अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

भूमिका

उपन्यास की शुरूआत होती है शहर के चौराहे से। चौराहे पर लगी हुई है एक महापुरुष की प्रतिमा-एकदम स्थिर, निर्वाक् और शून्य की ओर निहारती हुई। धातु, पत्थर और सीमेंट निर्मित चौराहे पर ऐसे महापुरुषों की प्रतिमाएँ अपने भीतर समेटे हुए होती हैं अपने अतीत का ऐहित्य और इतिहास। दिन, महीने और शताब्दियाँ बीत जाने के बाद भी जन-मानस के मन-मस्तिष्क और हृदय के किसी कोने में महापुरुषों की छवि बची रह जाती है। कभी-कभी देखने वालों के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह मूर्ति किसकी है? यह मूर्ति यहाँ क्यों है? यह महापुरुष कहाँ पैदा हुए थे? देश-समाज के विकास में उनका क्या योगदान है? मगर कभी क्या कोई प्रतिमा उत्तर देती है? उत्तर मिलते हैं आस-पास के लोगों से या चक्षुदर्शी साक्षियों से या अपने पूर्वजों से सुनी हुई स्मृतियों से या इतिहास के पन्नों को खंगालने पर। 

यहाँ मूर्ति-दर्शक एक हिंदी भाषी लेखक हैं। जिसका जन्म इस अँचल से सुदूर हुआ है, मगर कर्म-क्षेत्र इस अँचल के इर्द-गिर्द स्थित है। उसके मन में उत्कंठा जागृत होती है कि यह मूर्ति किसकी है? जब उसको यह मालूम हो जाता है कि यह मूर्ति किसी सुनाम धन्य कवि की है। यह जानने के बाद लेखक पारिव्राजक बन जाता है और उस मूर्ति के इस चौराहे पर स्थापित होने के लिए अपने जीवन-काल में किए गए संघर्षों को जानने के लिए अतीत इतिहास के पन्ने पलटने लगता है। उसका यह अभियान कवि के जीवन-दर्शन, व्यक्तित्व और कृतित्व की पांडुलिपि बन जाती है। 

यह उपन्यास पुण्यात्मा कवि भीम भोई के जीवन पर आधारित है। बहुत ही उत्साह, उमंग, श्रद्धा और संवेदनशील हृदय से उपन्यासकार दिनेश कुमार माली ने इसकी रचना की है। यद्यपि उनका जन्म-स्थान सुदूर राजस्थान का सिरोही ज़िला है, मगर दीर्घ दिनों से उनकी कर्मभूमि ओड़िशा की माटी रही, इस वजह से ओड़िशा की भाषा-संस्कृति को पूरी तरह आत्मसात कर ओड़िया साहित्य के बड़े-बड़े रचनाकारों की प्रसिद्ध कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया। एक अलग भूखंड और अन्य भाषा को अपनाने वाले व्यक्ति का हृदय कितना प्रशस्त होगा! एक भूखंड के भाषा-साहित्य को दूसरे भूखंड के भाषा-साहित्य से जोड़ने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से भाषा-संस्कृति के संवाहक-दूत होते हैं। 

यह रचना दिनेश जी का अनुवाद नहीं है, वरन्‌ एक मौलिक रचना है, जिसकी पृष्ठभूमि मुख्यतः ओड़िया माटी और ओड़िशा में जन्म लेने वाले सहस्र कविताओं के रचयिता कवि भीम भोई है। इस श्रेष्ठ कृति की रचना के लिए मैं दिनेश जी को से धन्यवाद देता हूँ। 

संत कवि भीम भोई को अंध-कंध कवि के रूप में जाने जाता हैं। उनकी कविता की एक बहुचर्चित पंक्ति—‘मो जीबन पछे नरक पड़ि थाऊ, जगत उद्धार हेऊ’ से उनका परिचय दिया जाता है या फिर महिमा धर्मावलंबी और उनके भक्त लोगों के सामने महिमा स्वामी के आशीर्वाद से महिमा-साहित्य के आद्य कवि के रूप में। हम केवल इतना जानकर संतुष्ट हो जाते हैं। 

19वीं सदी के अंतिम काल में हमारी तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में भीम भोई जैसे कवि का अभ्युदय होना केवल ओड़िया भाषा में ही नहीं, वरन्‌ समस्त विश्व को अचंभित करने वाली प्रमुख घटना है। भारतीय साहित्य में अनेक विषम प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद काव्य-जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना आज भी कल्पनातीत घटना है। मगर भीम भोई को केवल अंध कवि या महिमा धर्म के कवि के रूप में स्थापित करके हमने उनको भारतीय साहित्य में काफ़ी हद तक संकुचित कर दिया। तत्कालीन सामंतवादी समय में उनको स्वीकार करना अवश्य कष्टकारी घटना रही होगी। सही में, वे अपनी मृत्यु के पश्चात ही सार्वजनिक भाषा-साहित्य के भीतर प्रवेश कर पाए। दूसरे शब्दों में, उनके अवदान के बारे में अधिक से अधिक गवेषणा करना, उन्हें छोटे वलय से बड़े वलय के अंदर लाने की बहुत आवश्यकता थी और अभी भी है। कवि भीम भोई हमारे लिए करिश्माई व्यक्तित्व वाले क्यों है? ऐसा लगता है वे पितृ-मातृ परित्यक्त नवजात शिशु और उसके बाद निस्संतान दंपति के पालित पुत्र थे, इसलिए उनके वास्तविक माता-पिता की कहीं कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। किसी के भी ज्ञानोदय से पूर्व बहुत सारी सुख-दुख की घटनाएँ घटती रहती हैं, जिनमें उनका अपना कोई योगदान नहीं रहता। वे केवल विधि के विधान का पालन करते जाते हैं। जबकि इन सारी घटनाओं को चमत्कारिक बनाने के लिए विचित्र किंवदंतियाँ गढ़ी जाती हैं, उन्हें या तो अलौकिक शक्ति से महिमा-मंडित करने के लिए या फिर उनकी भर्त्सना-निंदा करने के लिए। मगर वास्तव में यह दोनों बातें अस्वीकार्य हो सकती हैं। जो स्वीकार्य है, वही सत्य है, वही यथार्थ है। यह सही है कि वह पालित-पुत्र थे, कंध आदिवासी परिवार के। बचपन से ही उन्होंने अकथनीय दारिद्रय देखा। उन्हें उपेक्षित हीन दृष्टि से देखा जाता था। सामाजिक हीन दृष्टिकोण एक शिशु के विकास में किस तरह बाधा डाल रहा होगा, उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। भीम भोई अद्भुत गुणों के अधिकारी थे। उनकी असाधारण स्मरण-शक्ति, अपूर्व स्वर-माधुर्य उनके भीतर बचपन से ही एक विशिष्ट संगीत-शिल्पी को जन्म दे रहा था। वह केवल स्व-घोषित गायक नहीं थे, वरन्‌ आस-पास के गाँवों में भी उनके नाम का डंका बजता था। छह साल की उम्र में उन्हें अपने पालक माता-पिता के सुख से भी वंचित होना पड़ा। 

फिर कुछ दिनों के बाद उन्हें अपने चाचा-चाची के छाया में रहना पड़ा। वहाँ भी उनके दुख का घटाटोप कम नहीं हुआ। चाचा की ग़रीबी और अपने बच्चे होने के कारण उन्हें घर छोड़कर इधर-उधर भटकना पड़ा। यहाँ तक की चावल के पानी से पेट भरने के लिए दूसरों के घरों में काम करना पड़ा। फिर चरवाहा के रूप में गाय चराने का काम। धीरे-धीरे उनकी उम्र भी बढ़ती गई। सोलह वर्ष की उम्र तक शिक्षा प्राप्ति का अवसर कहाँ से मिलता! गीत-संगीत की बात तो बहुत दूर! निर्जन सुनसान इलाक़े में झरने, पहाड़, जंगल, वृक्ष, लता, गाय और बछड़े ही उनकी स्वर साधना के साक्षी थे। शाम को गाँव लौटते समय गाँव वाले उनके भजन सुनते थे। 

19वीं शताब्दी के जंगलों में क्या किसी आदिवासी तरुण के व्यक्तित्व का विकास हो सकता है? जाति में कंध, फिर निरक्षर का विकास सम्भव है? न तो सर के ऊपर छत और न ही किसी का वरद-हस्त। फिर उनकी अपनी आदिवासी मातृभाषा ‘कुई’ और उसके चारों तरफ़ इधर संबलपुरी-कोसली भाषा और उधर किताबी मानक ओड़िया भाषा। ऐसी परिस्थिति में नवोदित धर्म साहित्य की रचना का बोझ उनके कंधों पर आ पड़ा। किसने यह महत्त्वपूर्ण दायित्व उन्हें सौंपा? किसके भरोसे? और उनके अंतर्निहित सामर्थ्य को किस महात्मा ने परखा? इस माटी के पुतले को किसने दिया महाकवि का रूप? 

हाँ, वह है महिमा स्वामी। जिन्होंने उन्हें अंधे कुएँ से निकालकर आशीर्वाद दिया, मंत्र-दीक्षा दी और एक अटूट विश्वास के साथ उन्हें निर्देश दिया, महिमा धर्म की कविताओं की रचना के लिए। एक साथ में दो-तीन कविताएँ उनके मुख से निःसृत होती थीं। उन्हें कौन लिखता? इस कार्य के लिए चार श्रुति लेखक नियुक्त किए थे महिमा स्वामी ने। वे ताल-पत्र पर कविताएँ लिखते थे। यह सोचने वाली बात है कि ये समूची घटनाएँ 1865 से 1895 कालखंड की हैं। उस समय काग़ज़ का व्यापक रूप से प्रचलन शुरू हो गया था और अख़बार प्रकाशित होने लगे थे। समसामयिक रचनाकारों की रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थीं, उसके बावजूद काग़ज़ का प्रयोग न करके ताल-पत्रों पर सहस्र ओड़िया कविताओं, भजनों, प्रार्थनाओं और बोलियों को लिखने के पीछे कोई उद्देश्य अवश्य रहा होगा। एक निर्दिष्ट धर्म के लिए अभिप्रेत साहित्य था। बहुस्रावी विलक्षण सर्जनशील कवि की सारी रचनाएँ मठों, साधु-संतों और भक्त-जनों के अंदर सीमित होकर रह गई। ऐसा क्यों हुआ? 

साहित्य जब लोक साहित्य हो जाता है अथवा विपुल समाज उसका पक्षधर हो जाता है, तब समाज के प्रभावशाली वर्ग और धर्म के ठेकेदारों बड़पंडाओं का हृदय कंपित होने लगता है। उन्हें लगता है उनके प्रभुत्व पर कोई प्रश्नवाचक चिह्न खड़ा कर रहा है। जब शासन अर्थात् राजा का समर्थन नहीं मिलता है तो उनके ऊपर आरोपों के हमले और ज़्यादा तीव्र हो जाते हैं। इसका कारण हो सकता है कोई अपने साहित्य के माध्यम से समाज-परिवर्तन के लिए एक चुनौती दे रहा है। क्या वास्तव में कोई साहित्य समाज में कुछ परिवर्तन कर सकता है? हाँ, प्रत्यक्ष तौर पर नहीं सही मगर परोक्ष रूप से सुदूर प्रभाव अवश्य पड़ता है। भीम भोई की रचनाओं में मूर्ति पूजा का विरोध और पंडितों को अस्वीकार किया गया है। उनमें केवल ईश्वर और प्रार्थना के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखने वाली साधना का ही सम्मान है। जातिभेद, छोटा-बड़ा, छुआछूत एवं सभी श्रेणी के विभाजन के विरोध में उनके स्वर उठे हैं। यही कारण है कि भीम भाई को अपने जीवन में बहुत घात-प्रतिघातों का सामना करना पड़ा है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें पूरी तरह से उपेक्षित किया गया और साथ में उन्हें बदनाम करने के लिए जोड़ दी गई अनेक मिथ्या एवं काल्पनिक कहानियाँ। उनके जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत सारी कहानियाँ इसी अवधारणा पर बुनी गई। 

साधारणतया भारतीय अध्यात्म साहित्य के स्रष्टाओं के विषय में जोड़ दी जाती हैं, बहुत सारी अलौकिक कहानियाँ, उन्हें महिमा-मंडित करने के लिए, उनके यश-कीर्ति के विस्तार के लिए। साधारण मनुष्य उनकी अलौकिक शक्तियों के बारे में सुनकर अनुयायी हो जाते हैं। वस्तुतः उनके लोकप्रियता बढ़ाने और महिमा-मंडित करने के लिए इन सारी मनगढ़ंत कहानियों का सहारा लिया जाता है, मगर सच्चे संत इस तरह के झूठे प्रचार-प्रसार से कोसों दूर रहते हैं। भीम भोई तो एक गृहस्थी संन्यासी कवि थे, अध्यात्मिक साहित्य रचना के लिए प्रतिबद्ध। वे पुण्यात्मा महात्मा थे, इस वजह वे जीवन भर बहुत विरोध, लांछन और अपमान सहन करने के बाद भी अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुए और अपनी साहित्य साधना में असीम धैर्य के साथ स्थितप्रज्ञ बनकर सफल हुए। उनके ख़िलाफ़ रची गई किंवदंतियों को नज़रअंदाज़ कर दिया, इस वजह से उनकी निष्ठा और निरंतरता में और निखार आया। 

सोचने का विषय यह भी है कि क्या हमारे भारतीय साहित्य में एक आदिवासी के लिए मानक ओड़िया भाषा में अपनी कविताओं की रचना कर साहित्य के मुख्य-स्रोत से जुड़ना तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं के परिप्रेक्ष्य में इतना आसान था? नहीं, कला-साहित्य जब मनोरंजन धर्मी होते हैं तो यह हो सकता है, मगर जब साहित्य सामाजिक प्रसंगों और साधारण मनुष्य की चेतना को प्रभावित करने वाला हो, उस समय ऐसी पृष्ठभूमि से आए हुए या आने वाले लेखक समाज के विरोध का सामना करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। कवि भीम के मामले में धार्मिक चेतना और आस्था एक मुद्दा अवश्य हो सकता है, मगर वह चेतन तो नवीन धर्म की उत्पत्ति हेतु संचरित हुई थी। उनके अनुयायियों की संख्या और सामाजिक शक्ति कितनी ज़्यादा थी! न तो राजा की अनुकंपा थी और न ही किसी राजा का समर्थन। तब सुरक्षा कवच क्या हो सकता है? केवल सत्य का अन्वेषण और सत्य की जयकार के सिवाय। भगवान के घर देर है, मगर अंधेर नहीं। विलंब से होने से भी सत्य की विजय निश्चित है। यह बात साबित हुई है भारतीय अस्मिता में और युगों-युगों से चले आ रहे विश्वास और दर्शन में। 

भीम भोई कवित्व में जितनी ऊँचाई पर है, उतनी ही उनकी भूमिका ऊँची है उनके समाज सुधारक स्वरूप में। समाज में जितने बदलाव आने से भी सत्य निर्मल रहता है, उतना ही वह ज़्यादा उज्ज्वल हो उठता है। महाकवि भीम भोई के जीवन में भी ऐसा ही कुछ घटता है। समय का पहिया जितना तीव्र गति से चलता जाता है, उतना ही उनका साहित्य विस्मयकर लगने लगता है। 

भीम भोई का इतिहास ज़्यादा पुराना नहीं है, मात्र डेढ़ सौ साल पहले की बात है। उनकी काया हमसे दूर हुई है। मात्र सवा सौ साल पहले, फिर भी उनका एक फोटो उपलब्ध नहीं है, उनके बारे में उचित तथ्य लिपिबद्ध भी नहीं है, उनको देखने वाले और उनके साथ मिलने वाले व्यक्तियों के लिखित विवरण भी नहीं हैं। उनके समकालीन कवि और लेखकों से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस तरह एक युग दृष्टा सर्जनशील सृष्टा की कृतियों को आधार बनाकर उपन्यास लिखने का प्रयास किया जा रहा है। इस समय में उनकी रचनाओं के सहारे या सूत्रों को पकड़कर हमें आगे ले जाना पड़ रहा है। उनकी साहित्यिक कृतियों के अस्थि-पंजर में बचा हुआ है भीम भाई के डेढ़ शतक बाद भी उनका नया आवयविक शरीर, जो अनंत काल प्रसिद्ध रहेगा। ऐसे कष्ट-साध्य चरित पर अभूतपूर्व काम किया है दिनेश कुमार माली जी ने। उन्हें अशेष-अशेष साधुवाद। 

हिंदी भाषा में भीम भोई की जीवनी अब प्रकाशित होगी और हमारे देश के विपुल पाठक वर्ग तक पहुँचेगी। इस प्रयास को और भी व्यापक होने का मौक़ा मिलेगा। संप्रति भीम भोई के जीवन-दर्शन पर शोध करने के लिए ओड़िशा से बाहर दो विश्वविद्यालयों में काम चल रहा है। यह हमारे लिए ख़ुशी की बात है कि इस दिशा में हमें और नई-नई जानकारियाँ मिलेगी। 

यह उपन्यास अवश्य विश्वविद्यालयों में संदर्भ पुस्तिका की भूमिका ग्रहण करेगा, ऐसी मेरी आशा ही नहीं, बल्कि पूर्ण विश्वास है। 

क्षिरौद परिड़ा 
 भुवनेश्वर

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