुई है। कब तक ताल-पत्रों पर मैं लोहे की लेखनी से लिखता रहूँगा? बहुत दुख देखे हैं मैंने बचपन में। एक पल का भी सुख मुझे नहीं मिला। दुखों से मुझे अहसास हो रहा था कि मेरा चित्त शुद्ध हो रहा है। जब मैं दो साल का था, मुझे ऐसी अनुभूति हुई। उस समय अकेले में बैठकर दिशाओं में निहारता था तो मेरा कलेजा काँप उठता था। कभी-कभी तो मैं मूर्च्छित भी हो जाता था। मैं सोचता था, मेरा यह मानव जीवन कितना मूल्यवान है। मुझे जानना है कि मेरे इस शरीर में आत्मा कहाँ और कैसे निवास करती है? मेरी जीवन-नैया कैसे पार होगी? अनंत आकाश की ओर देखने से लगता था और सोचता था कि अब मैं मर चुका हूँ। 

जब मैं चार साल का था, ज्येष्ठ महीने में मेरी मुलाक़ात एक ऐसे योगी से हुई, जो पूरी तरह से निर्मोही, निरासक्त था और गाँव-गाँव में घूमता था। लँगोट पहना हुआ था, गंदा-मैला दिखता था वह। मैंने अपनी आँखों से उसकी भुजाओं पर शंख और चक्र के चिह्न देखे थे। वह गाँव की सड़क पर अकेले जा रहा था, उसके हाथों में खपरा था। ‘माँ दे दो, माँ दे दो’—कहते हुए वह भिक्षा माँग रहा था। जहाँ तक मुझे याद है मैं उसके नज़दीक गया था। उसके हाथ में कटोरा था। वह मुझसे कहने लगा, “बाबू, खाने को कुछ दे दो।” लोग इकट्ठे हुए थे मगर किसी ने कुछ नहीं दिया। सभी एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। ‘धर्म, धर्म’ की दुहाई देते वह योगी चला गया। मैंने कुछ दूरी तक उसका पीछा भी किया था, मगर कुछ समय बाद वह बहुत दूर जा चुका था। 

आज भी जब उन घटनाओं को याद करता हूँ तो मेरा हृदय अग्नि से धधक उठता है। मेरी आत्मा रोने लगती है। जब भी मुझे उन दिनों की याद आती है तो कह नहीं पाता कि मेरे साथ क्या हुआ था? मैं बहुत चिंतित था, मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे और हृदय की धड़कन बढ़ गई थी। उसके बाद दिन पर दिन बीतते चले गए। 

देखते-देखते, सुख-दुख काटते-काटते मैं सात साल का हो गया था। मैंने बहुत दुर्दिन देखे, भूख-प्यास से बेहाल हो जाता था छटपटाते-छटपटाते। शरीर दर्द से कराह उठता था, कस्तूरी हिरण की तरह दुखमय जीवन काट रहा था। 

धीरे-धीरे आठ, नौ, दस, ग्यारह साल गुज़र गए। मैं बारह वर्ष का हो गया। जंगलों में जानवर चराने लगा। पेड़ों की छाँव में बैठकर शोक-संताप से भर उठता था। जो कुछ भी मैं लिख रहा हूँ एकदम सत्य है। अगर एक शब्द भी झूठ होगा तो भगवान मुझे पाप का भागी बनाएँगे। 

अतीत की कहानियों के तले इस अंधे कुएँ में मेरा शरीर दबता जा रहा था। तरह-तरह के विचारों से मेरा मन उद्विग्न हो रहा था। मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा था। अचानक रात के अँधेरे में उल्कापात की तरह चमकीली रोशनी कुएँ की तरफ़ आने लगी। मैं अचंभित था। कुएँ के किनारे से आवाज़ आने लगी, “भीम! मैं आ गया हूँ। तुम ऊपर आओ। मैं तुम्हारा पिता हूँ।” 

मैं उस रोशनी को देख नहीं पर रहा था, मगर देखते-देखते, पता नहीं कैसे, मैं कुएँ की मुँडेर तक पहुँच गया। मैंने देखा, यह वही कोपीनधारी संन्यासी था, जिसे मैंने सात-आठ साल पहले अपने गाँव में देखा था। उसके हाथ पर भी शंख और चक्र के निशान बने हुए थे। वह मुझे कुएँ से बाहर निकालकर गाँव की पगडंडी पर नाक की सीध में चले जा रहा था। मैंने पीछे से उसे आवाज़ लगाई। बिना पीछे मुड़े वह कहने लगा, “मैं ही तुम्हारा असली पिता हूँ, जिसे तुम अनादि पुरुष और आदि माता कह सकते हो। समय आने पर फिर मिलेंगे।” 

धीरे-धीरे वह संन्यासी दिग्वलय पर बिंदु की तरह नज़र आने लगा। बहुत दूर जा चुका था वह। अचानक एक चमकीली रोशनी आकाश में फिर से दिखाई दी। वह संन्यासी उस रोशनी में विलीन हो गया। मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा था कि मेरे साथ क्या हो रहा है? कौन-सी मायावी दुनिया में मैं विचरण कर रहा हूँ? इतना अवश्य समझ पाया कि किसी अलौकिक शक्ति ने मुझे बचाया है। उस प्रकाश को देखने के बाद मेरे लिए और कोई बाक़ी नहीं बचा था। मैंने उसी पल से बाहरी दुनिया को अपनी भौतिक आँखों से देखना बंद कर दिया। बाहरी दुनिया के लिए मैं अंधे के समान हो गया। मगर भीतरी दुनिया के लिए जगमगाता संवेदनशील इंसान। उस दिन से दो दुनिया का निवासी हो गया था मैं। बाहरी दुनिया के लिए अंधा बनकर पातुल लेकर भीख माँगता था, मगर भीतर की दुनिया में उस प्रकाश-बिन्दु के सामने मेरी शिकायतें दर्ज करवाता था, बाहरी दुनिया के ख़िलाफ़ तर्क-वितर्क करता था। मुझे भगवान ने इस धरती पर क्यों भेजा? क्या उद्देश्य था मेरा यहाँ जन्म लेने का? मैं पिछले जन्म में कौन था? अगर मैं ‘राधा’ की आत्मा हूँ तो कृष्ण अपना प्यार पाने के लिए अवश्य ही मेरी खोज करेंगे। 

‘भिक्षा दो, भिक्षा’ कहते हुए मैं गाँव-गाँव भटक रहा था कि अचानक एक दिन आकाश में अँधेरा छाने लगा। आँधी-तूफ़ान की तेज़ हवाएँ चलने लगी। उमड़-घुमड़कर काले-काले बादल छा गए। देखते-देखते घटाटोप मूसलाधार बारिश। तेज़ हवा चलने के कारण रास्ते में कई जगह बड़े-बड़े पेड़ गिर गए। बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी। ओला-वृष्टि भी होने लगी। ऐसी बारिश न तो मैंने कभी देखी थी और न ही सुनी थी। लोग अपनी जान बचाने के लिए जहाँ-तहाँ भाग रहे थे। मैं इस अप्रत्याशित भगदड़ में रास्ता भूल गया था। जब बारिश थमी, आकाश साफ़ हुआ तो मैंने पाया कि मैं किसी नई जगह पर खड़ा था। मेरे पाँव के नीचे की धरती एकदम अनजानी थी और मेरे चारों तरफ़ अनजाने लोगों की आवाज़ें। यहाँ कौन मुझे शरण देगा? जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। भूख से मैं विकल होता जा रहा था, मुझे इतनी ज़्यादा भूख लगी थी कि भोजन की तलाश में किसी घर के सामने कूड़े के ढेर को खंगालने लगा। वहाँ कुछ जूठी पत्तलें फेंकी हुई थी, जिसके कोने में कहीं-कहीं चावल के दाने चिपके हुए थे। मैं उन झूठी पत्तलों को चाटने लगा, अपनी भूख शांत करने के लिए। पास में ही, उन पत्तलों को सूअर और कुत्ते भी चाट रहे थे। किसी ने मुझे कहा था कि अवधि कवि तुलसीदास जी के साथ भी तो यह ही हुआ था। अवध प्रांत में तीन सौ साल पहले उन्हें भी ये दुर्दिन देखने पड़े थे और आज उत्कल प्रांत में मुझे ये दिन देखने पड़ रहे थे। भाग्य की विडंबना है, हर बड़े कवि के साथ शायद ऐसा ही होता है। कवित्व को जगाने के लिए इन कष्टों से गुज़रना ही पड़ता है। शायद कविता और दुख-दर्द का पारस्परिक सघन मेल-मिलाप है। पता नहीं कैसे-कैसे विचार मेरे मन में आ रहे थे। क्या कष्ट देकर भगवान कवि की सहनशीलता की परीक्षा लेता है? इस परीक्षा में सफल होऊँगा या विफल, मुझे पता नहीं। मगर इतना अवश्य जान गया था कि मैं कोई अभिशप्त जीव हूँ और मेरा जीवन सदैव नारकीय कष्टों से भरा रहेगा।” 

इन पंक्तियों के साथ भीम भोई की आत्मकथा का प्रथम अध्याय समाप्त हो रहा था। इतनी दर्दनाक जीवनी पढ़ते-पढ़ते आनंद की आँखों में आँसू आने लगे थे और उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उसके बाद वह दूसरा अध्याय पढ़े। आँखों से आँसू पोंछते हुए तालपत्रों को पूर्ववत समेटकर उसने लाल कपड़े में बाँध दिया और फिर से अपनी निर्धारित जगह पर रख दिया। आनंद का मन अस्थिर हो उठा। वह सोचने लगा कि पता नहीं क्यों, भगवान किसी-किसी प्राणी को इतना कष्ट देते हैं कि जिसके बारे में सोचना भी सम्भव नहीं है। मगर यह सत्य है कष्टों की अग्नि में तपा हुआ इंसान खरे सोने की तरह शुद्ध और पवित्र हो जाता है। उसके सारे कल्मष धूल जाते हैं। शायद भीम भोई की आत्मा भी उसी प्रक्रिया से गुज़र रही थी। आनंद उस रात बिल्कुल भी सो नहीं पाया। बीच-बीच में नींद खंडित होती रही और जब भी थोड़ी-बहुत नींद आती थी तो सपने में उसे तालपत्रों पर भीम भोई का चेहरा दिखने लगता था। हर शब्द मानों उसके होंठों से निकल रहे हो। जैसे-तैसे अर्द्ध जागृत और अर्द्ध सुप्तावस्था में वह रात पार हो गई, मगर आनंद के स्मृति पटल पर भीम भोई का चेहरा अमर हो गया।
 

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