अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 4

दूसरी रात नौ बजे के आस-पास आनंद अपने अध्ययन कक्ष पर टेबल लैंप जलाकर अलमारी में रखी पांडुलिपि की पोटली खोलकर तालपत्र पर अंकित दूसरा अध्याय पढ़ने लगा। पहले अध्याय की स्मृतियाँ अभी भी मन-मस्तिष्क पर तरोताज़ा थीं। आनंद पढ़ने लगा। 

मैं कुत्तों के साथ जूठे पत्तल चाट रहा था, तभी घर का मालिक बाहर आया और मेरी तरफ़ देखकर कहने लगा, “अरे बेटे! तुम यह क्या कर रहे हो? कुत्तों के साथ पत्तल चाट रहे हो। तुम्हें भूख लग रही है तो आओ, मैं तुम्हें खाना खिला देता हूँ। तुम्हारे माँ-बाप नहीं हैं? तुम्हारा ध्यान रखने वाला कोई नहीं है? क्या तुम लावारिस हो?” 

एक ही साँस में पता नहीं, उसने मुझसे कितने सारे सवाल पूछ लिए। झट से आँखें मींचते हुए कहने लगा, “जी मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है। मैं लावारिस हूँ। मेरे माता-पिता ने मुझे त्याग दिया है। अब मैं भगवान भरोसे ही अपना जीवन जी रहा हूँ।” 

उस आदमी को मुझ पर बहुत दया आ गई। दुखी स्वर में मुझे ढाढ़स देते हुए कहने लगा, “आज से तुम इस घर को अपना घर समझो। मेरा बेटा बनोगे? यह चैतन्य प्रधान का घर है। मेरे बहुत सारे खेत-खलिहान हैं, अगर मूलिया का काम करना चाहोगे तो फिर कर सकते हो।” 

सिर पर हाथ रखते हुए चैतन्य प्रधान ने फिर मुझसे कुछ सवाल पूछे, “तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारे माता-पिता का क्या नाम है? कहाँ से तुम आ रहे हो?” 

“मेरा नाम भीम भोई है। ऐसे तो अनादि पुरुष और आदि शक्ति मेरे माता-पिता है, फिर भी जागतिक तौर पर मेरा लालन-पालन करने वाले गुरुबारी और दनार मेरे माता-पिता हैं। मैं जटासिंहा गाँव में रहता था। तेज़ आँधी-तूफ़ान के कारण मैं अपना रास्ता भूल गया और इस जगह पर पहुँच गया। यह जगह कौन सी है?” मैंने सरल लहजे में उत्तर दिया। 

“बेटा भीम! यह कंकणपड़ा है। पहले यह पाइकसरा कहलाता था। आज भी पुराने लोग इसे इसी नाम से पुकारते है। जटासिंहा से पंद्रह कोस दूर होगा। इस नई जगह में तुम्हारा स्वागत करता हूँ। आज से तुम मेरे साथ रहोगे,” चैतन्य प्रधान की आवाज़ में विनम्रता थी और माधुर्य भी। 

मेरे लिए कंकणपड़ा नई जगह थी। और ऐसे भी मेरा इस दुनिया में कौन था? कोई नहीं तो क्या जटासिंहा और क्या कंकणपड़ा। शायद मेरे जीवन-चक्र में बदलाव लाने के लिए ही भगवान ने ऐसी माया रची हो। जटासिंहा जहाँ मैं भूखा सोता था, भात के एक कण के लिए तड़पता था वहाँ कंकणपड़ा में ख़ुद भगवान ने मेरे जीवन-यापन की पूरी तैयारी की है। कभी धूप, कभी छाया, ईश्वर की अद्भुत माया। 

इस तरह मुझ बेसहारा को सहारा मिल गया। 

चैतन्य प्रधान मेरे दूसरे पालक पिता बने। वे मुझे दिल से प्यार करते थे। मुझे एकांत में बैठकर शून्य को निहारता देखकर उनके मन में तरह-तरह के विचार आते थे। जब मैं धीमे स्वर में अपनी कविताएँ गुनगुनाता था, तो वे आश्चर्यचकित हो जाते थे। सोचते थे एक अनपढ़ आदिवासी कंध के मुख से कविताएँ। ज़रूर उस पर सरस्वती की असीम कृपा होगी। दिन में उनके साथ मिलकर खेतों में काम करता था और रात को घर पहुँचकर उनके छोटे-मोटे कामों में हाथ बँटा देता था। मेरे कामों से वे बहुत ख़ुश थे। नदी-नाले, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पहाड़-जंगल-सभी को देखकर मेरे मन में ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा पैदा होती थी। जब मैं कांकनपाड़ा पहुँचने से पहले अँधेरे सूखें कुएँ में गिरा था तो शून्य से निर्गत किसी रोशनी ने संन्यासी का रूप धारण कर मुझे नवजीवन प्रदान किया था और मुझे कुएँ से बाहर निकालने के बाद दिग्वलय के उस पार फिर से शून्य में विलीन हो गए थे। मैं उन्हें ‘शून्य पुरुष’ कहता था और शून्य को ही उनका निवास स्थान मानता था। 

रात को खाना खाने के बाद मुझे मेरे नए पिताजी अपने साथ गाँव की चौपाल में ले जाते थे, वहाँ एकाध घंटा सत्संग होता था। कभी-कभी ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ पर लोक-नाटकों का प्रदर्शन भी। वे नाटक अधिकांश हृदय-स्पर्शी होते थे। कंकणपड़ा की नदी के किनारे ‘भागवत टुंगी’ पर झमीरे और खंजणी बजाकर एक भजन-मंडली कीर्तन किया करती थी। मुझे उनके भजन बहुत अच्छे लगते थे। मेरे समकालीन रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्य विवेकानंद की तरह मुझे भी एक बार वे भजन सुनते ही याद हो जाते थे। उनकी ही तरह मेरा कंठ भी सुरीला था। भजन मंडली के भजनों में मैं अक़्सर अपनी तरफ़ कुछ-कुछ परिवर्तन कर देता था। उनके भजनों से ‘राम’ और ‘कृष्ण’ को हटाकर ‘निराकार’, ‘निरंजन’और ‘शून्य पुरुष ’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करता था। 

आज भी मैं यही मानता हूँ कि जो भी गर्भ से जन्म लेता है, वह जीव है, परमात्मा कदापि नहीं। मेरे मन में पत्थरों के भगवान के प्रति श्रद्धा पैदा नहीं होती थी। पत्थरों के भगवान तो लोग बनाते हैं। हमारी काया तो जीता-जागता भगवान का स्वरूप है। ईश्वर तो निराकार है, निरंजन है, अरूप है, अलेख है। ईश्वर है अवश्य, मगर रूपहीन, अनभिव्यक्त। तरह-तरह के तर्क मैं अपने पिता चैतन्य प्रधान के सामने रखता था तो वे हतप्रभ हो जाते थे और मुझे दिव्यात्मा समझने लगते थे। मैं सोते समय उनसे पूछता था,     “स्थावर, जंगम, कीट-पतंगों सभी में ईश्वर हैं। जहाँ भी मेरी दृष्टि जाती है, सभी जगह वही नज़र आता है। क्या छोटा, क्या बड़ा? वह भक्तों के नज़दीक है, मगर आस्थाहीन लोगों से बहुत दूर। उसे केवल भक्ति-भावना चाहिए। मगर वह मेरी प्रार्थना क्यों नहीं सुनता? मुझ पर क्यों ग़ुस्सा है? क्या मैं भक्ति-पथ से विचलित हुआ हूँ? मैं भी तो ‘भागवत टुंगी’ में भजन गाता हूँ। उसके चरणों की पूजा कर मैंने अपराध किया? मेरे साथ उनका ऐसा व्यवहार क्यों? मेरी अर्ज क्यों नहीं सुन रहे हैं? मुझे किस चीज़ की ऐसी सज़ा दे रहे हैं? क्या हमेशा के लिए मैं उनकी कृपा से वंचित रहूँगा? क्या उनकी दया दिखावा मात्र है? क्या उनके अंदर करुणा भाव नहीं है? इस घने जंगल में मुझे और कितने दिन रहना होगा? चिरकाल से मैं रंक हूँ, मेरी भी अनेक आशाएँ हैं। जन्म-जन्मांतर से दुखी हूँ। इस जन्म में भी मुझे कुछ सुख नहीं मिला। न अन्न और न ही वस्त्र नसीब हुए। मैं हीन पामर अधम जीव हूँ। कब वह मुझ पर दया करेंगे? मुझे मालूम नहीं, मुझे कौन सी प्रार्थना करनी चाहिए? मुझे मालूम नहीं, कौन से योग-पथ पर चलना चाहिए? न मैं संत हूँ, न पंडित और न ही मुझे सद्बुद्धि या ज्ञान है। मैं इस जीवन में केवल अतिथि हूँ। या तो मुझे महिमा मंडित कर दो या फिर मेरे सिर को खंडित। उनकी इच्छा से ही मुझे आज ये दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं। मैं अपने चित्त और हृदय से ईश्वर को अपनी शक्ति मानता हूँ, मगर वह कैसा महाप्रभु, कैसा सृष्टि कर्त्ता? उसने मुझे शरीर दिया है तो पेट भरने के लिए अनाज भी तो देना चाहिए था। यह कैसा न्याय है उसका?” 

मेरे सवालों को सुनकर वे दंग रह जाते थे और मुझे प्यार से बहलाते हुए कहते थे, “बेटे! भगवान से तुम्हारी शिकायतें एकदम सही है मगर फिर भी मैं मानता हूँ कि भगवान भक्त को जीवन, दरिद्र को धन देने वाले अनादि कृपा सिंधु होते हैं। वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। तुम्हें शक्ति देंगे। वे ही तुम्हारे माता-पिता, बंधु-सखा हैं। उनके प्रति अपनी अडिग आस्था में किसी भी प्रकार की कमी मन आने देना। सब ठीक हो जाएगा। रात बहुत हो चुकी है, अब तुम आराम से सो जाओ।” 

इस तरह की आध्यात्मिक चर्चा करते-करते उनके मन में मेरे लिए बहुत बड़ा स्थान बन गया था। ईश्वर के प्रति मेरी अगाध आस्था देखकर उन्होंने गाँव के पास एक मैदान में मेरे लिए अलग से आश्रम बनवा लिया, जिसे ‘ग्राम दिहा’ कहा जाता था। वह मेरी साधना-स्थली बन गई। धीरे-धीरे मेरी प्रतिष्ठा पूरे इलाक़े में फैलने लगी। और श्रद्धालुओं का वहाँ ताँता लगना शुरू हो गया। ईश्वरीय चेतना पर वहाँ प्रवचन होने लगे। धीरे-धीरे मैं अपने स्वरचित भजन गाने लगा और साथ-साथ समय मिलने पर काव्य-कविताएँ भी। अभी तक मेरे भीतर पूरी तरह से कवित्व प्रस्फुटित नहीं हुआ था, हृदय में केवल बीजारोपण हुआ था, “ग्रामडिहा’ में ही मुझे पता चला कि मेरे भीतर कविताओं के सर्जन की नैसर्गिक प्रतिभा है। मेरी कविताओं के विषय आध्यात्मिक रहस्यों के साथ-साथ सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करने वाले होते थे। मुझे दुख इस बात का लगता था कि मेरी तत्कालीन कविताएँ समाज में बदलाव नहीं ला पा रहीं थीं। 

यह सोचकर मैं मन-ही-मन भगवान से अपनी शिकायत करने लगा। 

“हे हरि! तुम मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हो? मेरी क्या ग़लती है? तुम्हें अपने भक्त पर दया नहीं आती? तुम्हारे हृदय में तो बिल्कुल भी दया नहीं है। तुम्हें लोग अंतर्यामी कहते हैं, फिर क्या तुम्हें मेरे बारे में पता नहीं है? मेरे ऊपर क्रोध करने से तुम्हें क्या मिलेगा? नाम, यश या कीर्ति? भले ही, तुम मेरे भगवान हो मगर मेरे साथ चालबाज़ी कर रहे हो? मुझे व्यर्थ में परेशान कर रहे हो? तुम्हारा नाम ‘कृपासिंधु’ है, मगर क्या फ़ायदा? छल-कपट, माया-मोह से मुझे भ्रमित कर रहे हो तथा दुख सागर में फेंक देते हो। करोड़ों लोगों से मुझे अलग बनाया, फिर मेरी तरफ़ दया दृष्टि से देखोगे भी नहीं? इसमें मेरी क्या ग़लती है? ग्रामडिहा के इस आश्रम में सुबह-शाम तुम्हारी महिमा का गुणगान करता हूँ, मगर तुम मुझे दबाते हो। मुझे इस तरह प्रताड़ित कर रहे हो, जैसे मैं तुम्हारा कोई दुश्मन हूँ। बिना नाव दिए मुझसे कह रहे हो, पानी में तैरो। पेड़ पर चढ़ा दिया, फिर नीचे से सीढ़ी खींच दी। संसार सागर में मेरी नैया डूबा दी। 

“हे प्रभु! यह दुर्लभ शरीर तुम्हारी प्रताड़ना और बर्दाश्त नहीं कर सकता है। मैं अपना शरीर और अपनी आत्मा तुम्हारे चरणों में न्यौछावर कर रहा हूँ। तुम पर आशा करके मैंने अपना सारा विश्वास खो दिया है। देखो, कितना तड़प रहा हूँ। आप प्रकट होकर मेरे भीतर ब्रह्मदीप जला दो। अगर तीनों लोक, सूर्य-चंद्र तुम्हारा आदेश मानते हैं तो मेरा समर्पण स्वीकार करो और मेरे पापों को जलाकर राख बना दो। जगह-जगह जल रही आग में तो पत्थर भी पिघल जाते हैं। अगर तुम्हारा नाम सत्य है और ब्रह्म यथार्थ है तो काला-काला धुआँ उड़ने दो। त्रिभुवन के अंतर्यामी! अपने भक्तों को आशीर्वाद दो और अपने वायदों को पूरा करो।” 

भगवान के ख़िलाफ़ बहुत सारी शिकायतें करने के बाद मैं अपने ग्राम दिहा आश्रम में ज़मीन पर कुश की चद्दर बिछाकर सो रहा था। बाहर सियारों की ‘हुआ, हुआ’ सुनाई दे रही थी। इसी से लग रहा था आधी रात बीत चुकी होगी। उसी समय किसी ने मेरे कुटीर का दरवाज़ा खटखटाया। ठक्-ठक् की आवाज़ से मैं चौकन्ना हो गया। तभी बाहर से आवाज़ आई, “भीम! भीम!! दरवाज़ा खोलो।” 

मैं आश्चर्य चकित था। समझ नहीं पाया, आधी रात को मेरे घर का दरवाज़ा कौन खटखटा रहा है? क्या यह मेरे स्वर्गीय पिताजी दनार की आवाज़ है? क्या मुझे सहारा देने वाले दूसरे पिताजी चैतन्य प्रधान पुकार रहे हैं? या ऐसा तो नहीं है, पश्चाताप की आग में जलते मेरे सौतेले पिताजी धनेश्वर मुझसे माफ़ी माँगना चाह रहे हो? अन्यथा ‘भीम, भीम’ कहकर मुझे कौन पुकार सकता है? इन तीनों में से कोई भी असमय यहाँ क्यों आएगा? कहीं ऐसा तो नहीं, कहीं कोई मायावी राक्षस, भूत-प्रेत या चोर-डकैत आवाज़ लगा रहा हो? कुटीर का दरवाज़ा खोले बिना ही मैंने उत्तर दिया, “बाहर कौन है? मैं अंधा आदमी हूँ। दरवाज़ा कैसे खोलूँ? अगर तुम मुझे अपनी आँखों की रोशनी लौटा दो, तभी जाकर दरवाज़ा खोलूँगा।” 

दरवाज़े के उस पार से उत्तर आया, “भीम! मैंने तुमसे कहा था, समय आने पर मैं तुम्हारे पास अवश्य आऊँगा। वह समय आ गया है। तुम अपनी आँखों से देख सकते हो। मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ।” 

यह तो ठीक ऐसा ही दृश्य था, जब कृष्ण भगवान ने अपना स्वरूप दिखाने के लिए अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी थी। वैसा ही कुछ दृश्य मेरी आँखों के सामने था। मैंने दोनों हाथ मलकर अपनी आँखों पर घुमाए और धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं। क्या देखता हूँ, मेरी आँखों के सामने सारा, ब्रह्माण्ड घूम रहा था। हज़ारों सूरज, हज़ारों चन्द्रमा, अरबों-खरबों मंदाकनियाँ एक-एककर मेरे सामने से गुज़रती जा रही थी। ग्रह-नक्षत्रों के घूर्णन से ‘ओऊम’ की तीव्र नाद साफ़ सुनाई देने लगी थी। मेरी आँखें न तो उस दिव्य तेज को बर्दाश्त कर पा रही थी और मेरे कान न ही ‘ओऊम’ के उस तेज नाद को। सिर चकराने लगा था। मैं हतप्रभ था। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। फिर भी लड़खड़ाते हुए किसी भी तरह दरवाज़े की चिटकनी खोली और धड़ाम से भूमि पर गिरकर बेहोश हो गया। 

जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि एक वल्कलधारी साधु कमंडल से मेरी आँखों पर जल छिड़क रहा था। मेरे ललाट पर धीरे से तीन बार थप्पी देते हुए कहने लगा “भीम, आज से तुम महिमा-धर्म में दीक्षित हुए। बाहरी दुनिया के लिए तुम पूर्ववत अंधे हो जाओगे, मगर भीतरी दुनिया के लिए एक चक्रवर्ती सम्राट। पृथ्वी पर्यटन तुम्हारा काम नहीं है। अब तुम्हारा काम है अपनी दिव्य अनुभूतियों को अपनी वाणी के माध्यम से लिपिबद्ध कर जन-जन तक पहुँचाना है। मैं तुम्हें संत कवि बनने का आशीर्वाद देता हूँ। मेरा नाम महिमा गोसाईं है, आज से तुम्हारा आध्यात्मिक गुरु और मेरे साथ है तुम्हारे गुरु भाई गोबिन्द बाबा। हम तीनों का इस पृथ्वी पर अवतरण कुछ विशिष्ट कार्य करने के लिए हुआ है। मैं अलेख हूँ, मैं ही अनादि पुरुष हूँ, मैं ही शून्य हूँ। तुम मेरे शिष्य हो। तुम मेरे पुत्र हो। शून्य पुत्र भीम। 

“जहाँ तक मुझे याद है, सन्‌ 1862 में महिमा स्वामी से मेरी यह पहली मुलाक़ात थी। 

‘आज हमारा समाज तरह-तरह की कुरीतियों से जूझ रहा है तुम्हें समाज में अलेख की ज्योति जगानी है। तुम्हारी जिह्वा पर सरस्वती का वास होगा, जो शून्य पर तुम्हारी कविताओं की रचना में मदद करेगी। ऐसे तुम्हारी सहायता के लिए जल्दी ही मैं चार लेखक भी भेजूँगा, जो तुम्हारे मुख से निःसृत होने वाली वाणी के एक-एक शब्द को तालपत्र पर लोहे की लेखनी से अंकित करेंगे। तुम्हारी वाणी का संपूर्ण विश्व में प्रचार-प्रसार होगा। धरती पर आज से तुम्हें नए धर्म की स्थापना करनी है, ‘महिमा धर्म’। यह धर्म वैदिक, पौराणिक, सनातन हिंदु, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन और जस्थुस्ट्रीयन धर्म से पूरी तरह अलग होगा। यद्यपि सभी धर्मों के मूल तत्त्व इसमें शामिल होंगे, फिर सभी धर्मों से अपनी विशिष्टता के कारण पार्थक्य भी। इस धर्म में ‘सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय’ वाली उक्ति चरितार्थ होगी। इस धर्म में तुम्हें कहीं बुद्ध दिखेंगे तो कहीं जगन्नाथ दिखेंगे, कहीं कबीर और देखते-देखते सभी शून्य में विलीन हो जाएँगें। 

‘तुम्हारी आत्मा निर्मल है। दूसरे शास्त्र-ग्रंथों से प्रभावित नहीं है, अतः तुम्हारी अंतरात्मा से जो भी काव्य-कविता का स्रोत फूटेगा, वह पूरी तरह से निर्मल, स्वच्छ और सार गर्भित होगा। तुम्हारी वाणी महिमा धर्म के प्रचार का माध्यम बनेगी। तुम ईश्वर पुत्र हो, महिमा पुत्र हो। मेरा तुम्हें आशीर्वाद है।’ 

“गुरु की यह प्रेम भरी वाणी सुनकर मैं अभिभूत हो गया। मुझे विश्वास हो गया, ‘बिनु हरि कृपा मिले नहीं संता’। ईश्वर की मुझ पर विशेष अनुकंपा है। मैं श्रद्धापूर्वक गुरु के चरणों में साष्टांग दंडवत हो गया। तभी अचानक मेरे भीतर एक कविता ने जन्म लिया और मैंने संपूर्ण भाव-प्रवणता के साथ गुरु के सम्मुख प्रस्तुत कर दी:

“वंदना गुरु के चरण कमलों की
ध्यान धर अरूपानंद की
नाखून के कोने में जिसके होते
तैंतीस कोटि देवी-देवताओं के दर्शन
अनंत वासुकी के सिर पर बह रहे अमृत की
वंदना गुरु के चरण कमलों की। 
श्री गुरु के पैरों तले खिल रहे कमल
अपरिमित सुगंध से भर रहे नासिका पुट
वंदना गुरु के चरण कमलों की। 
एकाक्षरी शब्द को भज रहे ब्रह्मज्ञानी
परिव्यक्त भीम ध्यान धर रहा अनादि सिद्ध
वंदना गुरु के चरण कमलों की। 

“मेरी कविता सुनकर महिमा गोसांई निस्तब्ध थे। यह कविता उन्हें इतनी पसंद आई कि सन्‌ 1865 में मेरे गुरुजी ने स्वयं खुंटूणी में अपने मधुर स्वर में गाया था, जो आगे जाकर हमारे धर्म का आद्य-गीत बना। उन्होंने मुझे अपना दायाँ हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। जब मैंने अपनी आँखें ऊपर उठाकर उनकी तरफ़ देखा तो महिमा गोसांई और गोविन्द बाबा सूर्य-चंद्र की तरह नज़र आने लगे थे। धीरे-धीरे मेरे आँखों की दृष्टि क्षीण होने लगी और वे दोनों मेरी आँखों से ओझल होने लगे। देखते-देखते मेरे आश्रम की चौखट पार वे साल के घने जंगल की ओर मुड़ गए। मेरी दृष्टि अभी तक पूरी तरह से क्षीण नहीं हुई थी। वे दोनों अचानक रोशनी के दो बिंदुओं में बदल गए और अंतरिक्ष में ऊपर की ओर उठने लगे। पता नहीं, कब वे दो टिमटिमाते हुए तारों में विलीन हो गया। अब मुझे कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। दूसरी कविता मेरे अधरों पर स्वतः ही प्रस्फुटित होने लगीः

“शून्य मंदिर में विचरण करने वाले का नहीं होता आकार
उनके दो पैरों की जगह केवल बच जाता एक पैर। 
अलेख-पाटणापुर में बना है उनका घर
वहाँ न सर्दी, न गर्मी, साधु! ज़रा करो विचार। 

निरामिष नीर जूठन खाने से भी लगता समधुर
अनदेखा, अनाम स्वाद, लगता जैसे सुधाक्षार। 
देखकर उसकी चाल चटक, प्रभावित होते ज्ञानीजन
पलक झपकने और बिजली चमकने से भी तीव्रतर। 

जिसका जो भी निर्वेद करता दर्शन
जन्म-मरण से जाते तर, होकर अखंडित ब्रह्मलीन। 
क्रियाकर्म में अनासक्ति से करते साधुसंग
दीक्षित होकर निष्काम धर्म भजन एक अक्षर। 
वहाँ रहते हैं ब्रह्म, वहाँ न सूर्योदय, न सूर्यास्त
प्रार्थना करता भीम, लावारिस, निगम, असाक्षर। 

“मेरे गुरु और गुरु भाई का दो जगमगाते तारों में विलीन होने का दृश्य यथार्थ था या कोई सपना, आज तक मैं इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाया। 

“मैंने उनके दर्शन के बाद अपने भीतर इतना परिवर्तन अवश्य देखा था कि मेरे भीतर शब्दों का घटाटोप छाने लगा था, भीतर ही भीतर कविताओं की ज्वालामुखी फूटने लगी थी। उस दिन के बाद तो मैं सचमुच में अंधा हो गया था। कविताएँ लिखता तो कैसे लिखता? मैं अनपढ़ था, वर्णबोध का भी मुझे उस समय बिल्कुल ज्ञान नहीं था। न मैंने कोई शास्त्र पढ़े थे, न ही मैंने आष्टांग योग में कोई सिद्धि पाई थी। एक साधारण मनुष्य तो क्या अति साधारण मनुष्य, जिसके न कोई आगे था और न ही कोई पीछे। न वह सम्राट था, न ही किसी आभिजात्य वर्ग का व्यक्ति। जन्म के बारे में भी तो कोई अता-पता नहीं था। पालन-पोषण भी हुआ तो आदिवासी परिवार में। इस पृष्ठभूमि का कोई आदमी अगर ईश्वर के बारे में व्याख्यान करेगा तो क्या कोई सुनने के लिए राज़ी होगा? भारत तो वैदिक काल से जातियों में बँटा हुआ था। ईश्वर संबंधी कोई भी काम काज तो केवल ब्राह्मण जाति के हिस्से में आता है, पिछड़ी आदिवासी शूद्र जाति के लिए यह कार्य वर्जित था। उनका कार्य केवल उच्च वर्ग की सेवा करना था।     

“मुझे महिमा गुरु का आशीर्वाद मिला था। मेरे भीतर कविताओं की सृष्टि अपने आप होने लगी। गुरु को मैं क्या दक्षिणा देता? मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। इसलिए मैंने गुरु को ईश्वर मानकर अपनी भावनाएँ अर्पित की:

‘मैं तुम्हें मेरा यह पिंड-ब्रह्मांड समर्पित कर रहा हूँ। अपने अमृत लोचनों से मेरी रक्षा करो। तुम्हारे एक पाद की छत्र-छाया में मुझे शरण दो। मैं अपना तन-मन अलेख पुरुष के क़दमों में समर्पित कर रहा हूँ। ब्रह्मांडों की सुरक्षा के ख़ातिर मैं तुम्हारो आगे प्रार्थना करता हूँ। सोचता हूँ, जब प्रलय होगा और सारा संसार जल में डूबने लगेगा, तब मैं कहाँ जाऊँगा? मेरा मन मेरे इस तन और ब्रह्मांड की रक्षा के लिए चिंतित हो रहा है। यह देह गुरु के लिए है और यह ब्रह्मांड भी गुरु के लिए है। सात ब्रह्मांड और चौदह भुवनों के दयालु गुरु मेरी रक्षा करो। इक्कीस पुर और चौदह भुवनों के सारे प्राणियों को हितकारी चेतना प्रदान करो, जिससे अलेख के प्रति उनका श्रद्धा भाव जाग सके। नभचर, जलचर, स्थावर-जंगम सभी को एक-एककर जगाओ ताकि वे अपनी चेतना फिर से प्राप्त कर सके। अगर सभी मर गए और दुनिया भी नष्ट हो गई तो मैं कहाँ जाऊँगा? इसलिए प्रभु! हरदिन तुम्हारे सामने प्रार्थना करता हूँ।’ 

“मेरा मानना है कि जिस प्रकार शरीर में जीव और परम अलग-अलग नहीं होते हैं, उसी प्रकार गुरु और शिष्य भी अलग-अलग नहीं होते हैं। जिस तरह किसी भी रूप में शब्द ब्रह्म समान रहता है उसी तरह तन मन से आज्ञाकारी बन शिष्य गुरु की सेवा करता है। 

“समाज को जातियों में बँटा देखकर मेरे भीतर विद्रोह के स्वर फूटने लगे थे। क्या परम शून्य से पैदा होने वाली सारी आत्माएँ समान नहीं होती हैं? उसके लिए क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या वैश्य और क्या शूद्र? क्या परम शून्य ने आत्माओं के ये विभाग बनाएँ हैं? ये सारे विभाग तो लोगों ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के ख़ातिर तैयार किए हैं। वाल्मीकि नीची जाति का होकर भी ‘रामायण’ का रचियता बन सकता है, तो मैं आदिवासी कंध होकर क्या महिमा-धर्म का गुणगान नहीं कर सकता? 

“कंकणपड़ा के ग्रामडिहा आश्रम में गुरु से भेंट हुए आठ दिन नहीं बीते होंगे कि कहीं से चार ब्राह्मणों की टोली वहाँ पहुँच गई। अताबीरा बनहर के रहने वाले पेशे से दो शिक्षक भाई हरिपंडा, वासुपंडा एवं अन्य आस-पास की जगह से दो भक्तगण मार्कंड दास और धर्मानंद दास—चारों ब्राह्मण आकर मेरे चरणों में साष्टांग दंडवत हो गए। मैंने उनसे प्रश्न किया, ‘आप चारों उच्च जाति के ब्राह्मण हैं और मैं ठहरा आदिवासी कंध, नीच जाति का शूद्र। क्या आप लोगों का मेरे सामने साष्टांग दंडवत होना उचित है?’ 

“वे कहने लगे, ‘आप हमारे लिए भगवान हैं। आपके गुरु महिमा गोसांई ने हमें लेखक के रूप में आप की सेवा में भेजा है। हम तो उनकी तरह वल्कलधारी साधु बनना चाहते थे, मगर उन्होंने मना कर दिया। तुम्हारे भाग्यों में ईश्वर ने कुछ और लिखा है। तुम चारों को मेरे परम भक्त भीम भोई के मुख से निसृत हो रही वाणी को लिपिबद्ध करना है, तालपत्रों पर लिखकर आने वाली कई पीढ़ियों के मार्गदर्शन हेतु। हमें संगीत, ताल-लय का भी अच्छा ज्ञान है। हमें आप की रक्षा और सेवा का आदेश हुआ है।’ 

“मैंने हामी भरी और उन्हें शिष्यों के रूप में स्वीकार किया। 

“वासु पंडा रुक-रुककर कहने लगा, ‘भगवान की नज़रों में न कोई ऊँचा होता है और न ही कोई नीचा। जो कोई उसके प्रति जितनी निष्ठा से झुकता है, वह उसे सहर्ष स्वीकार कर लेता है। भगवान राम ने शबरी भीलनी के बेर खाए थे। कहाँ छुआछूत का भेदभाव? महिमा गोसांई कहते हैं, जितनी देहधारी आत्माएँ हैं, सब बराबर हैं। क्या स्थावर, क्या जंगम, सभी की सृष्टि तो परम शून्य से ही हुई है और प्रलय के दौरान सभी शून्य में ही विलीन हो जाएंगें।’ 

“उसके चुप रहने पर हरिपंडा ने अपने हृदयोद्गार प्रकट करना शुरू किया, ‘आपका जन्म इस जगत को जातिविहीन, मूर्तिपूजा रहित अनंत-अलेख-निरंजन-निराकार ईश्वर की उपासना पद्धति का प्रचार-प्रसार करने के लिए ही हुआ है। महिमा भगवान ने आपकी अंतरात्मा में अनंत साम्राज्य फैलाकर आपके नेत्रों की ज्योति छीन ली। यह विराट असीम साम्राज्य अनभिव्यक्त है। इस अमूर्त विषय पर चिंतन-मनन करना हर किसी के वश की बात नहीं है। हज़ारों सालों से चल रही परिपाटियों को तोड़ते हुए नई सत्य विचारधारा की स्थापना करना कोई मामूली खेल नहीं है। गुरु कहते हैं, ऐसे कार्यां को हाथ में लेने के लिए विकार रहित पवित्र आत्मा का होना ज़रूरी है। महिमा भगवान ने इस पुनीत कार्य हेतु आपकी आत्मा का चयन किया है।’ 

“पास खड़े तीसरे ब्राह्मण धर्मानंद दास कहने लगे, ‘हम महिमा भगवान के ऋणी है कि उन्होंने आपके सान्निध्य में रहकर हमारी आत्माओं के उत्थान के साथ-साथ वर्तमान जन्म को सुधारने, सँवारने और सफल बनाने का अवसर दिया है।’ 

“अंत में, चौथे ब्राह्मण मार्कंड दास ने सविनय अनुरोध किया, ‘आप अपने अलेख गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए हमें अपनी आलौकिक ईश्वरीय वाणी को लिपिबद्ध करने का सुनहरा अवसर प्रदान कर हमारा जीवन कृतार्थ करें।’ 

“उन चारों ब्राह्मणों का आत्मीय भावनाओं से ओत-प्रोत अनुनय-विनय सुनकर मैंने उन्हें मेरे डिहा आश्रम में रहने की अनुमति दे दी। 

“उन्होंने मेरे लिए एक सौ आठ सीढ़ियों वाला एक ऊँचा मंच बनवाया। सुबह प्रातः चार बजे उठकर, नहा धोकर, दैनिक कार्यों से निवृत्त हो जाने के बाद वे लोग मुझे झूले पर बिठाकर उस मंच पर ले जाते थे। 

“मंच के बीचों-बीच मुझे बिठा दिया जाता था और फिर उत्तर दिशा में वासुदेव पंडा दक्षिण दिशा में हरि पंडा, पूर्व दिशा में मार्कंड दास तथा पश्चिम दिशा में धर्मानंद दास अपना स्थान ग्रहण कर लेते थे। वे अपने साथ एक ढलवाँ मेज़, तालपत्र, लोहे की लेखनी लेकर बैठ जाते थे। 

“मैं शून्य-पुरुष को याद कर धीरे-धीरे ध्यानावस्था में चला जाता था। मेरी आत्मा लोक-लोकांतरों की यात्रा करने लगती थी और धीरे-धीरे शून्य प्रदेश में प्रवेश करती थी। वहीं से एक-एक कविता मेरी आत्मा में प्रवेश करती थी, जिसे मैं अपने मुख से उच्चारित करता था। प्रतिदिन चार कविताएँ मेरे भीतर जन्म लेती थी, वे भी सभी अलग-अलग राग में। पहली राग में जब मैं अपनी कविता गाता था तो उत्तर में बैठा मेरा लेखक वासुदेव पंडा तालपत्र पर उसे लिपिबद्ध कर देता था, इसी तरह दूसरी, तीसरी, चौथी कविता अलग-अलग राग-रागिनियों में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण वाले लेखक पंडित उन्हें तालपत्र पर लिख देते थे। 

“जब तक मेरी आत्मा शून्य प्रदेश में विचरण करती थी, मेरी कविताओं का अजस्र-स्रोत बहता रहता था। मगर जब आत्मा उस अदृश्य अमूर्त काव्य-प्रदेश से बाहर आ जाती थी तो मेरी कविताएँ भी मन में ही रह जाती थी। अनोखा सिलसिला था यह। मैं जानता हूँ कि गुरु की कृपा के बिना यह पूरी तरह अधूरा रह जाता। मैं भाग्यशाली था कि गुरु ने मुझे कवित्व प्रदान किया। प्रतिदिन सुबह चार घंटे इस तरह कविता-लेखन में कब बीत जाते थे, पता भी नहीं चलता था। पंडितों ने मेरे मुख से निःसृत वाणी को अमृतवाणी की संज्ञा दी। एक साल के भीतर-भीतर मेरे कई काव्य और कविता-संग्रह तालपत्रों पर लिख दिए गए। 

“पहले पहल मैंने ‘भजनमाला’ लिखाई, फिर ‘स्तुति चिंतामणि’ और उसके बाद मेरा तीसरा काव्य-संग्रह ‘ब्रह्मनिरूपण गीता’ तैयार हो गई। चौथे महीने में मेरा चौथा महाकाव्य ‘आदि-अंत गीता’ और पाँचवें महीने में ‘गीता अष्टक बिहारी’ पूरी तरह से तैयार हो गए। छठवें महीने में ‘चौतीसा ग्रंथमाला’, सातवें में ‘निर्वेद साधना’ आठवें में ‘श्रुति निषेध’ और नौवें में “चौतीसा मधुचक्र” . . . इस तरह एक साल के भीतर-भीतर संत कवि के रूप में कंकणपड़ा और उसके इर्द-गिर्द इलाक़ों में मेरी पहचान बन गई। कई मेरे भक्त और प्रशंसक भी बन गए। मेरी कविताओं के गूढ़ार्थ जानने के लिए वे मुझसे तरह-तरह के प्रश्न भी करते थे, अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए। कभी-कभी वे लोग मेरी हँसी उड़ाते थे, मेरा उपहास करते थे, गंदी-गंदी गालियाँ देते थे। 
मैं मानता था इस कलियुग में मेरा जन्म केवल संकटों को झेलने के लिए ही हुआ है। मैं भगवान से अपने शब्दों में प्रार्थना करता था, 

‘हे अलेख, शून्य बिहारी, मुझे कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। दिन बीतते ही मेरा काम ख़त्म हो जाता और क्या कहूँगा, “सुबह होती है, शाम होती है, ज़िन्दगी यूँ ही तमाम होती है।” मुझे दुख इस बात का है कि तीनों लोकों के लोग अपनी आँखों से सब-कुछ देखकर भी नहीं समझ पा रहे हैं और सत्य-धर्म की परीक्षा की माँग कर रहे हैं। इस त्रिपुर संसार में कब और किस तरह उन्हें आत्म-बोध होगा? सभी तो माया की शराब पीकर मदमस्त पड़े हैं। भले ही, वे लोग ऊपर से शालीनता दिखा रहे हैं, मगर उनका हृदय तो अहंकार से चूर-चूर हैं। बड़े लोग अज्ञानतावश अपनी गरिमा का महिमा-मंडन कर रहे हैं जबकि अज्ञानी उपहास उड़ाते हैं निंदा करते हैं। हे जगदीश! उन्हें समझाओ। मैं जानता हूँ कि मेरा क्रोध उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है। वे अपने आप को राजा कहते हैं और सिंहासन्‌ पर बैठकर दंड-न्याय सुनाते हैं। हाथ झाड़कर सिर हिला-हिलाकर गर्व से हमारी आलोचना करते हैं। कहते हैं, “तुम अपने गुरु की सेवा करो। वह हमारा गुरु नहीं है। तुमने उससे दीक्षा ली है, इसलिए तुम सेवा करो। हम क्यों करें?” 

‘वे लोग पाँच-दस के समूह में इकट्ठे होकर सभा-समितियों में हमारी खिल्ली उड़ाते हैं। अच्छे-बुरे सभी लोग मिलकर हमारे बारे में बुरा सोचते हैं। कौतूहलवश कोई-कोई मुझसे पूछते भी हैं, “तुम महिमा की पूजा करते हो, इसलिए झूठ नहीं बोलोगे। हम तुमसे केवल एक ही सवाल पूछ रहे हैं, तुम उसका सही-सही जवाब दो। महिमा को मानने वाले सभी एक साथ मिलकर खाते हैं, सभी गृह-गृहस्थी वाले हैं, मांस-मदिरा का भी सेवन करते हैं। तुम लोगों ने अपना जाति धर्म भी त्याग दिया है। अब बताओ सत्य-युग कब आ रहा है? सतयुग आने में और कितने दिन लगेंगे?” 

‘अन्य आलोचक मुझ पर हँसते हुए कहता था, “बहुत सारे गाँव वाले तुम्हारे पास अपना दुखड़ा सुनाने आते हैं। सुनने में आता है, दोनों स्त्री और पुरुष वर्ग तुम्हारे सामने नत-मस्तक होते हैं। ऐसा तुम उन पर क्या जादू करते हो? क्या तुमने मोहिनी विद्या सीखी है? तुम्हारे आदमी किसी के भी घर का अन्न ग्रहण कर लेते हैं और महिमा भक्त बन जाते हैं। मगर एक बात बताओ, महिमा का नाम जपने से तुम्हारी औरतों की जातियाँ क्यों नहीं नष्ट होगी? हमें दुख इस बात का है कि आभिजात्य-संभ्रांत घर की बहू-बेटियाँ भी अपने आपको बर्बाद कर रही हैं। तुम ऐसा अनर्थ काम क्यों कर रहो हो?” 

“उनका मैं क्या उत्तर देता? मेरे सामने तो प्रश्नों की झड़ी लगा देते थे, वे तथाथित श्रेष्ठ लोग। एक ने यहाँ तक कह दिया ‘शास्त्रों में लिखा हुआ है कि कलियुग में छत्तीस जातिकों की एक जाति होगी। आज यह हमारी आँखों के सामने घट रहा है। भीम! तुम सीधे-सादे भोले-भाले इंसान हो। जिस महिमा को तुम “परम ब्रह्म” कहते हो, हम उसके बारे में सब-कुछ जानते हैं। वह “परम ब्रह्म” कैसे हो सकता है? उसने स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है उसके माता-पिता हैं, दोस्त-परिवार हैं। हम उसे बचपन से जानते हैं। उसने ब्राह्मण, वैष्णव, शूद्रों-सभी को भ्रमित कर दिया है। हमें मालूम है कि उसका जन्म कहाँ हुआ था? वह क्या काम कर रहा था? फिर भी अगर तुम उसे “परम ब्रह्म” कह भी लोगे तो हम उस बात पर विश्वास क्यों करेंगे? वह तो हमारी तरह साधारण-संसारी आदमी है। तुमने उसमें ऐसी क्या चमत्कारी शक्ति देखी कि उसे “प्रभु” कह रहे हो?’ 

“इस तरह वे लोग मेरे गुरु की भी निंदा करते थे। उनका अपमान मुझसे कभी भी बर्दाश्त नहीं हो पाता था, मगर मेरे पास शून्यवासी परमात्मा से शिकायत करने के सिवाय कुछ भी नहीं था। 

“तीनों लोकों के स्त्री-पुरुष एक ही राग में हमारे धर्म की निंदा करते थे। कोई नहीं चाहता था कि हमारे देश में जाति-विहीन समाज की स्थापना हो। जब हमारा कोई अनुयायी उनके पास जाता था तो वे लोग पीठ मोड़कर भाग जाते थे। दूर से ही हमें देखकर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगते थे। हमारे आश्रम में कुछ महिलाएँ भी दीक्षित हो गई थी। हम सभी को एक साथ देखकर कहते थे, ‘देखो ये बाबा और माताएँ झुंड बनाकर साथ घूम रहे हैं। इनका क्या भविष्य होगा? उनको कभी भी मोक्ष मिलने वाला नहीं है। ये सभी अपने रास्ते से भटक गए हैं। पथ-भ्रष्ट हैं ये लोग। उन्होंने अपने ईष्ट देवताओं, माता-पिताओं और सगे-संबंधियों को त्यागकर अपने गले में अपने हाथों से फाँसी का फँदा लगा दिया है। ये कुत्सित लोग हमारे देवी-देवताओं यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु ओर महेश की भी भर्त्सना कर रहे हैं। पागल हैं, अविवेकी हैं, कुछ नहीं जानते हैं। धोबी के कुत्ते की तरह ये लोग न घर के हैं और न घाट के। भव-सागर की मंझधार में फँस जाएँगे। अपना घर-परिवार, धन-संपत्ति सब-कुछ त्यागकर चले आए हैं साधु बनने! केवल खाने-पीने, नहाने-धोने के सिवाए इन्हें आता भी क्या है? 

‘वेदों से नफ़रत करते हैं, शास्त्रों को नहीं मानते हैं। न देवी-देवताओं में इनका कोई विश्वास है और न ही पत्थर की मूरत और लकड़ी की प्रतिमाओं में। तुलसी-पत्र खाने को कहने से उन पर पेशाब कर देते हैं। गीता-भागवत को तो ऐसा मानते हैं मानो स्नान-घर से नहाने के बाद बाहर निकलकर पाँव पोंछने वाला पायदान हो। ये लोग अपने आप को समझते क्या हैं? मेरी नज़रों में महिमा भजन करने वाले ये लोग अज्ञानी, पामर और मूढ़ हैं।’ 

“इस तरह तीनों लोकों के लोग हमारी और हमारे धर्म की आलोचना करेंगे तो हम कहाँ जाएँगे और कर भी क्या सकते हैं? हे महापुरुष अलेख शून्यवासी! इस बारे में तुम ही विचार करो। समाज का कोई भी वर्ग हमें सहन नहीं कर पा रहा है। हे अंतर्यामी प्रभु! आप हम पर दया करो, हम रहेंगे कैसे? मुझे नहीं लगता है, स्वर्ग, पाताल और मर्त्य लोक में ऐसा कोई स्थान बचा होगा, जहाँ हमारी निंदा नहीं हो रही होगी। जिस दिन से मैंने अलेख के एक पाँव की शरण ली है, उस दिन से ही मुझ पर गालियों की बरसात हो रही है। लोग कहते हैं कि मैंने ग़लत रास्ता अपना लिया है। मैं इस रास्ते पर जा रहा हूँ, जिस रास्ते पर हमारे पूर्वज कभी नहीं चले। 

“उनका भोग-प्रसाद नहीं खाने पर वे हमें अपना दुश्मन समझते हैं। वे कहते हैं, ‘महिमा वेद-शास्त्रों में नहीं है। हमने न तो महिमा के बारे में पढ़ा है और न ही सुना है। फिर दीक्षा-वीक्षा की बात कहाँ से आ गई? ये पामर, मूर्ख, मूढ़ लोग हैं। उनके मुँह लगने का मतलब अपने काल को बुलाना है। सुबह भोर-भोर नहा-धोकर महिमा भजने से बेहतर तो मर जाना है। दिन में एक बार खाना; सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूर्य को देखते हुए साष्टांग दंडवत होना क्या कोई साधना-मार्ग है? इस महिमा धर्म में दीक्षित होने मात्र से जाति, गोत्र सब चले जाते हैं, तब इनका अनुसरण करने में क्या फ़ायदा? उलटा हमारी सात-पुश्तें नरक में चली जाएँगी। हमें तो उस रास्ते पर चलना चाहिए, जिस पर हमारे पूर्वज चलें हैं।’ 

“मर्त्यलोक के लोगों के व्यंग्य-बाणों के प्रहार ही नहीं, सुरलोक वासी भी हमसे ईर्ष्या करने लगे हैं। कहीं ऐसा न हो कि एक दिन हम तपस्या के बल पर उन्हें वहाँ से भगाकर उनका स्थान ले लेंगे। कठोर तपस्या के कारण हमें इन्द्र का सिंहासन्‌ मिल जाएगा, हम सुरलोक में प्रवेश कर जाएँगें और शून्य विमान में बैठकर ऐश्वर्य भोग करेंगे। 

“क्या करें हम? किस-किस को समझाएँ? वे लोग लगातार हमारे ख़िलाफ़ तरह-तरह के षड़यंत्र रचते हैं और हमें अपने मायाजाल में फँसाने का प्रयास करते हैं ताकि हम सत्य-धर्म को आगे न बढ़ा सके और न ही शून्य ब्रह्म तक पहुँच सके। 

“मैं चाहता हूँ, किसी भी तरह उन लोगों के साथ हमारा समझौता हो जाए। ज़िन्दगी बहुत छोटी है, बहसा-बहसी में समय गुज़ारना व्यर्थ है। बहुत दुर्दशा देखने और सहने के बाद भी शून्य गुरु के चरणों से मुझे कोई हटा नहीं सकता है, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है। और शून्य पुरुष से यही प्रार्थना है। 

“एक दिन ब्राह्मणों के एक समूह ने मेरे आश्रम में धावा बोल दिया। मेरे शिष्यों को पकड़-पकड़कर मारने लगे और कहने लगे ‘कहाँ है तुम्हारा अंधा गुरु? आँखों से भी अंधा और धर्म-कर्म से भी अंधा। आज उसको सबक़ सिखाए बिना हम नहीं जाएँगे।’ 

“मैं अपने कक्ष में ध्यानावस्था में बैठा हुआ था। उनका उत्पात सुनकर मेरा ध्यान-भंग हो गया। मुझे अनेक भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए कहने लगे, ‘तुम जन-साधारण को वैदिक परंपराओं से विमुख कर ब्रह्मचांडाल बना रहे हो। तुम्हारे महिमा धर्म की वजह से हमारे मंत्र, तंत्र, यंत्र, सूत्र, यज्ञ, वेदांत, सिद्ध पुरुषों के वचन सभी नष्ट हो गए। इसलिए हमारा अभिशाप है कि तुम महिमा भजने वालों को कहीं भी सुख नहीं मिलेगा। आज के बाद अगर तुमने महिमा धर्म के प्रचार करने का प्रयास किया तो हम तुम्हें ज़िन्दा ज़मीन में गाढ़ देंगे।’ 

“यह कहक़र वे लोग चले गए। इस तरह दिन-प्रतिदिन हमें जानलेवा धमकियाँ मिलती रहती हैं। जहाँ पर भी वे लोग हमें देखते थे तो ‘वेद-वाक्य विद्रोही’ कहक़र हमारी निंदा करते हैं ब्राह्मणों की यह भर्त्सना सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे। मैं दिन-रात समस्याओं के समाधान के बारे में सोचता रहता था। मेरा जीना दूभर हो गया था और जीवन दुखमय। कुछ ब्राह्मण लोग तो भगवान से हमारी मृत्यु की कामना करते थे। कहते थे, ‘प्रभु! इन लोगों का समूल नाश करो। एक भी बीज अगर बच गया तो पूरी दुनिया तबाह हो जाएगी। एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। ये लोग शुचिता का ध्यान नहीं रखते हैं। जनेऊ और चंदन तिलक का भी उन्होंने त्याग कर दिया है। देखो, कैसी-कैसी जटाएँ रखते हैं। इनकी जप-तप की मुद्राएँ और विभूतियाँ भी कितनी अभद्र हैं! शिवलिंग को पत्थर समझते हैं। इनकी बुद्धि पर पाला गिर गया है। भगवान इनको माया-मोह से ग्रसित करो ताकि मोक्ष के द्वार तक नहीं पहुँच पाए।’ 

“न केवल मर्त्यलोक के ब्राह्मण, बल्कि स्वर्गलोक के रूद्रगण और पाताल लोक के नाग भी हमारे ख़िलाफ़ तरह-तरह की मायावी चाल चलकर षडयंत्र करने लगे हैं। दुख इस बात का है कि हमारे गुरु भी इन षडयंत्रों और चालों को समझ नहीं पा रहे हैं। तीनों लोकों के वासी निष्काम महिमा धर्म के अनुयायियों को अपने विषैले प्रहार से ख़त्म कर देना चाहते हैं। उनका मानना है कि अगर हम उनके विषैले प्रहारों से नहीं मरे तो तभी जाकर सही अर्थों में अलेख ब्रह्म के शिष्य माने जाएँगे। अगर संपूर्ण ब्रह्मांड हमारे ख़िलाफ़ है और इतने ख़ौफ़नाक विचार रखते हैं तो हमारा बचना असंभव है। 

“ऐसी परिस्थिति में केवल तुम ही एक सहारा हो। हे अलेख प्रभु! हमारी रक्षा करो। दिन-रात हमें भय खाए जा रहा है। हे निराकार ब्रह्म! हमें सभी विपत्तियों से बचाओ। तुम्हारे चरणों में मेरा सहस्र-सहस्र नमन। अगर अपने भृत्यों की रक्षा तुम नहीं कर पाते हो, तो हमारी गुरु पाद सेवा व्यर्थ है। कलियुग अभी तक ख़त्म नहीं हुआ है इसलिए पाँच प्राणों वाली यह काया डर रही है। कम से कम जो तुम्हारे शरणागत हैं, उनके आर्त दुखों का भंजन करो। बहुत डरे हुए मन से तुम्हें प्रार्थना कर रहा हूँ। मुझे मालूम नहीं, तुम सुन भी रहे हो या नहीं। गुरु पादों में ध्यान-मग्न होकर भी मैं यह विनती कर रहा हूँ। 

“अलेख के सामने मैंने मेरा दुख दर्द, व्यथा, कोह और मानसिक संताप अभिव्यक्त कर कुछ समय के लिए कविता-लेखन से विश्राम लेना उचित समझा। इसी दौरान मेरे चार लेखक पंडितों ने मेरी पूर्व नौ रचनाओं में व्याकरणिक दृष्टि से आवश्यक संशोधन कर लिया। मुझे न तो व्याकरण आती थी और न ही मुझे भाषा-विज्ञान की जानकारी थी। केवल ध्यानावस्था में जो शब्द, ध्वनि, राग, कम्पन मेरी आत्मा की गहराई से निकलते थे, उन्हें ही मेरे चारों लेखक अपने विवेकानुसार काव्यिक शैली मेंं पिरोते थे और देखते-देखते मेरे काव्यों की रचना पूर्ण हो जाती थी। 

“मेरे भजनों को सुनने के लिए दूर-दिगंत से लोग आते थे। सारा आश्रम श्रद्धालु भक्तों से भर जाता था। मेरी ख्याति भी ओड़िशा के दूर-दराज़ गाँवों में फैलने लगी थी। कहते हैं, जहाँ प्रसिद्धि मिलती है, वहीं सौतन के रूप में ईर्ष्या भी जन्म लेती है। जहाँ यश-कीर्ति अपने श्रद्धालु भक्तों तथा मित्र-मंडली का विस्तार करती है, वहीं सौतन ईर्ष्या कुछ ज़हरीले दुश्मनों को भी पैदा कर देती है। 

“अलेख की शरण में जाने की वजह से शुरू से ही मेरे दुश्मनों की कोई कमी नहीं थी। ग्रामडिहा आश्रम में मेरे भजन और प्रवचनों से दुश्मनों की संख्या में और बढ़ोतरी हो गई। 

“मुझे वेद विरोधी, नास्तिक, मूर्ति पूजा भंजक आदि नामों से पुकारा जाने लगा। मुझे क्या पता, अचानक सारी जातियाँ मेरे ख़िलाफ़ एक जुट हो जाएगी? 

“ईष्यालु ब्राह्मणों ने राज-दरबार में मेरे ख़िलाफ़ गुहार लगाई ‘महाराज! कैसा कलयुग आया है! एक आदिवासी कंध आपके राज्य में ईश्वर का प्रवक्ता बन बैठा है। वेदों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है, मूर्तिपूजा का विरोध करता है, जाति-प्रथा का समूल उन्मूलन करने के लिए लोगों को भड़काता है। आपके राज्य में अगर ऐसा होगा तो हमारा सारा धंधा चौपट हो जाएगा। सारा समाज वर्ण-संकर हो जाएगा। लोग आपके ख़िलाफ़ राजद्रोह करेंगे। इस पामर नीच ढोंगी आदमी को आप जैसे धर्मात्मा राजा के राज्य में रहने को कोई हक़ नहीं है। रेढ़ाखोल से आप जल्दी ही उसे देश निकाला दे दीजिए, वरना न केवल हमें, बल्कि हमारी आगामी पीढ़ियों को भी भयंकर दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे। यहाँ असामाजिक मृत्यु का दौर चलेगा, अकाल पड़ेगा, अनावृष्टि होगी। अनाहार से लोग भूखे मरेंगे। मनु भगवान ने समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए संहिता बनाई। क्या वे मूर्ख थे? क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र एक समान हो सकते हैं? ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में लिखा है-ब्राह्मण भगवान के मुख से निकले हैं, क्षत्रिय उनकी भुजाओं से, वैश्य उदर से और शूद्र पाँवों से निकलने वाला आदिवासी आदमी समाज के इस वर्गीकरण को मानने से इन्कार करता हैं और कहता है-भगवान के लिए सब बराबर है। जन्म से सभी शूद्र होते हैं। कर्म से ही इंसान श्रेष्ठ बनता है। जन्मगत संस्कारों को वह नहीं मानता है और कर्मां पर विशेष बल देता है। कहता है सभी की धमनियों में एक जैसा ख़ून बहता है। सभी एक द्वार से जन्म लेते हैं और मरने के बाद सभी की अवस्था एक जैसी होती है। कैसी-कैसी मूर्ख बातें करता है वह?’ 

रेढ़ाखोल का राजा बिष्णु चंद्र जेनामणि ब्राह्मणों की दलीलें सुनकर क्रोध से तमतमाकर अपने म्यान से तलवार निकालते हुए शेर की तरह दहाड़ उठा, ‘अब मैं दिखाता हूँ उस शूद्र के बच्चे को। अपने को अनादि पुत्र, शून्य पुत्र, महिमा पुत्र कहता है। अपने आपको निराकार का बड़ा भक्त समझता है। सदियों से बनी परंपराओं के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करता है। जातिवाद का विरोध करता है। ब्राह्मणों और क्षत्रियों को नीचा दिखाना चाहता है। मूर्ति-पूजा को रोकना चाहता है और जो कुछ भी नहीं है, शून्य है, उसे महिमा भगवान कहता है। सारी की सारी महिमा नहीं धरी-की-धरी रह जाएगी। आज ही उसके आश्रम में सैनिकों को भेजकर आग लगवाता हूँ और अगर मैंने उसका सिर क़लम नहीं किया तो अपनी माँ का दूध नहीं पिया। उसके चेलों को भी सूली पर लटकवा देता हूँ। इन हरामजादों की जब तक चमड़ी नहीं उधेड़ी जाएगी तब तक उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगेंगी।’ 

“यह कहक़र राजा ने क्रूर हँसी हँसते हुए अपने कुछ घुड़सवार सैनिकों को मेरे डिहा आश्रम को आग लगाने तथा मुझे और मेरे भक्तों को घोड़ों के रस्सी से बाँधकर ज़मीन पर घसीटते हुए राज दरबार में पेश करने का आदेश दिया। 

“इस षडयंत्र की भनक किसी तरह मेरे भक्तों को लग गई। उन्होंने आकर मुझे पागल राजा से टक्कर लेने से मना कर दिया और तुरंत अपने आश्रम को वहाँ से हटाकर खालियापाली में ले जाने का सुझाव दिया। उनकी सलाह के अनुसार मैंने अपने कुछ भक्तों सहित खालियापाली की ओर प्रस्थान किया। बाद में पता चला कि राजा के कुछ सैनिकों ने वहाँ आग लगा दी। मेरे कुछ भक्तों को उन्होंने ज़िन्दा जला दिया और जो कोई रास्ते में पकड़े गए, उन पर कोड़े बरसाए गए। कुछ भक्तों की हत्या कर दी गई। एक-दो भक्तों को सूली पर चढ़ा दिया गया ताकि उन्हें देखकर और कोई इस धर्म में प्रवेश करने की हिम्मत न करे। कितना निर्मम आततायी राजा था वह! 

“मन ही मन मुझे महिमा अलेख पर ग़ुस्सा आ रहा था कि वह अंतर्यामी होने के बावजूद भी अपने भक्तों की रक्षा नहीं कर सका। मेरी कविताओं, मेरी प्रार्थनाओं, मेरी स्तुतियों और मेरे भजनों में ऐसी क्या त्रुटि रह गई कि जिस वजह महिमा अलेख अपने सत्यधर्म के अनुयायियों की रक्षा नहीं कर सका? क्या वर्ण विशेष ही भगवान को पाने का सच्चा अत्तराधिकारी होता है? दूसरे वर्ण वालों की आत्माओं मेंं ऐसी क्या कमी होती है कि वे ईश्वर प्राप्ति के हक़दार नहीं हो सकते हैं? ऐसा छोटी जाति वालों के साथ ही क्यों घटता है? वाल्मीकि भी मेरी तरह शूद्र ही था, जिसने ‘रामायण’ लिखी। उसमें शंबूक की हत्या का वर्णन है। शंबूक आदिवासी था और भगवान प्राप्ति के लिए कठोर साधना कर रहा था। यह त्रेता युग की बात है। तत्कालीन ब्राह्मणों ने उसके संस्कृतिकरण के प्रयास को देखकर मर्यादा पुरूषोत्तम राम को भड़काया। 

“सर्पदंश से मरे एक ब्राह्मण लड़के की मृत्यु का कारण उसकी तपस्या को ठहराया कि राम राज्य में एक आदिवासी के द्वारा तपस्या करने की वजह से सारे अनर्थ हो रहे हैं। फलतः राम ने स्वयं अपनी तलवार से उसकी गर्दन काटी और तत्कालीन ब्राह्मणों ने अपने शास्त्रों में इस हत्या की वजह से सीधे स्वर्गारोहण की झूठी कहानी रच डाली। ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने मिलकर छोटी जातियों के ख़िलाफ़ उस समय से प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। निरक्षरता, पैसों का अभाव और सामाजिक समरसता की कमी के कारण पिछड़ी जातियाँ सदैव से तरह-तरह की सामाजिक विसंगतियों का शिकार होती रही हैं। 

“आठ हज़ार साल बीत चुके होंगे इस घटना को मगर अभी तक उनके उजले ख़ून का नज़रिया नहीं बदला था। मुझे लगता था, इस कलयुग में मैं शंबूक का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ और रेढ़ाखोल का राजा बिष्णुचंद्र त्रेताकालीन मर्यादा पुरुषोत्तम राम का। तभी तो वह अपनी खड़ग से मेरी गर्दन उड़ाना चाहता था।” 
 

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