अंधा कवि

अंधा कवि  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अध्याय 8


आनंद ने सातवें अध्याय में भीम भोई के मन में औरतों के प्रति छपे हुए अनुराग को देखा और उनको भी आध्यात्मिक पथ पर चलने हेतु प्रेरित करने की वजह तरह-तरह की कुर्बानियों के लिए अपने आप को तैयार कर लिया था। सुबह जब अरुण के साथ चाय पीते समय इस अध्याय के बारे में विमर्श किया तो सबसे बड़ी बात उनकी स्थानीय भाषा के प्रति अटूट प्रेम को देखकर वे हतप्रभ थे, कहने लगे, “मुझे लगता है कि भीम भोई न भक्त कवि या उपदेशक थे। वे भाषाविद भी थे। अपने मन की बात को जन साधारण की भाषा में अभिव्यक्त कर बुद्ध की तरह समाज में जातिविहीनता की क्रांति लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।” 

“भईया! आप सही कह रहे हो। डेढ़ दो सौ साल पहले हमारे देश में संस्कृत भाषा अपनी गरिमा खोने लगी थी। भाषा की क्लिष्टता की वजह से वह जनसाधारण से दूर होती जा रही थी, इसलिए भीम भोई की लोकभाषा में काव्य-रचना ने तत्कालीन जनता को बहुत प्रभावित किया होगा।” आनंद ने प्रत्युत्तर में कहा। 

वह समझने लगा था कि दिन-प्रतिदिन कवि के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलु उसके सामने आ रहे थे, जिसके बारे में सोचकर वह मजबूर हो जाता था कि एक अंधा कवि वह भी अनपढ़, निरक्षर, अपने विचारों के त्वरित प्रवाह के बल पर समाज के विभिन्न वर्गों में उथल-पुथल मचाने में कामयाब सिद्ध हुआ। 

अगले दिन आठवाँ अध्याय उसकी प्रतीक्षा कर रहा था: 

 

मैंने इस आत्मकथा के अलावा मेरे काव्य ‘स्तुति चिंतामणि’ में भी मेरे जीवन के व्यक्तिगत खट्टे-मीठे अनुभव, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवेश के साथ-साथ, महिमा-धर्म के नीति-नियम और अपरिहार्यता पर प्रकाश डाला है। मेरा मानना है कि निराकार अलेख परम ब्रह्म से नीरव शून्य की उत्पत्ति हुई, जिससे स्थल और आकाश बने, फिर आकाश में रंगों का निर्माण हुआ। बाद में अनाम से ही आग, ईथर और जल बना। इतना कुछ होने के बाद सूरज-चाँद, त्रिदेव-ब्रह्म-विष्णु-महेश और स्थावर-जंगम की उत्पत्ति हुई। 

हे अलेख! अरुणोदय होते ही जिस तरह अँधेरा छँट जाता है उसी तरह ज्ञान की तलवार से मेरे पापों को भी काट दो। रात में चन्द्रोदय होते ही उजाला हो जाता है, उसी तरह मेरे पापों की गठरी उतारकर मुझे उज्ज्वल बना दो। साँप काटने पर ओझा जैसे मंत्रों से ज़हर झाड़ देता है, वैसे ही मेरे शरीर पर लिपटी पाप लताओं के झुरमुटों को गुरु अपने उपदेशों से हटा देते हैं। सन्निपात होने पर वैद्य ज़हरीली बटी देता है, उसकी गर्मी से रोगी के शरीर से पानी का समुद्र सूख जाता है, उसी तरह ज्ञान की औषधि देकर मेरे शरीर से पाप के दुख सागर को सूखाकर मेरे पापों का निवारण कर दो। जिस तरह धोबी नदी के किनारे अपने मैले वस्त्रों को धोकर साफ़ करता है, उसी तरह प्रभु मेरे घट के पापों को धोकर उज्ज्वल बना दो। जैसे सोना आग में तपाने से ज़्यादा चमकता है, वैसे ही ब्रह्माग्नि में मुझे जलाकर निर्मल बना दो। स्नान करने से जैसे शरीर की शुद्धि होती है, उस पर ज़मीं धूल-मिट्टी सब हट जाती है, वैसे ही मेरे शरीर पर भी पाप का मैल जमा है, शून्य पुरुष उसे हटाकर अपने भंडारगृह में जमा कर दें। जिस तरह आकाश बादलों से ढके रहने पर धुँधला नज़र आता है, बारिश होने और तेज हवाएँ चलने से फिर आकाश स्वच्छ हो जाता है, उसी तरह मेरा शरीर भी झूठ और पाप के बादलों से ढके रहने के कारण काला-काला दिख रहा है। 

हे शून्य पुरुष! अपने अमृत लोचनों से मुझे उज्ज्वल बना दो। जिस तरह झींगुर कीचड़ और दलदल में धँस जाता है और जब वह उससे बाहर निकलता है तो सारा गर्द हट जाता है, उसी तरह मैं पाप-पंक में फँस गया हूँ। 

हे अंतर्यामी प्रभु! अपने कर-कमलों के स्पर्श से मुझे बाहर निकाल दो। जिस तरह नृत्य के समय नृर्तकी के शरीर आठ तरह के ज़ेवरों से सुसज्जित रहता है, मगर नृत्य पूरा होते ही वे हटा दिए जाते हैं। उसी तरह मेरा शरीर भी पाप के अलंकारों से मंडित है, आप मेरे इन पाप अलंकारों को दूर फेंककर मुझे कष्ट मुक्त कर दो। सर्दियों में आग लगाते ही जैसे शीत लहर भाग जाती है, वैसे ही मेरे शरीर पर भी पाप की शीत लहर प्रमाद कर रही है, ब्रह्मानल जलाकर गुरु अपने श्री हस्तों से उसे दूर कर दो। अपने श्री हस्तों से मेरे चिर दुख पापों को मिटा दो और किसी भी तरह मुझे काल के विकराल मुँह से बाहर निकाल दो। 

हे क्षीर सिंधु वासी! मेरे इस शरीर को दूध की तरह शुद्ध और उज्ज्वल बना दो। एक एक कर कितना बखान करूँगा, मेरे अशेष पापों का उद्धार कर दो। पहले भी मैंने कहा था, गुरु, मेरे मन की बातें केवल आप ही जानते हैं, आपके चरणों की वंदना करते हुए फिर से उन्हीं बातों को दोहरा रहा हूँ। सूर्य किरणों की शुद्ध स्वर्णिम चमक की तरह मेरा शरीर द्युतिमान हो। चारों युगों में गुरु-चरणों की सेवा करने का मौक़ा मिले। चंद्रमा की धवल चाँदनी की तरह मेरा शरीर स्फटिक पत्थर की तरह चमके। 

हे शून्य पुरुष! निर्दयी न हो, मेरी सेवा भक्ति स्वीकार करें। गुरु की सेवा करने वाला यह तन निष्कलंक हो। जिस दिन से मेरे भीतर ज्ञान-बुद्धि जगी है, उसी दिन से मैंने अपना तन-मन गुरु को समर्पित कर दिया है। बिजली की चमक की तरह चमकीली और दर्पण की तरह पारदर्शी यह देह हो जाए। शून्य ब्रह्म की दया से मेरा शरीर काँसें की तरह जगमगाने लगे, अग्नि के तेज की तरह यह शरीर जाज्वल्यमान हो, ब्रह्म के तेज से यह शरीर प्रकाशित हो जाए। मेरा सारा शरीर मलिन अवस्था में है, खोजने पर किसी भी जगह स्वच्छता नहीं मिलेगी। सारा शरीर परिमल होकर ब्रह्मभूतमयी बन जाए। मक्खन की तरह यह शरीर स्निग्ध हो, किसी प्रकार का कोई अवगुण न रहे। मुझ पर अरूप ब्रह्म की दया हो और उनके दर्शन हो जाए। शत्-शत्, सहस्र-सहस्र बार मैं उनको नमन करता हूँ। मेरे सच्चे हृदयोद्गार हैं। साधु ज्ञानी गुरु सेवा को ब्रह्म भक्ति मानते हैं। वह अशेष जन्मों के पूंजीभूत कल्मषों को नाश कर मुक्ति प्रदान करता है। तरह-तरह से मैंने गुरु की वंदना की है, इसी आशा के साथ कि उन्हें मुझ पर विश्वास हो जाए। गुरु चरणों में शरण लेकर प्रतिदिन उनका चिंतन-मनन ध्यान-धारणा करते हुए मृत्यु का वरण करना चाहता हूँ। 

गुरु चुप थे। उन्होंने अपनी आँखें बंद कर दी। चेहरे पर स्मित-हास खिल गई। ‘स्तुति चिंतामणि’ में मैंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अलेख से नीचे रखा। कृष्ण और जगन्नाथ को भी। मेरा अलेख शून्य वासी अनादि पुरुष है। मैंने ‘स्तुति चिंतामणि’ में उनके नाम लंबा पत्र लिखे। पहला पत्र इस प्रकार था:

 

हे शून्यवासी अनादि पुरुष! 

शत-शत नमन!! 

मेरी कपाल पर आधी तपस्या लिखने के पीछे तुम्हारा क्या मतलब था? मेरे किस अपराध के कारण तुमने मेरी ललाट पर अढ़ाई अक्षर लिखे? क्या मैंने आधी सफलता, आधी विफलता माँगी थी? क्या यह मेरे पूर्व के सौ जन्मों की कमाई है? क्या मेरे आहार पर धूल पड़ना मेरा सुकृत था? मेरे कर्मों का पेड़ बहुत क्षीण हो गया है, जिस पर फल सड़ने लगे हैं। जिसे न तो अपने हाथों से तोड़कर खा सकता हूँ और न ही उन्हें कहीं दूर फेंक सकता हूँ इसलिए मेरे मन में बहुत दुख है। मैंने सोचा था, इस पेड़ की डालियाँ फल-फूलों से लदी रहेंगी, मगर मुझे एक भी पूरा फल नहीं मिला। जो भी फल मैंने खाए, वे या तो स्वाद रहित थे या फिर कड़वे। वे फल या तो आधे कच्चे थे या आधे पके, इसलिए कड़वे थे, मीठे नहीं। क्या आपने मेरे भाग्य में यही लिखा है? कड़वे या तिक्त खट्टे फलों से मेरी आत्मा संतुष्ट नहीं हुई। मेरे साथ पहले से ही दुर्घटनाएं घटती रही हैं तो इस बार मुझे कौन से अच्छे फल मिलने की आशा थी? इस युग में तुमने तो मेरा भाग्य ही ऐसा लिखा। सीधी रेखा की जगह भाग्य की रेखा को वक्र बना दिया। पिछले जन्मों में शायद मैंने गुरु की सेवा संतोषजनक ढंग से नहीं की थी, इसलिए न तो योग और न ही भोग मेरे हृदय को आनंदित कर सके। अदृश्य की आज्ञानुसार मैं जंगल में फेंका गया। जो कुछ मिला, खाया, मगर अब यह समय आ गया है कि मैं प्रारब्ध के पापों से मुक्ति पाऊँ। पूर्ण सेवा भक्ति नहीं करने के कारण आज मेरी यह दुर्दशा हुई है। धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का। पूर्व जन्म में मैंने किसी को जंगल में खदेड़ा होगा, तभी तो आज मुझे ये दिन देखने पड़ रहे हैं। पूर्वजन्म में मैंने किसी का घर उजाड़कर बेघर किया होगा, तभी तो आज मैं ये सब भुगत रहा हूँ। आज मुझे महसूस हो रहा है कि मैंने ग़लती कब और कहाँ की थी? ज़रूर पहले मैंने किसी के सुख में ख़लल डाला होगा, तभी तो मुझे यह सजा मिल रही है। पूर्व जन्मों के सारे पाप इकट्ठे होकर इस जन्म में मेरे साथ प्रतिशोध ले रहे हैं। अंतर्यामी स्वामी ने अनंत गर्भों में मेरे पापों का संग्रह करके रखा था और अब उनके भुगतने का समय आ गया है तो सारे पाप एक साथ मेरे गले पड़ गए।

शून्यवासी प्रभु। एक पाद वाले ब्रह्म!

मेरे अपने दो पैर हैं। भेदभाव रहित होकर मुझे आपका एक पाद पार करने दो।

मेरे गुरु दया के सागर हैं महिमा उनका धर्म है। ज्ञानियों के लिए अगोचर हैं, यहाँ तक वेद भी उनकी सीमा नहीं जानते। इस धर्म पुरुष की कोई रूपरेखा नहीं है तो मैं किसका जप करूँगा? अच्छे कर्म नहीं करने पर भी तुम फल देते हो। तुम कर्मकांड से बहुत ऊपर हो। तुम अचिन्त्य हो, तुम्हारी देह शून्यमय है तो शास्त्रों में उसका उल्लेख कहाँ मिलेगा? उसकी रूपरेखा का अपने विचारों में निरूपण करने की क्षमता किसमें है? साधु, सज्जन, कवि और पंडित सभी अपने मन में ज़रा विचार करो तथा इस घोर कलियुग में दिन-रात अलेख महिमा धर्म का अनुसरण करो। इस युग में यही धर्म एकमात्र साधन है, जिससे गति, मुक्ति, सम्पत्ति और निष्ठा की प्राप्ति होती है। यह बिलकुल सच है वज्र के गार की तरह। इस कलयुग में दिन-ब-दिन अनर्गल पाप बढ़ता जाएगा। 

मैं तुम्हें कैसे पहचान सकता हूँ? तुम्हारा कोई रूप ही नहीं है? हे अंतर्यामी शून्यदेही! दयाकर मुझे अपने दर्शन दो।

तुम्हारा एक पाद निर्वेद निःशंक शून्य शब्द में पड़ा हुआ है, उसकी उत्पत्ति अनादि अगाध है तो उसका भेद कैसे मिलेगा? 

तुम ब्राह्मण सारधर्म के धनुर्धर हो, तुम्हारे कर्म वीरों जैसे हैं। एक जगह पर रहने के बावजूद भी तुम्हारा शरीर तीन लोकों में व्याप्त है। जल, स्थल, अनल, पवन तुम्हारे शरीर के भीतर है और बाहर भी। तुम शब्द स्वरूप होकर निराकार आत्मा में अभिभूत हो जाते हो। देह छोटी हो या बड़ी, सजीव हो या निर्जीव, विकारी हो या अविकारी-सभी में तुम हर जगह समान भाव से रहते हो। तुम तो दुष्ट दुराचारी दानव दैत्य में भी हो। कोई भी जगह तुम्हारे बिना ख़ाली नहीं है। सभी भूतों में तुम जीव ब्रह्म के नाम से रहते हो। संतों, साधुओं, पंडितों, कवियों के हृदय में निराकार की दिव्य ज्योति देते हो ताकि वे अपनी काव्य-रचना कर सके।

अशेष महिमा तुम्हारा नाम है प्रभु, कैसे तुम्हारा वर्णन करूँ? मैं ब्रह्म सागर में खो गया हूँ और मेरा मन आश्चर्य चकित है। मैं अपनी सीमित बुद्धि, बल के अनुसार तुम्हें पाने के लिए कई तरीक़े अपनाता हूँ। बहुत कोशिश करने के बाद भी न तो तुम्हारे दर्शन होते हैं और न ही तुम मेरे लिए अपने मुँह से एक भी शब्द बोलते हो। 

तुम मुझे परेशान क्यों कर रहे हो? मुझे पीट क्यों रहे हो? क्या मैंने तुम्हारा कोई ऋण लिया था? साफ़-साफ़ बताओ तुम चुप क्यों हो? तुमने मुझ पर अपनी करुणा कटाक्ष कृपा और दया ही तो की है, जिसके बदले में मैंने तुम्हें भक्ति और सेवा दी है। क्या फिर भी मेरी उधारी या सूद बचा हुआ है? मैं तुम्हारा सारा ऋण चुका दूँगा। मुझे नहीं पता वह तुम्हें मिलेगा भी या नहीं। मैं तुम्हें अपने जीवन की सारी भक्ति से सूद समेत ऋण लौटा दूँगा। हम विगत चार सालों से लेन-देन कर रहे हैं। तुम्हारे पास तो कोई खाता बही नहीं है, फिर ग़ुस्सा क्यों कर रहे हो? क्या मैंने अकेले तुमसे उधार लिया है? दूसरे लोगों ने भी तो उधार लिया है। तुम उनकी उधारी का हिसाब क्यों नहीं रखते, जबकि मैं तो अपना भुगतान नियमित रूप से कर रहा हूँ। मैंने तो दूसरे लोगों से भी उधारी ली है तो उसके लिए भी मेरे प्रति ऐसा ही व्यवहार करोगे?

 इस बार मुझे माफ़ कर दो। आजीवन आभारी रहूँगा।

तुम्हारा
भीम भोई

शून्यवासी प्रभु को यह पत्र लिखकर मैंने राहत की साँस ली। मन के ऊपर का बोझ हट गया था। बहुत हल्का हृदय लगने लगा था। 

मैंने बचपन से ही अत्यंत ग़रीबी देखी। घोर सामाजिक विद्रूपताएँ और विसंगतियाँ भी मुझे चारों ओर नज़र आती थीं। भगवान में अनास्था और पथ-भ्रष्ट होने की वजह से हमारे देश की या दुर्दशा हुई थी। 

मेरी हार्दिक इच्छा है कि लोग महिमा धर्म को जाने और उन्हें अपनाएँ, क्योंकि कलयुग में संवेदनाओं का पूरी तरह से अभाव है, चारों तरफ़ अराजकता ही अराजकता है। ऐसी अवस्था में केवल महिमा धर्म ही सभी को बचा सकता है। दूसरे शब्दों में, महिमा धर्म मानवतावादी है। पापी से महापापी भी महिमा भगवान की शरण में जाने से निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। झूठ, व्यभिचार, ईर्ष्या, लोभ-लालच सभी का परित्याग कर सुख-दुख को समान समझने वाला श्रेष्ठ साधक बन सकता है। 

मैंने साधारण से साधारण भाषा में मानवीय संवेदनाओं को ‘स्तुति चिंतामणि’ में प्रकट करने की कोशिश की है। मैं कविता को अपनी आत्मा के दुख को अभिव्यक्त करने की विधि मानता हूँ। मेरी ‘स्तुति चिंतामणि’ में बीस बोलियाँ अर्थात् बीस अध्याय (Cantos) है और प्रत्येक बोली में दो पंक्तियों वाले बीस पद्यांश है अर्थात् 4000 पंक्तियों में मेरी यह काव्यिक अभिव्यक्ति है। कुछ कविताएँ आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है:

 

1. 
उसके न तो हाथ है, न ही पैर
कौन पकड़ सकता है उसे? 
क्या किसी ने देखा है आज तक
ब्रह्म का असली स्वरूप? 
 
न उसके पेट है, न कमर
हमारी बुद्धि से परे है वह
तीनों लोकों में
उसके जैसी शांत प्रकृति का है नहीं कोई
मान-अपमान, लाभ-हानि से
रहता है वह अति दूर। 
 
न तो वह लेता है आहार
न ही वह रज-वीर्य का उत्पाद
क्षुधा-तृष्णा मिटाने के लिए
नहीं पीता क्षीर-नीर। 
 
न लगती अंगों पर धूल
काया चमकती हर दम
खड़े-खड़े करता वह शयन
करता वह गमन
जहाँ पुकारते भक्त-जन। 
 
न वह हिलता, न डुलता
फिर घूमता परम शून्य में शून्य बन
मुख या जीभ से नहीं हो सकता बखान
उसकी महिमा अपरंपार
परमानंद स्वरूप उसका
तीन लोकों का राजा
फिर भी नहीं कहीं भी वह। 
 
न ही उसका वर्ण चिह्न
सभी आकारों से अलग
सकल-धर्म न्याय दाता
और सभी चीज़ों का कर्त्ता-धर्त्ता
शून्यचर वह
निष्काम योग में लीन। 
 
उस ब्रह्म तेज के
पास जाना असंभव
केवल होता अनुभव
कहता है भीमसेन
अगर कभी हुई मुलाक़ात
पूछूँगा दुनिया के हाल-चाल। 
 
2. 
मूल शून्य ही ध्यान बिंदु
निशब्द भुवन धू-धू नाद गर्जन
अगाध सागर, मगर नहीं एक बूँद नीर
चारों तरफ़ बिखरा है हृदय-पंक। 
चार दीवारी में अनस्तित्व जगह
और प्रत्येक पद पर चमक
मौत का कोई अवसर नहीं
सभी सजे राजाओं की तरह
मगर तंतु रहित। 
उसके घर में हो रहा नृत्य
मगर नहीं सुनाई पड़ता संगीत
बीच में ‘अनाम’ प्रभु
टूटी-फूटी भाषा, अपर्याप्त उपमाएँ
नहीं गा सकती उसकी महिमा
धो सकता है वह सारे पाप
जन्म-मृत्यु खड़े हैं उसके द्वार। 
कोई शास्त्र बता नहीं सकता उसका आकार
वह अमर अविकारी
सुनाई देता एकाक्षर
दिव्य-संगीत में गूंजन
कह रहा मूर्ख भीम। 
 
3. 
क्या किसी ने उसे देखा है? 
वृद्ध अतिथि के रूप में
वह जा रहा था इस पथ। 
 
माता-पिता के बिना जन्म
बिना चूसकर माँ के स्तन
पिया उसका दुग्ध। 
 
मैंने उसे खिलाया अपनी गोद
नन्हे बच्चे की तरह
बढ़ी नहीं उसकी उम्र
मगर बढ़ा उसका तेज। 
 
न वह काला, न गोरा
मैंने उसे ‘कुछ नहीं’ खिलाया
और न ही वह निकला इस घर से बाहर
मैंने उसका नाम तक नहीं दिया
और नहीं बनाई उसकी जन्म कुंडली। 
 
धूल भरी गलियों में
वह खेलता
न वर्ण, न चिह्न
फिर भी वह चमकता असीम। 
अंग नहीं है फिर भी घूमता
पहने वल्कल कौपीन
बताती मुझे धरती गगन
उसका पुत्र बन रहा साधु
जो तारेगा सर्वजन। 
इस घोर कलियुग में
अगर उससे होगी मेरी भेंट
सीने से लगाकर करूँगा प्यार
मैं पापी अज्ञानी भीम
ढूँढ़ता उसे अन्यत्र। 
 
4. 
रूपरेखा नहीं, हे शून्य देही! 
फिर भी उड़ते हो। 
बरसाता जल बिना पवन
उनचास वायु बहती घन-घन
बढ़ता जाता जल, नहीं नदी फूल
होता धरती पर उल्कापात। 
 
चमकती भीगी धरती
शुष्क नज़र आती नयन
द्वार खुलने से पूर्व
ब्रह्म के आश्रम में
न उदय, न अस्त
अनुच्चरित शब्द, कामनाहीन
शब्दरहित क्षण
बिना किसी उलहाना
उसके चरण-कमलों में समर्पण। 
मन तड़पता करने को उसका दर्शन
पर करना उसे प्रसन्न
बिना किसी आशा
और बिना किसी आकांक्षा। 
झील में नहीं मिट्टी-बालू
ग्ंगाजल त्याग कर आए कूप-जल
पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों का
फल है यह। 
न कोई पेड़, न उसका मूल
फिर भी दीर्घ होती उसकी छाया
बिना फूल से लगते फल
बिना तने से फैलती पत्तियाँ
पहुँच जात वहाँ असाधन। 
पति-पत्नी रूप में रहता युगल
नहीं उनके कोई गुप्तांग
केवल पहने हुए वल्कल
प्रभुपाद की सेवा निरंतर
करता भीमसेन भोई। 
 
5. 
तैरता मैं, होकर असहाय भवसागर
हे प्रभु! कोई नहीं सुनते मेरी पुकार? 
दिन-रात स्मरण करते, सूख गया गला
चातक पक्षी की तरह वर्षा कर रही प्रतीक्षा। 
हमेशा हृदय-पद्म में करता ध्यान
इतने क्रूर क्यों हो, त्रिलोकी भगवान! 
तुम्हारे आदेश पर चलता सारा ब्रह्माण्ड
तुम्हारे भक्त-वत्सलों का बाना फहरता इस पवन। 
क्यों अभी तक जीवित है यह पापी? 
मृत्युलोक में कैसे करेगा सहन, इतने कथन? 
 
6.
लताओं के वन में घूमते
दिखाई दिए वे दो सुमन
तीन लोकों में पठन कर
नए परिधान प्रतिदिन। 
एक ऐसा रूप विटप
जिसका नहीं कोई चेरमूल
फिर मेरू पर्वत से
द्विगुणित स्थूल। 
बसंत नहीं, फिर भी लदे फूल
हर दिन खिलते
हर दिन गिरते
नहीं वे सुगंधित। 
उस छाया रहित तरु के तल
रहते वे दोनों
झड़ते ही कलियाँ
हो जाती उनमें विलीन। 
चार प्रकार के रूप-रंग
अमृत की जगह
रहता वहाँ केवल ज़हर। 
 
चार पंखुड़ियाँ जिसकी द्युतिमान
पर चार रंग के भ्रमर
नहीं गूँजते उस स्थान। 
भक्तों के हृदय में
हो जाते वे फूल अंतर्धान
कहता भीम भोई
उस सुगंध को करो ग्रहण। 
 
7. 
जय जय ज्योति रूप विख्यात, शून्य में उड़ता जिसका बाना
कृपा-कटाक्ष से जिसके, होते भगत के सारे दुखों का खंडना। 
जगत समाया है जिसमें, नाम हरि ब्रह्मय तेज
अज्ञानी के लिए मेरू, ज्ञानी के लिए सरू, वह न हल्का, न बोझ। 
पता नहीं, मुझ पर प्रभु की कृपा या अभयदान? 
जैसे गुज़र रहे युग, हर पल गिनता हर दिन। 
तुझे विश्व का कर्त्ता मान, लगाता ललाट पर हस्त
उद्धार करो हे महाप्रभु!, संताप से हूँ मैं ग्रसित। 
फैलाया तुमने निर्वेद को, बन अरूप रूपहारी
सुनो! मेरी विनती, तुम हो भक्त हितकारी। 
शून्य से असीमित ज्ञान लेकर फहराई अपनी बाना
अंतर्यामी होने से अवश्य जानोगे, भक्त की मनोकामना
 
तुम्हारे जितने छंद, हे अरूप गोविंद। सभी तुम्हारे खंड
उससे दे रहे हो मुझे, कितने भयंकर दंड। 
कितना दग्ध हूँ संताप में, दे रहे हो कितने कषण
भक्तों की रक्षा करने वाले, धन्य तुम्हारा प्रभुपण। 
अगर मैं सत्य निष्काम के नाम पर हूँ अपराधी चोर
अगर मन में कुछ क्रोध, खडग से काट दो मेरा सिर। 

मैं ज़्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, निरा मूर्ख अनपढ़ हूँ, मगर यह अच्छी तरह जानता हूँ कि ज्ञान की तुलना में भक्ति ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। भक्ति और आध्यात्मिक भाव-प्रवणता से ही अलेख निरंजन को प्राप्त किया जा सकता है। मन की शुद्धि से ही ब्रह्म तत्त्व की प्राप्ति होती है। 

कुछ लोग, पता नहीं क्यों, मेरी तुलना ईसा मसीह से करते हैं, जिन्होंने मानवता बचाने के लिए सूली पर चढ़कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। प्राणियों की आर्त्त पुकार और दुख-दर्द दूर करने का सपना मेरा भी है, मगर मैं क्या ईसा मसीह हो सकता हूँ? 

मैं भजनी हूँ, अपने भजनों से सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर अवश्य कुठाराघात करता हूँ। यह निरी मूर्खता है कि मूर्तियों के सामने लोग प्रसाद चढ़ाते हैं। क्या उन्हें ये भी मालूम नहीं कि बिना आत्मा वाली ये मूर्तियाँ केवल महज़ आकृतियाँ ही हैं? वे सजीव प्राणियों की इच्छाएँ कैसे पूरी कर सकती हैं? दुख इस बात का है कि जिनकी पूजा करनी चाहिए, लोग उनकी पूजा नहीं करते है, जिसने उनको बनाया है बल्कि लकड़ी, पत्थर और धातु की मूर्तियों के पीछे भागते हैं और गुहार लगाते हैं, ‘मुझे बचाओ, मुझे बचाओ’। किसी की भी रक्षा करना क्या मुर्दा मूर्तियों के लिए सम्भव है? 

मेरे भजनों में सामाजिक पतन और दुर्दशा का भी वर्णन है, मगर उनमें निराशावादी स्वर नहीं है। मुझे विश्वास है कि एक-न-एक दिन राजाओं, ब्राह्मणों और सामंतों के समाज पर अत्याचार ख़त्म होंगे। वे दिन दूर नहीं है, जब महिमा धर्म वाले उन सभी के घमंड को चकनाचूर कर देंगे। एक-एक कर सारे पापी ख़त्म हो जाएँगें। कोई भी धर्म उनकी रक्षा नहीं कर पाएगा। मैं आज भी पाप और पुण्य की अवधारणा में विश्वास करता हूँ। यह मानता हूँ, पाप का फल बुरा होता है और पुण्य का अच्छा। 

‘स्तुति चिंतामणि’ के छब्बीसवें अध्याय में मैंने कलियुग में दुनिया के लोगों की अधोगति का वर्णन किया है। जब मैं नौ लोकों की बात करता हूँ तो मेरे सामने नौ छोटी-छोटी तश्तरियाँ उभर आती हैं। मेरी आँखों के सामने छप्पन करोड़ प्राणी घास के तिनके की तरह नज़र आने लगते हैं। मैं जानता हूँ, मेरे भीतर इतनी शक्ति व्याप्त है कि अगर मैं चाहूँ तो एक ही दिन में सारी दुनिया को उलट-पुलट कर सकता हूँ, मगर मैं केवल दाँत भींचकर रह जाता हूँ क्योंकि ऐसा करने की गुरु आज्ञा नहीं दे रहे हैं। 

इसी काव्य के सौंवे अध्याय में मैंने दिखाया है कि कलियुग का अंत बहुत नज़दीक है, अतः सभी प्राणियों को इस समय अलेख की शरण में जाना चाहिए। मेरे भजनों की लय-ताल श्रोताओं को अक़्सर आकर्षित करती है। मैं चाहता हूँ, मुझे भले ही नर्क मिले, मगर जगत का उद्धार हो। मेरे भजनों में भारतीय मिट्टी की सुवास है और उनमें उदात्त आध्यात्मिक भावनाएँ भी कूट-कूटकर भरी हुई हैं। 

ध्यानावस्था में मैंने कलियुग में होने वाली घटनाओं को देखा है। जानता हूँ, अलेख महिमा लोगों का अहंकार तोड़ेगा, और यह सृष्टि हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी। भाद्रपद के बाद गजपति राजा के सत्तरहवें अंक में पृथ्वी के सात टुकड़े हो जाएँगें। मेरे गुरु महिमा स्वामी अप्रत्यक्ष गुप्त रूप से काम करेंगे। बड़ी-बड़ी हस्तियाँ एक-एककर सब चली जाएँगी, किसी को भी पता नहीं चलेगा। सामान्य जनों के हृदयों में न तो शास्त्रों का ज्ञान रहेगा और न ही उनकी अपनी चेतना। उनके अधरों पर राम का नाम भी नहीं आएगा। इस प्रकार पृथ्वी वासियों के घरों से हमेशा के लिए सत्य-धर्म समाप्त हो जाएगा। लोग अन्याय, अनाचार, अनीति आदि में फँस जाएँगे, तब उन्हें कौनसा धर्म, कौन सा पथ तारेगा? वे आग में जलकर मरेंगें, पेड़ों से गिरकर मरेंगे, पानी में डूबकर मरेंगे, दम घुटने से मरेंगे, सर्पदंश से मरेंगें, अपना गला ख़ुद काटेंगे। रोग-व्याधियाँ बढ़ेंगी और दुख-चिंता भी। कुछ मरेंगे कुछ बचेंगे, जो बचेंगे उनके अंगों में शक्ति नहीं होगी। कई पेचिश से मरेंगे, कई दुख से काँपेंगें। जो बचेंगे, घर में छुपे रहेंगे। उनकी आँखों में केवल आँसू ही आँसू होंगे। कलियुग में आठ करोड़ रोगों और चौसठ वेदनाओं को यहाँ आने का वरदान मिला है। 

सताइसवें अंक में आठ करोड़ ‘योगिनियों’और नौ करोड़ ‘कांतानियों’ को प्रभु के इर्द-गिर्द इकट्ठा होने के लिए श्री गुरु के मधुर सुधा श्री मुख से आज्ञा मिली है। इस तरह देखते-देखते दुनिया नष्ट हो जाएगी। हर गाँव में सुबह होते ही पाँच-दस लाशें बिछी मिलेंगी। 

गाँव के गाँव उजड़ जाएँगें, राज्य ख़त्म हो जाएँगे, केवल बची रहेगी बंजर ज़मीन। एक-एक गाँव में केवल दो या चार बचेंगे, जो ‘महिमा, महिमा’ जप रहे होंगे। पाँच, दस, पंद्रह लोगों में कौन बचेगा, पता नहीं? सभी अपने परिवार खोकर नष्ट हो जाएँगें। सारे घर, सारी सड़कें सूनी हो जाएँगी। बचे हुए लोग एक दूसरे की मदद करेंगे। वे एकात्म भाव से एक साथ बैठकर खाना खाएँगे। 

दुष्टो! क्या उस समय तुम अपनी जाति और गोत्र बचा सकोगे? कर्म के अनुसार आचरण करने वाले ही बचे रहेंगे। गाय, भैंस, बकरी, भेड़-सभी तो प्लेग और कोरोना जैसी महामारियों से मर जाएँगे। देखने के लिए एक-दो भी नहीं बचेंगे। लोगों की धन-संपत्ति भगवान का वाहन गरुड़ अढाई महीने के अंदर-अंदर ख़ाली कर देंगे। उस समय फलमूल खाकर, झरनों का पानी पीकर महिमा नाम भजन में तत्पर रहना पड़ेगा क्योंकि दुनिया के बावन कोटि अनाज के भंडार गृह ख़ाली हो जाएँगे। ऐसी अवस्था में निंदा और अहंकार टिक सकेगा? सभी के हृदयों में एक ही बात होगी। जब स्त्री पुरुष को ज्ञान देने लगेगी, तब सतयुग लौटेगा। जो लोग प्रार्थनारत रहेंगें, वे हमेशा सत्य में बने रहेंगे। उनकी संख्या आठ पद्म रहेगी। आधे नर, आधी नारियाँ। 

जब मैं अपने बारे में सोचता हूँ तो सोच-सोचकर पागल हो जाता हूँ। मैं अपने आपको कैसे बचाऊँगा? मैं अपने शरीर की रक्षा कैसे करूँगा? प्रलय के बारे में सोचने मात्र से मेरा शरीर और आत्मा थर्रा उठती है। 

कहाँ मैं छिपूँगा? कैसे मैं बचूँगा? कहाँ जाऊँगा मैं? 

दुनिया के दुखों की चर्चा किस-किससे और कितनी करूँगा? सारी विपत्तियों की गाज मेरे ऊपर ही गिरेंगी। भविष्य की कहानी कौन जानता है? उस पर तो अभी तक पर्दा पड़ा हुआ है। अगर भक्तों को पता चलेगा तो उन्हें दुख होगा और उनकी आत्माएँ अपना शरीर छोड़ देगी। विदेशी सेनाएँ आक्रमण करेगी और सारे घने-जंगलों को काट डालेगी। सारे पेड़ और यहाँ तक कि घास भी नष्ट हो जाएगी। एक भी डाली और एक पत्ता तक नहीं बचेगा। धरती पर लोग नीचे गिरकर छटपटाने लगेंगे। चारों तरफ़ लाशों के ढेर से दुर्गंध आएगी। इस बात को तो पल्लू में बाँध लेना चाहिए कि भूमि पर घास का एक तिनका भी नहीं बचेगा। घोड़ों और हाथियों द्वारा सारी घास चट कर ली जाएगी। विदेशी सेनाओं से लड़ने की बजाय राजा पीठ मोड़कर भाग जाएँगें। दुश्मनों से लड़ने के लिए अपने सैनिकों को आदेश देंगे। युद्ध का आघात कितने लोग सहन कर पाएँगे? अपना जीवन बचाने के लिए किसी में भी पर्याप्त ताक़त नहीं होगी। सभी अपनी-अपनी सुख-सुविधा देखेंगे और अपने बचाव का रास्ता खोजेंगे। युद्ध से भ्रमित होकर लोग बिखर जाएँगें। फिरंगी लोग युद्ध स्थल पर ही टिके रहेंगे। आधे स्वर्ग शून्य से झाँकते हुए केवल देवता ही साक्षी बनेंगे। युद्ध की चीत्कार सुनकर मेदिनी, स्वर्ग और पाताल काँप उठेंगे। जंबूद्वीप में छत्तीस दिनों तक ख़ून की नदियाँ बहेंगी। कोई भी नहीं बचेगा, न देवता, न सिद्ध, न मानव और न दानव। 

सैंतीसवें अंक में धरती के सारे द्वीप-दीपांतर जल-मग्न हो जाएँगे। नाग, योगी, वेदांती और सिद्ध-सभी अपना आसन त्यागकर सिंहनाद करते हुए युद्ध में कूद पड़ेंगे। इस अंक तक पृथ्वी पर कोई साधन नहीं होंगे, वे तब तक मेरे पास साधु सज्जनों को सुनाने के लिए केवल निष्ठुर वचन ही बचे हैं। 

अंत में, महानदी के किनारे बैठकर उसके जल को अपने हाथ में लेकर शपथ खाता हूँ कि मैं धर्मच्युत हो जाऊँगा, सुरापान करूँगा और ब्राह्मणों की स्त्री का हरण करूँगा। प्राणियों का जरा-सा भी दुख-दर्द मुझे विचलित कर देता है। 

मेरी अन्य कृतियों में ‘ब्रह्म निरूपण गीता’ भी प्रमुख है, जहाँ मैंने अपनी कविताओं में ब्रह्म की व्याख्या करने के लिए विलोम शब्दों का प्रयोग किया है। उदाहरण के तौर पर:
 
वह शिष्य भी है और गुरु भी
वह अँधेरा है और उजाला भी
वह सजा देता है और सहन भी करता है
वह बाँधता है तो हम बंधते भी
वह कर्म है तो भ्रम भी
वह निराकार है तो आकार भी
वह योगी है तो भोगी भी। 

मैं जानता हूँ कि वेद और वेदांत ‘ब्रह्म’ की सही व्याख्या नहीं कर सकते हैं। कोई भी शास्त्र दिव्य-सचेतन नहीं कर सकता है। किताबी ज्ञान से ब्रह्म-प्राप्ति नहीं हो सकती है, क्योंकि वह तर्क, ज्ञान और कारण से बहुत परे है। वह तो तभी प्राप्त हो सकती है, जब मन में ऐसी भयंकर तड़प हो, जैसे नवजात शिशु अपनी माँ को देखने के लिए तरसता है। वह दयालु है। हमारे सारे पाप माफ़ कर सकता है, अगर हम पूर्ण रूप से अहंकार त्याग दें। वेदों की मधुर पावन ध्वनियों से ईश्वर नहीं मिलता है। उसे पाने के लिए तो भीतरी भूख होनी चाहिए। उसके रहस्य को तो तैंतीस करोड़ देवी-देवता भी नहीं जानते हैं। वह ऋतु-चक्र से भी बहुत परे हैं। 

मैं कहता हूँ कि ध्यान-योग से परम-शून्य की वीणा की निःशब्द-ध्वनि सुनी जा सकती है। शून्य से मिलाने वाला रास्ता शाश्वत है, यहाँ आत्मा को भूख-प्यास नहीं लगती है। यह तो वह मार्ग है जिस पर चलकर मनुष्य परमसत्ता तक पहुँच सकता है। 

मेरी भजनावली ‘अष्टक बिहारी गीता’ मेरी अंतरात्मा की पुकार है, अपने भक्तों से ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से शुद्ध जीवन जीने के लिए। इसमें मैंने दर्शाया है कि जब आप अहंकार त्यागकर अलेख महिमा की शरण में जाओगे, तभी मुक्ति मिलना अवश्यंभावी है। ब्रह्म सभी प्राणियों में है, पूर्ण भक्ति और समर्पण से ही मुक्ति सम्भव है। 

मेरी बहुचर्चित कृति ‘निर्वेद साधना’ में भले ही, मेरी काव्यत्मकता कुछ कम है, मगर सारगर्भित संदेशों से ओत-प्रोत है। यहाँ मैंने महिमा स्वामी और गोविंद बाबा के वार्तालाप हो कविताओं में पिरोया है। गोविंद बाबा के संदेहों का महिमा स्वामी ने निवारण किया है। महिमा धर्म निवृत्ति पर बल देता है, न कि प्रवृत्ति पर। चंदन-तिलक, फूल-माला, उपनयन सभी व्यर्थ की चीज़ें हैं। शुद्ध और सीधा-सादा जीवन जीना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है भले ही, इसके लिए भीख क्यों न माँगनी पड़ जाए? जो भी इस जीवन में मिले, उसमें संतुष्ट रहना आवश्यक है। मनुष्य जीवन के लिए वेद महत्त्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि इनसे मोक्ष नहीं मिल सकता। निर्वेद साधना अर्थात् वेद रहित साधना से ही मुक्ति सम्भव है। इसके लिए परम भक्ति और शुद्ध जीवन शैली चाहिए। मैंने इस साधना में एकाक्षर, शून्य, ओंकार और अजपा जाप पर प्रकाश डाला है। 

मेरी अन्य कृति ‘श्रुति निषेध गीता’ भी ‘निर्वेद साधना’ की तरह ही है। इसमें गोविंद बाबा के सवालों का अनादि ब्रह्म उत्तर देते हैं कि उन्होंने न केवल ब्रह्मा, विष्णु, महेश वरन् तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की महिमा धर्म में उपेक्षा की है। आठ लाख योगिनियों, नौ करोड़ कांतानियों, तारें-ग्रह-नक्षत्र, निर्माल्य कणिका और तुलसी पत्र के सेवन पर भी प्रतिबंध लगाया है क्योंकि ये सारी चीज़ें कभी भी निर्वाण नहीं दिला सकती हैं। केवल अलेख के शरणागत होना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। 

‘चौतीसा मधुचक्र’ में मैंने ओड़िया भाषा के साथ अभिनव प्रयोग किए हैं। साधारण चौतीसा में वर्णमाला के प्रथम अक्षर से शुरू होकर अंतिम अक्षर तक कविता की पंक्तियाँ बनती है, मैंने इसमें उलटा कर दिया है। मेरी कविता वर्णमाला के अंतिम अक्षर से शुरू होती है और प्रथम अक्षर पर समाप्त। नवाक्षरी छंदों में लिखी हुई कविता मेरे भक्तों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी। इस कविता में मैंने ईश्वरीय अनुकंपा की आवश्यकता पर बल दिया है कि कलयुग में प्रत्येक आत्मा की सद्गति के लिए यह अत्यंत ज़रूरी है।” चौतीसा रसर केलि” और “चौतीसा मधुचक्र” मैंने महिमा-धर्म में आने से पहले लिखे थे। इन दोनों में लोक-मुहावरों का भरपूर प्रयोग है। इन कविताओं में मैंने कृष्ण से राधा के मिलन की तड़प दिखाई है। 

‘आदि अंत गीता’ मैंने शरीर के रहस्यों को आध्यात्मिक भाषा में उजागर किया है। जीव नारी का प्रतीक है तो ‘परम’ नर का। शरीर के अंगों के माध्यम से दस द्वार, सप्तद्वीप, नौ रत्न और दस सिद्धियों को दर्शाया है। इसके अतिरिक्त, इस कृति में पतिव्रता पत्नी के लक्षण और पुरुष-स्त्री की रतिक्रिया को आध्यात्मिक शैली में जीव के परमात्मा से मिलन के रूप में वर्णन किया है। 

इन प्रमुख कृतियों के अतिरिक्त, मैंने सैकड़ों भजनों की भी रचना की है। मुझे इन कविताओं के माध्यम से यश-कीर्ति की लिप्सा नहीं थी, केवल गुरु की आज्ञा के पालन हेतु मेरी अंतरात्मा से निकली स्फुट वाणी मेरी कविताएँ बन गईं। मेरी सारी रचनाएँ स्थानीय भाषा में हैं, जब तक इनका अनुवाद देश-विदेश की दूसरी भाषाओं में नहीं होता है तो महिमा धर्म का संदेश विश्व-व्यापी कैसे हो सकेगा? केवल ओड़िशा के भीतर ही सीमित रह जाएगा। मेरी क़तई अभिलाषा नहीं है कि मेरी इन कविताओं की वजह से मुझे कोई राजकीय सम्मान मिले, मेरे नाम के अनुष्ठान खोले जाएँ या मरणोपरांत मेरी कीर्ति अमर रहे। मुझे दुख इस बात का है कि आदिवासी कंध परिवार में जन्म लेने के कारण मेरी आलौकिक कृतियों को यहाँ की जनता सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेगी, मगर ये कृतियाँ किसी सवर्ण जाति वाले ने लिखी होती तो वे लोग उन्हें अपने सर-आँखों पर बिठा देते। 

आज भी मुझे अच्छी तरह याद है कि आठगढ़ के पास खूँन्टुणी में पहली बार मैंने अपना भजन गाया था, खंजणी और गिन्नी की धुन पर। उस समय लोगों को बहुत पसंद आया मगर वे ही लोग आज मेरी घोर उपेक्षा कर रहे हैं। पता नहीं क्यों, मैंने उनका ऐसा क्या बिगाड़ दिया? 

मेरे भजनों में अच्युतानंद, बलराम, कबीर, नानक, सूरदास की भक्ति के प्रगल्भ भाव देखे जा सकते हैं। पाठक मेरे भजनों में ‘राम’ और ‘कृष्ण’ शब्दों के अर्थ ‘अलेख निरंजन’ से ही लें, क्योंकि मेरे लिए राम और कृष्ण दोनों निराकारी निरंजन ही हैं। 

इस अध्याय में मैंने अपनी कृतियों के संदर्भ में संक्षिप्त विवेचना की हैं। पाठक इन्हें पढ़े और आत्म-बोध से अपने भीतर प्रकाश को प्रज्ज्वलित करें। इसी संदेश के साथ मैं अपनी क़लम को यहाँ विराम देता हूँ। अगले अध्याय में कुछ नए बिंदुओं पर प्रकाश डालूँगा। 

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